संवैधानिक संशोधन | Constitutional Amendment in Hindi!

(1950 से 2013 तक):

संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951:

इस संशोधन को रोमेश थापर बनाम स्टेट आफ मद्रास (ए॰आई॰आर॰ 1951 एस॰सी॰ 124) ब्रजभूषण बनाम दिल्ली राज्य और मोतीलाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामलों में उच्चतम न्यायालय के विनिश्चियों से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए पारित किया गया था ।

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 के खण्ड (2) में निर्बन्धन के तीन नये आधार जोड़े गये जैसे : ‘लोक-व्यवस्था’ ‘विदेशी राज्य से मैत्री सम्बन्ध’ और ‘अपराध करने के लिए उत्पेरित करना’ । रोमेश थापर के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि ‘लोक-व्यवस्था’ के आधार पर नागरिकों के मूल अधिकारों पर निर्बन्धन नहीं लगाया जा सकता है: क्योंकि अनुच्छेद में यह आधार नहीं था ।

संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 (1) (छ) में एक व्याख्यात्मक खण्ड जोड़कर राज्य को व्यापार या कारोबार से नागरिकों को पूर्णत: अपवर्जित करके अपने पक्ष में एकाधिकार सृजित करने या किसी व्यापार का राष्ट्रीयकरण करके की शक्ति प्रदान की गयी है । इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 में दो नये अनुच्छेद अनुच्छेद 31 (अ) और 31 (ब) जोड़ा गया है । इसका उद्देश्य भूमि सुधार विधियों को संवैधानिक सैर क्षण प्रदान करना है ।

ADVERTISEMENTS:

नवम अनुसूची में समाविष्ट अधिनियमों की वैधता को इस आधार पर न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वे मूल अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं । अनुच्छेद 15 में एक नया खण्ड (4) जोड़कर राज्य के सामाजिक और शैक्षक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों की उन्नत्ति करने के लिए विशेष उपबन्ध बनाने का अधिकार प्रदान वार दिया है ।

इस खण्ड की आवश्यकता चम्पाकम दौरेराजन बनाम मद्रास राज्य में दिये गये निर्णय के कारण हुई थी । इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 85,87,174,176,341, 342 और 343 में संशोधन किये गये हैं ।

संविधान (द्वितीय संशोधन) अधिनियम 1952 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 18 (1) (ख) में संशोधन किया गया और संसद में राज्य के प्रतिनिधित्व को निर्धारित किया गया ताकि संसद–सदस्यों की संख्या 500 से अधिक न हो सके । एक संसद-सदस्य 7,50,000 व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व कर सकता है ।

संविधान (तृतीय संशोधन) अधिनियम, 1954 :

इस संशोधन के द्वारा समवर्ती सूची की र्वी प्रविष्टि में संशोधन किया गया । मूल रूप में इस प्रविष्टि में आवश्यक खाद्य पदार्थों के पूर्ण नियन्त्रण रखने की शक्ति केन्द्रीय सरकार को न होकर राज्यों को प्राप्त थी ।

ADVERTISEMENTS:

स्थिति बड़ी असन्तोषजनक थी । देश की खाद्य-समस्या बड़ी गम्भीर थी । खाद्य पदार्थों की आपूर्ति कम थी । इस समस्या के निराकरण के लिए इस संशोधन में उठवा प्रविष्टि के क्षेत्र को और भी विस्तृत कर दिया गया । केन्द्रीय सरकार को सभी प्रकार के आवश्यक पदार्थों के उत्पादन आपूर्ति  और वितरण पर पूर्ण नियन्त्रण की शक्ति प्रदान कर दी गयी ।

संविधान (चतुर्थ संशोधन) अधिनियम, 1955 :

इस संशोधन को बेला बनर्जी के मामले (ए॰आई॰आर॰ 1954 सुप्रीम कोर्ट 170) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने के लिए पारित किया गया था । न्यायालय ने उपर्युक्त वाद में यह अभिनिर्धारित किया था कि ठानुच्छे 31 के खण्ड (1) और (2) एक ही विषय अनवार्य वंचितीकरण से सम्बन्धित है, अतएव प्रतिकार देना आवश्यक है और ‘प्रतिकार’ शब्द का तात्पर्य उचित प्रतिकार है, अर्थात् उस सम्पत्ति के मूल के बराबर जिससे किसी को वंचित किया गया है ।

उक्त संशोधन द्वारा अनुच्छे 3 खण्ड (2) में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया है कि खण्ड (1) और (2) भिन्न-भिन्न विषयों से सम्बन्धित है, खण्ड (1) सम्पत्ति वंचितीकरण और खण्ड (2) अनिवार्य अर्जन से । इस संशोधन द्वारा यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि प्रतिकार केवल सम्पत्ति के अनिवार्य अर्जन के मामले में ही देय होगा ।

अनिवार्य अर्जन तभी होगा जब राज्य द्वारा सम्पत्ति का स्वामित्व ग्रहण किया जायेगा । प्रतिकार की पर्याप्तता के प्रश्न को अवाद योग्य बना दिया गया । संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 (अ) के क्षेत्र को विस्तृत किया गया और नवम सूची में अनेक आrधेनियमों को जोड़ा गया । अनुच्छेद 305 में संशोधन करके राज्य को किसी भी व्यापार का राष्ट्रीयकरण करने की शक्ति प्रदान कर दी गयी ।

संविधान (पांचवां संशोधन) अधिनियम, 1955 :

ADVERTISEMENTS:

इससे अनुच्छेद 3 में संशोधन किया गया है । मूल रूप में अनुच्छेद 3 के अधीन राज्य-पुनर्गठन से सम्बन्धित विधेयक को राज्यों को भेजकर उनका मत प्राप्त करने की व्यवस्था थी किन्तु इसके लिए कोई अवधि नियम न होने के कारण यह सम्भव था कि राज्य ऐसे विधेयक पर अपना मत अनिश्चित काल तक व्यक्त न करके उसको पारित होने से रोक दे ।

संशोधन द्वारा उस अवधि को नियत कर दिया गया है, जिसके भीतर राज्यों को अपना मत व्यक्त कर देना चाहिए । यदि वे उस अवधि के भीतर अपनी राय जाहिर नहीं करते तो विधेयक को संसद द्वारा पारित माना जायेगा ।

संविधान (छठा संशोधन) अधिनियम, 1956:

इस संशोधन द्वारा सातवीं अनुसूची की सूची 1 की प्रविष्टि 92 और सूची 2 की प्रविष्टि 55 में संशोधन किया गया । प्रारम्भ में प्रविष्टि 54 के अधीन राज्य को क्रय तथा विक्रय पर कर लगाने की शक्ति के अन्तर्गत अन्तर्राज्यिक क्रय तथा विक्रय पर कर लगाने की भी शक्ति आती थी ।

बम्बई बनाम यूनाइटेड मोटर्स लि॰ के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि राज्यों को आन्तरिक विक्रय पर कर लगाने की शक्ति प्राप्त है । राज्यों की इस शक्ति के प्रयोग से दोहरे करारोपण का भय था जिससे भारत सघ की आय पर प्रभाव पड़ता था ।

संशोधन द्वारा अन्तर्राज्यिक विक्रय पर कर लगाने को शक्ति केन्द्रीय सरकार को प्रदान कर दी गयी और इसके लिए सूची 1 में दी गयी प्रविष्टि 95 (क) और जोड़ी गयी । राज्य सूची की प्रविष्टि को इसके अधीन कर दिया गया ।

संसद की विधि बनाकर राज्य से बाहर अथवा आयात और निर्यात में ‘विक्रय’ की परिभाषा देने की शक्ति दे दी गयी । अनुच्छेद 286 में एक नया खण्ड 3 जोड़कर राज्य को अन्तर्राज्यिक वाणिज्य में महत्त्वपूर्ण वस्तुओं पर कर लगाने की शक्ति को  निर्बन्धित कर दिया गया ।

संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1955 :

इस संशोधन को राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 को कार्यान्वित करने के लिए पारित किया गया । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रथम अनुसूची, चतुर्थ अनुसूची और अनुच्छेद 1,80,81,82,153,158,171 और अनुच्छेद 239 से 241 में संशोधन किया गया ।

अनुच्छेद 1 में संशोधन करके राज्यों में चार श्रेणियों को समाप्त कर उन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया गया । इसके परिणामस्वरूप उक्त अनुच्छेदों में आवश्यक परिवर्तन किये गये । अनुच्छेद 131 में संशोधन करके उच्चतम न्यायालय के मौलिक क्षेत्राधिकार में परिवर्तन किये गये जो भाग ब वर्ग के राज्यों के समाप्त कर देने के कारण आवश्यक हो गये थे ।

उच्च न्यायालय के विषयों में निम्नलिखित संशोधन किये गये:

(1) अनुच्छेद 216 के परन्तुक जिनमें न्यायाधीशों की अधिकतम सख्या नियत की गयी थी को लुप्त कर दिया गया ।

(2) नये अनुच्छेद, अनुच्छेद 222 द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उच्चतम न्यायालय में वकालत करने की अनुमति दी गयी ।

(3) अनुच्छेद 224 द्वारा उच्च न्यायालय में अतिरिक्त और कार्यवाहक न्यायाधीशों की नियुक्ति का और 60 वर्ष की आयू पर उनकी सेवा-निवृत्ति का प्रावधान किया गया ।

(4) अनुच्छेद 230,231 में संशोधन करके उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को संघ राज्य क्षेत्रों को बढ़ा दिया और दो से अधिक राज्यों के लिए एक उच्च न्यायालय का उपबन्ध किया गया ।

इस संशोधन में निम्नलिखित नये अनुच्छेद जोड़े गये हैं :  अनुच्छेद 258 (अ), 298,290,350 (अ), 350 (ब) और 371 ।  अनुच्छेद 258 (अ) द्वारा राज्यों को उनके कार्यों को केन्द्रीय सरकार को सौंपने की शक्ति दी गयी । अनुच्छेद 298 द्वारा केन्द्र और राज्यों की कार्यपालिका शक्ति और भी विस्तृत कर दी गयी और उसे किसी व्यापार या कारोबार के करने भूमि के अर्जन और किसी उद्देश्य के लिए संविदा करने की शक्ति दी  गयी ।

अनुच्छेद 290 केरल और मद्रास राज्यों की संचित निधि से हिन्दू मन्दिरों और मूर्तियों के पोषण के लिए स्थापित किसी धार्मिक निधि से धन देने की शक्ति प्रदान करता हैं । अनुच्छेद 350 (अ) और 350 (ब) भाषायी अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण के लिए संविधान में जोड़े गये । अनुच्छेद 371 आन्ध्र प्रदेश के लिए क्षेत्रीय समितियों का प्रावधान करता है ।

सप्तम अनुसूची में कैन्द्रीय सूची की प्रविष्टि 33 और राज्य सूची की प्रविष्टि 36 के स्थान पर प्रविष्टि 42 रखी गयी, जिसके अधीन सरकार को राज्य के उद्देश्यों के लिए सम्पत्ति का अर्जन और अभिग्रहण करने को शक्ति प्रदान की गयी ।

संविधान (आठवां संशोधन) अधिनियम, 1960 :

इस संशोधन द्वारा विधानमण्डलों में, अनुसूचित जातियों अनुसूचित जन-जातियों और एंग्लो-इण्डियन के लिए स्थानों के रक्षण की अवधि को 10 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया गया । इसके लिए अनुच्छेद 334 में ’10 वर्ष’ शब्दावली के स्थान पर ’20 वर्ष’ शब्दावली को रखा गया । प्रारम्भ में उक्त समुदाय के नागरिकों के लिए स्थानों का रक्षण संविधान लागू होने की तारीख से 10 वर्ष के लिए ही थी ।

संविधान (नवां संशोधन) अधिनियम, 1960 :

इस संशोधन को उच्चतम न्यायालय द्वारा बेरूबारी के मामले (ए॰आई॰आर॰ 1960 सुप्रीम कोर्ट 855) में दिये परामर्श को कार्यान्वित करने के लिए पारित किया गया था ।

उक्त मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि भारत-भूमि को किसी विदेशी राज्य के अध्यर्पण के लिए संविधान में संशोधन करना आवश्यक है; फलत: प्रथम अनुसूची में आवश्यक परिवर्तन करके बेरूबारी क्षेत्र को पाकिस्तान को दे दिया गया ।

संविधान (दसवां संशोधन) अधिनियम, 1961 :

इस संशोधन द्वारा प्रथम अनुसूची में दो नये संघ राज्य क्षेत्र दादर और नागर हवेली जोड़े गये और एक नये अनुच्छेद 23 (अ) में इन संघ-क्षेत्रों में से किसी में विधानमण्डल और मन्त्रिपरिषद् की स्थापना करने का उपबन्ध किया गया ।

संविधान (ग्यारहवां संशोधन) अधिनियम, 1961 :

इस संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 71 में एक नया खण्ड खण्ड 4 जोड़ा गया है, जो यह उपबन्धित करता है कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव की वैधता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि अनुच्छे 54 और 55 में वर्णित निर्वाचक मण्डल पूर्ण नहीं है या उसमें कुछ स्थान रिक्त हैं । इस संशोधन को डॉ॰ खरे के मामले के पश्चात् पारित किया गया था । डॉ॰ खरे ने राष्ट्रपति के चुनाव को इसी आधार पर चुनौती दी थी ।

संविधान (बारहवां संशोधन) अधिनियम 1962 :

इस संशोधन द्वारा गोवा, दमन दीव के राज्य क्षेत्र को सघ राज्य क्षेत्र के रूप में प्रथम अनुसूची में सम्मिलित कर लिया गया ।

संविधान (तेरहवां संशोधन) अधिनियम 1962 :

यह संशोधन भारत सरकार और नागालैण्ड पीपुल्स कन्वेन्शन के नेताओं के बीच हुए समझौते को कार्यान्वित करने के लिए पारित किया गया था । समझौता नागालैण्ड को एक राज्य के रूप में मानने के लिए किया गया था ।

इससे संविधान में एक नया अनुच्छेद 371 (अ) जोड़ा गया जिसमें नागालैण्ड के प्रशासन के लिए कुछ विशेष प्रावधान हैं । ये अस्थायी प्रावधान तब तक के लिए थे जब तक कि नागालैण्ड को एक स्वतन्त्र राज्य घोषित न कर दिया जाये ।

संविधान (चौदहवां संशोधन) अधिनियम, 1962 :

इस संशोधन द्वारा पाण्डिचेरी को संघ राज्य क्षेत्र के रूप में प्रथम अनुसूची में जोड़ा गया है । एक नया अनुच्छेद 239 क जोड़ा गया जो इन संघ राज्य क्षेत्रों में विधानमण्डलों और मन्त्रिपरिषद् की स्थापना करने का उपबन्ध करता है ।

संविधान (पन्द्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 271 और 124 में संशोधन करके उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की सेवा-निवृत्ति आयु को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष कर दिया गया है और उनकी आयु के निर्धारण की प्रक्रिया भी संशोधित की गयी है ।

इस संशोधन को न्यायाधीश मित्तर के मामले से उत्पन्न समस्या के निराकरण के लिए पारित किया गया था । इसके द्वारा अनुच्छेद 222 में भी संशोधन किया गया है, जो यह उपबन्ध करता है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का किसी दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानान्तरण किया जा सकेगा और इसके लिए उन्हें वेतन के अतिरिक्त प्रतिकरात्मक भत्ता भी दिया जायेगा ।

नये अनुच्छेद 224 (क) के अधीन उच्च न्यायालयों के सेवा-निवृत्त न्यायाधीशों को उसी न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का उपबन्ध किया गया है । अनुच्छेद 226 में एक नया खण्ड (1-क) जोड़ा गया । इसके अधीन उच्च न्यायालय किसी सरकार प्राधिकारी या व्यक्ति के विरुद्ध निदेश या रिट जारी कर सकता है, भले ही ऐसे व्यक्ति उसके क्षेत्राधिकार सें न हों ।

यह संशोधन चुनाव आयोग बनाम वेंकटराव ए॰आई॰आर॰ 1953 सुप्रीम कोर्ट 210) के निर्णय का परिणाम था । इस संशोधन के पहले दिल्ली स्थित सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध केवल पंजाब उच्च न्यायालय ही रिट जारी कर सकता था । संशोधित अनुच्छेद 128 उच्च न्यायालय के सेवा-निवृत्त न्यायाधीशों को उच्चतम न्यायालय के तदर्थ न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अधिकार भी देता है ।

संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 297 में ‘महाद्वीपीय मग्नतट भूमि’ शब्दावली को जोड़ा गया । इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 311 (2) में परिवर्तन करके लोकसेवकों की सुनवाई के द्वितीय अवसर के क्षेत्र को परिसीमित कर दिया गया ।

