संविधान की प्रमुख विशेषताएं । “Key Features of the Constitution” in Hindi Language!

प्रत्येक संविधान की अपनी विशेषताएं होती है, जिन्हें देखकर उसकी सम्पूर्ण व्यवस्था के बारे में जानकारी हो सकती है । यही बात भारत के संविधान के बारे में कही जा सकती है, जो ‘हम भारत के लोगों’ ने ‘भारत के लोगों के लिए बनाया’ है । इन विशेषताओं को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है :

i. उयोजनशीलताएं (Derivations):

संविधान-निर्मातागण अपने देश की आवश्यकताओं लोगों की आकांक्षाओं तथा समकालीन परिस्थितियों से अवगत थे । अत: उन्होंने अन्य देशों के संविधानों की उन व्यवस्थाओं व संस्थाओं को लिया जो अपने देश के लिए उपयुक्त व उपयोगी हो सकती थीं ।

उदाहरण के लिए, ब्रिटेन की संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया तो सुप्रीम कोर्ट न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था अमरीका से ली गयी । कनाडा के नमूने का संघ शासन स्थापित किया गया तो निदेशक सिद्धान्तों का विचार आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया । ऐसी सभी व्यवस्थाओं व संस्थाओं का इस प्रकार समायोजन किया गया है कि उसे एक सुन्दर गुलदस्ते की उपमा दी जा सकती है ।

ii. निर्मित व लिखित संविधान:

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हमारा संविधान लम्बे विकास की देन नहीं है, जैसा हम ब्रिटिश संविधान के बारे में देखते हैं । संविधान सभा ने इसे बनाया है, जिसमें कुल 389 सदस्य थे, किन्तु देश के विभाजन के बाद उनकी संख्या घट गयी      थी ।

इसमें लगभग तीन वर्ष का समय लगा । इसके अतिरिक्त यह विश्व का सबसे अधिक लिखित संविधान है । प्रस्तावना के बाद इसमें 395 अनुच्छेद हैं, जो 22 भागों में समाहित हैं । अन्त में अनुसूचियां हैं, जिनकी संख्या पहले आठ थी किन्तु अब बारह है ।

iii. प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणतन्त्र:

इसने भारत को प्रभुतासम्पन्न राज्य बना दिया । अब भारत किसी विदेशी सत्ता के अधीन नहीं है । इसने लोकतान्त्रिक समाजवाद को मान्यता दी है, जिसका रूप इंग्लैण्ड के फेबियनवाद से मिलता-जुलता है । भारत में अनेक धर्म व मत हैं, अत: सभी को समान महत्त्व दिया गया है ।

भारत धर्मनिरपेक्ष है, अर्थात यहां धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता । देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था है । सत्ता जनता के पास है, जिसका प्रयोग उसके निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में है । शासन सीमित व उत्तरदायी है । राष्ट्रपति का पद निर्वाचित है, वह राज्य का अध्यक्ष है । अत: भारत गणतन्त्र है ।

iv. संसदीय शासन प्रणाली:

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भारत में संसदीय शासन प्रणाली है । इसलिए राष्ट्रपति को राज्याध्यक्ष बनाया गया है, जिसकी सत्ता नाममात्र की है । वास्तविक सत्ता मन्त्रिपरिषद् के पास है, जिसका अध्यक्ष प्रधानमन्त्री है, जो सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है ।

मन्त्रिपरिषद् तभी तक पदासीन रह सकता है, जब तक उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त है । ऐसी व्यवस्था राज्यों में भी है, जहाँ गवर्नर को अध्यक्ष बनाया गया है, किन्तु वास्तविक सत्ता मन्त्रिपरिषद् के पास है, जो सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है । 1976 के 42वें संविधान संविधान ने राष्ट्रपति को अपने मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्यकारी बना दिया ।

v. एकीकृत न्यायपालिका:

