नागरिकता पर निबंध | Naagarikata Par Nibandh | Essay on Citizenship in Hindi.

(i) 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अंगीकृत किया तथा नागरिकता से सम्बन्धित प्रावधान जो अनुच्छेद 5 से 11 तक में वर्णित है, में से अनुच्छेद 5 से 9 तक को तुरन्त लागू कर दिया ।

(ii) भारतीय संविधान में नागरिकता की कोई परिभाषा नहीं दी गयी है ।

(iii) भारतीय संविधान में नागरिकता का विषय संघीय सूची में रखा गया है ।

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(iv) नागरिकता एक विधिक प्रस्थिति है तथा इसका अर्थ है व्यक्ति को राज्य की पूर्ण राजनीतिक सदस्यता प्राप्त है, राज्य के प्रति उसकी स्थायी निष्ठा है और राज्य द्वारा इस बात की आधिकारिक स्वीकृति है कि उसे राजनीतिक प्रणाली में शामिल कर लिया गया है ।

(v) संविधान में नागरिकता से सम्बन्धित उपबन्धों अर्थात् अनुच्छेद 5 से 11 ने संविधान के प्रारूप समिति को सबसे अधिक परेशान किया और उसके अनेक प्रारूप तैयार करने तथा उसे अन्तिम रूप देने में दो वर्ष से भी अधिक समय लग गया ।

(vi) संविधान सभा ने नागरिकता के सम्बन्ध में दो विधियां अपनायीं-प्रथम, यह उपबन्ध करना कि संविधान के प्रारम्भ के समय कौन व्यक्ति भारत का नागरिक होगा । द्वितीय, नागरिकता के अर्जन तथा निरसन के तरीके के बारे में संसद को विधि निर्माण की शक्ति देना ।

(vii) संविधान के भाग 2 में अनुच्छेद के 5 से 9 तक केवल व्यक्तियों के उन वर्गों का वर्णन किया गया है, जिन्हें भारत के संविधान के प्रारम्भ की तारीख को भारत का नागरिक माना गया है । संविधान में भारत की नागरिकता के सम्बन्ध में स्थायी या व्यापक विधि अथिकथित करने का कोई आशय नहीं था ।

भारत में नागरिकता का संवैधानिक आधार :

ADVERTISEMENTS:

संविधान के कतिपय उपबन्धों के प्रारम्भ पर (26 नवम्बर, 1949) नागरिकता के सम्बन्ध में निम्नलिखित सामान्य सिद्धान्त का निश्चय किया गया (अर्थात् ऐसे व्यक्ति, जिन्हें भारत का नागरिक माना जायेगा) ।

1. अधिवास (Domicile) द्वारा नागरिकता (अनुच्छेद 5)

2. प्रवर्जन (Migration) से नागरिकता

(क) पाकिस्तान से भारत को प्रवर्जन करने वालों की नागरिकता (अनुच्छेद 6)

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(ख) भारत से पाकिस्तान को प्रवर्जन करने वालों की नागरिकता (अनुच्छेद 7)

(ग) रजिस्ट्रीकरण से नागरिकता (अनुच्छेद 8)

 

 

अधिवास द्वारा नागरिकता :

अधिवास द्वारा नागरिकता प्राप्त करने के लिए इन दो शर्तों का पूरा होना आवश्यक है: प्रथम व्यक्ति का भारत में संविधान के प्रारम्भ पर अधिवास हो और द्वितीय, सम्बन्धित व्यक्ति इस अनुच्छेद में अधिकथित तीन शर्तों में से एक शर्त पूरा करता हो, अर्थात्:

1. वह भारत में जन्मा हो अथवा

2. उसके माता या पिता में से कोई भारत में जन्मा हो, अथवा

3. जो इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले कम-से-कम पांच वर्ष तक भारत का निवासी रहा हो ।

(i) अधिवास को संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है, परन्तु न्यायिक व्याख्या के अनुसार ‘अधिवास’ से वह स्थान अभिप्रेत है, जहां किसी व्यक्ति का निवास स्थान निश्चित है और जहां से निवास बदलने का वर्तमान में उसका कोई आशय नहीं है ।

(ii) ‘अधिवास’ केवल निवास नहीं है । यह किसी भी स्थान पर अनिश्चित काल तक रहने के आशय से युक्त निवास है ।

भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 :

 भारतीय नागरिकता अधिनियम 1955 बहुत उदार था । जम्मू-कशमीर तथा असम-जैसे राज्यों में विदेशियों ने अनाधिकृत रूप से प्रवेश कर इसका अनुचित लाभ भी उठाया । इसी कारण भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम 1986 पारित किया गया । यह अधिनियम जम्मू-कशमीर तथा असम सहित भारत के सभी राज्यों पर लागू होगा ।

प्रमुख प्रावधान:

1. अब भारत में जन्मे केवल उस व्यक्ति को ही नागरिकता प्रदान की जायेगी जिसके माता-पिता में से कोई एक भारत का नागरिक हो ।

2. जो व्यक्ति पंजीकरण के माध्यम से भारतीय नागरिकता प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अब भारत में कम-से-कम 5 वर्ष निवास करना होगा । पहले यह अवधि 6 माह थी ।

3. देशीयकरण द्वारा नागरिकता तभी प्रदान की जायेगी जब सम्बन्धित व्यक्ति कम-से-कम 10 वर्ष तक भारत में रह चुका हो । पहले यह अवधि 5 वर्ष थी ।

नागरिकता कानून में संशोधन:

1992 में, संसद ने सर्वसम्मति से नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया जिसके अन्तर्गत यह व्यवस्था दी गयी है कि भारत से बाहर पैदा होने वाले बच्चे को यदि उसकी मां भारत की नागरिक है, भारत की नागरिकता प्राप्त होगी ।

इससे पूर्व उसी दशा में किसी बच्चे को भारत की नागरिकता प्राप्त होती थी यदि उसका पिता भारत का नागरिक हो । इस प्रकार अब नागरिकता के प्रसंग में बच्चे की माता को पिता के समकक्ष स्थिति (Equal Status) प्रदान कर दी गयी । ‘भारतीय अधिवास’ का अर्थ है: भारत राज्य क्षेत्र के भीतर कहीं भी अधिवास इसमें राज्य के लिए पृथक् अधिवास को मान्यता नहीं दी गयी है ।

 

प्रवर्जन (आवर्जन) से नागरिकता :

पाकिस्तान से भारत का प्रवर्जन करने वालों की नागरिकता :

कोई व्यक्ति, जिसने पाकिस्तान से भारत राज्य क्षेत्र को प्रवर्जन किया है, संविधान के प्रारम्भ पर भारत का नागरिक समझा जायेगा यदि:

1. वह अथवा उसके माता या पिता में से कोई अथवा उसके पिता या पितामही या मातामह या मातामही में से कोई (मूल रूप से यथा अधिनियमित) भारत सरकार अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में जन्मा था और ऐसा व्यक्ति, जिसने 19 जुलाई, 1948 से पहले प्रवर्जन किया है तथा तब से भारत का मामूली तौर पर निवासी रहा है ।

2. यदि उसने 19 जुलाई, 1948 के पश्चात् प्रवर्जन किया हो, तो उसने भारत डोमिनियन की सरकार द्वारा विहित प्रारूप में किसी सक्षम अधिकारी द्वारा न्यूनतम 6 मास निवास करने के पश्चात् रजिस्ट्रीकृत कर लिया गया हो ।

पाकिस्तान को प्रवर्जन करने वालों की नागरिकता :

(i) अनुच्छेद 5 और अनुत्तगे 6 में से किसी बात के होते हुए भी कोई व्यक्ति, जिसने 1 मार्च, 1947 के पश्चात्, भारत के राज्यक्षेत्र से ऐसे राज्यक्षेत्र को जो इस  समय पाकिस्तान के अन्तर्गत है, प्रवर्जन किया है, भारत का नागरिक नहीं समझा जायेगा ।

(ii) यदि प्रवर्जन करने वाला ऐसा व्यक्ति अनुज्ञा या पुनर्वास सम्बन्धी किसी विधिक प्राधिकार से पुन: भारत राज्य क्षेत्र में वापस आया है, तो वह 19 जुलाई, 1948 के पश्चात् पाकिस्तान से भारत को प्रवर्जन करने वाला माना जायेगा अर्थात् ऐसे प्रवर्जन के बाद उसे भारत में मामूली तौर पर निवास करने तथा न्यूनतम 6 माह तक निवास करने के पश्चात् आवदेन देने के बाद रजिस्ट्रेशन द्वारा नागरिकता दी जा सकेगी ।

(iii) 1 मार्च, 1947 के पश्चात् पाकिस्तान को प्रवर्जन करने वाला व्यक्ति किसी अनुज्ञा या पुनर्वास सम्बन्धी किसी विधिक प्राधिकार के अधीन भारत वापस नहीं आया है, तो वह अनुच्छे 5 से प्राप्त अधिवास सम्बन्धी नागरिकता का अधिकार खो देगा ।

रजिस्ट्रीकरण से नागरिकता: 

