संविधान के स्रोत | Sources of the Constitution in Hindi!

हमारा संविधान, जिसे 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा ने अंगीकार किया तथा जो 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ, कुछ निश्चित स्रोतों की देन है, जिन्हें इस प्रकार इंगित कर सकते हैं :

i. ब्रिटिश संसद द्वारा निर्मित अधिनियम:

ब्रिटिश शासकों ने भारत पर शासन करने हेतु कानूनी व्यवस्था स्थापित की, जिसका इतिहास 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट से लेकर 1947 के भारत स्वतन्त्रता अधिनियम तक आता है । इनमें 1919 व 1935 के भारत सरकार अधिनियम बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । 1919 के एक्ट या माण्टफ्रोर्ड सुधारों ने द्वि-सदनात्मक संसद स्थापित की जो स्वतन्त्रता के आगमन तक चली ।

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राज्य परिषद् व केन्द्रीय विधानसभा उसके ऊपरी व निचले सदन थे जिनके अनुरूप हमारी वर्तमान संसद है । इन सुधारों ने देश में सूक्ष्म संघीय व्यवस्था  का सूत्रपात किया, जिसे 1935 के एक्ट ने व्यापक रूप प्रदान किया । यह दूसरी बात है कि यह संघ शासन लागू न हो सका किन्तु हमारे संविधान ने उसी को स्पष्ट व विस्तृत रूप प्रदान किया है ।

1919 के सुधारों ने प्रान्तों में द्वैध शासन (Dyarchy) स्थापित किया, लेकिन 1935 के कानून ने उसे प्रान्तीय स्वायत्तता (Provinical Autonomy) में बदल दिया । वही रूप कुछ अनिवार्य संशोधनों के साथ हमारे संविधान में अपनाया गया है । इसी एक्ट ने संघीय न्यायालय स्थापित किया, जिसे 1950 में, राष्ट्रपति के आदेशानुसार सर्वोच्च न्यायालय बना दिया गया ।

ii. विदेशी संविधानों से ली गयी व्यवस्थाएं:

हमारे संविधान निर्माताओं ने इस सूत्र को माना कि जहाँ से गुण मिले उसे ग्रहण किया जाये । वे संवैधानिक व्यवस्थाओं की व्यापक जानकारी रखते थे, इसीलिए उन्होंने अपने देश की आवश्यकताओं व परिस्थितियों के अनुसार जो ठीक समझा उसे अन्य देशों के संविधानों से प्राप्त किया ।

उदाहरण के लिए, उन्होंने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपनाया, जिसका 1919 से हमारे देश में प्रयोग हो रहा था । इसीलिए कार्यपालिका को व्यवस्थापिता के प्रति उत्तरदायी रखा गया । उन्होंने अमेरिका से सुप्रीम कोर्ट व न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था अपनायी । कनाडा के नमूने का संघीय शासन स्थापित किया गया, जिसमें प्रान्तों की अपेक्षा केन्द्र की स्थिति बहुत मजबूत है ।

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समवर्ती सूची का विचार आस्ट्रेलिया के संविधान से लिया गया । आयरलैण्ड के संविधान से प्रेरणा लेते हुए राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त अपनाये गये । यह तथ्य दर्शाते हैं कि हमारे संविधान-निर्माताओं ने अनेक देशों की प्रमुख व्यवस्थाओं व संस्थाओं को अपनाया जहां तक यह सब हमारे देश की आवश्यकताओं व परिस्थितियों के अनुकूल था ।

iii. संविधान सभा की चर्चाएं:

प्रारूप समिति ने संविधान के अनुच्छेदों को लिखा लेकिन उन्हें पास करते समय सदन में काफी चर्चा हुई । जब किसी मुद्दे पर गहन विचार किया जाता है, तो संविधान सभा की इन्हीं चर्चाओं का हवाला दिया जाता है ।

उदाहरण के लिए सभा के कुछ सदस्यों (जैसे-प्रो॰के॰टी॰ शाह) ने यह मांग की थी कि भारत में अमेरिकी नमूने की अध्यक्षीय शासन प्रणाली अपनायी जाये लेकिन नेहरू व पटेल के आग्रह पर यही निर्णय हुआ कि हमें ब्रिटिश नमूने की संसदीय शासन प्रणाली अपनानी चाहिए; क्योंकि पिछले दो दशकों में हमें उसका पर्याप्त अनुभव हो चुका है ।

प्रो॰के॰टी॰ शाह व एच॰वी॰ कामथ ने यह मांग की कि भारत को ‘समाजवादी संघ’ घोषित किया जाये लेकिन सरदार पटेल व मुंशी के विरोध के कारण यह सम्भव नहीं हो सका । जब सुप्रीम कोर्ट में किसी मुद्दे पर गम्भीर चर्चा होती है, तो अधिवक्तागण व न्यायाधीशगण इन्हीं चर्चाओं का आह्वान करते हैं ।

iv. संसदीय कानून:

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संसद आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर कानून बनाती है, ताकि संविधान की अस्पष्ट व्यवस्थाओं को पूर्णतय: स्पष्ट किया जा सके या रिक्त स्थानों की पूर्ति की जा सके । स्वतन्त्रता पूर्व काल में परिषद् गवर्नर जनरल ने विधान परिषदों व संसद के लिए चुनाव सम्बन्धी आदेश व कानून बनाये जिन्हें हमारी संसद ने यथा अवश्यकता अपनाया है ।

यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेदों की पूर्ति करते हैं । उदाहरण के लिए यदि सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के किसी न्यायाधीश को महारोपण की प्रक्रिया से हटाया जाना है, तो 1968 के न्यायाधीशों की जांच-पड़ताल सम्बन्धी कानून का पालन होना चाहिए ।

राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति सांसदों के चुनाव संसद के बनाये कानूनों के अनुसार होते हैं । ये चुनाव संविधान की धाराओं के अनुकूल होना चाहिए अन्यथा न्यायालय उसे रह कर सकता है । ब्रिटिश काल में अनेक कानून बने थे जिन्होंने संसद की कार्रवाई तथा चुनावों को व्यवस्थित किया था ।

v. न्यायिक व्याख्याएं:

इस सम्बन्ध में हमें संघीय न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों द्वारा दी गयी महत्त्वपूर्ण व्याख्याओं का भी संक्षिप्त वर्णन करना चाहिए, जो किन्हीं अस्पष्ट या विवादग्रस्त स्थितियों का निराकरण करती हैं ।

1935 के भारत सरकार अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित संघीय न्यायालय के अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिये गये जो दृष्टान्तों के रूप में मौजूद हैं । 1950 में, संविधान के लागू होते ही संघीय न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय हो गया ।

यह हो सकता है कि राष्ट्रपति किसी कानूनी या सार्वजनिक महत्त्व के मामले पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श मांगे । यदि आवश्यक हो तो न्यायालय समय-समय पर अपनी व्यवस्था को संशोधित कर सकता      है ।

गोलकनाथ केस (1967) में न्यायालय ने कहा कि संविधान में कोई ऐसा संशोधन नहीं हो सकता जो मौलिक अधिकारों में कटौती करे । केशवानन्द भारती केस (1967) में न्यायालय ने कहा कि संविधान में कोई ऐसा संशोधन नहीं हो सकता जो उसके आमूल ढांचे (Basic Structure) को बदले या बिगाड़े ।

vi. कार्यपालिका के आदेश:

स्वतन्त्रता पूर्व काल में भारत मन्त्री निदेश पत्र (Instrument of Instruction) जारी करते थे, जिनका गवर्नर जनरल व प्रान्तों के गवर्नरों द्वारा पालन किया जाता था । अब समय-समय पर राज्य के अध्यक्ष या मन्त्रियों की ओर से आदेश आते हैं, जिनका पालन अनिर्वाय होता है । कालान्तर में ये आदेश संविधान के अनुच्छेदों की परिपूतिं करते हैं और इस नाते वे संवैधानिक व्यवस्था के अभिन्न  अंग बन जाते हैं ।

राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री राज्यपाल मुख्यमन्त्री तथा अन्य संवैधानिक अधिकारियों की ओर से आने वाले आदेशों को इसी कोटि में रखा जा सकता है । उदाहरण के लिए यदि प्रधानमन्त्री के पीछे लोकसभा में स्पष्ट बहुमत न हो, तो राष्ट्रपति एक समय सीमा निर्धारित कर सकते हैं, जिसके भीतर सरकार को सदन का विश्वास मत प्राप्त कर लेना चाहिए ।

1990 में, प्रधानमन्त्री वी॰पी॰ सिंह के आदेशानुसार मण्डल आयोग की यह सिफारिश लागू की गयी कि लोक सेवाओं में सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के लिए रिक्त स्थानों का 27 प्रतिशत भाग आरि क्षत किया जा सकता है, किन्तु न्यायापालिका ऐसे किसी आदेश को असंवैधानिक कहकर रह कर सकती है ।

 

vii. रीति-रिवाज:

समय-समय पर कुछ व्यवस्थाएं शुरू होती हैं, जो निर्बाध रूप से प्रचलित होने के कारण परिपुष्ट हो जाती हैं । प्रसिद्ध अंग्रेज विधिविद ए॰वी॰ डायसी के मतानुसार लिखित कानून व रिवाज के बीच अन्तर लुप्त हो जाता है; क्योंकि लोग दोनों का सम्मान व पालन करते हैं ।

हमारे देश में ब्रिटिश काल में यह परम्परा शुरू हुई कि फरवरी के अन्तिम सप्ताह में सरकार संसद में अपना वार्षिक बजट पेश करेगी लेकिन उससे पहले रेलवे बजट पेश होगा । यह परम्परा चली आ रही है कि यदि अविश्वास का प्रस्ताव पास हो जाये तो मन्त्रिमण्डल को त्यागपत्र देना पड़ता है । 1976 के यह संविधान संशोधन तक यही परम्परा चलती रही कि राष्ट्रपति अपने मन्त्रिपरिषद् की सलाह में कार्य करेगा ।

viii. प्रसिद्ध रचनाएं:

कुछ जाने-माने लेखक इस विषय पर अपनी पुस्तकें लिखते हैं, जिन्हें पढ़कर संविधान व संवैधानिक व्यवस्था के बारे में हमें जानकारी मिलती है । यदि कोई भ्रम या उलझन पैदा हो जाये तो उन्हीं लेखकों के विचारों का आह्वान किया जाता है । यदि बेजहाट, लास्की व जेनिंग्स ने ब्रिटिश संविधान पर ऐसी रचनाएं प्रस्तुत कीं तो भारत में यही श्रेय दुर्गादास बसु, एन॰ए॰ पालकीवाला, एच॰एम॰ सीरवाई, ग्रेनवायल आस्टिन आदि को प्राप्त है ।

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