संघीय व्यवस्था में केन्द्र व प्रान्तों के बीच शक्तियों का विभाजन किया जाता है, ताकि दोनों सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में काम कर सकें । प्रान्तों की अपनी न्यायपालिका होती है, लेकिन भारत में सर्वोच्च न्यायालय को शिखर पर रखा गया है, राज्यों के उच्च न्यायालय उसके नीचे हैं ।

संसद अपने कानून से उच्च न्यायालयों के अधिकार-क्षेत्र का निर्धारण कर सकती है तथा सर्वोच्च न्यायालय किसी उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट सकता है । सर्वोच्च न्यायालय के निदेश देश की सभी अदालतों पर लागू होते हैं ।

vi. न्यायिक समीक्षा:

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सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों को यह शक्ति दी गयी है कि वे राज्य के किसी चुनौती दिये गये कानून या आदेश की समीक्षा करें तथा उसे असंवैधानिक होने की स्थिति में रह कर दें । चूंकि उच्च न्यायालय के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, अत: सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय अन्तिम है ।

vii. मौलिक अधिकार व कर्तव्य:

संविधान के तीसरे भाग में मौलिक अधिकारों की विस्तृत सूची दी गयी है । ये अधिकार छह प्रकार के हैं, जैसे-समानता का अधिकार स्वतन्त्रता का अधिकार शोषण के विरुद्ध अधिकार धर्म का अधिकार सांस्कृतिक व शैक्षिक अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार ।

1978 में, 44वां संविधान संशोधन हुआ जिसने सम्पत्ति के अधिकार को इस भाग में से निकाल दिया । ये अधिकार बाध्यकारी हैं, अत: न्यायालयों की सहायता से उनकी सुरक्षा की जा सकती है । यदि राज्य का कोई कानून या आदेश किसी मौलिक अधिकार का हनन करता है, तो उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में उसे चुनौती दी जा सकती है ।

असंवैधानिक होने की स्थिति में न्यायालय उसे रह कर सकता है । 1976 के 42वें संशोधन ने नागरिकों के मौलिक कर्तव्य वाला भाग जोड़ा है, अत: उनका कर्तव्य है कि राष्ट्रीय झण्डे व राष्ट्रगान का सम्मान करें संविधान का पालन करें मातृभूमि की रक्षा करें आदि ।

viii. सहयोगी संघवाद:

भारत में संघीय व्यवस्था है, जिसमें कनाडा की तरह सबल केन्द्र स्थापित किया गया है । राज्यों की स्थिति उतनी शक्तिशाली नहीं है, जैसी अमरीकी राज्यों या स्विस कैण्टनों की है । केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है । यदि कोई आपत्ति पैदा होती है, तो सुप्रीम कोर्ट की व्याख्यानुसार उसका निराकरण किया जा सकता है ।

यदि केन्द्र व राज्यों के बीच कोई कानूनी विवाद पैदा होता है, तो उसे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय द्वारा निपटाया जा सकता है । यह प्रयास किया गया है कि केन्द्र व राज्यों के बीच सहयोग व समन्वय बना      रहे । इसलिए कुछ विशेष व्यवस्थाएं की गयी हैं, जैसे-क्षेत्रीय परिषद् अन्तरराज्य परिषद् वित्त आयोग इत्यादि ।

ix. राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त:

संविधान के चौथे भाग में निदेशक सिद्धान्त दिये गये हैं, जिनका ध्येय भारत में सामाजिक व आर्थिक लोकतन्त्र स्थापित करना है ।

कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हैं-राज्य सभी को रोजगार के पर्याप्त अवसर जुटायेगा राष्ट्र के संसाधानों का सभी के हित में उपयोग किया जायेगा; समान कार्य के बदले में समान वेतन मिलेगा; काम की मानवीय दशाएं स्थापित की जायेंगी; सभी को काम व शिक्षा का अधिकार मिलेगा; सारे देश में समान नागरिक संहिता लागू होगी; लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा उठाया जायेगा; अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन-जातियों का कल्याण किया जायेगा; गौवध प्रतिबन्धित होगा; न्यायपालिका व कार्यपालिका का पृथक्करण होगा तथा भारत अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा की नीति अपनायेगा ।

