भारतीय संविधान का अर्थ और आवश्यकता | Meaning and Need of the Indian Constitution in Hindi Language!
सरल शब्दों में राज्य के संविधान की परिभाषा लिखित तथा अलिखित नियमों एवं विनियमों के निकाय के रूप में की जा सकती है, जिनके द्वारा सरकार का गठन होता है और वह कार्य करती है ।
यह अलग बात है कि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संविधान मौलिक अधिकारों व कर्तव्यों के घोषणा-पत्र के रूप में व्यक्तियों तथा उनके राज्य के बीच सम्बन्धों को स्पष्ट करने हेतु कुछ और सिद्धान्तों को अंगीकार करे ।
अत: संविधान को उन नियमों का संग्रह कहा जा सकता है, जिनके अनुसार शासन की शक्तियां शासितों के अधिकार तथा दोनों के बीच सम्बन्ध समायोजित होते हैं । अन्य शब्दों में इसे कानून द्वारा तथा उसके माध्यम से गठित राजनीतिक समाज का ढांचा कहा जा सकता है, जिसमें कानून ने स्पष्ट कर्तव्यों तथा सुनिश्चित अधिकारों से युक्त स्थायी संस्थाओं की स्थापना की है ।
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इस प्रकार यह एक वैधानिक उपकरण है, जिसे भिन्न नामों जैसे : ‘राज्य के नियम’, ‘शासन का उपकरण’, ‘देश का मौलिक कानून’, ‘राज्य व्यवस्था का आधारभूत विधान’, ‘राष्ट्र-राज्य की आधारशिला’ आदि से जाना जाता है । गार्नर की दृष्टि में: ”यह राज्य के अनन्य सार्वजनिक कानून के अधिक अनिवार्य अंगों को समाहित करता है ।”
जेमसन ने कहा है : ”यह राज्य की ओर से अपने नागरिकों अथवा प्रजा की और से सम्बन्धित कुछ सूत्रों की तकनीकी भाषा में अभिव्यक्ति अथवा सकारता संविधान के नियम विस्तृत या संक्षिप्त रूप में लिखित हो सकते हैं अथवा उनमें से अधिकांश सिद्ध कथनों प्रथाओं दृष्टान्तों तथा व्यवहारों के रूप में हो सकते हैं ।”
अनिवार्य बात यह है कि समर्ग रूप में ये नियम राज्य के शासन के गठन तथा उसकी कार्य-विधि को निर्धारित करते हैं । यह किसी सभा या सम्मलेन द्वारा तैयार किये गये एक प्रलेख के रूप में किया गया सप्रयास निर्माण हो सकता है अथवा यह राज्य के अधिकृत प्रलेखों के संग्रह के रूप में भी हो सकता है, जिसका सर्वोत्तम उदाहरण इंग्लैण्ड के संविधान में देखा जा सकता है ।
के॰सी॰ हेयर के अनुसार: ”संविधान शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से राजनीतिक विषयों की साधारण चर्चा में कम-से-कम दो अर्थो में किया जाता है । प्रथम इसका प्रयोग देश से शासन की सम्पूर्ण व्यवस्था अर्थात् उन नियमों का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो शासन को स्थापित तथा विनियमित अथवा प्रभावित करते हैं ।
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द्वितीय ये नियम इस भाव में अंशत: वैधानिक होते हैं कि कानून के न्यायालय उन्हें मानते तथा लागू करते हैं तथा वे आशिक रूप में अवैध या विधानेतर होते हैं, जो ऐसे व्यवहारों प्रथाओं अथवा परम्पराओं का रूप ग्रहण कर लेते हैं, जिन्हें न्यायालय कानून् के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करते परन्तु शासन को विनियमित करने में वे उनसे कम प्रभावी होते हैं, जिन्हें सटीक शब्दों में कानून के नियम कहा जाता है ।
विश्व के अधिकांश देशों में शासन की व्यवस्था इन वैधानिक तथा अवैधानिक नियमों के इस मिश्रण से निर्मित होती है तथा नियमों के इस संचय को ‘संविधान’ कहा जा सकता है ।” हर राज्य का अपना संविधान होना चाहिए । यह उन राज्यों के लिए भी आवश्यक है, जिनमें अत्यधिक आदिकालीन प्रकार की भयानक तानाशाही या बुरे-से-बुरे प्रकार का निरंकुशवाद विद्यमान हो ।
जैलिनेक का मत है : ”संविधान के बिना कोई राज्य नहीं होगा बल्कि वहां अराजकता का दबदबा होगा । सभी कालों में, चाहे प्राचीन, मध्य अथवा आधुनिक हों, उन संविधानों का अस्तित्व इस तथ्य के बाबुजूद बना रहा है कि शासकों ने स्वेच्छाचारी तरीके से आचरण किया ।
