राज्य कार्यकारी और विधानमंडल | भारतीय संविधान | State Executive and Legislature | Indian Constitution in Hindi Language!
राज्यपाल:
(i) राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रधान राज्यपाल होता है तथा राज्य की समस्त कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होती है और राज्य की समस्त कार्रवाई राज्यपाल के नाम से की जाती है ।
(ii) संघ की तरह राज्यों में भी संसदात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की गयी है और इस संसदात्मक व्यवस्था में राज्यपाल राज्य की कार्यपालिका का वैधानिक प्रधान होता है ।
(iii) राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राज्यपाल तब तक अपने पद पर रह सकता है, जब तक राष्ट्रपति की इच्छा हो । उसकी नियुक्ति पांच वर्ष की अवधि के लिए की जाती है, लेकिन वह अपने उत्तराधिकारी के पद ग्रहण करने तक अपने पद पर बना रह सकता है ।
ADVERTISEMENTS:
(iv) संविधान के अनुच्छेद 153 के अनुसार सामान्यत: प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा परन्तु एक ही व्यक्ति दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल भी नियुक्त किया जा सकता है । यह व्यवस्था सातवें संविधान संशोधन 1956 द्वारा की गयी ।
(iv) राज्यपाल संसद अथवा राज्य के विधानमण्डल का सदस्य नहीं हो सकता है और यदि वह किसी सदन का सदस्य है, तो राज्यपाल की नियुक्ति की तिथि से उसे अपनी सदस्यता का त्याग करना होगा ।
(v) राज्यपाल अपना पद ग्रहण करने से पहले उस राज्य के सम्बन्ध में अधिकारिता रखने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के या उसकी अनुपस्थिति में वरिष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञा लेता है (अनुच्छेद 159) ।
(vi) सितम्बर, 2007 में संसद द्वारा पारित अधिनियम के अनुसार, राज्यपाल को 1, 11, 000 रुपये मासिक वेतन प्राप्त होता है ।
ADVERTISEMENTS:
(vii) इसके अतिरिक्त उसे नि शुल्क निवास स्थान भत्ते व अन्य सुविधाएं प्राप्त होती हैं ।
(viii) राज्यपाल के वेतन और भत्ते राज्य की संचित निधि से दिये जाते हैं । अत: उसके कार्यकाल में इन वेतन व भत्तों मे कोई कमी नहीं की जा सकती है, परन्तु आपातकाल (अनुच्छेद 360 (4) (ख) के दौरान इसमें कमी की जा सकती है ।
राज्यपाल की शक्तियां:
(i) संविधान द्वारा राज्यपाल को पर्याप्त और व्यापक शक्तियां प्रदान की गयी हैं । डी॰डी॰ बसु के शब्दों में: “संक्षेप में, राज्यपाल की शक्तियां राष्ट्रपति के समान हैं, सिर्फ कूटनीति सैनिक और संकटकालीन स्थिति को छोड़कर ।
(ii) राज्य कार्यपालिका शक्तियां राज्यपाल में निहित हैं, जिसका प्रयोग वह संविधान के अनुसार, स्वयं या अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों द्वारा करता है ।
ADVERTISEMENTS:
(iii) वह मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा उसके परामर्श पर अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है ।
(iv) उच्च न्यायालय केन्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल से भी परामर्श लेता है ।
(v) राज्यपाल की कार्यपालिका शक्तियां राज्य सूची के 66 विषयों तक विस्तृत हैं ।
(vi) समवर्ती सूची के विषयों पर वह अपने अधिकार का प्रयोग करता है ।
(vii) राज्य सरकार के बीच कार्यों का विभाजन करता (मुख्यमन्त्री की सलाह पर) है ।
(viii) उसे शासन सम्बन्धित सभी विषयों के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है ।
(ix) वहमुख्यमन्त्री को किसी मन्त्री के व्यक्तिगत निर्णय को सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल के सम्मुख विचार के लिए रखने को कह सकता है ।
(x) राज्य की व्यवस्थापिका का राज्यपाल एक अविभाज्य अंग होता है और विधायी क्षेत्र में उसे महत्त्वपूर्ण शक्तियां प्रदान है ।
(xi) राज्यपाल व्यवस्थापिका का अधिवेशन बुलाता है, स्थगित करता है और व्यवस्थापिका के निम्न सदन अर्थात् विधानसभा को भंग करता है ।
(xii) प्रत्येक आम चुनाव के बाद वह विधानमण्डल की पहली बैठक को सम्बोधित करता है ।
(xiii) राज्यपाल विधानमण्डल को सन्देश भेज सकता है ।
(xiv) राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक पर राज्यपाल की स्वीकृति आवश्यक होती है ।
