भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया | Procedure of Amendment of the Indian Constitution in Hindi Language!
(अनुच्छेद 368):
संशोधन की जटिल प्रक्रिया को देखकर परिसंघात्मक संविधान को राजनीति के विद्वानों ने एक अनम्य संविधान कहा है । संघात्मक संविधान प्राय: अनम्य होते है; क्योंकि उनके संशोधन की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल होती है ।
अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, स्विटजरलैण्ड आदि सभी परिसंघात्मक संविधानों में उनके संशोधन की प्रक्रिया बड़ी जटिल है । इसी आधार पर परिसंघात्मक संविधान की आलोचना की जाती है कि यह अपरिवर्तनशील होने के नाते विकास की गति से मेल नहीं रख पाता है ।
हमें इस अध्याय में यह देखना है कि परिसंघात्मक संविधान के सम्बन्ध में व्यक्त की गयी उक्त धारणा कहा, तक उचित है और विशेषकर भारतीय संविधान के सम्बन्ध में उसका क्या महत्त्व है । जैसा कि विदित है, भारतीय संविधान के निर्मातागण विश्व के सभी परिसंघात्मक संविधानों के संचालन में हुई कठिनाइयों से पूर्णरूपेण अवगत थे; अतएव वे भारतीय संविधान को अत्यधिक अनम्यता से बचाना चाहते थे ।
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वे जानते थे कि संविधान किसी देश की जनता के लिए बनाया जाता है और उनकी आवश्यकताओं के साथ-साथ उसमें समय-समय पर परिवर्तन भी आवश्यक होता है । भारतीय संविधान एक लिखित संविधान होते हुए भी पर्याप्त परिवर्तनशील संविधान है । संविधान में केवल कुछ ही ऐसे उपबन्ध हैं, जिनमें परिवर्तन करने के लिए विशेष प्रक्रिया को अपनाया जाता है ।
अधिकतर उपबन्धों को संसद द्वारा साधारण बहुमत से ही संशोधित किया जा सकता है । यहां तक कि संशोधन की विशेष प्रक्रिया भी विश्व के अन्य परिसाधात्मक संविधानों की अपेक्षाकृत सरल है । भारतीय संविधान के निर्माताओं ने अनन्यता के साथ-साथ आवश्कतानुसार नम्यता को भी स्थान देकर बड़ी ही सूझ-मुझ का कार्य किया है ।
संविधान की संशोधन की प्रकृति के विषय में भूतपूर्व प्रधानमन्त्री पण्डित नेहरू ने कहा है : “हालांकि हम इस संविधान को इतना ठोस और स्थायी बनाना चाहते हैं, जितना कि हम बना सकते हैं, फिर भी संविधान में कोई स्थायित्व नहीं है ।
इसमें कुछ सीमा तक परिवर्तनशीलता होनी चाहिए । यदि आप किसी वस्तु को अपरिवर्तनशील और स्थायी बना देंगे तो राष्ट्र की प्रगति को रोक देंगे और इस प्रकार आप एक जीवित और संगठित राष्ट्र की प्रगति को भी रोक देंगे ।
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किसी भी अवस्था में हम इस संविधान को इतना अनम्य नहीं बना सकते थे कि यह बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित न हो सके; जबकि विश्व एक संक्रान्ति-काल (Period of Transition) में है और हम परिवर्तन की अत्यन्त ही तीव्र गति के युग से गुजर रहे हैं, तब सम्भव है कि हम आज जो कुछ कह रहे हैं, कल वही पूरी तरह से लागू न हो सके ।”
लेकिन संविधान-निर्मातागण यह भी जानते थे कि यदि संविधान को आवश्यकता से अधिक नम्य बना दिया जायेगा तो वह शासक-दल के हाथों की कठपुतली बन जायेगा और वे अनावश्यक संशोधन भी कर देंगे । इसीलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने एक मध्यम वर्ग का अनुसरण किया है ।
यह न तो इतना अनम्य है कि आवश्यक संशोधन न किये जा सकते हों और न इतना नम्य ही है कि अवांछनीय संशोधन किये जा सकते हों । अतएव यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान नम्यता-अनम्यता का एक अनोखा मिश्रण है । भारतीय संविधान की जटिल संशोधन प्रक्रिया को देखकर डॉ॰ जेनिंग्स ने कहा था : ”भारतीय संविधान को आवश्यकता से अधिक अनम्य बना दिया गया है ।”
संविधान में किये गये संशोधन को देखते डुए डॉ॰ जेनिंग्स का कथन निराधार ही लगता है । 65 वर्षों के भीतर संविधान के लगभग एक सौ संशोधन किये जा सके हैं । इससे भारतीय संविधान की नम्यता स्पष्ट परिलक्षित होती है ।
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इसके विपरीत अमेरिका के संविधान में करीब 200 वर्षों के अन्दर केवल 26 संशोधन का किया जाना वहां के संविधान की जटिल संशोधन-प्रक्रिया का परिणाम है । भारतीय संविधान इस अतिवादी दृष्टिकोण से सर्वथा मुक्त है ।
संशोधन की शक्ति:
अनुच्छेद 368 (1) संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है । अनुच्छेद यह कहता है कि इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी संसद अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करते हुए इस संविधान के किसी उपबन्ध का परिवर्द्धन परिवर्तन या निरसन के रूप में इस अनुच्छेद में उल्लिखित प्रक्रिया के अनुसार संशोधन कर सकेगी ।
खण्ड (2) यह कहता है कि संविधान के प्रत्येक संशोधन विधेयक संसद के प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित किया जायेगा किन्तु यदि संशोधन (क) अनुच्छेद 54 से 55, 73, 162 या 241 में (ख) या अनुच्छेद 73, 162 में, (ग) अनुच्छेद 124 से 147, 214, 231, 241, (ग) अनुच्छेद 13 की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किये गये संशोधन को लागू नहीं होगी ।
इस प्रकार संशोधन की दृष्टि से संविधान के विभिन्न उपबन्धों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है और प्रत्येक भाग के लिए पृथक् प्रक्रिया अपनाई गयी है ।
(1) साधारण बहुमत:
इस श्रेणी में अनुच्छेद 4, 169 और 293-A आते हैं । इसमें संशोधन के लिए संसद का साधारण बहुमत पर्याप्त है । इन अनुच्छेदों को अनुच्छेद के 368 के क्षेत्र से परे रखा गया है; क्योंकि ये विषय कोई विशेष संवैधानिक महत्त्व के नहीं हैं ।
(2) विशेष बहुमत:
इसमें संविधान के अन्य सभी उपबन्ध आते हैं, जो नं॰ (1) और (3) में सम्मिलित नहीं हैं । इन उपबन्धों के संशोधन के लिए केवल ससद का विशेष बहुमत पर्याप्त है । यह राज्यों के उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से होता है ।
(3) विशेष बहुमत तथा राज्यों द्वारा अनुसमर्थन-इस श्रेणी में वे उपबन्ध आते हैं, जो संघात्मक ढांचे से सम्बन्धित हैं । इन उपबन्धों के संशोधन के लिए सबसे कठिन प्रक्रिया अपनायी गयी है । इसमें संशोधन के लिए ससद के प्रत्येक सदन के दो-तिहाई सदस्यों का बहुमत तथा कम-से-कम 50 प्रतिशत राज्यों के विधानमण्डलों का अनुसमर्थन भी आवश्यक है ।
निम्नलिखित उपबन्धों के संशोधन के लिए विशेष बहुमत और राज्यों का अनुसमर्थन आवश्यक है:
(1) राष्ट्रपति का निर्वाचन (अनुच्छेद 54-55)
(2) संघ तथा राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार (अनुच्छेद 73,162)
(3) संघ तथा राज्य न्यायपालिका (अनुच्छेद 124-147, 214-231, 241)
(4)संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्ति का वितरण (अनुच्छेद 245-255)
(5) संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व में (अनुसूची 4) या
(6) सातवीं अनुसूची की किसी सूची में या
(7) अनुच्छेद 368 के उपबन्धों में ।
संशोधन की प्रक्रिया:
अनुच्छेद 368 का खण्ड यह कहता है कि संविधान के संशोधन के लिए विधेयक किसी भी सदन में आरम्भ किया जा सकता है । जब वह विधेयक प्रत्येक सदन के कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा (अर्थात् 50 प्रतिशत से अधिक) तथा उसमें उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया जाता है ।
तब यह राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा जो विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य होगा । विधेयक पर राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हो जाने पर संविधान उस विधेयक के निर्बन्धनों के अनुसार संशोधित हो जायेगा ।
संयुक्त बैठक की आवश्यकता नहीं:
अनुच्छेद 368 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संविधान संशोधन विधेयक उसी प्रक्रिया से पारित होकर जाती है, जैसे सामान्य विधेयक । किन्तु कुछ मामलों में संविधान संशोधन विधेयक के पारित करने की प्रक्रिया सामान्य विधेयकों के पारित करने की प्रक्रिया से भिन्न है ।
साधारण विधेयकों के मामले में जब किसी विधेयक पर संसद के दोनों सदनों में असहमति या गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, तो उसे समाप्त करने के लिए दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का उपबन्ध है (अनुच्छेद 108) किन्तु यह प्रक्रिया संविधान संशोधन पर लागू नहीं होती है । संविधान संशोधन को सदनों में प्रस्तुत करने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक नहीं है ।
राष्ट्रपति संशोधन विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य:
अनुच्छेद 111 के अनुसार जब साधारण विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजे जाते हैं, तो वह अनुमति न देकर उसे सदनों को पुनर्विचार करने के लिए लौटा सकता है, किन्तु अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत राष्ट्रपति संशोधन विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य है ।
इससे स्पष्ट है कि अनुच्छेद 368 अपने में पूर्ण नहीं है और संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए साधारण विधान-प्रक्रिया के नियमों को सहारा लेना पड़ता उपर्युक्त उपबन्धों से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के अधिकतर उपबन्धों में संशोधन साधारण विधान-प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है ।
केवल कुछ उपबन्धों में जो ‘परिसंघीय ढांचे’ (Federal Principle) से सम्बन्धित हैं, संशोधन के लिए विशेष बहुमत तथा आधे राज्यों के विधानमण्डलों के अनुसमर्थन की आवश्यकता पड़ती है ।
भारतीय संविधान में संविधान के संशोधन की प्रक्रिया अमेरिका और आस्ट्रेलिया के संविधानों की संशोधन की प्रक्रिया की अपेक्षा सरल हैं । आस्ट्रेलिया और स्विटजरलैण्ड के संविधान में जनमत-सग्रह की प्रक्रिया और अमेरिकन संविधान के संवैधानिक परिपाटियों या रूढ़ियों (Conventions) की दुरुह प्रक्रिया को भारतीय संविधान में समाविष्ट नहीं किया गया है ।
मूल अधिकारों में संशोधन:
वह प्रश्न सर्वप्रथम शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के विचारार्थ आया था । इसमें संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम 1951 की विधिमान्यता को चुनौती दी गयी थी । चुनौती का आधार यह था कि संशोधन संविधान के भाग 3 में दिये गये मूल अधिकारों का अतिक्रमण करता है, जो अनुच्छेद 13 (2) द्वारा वर्जित है, अत: अवैध है ।
अनुच्छेद 13 यह उपबन्धित करता है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा जो नागरिकों के भाग 3 में दिये गये अधिकार को कम करती है या छीनती है । पिटीशनरों ने यह तर्क दिया कि अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत पारित ‘संवैधानिक संशोधन’ भी अनुच्छे 13 में प्रयुक्त ‘विधि’ शब्द के अर्थान्तर्गत विधि है और भाग 3 में दिये गये अधिकारों के विरुद्ध होने के कारण वह असंवैधानिक है ।
उच्चतम न्यायालय ने पिटीशनरों के तर्क को अस्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि संविधान के संशोधन की शक्ति जिनमें मूल अधिकार भी शामिल हैं, न कि संवैधानिक संशोधन जो संविधायी (Constituent) शक्ति के प्रयोग द्वारा पारित किये जाते हैं ।
अतएव अनुच्छेद 368 के अधीन पारित संवैधानिक संशोधन संवैधानिक होंगे भले ही वे मूल अधिकारों के विरुद्ध क्यों न हों । सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य के मामले (A.I.R. 1665 S.C. 845) में यह प्रश्न उच्चतम न्यायालय के समक्ष पुन: विचारार्थ आया ।