(i) अनुच्छेद 5, 6 और 7 के उपबन्ध केवल उन व्यक्तियों पर लागू होते हैं, जो संविधान के प्रारम्भ पर भारत में थे । इन अनुच्छेदों के अन्तर्गत संविधान के प्रारम्भ हो जाने के पश्चात् नागरिकता का अर्जन या नाश सम्भव नहीं है ।

(ii) संविधान के अन्तर्गत केवल यही एक अनुच्छेद है, जो संविधान के प्रारम्भ के नागरिकता के अर्जन के लिए उपबन्ध करता है, किन्तु यह उपबन्ध उन्हीं व्यक्तियों को रजिस्ट्रीकरण द्वारा नागरिकता प्राप्त करने का अवसर देता है, जो अविभाजित भारत के बाहर किसी देश में मामूली तौर पर निवास कर रहे हैं ।

(iii) एक व्यक्ति जिसने 1 मार्च, 1947 के पश्चात् भारत से पाकिस्तान प्रवर्जन किया और जो मामूली तौर पर किसी अन्य देश का निवासी है, स्वय को भारतीय नागरिक के रूप में रजिस्ट्रीकृत करवा सकता है, यदि वह उपर्युक्त शर्तों को (अनुच्छेद 8) पूरा करता है । (कुलसम बीवी बनाम जिला मजिस्ट्रेट (1953) इलाहाबाद हाई कोर्ट) ।

(iv) अनुच्छेद 9 के अनुसार जिस व्यक्ति ने विदेशी राज्य को नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली है, वह भारत का नागरिक नहीं रहेगा । तात्पर्य यह है कि ऐसा व्यक्ति अनुच्छेद 5, 6 या 8 द्वारा नागरिक होने के बाबुजूद भारत का नागरिक नहीं रहेगा ।

(v) विदेशी राज्य-संविधान के अनुच्छेद 367 (3) में विदेशी राज्य की परिभाषा दी गयी है । इस संविधान के प्रयोजनों के लिए ‘विदेशी राज्य’ से भारत से भिन्न कोई राज्य अभिप्रेत है, परन्तु संसद द्वारा बनाई गयी विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, राष्ट्रपति यह घोषणा कर सकेगा कि राज्य उन प्रयोजनों के लिए, जो उस आदेश में विनिर्दिष्ट किये जायें, विदेशी राज्य नहीं है ।

(vi) ‘अर्जित कर ली है’: से तात्पर्य है 26 जनवरी, 1950 के पूर्व विदेशी नागरिकता अर्जित करना (अब्दुल सत्तार बनाम गुजरात राज्य) ।

(vii) धारा 5 के अनुसार, कुछ वर्ग के व्यक्ति, जिन्होंने अन्य रूप में भारतीय नागरिकता नहीं अर्जित की है, विहित प्राधिकारी के समक्ष स्वयं को रजिस्टर करवाकर नागरिकता प्राप्त कर सकते है ।

नागरिकता के अधिकारों का बने रहना:

नागरिकता के अधिकारों को बनाये रखने के लिए अनुच्छेद 10 यह उपबन्ध करता है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो इस भाग के पूर्वगामी उपबन्धों में से किसी के अधीन भारत का नागरिक है या समझा जाता है, ऐसी विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, जो संसद द्वारा बनाई जाये, भारत का नागरिक बना रहेगा ।

नागरिकता से सम्बन्धित विधि:

(i) अनुच्छेद 11 के अनुसार, इस भाग के पूर्वगामी उपबन्धों की कोई बात नागरिकता के अर्जन और समाप्ति के साथ नागरिकता से सम्बन्धित अन्य सभी विषयों के सम्बन्ध में उपबन्ध करने की ससद की शक्ति का अल्पीकरण नहीं करेगी ।

(ii) संसद ने ‘नागरिकता अधिनियम’ 1955 पारित किया और 26 जनवरी, 1950 को यह उसके पश्चात् नागरिकता के अर्जन और समाप्ति के विषय में विस्तृत विधि बनायी है ।

(iii) नागरिकता अधिनियम, 1955 में, संसद ने 1986 और 1992 में अपेक्षित संशोधन भी किया है ।

नागरिकता का अर्जन:

नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार कोई व्यक्ति पांच प्रकार से भारतीय नागरिकता अर्जित कर सकता है:

1. जन्म से नागरिकता

2 विरासत (वंशक्रम या वंश परम्परा) द्वारा नागरिकता

3. रजिस्ट्रेशन (पंजीकरण) द्वारा नागरिकता

4. देशीयकरण से नागरिकता

5. राज्यक्षेत्र के समावेश से नागरिकता

जन्म से नागरिकता:

(i) अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, 26 जनवरी 1950 या उसके पश्चात् किन्तु नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1986 के लागू होने के पूर्व प्रत्येक व्यक्ति जिसका जन्म भारत में होता है, भारत का नागरिक होगा ।

(ii) नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1986 लागू होने की तारीख को अथवा उसके पश्चात् भारत में जन्मा व्यक्ति तभी भारत का नागरिक माना जायेगा जबकि उसके माता-पिता में से कोई उसके जन्म के समय भारत का नागरिक रहा हो ।

(iii) अपवादस्वरूप कोई व्यक्ति जन्म से भारत का नागरिक नहीं होगा, जब:

1. वह विदेशी प्रभुसत्ता दूत या राजनायिक की सन्तान हो, अथवा

2. उसका पिता शत्रु, अन्यदेशीय हो, अथवा

3. उसका जन्म ऐसे स्थान पर होता है, जो तत्समय शत्रु के दखल या नियन्त्रण में हो ।

विरासत या आवर्जन से नागरिकता: 

(i) अधिनियम की धारा 4 (1) के अनुसार 26 जनवरी, 1950 को या उसके पश्चात् भारत से बाहर जन्मा व्यक्ति विरासत से भारत का नागरिक होगा यदि उसके जन्म के समय उसका पिता भारत का नागरिक है ।

(ii) यदि जन्मे व्यक्ति का पिता केवल विरासत से नागरिक था तो ऐसा व्यक्ति धारा 4 (1) के अधीन भारतीय नागरिक नहीं होगा, जब तक कि

1. उसका जन्म किसी भारतीय कौंसिल (राजदूतावास) में एक निश्चित अवधि के भीतर रजिस्ट्रीकृत नहीं कर दिया गया हो, अथवा

2. उसका पिता उसके जन्म के समय भारत सरकार की सेवा में न हो । विदेशों में पैदा होने वाले लोगों को भारतीय नागरिकता उपर्युक्त शर्तों को पूरा करने से प्राप्त होती है ।

देशीयकरण से नागरिकता: 

नागरिकता अधिनियम की धारा 6 और उसकी तृतीय अनुसूची के अन्तर्गत कोई भी विदेशी भारत सरकार को देशीयकरण के लिए आवेदन करके भारत की नागरिकता अर्जित कर सकता है ।

अपवाद:

यदि केन्द्रीय सरकार के मत में आवेदक ऐसा व्यक्ति है, जिसने विज्ञान, दर्शन कला साहित्य विश्वशान्ति या मानव प्रगति के लिए विशिष्ट सेवा की है, तो वह विनिर्दिष्ट सभी या किन्हीं शर्तों को छोड़ सकती है और देशीकरण द्वारा नागरिकता प्रदान कर सकती है ।

 

 

राज्यक्षेत्र के समावेश अथवा अर्जित भू-भाग के सम्मेलन द्वारा नागरिकता : 

नागरिकता अधिनियम की धारा 7 के अनुसार यदि कोई राज्य क्षेत्र भारत का भाग बन जाता है, तो भारत सरकार आदेश विनिष्ट कर सकती है कि कौन से व्यक्ति भारत के नागरिक होंगे । गोवा, दमन और दीव पाण्डेचेरी तथा सिक्किम के राज्य क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को भारतीय नागरिकता इसी प्रकार प्राप्त हुई थी ।

भारतीय नागरिकता समाप्ति के उपबन्ध:

नागरिकता अधिनियम, 1955 नागरिकता समाप्ति के तीन उपाय निदेशित करता है:

1. नागरिकता का परित्याग

2. अन्य देश की नागरिकता अर्जित करने पर

3 नागरिकता से वंचित किये जाने पर

नागरिकता का परित्याग:

(i) नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 8 के अनुसार, यदि पूर्ण उम्र और क्षमता का कोई भी भारतीय नागरिक जो किसी अन्य देश का नागरिक है, विहित रीति से अपनी भारतीय नागरिकता को परित्याग करने की घोषणा करता है, तो इस घोषणा को विहित प्राधिकारी द्वारा रजिस्ट्रीकरण पर वह व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं रह सकेगा ।

(ii) यदि ऐसी घोषणा किसी ऐसे युद्धकाल में की जाती है, जिसमें भारत सरकार एक पक्षकारक हो तो रजिस्ट्रीकरण को तब तक रोका जा सकता है, जब तक भारत सरकार उचित समझे ।