(xv) राज्यपाल विधेयक को अस्वीकृत कर सकता है या उसे पुनर्विचार के लिए विधानमण्डल को लौटा सकता है ।
(xvi) यदि विधानमण्डल दूसरी बार विधेयक पारित कर देता है, तो राज्यपाल को स्वीकृति देना आवश्यक होता है ।
(xvii) अनुच्छेद 200 के अनुसार राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित किये गये किसी विधेयक को राज्यपाल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए आरक्षित रख सकता है ।
(xviii) यदि राज्य के विधानमण्डल का अधिवेशन न हो रहा हो तो अनुच्छेद 213 के अनुसार राज्यपाल अध्यादेश जारी कर सकता है । अध्यादेश को राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित अधिनियम केसमान ही मान्यता प्राप्त होगी । यह अध्यादेश विधानमण्डल की बैठक आरम्भ होने के 6 सप्ताह के बाद तक लागू रहता है ।
(xix) कुछ विषयों के सम्बन्ध में अध्यादेश जारी करने से पूर्व राज्यपाल को राष्ट्रपति की स्वीकृति लेनी आवश्यक होती है ।
(xx) राज्यपाल (यदि विधान परिषद् है) विधान परिषद् के सदस्यों को ऐसे लोगों में से नामजद करता है, जिन्हें साहित्य, कला, विज्ञान, सहकारिता आन्दोलन तथा समाज-सेवा के क्षेत्र में विशेष तथा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो ।
(xxi) यदि राज्यपाल ऐसा समझता है कि विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है, तो वह इस वर्ग के एक सदस्य को मनोनीत कर सकता है ।
(xxii) राज्यपाल को कतिपय वित्तीय शक्तियां भी प्राप्त हैं ।
(xxiii) राज्य विधानसभा में राज्यपाल की पूर्व स्वीकृति के बिना कोई भी धन विधेयक अथवा वित्त विधेयक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है ।
(xxiv) वह व्यवस्थापिका के समक्ष प्रतिवर्ष बजट प्रस्तुत करवाता है । उसकी अनुमति के बिना किसी भी अनुदान की मांग नहीं की जा सकती है ।
(xxv) राज्यपाल विधानमण्डल से पूरक अतिरिक्त तथा अधिक अनुदानों की भी मांग कर सकता है ।
(xxvi) राज्य की संचित निधि राज्यपाल के ही अधिकार में रहती है ।
(xxvii) संविधान के अनुसार जिन विषयों पर राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार होता है, उन विषयों सम्बन्धी किसी विधि के दण्ड को राज्यपाल कम कर सकता है, स्थगित कर सकता है, बदल सकता है या उन्हें क्षमा प्रदान कर सकता है । राज्यपाल राज्यलोक सेवा आयोग का वार्षिक प्रतिवेदन और राज्य की आय-व्यय के सम्बन्ध में महालेखा परीक्षक का प्रतिवेदन प्राप्त करता है और उन्हें विधानमण्डल के समक्ष रखता है ।
केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में:
(i) भारतीय संविधान में उपबन्धित प्रावधानों के अन्तर्गत राज्यपाल की दोहरी भूमिका है । प्रथम, वह राज्य का प्रधान और द्वितीय वह भारत में संघीय सरकार का प्रतिनिधि एजेण्ट है ।
(ii) भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल का महत्त्वपूर्ण कार्य राज्य के सम्बन्ध में समय-समय पर राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजना है, जिससे उसके द्वारा अपनी ओर से सुझाव भी दिये जाते हैं । राज्यपाल राष्ट्रपति को रिपोर्ट स्वविवेक से ही भेजता है ।
(iii) यदि राज्यपाल को लगता है कि राज्य का प्रशासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वह राष्ट्रपति को राज्य में संवैधानिक तन्त्र की विफलता के सम्बन्ध में रिपोर्ट भेजता है । केन्द्र सरकार द्वारा राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर अनुच्छेद 256 के अन्तर्गत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है । राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्य के शासन का संचालन करता है ।
(iv) संविधान के अनुच्छेद 163 (1) के अनुसार, जिन बातों के सम्बन्ध में संविधान द्वारा या संविधान के अधीन राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कार्यों को स्वविवेक से करे, उन बातों को छोड़कार राज्यपाल को अपने कार्यों का निर्वाह करने में सहायता और मन्त्रणा देने के लिए मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमन्त्री होगा ।
(v) वर्तमान समय में जम्मू-कशमीर, नागालैण्ड, सिक्किम और अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल को ही इस प्रकार की विवेकात्मक शक्तियां प्राप्त हैं ।
(vi) पं॰ जवाहरलाल नेहरू ने कहा था: ”राज्यपाल केवल संवैधानिक मुखिया है ।”