इसमें संविधान के 17वें संविधान संशोधन अधिनियम की वैधता को चुनौती दी गयी थी । इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने शंकरी प्रसाद के मामले में दिये हुए अपने निर्णय का अनुमोदन किया । न्यायालय ने यह कहा कि यदि संविधान-निर्मातागण मूल अधिकारों को संशोधन से परे रखना चाहते होते तो निश्चित ही उन्होंने इसके बारे में संविधान में स्पष्ट उपबन्ध का समावेश किया होता ।
किन्तु गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (A.I.R. 1667 S.C. 1643) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 6:5 के बहुमत से शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह के मामले में दिये गये अपने निर्णय को उलट दिया और यह अभिनिर्धारित किया के संसद को भाग 3 में संशोधन करने की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है । मुख्य न्यायाधीश श्री सुब्बाराव ने न्यायालय का निर्णय सुनाते हुए अपना निष्कर्ष निन्नलिखित रूप में दिया:
(1) संविधान के संशोधन की शक्ति संविधान के अनुच्छेद 245, 246, 248 में निहित है न कि अनुच्छेद 368 में । अनुच्छेद 368 में केवल संशोधन की प्रक्रिया का उपबन्ध किया गया है, संविधान संशोधन की शक्ति का नहीं । संशोधन एक विधायी प्रक्रिया है ।
(2) संशोधित अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त ‘विधि’ शब्द के अर्थार्न्तात ‘विधि’ है और यदि वह मूल अधिकारों को छीनता या न्यून करता है, तो वह शून्य है । ‘विधि’ शब्द के अन्तर्गत सभी प्रकार की विधियां सम्मिलित हैं, चाहे वह साधारण विधि हो या संविधान संशोधन विधि ।
मुख्य न्यायाधिपति श्री सुब्बाराव ने कहा है कि संविधान में मूल अधिकारों को नैसर्गिक स्थान प्रदान किया गया है और उन्हें ससद की शक्ति से परे रखा गया है ।
उन्होंने भविष्यलक्षी प्रभाव (Prospective Overruling) के सिद्धान्त को लागू किया जिसके अनुसार निर्णय का प्रभाव केवल भविष्यलक्षी होगा । अतएव जितने संशोधन हो चुके हैं, वे विधिमान्य बने रहेंगे किन्तु इस निर्णय की तिथि से संसद को भाग 3 के उपबन्धों में इस रूप में संशोधन करने का अधिकार नहीं होगा, जिससे मूल अधिकारों पर आघात पहुंचता हो ।
न्यायालय के अल्पमत का यह विचार था कि शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह के मामले में दिया गया निर्णय ही सही है और ‘विधि’ शब्द के अन्तर्गत केवल साधारण विधि आती है, संवैधानिक संशोधन नहीं ।
संविधान का 24वां संशोधन अधिनियम, 1971 :
उच्चतम न्यायालय द्वारा गोलकनाथ के मामले में दिये निर्णय से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने के लिए संसद ने संविधान का २४वां संशोधन अधिनियम पारित किया । इस संशोधन से अनुच्छेद 13 (2) में संशोधन किया गया है और इसमें खण्ड 4 जोड़ा गया है, जो यह उपबन्धित करता है कि संसद द्वारा अनुच्छेद 368 के अधीन पारित कोई भी विधि अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त ‘विधि’ शब्द के अन्तर्गत नहीं शामिल होगी; अनुच्छेद 368 केवल संशोधन की प्रक्रिया का ही उपबन्ध नहीं करता वरन् उसके अन्तर्गत संविधान संशोधन की शक्ति भी निहित है ।
अनुच्छेद 368 के खण्ड (2) के पूर्व एक नया खण्ड जोड़ गया है, जो यह उपबन्ध करता है : ”इस संविधान में किसी बात के होते हुए संसद अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करते हुए, इस संविधान में किसी उपबन्ध का परिवर्द्धन परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन इस अनुच्छेद में दी गयी प्रक्रिया के अनुसार कर सकेगी ।”
खण्ड (2) में प्रयुक्त शब्दावली : ‘वह राष्ट्रपति के समक्ष उसकी सहमति के लिए रखा जायेगा तथा विधेयक को ऐसी अनुमति दी जाने के पश्चात्’- के स्थान पर- ‘वह राष्ट्रपति के समक्ष रखा जायेगा, जो विधेयक को अपनी अनुमति देगा और तब’ -शब्दावली को रखा गया है । इससे स्पष्ट है कि राष्ट्रपति संविधान संशोधन विधेयकों पर अपनी सहमति देने के लिए बाध्य होगा ।
वा संविधान संशोधन न केवल यह उद्घोषित करता है कि संविधान की शक्ति अनुच्छेद 368 में निहित है, वरन् अनुच्छेद 368 में ‘परिवर्तन परिवर्द्धन या निरसन के रूप में संविधान के किसी उपबन्ध में संशोधन करने की शक्ति होगी’ शब्दावली जोड़कर संशोधन शक्ति के क्षेत्र को अत्यन्त विस्तृत कर देता है ।
केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के ऐतिहासिक मामले [(1973) 2 उम॰नि॰प॰ 159: ए॰आई॰ 1973 एस॰सी॰ 14611 में संविधान के २३वें संविधान संशोधन अधिनियम की विधिमान्यता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी ।
इस मामले में मुख्य विचारणीय प्रश्न यह था : ”संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद को जो संशोधन की शक्ति प्राप्त है, उसकी सीमा क्या है ?” सरकार की ओर से यह तर्क दिया गया कि संसद की यह शक्ति असीमित तथा नियन्त्रित है और यह किन्हीं विवक्षित (implied) परिसीमाओं द्वारा सीमित नहीं है ।
सरकार का यह अभिकथन था कि लोकतन्त्र को हटाकर एकदलीय शासन भी स्थापित किया जा सकता है । संक्षेप में सरकार के अनुसार संविधान के निरसन (repeal) को छोड्कर किसी भी प्रकार का संशोधन किया जा सकता है ।
पिटीशनरों की ओर से यह कहा गया कि संसद की संविधान में संशोधन की शक्ति असीमित नहीं है और यह संसद को संविधान को नष्ट करने की अनुमति नहीं देती है । संविधान ही संसद का जनक है । अत: संसद संविधान में निहित मूल तत्त्वों के अनुसार ही अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकती है । मूल तत्त्व संविधान की प्रस्तावना तथा अन्य उपबन्धों में निहित हैं ।