(iii) यदि कोई पुरुष भारतीय नागरिकता का परित्याग करता है, तो उसके साथ-साथ उसके अवयस्क बच्चे भी भारतीय नागरिकता खो देते हैं । ऐसा कोई भी अवयस्क बच्चा भारतीय नागरिकता पुन: प्राप्त कर सकता है, यदि वह वयस्क होने के एक वर्ष की अवधि के भीतर नागरिक होने के बारे में घोषणा कर दे ।

अन्य देशों की नागरिकता अर्जित करने पर: 

(i) नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 9 के अनुसार यदि भारत का कोई नागरिक अपनी इच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता को स्वीकार कर ल्त्त्रा है, तो उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाती है ।

(ii) यह नियम उन नागरिकों के सम्बन्ध में लागू नहीं होगा, जो किसी ऐसे युद्ध के समय में जिसमें भारत एक पक्षकार हो स्वेच्छा से दूसरे देश की नागरिकता स्वीकार कर लेता है ।

कॉमनवेल्थ नागरिकता: 

(i) अधिनियम की धारा 11 के अनुसार अधिनियम की अनुसूची (1) में उल्लिखित कॉमनवेल्थ देशों में से किसी देश का नागरिक ऐसी नागरिकता के कारण भारत में कॉमनवेल्थ नागरिक की प्रस्थिति प्राप्त करेगा ।

(ii) अधिनियम की धारा 12 संघ सरकार को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह पारस्परिकता (Reciprocity) के आधार पर ऐसे उपबन्ध बनाये जिनके द्वारा कॉमनवेल्थ देशों के नागरिकों को भारतीय नागरिकता प्रदान की जा सके ।

(iii) अधिनियम की धारा 18 संघ सरकार को इस सम्बन्ध में नियम एवं उपनियम बनाने की शक्ति प्रदान करती है ।

 

प्रवासी भारतीयों की दोहरी नागरिकता:

(i) 25 अगस्त, 2004 को केन्द्र सरकार ने भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों को दोहरी नागरिकता का लाभ दिलाने के लिए नागरिकता (तीसरा संशोधन) नियमावली 2004 सम्बन्धी अधिसूचना जारी कर     दी ।

(ii) भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त करने के लिए 275 डॉलर या 12,500 रुपये देने होंगे ।

(iii) अधिसूचना के तहत सिर्फ आस्ट्रेलिया कनाडा फिनलैण्ड फ्रांस ग्रीस आयरलैण्ड, इजराइल, इटली, नीदरलैण्ड, न्यूजीलैण्ड, पुर्तगाल, साइप्रस, स्वीडन स्विट्‌जरलैण्ड, ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के भारतीय मूल के नागरिकों को ही दोहरी नागरिकता प्रदान की जा सकती है ।

(iv) भारतीय मूल के नागरिकों को भारत सरकार की सेवाओं में रोजगार मतदान और संवैधानिक पद पाने के अतिरिक्त शेष सारे अधिकार प्राप्त होंगे ।

(v) अनुच्छेद 13 के अनुसार, न्यायालय मूल अधिकारों से असंगत विधियों को अवैध घोषित कर सकती है । अनुच्छेद 13 में, तीन खण्डों में विभाजित न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति समाहित है ।

(vi) न्यायालय को अनुच्छेद 13 के अन्तर्गत नागरिकों के मूल अधिकारों का प्रहरी बनाया गया है ।

मौलिक अधिकार:

संविधान लागू होने के समय कुल सात मौलिक अधिकार थे, परन्तु 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1979 द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया है । वर्तमान में सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार के रूप में है । इसका आशय यह है कि अब सम्पत्ति के अधिकार का उलंघन होने पर अनुच्छेद 32 के अधीन अनुतोष नहीं प्राप्त किया जा   सकता ।

समता का अधिकार:

अनुच्छेद 14 से 18 के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को समता का अधिकार प्रदान किया गया है ।

संविधान सभा में मौलिक अधिकार उपसमिति: 

1. जे॰बी॰ पलानी

2. मीनू मसानी

3. के॰टी॰ शाह

4. अलादी कृष्णास्वामी अय्यर

5. के॰एम॰ मुंशी

6. सरदार हरनाम सिंह

7. मौलाना अबुल कलाम आजाद

8. डॉ॰बी॰आर॰ अम्बेडकर

9. हंसा मेहता

10. सरदार वल्लभ भाई पटेल

11. के॰एम॰ पणिकर

12. राजकुमारी अमृत कौर

विधिक के समक्ष समता: 

(i) समता के सामान्य नियमों को अनुच्छेद 14 में उपबन्धित किया गया है तथा यह व्यक्तियों के अयुक्तियुक्त विभेद को वर्जित करता है ।

(ii) अनुच्छेद 14 में निहित मूल नियम के विशिष्ट उदाहरण अनुच्छेद 15, 16, 17 एवं 18 हैं ।

(iii) ‘विधि’ के समक्ष समता तथा विधियों का समान ‘संरक्षण’ वाक्यांशों का प्रयोग अनुच्छेद 14 में किया गया है ।

(iv) ‘विधियों’ के समान संरक्षण अमेरिकी संविधान से तथा ‘विधि’ के समक्ष समता ब्रिटिश संविधान से लिया गया है ।

(v) ‘समान न्याय’ का उद्देश्य ही उपरोक्त दो वाक्यांशों में निहित है तथा इन वाक्यांशों में समानता होते हुए भी अनेक अर्थ में भिन्नता है ।

(vi) विधि के शासन का सिद्धान्त संविधान का आधारभूत ढाँचा है । यह अनुच्छे 14 में निहित है । अत: इसे अनुच्छे 368 के अधीन संविधान संशोधन द्वारा भी नष्ट नहीं किया जा सकता है ।

समानता के नियम के मुख्य अपवाद:

(i) अनुच्छेद 31 (ग) के अधीन पारित विधियों को अनुच्छे 14 के उल्लघंन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है ।

(ii) भारत के राष्ट्रपति राज्यों के राज्यपालों न्यायालयों के न्यायाधीशों लोकप्राधिकारियों को संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत विशेष प्राधिकार प्रदान किये गये हैं ।

(iii) विदेशी कूटनीतिज्ञों को न्यायालय की अधिकारिता से मुक्ति प्राप्त है ।

(iv) संविधान के अनुच्छेद 14 में ‘किसी व्यक्ति’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका विस्तारित अर्थ है, भारत राज्य क्षेत्र में रहने वाले सभी व्यक्तियों को उक्त सभी अधिकार प्राप्त हैं, चाहे वह नागरिक हो या गैरनागरिक ।

(v) अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के वर्गों की आवश्यकताएं प्राय: भिन्न-भिन्न होती हैं, अत: असमान परिस्थितियों में रहने वाले लोगों के लिए एक ही कानून करना असमानता होगी ।

(vi) अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत समानता का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक विधि का सार्वदेशिक प्रयोग होना चाहिए; क्योंकि सभी व्यक्ति प्रकृति योग्यता तथा परिस्थितियों में एक ही स्थिति में नहीं है ।

धर्म, जाति, मूलवंश, जन्मस्थान, लिंग के आधार पर विभेद का निषेध:

(i) अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 14 में उल्लिखित समता के सामान्य नियम का एक विशिष्ट उदाहरण है ।

(ii) अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत जो विधि अवैध है, उसे अनुच्छेद 14 के अधीन युक्तियुक्त वर्गीकरण के आधार पर वैध घोषित नहीं किया जा सकता ।

(iii) केवल जन्म-स्थान के आधार पर अनुच्छेद 15 विभेद को वर्जित करता है ।

मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय:

शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ 1951 (प्रथम संशोधन को चुनौती):  न्यायालय ने संसद के मौलिक अधिकारों में संशोधन के अधिकार को स्वीकृति दी ।

सज्जन कुमार बनाम राजस्थान (17वें संशोधन को चुनौती): न्यायालय ने शंकरी प्रसाद वाद के निर्णय का अनुमोदन किया ।

 

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, 1967:  न्यायालय ने 6:5 मतों से पूर्व निर्णयों को उलटकर निर्णय दिया कि संसद को मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की शक्ति नहीं है ।

केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य (24वें संसोधन को चुनौती): न्यायालय ने 7:6 मतों से माना कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन तो कर सकती है, पर संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती ।

मिनसा मिल्स बनाम भारत संघ (42वें संविधान को चुनौती):  न्यायालय ने पुन: मूल ढांचे के सिद्धान्तों की व्याख्या की व इस आधार पर संसदीय शक्ति की सीमितता को स्पष्ट किया ।

(i) निवास स्थान, जन्म स्थान से भिन्न है, अर्थात् यदि निवास स्थान के आधार पर विभेद किया जाता है, तो यह अनुच्छेद 15 (1) का अतिक्रमण नहीं होगा किन्तु विभेद का उचित कारण होना चाहिए ।

(ii) राज्य की सेवाओं में सम्मिलित होने वाले सभी अभ्यर्थियों के लिए क्षेत्रीय भाषा में परीक्षण का नियम आवश्यक है । अत: यह अनुच्छेद 15 का अतिक्रमण नहीं करता ।