संविधान (सोलहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 :

इसके द्वारा अनुच्छेद 19 खण्ड 2,3,4 में युक्तियुक्त निर्बन्धन तथा एक और नया आधार ‘भारत की प्रभुता और अखण्डता के हित में’ जोड़ा गया है । इसका उद्देश्य नागरिकों द्वारा पृथक्तावादी भाषणों को रोकना  है । इसी उद्देश्य से अनुच्छेद 84 और 173 तथा तृतीय अनुसूची में विहित शपथ के स्वरूप में संशोधन किया गया । संसद और राज्य के विधानमण्डलों के सदस्यों उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों तथा भारत के नियन्त्रक महालेखा परीक्षक को भारत की प्रभुता और अखण्डता को बनाये रखने की शपथ लेनी होगी ।

संविधान (सत्रहवां संशोधन) अधिनियम 1964 :

इसके द्वारा अनुच्छेद 31 (क) और नवम अनुसूची में संशोधन किया गया । इसका उद्देश्य केरल और मद्रास राज्य पारित भूमि सुधार अधिनियमों को सांविधानिक संरक्षण प्रदान करना है । उक्त दोनों अधिनियम नवम अनुसूची में जोड़ दिये गये, ताकि उसकी वैधता को न्यायालयों में चुनौती न दी जा सके ।

अनुच्छेद 31 (क) में ‘प्रयुक्त’ शब्द के क्षेत्र को विस्तृत कर दिया गया और उसमें कोई जागीर, इनाम या मुआफी या इसी प्रकार के अनुदान और मद्रास केरल राज्यों में ‘जन्मम् अधिकार’ और ‘रैम्‌यतवाड़ी भूमि’ को भी शामिल कर दिया गया है ।

संविधान (अठारहवां संशोधन) अधिनियम, 1966: 

इसके द्वारा अनुच्छेद 3 में एक व्याख्यात्मक खण्ड जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उसमें प्रयुक्त ‘राज्य’ शब्द के अन्तर्गत संघ राज्य क्षेत्र भी सम्मिलित हैं । इसका उद्देश्य पंजाब और हिमाचल प्रदेश संघ राज्य क्षेत्रों के पुनगयीन के लिए ससद को शक्ति प्रदान करना है ।

संविधान (उन्नीसवां संशोधन) अधिनियम, 1966: 

इसके द्वारा अनुच्छेद 324 में संशोधन करके चुनाव- आयोग से संसद और राज्य-विधानमण्डलों के सदस्यों के चुनाव सम्बन्धी विवादों को निपटाने की शक्ति को ले लिया गया और उसे उच्च न्यायालय को दे दिया गया है ।

संविधान (बीसवां संशोधन) अधिनियम, 1966:

इस अधिनियम ने संविधान में एक नया अनुच्छेद 233 (क) जोड़ा है, जिसका उद्देश्य उत्तर प्रदेश के कतिपय जिला न्यायाधीशों की नियुक्तियां तथा उनके द्वारा दिये गये निर्णय को विधिमान्य बनाना है ।  चन्द्रमोहन बनाम उत्तर प्रदेश (ए॰आई॰आर॰1966, एस॰सी॰ 1987) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने ‘उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय नियम’, जिसके अन्तर्गत कुछ नियुक्तियां की गयी थीं, को असंवैधानिक घोषित कर दिया ।

इस नियम के अन्तर्गत जिला न्यायाधीशों की नियुक्तियां उच्च न्यायालय के परामर्श से नहीं की गयीं र्थी, जैसा कि संविधान में उपबइप्स्धत है, वरन् राज्यपाल द्वारा गठित एक चयन-समिति द्वारा किये जाने का प्रावधान किया गया था । प्रस्तुत संशोधन उक्त निर्णय से उत्पन्न कठिनाइयों के निराकरण के लिए पारित किया गया था ।

संविधान (इक्कीसवां संशोधन) अधिनियम, 1966:

इसके द्वारा आठवीं अनुसूची में ‘सिंधी’ भाषा को जोड़ा गया है ।

संविधान (बाईसवां संशोधन) अधिनियम, 1969:

इसके द्वारा संविधान में दो नये अनुच्छेद 244 (क) और 341 (क) जोड़े गये हैं । अनुच्छेद 244 (क) द्वारा संसद को मेघालय को एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में स्थापित करने तथा उसके लिए विधानमण्डल और मन्त्रिपरिषद् का उपबन्ध करने की शक्ति प्रदान की गयी है । अनुच्छेद 371 क के अन्तर्गत ससद को नागालैण्ड राज्य के बारे में विशेष उपबन्ध बनाने की शक्ति प्रदान की गयी है ।

संविधान (तेइसवां संशोधन) अधिनियम, 1969 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 334 में संशोधन करके अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन-जातियों के संवैधानिक संरक्षण की अवधि को 10 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया गया । इसके लिए अनुच्छेद 334 में ’20 वर्ष’ के स्थान पर ’30 वर्ष’ शब्द रख दिया गया । प्रारम्भ में इन जातियों के लिए आरक्षण 10 वर्ष के लिए किया गया था । आठवें संविधान संशोधन द्वारा इसे 20 वर्ष कर दिया गया और अब प्रस्तुत संशोधन द्वारा इसे 30 वर्ष तक के लिए कर दिया गया है ।

संविधान (चौबीसवा संशोधन) अधिनियम, 1971 :

इस संशोधन को गोलकनाथ के मामले में दिये गये निर्णय से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए पारित किया गया था । गोलकनाथ के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि अनुच्छेद 368 में संविधान के संशोधन की केवल प्रक्रिया विहित है, संशोधन की शक्ति नहीं ।

संशोधन की शक्ति अनुच्छेद 245 में है । संवैधानिक संशोधन भी अनुच्छेद 13 के अन्तर्गत ‘विधि’ शब्द में शामिल है । यदि वे मूल अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं, तो उन्हें असंवैधानिक घोषित किया जा सकता    है ।  इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 368 में संशोधन किया गया ।

संशोधित रूप में अनुच्छेद 368 द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि इसमें संविधान-संशोधन करने की प्रक्रिया और शक्ति दोनों शामिल     हैं । इसने गोलकनाथ के मामले के प्रभाव को ही दूर नहीं किया बल्कि संशोधन शक्ति को और विस्तृत करने के लिए इन शब्दों को भी जोड़ दिया कि संशोधन की शक्ति में किसी उपबन्ध के जोड़ने परिवर्तित करने और निरसित करने की शक्ति भी शामिल है ।

अनुच्छेद 13 में एक नया खण्ड जोड़कर यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि अनुच्छेद 13 के अर्थान्तर्गत अनुच्छेद 368 के अधीन पारित सांविधानिक संशोधन ‘विधि’ नहीं है । केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के (वें संशोधन) अधिनियम को विधिमान्य घोषित किया है ।

संविधान (पचीसवां संशोधन) अधिनियम, 1971 :

इसे बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मामले ए॰आई॰आर॰ 1960, एस॰सी॰ 564) में दिये निर्णय से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए पारित किया गया था । इसके द्वारा अनुच्छेद 31 के खण्ड (2) में संशोधन करके ‘प्रतिकर’ शब्द के स्थान पर ‘राशि’ शब्द रखा गया है ।

‘प्रतिकर’ शब्द सर्वदा ही विवाद की जड़ रहा है । न्यायालयों ने इसका अर्थ ‘समान प्रतिकर’ अर्थात् ‘बाजार मूल्य’ से ही लगाया था । नये खण्ड (2-क) द्वारा यह  स्पष्ट कर दिया गया है कि अनुच्छेद 31 के अधीन पारित विधियों की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वे अनुच्छेद 19 में प्रदत्त मूल अधिकार का अतिक्रमण करते हैं ।

नया अनुच्छेद 31 (ग) यह उपबन्धित करता है कि अनुच्छेद 31 के खण्ड (ख) और (ग) में वर्णित निदेशक तत्त्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जायेगी कि वे अनुच्छे 14,19,31 में प्रदत्त अधिकारों से असगत हैं या उन्हें कम करती हैं या छीनती हैं । केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने इस संशोधन को विधिमान्य घोषित किया है ।

संविधान (छब्बीसवा संशोधन) अधिनियम 1971 :

इसे प्रिवीपर्स के माधव रावसिंधिया बनाम भारत संघ (एल॰आई॰आर॰ 1971 एस॰सी॰ 560) के मामले में दिये गये निर्णय की कठिनाइयों को दूर करने के लिए पारित किया गया था । इस मामले में न्यायालय ने राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये अध्यादेश को जिसके द्वारा भूतपूर्व राजाओं के विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया था असंवैधानिक घोषित कर दिया था ।

यह अभिनिर्धारित किया गया था कि प्रिवीपर्स सम्पत्ति है; अत: कार्यपालिका के आदेश द्वारा उससे किसी को वंचित नहीं किया जा सकता है । उक्त संशोधन द्वारा संविधान से दो अनुच्छेद 291 और 362 को निकाल दिया गया है, जो इन विषयों से सम्बन्धित थे और एक नया अनुच्छेद 363 (क) जोड़कर भूतपूर्व राजाओं के विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया है ।

संविधान (27वां संशोधन) अधिनियम, 1971 :

इस संशोधन को उत्तर-पूर्वी क्षेत्र पुनर्गठन योजना को कार्यान्वित करने के लिए पारित किया गया है । इसके द्वारा संविधान के दो अनुच्छेदों अनुच्छेद 239 (क) और 240 में संशोधन किया गया और दो नये अनुच्छेद अनुच्छेद 239 (ख) और 371 (ग) जोड़े गये ।

अनुच्छेद 240 मिजोरम और अरूणाचल संघ राज्य क्षेत्रों के लिए कतिपय विशेष उपबन्ध का प्रावधान करता है । अनुच्छेद 371 (ग) नये राज्य मणिपुर के लिए विधानसभा को समिति के गठन और उसके कार्यों तथा राज्यपाल के विशिष्ट उत्तरदायित्व का उपबन्ध करता है ।

संविधान (27वां संशोधन) अधिनियम, 1972 :

यह संशोधन भारतीय सिविल सर्विस (आई॰सी॰एस॰ के सदस्यों को उपलब्ध विशिष्ट विशेषाधिकारों को समाप्त करने के लिए पारित किया गया है । इसके लिए संविधान में एक नया अनुच्छेद अनुच्छेद 312 (क) जोड़ा गया जो संसद को उक्त सेवा में कार्यरत सदस्यों के विशेषाधिकारों को समाप्त करने की शक्ति प्रदान करता है ।

अनुच्छेद 314 को, जिसके अन्तर्गत ये विशेषाधिकार प्रदान किये गये थे संविधान से निकाल दिया गया है, किन्तु अनुच्छेद 312 (क) का प्रभाव उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों भारत के नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक और राज्य लोकसेवा आयोग और राज्य लोकसेवा आयोग के सदस्यों की सेवा शर्तों पर नहीं होगा ।

संविधान (29वां संशोधन) अधिनियम, 1972 :

इस संशोधन द्वारा नवम अनुसूची में दो और अधिनियम-केरल भूमि सुधार अधिनियम 1919 और केरल भूमि सुधार (संशोधन) अधिनियम 1971 जोड़े गये हैं ।  नवम अनुसूची में शामिल किये गये अधिनियमों की वैधता को मूल अधिकारों के अतिक्रमण के आधार पर न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है ।

संविधान (30वां संशोधन) अधिनियम 1972 :

इसके द्वारा संविधान के अनुच्छेद 133 में संशोधन किया गया और मालियत के आधार पर अपीलों को समाप्त कर दिया गया है । संशोधित अनुच्छेद के अधीन अब दीवानी-मामलों में उच्च न्यायालय के किसी निर्णय अन्तिम आदेशों के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिए मामले में कोई सार्वजिनिक महत्त्व का सारवान प्रश्न अन्तर्ग्रस्त होना न्ही पर्याप्त है ।

संशोधन से पूर्व वाद-विषय की राशि 20,000 रुपये से अधिक होने पर अधिकार के रूप में उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती थी चाहे मामले में कोई सारवान विधि का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त न भी हो । इस संशोधन की सिफारिश विधि-आयोग ने की थी ।

संविधान (31वां संशोधन) अधिनियम 1974 :

इसके द्वारा संविधान के अनुच्छेद 81 में संशोधन किया गया और लोकसभा के सदस्यों की संख्या को 525 से बढ़कर 545 कर दिया गया है ।

संविधान (32वां संशोधन) अधिनियम 1974 :

इसके द्वारा अनुच्छेद 371 में संशोधन किया गया और संविधान के अनुच्छेद 371 में एक नया अनुच्छेद 371 (ख) जोड़ा गया । नये अनुच्छेद 371 (ख) में अरखध्र प्रदेश के लिए कुछ विशेष प्रावधानों की व्याख्या की गयी ।

संविधान (33वां संशोधन) अधिनियम, 1974 :

यह संशोधन गुजरात में हुई घटनाओं का परिणाम है । वहां विधानसभा के सदस्यों को बलपूर्वक तथा डरा-धमकाकर विधानसभा से इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया गया था । इसके द्वारा अनुच्छेद 101 और 90 में यथोचित संशोधन किये गये हैं ।

संशोधित अनुच्छेद में यह उपबन्धित है कि संसद और राज्य-विधानमण्डल । के सदस्यों द्वारा दिये गये त्याग-पत्र को सभापति तभी स्वीकार करेगा, जब उसे इस बात का समाधान हो जाये कि त्याग-पत्र स्वेच्छा से दिया गया है ।

यदि उसे विश्वास हो जाये कि त्याग-पत्र स्वैइच्छक नहीं है या धमकी के कारण दिया गया है, तो वह उसे स्वीकार नहीं करेगा । मूल अनुच्छेद के अनुसार, ऐसे त्याग-पत्र सभापति को दिये जाने पर स्वत: प्रभावी हो जाते थे ।

संविधान (34वां संशोधन) अधिनियम, 1974 :

इस संशोधन द्वारा संविधान की नवीं अनुसूची में विभिन्न राज्यों द्वारा पारित अनेक सुधार अधिनियमों को सम्मिलित किया गया है । इन अधिनियमों को मिलाकर नवम अनुसूची में सम्मिलित अधिनियमों की कुल संख्या 86 हो गयी है ।

संविधान (35वां संशोधन) अधिनियम, 1974 :

यह संशोधन सिक्किम विधानसभा के जन-प्रतिनिधियों की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पारित किया गया था । सिक्किम विधानसभा ने एकमत से प्रस्ताव पारित करके भारत सरकार से यह निवेदन किया था कि वह सिक्किम की जनता के भारतीय संसदीय संस्थाओं में भाग लेने के लिए आवश्यक कदम उठाये ।

इसे कार्यान्वित करने के लिए संसद ने संविधान के अनुच्छेद 2 में एक नया अनुच्छेद क जोड़ा और अनुच्छेद 80 और 81 में यथोचित संशोधिन किया । अनुच्छेद क द्वारा सिक्किम भारत का एक सह राज्य (Associate State) बना दिया गया और अनुच्छेद 80 और 81 में संशोधन करके भारतीय ससद के दोनों सदनों में सिक्किम विधानसभा का एक-एक प्रतिनिधि भेजने का भी उपबन्ध किया गया ।

संविधान में एक नयी अनुसूची, अनुसूची 10 जोड़ी गयी । इसमें उन शर्तों और दशाओं का उल्लेख किया गया, जिसके आधार पर सिक्किम को भारत का सहराज्य बनाया गया तथा भारत का उसके प्रति क्या उत्तरदायित्व होगा, इसका भी उल्लेख किया गया है ।

किन्तु संशोधन में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि यद्यपि सिक्किम के प्रतिनिधि संसद के सदस्य होंगे, किन्तु वे राष्ट्रपति के चुनाव में भाग नहीं लेंगे । अन्य मामलों में वे भारतीय संसद के सदस्यों के समान ही होंगे । सिक्किम से भारतीय संसद में भेजे जाने वाले प्रतिनिधियों के निर्वाचन और नियन्त्रण का अधिकार भारतीय चुनाव-आयोग को होगा ।

संविधान (36वां संशोधन) अधिनियम, 1975:

इस संशोधन द्वारा सिक्किम को 22वें राज्य के रूप में भारत संघ में सम्मिलित कर लिया गया है । प्रथम अनुसूची में संशोधन कर सिक्किम को 22वें राज्य के रूप में शामिल कर लिया गया है और चतुर्थ अनुसूची में संशोधन करके सिक्किम को राज्यसभा में प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है । सिक्किम से एक प्रतिनिधि लोकसभा और राज्यसभा में भेजे जाने का उपबन्ध किया गया है ।