इस मामले में सुनवायी उच्चतम न्यायालय की एक विशेष न्यायपीठ ने की जिसमें 13 न्यायाधीश थे । 13 न्यायाधीशों में से 11 न्यायाधीशों ने अपने निर्णय अलग-अलग दिये । उच्चतम न्यायालय ने सर्वसम्मत्ति से यह निर्णय दिया कि संसद को मूल अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है और अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त ‘विधि’ शब्द के अन्तर्गत अनुच्छेद 368 के अधीन पारित संवैधानिक संशोधन उसमें सम्मिलित नहीं है ।
इस प्रकार न्यायालय ने गोलकनाथ के मामले में दिये गये अपने निर्णय को उलट दिया । न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 जैसा कि यह मूल रूप में था के अन्तर्गत संविधान संशोधन करने की शक्ति तथा उसकी प्रक्रिया दोनों निहित हैं । 24वें संशोधन अनुच्छे 368 में जो कुछ विवक्षित (implied) था, उसे अभिव्यक्त करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं करता है ।
उक्त संशोधन मूल अनुच्छेद द्वारा प्रदत्त शक्ति का विस्तार नहीं करता है; इसलिए मार्जिनल नोट में किये गये परिवर्तन का कोई महत्त्व नहीं है, न ही इसमें परिवर्द्धन परिवर्तन या निरसन शब्द के जोड़ने का कोई महत्त्व है; क्योंकि ये शब्द केवल उस रीति को विहित करते हैं, जिसके द्वारा संशोधन किया जा सकता है, न कि ‘संशोधन’ शब्द में आवश्यक रूप से अन्तर्विष्ट हैं ।
चूंकि मूल अनुच्छेद के अन्तर्गत प्राप्त शक्ति एक सीमित शक्ति है, अत: संशोधन अनुच्छेद में जोड़ी गयी उक्त शब्दावली का कोई महत्त्व नहीं है । इन आधारों पर 24वां संविधान संशोधन अधिनियम विधिमान्य है, किन्तु न्यायालय ने 7:6 से यह निर्णय दिया कि यद्यपि अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति पर्याप्त व्यापक है, किन्तु वह असीमित नहीं है और वह कोई ऐसा संशोधन नहीं कर सकती है, जिसे संविधान के मूल तत्त्व या उसका आधारभूत ढांचा नष्ट हो जाये ।
संसद की इस शक्ति पर विवक्षित परिसीमाएं हैं, जो स्वयं संविधान में निहित हैं । संसद को इसी परिधि के भीतर अपनी शक्ति का प्रयोग करना है । संसद की संविधान में संशोधन की शक्ति पर कुछ विवक्षित परिसीमाएं हैं या नहीं इसकी अवधारणा ‘संशोधन’ शब्द की व्याख्या पर निर्भर करेगी ।
मुख्य न्यायमूर्ति श्री सीकरी ने न्यायालय के बहुमत की ओर से निर्णय सुनाते हुए कहा है : संविधान का संशोधन ‘पदावली’ संविधान में विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त की गयी है । कुछ अनुच्छौ के प्रसंग में ‘संशोधन’ शब्द का व्यापक अर्थ है और दूसरे के प्रसंग में उसका सीमित अर्थ है । इससे स्पष्ट है कि संविधान के विभिन्न उपबन्धों में इस शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थो की पूर्ति र्क लिए किया गया है ।
अतएव अनुच्छेद 368 में प्रयुक्त इस ‘संविधान का संशोधन’ पदावली के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए हमें संविधान के सम्पूर्ण ढांचे पर दृष्टिपात करना पड़ेगा । प्रस्तावना को पढ़ने से व्यक्ति की स्वतन्त्रता के महत्त्व और उसकी अपरिहार्यता (inalienability) तथा प्रस्तावना में उल्लिखित आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक न्याय के सिद्धान्त और निदेशक तत्त्वों के महत्त्व को देखते हुए तथा अनुच्छेद 52, 53 और अन्य इसी प्रकार के उपबन्धों को अनुच्छेद 368 में सम्मिलित न किये जाने से एक अनिवार्य निष्कर्ष यह निकलता है कि ‘संशोधन’ को व्यापकतम अर्थ में प्रयुक्त करने का आशय नहीं था ।
उन्होंने कहा कि सभी लोग सामान्य तौर पर यह समझते थे कि मूल अधिकार सारत: वैसे ही बने रहेंगे जैरने वे है और उन्हें इस प्रकार संशोधित नहीं किया जायेगा कि उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाये । ऐसा प्रतीत होता है कि सभी लोग सामान्य तौर पर यह समझते थे कि संविधान के मूल तत्त्व-धर्मनिरपेक्षता प्रजातन्त्र और व्यक्ति की स्वतन्त्रता-कल्याणकरी राज्य में हमेशा बनी रहेगी ।
उपर्युक्त वर्णित कारणों को देखते हुए एक आवश्यक विवक्षा (implication) यह उद्भूत होती है कि संसद की शक्ति पर विवक्षित परिसीमा है, अर्थात् हमारे संविधान में इस ‘संविधान का संशोधन’ पदावली का सीमित अर्थ है ।
ऊपर वर्णित कारणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अनुच्छेद 368 में इस ‘संविधान का संशोधन’ पद का अर्थ है: ‘प्रस्तावना और संविधान की परिधि के भीतर संविधान में किसी उपबन्ध का जोड़ा जाना या उसमें परिवर्तन करना’ जिससे कि प्रस्तावना के उद्देश्यों और निदेशक तत्त्वों को क्रियान्वित किया जा सके ।
मूल अधिकारों के सम्बन्ध में इस बात को लागू करने पर इसका अर्थ होगा कि यद्यपि मूल अधिकार निराकृत नहीं किये जा सकते किन्तु लोकहित में उनको न्यून किया जा सकता है । कोई संशोधन करना आवश्यक है या नहीं इस बात का निर्णय करना संसद का काम है, न्यायपालिका का नहीं ।
यदि इस अर्थ को लिया जाये तो नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं गरिमा को बनाये रखते हुए निदेशक तत्त्वों को कार्यान्वित करने के लिए मूल अधिकारों में समायोजन करना संसद के लिए आसान होगा ।’ मुख्य न्यायमूर्ति ने सरकार के इस तर्क को मानने से अस्वीकार कर दिया कि यह कसौटी असन्तोषजनक है, जिसे संसद के लिए समझना और उसका अनुसरण करना कठिन होगा ।
उन्होंने कहा : ”मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तावना और संविधान की रूपरेखा के अन्तर्गत संशोधन की विचारधारा अस्पष्ट और असन्तोषजनक नहीं कही जा सकती है, जिसे संसद-सदस्य और जनता न समझ सके ।”
सरकार की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि संविधान का प्रत्येक उपबन्ध है, अन्यथा वह संविधान में नहीं रखा गया होता । मुख्य न्यायमूर्ति श्री सीकरी ने कहा: ”यह सच है, किन्तु इसे संविधान का प्रत्येक उपबन्ध समान स्थिति का नहीं हो जाता है । सही स्थिति यह है कि संविधान का प्रत्येक उपबन्ध संशोधित किया जा सकता है, बशर्ते इसके परिणामस्वरूप संविधान का ढांचा और आधारभूत तत्त्व वैसा ही बना रहे ।”