(iii) अनुच्छेद के 15 (3) के तहत बच्चों और स्त्रियों की स्वभाविक प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर उनके संरक्षण के लिए उपबन्ध बनाने का अधिकार राज्य को प्राप्त है ।

(iv) अनुच्छेद 15 (4) में (प्रथम संशोधन में जोड़ा गया है) राज्य किन्हीं सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों या अनुसूचित जातियों या जन-जातियों की उन्नत्ति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है ।

(v) पिछड़े वर्गों के निर्धारण की शक्ति अनुच्छेद 15 (4) के तहत राज्य को प्राप्त है, किन्तु उसका निर्णय अन्तिम नहीं है । न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप करने और राज्य निर्धारित मापदण्डों की जांच करने का पूर्ण अधिकार है ।

(vi) सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्गों और अधिक पिछड़े वर्गों में वर्गीकरण को ‘बालाजी बनाम मैसूर राज्य’ वाद में असंवैधानिक घोषित कर दिया था किन्तु उच्चतम न्यायालय ने मण्डल कमीशन की रिपोर्ट के बाद इस वर्गीकरण को संवैधानिक माना ।

लोकनियोजन के विषय में अवसर को समता :

(i) संविधान के अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्याधीन किसी पद पर नियुक्त या नियोजन से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों को समान अवसर की प्राप्ति  होगी ।

(ii) जाति, लिंग, धर्म, मूलवंश, जन्मस्थान, निवास वंशक्रम के आधार पर किसी नागरिक को अयोग्य नहीं समझा जायेगा और न ही विभेद किया जायेगा ।

(iii) अनुच्छेद 16 के प्रावधान गैर सरकारी नौकरियों के बारे में लागू नहीं होते ।

(iv) संविदात्मक मामलों में भी अनुच्छेद 16 लागू नहीं किया जा सकता ।

(v) संविधान के अनुच्छेद 16 (1) में वर्णित सामान्य नियम के तीन अपवाद भी हैं, जो अनुच्छेद 16 (2), (3) तथा (4) में क्रमश: वर्णित हैं ।

(vi) लोकसेवाओं के लिए आवश्यक योग्यताओं एव मापदण्डों के निर्धारण के लिए अनुच्छेद 16 (1) राज्य को पूर्ण अधिकार देता है ।

(vi) अनुच्छेद 16 (1) स्वतन्त्र एवं पृथक् वर्ग के कर्मचारियों के बीच समानता न होकर एक ही वर्ग के कर्मचारियों के बीच समानता है ।

(vii) अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण है कि चयन का मापदण्ड मनमाने ढग से न हो बल्कि निर्धारित अर्हता एवं पद नियुक्ति में तर्कसंगत सम्बन्ध होना आवश्यक है ।

(viii) अनुच्छेद 16 (2) में दो अन्य आधारों वंशक्रम तथा निवास स्थानों को शामिल किया गया है ।

(ix) अनुच्छेद 16 (4) लागू होने की प्रमुख शर्तें हैं: ऐसा वर्ग सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हो तथा उसे राज्याधीन पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिल पाया हो ।

(x) संविधान के अनुच्छेदके 340 के अधीन अधिकार पाने के पिछड़े वर्गों की अवधारणा के लिए राज्य को आयोग स्थापित करने की शक्ति प्राप्त है, जबकि संविधान में ‘पिछड़े वर्ग’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है ।

(xi) अनुच्छेद 16 के तहत मण्डल कमीशन का मामला एक प्रमुख वाद है ।

(xii) पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत का आरक्षण 13 अगस्त, 1990 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री वी॰पी॰ सिंह के एक कार्यपालिका आदेश द्वारा मण्डल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर किया गया ।

(xiii) 1991 के संसदीय चुनाव में पुन: सत्ता में वापस लौटी कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पी॰वी॰ नरसिंह राव की सरकार ने 13 अगस्त, 1991 को पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत के आरक्षण का आदेश कार्यपालिका द्वारा जारी किया ।

(xiv) उच्चतम न्यायालय की 9 सदस्यीय पीठ ने इस मामले की सुनवाई की थी ।

(xv) अनुच्छेद 16 (4) में पिछड़ेपन का आधार आर्थिक न होकर जातिगत है । जाति एक सामाजिक वर्ग है और यदि वह सामाजिक रूप से पिछड़ी है, तो अनुच्छेद 16 (4) के तहत पिछड़ा वर्ग माना जायेगा ।

(xvi) उच्चतम न्यायालय ने बालाजी वाद में दिये अपने निर्णय को सही मानते हुए कहा कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए ।

(xvii) अनुच्छेद 16 (5) यह उपबन्ध करता है कि राज्य सरकार किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्थाओं के प्रबन्ध के लिए किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के मानने वाले लोगों की नियुक्ति कर सकता है ।

अस्पृश्यता का अन्त:

(i) अनुच्छेद 17 के अन्तर्गत प्राप्त मूल अधिकार केवल राज्य के विरुद्ध ही नहीं अपितु नागरिकों के विरुद्ध भी है ।

(ii) 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 ससद ने पारित किया ।

(iii) उक्त अधिनियम के अन्तर्गत अस्पृश्यता के अपराध के लिए 500 रुपये नक का जुर्माना या 6 माह के कारावास के दण्ड का प्रावधान किया गया ।

(iv) अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता अधिनियम के अन्तर्गत किसी भी अयोग्यता को लागू करने को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है ।

(v) 1976 में इस अधिनियम में संशोधन करते हुए इसका नाम बदलकर Protection of Civil Right Act, 1955 कर दिया गया है ।

(vi) अनुच्छेद 17 केवल शाब्दिक अस्पृश्यता का निषेध ही नहीं करता अपितु जाति-प्रथा और परम्परा से चली आ रही अस्पृश्यता का निषेध भी करता है ।

(vii) अनुच्छेद 17 तथा अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में अस्पृश्यता  का कोई परिभाषा नहीं दी गयी है, परन्तु इसका अर्थ उन सामाजिक कुरीतियों से लेना चाहिए, जो भारतवर्ष में चली आ रही प्रथाओं के कारण उत्पन्न हुईं ।

उपाधियों का अन्त:

(i) संविधान का अनुच्छेद 18 किसी भी नागरिक (भारतीय या विदेशी) को उपाधियां प्रदान करने से मना करता है ।

(ii) अनुच्छेद 18 के उपबन्धों के तहत भारत का कोई नागरिक बिना राष्ट्रपति की अनुमति के किसी विदेशी सरकार से कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है ।

(iii) राज्य के अधीन किसी महत्त्वपूर्ण पद पर स्थापित कोई (विदेशी या अन्य) व्यक्ति राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता ।

(iv) संविधान द्वारा किसी दण्ड का प्रावधान अनुच्छेद 18 की अवहेलना करने वालों के विरुद्ध नहीं किया गया है ।

(v) अनुच्छेद 18 निदेशात्मक प्रकृति का है, आदेशात्मक प्रकृति का नहीं ।

स्वतन्त्रता का अधिकार :

(i) स्वतन्त्रता के अधिकारों का प्रावधान अनुच्छेद 19 से 22 तक किया गया

(ii) वाक् स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण-अनुच्छेद 19 के खण्ड (1) के अनुसार सभी नागरिकों को:

1. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता

2. अस्त्र-शस्त्ररहित तथा शान्तिपूर्वक सम्मेलन की स्वतन्त्रता

3. संगत और संघ-निर्माण की स्वतन्त्रता

4. भारत राज्य क्षेत्र में अवधि भ्रमण की स्वतन्त्रता

5. भारत राज्यक्षेत्र में अवधि निवास और बस जाने की स्वतन्त्रता

6. वृत्ति उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता ।

मूल संविधान में अनुच्छेदके 19 द्वारा नागरिकों को 7 स्वतन्त्रताएं प्रदान की गयी थीं और इसमें छठी स्वतन्त्रता सम्पत्ति की स्वतन्त्रता थी । 44वें संविधान संशोधन के द्वारा सम्पत्ति के मौलिक अधिकार के साथ-साथ सम्पत्ति की स्वतन्त्रता भी समाप्त कर दी गयी है और अब 19वें अनुच्छेद के अन्तर्गत नागरिकों को छह प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है ।

‘अभिव्यक्ति’ शब्द अनुच्छेद 19 की विस्तृत व्याख्या करता है तथा ‘अभिव्यक्ति’ पदावली के अन्तर्गत वे सभी माध्यम आते हैं, जो विचारों को व्यक्त करने के लिए आवश्यक हैं । अनुच्छेद 19 (1) (क) के अन्तर्गत निम्नलिखित मूल अधिकारों को अन्तर्निहित मान्यता प्रदान की गयी है:

1. प्रेस की स्वतन्त्रता,

2. जानने का अधिकार,

3. शिक्षा का अधिकार,

4. सूचना पाने का अधिकार,

5. शान्तिपूर्ण धरना या प्रदर्शन का अधिकार,

6 मौन रहने का अधिकार आदि ।

अनुच्छेद 19 (1) के अन्तर्गत केवल उन्हीं धरनों एवं प्रदर्शनों को संरक्षण प्रदान किया गया है, जो हिंसात्मक और उच्छूंखल प्रकृति के नहीं है (कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य-1962) ।

किसी भी प्रदर्शन को, जो कि हड़ताल का रूप ले ले हड़ताल या प्रदर्शन करने से रोका जा सकता है; क्योंकि 19 (1) के अन्तर्गत हड़ताल करने का अधिकार कोई मूलाधिकार नहीं है ।

वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार पर निर्बन्धन :

1. राज्य की सुरक्षा के आधार पर

2. शिष्टाचार या सदाचार के हित में

3. मानहानि के आधार पर

4. भारत की प्रभुता एवं अखण्डता के आधार पर

5. न्यायालय की अवमानना के आधार पर

6. विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर

7. लोक व्यवस्था के आधार पर तथा

8. अपराध उद्दीपन के मामलों में ।

9. भारतीय नागरिकों को शान्तिपूर्वक बिना हथियार के सभा करने की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19 (1) (ख) के अन्तर्गत प्राप्त होती है ।

10. सभा के हिंसात्मक या लोक व्यवस्था में व्यवधान पैदा करने वाला होने पर, उस सभा को अनुच्छेद 19 (1) (ख) की सुरक्षा नहीं प्राप्त होगी ।

11. अनुच्छेद 19 (1) (ग) समस्त भारत के नागरिकों को सघ या संस्था त्रनाने की छुट देता है ।

12. अनुच्छेद 19 (4) के तहत देश सम्प्रभुता के हित तथा लोक व्यवस्था या नैतिकता के अधिकार पर संघ बनाने की स्वतन्त्रता पर राज्य प्रतिबन्ध लगा सकता है ।

13. अनुच्छेद 19 (1) (घ) प्रान्तीयतावाद जैसी संकुचित भावना को समाप्त कर भारतीय नागरिकों को स्वतन्त्रतापूर्वक समस्त भारत में भ्रमण का अधिकार देता है ।

14. सभी भारतीय नागरिकों को अनुच्छेद 19 (1) (ड) के तहत भारत के किसी भी भाग में बसने की स्वतन्त्रता प्राप्त है तथा इसके लिए किसी अन्य अधिकार या पूर्वानुमति की आवश्यकता नहीं है ।

15. राष्ट्रीय एकता की स्थापना और उसे मजबूत करना भ्रमण की स्वतन्त्रता तथा निवास की स्वतन्त्रता का मुख्य उद्देश्य होने के कारण ये एक-दूसरे की पूरक हैं ।

16. भ्रमण एवं निवास की स्वतन्त्रता पर आपातकाल में प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है ।

17. फांरेन एक्ट 1964 के अन्तर्गत विदेशी व्यक्तियों के निवास एवं भ्रमण पर प्रतिबन्ध के अलावा उन्हें भारत से निकाला भी जा सकता है ।

18. संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (छ) के अन्तर्गत सभी नागरिकों को कोई भी व्यापार कारोबार एव पेशा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता है ।

19. अनुच्छेद 19 के खण्ड (छ) के अन्तर्गत साधारण जनता के हित वृत्ति या तकनीकी योग्यताओं के निर्धारण नागरिकों को पूर्णत: या भागत: बहिष्कृत करके युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाया जा सकता है ।

20. व्यापार को आरम्भ करने के पश्चात् उसे बन्द करने का अत्यन्तिक अधिकार नहीं है, किन्तु लोकहित में इसे निर्बाधित नियन्त्रित एवं विनियमित किया जा सकता है ।

21. उच्चतम न्यायालय ने एक्सेल बीयर बनाम भारत सरकार के वाद में निर्णय दिया कि जो व्यक्ति अपने श्रमिकों को मजदूरी नहीं दे सकता उसे व्यापार करने का अधिकार नहीं है और ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति को कारोबार बन्द करने की अनुमति न देना अनुच्छेद 19 के खण्ड (छ) के अन्तर्गत युक्तिसंगत नहीं है ।

22. अनुच्छेद 19 (1) (छ) राज्य लोकहित में हड़ताल और तालाबन्दी पर रोक लगा सकता है ।

23. किसी व्यक्ति को अवैध या अनैतिक कार्यों को करने का अधिकार भी अनुच्छेद 19 (1) (छ) नहीं देता । जो पेशे शोर और खतरनाक प्रकृति के हैं, उनके स्थान समय और का को परिवर्तित किया जा सकता है ।

24. शराब, गांजा, अफीम, भांग आदि नशीले पदार्थों पर राज्य का एकाधिकार होता है और वह इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध भी लगा सकता है ।

25. अनुच्छेद 19 (1) (छ) के अन्तर्गत सरकारी शराब की दुकानों बस स्टेशनों सिनेमाघरों आदि की स्थापना तथा वस्तुओं के अधिकतम मूल्य एवं न्यूनतम मजदूरी को युक्तियुक्त निर्कधन माना गया है ।  किसी व्यापार के लाइसेंस हेतु कोई शर्त हो जो तर्कसंगत हो तो यह भी युक्तियुक्त निर्बन्धन होगा ।

अपराधों के लिए दोषसिद्ध के सम्बन्ध में संरक्षण:

(i) अनुच्छेद 20 में अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण प्रदान किया है ।

(ii) कोई कृत्य तब अपराध नहीं था, जब वह कृत्य किया गया था, परन्तु बाद में अपराध की श्रेणी में आ गया-कार्योत्तर विधि के अन्तर्गत आता है ।

(iii) भूत-लक्षीय तथा भविष्य-लक्षीय दो प्रकार की विधियां विधानमण्डल द्वारा बनाई जा सकती है । अनुच्छेद 20 केवल दण्ड विधि बनाने का निषेध करता है । सिविल विधियों को भूतलक्षी प्रभाव देने का निषेध नहीं करता ।

(iv) यदि कोई कार्य वर्तमान समय में अपराध नहीं है, तो बाद में विधि बनाकर उसे अपराध नहीं बनाया जा सकता है ।

(v) अनुच्छेद 20 के खण्ड (1) उपबन्धित करता है कि किसी व्यक्ति को केवल किसी प्रवृत्ति के उल्लघन के अतिरिक्त अन्य किसी अपराध के लिए दण्डित नहीं किया जा सकता है ।

(vi) अनुच्छेद 20 खण्ड (2) उपबंधित करता है कि किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से ज्यादा दण्डित नहीं किया जा सकता ।

(vii) ‘प्रत्येक व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि अभियोजन द्वारा अपराधी साबित न किया जाये’ यह दाण्डिक विधि का सामान्य नियम है । इस नियम को खण्ड 3 के तहत संवैधानिक सैर क्षण प्राप्त है ।

(viii) अनुच्छेद 20 (3) का संरक्षण केवल अपराधी को ही प्राप्त है । यह सिविल कार्रवाई के सम्बन्ध में लागू नहीं होता ।

प्राण व दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण:

(i) अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण एव दैहिक स्वतन्त्रता को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के द्वारा ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं ।

(ii) यह अधिकार सभी को प्राप्त है, चाहे वह नागरिक हो या अनागरिक ।

(iii) नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त को अनुच्छेद 21 का आवश्यक तत्त्व माना गया है ।

(iv) नैसर्गिक न्याय का सिद्धान्त अनुच्छेद 14 में समाहित है ।

(v) ‘दैहिक स्वाधीनता’ के अन्तर्गत वे सभी आवश्यक तत्त्व सम्मिलित हैं, जो व्यक्ति की दैहिक स्वतन्त्रता को पूर्ण बनाने में सक्षम हों ।

(vi) इस अनुच्छेद के तहत व्याख्यायित ‘दैहिक स्वाधीनता’ के अन्तर्गत अनुच्छेदके 19 द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रता के सभी अधिकार आ जाते है ।

(vi) उच्चतम न्यायालय ने एम॰एम॰ हस्कर बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में निर्णय दिया कि दोष सिद्ध व्यक्ति को न्यायालय में अपील करने का मूल अधिकार प्राप्त है और उसे नि:शुल्क निर्णय की प्रतिलिपि एवं कानूनी सहायता प्राप्त करने का भी अधिकार है ।

(vii) इसी विषय में न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने कहा कि नि:शुल्क कानूनी सहायता प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है न कि दान ।

(viii) शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 21 (क) के अनुसार, राज्य छह से चौदह वर्ष आयु तक के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा, जैसा कि विधि उपबन्धित हो । (यह अनुच्छेद 86वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2001 जोड़ा गया है ।)

बन्दीकरण व निरोध के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण:

(i) अनुच्छेद 22, अनुच्छेद 21 का पूरक है और इन दोनों को एक साथ पढ़ना चाहिए ।

(ii) अनुच्छेद 22 उन प्रक्रियात्मक शर्तों को निदेशित करता है, जिसका विधानमण्डल द्वारा विहित किसी प्रक्रिया में होना आवश्यक है ।