इसके द्वारा संविधान के 35वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़े गये उपबन्धों को लुप्त कर दिया है । इस संशोधन से संविधान में एक नया अनुच्छेद अनुच्छेद 241(छ) जोड़ा है, जिसमें सिक्किम के बारे में विशेष प्रावधानों का उल्लेख किया गया है । विशेष प्रावधानों में से राज्यपाल के विशेष उत्तरदायित्व से सम्बन्धित प्रावधान प्रमुख है । संशोधन के परिणामस्वरूप सिक्किम में राजतन्त्र की समाप्ति कर लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना की गयी है ।

संविधान (37वां संशोधन) अधिनियम 1975 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 239 (क) और 240 में संशोधन किया गया और अरूणाचल प्रदेश के लिए विधानसभा और मन्त्रिपरिषद् की स्थापना के लिए प्रावधान किया गया है ।

संविधान (38 वां संशोधन) अधिनियम 1975 :

इस संशोधन का उद्देश्य अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकालीन स्थिति की घोषणा करने में राष्ट्रपति के ‘समाधान’ के प्रश्न को अवाद योग्य (Non-justiciable) बनाना है । इसके लिए अनुच्छेद 352 में दो नये खण्ड (4) और (5) अनुच्छेद 359 में खण्ड क और अनुच्छेद 360 में एक नया खण्ड (5) जोड़ा गया है ।

खण्ड (4) यह उपबन्धित करता है कि इस अनुच्छेद द्वारा राष्ट्रपति को प्रदत्त शक्ति के अन्तर्गत विभिन्न आधारों पर भिन्न घोषणाएं करने की शक्ति भी शामिल है, चाहे खण्ड (1) के अधीन पहले से ही एक घोषणा प्रवर्तन में हो या नहीं ।

खण्ड (5) यह कहता है कि संविधान में किसी बात के होते हुए भी खण्ड (1) और (3) में वर्णित ‘राष्ट्रपति का समाधान’ अन्तिम और निश्चायक होगा और उसे किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जायेगी ।

इस संशोधन विधेयक को संसद में पेश करते हुए विधि मन्त्री ने कहा कि यद्यपि इन अनुच्छेदों की भाषा से यह स्पष्ट है कि मामले में राष्ट्रपति राज्यपाल और प्रशासक का वैयक्तिक समाधान ही अन्तिम है और संविधान-निर्माताओं की भी यही मंशा थी किन्तु इस विषय पर न्यायालयों में अनेक मुकद्दमे चल रहे हैं, जिनमें यह तर्क प्रस्तुत किये गये हैं कि यह प्रश्न न्यायालयों के लिए विचारणीय है ।

ऐसी स्थिति में सन्देह को दूर करने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता है । संविधान लागू होने के दिन से लेकर आज तक न्यायालय का मत यही रहा है कि उक्त अनुच्छेदों में वर्णित कार्यपालिका के प्रमुखों के वैयक्तिक समाधान अन्तिम हैं और उनकी जांच न्यायालय नहीं कर सकते हैं ।

संविधान (39वां संशोधन) अधिनियम 1975 :

इस संशोधन द्वारा राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति प्रधानमन्त्री और लोकसभा के अध्यक्ष के निर्वाचन-सम्बन्धी विवादों को न्यायालयों की अधिकारिता से परे कर दिया गया था । ऐसे विवादों की सुनवाई संसद की विधि द्वारा स्थापित एक जन-समिति द्वारा किये जाने का प्रावधान किया गया था संशोधन के पूर्व अनुच्छेद 71 के अधीन राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन-सम्बन्धीविवादों की जाच और विनिश्चय उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता में थे ।

प्रधानमन्त्री और सभापति इसमें शामिल नहीं थे । संशोधित अनुच्छेद 71 में प्रधानमन्त्री और सभापति भी शामिल कर दिया गया है । इस संशोधन द्वारा नवम अनुसूची में भी संशोधन किया गया और कुल मिलाकर 17 केन्द्रीय और राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित अधिनियमों को उसमें शामिल कर उन्हें न्यायालयों की अधिकारिता से परे कर दिया गया ।

इनमें से लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 लोक-प्रतिनिधित्व (संशोधन) अधिनियम 1974 निर्वाचन विधि (संशोधन) अधिनियम 1975 और आन्तरिक सुर क्षा बनाये रखने का अधिनियम 1971 प्रमुख हैं । इस संशोधन के पश्चात् नवम अनुसूची में कुल 144 अधिनियम हो गये हैं । इस संशोधन को 4 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा समाप्त कर दिया गया है ।

संविधान (40वां संशोधन) अधिनियम, 1976 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा 64 नये केन्द्रीय और राज्य के भूमि सुधार अधिनियमों को संविधान की नवम अनुसूची में समाविष्ट किया गया है । इस संशोधन के पश्चात् नवम अनुसूची में अधिनियमों की कुल संख्या 188 हो गयी है ।

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 297 को भी संशोधित किया गया है । संशोधित अनुच्छेद 297 ससद को समय-समय पर विधान बनाकर भारत के राज्य क्षेत्रीय सागर-खण्ड (Territorial Waters) महाद्वीपीय मग्नतट-समुद्र के नीचे की सब भूमियों (Continental Shelf) और आर्थिक क्षेत्र (Economic Zone) की सीमाओं को निर्धारित करने की शक्ति प्रदान करता है । संशोधन के पूर्व राज्य क्षेत्रीय सागर-खण्ड अर्घदे की सीमाओं का निर्धारण राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्‌घोषणा द्वारा किया जाता था ।

संविधान (41वां संशोधन) अधिनियम 1976 :

इस संशोधन द्वारा संविधान की पांचवी अनुसूची में जन-जातियों के विकास की दृष्टि से संशोधन किया गया है । इसके द्वारा लोकसेवा आयोग के सदस्यों की सेवा-निवृत्ति आयु को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष कर दिया गया है ।

संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम 1976 :

42वां संशोधन अधिनियम अब तक पारित सभी संशोधनों में सबसे विशद था । इसके द्वारा संविधान में 2 नये अध्याय (क) (14-क) और 9 नये अनुच्छेद (39-क, 43-क, 131-क,145-क,127-क,128-क और 257-क जोड़े गये थे तथा 52 अनुच्छेदों में संशोधन किया गया था ।

प्रस्तावना-इस संशोधन द्वारा प्रस्तावना में 3 नये शब्दों ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘समाजवादी’ तथा ‘राष्ट्र की अखण्डता’ को जोड़ा गया है । ये धाराणाएं संविधान में पहले से ही निहित थीं । प्रस्तुत संशोधन द्वारा उन्हें स्पष्ट कर दिया गया है ।

नीति-निदेशक तत्त्व:

अनुच्छेद 31-ग, जिसे 25वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया था संशोधन कर उसमें सभी नीति-निदेशक तत्त्वों को शामिल कर दिया गया है और इस प्रकार सभी नीति-निदेशक तत्त्वों को मूल अधिकारों पर प्राथमिकता प्रदान की गयी है । इस संशोधन द्वारा 3 नये नीति-निदेशक तत्त्वों को संविधान में शामिल किया गया है:

(1) समान न्याय और नि:शुल्क विधिक सहायता (अनुच्छेद 39-क),

(2) उद्योगों के प्रबन्ध में कर्मकारों का भाग लेना (अनुच्छेद 43-क),

(3) पर्यावरण (Environment) की रक्षा और सुधार तथा वन और वन्य जीवों की सुरक्षा (अनुच्छेद 48-क) ।

इसके द्वारा अनुच्छेद (39-च) में भी संशोधन किया गया है ताकि बच्चों के स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं तथा उनको शोषण से बचाने तथा नैतिक आर्थिक परित्याग के मामले में राज्य रचनात्मक भूमिका निभा सके ।

मूल कर्तव्य:

42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान के भाग 4 के पश्चात् एक नया अध्याय भाग 4 क के नाम से जोड़ा गया है, जिसमें नागरिकों के मूल कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है ।

संसद, कार्यपालिका और विधानमण्डल:

अनुच्छेद 55 में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि लोकसभा और राज्य-विधानसभाओं में स्थानों का आवण्टन केन्द्रीय और विधानसभा निर्वाचन-क्षेत्रों का विस्तार अनुसूचित जातियों एवं जन-जातियों के लिए स्थानों का आरक्षण आदि के प्रयोजनों के लिए ‘जनसंख्या’ से तात्पर्य सन् 1971 में की गयी जनसंख्या पर आधारित जनसंख्या है और यह सन् 2000 तक वैसे ही रहेगी ।

तदानुसार लोकसभा से सम्बन्धित अनुच्छेद 55 लोकसभा में अनुसूचित जातियों तथा जन-जातियों के लिए स्थान के आर क्षण के सम्बन्ध में अनुच्छेद 330 और 332 में संशोधन किया गया हैं । अनुच्छेद 74 में संशोधन कर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा ।

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 105 (3) और अनुच्छेद 194 (3) में संशोधन किया गया था जो यह उपबरइ-धत करता था कि संसद और विधानमण्डलों के प्रत्येक सदन की वही शक्तियां विशेषाधिकार और उम्मुक्तियां होगी जिन्हें ससद समय-समय पर विकसित करे । संशोधन के पूर्व संसद-सदस्यों को वे ही विशेषाधिकार उपलब्ध थे जो ब्रिटिश संसद-सदस्यों को संविधान लागू होने पर उपलब्ध थे ।

न्यायापालिका:

इस क्षेत्र में संशोधन अधिनियम ने 6 नये अनुच्छेद 32-क, 131-क,139-क, 144, 226,227, 228 क जोड़े तथा अनुच्छेदों 145,225,226,227,228 में संशोधन किये थे ।

उच्चतम न्यायालय: 

अनुच्छेद 139 क उच्चतम न्यायालय को महत्त्वपूर्ण मामलों को उच्च न्यायालय से अपने पास वापस मांगने की शक्ति प्रदान करता है । इसके अनुसार यदि भारत में महान्यायवादी के आवेदन पर उच्चतम न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि ऐसे मामले जिनमें समान या सारत: समान विधि के प्रश्न उच्चतम न्यायालय और एक या अधिक उच्च न्यायालयों या दो या अधिक न्यायालयों के समक्ष लम्बित हैं और ऐसे प्रश्न व्यापक महत्त्व के सारवान प्रश्न हैं तो उच्चतम न्यायालय ऐसे मामलों को अपने पास मंगा लेगा और उनका निपटारा स्वयं करेगा ।

इस प्रकार अनुच्छेद 139 क अनुच्छेद 131-क से अधिक विस्तृत है । अनुच्छेद 131-क के अधीन केवल उन मामलों को उच्च न्यायालयों से मगाया जा सकता था जिनमें केन्द्रीय विधि या केन्द्रीय एवं राज्य दोनों विधियों से सम्बन्धित प्रश्न व्य-तर्ग्रस्त हैं, जबकि अनुच्छेद 139-क के अधीन उन मामलों को उच्च न्यायालयों से मँगाया जा सकता है, जिसमें ‘व्यापक महत्त्व’ का प्रश्न अन्तर्गत है ।

इस अनुच्छेद का खण्ड (2) उच्चतम न्यायालय को यह शक्ति प्रदान करता है कि यदि वह न्याय करने के लिए उचित समझता है, तो उच्च न्यायालय में लम्बित या अपीलीय वाद को किसी अन्य उच्च न्यायालय को अन्तरित कर सकता है ।

अनुच्छेद 32-क, 131-क, 144 को इस संशोधन -द्वारा निरसित कर दिया गया है । मूल अनुच्छेद 226 के स्थान पर नया अनुच्छेद रखा गया था जो उच्च न्यायालय की अधिकारिता को कम करता था । इसके अधीन उच्च न्यायालयों को मूल अधिकारों का प्रवर्तन करने की अधिकारिता को यथावत् रखा गया था किन्तु ‘किसी अन्य प्रयोजन के लिए’ पदावली को लुप्त करके अन्य विधिक अधिकारों के उपचार प्रदान कराने की अधिकारिता समाप्त कर दी गयी थी ।

44वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 226 को मूल रूप में प्रतिस्थापित कर दिया गया है । अनुच्छेद 226 का खण्ड (4) उच्चतम न्यायालयों की अन्तरिम आदेश की शक्ति पर निर्क-धन लगाता है । इसके अनुसार खण्ड (1) के अधीन किसी याचिका में उच्च न्यायालय तब तक कोई ओदश जारी नहीं कर सकता जब तक कि: (क) याचिका के बारे में पक्षकार (सरकार) को सूचना न दे दी गयी हो (ख) पक्षकार को सुनवाई का अवसर न दे दिया गया हो ।

खण्ड (5) में खण्ड (4) का अपवाद है । इसके अनुसार यदि उच्च न्यायालय को इस बात का समाधान हो जाये कि याची को होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति धन के द्वारा नहीं की जा सकती है, तो वह खण्ड (4) की अपेक्षाओं से उसे अभिमुक्त (Exempted) कर देगा और आपवादक उपाय के रूप में अन्तरिम आदेश जारी कर सकेगा ।

किन्तु खण्ड (4) के अधीन प्रदत्त इस सीमित शक्ति का प्रयोग भी ऐसे मामलों में नहीं किया जा सकता है, जहां ऐसे आदेश का प्रभाव: (1) किसी लोक-महत्त्व को मामले में या परियोजना की निष्पादन कार्रवाई में,

(2) कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के मामले में, (3) किसी लोकोपयोगी संकर्म या परियोजना निष्पादन कार्रवाई में, (4) ऐसे किसी निष्पादन के लिए सरकार द्वारा किसी सम्पत्ति के अर्जन मैं विलम्ब की सम्भावना हो (खण्ड (6)) । खण्ड (4) को संशोधित रूप में खण्ड (3) के रूप में रखा गया है और अन्तरिम आदेश जारी करने की प्रक्रिया को सरल बना दिया गया है ।

अनुच्छेद 225,227 और 228 को 43वें संशोधन द्वारा मूल रूप में ला दिया गया है । वे संशोधन द्वारा अनुच्छेद 228 (क) को निरस्त कर दिया गया है ।

केन्द्र और राज्य के सम्बन्ध:

42वें संविधान-संशोधन ने संविधान में एक नया अनुच्छेद 2 (क) जोड़ा था जिसके अधीन केन्द्रीय सरकार को किसी राज्य में ‘विधि और व्यवस्था की गम्भीर परिस्थिति’ का सामना करने के लिए सैघ के सशस्त्र बल या किसी अन्य बल को भेजने की शक्ति प्रदान की गयी थी । इस अनुच्छेद को अब निरसित कर दिया गया है ।

इस संशोधन अधिनियम ने संविधान की सप्तम अनुसूची को भी संशोधित किया है और निम्नलिखित विषयों को राज्य सूची से निकाल कर समवर्ती सूची में शामिल किया है:

(1) न्याय-प्रशासन उच्चतम न्यायालय उगैर उच्च न्यायालय को छोड्‌कर सब न्यायालयों का गठन और संगठन

(2) शिक्षा

(3) बाट और माप

(4) वन

(5) वन्य प्राणियों और पक्षियों की रक्षा

लोकसेवाएं:

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 311 के उपखण्ड (2) में संशोधन कर लोकसेवकों की जाच के दूसरे प्रक्रम (Stage) में उनके विरुद्ध आरोपित की जाने वाली शास्ति के विरुद्ध अभ्यावेदन के अधिकार को समाप्त कर दिया गया है । अनुच्छेद 312 में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना का उपबन्ध किया गया है । इसके अन्तर्गत जिला न्यायाधीश के पद से नीचे का कोई पद शामिल नहीं

होगा ।

इस प्रयोजन के लिए निर्मित विधि को अनुच्छे 368 के प्रयोजनों के लिए संविधान का संशोधन करने वाली विधि नहीं माना जायेगा । इन सेवाओं से सम्बन्धित विवादों के निपटारे के लिए अनुच्छे 323 (क) के अन्तर्गत अधिकरणों की स्थापना का उपबन्ध किया गया है । अधिकरण-४२वें संविधान अधिनियम द्वारा संविधान में एक नया भाग 1 क जोड़ा गया है । इसमें दो नये अनुच्छेद (323-क और 232-ख) है ।

प्रशासनिक अधिकरण (अनुच्छेद 323-क) :

इस अनुच्छे के अन्तर्गत संघ तथा राज्यों के अधीन लोकसेवकों और पदों के लिए भर्ती और नियुक्त व्यक्ति की सेवा की शर्तों के बारे में विवादों और परिवादों के न्याय-निर्णय या विचारण के लिए ससद की विधि द्वारा प्रशासनिक अधिकरणों की स्थापना का उपबन्ध करने की शक्ति की दी गयी है । संघ और राज्यों के लिए अलग-अलग अधिकरण या दो या अधिक राज्यों के लिए एक अधिकरण की स्थापना की जा सकती है ।