ये सिद्धान्त अनिवार्य या न्याय-मान्य नहीं हैं, लेकिन यह अपेक्षा की जाती है कि राज्य उन्हें देश के प्रशासन में मूलभूत समझेगा ।

x. लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण:

मूल संविधान में केन्द्र व राज्यों के शासन के बारे में प्रावधान थे लेकिन 1992 के वे व वे संविधान संशोधनों ग्राम पंचायतों व नगरपालिकाओं को भी संवैधानिक दर्जा प्रदान किया है । 11वीं अनुसूची में नगरपालिकाओं को 18 कार्य दिये गये हैं । इससे विदित होता है कि अब धरातल पर लोकतन्त्र को सुनिश्चित किया गया है ।

xi. द्वि-सदनवाद:

संसद में दो सदन हैं । लोकसभा पहला या निचला सदन है, जिसके सदस्यों का जनता द्वारा प्रत्यक्ष तरीके से चुनाव किया जाता है । राज्यसभा दूसरा या उच्च सदन है, जिसके सदस्यों का राज्यों की विधानसभाओं द्वारा चुनाव किया जाता है ।

राज्यसभा स्थायी सदन है, जिसके एक-तिहाई सदस्यगण हर दो वर्ष बाद हट जाते हैं । लोकसभा का सामान्य कार्यकाल पांच वर्ष का है, जिसे आपातकाल में बढ़ाया जा सकता है । राष्ट्रपति किसी भी समय लोकसभा को  भंग कर सकता है ।

xii. लचीलेपन व कठोरता का विचित्र मिश्रण:

यदि संविधान की संशोधन प्रक्रिया बहुत सरल होती है, तो संविधान लचीला होता है । संसद अपने साधारण बहुमत से बिल पास करके संविधान संशोधन अधिनिययम बनाती है । इसलिए साधारण विधि तथा संवैधानिक विधि में अन्तर नहीं होता जैसा हम ब्रिटिश संविधान के बारे में देख सकते हैं । इसके विपरीत कठोर संविधान वह होता है, जिसकी संशोधन प्रक्रिया बहुत कठिन होती है ।

संशोधन का बिल संसद् से विशेष बहुमत अर्थात् दो-तिहाई बहुमत से पास होता है तथा हो सकता है कि बाद में उस पर लोकनिर्णय कराया जाये या संघीय व्यवस्था में उसका प्रान्तों द्वारा समर्थन भी हो । अमेरिका, कनाडा, स्विट्‌रजलैण्ड, फ्रांस व आस्ट्रेलिया के संविधान कठोर हैं ।

ऐसे देशों में साधारण विधि तथा संवैधानिक विधि के बीच स्पष्ट अन्तर होता है; क्योंकि उपरोक्त विधि को देश की उच्च विधि माना जाता है । भारत की स्थिति विचित्र है । संविधान के बहुत से प्रावधान संसद द्वारा निर्मित साधारण विधि से बदले जा सकते हैं जैसे-किसी राज्य मे, विधान परिषद् बनाना या तोड़ना संघ-शासित क्षेत्र को राज्य का दर्जा देना किसी राज्य का क्षेत्रफल या नाम बदलना आदि । लेकिन कुछ प्रावधान ऐसे हैं (जैसे-मौलिक अधिकार व राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त) जिनमें संशोधन के लिए बिल संसद केदोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पास होना चाहिए ।

फिर कुछ प्रावधान ऐसे हैं (जैसे-राष्ट्रपति का चुनाव, केन्द्र व राज्यों के विधायन के सम्बन्ध राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व आदि), जिनके संशोधन का बिल संसद के दोनों सदनों के पास होने के बाद कम-से-कम आधे राज्यों की विधानसभाओं द्वारा साधारण बहुमत से समर्थित हो जाये तब राष्ट्रपति संविधान संशोधन बिल को अनुमति देंगे ।

xiii. इकहरी नागरिकता (Single Citizenship):