(iii) विधानमण्डल को विधि निर्मित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है तथा वह विधि पारित करके प्रक्रिया विहित कर सकता है । यह निर्णय ए॰के॰ गोपालन बनाम मद्रास राज्य के वाद में किया गया है ।

(iv) दण्डात्मक गिरफ्तारी निरुद्ध व्यक्ति को दण्ड देने के उद्देश्य से की जाती है, जबकि निवारक बन्दीकरण का उद्देश्य दण्ड देना नहीं, वरन् अपराधी को अपराध करने से रोकना है । अत: निवारक गिरफ्तारी दण्डात्मक गिरफ्तारी से भिन्न है ।

(v) भारतीय संसद द्वारा निवारक निरोध कानून 1950 में पारित किया गया था ।

(vi) भारत में यह संविधान का अंग है, किन्तु अमरीका के संविधान का भाग नहीं है ।

(vii) राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1983; आवश्यक वस्तु एवं चोरबाजारी निवारण अधिनियम 1980 इसके उदाहरण हैं ।

(viii) उच्चतम न्यायालय के ए॰के॰ राय बनाम भारत संघ के मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम को वैध घोषित किया ।

(ix) 44वें संशोधन के पश्चात् सलाहकार बोर्ड की राय के बिना किसी व्यक्ति को दो माह से अधिक निरुद्ध नहीं किया जा सकता ।

(x) बोर्ड की सलाह पर दो माह से अधिक तथा विधानमण्डल द्वारा पारित कानून के अन्तर्गत अधिकतम दो माह के निरोध का ही प्रावधान वे संशोधन के पश्चात् लागू हुआ है ।

(xi) सलाहार बोर्ड का गठन उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से किया जायेगा तथा बोर्ड अध्यक्ष उच्च न्यायालय में कार्यरत न्यायाधीश हो सकेगा । बोर्ड में एक अध्यक्ष और कम-से-कम दो अन्य सदस्य होंगे ।

(xii) बोर्ड यदि किसी निरोध को औचित्यहीन घोषित कर देता है, तो निरुद्ध व्यक्ति को मुक्त कर दिया जायेगा ।

शोषण के विरुद्ध अधिकार:

(i) अनुच्छेद 23 व 24 में, शोषण के विरुद्ध अधिकार का उल्लेख है ।

(ii) मानव दुर्व्यापार, बेगार या बलात्श्रम को प्रतिषिद्ध करना तथा ऐसे अपराध के दण्डनीय होने की घोषणा अनुच्छेद 23 के अन्तर्गत की गयी है ।

(iii) अनुच्छेद 23 के तहत मानव के किसी भी परम्परागत शोषण को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है ।

(iv) मानव शोषण के विरुद्ध प्रत्याभूति सभी व्यक्तियों (नागरिक या अनागरिकों) को न केवल राज्य के विरुद्ध, वरन् निजी व्यक्तियों एव निकायों के विरुद्ध भी प्राप्त है ।

(v) मानवीय गरिमा की मान्यता का अभिलेख सबके विरुद्ध है, अर्थात् राज्य या निजी दोनों । यह व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 23 (1) की पृष्ठभूमि, दर्शन और व्यापकता को निर्दिष्ट करते हुए पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्‌स बनाम भारत संघ (1984) के वाद में दिया ।

(vi) किसी अपराध को करने के कारण दण्ड के रूप में कराये गये बलाक्यूम का निषेध अनुच्छेद 23 नहीं करता है ।

(vii) यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी अतिरिक्त सेवाएं प्रदान करता है या कार्य करता है, तो उसे बलात्श्र्म की श्रेणी में नहीं रखा जायेगा ।

(viii) अनुच्छेद 23 का खण्ड (2) खण्ड (1) में दिये गये सामान्य नियमों का एक अपवाद निर्मित करता है ।

(ix) कोई भी राज्य राज्य के हित लोकहित या सार्वजनिक हित के कार्यों के लिए अनिवार्य सेवा लागू करने का अधिकार रखता है, किन्तु ऐसी सेवा केवल धर्म, जाति, मूलवंश या वर्ग के आधार पर भेद- भावजन्य नहीं होनी चाहिए । (अनुच्छेद 23 (2))

(ix) अनुच्छेद 24 के अन्तर्गत बालश्रम का निषेध किया गया है ।

(x) अनुच्छेद 24 के तहत किसी भी 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे को किसी कारखाने खान या अन्य परिसंकटमय उद्योगों में नियोजित नहीं किया जा सकता ।

(xi) शोषण को समाप्त करने के लिए अनुच्छेद के 23 एवं 24 की व्यवस्थानुसार स्वतन्त्रतापूर्वक निर्मित कानूनों को न केवल बनाये रखा गया है, बल्कि नये कानून भी अधिनियमित किये गये हैं ।

(xii) कारखानों में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों की नियुक्ति का प्रतिबन्ध कारखाना अधिनियम, 1948 तथा खान अधिनियम 1952 के तहत किया गया है ।

धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार:

सभी व्यक्तियों को अनुच्छेद 25 के अन्तर्गत धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार निम्न रूप से प्राप्त है :

1. अन्त करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने आचरण और प्रचार करने की स्वतन्त्रता,

2. अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतन्त्रता,

3. धर्म को मानने एवं आचरण करने की स्वतन्त्रता और

4. अन्त: करण की स्वतन्त्रता ।

(i) इस अनुच्छेद के तहत कोई व्यक्ति अपने धर्म की मान्यताओं को समझकर उसका प्रचार एव प्रसार कर सकता है, किन्तु किसी भी प्रकार के बल-छल या प्रलोभन से किसी व्यक्ति को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य नहीं कर सकता ।

(ii) बलपूर्वक प्रोत्साहन अथवा धोखाधड़ी द्वारा धर्मान्तरण कराने के किसी र्भो प्रयास को अवैध घोषित करते हुए इस अपराध के लिए 3 वर्ष के कारावास तथा 50 हजार रुपये के जुर्माने का प्रावधान किया गया है ।

(iii) अनुच्छेद 25 (1) में वर्णित अन्त: करण की, धर्म को मानने की, आचरण करने या प्रचार करने की धार्मिक स्वतन्त्रता लोक व्यवस्था सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए ही प्राप्त है ।

(iv) किसी व्यक्ति को अपने धार्मिक विचारों को सम्प्रेषित करने की बजाय किसी दूसरे व्यक्ति को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य करना दूसरे व्यक्ति के अन्त करण की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण होगा ।

अनुच्छेद 25 (2) के तहत राज्य व्यक्ति के धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार पर निम्न आधारों पर निर्बन्ध लगा सकता है:

1. लोक व्यवस्था सदाचार तथा स्वास्थ्य के अधीन,

2. धार्मिक आचरण से सम्बन्धित किसी आर्थिक, राजनैतिक या लौकिक क्रियाकलाप का नियिमन या निर्कन्धन करने के लिए,

3 सामाजिक कल्याण तथा सुधार के लिए ।

(i) धार्मिक आचरण से सम्बन्धित लौकिक क्रियाओं (आर्थिक, वाणिज्यिक, राजनीतिक) में ही राज्य द्वारा हस्तक्षेप किया जा सकता है ।

(ii) विभिन्न प्रकार के धार्मिक कृत्य जो कि धर्म के मूल तत्त्व हैं, जिनका निर्धारण न्यायालय ही कर सकता है, उसकी स्वतन्त्रता पर राज्य द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है ।

(iii) धर्म के नाम पर किसी भी व्यक्ति सस्था को ऐसा कोई कार्य करने की छूट प्रदान नहीं की जा सकती जिससे सार्वजनिक व्यवस्था लोकहित सदाचार या जनता के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता हो ।

(iv) यदि किसी भी धार्मिक कृत्य जैसे-बलपूर्वक धर्मान्तरण कराना जिससे लोक व्यवस्था के भग होने की आशंका हो तो राज्य ऐसे धार्मिक कृत्य को कानून बनाकर रोक सकता है ।

(v) समाज कल्याण एवं सामाजिक सुधार के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 सती प्रथा देवदासी प्रथा का निषेध आदि अनेक प्रकार के प्रगतिशील  एवं सामाजिक कदम उठाये गये हैं ।

(vi) पाण धारण करना और लेकर चलना सिख धर्म को मानने का मी समझा जायेगा ।

धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता:

सार्वजनिक व्यवस्था सदाचार और लोक स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए प्रत्येक धार्मिक समुदाय या उसके किसी अनुभाग को संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत आगे दिये अधिकार प्राप्त होंगे:

1. धार्मिक और पूर्व प्रायोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना व पोषण का अधिकार ।

2. अपने धार्मिक कार्यों सम्बन्धी विषयों का प्रबन्ध करने का अधिकार ।

3. जंगम और स्थावर सम्पत्ति के अर्जन व स्वामित्व का अधिकार ।

4. ऐसी सम्पत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन का अधिकार ।

संविधान द्वारा अनुच्छेद 26 के अन्तर्गत प्रदत्त अधिकार किसी धार्मिक संस्था तथा उसके किसी वर्ग को दिया गया है, जबकि अनुच्छेद 25 का अधिकार व्यक्तियों को प्रदान किया जाता है ।