अन्य विषयों के लिए अधिकरण (अनुच्छेद 323-ख) :

यह अनुच्छेद समुचित विधानमण्डल को खण्ड (2) में उल्लिखित विषयों से सम्बन्धित विवादों परिवादों या अपराधों या अपराधों के न्याय-निर्णय या विचारण के लिए अधिकरणों की स्थापना की शक्ति प्रदान करता

है । खण्ड (2) में निम्नलिखित विषय आते हैं:

(1) कर सम्बन्धी विवाद

(2) विदेशी मुद्रा और आयात-निर्यात

(3) औद्योगिक और श्रमिक विवाद

(4) भूमि सुधार विधियां

(5) नगर सम्पत्ति अधिकतम सीमा सम्बन्धी विवाद

(6) संसद और राज्य-विधानमण्डलों के सदस्यों के निर्वाचन विवाद

(7) आवश्यक खाद्य-वस्तुओं के उत्पाद, उत्पत्ति, प्रदाय, वितरण या मूल्य-नियन्त्रण सम्बन्धी विवाद

(8) उपखण्ड (1) से (2) तक में वर्णित विषयों से सम्बद्ध विधियों के विरुद्ध अपराध और फीस आदि के विषय

(9) उपखण्ड (1) से (7) में वर्णित विषयों में से किसी आनुषंगिक विषय के बारे में विवाद

संसद विधि द्वारा ऐसे अधिकरणों की अधिकारिता शक्तियों तथा उनके द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया आदि को विहित करेगी । इन विषयों पर उच्च न्यायालयों को क्षेत्राधिकार नहीं होगा । उच्चतम न्यायालय केवल अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत इनके निर्णय के विरुद्ध अपील सुन सकता है ।

आपात उपबन्ध: 

42वें संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 352,353,356,357,358 और 359 में संशोधन किये गये हैं । अनुच्छेद 352 में सम्पूर्ण भारत के सम्बन्ध में या उसके किसी भाग में शब्दों को जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आपात-उद्‌घोषणा देश के एक भाग में भी लागू की जा सकती है ।

इसके पूर्व उसका प्रभाव सम्पूर्ण देश पर होता था । इसीलिए खण्ड (2-क) में ‘प्रतिसंहत’ के पश्चात् ‘परिवर्तित’ शब्द जोड़ दिया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि यदि किसी भाग में स्थिति में सुधार हो गया है, तो उस भाग से आपात स्थिति हटायी जा सकती है और शेष भाग में लागू रह सकती है ।

अनुच्छेद 352 में किये गये परिवर्तन के परिणामस्वरूप अनुच्छेद 353,358,359 में एक नया परन्तुक जोड़ा गया है । इस परन्तुक द्वारा संसद को यह शक्ति दी गयी है कि वह उस भाग पर भी आपात सम्बन्धी कानून लागू कर सके, जो उस राज्य से भिन्न है, जिसमें आपात उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है, यदि इस भाग की गतिविधियों से भारत के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है । अनुच्छेद 356 में ‘6 महीने’ शब्दों के स्थान पर ‘एक वर्ष’ शब्दों को रखा गया है ।

इसका तात्पर्य यह है कि अब राज्यों में राष्ट्रपति शासन की प्रारम्भिक अवधि एक वर्ष की होगी । अनुच्छेद 6,327 के खण्ड (2) के स्थान पर एक नया खण्ड रखा गया है, जो उस कानून को बचाने के लिए है, जो अनुच्छे 356 के अन्तर्गत पहले से ही प्रवर्तन में है ।

संविधान संशोधन: 

42वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 368 में दो नये खण्ड खण्ड (4) और खण्ड (5) जोड़े गये थे । खण्ड (4) यह उपबन्धित करता था कि अनुच्छेद 368 के अधीन किये गये किसी संशोधन को किसी भी न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जायेगी कि वह इस अनुच्छेद द्वारा विहित प्रक्रिया के अनुसरण में पारित नहीं किया गया था ।

खण्ड (5) सन्देह के निवारण के लिए यह घोषित करता था कि इस अनुच्छेद के अन्तर्गत संविधान के उपबन्धों को जोड़ने परिवर्तित करने या निरसन करने के लिए संशोधन की शक्ति को सर्वशक्तिमान बनाना     था । इसके द्वारा केशवानन्द भारती के विनिश्चय से उत्पन्न कठिनाई को  दूर करना था जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया था कि संसद संविधान संशोधन की शक्ति का प्रयोग संविधान कें ‘बुनियादी ढांचे’ में परिवर्तन के लिए नहीं कर सकती ।

मिनर्वा मिल्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने खण्ड (4) और (5) को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया है कि वह संविधान-संशोधन शक्ति को असीमित करके संविधान के बुनियादी ढांचे को नष्ट करता है । कठिनाइयां दूर करने की राष्ट्रपति की शक्ति-संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा संविधान को कार्यान्वित करने में कई कठिनाइयों को दूर करने के लिए आवश्यक आदेश जारी करने की शक्ति दी गयी है ।

यह नया खण्ड यह उपबंधत करता है कि यदि इस अधिनियम द्वारा यथासंशोधित संविधान के उपबन्धों को प्रभावी बनाने में कोई कठिनाई उत्पन्न होती है, तो राष्ट्रपति आदेश द्वारा ऐसे उपबन्ध कर सकेगा जिसके अन्तर्गत संविधान के किसी उपबन्ध के अनुकूलन या उपभेदन की शक्ति भी शामिल है, जो वह ऐसी कठिनाई को दूर करने के प्रयोजन के लिए आवश्टाक या समीचीन समझे ।

परन्तु ऐसा कोई भी आदेश ऐसी अनुमति की तारीख से दो वर्ष की समाप्ति के पश्चात् नहीं दिया जायेगा । इस खण्ड की अवधि 2 वर्ष की होगी । इस अनुच्छेद के अन्तर्गत राष्ट्रपति के आदेश द्वारा भी संविधान का संशोधन किया जा सकता है ।

इस प्रकार के उपबन्ध की आवश्यकता तब पड़ती है, जब पुराने संविधान के स्थान पर नया संविधान लागू किया जाता है, यदि संशोधन शीघ्रता से पारित किये जाते हैं और विधानमण्डल में बहस के लिए समुचित अवसर नहीं होता है ।

किन्तु प्रस्तुत संवैधानिक संशोधन पर देश भर में बहस हुई थी और संशोधन को पारित करने के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया गया था जिस पर काफी विस्तार से बहस की गयी थी । अतएव इस प्रकार के खण्ड की कोई आवश्यकता नहीं थी ।

संविधान (43वां संशोधन) अधिनियम, 1977 : 

43वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1977 में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा जोड़े गये अनुच्छेद 31-ग, 32-क, 131-क और 228-क अनुच्छेदों को निकाल दिया गया है और इस प्रकार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की अधिकारिता को पुन: उन्हें प्रदान कर दिया गया है । इसलिए अनुच्छेद 145, 228 और 366 में परिणामिक संशोधन भी किये गये हैं ।

संविधान (44वें संशोधन) अधिनियम, 1978 :

इस संशोधन अधिनियम को जनता सरकार ने कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में किये गये अवांछित परिवर्तनों को समाप्त करने के लिए पारित किया है । जनता सरकार इसके लिए जनता के प्रति वचनबद्ध थी ।

प्रस्तुत संशोधन अधिनियम संविधान में 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा की गयी विकृतियों को दूर करने केसाथ-साथ आपात उपबन्धों में भारी परिवर्तन कर इस शक्ति का कार्यपालिका द्वारा भविष्य में दुरुपयोग को रोकने का भी प्रयास करता है ।

42वें संशोधन के समान यह संशोधन अधिनियम भी एक विशद विधान है, जिसमें कुल मिलाकर 49 खण्ड है । मूल रूप में इसमें 54 खण्ड थे किन्तु राज्यसभा ने (जिसमें कांग्रेस पार्टी का बहुमत था) कुछ खण्डों को स्वीकार नहीं किया था ।

संसद, कार्यपालिका और राज्य विधानमण्डल:

इस संशोधन अधिनियम ने संविधान के अनुच्छेद 83,172 और 317-च में संशोधन करके लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की अवधि को पुन: 5 वर्ष कर दिया जिसे एवं संशोधन में 6 वर्ष कर दिया गया था । संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 103 और 172 क में संशोधन करके संसद और राज्य विधानमण्डलों के सदस्यों की अनर्हता विषयक प्रश्न के मामले को पुन: 42वें संशोधन के पूर्व की स्थिति में कर दिया है ।

मूल अनुच्छेद 103 और 193 में इस प्रश्न पर विनिश्चय देने की शक्ति राष्ट्रपति और राज्यपाल को प्राप्त थी जिसे अपना विनिश्चय निर्वाचन आयोग की सलाह से करना होता था । वह, संशोधन ने निर्वाचन आयोग की सलाह को समाप्त कर दिया था ।

अनुच्छेद 118 में संशोधन किया गया है और अनुच्छेद 100 (3) (4) और 189 (4), जिसे लुप्त कर दिया गया था पुन: प्रतिस्थापित कर दिया गया है । अब गणपूर्ति का निर्धारण संविधान द्वारा किया जायेगा, जैसा कि मूल अनुच्छेदों में उपबइप्श्ग्त था ।

अनुच्छेद 102 (1) में ‘लाभ के पद’ के सम्बन्ध में किया गया संशोधन रह कर दिया गया है और मूल अनुच्छेद प्रतिस्थापित कर दिया गया है । 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इस सम्बन्ध में न्यायालयों की अधिकारिता छीन ली गयी थी ।

यह संशोधन इस सम्बन्ध में न्यायालयों को पुन: अधिकार प्रदान करता है । इसी प्रकार अनुच्छेद 191 (1) में जो राज्य विधानमण्डल से सम्बन्धित है, संशोधन करके ‘लाभ के पद’ के निर्धारण के प्रश्न पर न्यायालयों को अधिकारिता प्रदान कर दी गयी है ।

संशोधन अधिनियम के अनुच्छेद 105 (3) और 194 (3) में संशोधन करके मूल अनुच्छेदों को प्रतिस्थापित किया है, किन्तु इस संशोधन के साथ कि अब भविष्य में संसदीय विशेषाधिकारों के सम्बन्ध में ब्रिटिश संसद के विशेषाधिकारों का हवाला नहीं दिया जायेगा ।

इसी कारण उपर्युक्त अनुच्छेदों में : ‘अन्य मामले में वे होंगे, जो ब्रिटिश संसद और उनके सदस्यों के इस संविधान के प्रवर्तन पर उपलब्ध थे’ : की पदावली के स्थान पर: ‘अन्य मामले वे होंगे, जो उस सदन और उनके सदस्यों या समितियों के वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 के तुरन्त पूर्व थे’ : की पदावली कर दी गयी है ।

44वें संविधान संशोधन में अनुच्छेद के 371 के पश्चात् एक नया अनुच्छेद 371-क जोड़ा गया है । यह अनुच्छेद संसद की कार्रवाईयों के प्रकाशन को संविधान का संरक्षण प्रदान करता है । कोई भी व्यक्ति जो संसद या राज्य-विधानमण्डल की कार्रवाईयों की सही रिपोर्ट प्रकाशित करता है, उसके विरुद्ध किसी सिविल या आपराधिक न्यायालय में कोई कार्रवाई नहीं चलाई जा सकती है, जब तक कि यह सिद्ध न हो जाये कि प्रकाशन दुर्भावना से किया गया है ।

यह विमुक्ति बेतार यन्त्रों से किये गये प्रकाशनों को भी प्राप्त होगी किन्तु यह विमुक्ति सदन की गोपनीय कार्रवाईयों को प्राप्त नहीं होगी । अभी तक इस विमुक्ति का विनियमन संसदीय विशेषाधिकार (प्रकाशन संरक्षण) अधिनियम 1956 के अधीन किया जाता था ।

अब संविधान में समाविष्ट करके इस विमुक्ति को काफी सुदृढ़ बना दिया गया है । उक्त विमुक्ति राज्य विधानमण्डलों के सम्बन्ध में भी लागू होगी । पहले उक्त अधिनियम केवल संसद की कार्रवाईयों के सम्बन्ध में लागू होता था ।

कार्यपालिका:

अनुच्छेद 71 को पुन: अपने मूल रूप में कर दिया गया है और राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन विवादों के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय को अधिकारिता प्रदान कर दी गयी है ।  42वें संशोधन ने इस प्रश्न पर न्यायालय की अधिकारिता को समाप्त कर दिया था ।

42वें संशोधन ने, अनुच्छेद 74 में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य होगा । वे संशोधन में इस संशोधन को बनाये रखा गया है, किन्तु उसमें एक नया परन्तुक जोड़ा है, जो यह उपबन्धित करता हैकि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल को अपनी सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए लौटा सकता है, किन्तु पुनर्विचार के पश्चात् वह उस सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होगा ।

इस प्रकार यह संशोधन राष्ट्रपति को एक सीमित अधिकार प्रदान करता है । वह मन्त्रिमण्डल को अपनी सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है । इसका उद्देश्य 1975 की घटना की पुनरावृत्ति को रोकना है, जबकि राष्ट्रपति को केवल प्रधानमन्त्री की सलाह पर आपात-उद्‌घोषणा पर हस्ताक्षर करना पड़ा था जिस पर मन्त्रिमण्डल का अनुमोदन नहीं किया गया था ।

42वें संविधान के अनुच्छेद 77 और 165 में एक नया खण्ड (4) जोड़कर सरकार के कारोबार को चलाने के लिए निर्मित नियमों को न्यायालय के समक्ष पेश किये जाने की शक्ति को न्यायालयों से ले लिया था । वौ अधिनियम खण्ड (4) को उपर्युक्त अनुच्छेदों से लुप्त करता है और न्यायालयों को इस प्रश्न पर पुन: अधिकारिता प्रदान करता है ।

42वें संविधान संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 123, 213 और 239-ख में एक नया खण्ड (4) जोड़कर राष्ट्रपति राज्यपाल या प्रशासन के अध्यादेश जारी करने के विषय में निर्णय को अन्तिम और निश्चायक बना दिया था । वा संशोधन अधिनियिम उपर्युक्त अनुच्छेदों से खण्ड (4) को लुप्त करता है और इस सम्बन्ध में ४२वें संशोधन के पूर्व की स्थिति को बनाये रखता है ।

उच्चतम और उच्च न्यायालय:

44वां संशोधन अधिनियम अनुच्छे 13, 133 और 134 को संशोधित करता है और उच्च न्यायालयों से उच्चतम न्यायालय में अपील के मामले में जो विलम्ब होता था उसको समाप्त करने का प्रयास करता है ।

उपर्युक्त अनुच्छेदों के अधीन किसी मामले में उच्चतम न्यायालय में अपील तभी होती है, जबकि उच्चतम न्यायालय इसका प्रमाण-पत्र दे दे कि मामला अपील के योग्य है ।

वौ संशोधन अधिनियम एक नया अनुच्छेद 1 क जोड़कर उच्च न्यायालयों को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह अनुच्छेद 132,133 और 134 (1) के अधीन या तो स्वयं (Suo moto) या व्यथित पक्षकार के मौखिक आवेदन पर अपने निर्णय के तुरन्त पश्चात् उच्चतम न्यायालय में अपील करने का प्रमाण-पत्र प्रदान कर दे ।

अनुच्छेद 132 से खण्ड (3) लुप्त कर दिया गया है, फलत: अनुमति से अपील के मामले अब आत्यन्तिक रूप से अनुच्छेद 136 के अधीन विनियमित होंगे । अनुच्छेद 139 क जिसे वे संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया है:

‘किन्हीं परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय को उच्च न्यायालयों से मामलों को वापस लेने और स्वयं निपटारा करने की शक्ति प्रदान करता है’: इसे बनाये रखा गया है, किन्तु इनमें संशोधन किया गया है । 44वें संशोधन के पूर्व उच्चतम न्यायालय ऐसा केवल एटार्नी जनरल के आवेदन पर ही कर सकता था । अथवा संशोधन अधिनियम उच्चतम न्यायालय को किसी प्रकार के आवेदन पर और स्वयं भी ऐसा करने की शक्ति प्रदान करता है ।

44वां संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 217 के खण्ड (2) के उपखण्ड ग को लुप्त करता है, जिनके अधीन उच्च न्यायालयों में ‘पारंगत विधिवेत्ता’ के न्यायाधीश नियुक्त करने का उपबन्ध किया गया था । अनुच्छेद 225 मूल रूप में उच्च न्यायालयों को राजस्व केमामले में अधिकारिता प्रदान करता था ।