आधारभूत ढांचे का सिद्धान्त-संशोधन की शक्ति पर परिसीमा जैसा कि कहा जा चुका है, केशवानन्द भारती के मामले में बहुमत ने यह निर्णय दिया है कि संविधान संशोधन की शक्ति के प्रयोग द्वारा संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट नहीं किया जा सकता ।
प्रश्न यह है कि आधारभूत ढांचे के आवश्यक तत्त्व क्या हैं । बहुमत ने कुछ आधारभूत तत्त्वों का उल्लेख किया है, किन्तु यह भी स्पष्ट किया है कि वे केवल दृष्टान्तस्वरूप हैं और प्रत्येक मामले के तथ्यों पर इस बात का निर्धारण किया जायेगा कि संविधान का आधारभूत ढाँचा क्या है ।
मुख्य न्यायमूर्ति, श्री सीकरी के अनुसार, निम्नलिख्ति संविधान के आधारभूत ढांचे के उदाहरण हैं, जो संविधान की प्रस्तावना और उसकी सम्पूर्ण योजना में सरलता से प्रकट हो जाते हैं:
(1) संविधान की सर्वोपरिता,
(2) सरकार का गणतन्त्रात्मक और प्रजातन्त्रात्मक रूप,
(3) संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप,
(4) विधानमण्डल, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण और
(5) संविधान की परिसंघात्मक प्रकृति ।
न्यायमूर्ति श्री शेलट और ग्रोवर के अनुसार, निप्ललिखित आधारभूत ढांचे के उदाहरण हैं :
(1) संविधान की सर्वोपारिता,
(2) सरकार का गणतन्त्रात्मक और लोकतन्त्रात्मक स्वरूप और देश की सम्प्रभुता,
(3) संविधान, का धर्मनिरपेक्ष और संघात्मक स्वरूप,
(4) विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में शक्तियों का विभाजन
(5) व्यक्ति की गरिमा, जो भाग तीन में दी गयी है, विभिन्न स्वाधीनता और मूल अधिकारों द्वारा सुनिश्चित है और भाग (4) में निहित कल्याणकारी राज्य की स्थापना का निदेश और
(6) देश की एकता और अखण्डता ।
न्यायमूर्ति हेगड़े और मुखर्जी ने (1) भारत की सम्प्रभुता, (2) उसकी लोकतन्त्रात्मक प्रणाली, (3) देश की एकता, (4) वैयक्तिक स्वाधीनताएं और (5) कल्याणकारी राज्य की स्थापना को आधारभूत ढांचा बताया है ।
न्यायमूर्ति श्री खन्ना ने उक्त प्रश्न पर बहुमत का समर्थन किया, किन्तु अपना निर्णय अलग दिया । उन्होने कहा कि अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संशोधन की शक्ति में संविधान के पूरा-पूरा निराकरण करने की और उनके स्थान पर एक बिल्कुल नया संविधान रख देने की शक्ति शामिल नहीं है ।
संविधान के संशोधन का अर्थ संविधान का निराकरण नहीं वरन् उसमें आवश्यक परिवर्तन मात्र करना है । संशोधन शब्द का तात्पर्य है कि पुराने संविधान का अस्तित्व परिवर्तन हो जाने के बाद भी बना रहता है तथा उसकी पहचान खत्म नहीं होती ।
संशोधन के फलस्वरूप पुराने संविधान को नष्ट नहीं किया जा सकता है और न उसे हटाया ही जा सकता है, उसे हर हालत में बनाये रखना है, भले ही वह संशोधित रूप से हो । तो फिर पुराने संविधान को बनाये रखने से क्या अभिप्रेत है ? नि:संदेह इसका तात्पर्य पुराने संविधान के बुनियादी ढांचे या उसकी रूपरेखा को बनाये रखना है ।
पुराने संविधान के कुछ उपबन्धों को बनाये रखना है, जबकि संविधान का बुनियादी ढाचा तथा उसकी रूपरेखा नष्ट कर दी गयी हो पुराने संविधान को बनाये रखना नहीं माना जायेगा । ‘संविधान का संशोधन’ पदावली का क्षेत्र या विस्तार चाहे जितना क्यों न हो इसके अन्तर्गत संविधान के बुनियादी ढांचे तथा उसकी रूपरेखा को न तो विनष्ट किया जा सकता है और न उसका निराकरण ही किया जा सकता है ।
उदाहरण के लिए संविधान के रूप में जनतन्त्रात्मक शासन को अधिनायिक तन्त्र या वंशानुक्रम राजतन्त्र में नहीं बदला जा सकता है और न ही लोकसभा तथा राज्यसभा को समाप्त किया जा सकता है । इसी प्रकार राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप, जिनके अनुसार राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा समाप्त नहीं किया जा सकता है ।
संविधान के संशोधन से सम्बन्धित उपबन्ध को न तो संविधान के ढांचे को ध्वस्त करने का बहाना बनाया जा सकता है और न अनुच्छेद 368 का ऐसा अर्थान्वयन किया जा सकता है, जिससे कि उसे संविधान के गले की फांसी बना दिया जाये या उसमें ऐसी मंजूरी का उपबन्ध किया जाये जिसे विधिपूर्ण मृत्यु (harakiri) का नाम दिया जा सके । ऐसे विध्वंस या विनाश का अनुच्छेद 368 द्वारा परिकाल्पिक संशोधन नहीं किया जा सकता ।
श्री खन्ना ने कहा कि संविधान के बुनियादी ढांचे तथा उसकी रूपरेखा के अधीन रहते हुए संशोधनविषयक शक्ति परिपूर्ण (plenary) है और उसमें विभिन्न अनुच्छेदों जिनमें मूल अधिकार से सम्बन्धित अनुच्छेद भी है, परिवर्तन और निरसन करने की शक्ति भी शामिल है ।
संसद के संविधान की संशोधन शक्ति पर जो कुछ करने की शक्ति भी शामिल है; संसद के संविधान की संशोधन शक्ति पर जो कुछ विवक्षित परिसीमा है, यह स्वयंग ‘संशोधन’ शब्द के अन्दर विद्यमान है ।
इससे बाहर किसी परिसीमा की कल्पना नहीं की जा सकती है । संशोधन की शक्ति पर नैसर्गिक अधिकार के आधार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है । संविधान के उस भाग को छोड़कर जो संविधान के बुनियादी ढांचे या रूपरेखा से सम्बन्धित है, प्रस्तावना में संशोधन की शक्ति पर कोई निर्बन्धन नहीं लगाया जा सकता है, किन्तु उनके मतानुसार सम्पत्ति का अधिकार संविधान के मूलभूत तत्त्व या ढांचे से सम्बधित नहीं है ।
अल्पमत के अनुसार संशोधन की शक्ति असीमित है और उस पर विवक्षित परिसीमा नहीं है । अल्पमत का निर्णय सुनाते हुए न्यायमूर्ति श्री ए॰एन॰ राय ने कहा कि संशोधन की शक्ति व्यापक एवं असीम है । संशोधन शक्ति से संविधान में किसी भी उपबन्ध में परिवर्द्धन परिवर्तन या निरसन करने की शक्ति अभिप्रेत है ।