यह निर्धारित करने के लिए कि अनुच्छेद 26 के अन्तर्गत कोई धार्मिक सम्प्रदाय है या नहीं तीन शर्तें हैं:

1. उसका एक अलग नाम हो ।

2. वह समूह एक सामान्य संगठन के रूप में हो ।

3. ऐसे व्यक्ति या समूह हों जो उक्त सम्प्रदाय के आध्यात्मिक अभिवृद्धि में सहायक हों तथा एक सामान्य जीवन पद्धति में विश्वास रखते हों ।

(i) संगठित संस्थाओं जैसे, धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी वर्ग द्वारा ही अनुच्छेद 26 के अधिकार का उपयोग किया जा सकता है ।

(ii) द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टता द्वैतवाद, शैव आदि को इस अनुच्छेद 26 की परिभाषा के तहत धार्मिक सम्प्रदाय माना गया है ।

किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय की  उन्नत्ति के लिए कर न देने की स्वतन्त्रता:

(i) धर्मनिरपेक्ष राज्य के आदर्शों को मजबूत करना अनुच्छेद 27 का मुख्य उद्देश्य है ।

(ii) संविधान के अनुच्छेद 27 के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय की उन्नत्ति के लिए कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा ।

(iii) अनुच्छेद 27 केवल ‘कर’ लगाने का ही निषेध करता है, शुल्क लगाने का नहीं ।

(iv) सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार ‘कर’ एक अनिवार्य धन की वसूली है, जो स्वयं जनता के हित के लिए राज्य द्वारा वसूला जाता है, जिसमें सभी लोगों के साथ दाता का भी लाभ होता है तथा शुल्क भी सार्वजनिक प्रायोजन के लिए लिया जाता है, किन्तु यह उनके लाभ के लिए होता है, जिन्होंने कुछ विशेष कार्य या सेवाओं को सम्पादित किया है ।

संस्कृति और शिक्षा के सम्बन्ध में अधिकार:

(i) अनुच्छेद 29 के खण्ड (1) के अनुसार भारत राज्य क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के हर किसी वर्ग को जिसकी अपनी विशेष संस्कृति भाषा या लिपि है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा ।

(ii) खण्ड (2) के अनुसार राज्य द्वारा पोषित या राज्य निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म अवश जाति भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जायेगा ।

शिक्षा संस्थाओं की स्थापना एवं प्रशासन करने का अलपसंख्यक-वर्गों का अधिकार:

(i) अनुच्छेद 30 (1) में धर्म या भाषा के संरक्षण के लिए अल्पसंख्यकों द्वारा अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं प्रशासन करने का अधिकार है ।

(ii) संविधान के अनुच्छेद 30 (2) के अनुसार शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने के सम्बन्ध में राज्य इस आधार पर भेद नहीं करेगा कि धर्म एव भाषा के आधार पर उसका प्रबन्ध अल्पसंख्यकों के पास है ।

(iii) संविधान के अनुच्छे 30 (2) के उक्त अधिकार पर अनुच्छेद 29 (2) द्वारा निर्यध लगाया गया है कि राज्य द्वारा पोषित या राज्य निधि से सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में प्रवेश पाने से किसी नागरिक को केवल धर्म मूल जाति वंश भाषा या इनमें से किसी आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता ।

(iv) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों द्वारा अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं के प्रबन्ध का अधिकार तभी प्राप्त होगा जब यह सिद्ध हो कि संस्था की स्थापना उनके द्वारा ही की गयी है ।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार:

(i) संविधान द्वारा प्रदान किये गये इस अधिकार को डॉ॰बी॰आर॰ अम्बेडकर ने संविधान के ‘हृदय तथा आत्मा’ की संज्ञा दी । यह अधिकार सभी नागरिकों को छूट देता है कि वे अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास जा सकते हैं तथा अपने अधिकारों को लागू करने की मांग कर सकते हैं ।

(ii) सर्वोच्च न्यायालय इन अधिकारों की रक्षा हेतु अनेक प्रकार के लेख जारी कर सकता है, जैसे-बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Writ of Habeas Corpus), परमादेश लेख (Mandamus), प्रतिषेध लेख (Prohibition) अधिकार पृच्छा लेख (Queirranto) तथा उत्येक्षण लेख (Writ of Certiorari) ।

बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeus Corpus): कार्यपालिका व निजी व्यक्ति दोनों के विरुद्ध उपलब्ध अधिकार जो कि अवैध निरोध के विरुद्ध व्यक्ति को सशरीर अपने सामने प्रस्तुत किये जाने का आदेश जारी करता है । न्यायालय दोनों पक्षों को सुनकर यह निर्णय लेता है कि निरोध उचित है अथवा अनुचित है ।

 

परमादेश (Mandamus):  इसका शाब्दिक अर्थ है, ‘हम आदेश देते है’ । यह उस समय जारी किया जाता है, जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का पालन नहीं करता । इस रिट के माध्यम से उसे अपने कर्तव्य पालन का आदेश दिया जाता है ।

उत्प्रेषण (Vertiorari) : इसका शाब्दिक अर्थ है ‘और अधिक जानकारी प्राप्त करना’ । यह आदेश कानूनी क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित त्रुटियों अथवा अधीनस्थ न्यायालय से कुछ सूचना प्राप्त करने के लिए जारी किया जाता है ।

अधिकार पृच्छा (Que-irranto) : जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है, जिसका कि वह वैधानिक रूप से अधिकारी नहीं है तो न्यायालय इस रिट द्वारा पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा है । इस प्रश्न का समुचित उत्तर देने तक वह कार्य नहीं कर सकता है ।

प्रतिषेध (Prohibition) : यह तब जारी किया जाता है, जब कोई न्यायिक अधिकरण अथवा अर्धन्यायिक प्राधिकरण अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण करता है । इसमें प्राधिकरण न्यायालय को कार्रवाई तत्काल रोकने का आदेश दिया जाता है ।

मौलिक अधिकारों का निलम्बन:

(i) जब राष्ट्रपति देश में अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय अग्पातकाल की घोषणा (युद्ध और बाह्य आक्रमण के आधार पर) करता है, तो अनुच्छेद 19 के तहत प्राप्त सभी मौलिक अधिकार स्वत: निलम्बित हो जाते हैं ।

(ii) अन्य मौलिक अधिकारों को राष्ट्रपति अनुच्छेद 359 के तहत अधिसूचना जारी कर निलम्बित कर सकता है ।

(iii) 44वें संविधान संशोधन (1978) के अनुसार अनुच्छेद 20 और 21 द्वारा प्रदत्त अधिकार कभी भी समाप्त नहीं किये जा सकते ।

(iv) इस प्रकार देश में आपात स्थिति में राष्ट्रपति अधिसूचना जारी कर अनुच्छेद 20 और 21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड्‌कर बाकी सभी मौलिक अधिकार निलम्बित कर सकता है ।

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व:

(i) भारतीय संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक (कुल 16 अनुच्छेद) में ‘राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व’ शीर्षक से न्यायिक रूप से अप्रवर्तनीय किन्तु शासन की नीति से मूलभूत तत्त्व के रूप में वर्गीकृत उन उपबन्धों का वर्णन किया गया है, जो सामाजिक आर्थिक एव राजनैतिक न्याय को बढ़ावा देकर लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करेंगे ।

(ii) मूल संविधान में वर्णित इन 16 अनुच्छौ के साथ कुछ नये उपबन्ध भी अन्त: स्थापित किये गये हैं, जैसे-42वें संशोधन, 1976 द्वारा अनुच्छेद 39-क, 43-क, 48-क और 44वें संशोधन 1978 द्वारा अनुच्छेद 38 (2) ।

(iii) भाग 4 के लिए ‘राज्य’ की वही परिभाषा होगी जो भाग 3 के मूलाधिकारों की है, किन्तु इसमें जम्मू-कशमीर सम्मिलित नहीं है ।

(iv) नीति-निदेशक तत्त्वों का प्रमुख स्रोत आयरलैण्ड का संविधान है, किन्तु इसके प्रभाव की व्यापकता दो दिशाओं की स्पर्श करती है-प्रथम, संवैधानिक तथा द्वितीय, विचारात्मक ।

नीति-निदेशक तत्त्वों का वर्गीकरण:

 

आदर्श नीति व लक्ष्य के आधार पर:

 

(क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो ।

(ख) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार संचालित हो कि धर्म और उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो ।

(ग) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार विभाजित हो, जिसे सर्वोत्तम सामूहिक हित हो सके ।

(घ) पुरुषों स्त्रियों तथा अवयस्क बच्चों का दुरुपयोग न हो तथा आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसा कार्य न करना पड़े जो उनकी आय या शक्ति के प्रतिकूल हो ।