वे संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा न्यायालयों की शक्ति को समाप्त कर दिया गया था । वा संशोधन अधिनियम न्यायालयों को राजस्व मामलों में पुन: अधिकारिता प्रदान करता है । अनुच्छेद 226 को पुन: मूल रूप में रखा गया है, किन्तु इसमें अन्तरिम आदेश जारी करने के उपबन्ध को सरल बना दिया गया है ।

वे संशोधन ने खण्ड (3) जोड़कर यह उपबन्धित किया है कि जब अन्तरिम आदेश किसी पक्षकार के विरुद्ध एकतरफा (Exparte) जारी किया गया है, तो वह पक्षकार उच्च न्यायालय में उसे रह करने के लिए आवेदन दे सकता है ।

ऐसे आवेदन का निपटारा न्यायालय को 2 सप्ताह के भीतर करना पड़ेगा । यदि न्यायालय उक्त अवधि के भीतर उसका निपटारा नहीं करता, तो 2 सप्ताह की अवधि की समाप्ति पर वह आदेश प्रवर्तन में नहीं    रहेगा ।

प्रस्तुत संशोधन उच्च न्यायालय की ‘न्यायाधिकरणों’ (Tribunals) पर नियन्त्रण और निरीक्षण की शक्ति को पुन: प्रदान करता है, जिसे 42वें संशोधन ने समाप्त कर दिया था फलत: अनुच्छेद 227 में ‘न्यायाधिकरण’ शब्द पुन: समाविष्ट कर दिया गया है ।

आपात-उपबन्ध:

 44वें संविधान ने आपात उपबन्धों में अनेक महत्त्वपूर्ण संशोधन किये ताकि 1975 में घटित घटनाओं की भविष्य में पुनरावृत्ति न हो सके । अनुच्छेद 352 में आगे दिये संशोधन किये गये हैं : 1. अनुच्छेद 352 (1) ‘आभ्यन्तरिक अशान्ति’ पदावली के स्थान पर ‘सशस्त्रविद्रोह ‘ पदावली रखी गयी है । आपात उद्‌घोषणा ‘सशस्त्र विद्रोह’ से आन्तरिक अशान्ति होने पर ही की जा सकेगी ।

2. राष्ट्रपति आपात की उद्‌घोषणा तभी करेगा जब उसे मन्त्रिमण्डल का विनिश्चय लिखित रूप से संसूचित किया जायेगा अर्थात् राष्ट्रपति आपात की उद्‌घोषणा मन्त्रिमण्डल की सलाह पर करेगा? केवल प्रधानमन्त्री की सलाह पर नहीं जैसा कि 1975 में किया गया था (खण्ड (3)) ।

3. आपात उद्‌घोषणा का अनुमोदन 1 माह के भीतर (पहले 3 माह था) होना आवश्यक होगा । अनुमोदन का संकल्प प्रत्येक सदन का सदस्यों के बहुमत से और उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि 1 माह के भीतर संसद द्वारा अनुमोदन नहीं किये जाने पर उद्‌घोषणा प्रवर्तन में न रहेगी (खण्ड (4)) ।

4. ससद के अनुमोदन के पश्चात् आपात उद्‌घोषणा 6 माह के लिए प्रवर्तन में रहेगी । 6 माह से अधिक अवधि के लिए उद्‌घोषणा का प्रवर्तन संसद के पुन: अनुमोदन पर ही किया जा सकेगा । वर्तमान में एक बार संसद का अनुमोदन प्राप्त हो जाने पर आपात उद्‌घोषणा अनिश्चित काल तक प्रवर्तन में रह सकती थी । इस शक्ति को अब कार्यपालिका से लेकर विधायिका को दै दिया गया है । प्रत्येक 6 माह पर संसद इसका पुनर्विलोकन करेगी, (खण्ड (5) ।

5. आपात-उद्‌घोषणा प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि लोकसभा में साधारण बहुमत से इस सम्बन्ध में संकल्प पारित कर दिया जाता है (खण्ड (6)) ।

6. खण्ड (8) यह उपबन्धित करता है कि यदि लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या के सदस्यों की लिखित रूप से इस आशय की उद्‌घोषणा जारी रहे या न रहे, इस पर विचार करने के आशय का नोटिस दिया है:

(क) सभापति को यदि सदन सत्र में है या

(ख) राष्ट्रपति को यदि सदन सत्र में नहीं है,

तो उस सकल्प पर विचार करने के लिए 14 दिन के भीतर सदन की बैठक बुलायी जायेगी ।

7. खण्ड (5), जिसके द्वारा राष्ट्रपति के अध्यादेश 1 के सम्बन्ध में विनिश्चय को अन्तिम बना दिया गया था उसे लुप्त कर दिया गया है । खण्ड (5) को 38वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था ।

8. अनुच्छेद 356 खण्ड (4) में ‘एक वर्ष’ के स्थान पर पुन: ‘6 माह’ कर दिया गया है । 42वें संशोधन द्वारा एक वर्ष कर दिया गया था । दूसरे खण्ड (5) को, जिसके अधीन राष्ट्रपति का ‘समाधान अन्तिम’ कर दिया गया था लुप्त कर दिया गया है ।

इसके स्थान पर नया खण्ड (5) रखा गया है, जो यह  उपबन्धित करता है कि 6 माह से अधिक उद्‌घोषणा के प्रवर्तन में रहने के लिए संकल्प तब तक नहीं पारित किया जायेगा जब तक कि :

(क) ऐसे संकल्प पारित करते समय आपात-उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है और

(ख) निर्वाचन-आयोग ने यह प्रमाण-पत्र दे दिया है कि आम चुनाव कराने में कठिनाई होने के कारण उद्‌घोषणा का प्रवर्तन में रहना आवश्यक है ।

9. इस प्रकार राष्ट्रपति शासन को राज्यों में उपर्युक्त शर्तों को पूरा न होने पर ही 6 माह से अधिक बढ़ाया जा सकता है । इसके पूर्व यह केन्द्रीय सरकार की इच्छानुसार अधिकतम अवधि 3 वर्ष तक बढ़ायी जा सकती थी ।

अनुच्छेद 358 :  इसमें दो परिवर्तन किये गये हैं:

1. अनुच्छेद 19 को केवल बाह्य आक्रमण या युद्ध से देश की सुरक्षा को संकट के आधार पर उद्‌घोषणा के होने पर ही निलम्बित किया जा सकता है, ‘सशस्त्र विद्रोह’ के आधार पर नहीं ।

2. इसके द्वारा अनुच्छेद 358 में एक नया खण्ड (2) जोड़ा है, जो यह उपबन्धित करता है कि अनुच्छेद 358 का संरक्षण आपात के दौरान केवल उन विधियों को प्राप्त होगा जिनमें इस बात का उल्लेख होगा कि वे आपात से सम्बधित हैं और उन कार्यपालिका कृत्यों को जो ऐसी विधियों के अधीन किये जायेंगे अन्य विधियों को नहीं । आपात से असम्बद्ध विधियों को आपात के दौरान चुनौती दी जा सकती है ।

 

 

अनुच्छेद 359 : इस अनुच्छेद के में भी दो परिवर्तन किये गये हैं :

1. यह उपबन्धित करता है कि आपात-उद्‌घोषणा के दौरान राष्ट्रपति को अनुच्छेद 359 के अधीन अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त प्राण एव दैहिक स्वाधीनता के अधिकार को न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित कराये जाने के अधिकार को निलम्बित करने की शक्ति न होगी ।

परिणामस्वरूप, (अनुच्छेद 359 (1) और (क) में प्रयुक्त भाग 3 द्वारा ‘प्रदत्त अधिकारों’ ‘पदावली के स्थान पर’ भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों (सिवा अनुच्छेद 20 और 21 के)’ को रखा गया है । इसका उद्देश्य बन्दी- प्रत्यक्षीकरण के मामले में दिये गये विनिश्चय की पुनरावृत्ति की रोकना है ।

2. यह संशोधन अधिनियिम अनुच्छेद 359 में एक नया खण्ड (1 (ख)) जोड़कर यह स्पष्ट करता है कि अनुच्छेद 359 का संरक्षण ऐसी विधियों को प्राप्त होगा जिसमें यह उल्लेख होगा कि वे आपात से सम्बन्धित हैं या ऐसे कार्यपालिका कृत्यों को प्राप्त होगा जो ऐसी विधियों के अधीन किये जायेंगे । अन्य आपात से असम्बद्ध विधियों को न्यायालयों में चुनौती दी जा सकेगी ।

अनुच्छेद 360 :

प्रस्तुत संशोधन अनुच्छेद 360 को एक स्वतन्त्र रूप प्रदान करता था । अभी तक इस सम्बन्ध में अनुच्छेद 352 (2) का उद्धरण देना आवश्यक होता था । अनुच्छेद 360  (2) को संशोधित करके इसे पूर्ण बना दिया गया है । नया खण्ड (2) यह उपबइप्स्धत करता है कि अनुच्छेद 360 के अधीन की गयी उद्‌घोषणा:

(क) किसी उत्तरवर्ती उद्‌घोषणा द्वारा प्रतिसंहत या परिवर्तित की जा सकेगी ।

(ख) संसद के दोनों सदनों के समक्ष अनुमोदन के लिए रखी जायेगी ।

(ग) 2 माह के भीतर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि इसके पूर्व संसद के दोनों सदनों के संकल्प द्वारा अनुमोदित न कर दी गयी हो । यदि इस 2 माह की अवधि के दौरान लोकसभा बिना संकल्प को पारित किये विघटित हो जाती है और राज्यसभा पारित कर देती है, तो नयी लोकसभा की बैठक के 30 दिन के उपरान्त प्रवर्तन में नहीं रहेगी जब तक कि उस अवधि के पूर्व अनुमोदन का संकल्प पारित नहीं कर दिया गया     हो ।

खण्ड (5), जिसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था लुप्त कर दिया गया है । यह खण्ड राष्ट्रपति के समाधान को अन्तिम बनाता था । निवारक निरोध-प्रस्तुत संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 22 में परिवर्तन करके निवारक निरोध विधियों के विरुद्ध प्राप्त संरक्षण को और अधिक सशक्त बनाता है:

(1) निरोध की अधिकतम अवधि को बिना सलाहकार बोर्ड के परामर्श के 6 माह से घटाकर 4 माह कर दिया गया है, अर्थात् 2 माह से अधिक का निरोध सलाहाकार बोर्ड के परामर्श से ही किया जा सकता है ।

(2) सलाहाकार बोर्ड में अब एक अध्यक्ष और कम-से-कम दो अन्य सदस्य होंगे । बोर्ड का अध्यक्ष उच्च न्यायालयों का कार्यरत न्यायाधीश होगा किन्तु अन्य सदस्य कार्यरत या निवर्तमान न्यायाधीशों में से हो सकते हैं ।

बोर्ड का गठन अध्यक्ष की सिफारिश के अनुसार किया जायेगा । इसका तात्पर्य यह है कि अब बोर्ड एक स्वतन्त्र निकाय होगा तथा यह कार्यपालिका के नियन्त्रण में नहीं होगा और इस प्रकार निष्पक्ष निर्णय देने में सक्षम होगा ।

(3) खण्ड (क) की कोई बात संसद द्वारा पारित विधि के अधीन विहित अधिकतम अवधि से अधिक निरोध को प्राधिकृत नहीं करेगी ।

(4) दो माह से अधिक अवधि के लिए निरोध सलाहकार बोर्ड के परामर्श से ही किया जायेगा ।

सम्पत्ति का अधिकार:

44वां संविधान संशोधन सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार रूप से समाप्त करता है और उसे संविधान में एक संवैधानिक अधिकार के रूप में बनाये रखता है, जिसका विनियमन साधारण विधियों द्वारा किया जायेगा । यह अब मूल अधिकार नहीं है । इसके लिए संवैधानिक संशोधन आवश्यक नहीं होगा । परिणामस्वरूप प्रस्तुत संशोधन निम्न परिवर्तन करता है,

(1) अनुच्छेद 19 (1) में खण्ड (च) को लुप्त कर दिया गया है,

(2) अनुच्छेद 31 को लुप्त कर दिया गया है,

(3) भाग 12 में एक नया अध्याय ‘सम्पत्ति के अधिकार’ नाम से जोड़ा गया है, जिसमें सम्पत्ति के अधिकार को एक नये अनुच्छेद 300 क के अधीन विधिक अधिकार केरूप में रखा गया है । अनुच्छेद 300-क यह उपबन्धित करता है: ”किसी भी व्यक्ति को कानून के प्राधिकार के बिना सम्पत्ति के अधिकार से वंचित नहीं किया जायेगा ।”

(4) चूंकि अनुच्छेद 31 को लुप्त कर दिया गया है, अतएव अनुच्छे 31 में अल्पतम द्वारा स्थापित शिक्षा-संस्थाओं की सम्पत्ति के अर्जन विधियों से प्राप्त संरक्षण को अनुच्छेद 30 में ही प्रदान कर दिया गया है और इसके लिए उसमें एक नया खण्ड 1 (क) जोड़ा गया है ।

निर्वाचन:

 44वां संविधान संशोधन अनुच्छेद 329 क को लुप्त करता है, जिसे बह, संविधान-संशोधन द्वारा जोड़ा गया था और प्रधानमन्त्री और लोकसभा के अध्यक्ष के निर्वाचन के विषयों को न्यायालय की अधिकारिता से परे कर दिया गया था । प्रस्तुत संशोधन अनुच्छेद (क) को लुप्त कर न्यायालय को पुन: इन मामलों पर अधिकारिता प्रदान करता है ।

संविधान (45वां संशोधन) अधिनियम, 1980 :

इस संशोधन ने अनुच्छेद 334 में संशोधन करके अनुसूचित जातियों और जन-जातियों के लिए लोकसभा और राज्य-विधानसभाओं में स्थानों के आरक्षण को 30 वर्ष से बढ़ाकर 40 वर्ष कर दिया है ।  फलत: अनुच्छेद 334 से ’30 वर्ष’ के स्थान पर ’40 वर्ष’ शब्दों को प्रतिस्थापित कर दिया गया । प्रारम्भ में यह आर क्षण केवल 10 वर्षों के लिए ही था ।

संविधान (46वां संशोधन) अधिनियम, 1982 :

46वें संविधान संशोधन अधिनियिम द्वारा अनुच्छेद 269,286,366 और संविधान की सातवीं अनुसूची में संशोधन किया गया है । यह संशोधन न्यायालयों द्वारा दिये गये कुछ निर्णयों से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए किया गया है, जिसका लाभ उठाकर व्यापारीगण कतिपय माल के अन्तरणों पर बिक्रीकर देने से बच जाते थे ।

इन अन्तरणों पर लगाये गये करों से होने वाली आय राज्यों को सौंप दी जायेगी । इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 269 (1) में एक नया उपबन्ध ज जोड़कर केन्द्रीय सरकार को अन्तर्राज्यिक व्यापार या वाणिज्य के दौरान किये जाने वाले ‘माल के पारेषण’ पर कर लगाने की शक्ति प्रदान की गयी है ।

अनुच्छेद 286 खण्ड (3) के स्थान पर नया खण्ड यह रखा गया है, जिसके द्वारा राज्य की कर लगाने की शक्ति पर निर्बन्धन लगाया गया है । नया खण्ड यह उपबन्धित करता है कि राज्य की कोई विधि जो अन्तर्राज्यिक व्यापार या वाणिज्य में ऐसे माल के, जिसे संसद विधि द्वारा विशेष महत्त्व का घोषित कर देती है, क्रय या विक्रय पर कर लगाती है या माल के क्रय-विक्रय जो अनुच्छेद 366 के खण्ड 29 (क) के उपखण्ड (ब), (स) और (द) में वर्णित हैं, वस्तुओं पर कर लगाती है, वह विधि कर के उद्ग्रहण की पद्धति दरों और अन्य प्रसंगतियों के सम्बन्ध में ऐसे निर्बन्धन और शर्तों के अधीन होगी जो संसद विधि द्वारा विनिर्दिष्ट करेगी ।

अनुच्छेद 366 में पारिमाणिक संशोधन किये गये हैं और खण्ड 29 के बाद एक नया खण्ड (29-क) जोड़कर उन बातों का उल्लेख किया गया है, जिस पर अनुच्छेद 386 के नये खण्ड (3) (ब) के अधीन कर लगाने के सम्बन्ध में राज्य-विधि को केन्द्रीय विधि के अधीन रखा गया है । नये खण्ड 29 क के अनुसार माल के क्रय या विक्रय पर कर में निम्नलिखित बातें भी आती हैं :

(क) माल में सम्पत्ति के अन्तरण पर कर किन्तु संविदा से भिन्न चाहे वह नकद या आस्थगित सन्दाय (deferred payment) या अन्य मूल्यवान प्रतिफल के लिए हो ।