संविधान के आवश्यक तत्त्वों और अनावश्यक तत्त्वों के बीच न तो ऐसा कोई अन्तर है और न ही हो सकता है, जिसके आधार पर तथाकथित आवश्यक तत्त्वों में संशोधन की राह में रुकावट खड़ी करे । संवैधानिक शक्ति के प्रयोग में संसद संविधान के किसी भी उपबन्ध को संशोधित कर सकती है । अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संशोधन शक्ति में वृद्धि की जा सकती है ।
प्रत्यार्थियों की ओर से दिये गये इस तर्क के उत्तर में कि संशोधन की शक्ति असीमित होने पर संविधान के निराकरण की शक्ति प्राप्त हो जायेगी श्री राय ने कहा कि महान्यायवादी श्री सिरवई ने ठीक ही कहा है कि संशोधन से संविधान का निराकरण या सम्पूर्ण निरसन मात्र ही अभिप्रेत नहीं है ।
संशोधन के बाद एक ऐसा संघात्मक यन्त्र शेष रहेगा जिसमें राज्य के लिए संगठन तथा प्रणाली का उपबन्ध किया गया है । न्यायमूर्ति श्री द्विवेदी के अनसार, अनुच्छेद 368 में प्रयुक्त ‘संशोधन’ शब्द इतना व्यापक है कि उसके अधीन भाग 3 सहित संविधान के प्रत्येक उपबन्ध को परिवर्तित निरसित या निराकृत किया जा सकता है । केशवानन्द भारती के मामले में प्रतिपादित ‘आधारभूत ढांचा’ के सिद्धान्त को अनेक विनिश्चयों में लागू किया गया है ।
इन्दिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण के मामले (ए॰आई॰आर॰ 1975 एस॰सी॰ 2299) में सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय ने ‘आधारभूत ढांचे’ के सिद्धान्त के आधार पर एक सांविधानिक संशोधन को अविधिमान्य घोषित किया । इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी के चुनाव को भ्रष्ट आचरण के आधार पर शून्य घोषित कर दिया और उन्हें 6 वर्ष के लिए चुनाव में अभ्यर्थी होने के लिए अनर्ह कर दिया था ।
संसद ने 39वें संविधान संशोधन 1975 द्वारा संविधान में एक नयी धारा 329 (क) जोड़कर उच्च न्यायालय के निर्णय को समाप्त कर दिया और उसके चुनाव को वैध घोषित कर दिया । संशोधन का खण्ड (4) यह उपबंधित करता था कि अपीलार्थी का चुनाव वैध था वैध है और वैध रहेगा ।
यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने अपीलार्थी के चुनाव को वैध घोषित किया परन्तु वें संविधान संशोधन अधिनियम के खण्ड (4) को इस आधार पर अविधिमान्य घोषित कर दिया कि वह विधान के ‘आधारभूत ढांचे’ को नष्ट करता है । न्यायमूर्ति श्री खन्ना ने कहा कि ‘लोकतन्त्र’ संविधान का आधारभूत ढाचा है और प्रजातन्त्र की सफलता के लिए चुनाव का स्वतन्त्र और निष्पक्ष होना अनिवार्य है ।
मुखा न्यायमूर्ति श्री चन्द्रचूड् ने कहा कि अनुच्छेद 14 में निहित ‘विधि-शासन’ संविधान का आधारभूत ढांचा है और संशोधन का खण्ड (4) उसे नष्ट करता है, अतएव अवैध है । इस प्रकार प्रस्तुत मामले में निम्नलिखित को संविधान के ‘आधारभूत ढांचे’ का आवश्यक तत्त्व माना गया है :
1. विधि शासन
2. न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति
3. लोकतन्त्र, जो स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव पर आधारित है ।
न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के मामले (ए॰आई॰आर॰ 1982 एस॰सी॰ 149) में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता संविधान का ‘आधारभूत ढांचा’ है ।
मिनर्वा मिल के मामले (ए॰आई॰आर॰ 1980 एस॰सी॰ 1789) में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि निम्नलिखित ‘संविधान के आधारभूत तत्त्व’ हैं:
1. संसद की संविधान-संशोधन की सीमित शक्ति,
2. कुछ अधिकारों और राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों में सामंजस्य,
3. कुछ मामलों में मूल अधिकार और
4. कुछ मामलों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति ।
42वां संविधान संशोधन और अनुच्छेद 368 :
इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 368 में दो नये खण्ड (4) और (5) जोड़े गये । संविधान के संशोधन को (जिसमें भाग 3 शामिल है) चाहे वे वे संशोधन के पूर्व या उसके पश्चात् किये गये हों किसी भी न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जायेगी कि इसे अनुच्छेद द्वारा विहित प्रक्रिया के अनुसरण में नहीं किया गया था ।
संक्षेप में, खण्ड (4) यह स्पष्ट कर देता था कि अनुच्छेद 368 के अधीन किसी भी संवैधानिक संशोधन की विधिमान्यता को किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर (चाहे संविधान का मूल ढाँचा हो या प्रक्रिया हो) चुनौती नहीं दी जा सकती थी ।
खण्ड (5) सन्देह के निवारण के लिए यह घोषित करता था कि इस अनुच्छेद के अन्तर्गत संविधान के उपबन्धों का संशोधन जोड़कर निरसन करने के लिए संसद की संविधायी शक्ति पर कोई भी परिसीमा नहीं होगी । 42वां संविधान संशोधन उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानन्द भारती के मामले में दिये गये निर्णय से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने के लिए पारित किया गया था, जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया था कि संसद द्वारा संविधान के संशोधन की शक्ति का प्रयोग संविधान के ‘आधारभूत ढांचे’ में परिवर्तन करने के लिए नहीं किया जा सकता है ।
संविधान शक्ति सर्वोच्च है और उस पर किसी भी प्रकार का (अभिव्यक्त या विवक्षित) परिसीमन या निर्बन्धन नहीं है । श्री स्वर्ण सिंह ने दावा किया कि ससद सर्वोच्च है, न्यायपालिका नहीं क्योंकि वह जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है । न्यायालय द्वारा प्रतिपादित ‘आधारभूत ढांचे’ का सिद्धान्त अस्पष्ट और कठिनाई उत्पन्न करने वाला सिद्धान्त है ।
यहा यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि स्वर्ण सिंह का यह मत सरासर गलत है कि संसद सर्वोच्च है । भारतीय संविधान के अधीन संविधान सर्वोच्च है; क्योंकि संसद द्वारा पारित विधियों को जो संविधान के विरुद्ध है, उन्हें-न्यायालय असंवैधानिक घोषित कर सकता है ।