(ड.) राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने शिक्षा पाने और बेकारी बुढ़ापा बीमारी और नि शक्तता तथा अन्य अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबन्ध करेगा । पुरुषों और स्त्रियों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिलेगा ।

(च) बच्चों को स्वतन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वास्थ्य विकास के अवसर और सुविधाएं दी जायें तथा अवयस्क व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाये ।

(छ) राज्य कर्मचारी को काम निर्वाह मजदूरी शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपयोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा ।

(ज) राज्य आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के बीच भी प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा ।

 

नीति-निदेशक तत्त्वों तथा मौलिक अधिकारों में भेद:

(i) मूलाधिकार सामान्यत: नकारात्मक हैं जबकि नीति-निदेशक तत्त्व सकारात्मक है ।

(ii) मूलाधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं जबकि नीति-निदेशक तत्त्व अप्रवर्तनीय हैं ।

(iii) मौलिक अधिकारों का विषय व्यक्ति है, जबकि नीति-निदेशक तत्त्वों का विषय राज्य है ।

(iv) मौलिक अधिकार कुछ परिस्थितियों में मर्यादित सीमित और निलम्बित किये जा सकते हैं, जबकि नीति-निदेशक तत्त्व सदैव अस्तित्व में बने रहते हैं ।

(v) मूलाधिकारों का राजनीतिक एवं विधिक महत्त्व है, जबकि नीति-निदेशक तत्त्व का महत्त्व सामाजिक आर्थिक एवं कल्याणकारी है ।

(vi) मूलाधिकारों की विषय-वस्तु सीमित है, किन्तु नीति-निदेशक तत्त्व की विषय-वस्तु व्यापक है, जैसे- अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना (अनुच्छेद 51 आदि)

(vii) मूलाधिकार साध्य है, जबकि नीति-निदेशक तत्त्व साधन है ।

(viii) मौलिक अधिकार प्रत्यक्ष मौलिक या सर्वोच्च विधि है, किन्तु नीति-निदेशक तत्त्व नूतन विधि द्वारा प्रवर्तनीय है ।

सामाजिक न्याय सिद्धान्त के आधार पर:

(क) राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधि तन्त्र इस प्रकार कार्य करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और विशेषकर आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न हो ।

(ख) राज्य सभी बच्चों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए प्रावधान करने का प्रयास करेगा ।

(ग) राज्य समाज के अनेक वर्गों के बीच प्रतिष्ठा अवसरों तथा सुविधाओं की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा ।

(घ) राज्य की लोकसेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करने के लिए राज्य कदम उठायेगा ।

(ड.) राज्य भारत के समस्त नागरिकों के लिए एकसमान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा ।

(च) राज्य जनता के दुर्वल वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन-जातियों के शिक्षा और धन सम्बन्धों हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और इस प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा करेगा ।

अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा से सम्बन्धित निदेशक तत्त्व:

(क) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों का बनाये रखने का प्रयास करेगा ।

(ख) राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा ।

(ग) संगठित लोगों को एक-दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने की ओर कदम उठायेगा ।

(घ) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा ।

राजनीतिक तथा पर्यावरण सम्बन्धी नीति-निदेशक तत्त्व:

(i) राज्य राष्ट्रीय महत्त्व वाले घोषित किये गये कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले प्रत्येक संस्मारक या स्थान या वस्तु का संरक्षण करेगा ।

(ii) राज्य देश के पर्यावरण के सैर क्षण तथा संवर्द्धन का और वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा ।

(iii) राज्य उद्योगों में लगे हुए कर्मकारों के प्रबन्ध में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य प्रकार से कदम उठायेगा ।

(iv) राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठायेगा और उनको ऐसी शक्तियां एवं अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाईयों के रूप में कार्य करने के योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों ।

नीति-निदेशक तत्त्वों का विस्तार:

अनुच्छेद 36 : भाग 3 की तरह राज्य की परिभाषा, किन्तु ‘जम्मू-कशमीर’ सम्मिलित नहीं है ।

अनुच्छेद 37 :  (i) न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है, किन्तु यह शासन में मूलभूत है और विधि बनाने में इन्हें लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा ।

अनुच्छेद 38 :  (1) राज्य लोककल्याण की अभिवृद्धि हेतु ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनायेगा जिसमें सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करने की स्थापना एव संरक्षण हेतु प्रभावी प्रयास करेगा ।

(2) राज्य आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए समूहों के बीच प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा । (44वें संशोधन 1976 द्वारा अन्त: स्थापित)

अनुच्छेद 39 : राज्य द्वारा अपनी नीति के सचालन में निम्नलिखित बातों को सुनिश्चित किया जायेगा :

(क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो ।

(ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बंटा हो जिसमें सामूहिक हित का सर्वोच्च रूप से संसाधन हो ।

(ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिसे धन और उत्पादनों को सर्वसाधारण करने के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो ।

(घ) पुरुषों और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो ।

 

 

अनुच्छेद 39 क: राज्य, आर्थिक रूप से कमजोर नागरिकों को समान न्याय और नि:शुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करायेगा ।

अनुच्छेद 40: राज्य ग्राम पंचायतों के गठन के लिए कदम उठायेगा जिससे वे स्वायत्त शासन की इकाईयों के रूप में कार्य करने के योग्य हो सकें ।

अनुच्छेद 41: राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने शिक्षा पाने और लोक सहायता (बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और नि:शक्तता) पाने के अधिकारों को प्राप्त करने का प्रभावी उपबन्ध करेगा ।

अनुच्छेद 42: राज्य काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबन्ध करेगा ।

अनुच्छेद 43 : राज्य विधि द्वारा आर्थिक संगठन द्वारा कृषि उद्योग एव अन्य सभी प्रकार के कर्मकारों को निर्वाह, मजदूरी, शिष्ट एवं सुलभ जीवन तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा ।

अनुच्छेद 43क:  राज्य उद्योगों के प्रबन्ध में कर्मकारों के भाग लेने हेतु उपयुक्त विधान बनायेगा ।

अनुच्छेद 44: राज्य भारत के समस्त राज्य क्षेत्रों में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा ।

अनुच्छेद 45: राज्य संविधान के प्रारम्भ में 10 वर्ष की अवधि के भीतर सभी बच्चों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए प्रयास करेगा ।

स्पष्टीकरण: अनुच्छेद 45 को 86वें संविधान संशोधन अधिनियिम द्वारा समाप्त कर उसके स्थान पर निम्न उपबन्ध रखे गये ।

अनुच्छेद 45: राज्य छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को जब तक वे 6 वर्ष के पूरे नहीं हो जाते देखभाल और नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करने के लिए उपबन्ध करने का प्रयास करेगा ।

अनुच्छेद 46:  राज्य अनुसूचित जातियों अनुसूचित जन-जातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ-सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि हेतु उपाय करेगा । राज्य पोषाहार स्तर और जीवन-स्तर को ऊचा करने तथा लोक स्वास्थ के सुधार को प्राथमिकता देगा तथा मादक पेयों और स्वास्थय के लिए हानिकारक ओषधियों के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगायेगा ।

अनुच्छेद 48 :  राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतय: गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए कदम उठायेगा ।

अनुच्छेद 48 :  राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण के लिए तथा संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने के लिए प्रयासरत रहेगा ।

अनुच्छेद 49 :  राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण, संविधान द्वारा बनाई गयी विधि द्वारा या उसके अधीन राष्ट्रीय महत्त्व वाले घोषित किये गये कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले प्रत्येक सस्थापन या स्थान या वस्तु का यथास्थिति लुठन विरूपण विनाश अप्रसारण व्ययन या निर्यात से संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी ।

 

 

कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण:

राज्य की लोकसेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करने के लिए राज्य कदम उठायेगा ।

अनुच्छेद 51 : अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि:

(क) राज्य राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयास करेगा ।

(ख) राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा ।

(ग) राज्य संगठित लोगों के एक-दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का प्रयास करेगा ।

(घ) राज्य अन्तरर्राष्ट्रीय विवादों के मध्यस्थ द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा ।

मौलिक कर्तव्य:

(i) भारतीय संविधान के 43वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा संविधान के भाग 4 में एक नया भाग 4-क जोड़कर अनुच्छेद 51-क के तहत मौलिक कर्तव्य की व्यवस्था की गयी है ।

(ii) भारत के संविधान में इनका समावेश सरदार स्वर्ण सिंह समिति की अनुशंसा पर पूर्व सोवियत संघ के संविधान से प्रभावित होकर किया गया है ।

(iii) इसके तहत दस कर्तव्य जोड़े गये हैं, जो कि प्रत्येक नागरिक के मूल कर्तव्य हैं, परन्तु वे संविधान संशोधन, 2001 द्वारा अनुच्छेद 51-क में नया खण्ड ’11’ जोड़ा गया है । अत: वर्तमान में मौलिक कर्तव्यों की संख्या 11 हो गयी है ।

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