(ख) माल में सम्पत्ति के अन्तरण पर कर (चाहे माल हो या अन्य रूप में) जो कार्य करने की संविदा के सम्पादन में निहित है ।

(ग) भाड़ा क्रय या किस्त में सन्दाय की किसी प्रणाली में माल के परिदान पर कर ।

(घ) किसी प्रयोजन के लिए किसी माल के उपयोग के अधिकार के अन्तरण पर कर (चाहे वह विनिर्दिष्ट अवधि के लिए न हो) जो नकद, आस्थगित या अन्य मूल्यवान प्रतिफल के लिए किया गया है ।

(ड) किसी अनियमित संघ या व्यक्तियों की निकाय द्वारा माल के अर्शित पर कर, जो नकद आस्थगित या अन्य मूल्यवान प्रतिफल के लिए की गयी हो ।

(च) ऐसे माल की आपूर्ति पर कर जो खाद्य पदार्थ या मानव उपभोग की कोई वस्तु या कोई पेय (चाहे नशे की हो या नहीं) हो जो नकद ऐसा अन्तरण परिदान या आपूर्ति ऐसे माल का उस व्यक्ति द्वारा विक्रय माना जायेगा जो अन्तरण परिदान या आपूर्ति की जाती है ।

संशोधन विधेयक द्वारा सातवीं अनुसूची की सूची 1 में प्रविष्टि 92-क के पश्चात् एक नयी प्रविष्टि 92 (ख) : ‘माल के पारेषण पर कर चाहे पारेषण इसके करने वाले व्यक्ति को किया जाये या अन्य किसी व्यक्ति को जहां ऐसा पारेषण अन्तर्राज्यिक व्यापार या वाणिज्य के दौरान किया जाता है) ।’

मान्यकरण और छूट: 

धारा 6 (1) यह घोषित करती है कि संविधान के प्रत्येक उपबन्ध के प्रयोजनों के लिए जिसमें ‘माल के क्रय या विक्रय पर कर’ पदावली आती है तथा इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व ऐसे उपबन्ध के अनुसरण में पारित या निर्मित किसी विधि में निम्न बातें शामिल मानी जायेंगी:

(क) ऐसे माल की आपूर्ति चाहे सेवा के रूप में या उसके भाग के रूप में या किसी अन्य रीति से जो खाद्य पदार्थ या मानव उपभोग की कोई वस्तु या कोई पेय हो नकद आस्थगित या अन्य मूल्यवान प्रतिफल के लिए किया गया हो और

(ख) प्रत्येक अन्तरण, जो खण्ड (क) में उल्लिखित प्रकृति का है, उसे विक्रय के रूप में अन्तरण माना जायेगा और किसी न्यायालय प्राधिकारण या प्राधिकारी के किसी अभिनिर्णय डिक्री या आदेश के होते हुए ऐसी विधि द्वारा अधिरोपित कर अवैध नहीं माना जायेगा और न ही इस आधार पर अवैध होगा कि सम्बन्धित विधानमण्डल ऐसी विधि पारित करने के लिए सक्षम नहीं था ।

फलत: इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व ऐसी विधि के अधीन अधिरोपित या उद्‌गृहीत सभी कर विधिक रूप से अधिरोपित और उदाहित माने जायेंगे और उनकी वापसी के लिए किसी भी न्यायालय में कोई वाद संस्थित नहीं किया जा सकता है ।

धारा 6 का उपखण्ड (2) यह उपबन्धित करता है कि उपखण्ड (1) में किसी बात के होते हुए भी उपखण्ड में उल्लिखित प्रकृति की किसी आपूर्ति को उक्त कर से छूट रहेगी, जो:  (क) आपूर्ति किसी रेस्टोरेण्ट या भोजनालय (eating house) द्वारा इस अधिनियम के आरम्भ होने के पूर्व, किन्तु 7 सितम्बर, 1978 को या उसके पश्चात् की गयी है और उक्त कर को इस कारण उद्‌गृहीत नहीं किया गया है; क्योंकि उस समय ऐसा कर न तो अधिरोपित था या उद्‌गृहीत किया जा सकता था या ।

(ख) जहां ऐसी आपूर्ति जो रेस्टोरेण्ट या भोजनालय द्वारा की गयी है, 4 जनवरी, 1972 को या उसके पश्चात् की गयी है और उस पर कर इस आधार पर उद्‌गृहीन नहीं किया गया है; क्योंकि उस समय ऐसा कर ऐसी आपूर्ति पर अधिरोपित या उद्‌गृहीत नहीं किया जा सकता था ।

परन्तु इस बात को प्रमाणित करने का भार कि उक्त कर ऐसी आपूर्ति पर उद]हीत नहीं किया गया था प्रउस व्यक्ति पर होगा जो उसकी छूट का दावा करता है, जिसका उल्लेख उपखण्ड (क) और (ख) में किया गया है, किन्तु उपखण्ड (3) यह घोषित करता है कि उपखण्ड (1) की कोई बात किसी व्यक्ति को किसी विधि के अनुसार करके निर्धारण कर लगाये जाने या उद्ग्रहण करने या उसके द्वारा अधिक कर के भुगतान पर वापसी के दावा करने को अधिकार के प्रयोग करने से नहीं रोकता है ।

संविधान (47वां संशोधन) अधिनियम, 1984 : 

47वें संविधान संशोधन द्वारा नौवीं अनुसूची में संशोधन किया गया है और विभिन्न राज्यों के 14 भूमि सुधार अधिनियमों को उसमें समाविष्ट किया गया है, ताकि उनकी विधिमान्यतय : को न्यायालयों में चुनौती न दी जा सके । इस संशोधन के पश्चात् नौवीं अनुसूची में अधिनियमों की कुल संख्या 302 हो गयी है ।

संविधान (48वां संशोधन) अधिनियम 1984 :

इस संशोधन 356 के खण्ड (5) में संशोधन करके पंजाब राज्य के मामले में राष्ट्रपति शासन अधिकतम अवधि वर्तमान ‘एक वर्ष’ से बढ़ाकर ‘दो वर्ष’ कर दी गयी है ।  पंजाब में 6 अक्तूबर, 1985 से लागू राष्ट्रपति शासन की एक वर्ष की अवधि समाप्त होने वाली थी किन्तु उसे निर्वाचन आयोग के प्रमाण के बिना नहीं बढ़ाया जा सकता था ।

पंजाब में उग्रवादी गतिविधियों के कारण चुनाव कराना सम्भव नहीं था । इस संशोधन द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पंजाब के मामले में निर्वाचन-आयोग के प्रमाण के बिना राष्ट्रपति शासन दो वर्ष तक के लिए बढ़ाया जा सकता है ।

संविधान (49वां संशोधन) अधिनियम, 1984 :

इस संशोधन द्वारा संविधान की छठी अनुसूची के क्षेत्र को बढ़ाया गया है और उसे त्रिपुरा राज्य के आदिवासी क्षेत्र पर लागू किया गया है । इसके द्वारा त्रिपुरा राज्य द्वारा स्थापित ‘जिला परिषदों’ को संवैधानिक अनुमोदन प्रदान किया गया जिसकी स्थापना आदिवासियों के तीव्र विकास और स्वशासन के लिए की गयी है । त्रिपुरा राज्य ने केन्द्र से इस संशोधन को पारित करने की सिफारिश की थी ।

संविधान (50वां संशोधन) अधिनियिम, 1984 :

50वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 33 में संशोधन किया गया है और कुछ अन्य वर्गों के व्यक्तियों को सम्मिलित किया गया है जिनके मूल अधिकारों को संसद विधि द्वारा परिसीमित या  निर्बन्धित कर सकती है ।

इस संशोधन के पूर्व अनुच्छेद 33 में केवल (1) सशस्त्र बलों के सदस्य और (2) लोक-व्यवस्था बनाये रखने वाले बलों के सदस्य शामिल थे । संशोधित अनुच्छेद 35 के अन्तर्गत अब निम्नलिखित वर्गा के व्यक्ति भी आयेंगे:

(1) जो आसूचना या प्रति-आसूचना (intelligence or counter-intelligence) के प्रयोजनों के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी ब्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित है,

(2) जो खण्ड (क) से खण्ड (ग) में विनिर्दिष्ट किसी बल ब्यूरो या संगठनों के प्रयोजनों के लिए स्थापित दूर संचार प्रणाली में या उसके सम्बन्ध में नियोजित है ।

संविधान (51 वांसंशोधन) अधिनियम, 1984 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 330 (1) और 332 (1) में संशोधन किया गया है और लोकसभा तथा असम और नागालैण्ड की विधानसभाओं में अनुसूचित जन-जाति के लिए आर क्षण की क्षेत्रिक सीमा को बढ़ाया गया है ।

अनुच्छेद 330 में संशोधन करके यह स्पष्ट किया गया है कि लोकसभा में अनुसूचित जन-जाति के लिए असम राज्य के स्वायत्त जिला के सिवा पूरे राज्य के स्थानों का आर क्षण होगा किन्तु इसका प्रभाव वर्तमान लोकसभा की संख्या पर नहीं पड़ेगा ।

अनुच्छेद 332 में संशोधन करके स्पष्ट किया गया है कि आरक्षण असम विधानसभा में अनुसूचित जन-जाति के स्वशासी जिले के लिए भी होगा । नागालैण्ड और मेघालय के स्वतन्त्र राज्य बनने के कारण संशोधन की आवश्यकता पड़ी है ।

संविधान (52 वां संशोधन) अधिनियम, 1985 :

इस संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 में संशोधन किया गया है तथा संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गयी । यह संशोधन दल-परिवर्तन की भयंकर बुराई को रोकने के लिए पारित किया गया है । इसके अधीन चुनाव के बाद किसी सदस्य की निम्न परिस्थितियों में संसद या विधानसभा की सदस्यता समाप्त हो जायेगी:

(क) यदि वह स्वेच्छा से अपने दल से त्याग-पत्र दे दे या

(ख) वह अपने दल या उसके द्वारा या प्राधिकृत व्यक्ति की पूर्व अनुमति के बिना सदन में उसमें किसी निदेश के विरुद्ध मतदान करता है या मतदान में अनुपस्थित रहता है (किन्तु यदि पन्द्रह दिन के अन्दर दल उसे उल्लंघन के लिए क्षमा कर दे), तो उसकी सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा या

(ग) यदि कोई निर्दलीय सदस्य किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाता है या

घ यदि कोई मनोनीत सदस्य शपथ लेने के 6 माह के बाद किसी राजनैतिक दल में सम्मिलित हो जाता है ।

अपवाद:

किन्तु निम्न परिस्थितियों में दल छोड़ना दल-परिवर्तन नहीं माना जायेगा और विधानमण्डल की सदस्यता समाप्त नहीं होगी :

(1) यदि किसी राजनीतिक दल के विभाजन (Split) पर उस दल के एक-तिहाई सांसद या विधायक उसकी स्वीकृति दें ।

(2) यदि किसी दल के किसी दल में विलय की स्थिति में उस दल के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य उसकी स्वीकृति दें ।

निरर्हता के प्रश्न पर विनिश्चय:

दल-परिवर्तन पर उसके किसी भी प्रश्न पर अन्तिम निर्णय सदन के पीठासीन अधिकारी को होगा और किसी भी न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा । सदन के अध्यक्ष को इस विधेयक को कार्यान्वित करने के लिए नियम बनाने का अधिकार होगा ।

संविधान (53वां संशोधन) अधिनियम, 1985 :

इस संशोधन द्वारा संघ क्षेत्र मिजोरम को विशेष दर्जा देने के लिए नया अनुच्छेद 371-G जोड़ा गया है, जिसमें यह उपबन्ध किया गया है कि धार्मिक और सामाजिक क्रियाओं के मामलें में मिजोरम के रूढ़िगत (Customary) कानून एव प्रक्रिया लागू होगी जब तक कि वहां का विधानमण्डल कानून बनाकर इसके विपरीत निर्णय न ले । यह प्रावधान उन केन्द्रीय विधियों पर लागू नहीं होगा जो वहा, पहले से ही प्रवृत्त हैं ।

संविधान (54वां संशोधन) अधिनियम, 1985 :

इस संशोधन द्वारा संविधान की दूसरी अनुसूची के भाग (घ) में संशोधन किया गया है और उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन में वृद्धि की गयी है । अब उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति का वेतन 5,000 से बढ़कर 10,000 रुपये और अन्य न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का वेतन 4,000 से बढ़कर 9,000 रुपये कर दिया गया है ।

संविधान (55वां संशोधन) अधिनियम, 1986 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा केन्द्र शासित क्षेत्र अरूणाचल प्रदेश को भारत संघ के 24वें राज्य के रूप में सम्मिलित किया गया है । नया अनुच्छेद 371-H जोड़कर यहां राज्यपाल को विशेष दायित्व सौंपा गया है । इन मामलों में राज्यपाल अपने विवेक से निर्णय ले सकता है ।

संविधान (56वां संशोधन) अधिनियम, 1987 :

इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नयी धारा अनुच्छे 371-1 जोड़ी गयी है, जो नये, राज्य गोवा के लिए विधानसभा के सृजन का उपबन्ध करती है । इसके सदस्यों की संख्या 30 होगी ।

संविधान (57वां संशोधन) अधिनियम, 1987 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 332 में संशोधन किया गया है और अरूणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नागालैण्ड राज्य की विधानसभाओं में अनुसूचित जन-जातियों के लिए सीटों का आरक्षण किया गया है ।

संविधान (58वां संशोधन) अधिनियम 1987 :

इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद (क) का जोड़ा गया है, जो यह उपबन्धित करता है कि हिन्दी भाषा में अनुदित संविधान का वही अर्थ होगा जो कि संविधान की अंग्रेजी भाषा का है ।

संविधान (59 वां संशोधन) अधिनियम, 1988 : यह 63वें संविधान अधिनियम द्वारा निरस्त कर दिया गया ।

संविधान (60वां संशोधन) अधिनियम, 1988 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद के 276 के खण्ड (2) में संशोधन करके राज्यों को व्यक्तियों की वृत्तियों व्यापारों आजीविकाओं और नियोजनों पर कर लगाने की सीमा को 250 रुपये से बढ़ाकर 2500 कर दिया गया है ।

खण्ड (2) के परन्तुक का लोप कर दिया गया है । इसका उद्देश्य राज्यों को अपने आय के स्रोतों को बढ़ाने के लिए सक्षम बनाना है । आजीविका पर करों की वृद्धि से राज्यों को अतिरिक्त आय जुटाने से सहायता मिलेगी ।

संविधान (61वां संशोधन) अधिनियम, 1989 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छे 226 में संशोधन करके मतदाओं की आयु सीमा को 21 वर्ष से घटा कर 18 वर्ष कर दिया गया है ।

संविधान (62वां संशोधन) अधिनियम 1989 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद के 334 में संशोधन करके लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन-जातियों के लिए स्थानों के आरक्षण की अवधि को 40 वर्ष से बढ़ाकर 50 वर्ष कर दिया गया है ।

 

 

संविधान (63वां संशोधन) अधिनियम, 1990 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 356 में खण्ड (4) और (5) में नये परन्तुक जोड़कर पजाब राज्य में राष्ट्रपति शासन की अवधि को 6 माह के लिए और बढ़ाया गया है । खण्ड 4 के अधीन राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि 3 वर्ष है । खण्ड 5 के अधीन यदि राष्ट्रपति शासन को एक वर्ष से अधिक जारी रखना है, तो दो शर्तें पूरी करना आवश्यक है ।

प्रथम, अनुच्छेद 356 (1) के अधीन उद्‌घोषणा जारी करना है और द्वितीय, चुनाव आयोग इस बात का प्रमाण दे कि उस राज्य में चुनाव कराना सम्भव नहीं है । पंजाब के मामले में 3 वर्ष की अवधि 10 मई, 1990 को समाप्त होने वाली थी किन्तु वहां की परिस्थितियां चुनाव कराने के अनुकूल नहीं थीं ।

फलत: खण्ड (4) में दूसरे परन्तुक के पश्चात् एक नया परन्तुक जोड़कर पंजाब के मामले में तीन वर्ष 6 माह की अवधि तक लागू रखने का उपबन्ध किया गया । खण्ड (5) के अन्त में एक नया परन्तुक जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया गया कि पंजाब के मामले में राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाने के मामले में खण्ड (5) में उल्लिखित दोनों शर्तें लागू नहीं होर्गी । इस प्रकार अब पंजाब में राष्ट्रपति शासन की अवधि 3 वर्ष 6 मास होगी ।

संविधान (65 वां संशोधन) अधिनियम 1990 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 338 में संशोधन करके अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए विशेष अधिकारी के स्थान पर राष्ट्रपति आयोग के गठन एवं शक्तियों का उल्लेख किया गया है ।