संविधान ही संसद का जनक है । संसद की संविधान संशोधन की शक्ति का प्रयोग स्वयं संविधान को विरूपित या नष्ट करने के लिए नहीं किया जा सकता है । द्वितीय श्री स्वर्ण सिंह का यह भी मत है कि संसद जो भी संशोधन करती है, उसे जनता का अनुमोदन प्राप्त रहता है, किन्तु जनता की संविधान-संशोधन शक्ति और विधानमण्डल संसद की संविधान संशोधन शक्ति में भेद है ।
इसका एक बड़ा सुन सुन्दर दृष्टान्त आस्ट्रेलिया का है । आस्ट्रेलिया की संसद ने पूर्ण बहुमत से 30 संशोधन प्रस्तावित किये किन्तु उनमें से वहां जनता ने केवल 4 स्वीकृत किये और 26 को अस्वीकृत कर दिया । इससे स्पष्ट है कि यह सिद्धान्त कि जो कुछ संसद करती है, उसे जनता द्वारा किया गया माना जाना चाहिए सही नहीं है । संसद सर्वथा जनता की इच्छाओं के अनुसार कार्य नहीं करती है ।
1977 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की पराजय ने यह स्पष्ट कर दिया था कि संसद जो कुछ करती है, उसे जनता का अनुमोदन नहीं प्राप्त रहता है । आपातकाल में जो कुछ जनता के नाम से किया गया था, कांग्रेस पार्टी को पराजित करके जनता ने उसे अस्वीकार कर दिया ।
इस मत को उच्चतम न्यायालय ने श्रीमति इन्दिरा गांधी के मामले में अस्वीकार कर दिया है । न्यायमूर्ति श्री बेग और श्री चन्द्रचूड़ ने कहा कि संविधानी शक्ति सर्वशक्तिमान नहीं है । खण्ड (4) स्पष्ट रूप से संविधान-संशोधनों के न्यायिक पुनर्विलोकन को वर्जित करता है, किन्तु जब तक केशवानन्द भारती का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा उलट नहीं दिया जाता है, तब तक न्यायालय संशोधनों की त्रिधिमान्यता पर इस आधार पर विचार कर सकता है कि क्या इससे संविधान के आधारभूत ढांचे पर कोई आघात पहुंचता है ।
यद्यपि खण्ड (1) के अनुसार प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक है, किन्तु नये खण्ड (4) के अनुसार यह आवश्यक नहीं है । इन खण्डों में विरोध की स्थिति में क्या होगा ? क्या प्रक्रिया के पालन न करने पर इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी ? सम्भवत: इसका उत्तर सकारात्मक है ।
मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ के निर्णय में उच्चतम न्यायालय की पाच न्यायाधीशों की पूर्णपीठ (मुख्य न्यायाधिपति श्री चन्द्रश्नु, न्यायाधिपति श्री गुप्त, श्री उण्टवालिया श्री कैलाशम और भगवती) ने एकमत से यह अभिनिर्धारित किया है कि अनुच्छे 368 में ४२वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़े गये खण्ड (4) और (5) जिसके द्वारा संशोधन शक्ति को असीमित बना दिया गया था वे असंवैधानिक हैं; क्योंकि वे ससद को असीमित संशोधन शक्ति प्रदान करते हैं और इस प्रकार संविधान के ‘आधारभूत ढांचे’ को नष्ट करते हैं ।
न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत में संविधान सर्वोच्च है न कि संसद । संसद अपनी सीमित संशोधन की शक्ति को बढ़ा नहीं सकती है । संविधान-संशोधन की ‘सीमित शक्ति’ और ‘न्यायिक पुनर्विलोकन’ संविधान के ‘आधारभूत ढांचे’ के आवश्यक तत्त्व हैं ।
वामन राव बनाम भारत संघ के मामले (ए॰आई॰आर॰ 1981 एस॰सी॰ 271) में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि अप्रैल 24,1993 (जिस दिन केशवानन्द भारती के मामले में न्यायालय का निर्णय हुआ था) तक के सभी संवैधानिक संशोधन जिसमें वे सभी शामिल है, जिनके द्वारा समय-समय पर नवीं अनुसूची में संशोधन किया गया था विधिमान्य तथा संवैधानिक हैं, किन्तु इस तारीख के राश्चात् नवीं अनुसूची में किये गये सभी संवैधानिक संशोधनों की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि वे संसद की संविधायी शक्ति के बाहर हैं और संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट करते हैं ।
एस॰पी॰ सम्पत कुमार बनाम भारत संघ के मामले (ए॰आई॰आर॰ 1987 एस॰सी॰ 386) में अनुच्छेद 323 (क) और उसके तहत बनाये गये प्रशासनिक अधिकारण अधिनियम 1985 के कतिपय उपबन्धों की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि उनके द्वारा प्रशासनिक अभिकरणों पर से अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालयों की अधिकारिता को समाप्त करके न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति को नष्ट किया गया था जो संविधान का ‘आधारभूत ढांचा’ है ।
उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 323 (क) और प्रशासनिक अधिकरण अधिनियम को विधिमान्य घोषित किया; क्योंकि उसके द्वारा बताये गये सुझावों को अधिनियम में शामिल कर लिया गया था और उसकी कमी दूर कर दी गयी थी ।
उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यद्यपि अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 226 और 227 के अधीन उच्च न्यायालयों की अधिकारिता सेवा के मामलों में समाप्त कर दी गयी किन्तु इसके द्वारा अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 136 के अधीन उक्त मामलों में न्यायिक पुनर्विलोकन को समाप्त नहीं किया गया है, अत: अधिनियम विधिमान्य है ।
42वां संविधान संशोधन संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट नहीं करता है; क्योंकि इसने उच्च न्यायालयों से पुनर्विलोकन की शक्ति लेकर वैकल्पिक संस्था में निहित कर दिया है, जो उच्च न्यायालयों से कम प्रभावी नहीं है ।
इस प्रकार अभी तक उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित ‘आधारभूत ढांचे’ को मान्यता दी है :
1. विधि शासन
2. समता का अधिकार एवं शक्ति के पृथक्करण का सिद्धान्त
3. संविधान की सर्वोच्चता
4. परिसंघवाद
5. धर्मनिरपेक्षता
6. देश का प्रभुत्वसम्पन्न लोकतान्त्रिक गणतान्त्रिक ढांचा