जहां संघ-शासन होता है, वहां लोगों को सारे देश की एवं अपने प्रान्त की नागरिकता अर्थात् दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है, लेकिन भारत में सभी को इकहरी नागरिकता प्राप्त है । वह भारत का नागरिक है, किसी प्रान्त या प्रदेश का नहीं । संसद अपने कानून द्वारा नागरिकता की प्राप्ति या हानि की शर्तें निर्धारित कर सकती है ।

xiv. संकटकालीन धाराएं:

यदि देश या उसके किसी भाग पर संकट आ जाये या उसके आने की सम्भावना हो तो राष्ट्रपति अपनी संकटकालीन शक्तियों का प्रयोग कर सकता है । यदि युद्ध या बाहरी आक्रमण या किसी जगह सशस्त्र विद्रोह हो तो अनुच्छे 352 के तहत संकटकाल घोषित किया जा सकता है ।

ऐसी घोषणा सारे देश या उसके किसी भाग को प्रभावित करेगी । अनुच्छेद 356 के अनुसार भारत के किसी राज्य (जम्मू-कशमीर को छोडकर) में संकटकाल घोषित किया जा सकता है, यदि वही संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाये ।

अन्तिम अनुच्छेद 360 के तहत संकटकाल की घोषणा की जा सकती है, यदि भारत या उसके किसी भाग में देश की साख या वित्तीय स्थायित्व को खतरा हो । यह शक्तियां राष्ट्रपति को तानाशाह नहीं बनातीं क्योंकि वह अपने मन्त्रिपरिषद् की सलाह से काम करता है, जो लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है ।

हमारा संविधान हमारे राष्ट्र का आधार स्तम्भ है । 1950 में इसका उद्‌घाटन हुआ और तभी से चला आ रहा है । दुर्भाग्य की बात है कि वर्तमान समय में इसके क्रियान्वयन में गिरावट आयी है । राष्ट्रपति नारायणन ने ठीक कहा था : ”संविधान ने हमें विफल नहीं बनाया बल्कि हमने संविधान को विफल बनाया है ।” इस टिप्पणी के आधार पर सन् 2000 में, उन्होंने कहा : ”राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग (National Constitution Review Commission) बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है ।”

हमें डॉ॰ अम्बेडकर की इस शानदार टिप्पणी को याद रखना चाहिए : ”संविधान चाहे कितना ही बुरा क्यों न हो यह निश्चित रूप में अच्छा हो सकता है, यदि जिन लोगों को इसका क्रियान्वयन सौंपा गया है, वे अच्छे साबित होते हैं ।”

25 नवम्बर, 1949 को समापन समारोह में अपना भाषण देते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने ये महत्त्वपूर्ण शब्द कहे : ”यह संविधान कुछ व्यवस्थित करे या न करे लेकिन देश का कल्याण उन्हीं लोगों पर निर्भर होगा, जो इसके अनुसार प्रशासन करेंगे ।

यह आम कहावत है कि किसी देश को ऐसा ही प्रशासन मिलता है, जिसका वह पात्र होता है । यदि जिन लोगों को चुना जाता है, वे बहुत योग्य हैं व चारित्रिक अखण्डता वाले हैं, तो वे बुरे संविधान को भी अच्छा बनाकर दिखा सकेंगे लेकिन यदि उनमें ऐसी क्षमताओं का अभाव है, तो संविधान देश को नहीं बचा सकता ।

आखिरकार संविधान किसी मशीन की तरह निर्जीव जन्तु है । इसमें तभी सजीवता आती है, जब इसका क्रियान्वयन करने वाले इसे इन्त्रित करते व चलाते है । आज भारत को इससे बड़ी अन्य कोई आवश्यकता नहीं है कि ईमानदार लोग हों जो देश के हित को अपने समक्ष रखें ।”

 

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