आयोग में एक अध्यक्ष उपाध्यक्ष और अन्य पांच सदस्य होंगे । आयोग के सदस्यों के कार्यकाल और सेवा-शर्तें वे होंगी जो राष्ट्रपति नियम बनाकर अवधारित करे । आयोग के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति      करेगा । आयोग अपने कार्य करने की प्रक्रिया स्वयं विहित करेगा । खण्ड (5) में आयोग के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है ।

राष्ट्रपति आयोग की सभी रिपार्टों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष पेश करेगा । जहां ऐसी कोई रिपोर्ट राज्य सरकारों से सम्बन्धित हो तो राज्य का राज्यपाल उस रिपोर्ट को राज्य विधानमण्डल में पेश करेगा (खण्ड (6) और (7) । खण्ड (5) के उपखण्ड (क) और (ख) के अधीन किसी बात का अन्वेषण करते समय आयोग को एक सिविल न्यायालय की सभी शक्तियां प्राप्त होंगी ।

संविधान (66 वां संशोधन) अधिनियम, 1990 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा विभिन्न राज्य विधानमण्डलों द्वारा पारित 55 भूमि सुधार विधियों को संविधान की नौवीं अनुसूची में समाविष्ट किया गया  है ।

संविधान (67वां संशोधन) अधिनियम, 1990 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 356 के खण्ड (4) में संशोधन करके पंजाब में राष्ट्रपति शासन की अवधि को 6 माह के लिए और बढ़ाने का उपबन्ध किया गया है । इसी प्रयोजन के लिए खण्ड (4) में ‘3 वर्ष 6 माह’ के स्थान पर ‘4 वर्ष’ शब्दावली प्रतिस्थापित की गयी है ।

 

संविधान (68वां संशोधन) अधिनियम 1991 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 356 के खण्ड (4) में संशोधन करके ‘4 वर्ष’ के स्थान पर ‘5 वर्ष’ शब्दावली को रखा गया है; क्योंकि पंजाब राज्य में चुनाव कराना सम्भव नहीं था ।

संविधान (69वां संशोधन) अधिनियम 1991 : 

संशोधन 1 फरवरी 1992 से प्रवर्तन में आया था । इस अधिनियम द्वारा संविधान में दो नये अनुच्छेद 239 कक और 239 कख जोड़े गये हैं, जिनके द्वारा संघ क्षेत्र दिल्ली को विशेष दर्जा प्रदान किया गया है और वहां के’ लिए विधानमण्डल और मन्त्रिपरिषद् का उपबन्ध किया गया है ।

अनुच्छेद 239 कक कहता है कि उक्त संशोधन अधिनियम के प्रारम्भ हो जाने पर संघ क्षेत्र दिल्ली की राष्ट्रीय राजधानी के लिए एक विधानसभा होगी जिसके सदस्यों की संख्या संसद द्वारा पारित विधि द्वारा निर्धारित की जायेगी ।

इसके सदस्यों का निर्वाचन अनुच्छेद 324 से 327 और 329 के उपबन्ध के अनुसार किया जायेगा । राष्ट्रीय क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा को राज्य सूची या समवर्ती सूची में विनिर्दिष्ट सभी विषयों पर जितना कि वे संघ क्षेत्र पर लागू होते हैं विधान बनाने की शक्ति हासिल होगी सिवा राज्य सूची के 1, 2 और 18 तथा 64 एवं 65 और 66 प्रविष्टि को छोड़कर (उपखण्ड 3 क) ।

किन्तु उपखण्ड क की कोई बात संसद को संघ क्षेत्र से सम्बन्धित किसी विषय पर विधि बनाने से नहीं रोकेगी । यदि विधानसभा द्वारा बनायी विधि संसद द्वारा पारित किसी विधि के उपबन्धों के विरुद्ध है, चाहे वह राज्य विधि से पहले या बाद में पारित की गयी हो तो संसद द्वारा बनायी विधि राज्य विधि पर अभिभावी होगी (Shall prevail) और राज्य विधि उस विरोध की मात्रा तक शून्य होगी [(उपखण्ड 3 (ख) और

(ग)] ।

यदि राज्य विधि को राष्ट्रपति की सहमति मिल चुकी है तो यह केन्द्रीय विधि पर अभिभावी होगी किन्तु इसके बावजूद संसद उस पर विधि बना सकती है और ऐसी दशा में संघ विधि राज्य विधि पर अभिभावी होगी । चूंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया है, अत: यह उपबन्ध आवश्यक है ।

मन्त्रीपरिषद: 

(i) अनुच्छेद 3289 कक यह उपबन्धित करता है कि दिल्ली के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी जिसकी संख्या विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी ।  मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष होगा, जो उपराज्यपाल को उसके कार्यों के करने में सहायता और सलाह देगा ।

मन्त्रियों और उपराज्यपाल के बीच किसी बात पर मत में भिन्नता होने की दशा में उपराज्यपाल उसे निर्णय के लिए राष्ट्रपति को सौंपेगा और उसके निर्णय के अनुसार कार्य करेगा और यदि ऐसा नहीं होता है और वह समझता है कि मामला ऐसा है, जिस पर शीघ्र कार्रवाई करना आवश्यक है, तो जैसा वह आवश्यक समझता है, कार्रवाई कर सकता है या निदेश दे सकता है (उपखण्ड 4) ।

(ii) मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा तथा अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति मुख्यमन्त्री की सलाह पर करेगा और मन्त्रीगण राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपना पद धारण करेंगे (उपखण्ड 5) ।

(iii) मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी ।

(iv) संसद उक्त उपबन्धों को लागू करने या उनमें उल्लिखित सभी आनुषंगिक विषयों पर विधि बना सकती है (उपखण्ड 7) ।

(v) संवैधानिक तन्त्र असफल होने की दशा में अनुच्छेद 239 कख यह उपबन्धित करता है:

(क) ऐसे स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसमें राष्ट्रपति राजधानी क्षेत्र का प्रशासन अनुच्छेद 239 कक अथवा इस अनुच्छेद के अनुसरण में निर्मित किसी विधि के अनुसार नहीं चलाया जा सकता अथवा

(ख) राष्ट्रीय राजधानी संघ क्षेत्र के समुचित प्रशासन के लिए ऐसा करना इष्टकर है ।

तो राष्ट्रीय अनुच्छेद 239 कक के किसी या पूर्ण उपबन्ध में बने किसी विधि के प्रवर्तन को निलम्बित कर सकता है, ऐसे समय तक के लिए तथा ऐसी शर्तों के साथ जैसा कि उस विधि में विनिर्दिष्ट है और ऐसा आनुषंगिक उपबन्ध प्रावधानों के अनुसार प्रशासित करने के लिए आवश्यक या अपेक्षित समझता है ।

संविधान (70वां संशोधन) अधिनियम, 1992 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद के 54 में एक व्याख्या जोड़कर यह स्पष्ट किया गया है कि अनुच्छेद 54 और अनुच्छेद 55 में ‘राज्य’ शब्द के अन्तर्गत राष्ट्रीय राजधानी राज्य, क्षेत्र दिल्ली और संघ राज्य क्षेत्र पाण्डिचेरी भी सम्मिलित हैं ।

संविधान (71वां संशोधन) अधिनियम, 1992 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची में कोंकणी, मणीपुरी और नेपाली भाषाओं को राजभाषा के रूप में सम्मिलित किया गया है । इनको मिलाकर आठवीं अनुसूची में अब भाषाओं की संख्या 18 हो गयी है ।

संविधान (72वां संशोधन) अधिनियम 1992 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 332 में, खण्ड (अक) के पश्चात् एक नया खण्ड (अख) जोड़ा गया है । इसके अनुसार त्रिपुरा विधानसभा में स्थानों की संख्या बढ़ाकर अनुच्छेद 170 के अन्तर्गत विहित संख्या अर्थात् 60 कर दी गयी है और उसी अनुपात में अनुसूचित जन-जाति की संख्या भी बढ़ा दी जायेगी । सन् 2000 तक ऐसा करना सम्भव नहीं था, इसीलिए यह संशोधन करना उपयुक्त समझा गया ।

संविधान (73वां संशोधन) अधिनियम 1992 :

इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग, भाग 9 और 16 नये अनुच्छेद तथा एक नयी अनुसूची, ग्यारहवीं अनुसूची, जोड़ी गयी है । इसके द्वारा पंचायतों के गठन, संरचना, निर्वाचन, सदस्यों की अर्हताएं एव निरर्हताएं, पंचायतों की शक्तियों, प्राधिकार और उत्तरदायित्व आदि के लिए प्रावधान किये गये है । ग्यारहवीं अनुसूची में कुल 29 विषयों का उल्लेख है, जिन पर पंचायतों को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गयी है ।

संविधान (74वां संशोधन) अधिनियम, 1992 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में एक नया भाग भाग क और 18 नये अनुच्छेद तथा एक नयी अनुसूची बारहवीं अनुसूची जोड़ी गयी है । इस संशोधन अधिनियम के द्वारा नगरों में नगरपालिकाओं का गठन संरचना निर्वाचन सदस्यों की अर्हताएं एवं निरर्हताएं नगर पंचायतों की शक्तियों प्राधिकार और उत्तरदायित्वों के विषय में उपबन्ध किये गये हैं । इस संशोधन द्वारा जोड़ी गयी बारहवीं अनुसूची में 18 विषयों का उल्लेख है, जिन पर नगरपालिकाओं को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गयी है ।

संविधान (75वां संशोधन) अधिनियम, 1993 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 323 (ख) में खण्ड (क) के पश्चात् एक नया खण्ड (ज) जोड़ा गया है और वर्तमान (ज) को (झ) और (झ) को (ज) कर दिया गया है । इस खण्ड द्वार भवन के किराये सम्बन्धी विवाद को हल करने के लिए अधिकरणों की स्थापना की गयी है । ऐसे मामलों पर अब न्यायालयों को अधिकारिता नहीं होगी ।

संविधान (76वां संशोधन) अधिनियम 1994 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान की नौवीं अनुसूची में संशोधन किया गया है और तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 69 प्रतिशत आरक्षण का उपबन्ध करने वाले अधिनियम को नौवीं अनुसूची में शामिल कर दिया गया है ।

संविधान (77वां संशोधन) अधिनियम 1995 :

इस संशोधन अधिनियम का उद्देश्य उच्चतम न्यायालय द्वारा मण्डल आयोग के मामले में दिये निर्णय के प्रभाव को समाप्त करना है । उच्चतम न्यायालय ने सरकारी नौकरियों में प्रोन्नत्ति में आर क्षण को समाप्त कर दिया था ।

इसके द्वारा अनुच्छेद 16 में एक नया खण्ड खण्ड (4क), जोड़ा गया है, जो यह उपबन्धित करता है कि अनुच्छेद 16 की कोई बात राज्य की अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्याधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है ।

संविधान (78वां संशोधन) अधिनियम 1995 :

इसके द्वारा नौवीं अनुसूची में विभिन्न राज्यों द्वारा पारित 27 भूमि सुधार विधियों को समाविष्ट किया गया है । इस प्रकार नौवीं अनुसूची में सम्मिलित अधिनियमों की कुल सख्या 284 हो गयी है ।

संविधान (79वां संशोधन) अधिनियम, 1999 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद के 330 में संशोधन करके ’50 वर्ष’ शब्द के स्थान पर ’60 वर्ष’ शब्द रखा गया है और इस प्रकार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जाति के सदस्यों के लिए विधानमण्डलों में आरक्षण की अवधि को 10 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया गया है । अब यह संविधान ला! होने की तारीख से 60 वर्ष तक बनी रहेगी ।

संविधान (80वां संशोधन) अधिनियम, 2000 :

इस संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 269 के खण्ड (1) और (2) के स्थान पर नया खण्ड तथा अनुच्छे 270 के स्थान पर नया अनुच्छेद रखा गया है । अनुच्छेद 272 को समाप्त कर दिया गया है ।

यह संशोधन 10वें वित्त आयोग की सिफारिश के आधार पर किया गया है, जिसने कुछ केन्द्रीय करों तथा शुल्कों में से होने वाली आय में से राज्यों को 29 प्रतिशत देने के लिए सिफारिश की है । ये संशोधन 1 अप्रैल, 1996 से लागू माने जायेंगे ।

अनुच्छेद 269 का नया खण्ड यह कहता है कि माल के विक्रय या क्रय पर या माल के पारेषण पर केन्द्रीय सरकार द्वारा जो ‘कर’ लगाये और संग्रहीत किये जायेंगे वे राज्यों को सौंपे जायेंगे और 1 अप्रैल, 1996 से लागू होंगे ।

इस खण्ड के प्रयोजन के लिए माल के विक्रय या क्रय पर ‘कर’ से तात्पर्य समाचार-पत्रों को छोड्‌कर है, जो अन्तर्राज्यिक व्यापार या वाणिज्य के दौरान होते है । माल के पारेषण पर ‘कर’ से शत्पर्य ऐसे ‘कर’ से है, जो अन्तर्राज्यिक व्यापार या वाणिज्य के दौरान होते हैं ।

नया अनुच्छेद 270 यह कहता है कि संघ सूची में वर्णित सभी ‘कर’ और ‘शुल्क’ सिवा अनुच्छेद 268 और 269 के अन्तर्गत वर्णित ‘कर’ और ‘शुल्क’ के अनुच्छेद 271 के अन्तर्गत ‘करों’ और ‘शुल्कों’ पर सरचार्ज और कोई ‘उपकर’, जो संसद द्वारा पारित किसी विधि के अन्तर्गत किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए जायेंगे, वे संघ सरकार द्वारा लगाये एवं उद्ग्रहीत किये जायेंगे और खण्ड (2) के अन्तर्गत विहित रीति से राज्यों में वितरित किये जायेंगे ।

संविधान (81वां संशोधन) अधिनियम, 2000 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16 में खण्ड (क) के पश्चात् एक नया खण्ड (ख) जोड़ गया है, जिसके द्वारा अनुसूचित जाति एवं जन-जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत की सीमा जो कि उच्चतम न्यायालय ने इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में लगायी थी, को समाप्त कर दिया गया है ।

इसके संशोधन के पश्चात् अब एक वर्ष में न भरी जाने वाली बकाया रिक्तियों को एक पृथक् वर्ग माना जायेगा और अगले वर्ष में भरा जायेगा भले ही उसकी सीमा 50 प्रतिशत से अधिक हो । उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि एक वर्ष में आरक्षण के आधार पर भरी जाने वाली रिक्तियां किसी भी दशा में 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होंगी ।

संविधान (82वां संशोधन) अधिनियम, 2000 :

इसके द्वारा अनुच्छेद 335 में एक नया परन्तुक जोड़ दिया गया है, जो यह उपबन्धित करता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए आरक्षित पदों के लिए होने वाली किसी परीक्षा में उनके लिए अर्हता अंकों या मूल्याकन के मानकों में छूट प्रदान की जा सकती है ।

अनुच्छेद 335 यह उपबन्धित करता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए आरक्षण करते समय प्रशासन में क्षमता को हमान को रखा जायेगा । संविधान के निर्मातागण दूरदर्शी और देशभक्त थे और इसीलिए उन्होंने योग्यता को बचाने के लिए इस उपबन्ध को संविधान में रखा था किन्तु आज सभी दल संविधान की इस मूल भावना को नष्ट करने में जुटे हैं ।

संविधान (83वां संशोधन) अधिनियम, 2000 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 243उ में संशोधन किया गया है, और एक नया खण्ड 3क जोड़ा गया है, जो यह उपबन्धित करता है कि अनुच्छेद 243उ की कोई बात जो अनुसूचित जातियों के आरक्षण से सम्बन्धित है अरूणाचल प्रदेश पर लागू नहीं होगी ।

अनुच्छेद 243उ के अन्तर्गत प्रत्येक पंचायतों में अनुसूचित जातियों के लिए सीटों के आर क्षण के लिए उपबन्ध किया गया है । चूंकि अरूणाचल प्रदेश एक आदिवासी समाज है और उसमें अनुसूचित जातियों का कोई अस्तित्व नहीं है, अत: वहां आरक्षण के उपबन्ध करने का कोई औचित्य नहीं है ।

संविधान (84वां संशोधन) अधिनियम, 2001 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 55,81,82,170,330 और 332 के परन्तुकों में संशोधन करके 2026 संख्या के स्थान पर 2026 संख्या प्रतिस्थापित की गयी हैं । इसका तात्पर्य यह है कि जब तक 2026 के पश्चात् की गयी जनगणना के कड़े प्रकाशित नहीं कर दिये जाते निम्न प्रयोजनों के लिए राज्य की आबादी का निर्धारण इस प्रकार किया जायेगा :