7.संसदीय प्रणाली की सरकार
8. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
9. उच्चतम न्यायालय की अनुच्छेद 32,136,141 और 142 के अधीन शक्ति
10. कतिपय मामलों में मूल अधिकार
11. संसद की संविधान संशोधन की सीमित शक्ति ।
‘न्यायिक पुनर्विलोकन’ संविधान का आधारभूत ढांचा है: इसे संविधान संशोधन द्वारा भी अपवर्जित नहीं किया जा सकता:
अपने ऐतिहासिक महत्त्व के निर्णय एन॰ चन्द्र कुमार बनाम भारत संघ (ए॰आई॰आर॰ 1988 एस॰सी॰ 1125) में उच्चतम न्यायालय की 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह अभिनिर्धारित किया है कि अनुच्छेद 323 का खण्ड 2 (ग) और अनुच्छेद 323 (ख) का और 227 के अधीन उच्च न्यायालयों की अधिकारिता को प्रशासनिक अभिकरणों से समाप्त कर दिया गया था जो असंवैधानिक एवं अवैध है; क्योंकि वे न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति को नष्ट करते हैं, जो संविधान का ‘ आधारभूत ढांचा है ।
केशवानन्द भारती के मामले में दिये गये अपने निर्णय का अनुसरण करते हुए न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधायी कार्यों (विधानमण्डल की विधि बनाने की शक्ति) पर अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालयों एव अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में निहित पुनर्विलोकन की शक्ति संविधान का आधारभूत ढाचा है, जिसे संविधान संशोधन द्वारा भी अपवर्जित नही किया जा सकता है ।
न्यायालय के प्रशासनिक अभिकरण अधिनियम 1985 की धारा 28 को भी असंवैधानिक घोषित कर दिया जिसके द्वारा उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की अधिकारिता प्रशासनिक अभिकरण पर से समाप्त कर दी गयी थी ।
इस निर्णय से अब यह विवाद सर्वदा के लिए समाप्त हो गया कि न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति संविधान का आधारभूत ढांचा है कि नहीं । संक्षेप में अब संसद द्वारा भविष्य में पारित कोई भी संवैधानिक संशोधन न्यायालयों को इसकी विधिमान्यता की जांच करने से रोक नहीं सकता है ।
दो महत्त्वपूर्ण मामलों एम॰ नागराज बनाम भारत संघ (ए॰आई॰आर॰ 2007 एस॰सी॰ 81) और आई॰आर॰ सेलो बनाम तमिलनाडु राज्य ए॰आई॰आर॰ 2007 एस॰सी॰ 81) में विभिन्न संवैधानिक संशोधनों की विधिमान्यता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी ।
एम॰ नागराज बनाम भारत संघ के मामले में संविधान के तीन संशोधनों- वौ (जिसके द्वारा अनुच्छेद 16 में खण्ड (क) जोड़कर अनुसूचित जाति और जन-जाति के लिए प्रोन्नत्ति में आरक्षण चलाने की अनुमति दे दी गयी) ४५वें संशोधन द्वारा खण्ड (क) की शब्दावली में परिवर्तन करके आरक्षण को भूतलक्षी प्रभाव से चलाने की अनुमति दी गयी और 8 वें संशोधन द्वारा प्रोन्नत्ति की 50 प्रतिशत सीमा को इन वर्गों के लिए समाप्त कर दिया गया ।
पिटीशनरों ने यह तर्क दिया कि उक्त संशोधनों के द्वारा संविधान के ‘आधारभूत ढांचे’ को नष्ट किया गया है, अत: वे असंवैधानिक हैं । किन्तु उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने यह निर्णय दिया कि उक्त संशोधन संविधान के आधारभूत ढांचे को किसी प्रकार नष्ट नहीं करते हैं और असंवैधानिक नहीं हैं ।
अनुच्छेद 16 में (क) और (ख) जोड़े गये हैं, जो राज्य को सक्षम बनाने वाला उपबन्ध है । उक्त संशोधन अधिनियम संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट नहीं करते है । वे संवैधानिक अपेक्षाओं को समाज नहीं करते है ।
जैसे-अनुच्छेद 355 के अधीन कार्यकुशलता, पद रोस्टर के आधार पर भरा जाना और 50 प्रतिशत की सीमा । संविधान लागू होने के लिए दो कसौटियां हैं : एक ‘सीमा की कसौटी’ और दूसरी ‘पहचान की कसौटी’ ।
कैचअप नियम और पारिणामिक ज्येष्ठता की अनुच्छेद 16 (1) (4) में आवश्यकता नहीं है । इन नियमों को समाप्त करने से अनुच्छेद 14,15 और 16 के अधीन समता का कोड समाप्त नहीं होता है ।
यदि राज्य सन्तुष्ट है कि वह वर्ग ‘पिछड़ा’ है और राज्य की सेवाओं में उसका उचित प्रतिनिधित्व नहीं है, तो वह आरक्षण दे सकता है, किन्तु आरक्षण देते समय उसे उपयुक्त अपेक्षाओं अर्थात् 50 प्रतिशत की सीमा रोस्टर प्रणाली और उन्नत वर्गों को निकालकर ही पूरा करना होगा । आरक्षण निरन्तर नहीं चलाया जा सकता है, उसकी भी एक सीमा है, जब उसे समाप्त करना चाहिए ।
दूसरा मामला आई॰आर॰ सेलो और तमिलनाडु राज्य का है, जिसमें संविधान की नवीं अनुसूची में विभिन्न अधिनियमों की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि उन्होंने न्यायिक पुनर्विलोकन से उन्हें बाहर करके संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट किया है ।
24 अप्रैल, 1973 को उच्चतम न्यायालय ने केशवानन्द भारती के मामले में ‘आधारभूत ढाँचे’ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था । न्यायालय के 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एकमत से यह अधि-निर्धारित किया था कि पूर्वी अनुसूची में 24 अप्रैल 1973 के पश्चात् सम्मिलित किये गये अधिनियमों की विधिमान्यता को चुनौती दी जायेगी यदि वे नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन करते हैं और संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट करते है ।
नवीं अनुसूची को संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम 1951 द्वारा संविधान में जोड़ा गया था । इसका मुख्य उद्देश्य केन्द्र और राज्यों द्वारा पारित भूमि सुधार कानूनों को न्यायालय में चुनौती दिये जाने से रोकना था ।
कालान्तर में इसमें ऐसे अधिनियमों को जोड़ा गया जिनका सम्बन्ध भूमि सुधारों से न होकर नागरिकों के मूल अधिकारों को छीनना था । तमिलनाडु के 69 प्रतिशत के आरक्षण का अधिनियम भी इसी में डालकर उसे न्यायिक पुनर्विलोकन से बाहर कर दिया गया था ।