साक्ष्य यह बताता है कि प्राचीन यूनान में अरस्तु ने लगभग 158 संविधानों का अध्ययन किया था । मध्य युग में भी संविधानों को अधिकतम सम्मान दिया जाता है । ‘प्रजातान्त्रिक राष्ट्र राज्य की आधारशिला’ के रूप में इसकी प्रशंसा की जाती है, यहां तक कि गैर-प्रजातान्त्रिक राज्यों में भी नियमों की संहिता होती है, जिन्हें वे अपने राज्य के ढांचे की विचारधारा का प्रपत्र अथवा ‘घोषणा-पत्र’ कहते हैं ।”
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यह भी आवश्यक है कि राज्य का संविधान न तो यथास्थिति का प्रबल रक्षक हो जो लोगों की बदलती हुई परिस्थितियों के प्रत्युत्तर में किसी परिवर्तन की अनुमति न दे और न ही यह इतना अधिक लचीला अथवा गतिशील हो कि वह देश के विधायकों अथवा प्रशासकों अथवा न्यायाधिकारियों के हाथों में खिलौना बन जाये ।
हिंसात्मक आन्दोलनों को आमन्त्रित किये बिना और आवश्यक परिवर्तनों के लिए गुंजाइश की अनुमति देते हुए, इसमें स्थायित्व का तत्त्व होना चाहिए । यह लोगों की राजनीतिक संस्कृति शिक्षण तथा प्रशिक्षण के काफी अनुकूल होना चाहिए ।
चार्ल्स मैरियम की यह टिप्पणी उद्धृत करने योग्य है: ”संविधान के शब्दों को न तो उस दोषपूर्ण रूढ़िवादिता के साथ किसी पवित्र उपकरण के रूप में पूजना चाहिए जो समय के साथ परिवर्तित होना नहीं चाहता न ही इसे राजनीतिज्ञों के हाथों का खिलौना बनना चाहिए ताकि वे उलट-पलट कर इसे साधारण कानून की हीन दिशा में रख दें ।”
कुछ महत्त्वपूर्ण वक्तव्य:
जेम्स मैकिन्तोश: संविधान उन लिखित अथवा अलिखित मौलिक कानूनों का संग्रह है, जो उच्चतर अधिकारियों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अधिकारों तथा प्रजा के सर्वाधिक अनिवार्य विशेषाधिकारों को विनियमित करते हैं ।
जेम्स मैकिन्तोश: संविधान राज्य का वह मौलिक कानून है, जो उन सिद्धान्तों से युक्त होता है, जिन पर शासन स्थापित किया जाता है, जो प्रभुसत्तासम्पन्न शक्ति के विभाजन को विनियमित करता है तथा यह निदेश देता है कि इन शक्तियों में से प्रत्येक को किन लोगों को सौंपना है तथा किस ढंग से ऐसा करना है ।
संविधान वह मौलिक कानून है, जिसके अनुसार राज्य के शासन का गठन किया जाता है तथा जिसके अनुसार सहमति के आधार पर राज्य के प्रति लोगों अथवा नैतिक व्यक्तियों के सम्बन्ध निर्धारित किये जा सकते हैं ।
चार्ल्स बोरगियाड: यह एक लिखित उपकरण एक सुनिश्चित प्रपत्र अथवा किसी निश्चित समय पर किसी प्रभुसत्ता सम्पन्न शक्ति द्वारा निर्मित प्रपत्रों की संखला हो सकता है अथवा वह विधायी कार्यों, अध्यादेशों, न्यायिक निर्णयों, दृष्टान्तों तथा विभिन्न स्रोतों से जन्म लेने वाली तथा असमान मूल्य व महत्त्व की प्रथाओं का न्यूनाधिक परिणाम हो सकता है । राज्य एक मानवीय संघ है, जिसमें उसके नागरिकों तथा सम्बन्धित तत्त्वों के बीच सत्ता-सम्बन्ध प्रभावी होता है । यह सत्ता-सम्बन्ध राजनीतिक संस्थाओं में निवास करता है ।
हर्मन फायनर: इन मौलिक राजनीतिक संस्थाओं की व्यवस्था ही संविधान है, संविधान सत्ता-सम्बन्ध की आत्मकथा है ।
जाज जैलिनेक: संविधान वैधानिक नियमों का समूह है, जो राज्य के सर्वोच्च अंगों, उनकी उत्पत्ति की शैली, उनके पारस्परिक सम्बन्ध, उनकी कार्रवाई के क्षेत्र तथा अन्तत: राज्य के साथ सम्बन्ध में उनमें से प्रत्येक के मौलिक स्थान को निर्धारित करते हैं ।
जेम्स ब्राइस: संविधान कानून के माध्यम से तथा उसके द्वारा राजनीतिक समाज की एक संरचना अर्थात् एक ढांचा है, जिसमें प्रभुसत्तासम्पन्न शक्ति अथवा उसके सदस्य, अपनी सत्ता का प्रयोग करते हैं ।