(1) अनुच्छे 55 के अधीन राष्ट्रपति का निर्वाचन -1971 की जनगणना ।

(2) अनुच्छेद 81 के अधीन लोकसभा का गठन-

(क) प्रत्येक राज्यों के लिए सीटों का आवण्टन- 1971 की जनगणना ।

(ख) राज्यों के निर्वाचक मण्डलों में विभाजन – 1991 की जनगणना ।

(3) अनुच्छेद 170 के अधीन राज्य विधानमण्डल का गठन- 1991 की जनगणना ।

(4) अनुच्छेद 330 के अधीन अनुसूचित जाति/जन-जाति के लिए सीटों का आरक्षण- 1991 जनगणना ।

(5) अनुच्छेद 332 के अधीन अनुसूचित जाति/जन-जाति के लिए विधानमण्डलों में आरक्षण-

(क) अरूणाचल प्रदेश, मेघालय मिजोरम और नागालैण्ड 57वां संविधान संशोधन अधिनियम 1987 के लागू होने पर ।

(ख) त्रिपुरा में वा अधिनियम, 1992 के लागू होने पर ।

संविधान (85वां संशोधन) अधिनियम, 2002 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16 के खण्ड (4क) में संशोधन करके शब्दावली ‘किसी वर्ग की प्रोन्नत्ति के मामले में’ के स्थान पर शब्दावली ‘किसी वर्ग के प्रोन्नत्ति के मामले में भूतलक्षी ज्येष्ठता’ रखी गयी है । इसका तात्पर्य यह है कि इन वर्ग की प्रोन्नत्ति भूतलक्षी प्रभाव से दी जायेगी अर्थात् 17 जून, 1995 से ।

संविधान (86वां संशोधन) अधिनियम, 2002 :

इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद 21ज्ञ जोड़ा गया है, जिसके अधीन छ: वर्ष से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार बनाया गया है ।

इसके द्वारा अनुच्छेद 45 के स्थान पर एक नया अनुच्छेद प्रतिस्थापित किया गया है, जो यह कहता है कि राज्य सभी बच्चों जब तक कि वे 6 वर्ष के नहीं हो जाते हैं की देखभाल और शिक्षा के लिए उपबन्ध करेगा ।

इसके द्वारा अध्याय 19 में एक नया मूल कर्तव्य (k) जोड़ गया है । यह कहता है कि छह वर्ष की आयु से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के माता-पिता और प्रतिपाल्य के संरक्षकों का यह कर्तव्य होगा कि वे उन्हें शिक्षा के उचित अवसर प्रदान करें ।

 

संविधान (87वां संशोधन) अधिनियम 2003 :

इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 81 के खण्ड (3) के परन्तुक में, अनुच्छेद 82 के तीसरे परन्तुक के खण्ड (2) में, अनुच्छेद 170 के खण्ड (2) के परन्तुक में और खण्ड (3) के तीसरे परन्तुक खण्ड (2) में तथा अनुच्छेद 330 में स्पष्टीकरण में अंक ‘1991’ के स्थान पर अक ‘2001’ को प्रतिस्थापित कर दिया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि अब प्रादेशित निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्गठन के लिए जनगणना की संख्या ‘सन् 2001’ के आधार पर की जायेगी ।

संविधान (88वां संशोधन) अधिनियम 2003 :

इस संशोधन द्वारा संविधान में अनुच्छेद 268 के पश्चात् एक नया अनुच्छेद 268 क जोड़ा गया है, जिसके अधीन ‘सेवा कर’ लगाने का उपबन्ध किया है, जो भारत सरकार द्वारा अधिरोपित किया जायेगा और भारत सरकार और राज्य द्वारा खण्ड (2) में विहित रीति से एकत्र किया जायेगा और विनियोग किया जायेगा ।

इसके लिए ससद विधि द्वारा सिद्धान्तों को विहित करेगी । इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 270 में और सातवीं सूची में भी संशोधन किया गया है । इसके द्वारा अनुच्छेद 270 के खण्ड (1) में प्रयुक्त शब्दों और अंकों के ‘अनुच्छेद 268 और 269’ के स्थान पर ‘अनुच्छेद 268 और 269क और अनुच्छेद 269’ को प्रतिस्थापित कर दिया गया है । सातवीं अनुसूची में संशोधन करके प्रविष्टि ब के पश्चप्क ‘प्रविष्टि स सेवा पर कर’ प्रविष्ट कर दिया गया है ।

(संविधान 89वां संशोधन) अधिनियम, 2003 : 

89वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 338 में संशोधन करके अनुसूचित जातियों के लिए एक आयोग की स्थापना का उपबन्ध किया गया है । अनुच्छेद 338 के ‘हाशिए’ के शीर्षक के स्थान पर ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जन-जाति आयोग’ रखा जायेगा । खण्ड (1) और (2) के स्थान पर निम्नलिखित खण्ड रखा गया है :

(1) अनुसूचित जन-जातियों केलिए एक आयोग होगा, जो ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जन-जाति आयोग’ के नाम से ज्ञात होगा ।

(2) संसद द्वारा इस निमित्त बनायी गयी किसी विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुए यह आयोग एक अध्यक्ष एक उपाध्याक्ष और तीन सदस्यों से मिलकर बनेगा । इन लोगों की सेवा-शर्तें और पदावधि ऐसी होंगी जो राष्ट्रपति नियम द्वारा अवधारित करें ।

खण्ड 5,9 और 70 में प्रयुक्त शब्दावली ‘अनुसूचित जातियों’ का लोप कर दिया जायेगा । नया अनुच्छेद 338क राष्ट्रीय अनुसूचित जन-जाति आयोग की स्थापना का उपबन्ध करता है । इसके अनुसार यह आयोग एक अध्यक्ष एक उपाध्याक्ष और तीन सदस्यों से मिलकर बनेगा । इस प्रकार नियुक्त किये गये अध्यक्ष उपाध्यक्ष और सदस्यों की सेवा-शर्तें पदावधि राष्ट्रपति द्वारा जारी अधिपत्र द्वारा की जायेंगी ।

आयोग को अपनी प्रक्रिया स्वयं विनियमित करने की शक्ति होगी । आयोग के निम्नलिखित कर्तव्य होंगे:

(1) अनुसूचित जन-जातियों के लिए इस संविधान या तत्समय प्रवृत्त किसी मय विधि या सरकार के किसी आदेश के अधीन उपबनिश्त रक्षोपायों से सम्बन्धित सभी विषर्यो का अन्वेषण करे और उन पर निगरानी रखे तथा ऐसे रक्षोपायों के कार्यकरण का मूल्यांकन करे ।

(2) अनुसूचित जन-जातियों को उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने की बाबत विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाच करे ।

(3) अनुसूचित जन-जातियों के सामाजिक आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग ले और उन पर सलाह दे तथा सघ और किसी राज्य के अधीन उनके विकास की प्रगति का मूल्याकन करे ।

(4) उन रक्षोपायों के कार्यकरण के बारे में प्रतिवर्ष और ऐसे अन्य समयों पर जो आयोग ठीक समझे राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे ।

(5) ऐसे प्रतिवेदनों में उन उपायों के बारे में जो अन्य रक्षोशयों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन के लिए सँघ या किसी राज्य द्वारा किये जाने चाहिए तथा अनुसूचित जन-जातियों के सरक्षण कल्याण और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अन्य उपायों के बारे में सिफारिश करे ।

(6) अनुसूचित जन-जतियों के संरक्षण कल्याण विकास तथा उन्नयन के सम्बन्ध में ऐसे अन्य कृत्यों का निर्वहन करे जो राष्ट्रपति संसद द्वारा बनायी गयी किसी विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुए नियम द्वारा निर्दिष्ट करे ।

(7) राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवायेगा और उसके साथ संघ से सम्बन्धित सिफारिशों पर की गयी या किये जाने के लिए प्रस्थापित कार्रवाई तथा यदि कोई ऐसी सिफारिश अस्वीकृत की गयी है, तो अस्वाकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाला ज्ञापन भी होगा ।

(8) जहां कोई ऐसा प्रतिवेदन या उसका कोई भाग किसी ऐसे विषय से सम्बन्धित हैं, जिसका किसी राज्य सरकार से सम्बन्ध है, तो ऐसे प्रतिवेदन की एक प्रति उस राज्य के राज्यपाल को भेजी जायेगी जो उसे राज्य के विधानमण्डल के समक्ष रखवायेगा और उसके साथ राज्य से सम्बन्धित सिफारिशों पर की गयी या किये जाने के लिए प्रस्थापित कार्रवाई तथा यदि ऐसी कोई सिफारिश अस्वीकृत की गयी है, तो अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाला ज्ञापन भी होगा ।

(9) आयोग को खण्ड (5) के उपखण्ड (क) में निर्दिष्ट किसी विषय पर अन्वेषण करते समय या उपखण्ड (ख) में निर्दिष्ट किसी परिवाद के बारे में जांच करते समय विशिष्ट तथा निम्नलिखत विषयों के सम्बन्ध में वे सभी शक्तियां होंगी जो वाद का विचारण करते समय सिविल न्यायालय को हैं, अर्थात् :

(क) भारत के किसी भी भाग से किसी भी व्यक्ति को सम्मन करना और हाजिर कराना तथा शपथ पर उनकी परीक्षा करना;

(ख) किसी दस्तावेज को प्रकट और पेश करने की अपेक्षा करना;

(ग) शपथ-पत्रों पर साक्ष्य ग्रहण करना;

(घ) किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रति अपेक्षा करना;

(ड.) साक्षियों और दस्तावेजों की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना;

(च) कोई अन्य विषय जो राष्ट्रपति नियम द्वारा अवधारित करें ।

(10) संघ और प्रत्येक राज्य सरकार अनुसूचित जन-जातियों को प्रभावित करने वाले सभी महत्त्वपूर्ण नीतिगत विषयों पर आयोग से परामर्श करेगी ।

संविधान (91वां संशोधन) अधिनियम, 2003 :

यह संशोधन अनुच्छेद 332 के खण्ड (6) के परन्तुक में एक नया परन्तुक अन्त: स्थापित करता है, परन्तु असम क्षेत्रीय जिले में शामिल किये गये और बोडो लैण्ड राज्य क्षेत्रीय जिले के गठन के पूर्व विद्यमान अनुसूचित जन-जातियों और गैर अनुसूचित जन-जातियों के प्रतिनिधित्व को कायम रखा जायेगा । इस संशोधन की आवश्यकता बोडो लैण्ड राज्य क्षेत्रीय परिषद के गठन के कारण उत्पन्न हुई है ।

संविधान 91वां संविधान अधिनियम, 2003 :

यह संशोधन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संशोधन है । इसके द्वारा संविधान में दो महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गये है । पहला केन्द्र और राज्यों में मन्त्रिमण्डल की संख्या को सीमित करता है और दूसरा दल-बदल की भयंकर बीमारी को रोकता है । इसी उद्देश्य से इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद, 75 के खण्ड (1) के पश्चात् और अनुच्छेद 164 के खण्ड (1) के पश्चात्, दो नये खण्ड, खण्ड (1क) और खण्ड (1ख) जोड़े गये हैं ।

अनुच्छेद 75 (1) का नया खण्ड (1) यह उपबन्धित करता है कि प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या लोकसभा की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी । नया खण्ड (1ख) यह कहता है कि संसद का कोई सदस्य, चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल का हो, यदि वह दसर्वी अनुसूची के पैरा 2 के अनुसार मन्त्री नियुक्त किये जाने के लिए अनर्ह है, वह जब तक चुनाव में निर्वाचित नहीं हो जाता तब तक निगम अध्यक्ष या किसी लाभ का पद का ग्रहण नहीं कर सकता है ।

इसी प्रकार अनुच्छेद 164 में दो नये खण्ड जोड़े गये हैं । खण्ड क के अनुसार, किसी राज्य में मुख्यमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी परन्तु यह संख्या 12 से कम नहीं होगी । जिन राज्यों में मन्त्रियों की संख्या इससे अधिक है, उन्हें 6 माह के भीतर घटाना होगा ।

नये खण्ड 1ख के अनुसार अब दल-बदल करने पर सदस्यता स्वत: समाप्त हो जायेगी । साथ-ही-साथ ऐसे सदस्य जब तक पुन: निर्वाचित होकर नहीं आते वे निगम के अध्यक्ष या किसी अन्य लाभ का पद प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।

प्राय: सरकार ऐसे सदस्यों को किसी निगम आदि का अध्यक्ष बना दिया करती थी । एक नया अनुच्छेद 361ख जोड़कर यह उपबन्ध किया गया है कि ऐसा सदस्य जो, 10वां सूची के पैरा 2 के अनुसार दल-बदल के कारण निरर्ह हो जाने वाला है, जब तक पुन: चुना नहीं जाता किसी भी लाभ के पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है ।

लाभ के पद से तात्पर्य ऐसे पद से है कि केन्द्र सरकार या राज्य सरकार या सरकार के नियन्त्रण वाले किसी निगमित निकाय में कोई पद जिसे सरकारी धन से वेतन या पारिश्रमिक दिया जाता है, सिवा उसके जहां वेतन या पारिश्रमिक प्रतिकरात्मक के रूप में देय है ।

इसके द्वारा दसवीं अनुसूची में संशोधन करके पैरा तीन को निरस्त कर दिया गया है, जिसके द्वारा दल के विभाजन को दल-बदल नहीं माना जाता था । इस संशोधन द्वारा भारतीय लोकतन्त्र के समक्ष व्याप्त एक गम्भीर समस्या का काफी हद तक निराकरण करने का प्रयास किया गया है ।

संविधान (92वां संशोधन) अधिनियम, 2005 :

इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 15 में खण्ड (4) के पश्चात्, एक नया खण्ड (5) जोड़ा गया है । खण्ड (5) यह कहता है कि अनुच्छेद 15 (1) या अनुच्छेद 19 (1) (g) की कोई बात राज्य को शैक्षिक या सामाजिक रूप से पिछड़े किसी वर्ग के नागरिकों को या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जन-जाति की प्रगति के लिए सहायता प्राप्त या गैर सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था, अनुच्छेद 30 (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं को छोड्‌कर, प्रवेश के सम्बन्ध में विधि बनाकर विशिष्ट उपबन्ध बनाने से कोई नहीं रोकेगा ।  यह संशोधन विधेयक निजी शिक्षण संस्थाओं में छात्रों के प्रवेश के लिए सीटों के आरक्षण प्रदान करने के लिए पारित किया गया है ।

संविधान (94वां सशोधन) अधिनियम, 2006 : 

मध्यप्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000 और बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 द्वारा झारखण्ड और छत्तीसगढ़ दो नये राज्य बनाये गये हैं । छत्तीसगढ़ और झारखण्ड राज्यों के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप बिहार और मध्यप्रदेश का सम्पूर्ण अनुसूचित क्षेत्र क्रमश: झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में स्थानान्तरित कर दिया गया है । अत: इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 164 के खण्ड (1) में मध्यप्रदेश और बिहार राज्य के स्थान पर क्रमश: छतीसगढ़ और झारखण्ड शब्दों को रखा गया है ।

 

 

संविधान (95वां संशोधन) अधिनियम, 2009 : 

इस संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 334 में संशोधन करके शब्दावली ’60 वर्ष’ के स्थान पर शब्दावली ’70 वर्ष’ जोड़ दिया गया है, अर्थात् अब इन वर्गों के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में आरक्षण 70 वर्ष तक, अर्थात् 2020 के पश्चात् तक फिर अगले संशोधन तक चलता रहेगा ।

संविधान (96वां संशोधन) अधिनियम, 2011 :

इस संशोधन द्वारा संविधान की आठर्वी अनुसूची में ‘उड़ीसा’ शब्द के स्थान पर ‘ओडिशा’ शब्द समाविष्ट किया गया है ।

संविधान (97वां संशोधन) अधिनियम, 2012 :

इस संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (c) एवं अनुच्छेद 43 (खण्ड ख) में संशोधन करके शब्दावली ‘अथवा संघों’ के आगे ‘अथवा सहकारी संस्थाएं’ जोड़ दिया गया है । ऐसा सहकारी संस्थाओं को प्रोत्साहन देने के लिए किया गया है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों की प्रगति में मदद मिलती है । इससे न केवल सहकारी संस्थाओं को स्वतन्त्र एवं लोकतान्त्रिक तरीके से कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है, बल्कि संस्थाओं के प्रबन्धकों का अन्य सदस्यों के प्रति उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है ।

संविधान (98वां संशोधन) अधिनियम, 2013 :

 इस संशोधन द्वारा संविधान में अनुच्छे 3711 का निवेश किया गया है, जिसके द्वारा कर्नाटक के राज्यपाल को कुछ शक्तियां प्रदान की गयी हैं, जिससे वह हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र के विकास के लिए आवश्यक कदम उठा सके ।

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