वास्तविक कार्यपालिका: राज्य मन्त्रिपरिषद:
(i) राज्य की वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मन्त्रिपरिषद् में निहित होती है, जो कि राज्य के लोकप्रिय सदन अर्थात् विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है । संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार उन बातों को छोड़कर जिनमें राज्यपाल स्वविवेक से कार्य करता है, अन्य कार्यो के निर्वाह में उसे सहायता प्रदान करने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान मुख्यमन्त्री होगा ।
(ii) राज्यपाल को मन्त्रियों ने कब और क्या सलाह दी, इस सम्बन्ध में न्यायालय में प्रश्न नहीं पूछा जा सकता है ।
(iii) अनुच्छेद 164 में कहा गया है कि राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर मुख्यमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करेगा । इस सम्बन्ध में निश्चित परम्परा यह है कि राज्य की विधानसभा के बहुमत दल के नेता को मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता है, लेकिन यदि राज्य की विधानसभा में किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो अथवा बहुमत प्राप्त दल या विभिन्न दलों द्वारा बनाये गये किसी ‘संयुक्त मोर्चे’ का कोई निश्चित नेता न हो तो राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति में अपने स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है ।
(iv) अन्य मन्त्रियों का चयन मुख्यमन्त्री ही करता है और वह मन्त्रियों के नामों तथा उनके विभागों की सूची राज्यपाल को दे देता है ।
(v) मन्त्रिपरिषद् में कितने सदस्य हों इसका निर्णय भी मुख्यमन्त्री करता है, परन्तु 91 वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 में अनुच्छेद 164 में खण्ड (1) के वाद निम्न खण्ड स्थापित किये गये खण्ड (1) (क) के अनुसार, राज्य की मन्त्रिपरिषद् में मन्त्रियों की कुल संख्या जिसमें मुख्यमन्त्री भी शामिल है, उस राज्य के विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी परन्तु राज्य में मन्त्रियों की संख्या जिसमें मुख्यमन्त्री भी शामिल है, 12 से कम नहीं होगी ।
(vi) मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्यों के लिए आवश्यक है कि वे विधानमण्डल के किसी सदन के सदस्य हों । यदि कोई व्यक्ति मन्त्री पद पर नियुक्ति के समय विधानमण्डल का सदस्य नहीं है, तो उसके लिए 6 माह के भीतर विधानमण्डल की सदस्यता प्राप्त करना आवश्यक होता है । ऐसा करने में असफल रहने पर उसे मन्त्री पद छोड़ना होता है ।
(vii) मन्त्रियों के कार्यों का विभाजन राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है ।
(viii) पद ग्रहण के पहले मुख्यमन्त्री को राज्यपाल के समक्ष दो शपथें लेनी होती हैं । प्रथम पद के कर्तव्य पालन की तथा द्वितीय, गोपनीयता की ।
राज्यों की मन्त्रिपरिषद् में भी मन्त्रियों की तीन श्रेणियां होती हैं:
(1) कैबिनेट मन्त्री
(2) राज्यमन्त्री और
(3) उपमन्त्री ।
(1) कैबिनेट (मन्त्रिमण्डल) के सदस्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते है । कैबिनेट के द्वारा ही सामूहिक रूप से शासन की नीति का निर्धारण किया जाता है ।
(2) संविधान के अनुच्छे 164 (5) के अनुसार मन्त्रियों के वेतन तथा भत्ते निश्चित करने का अधिकार राज्य विधानमण्डल को है ।
(3) मन्त्रिपरिषद् का कार्यकाल विधानसभा के विश्वास पर निर्भर करता है ।
(4) सामान्य तौर पर मन्त्रिपरिषद् का अधिकतम कार्यकाल 5 वर्ष का होता है; क्योंकि विधानसभा का कार्यकाल भी 5 वर्ष ही है ।
(5) यदि विधानसभा किसी मन्त्री के विरुद्ध प्रस्ताव पारित कर दे या किसी मन्त्री द्वारा रखे गये विधेयक को अस्वीकार कर दे तो समस्त मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना होता है ।
(6) नीति सम्बन्धी मामलों में मन्त्रिपरिषद् का सामूहिक उत्तरदायित्व होता है, लेकिन किसी मन्त्री के भ्रष्ट आचरण या व्यक्तिगत दोष के लिए सम्बन्धित मन्त्री ही उत्तरदायी होता है, समस्त मन्त्रिपरिषद् नहीं ।
(7) मन्त्रिपरिषद् की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण इकाई मन्त्रिमण्डल है और मन्त्रिमण्डल ही सभी महत्त्वपूर्ण मामलों में निर्णय लेता है ।
(8) मन्त्रिमण्डल की बैठक प्राय: सप्ताह में एक बार होती है, वैसे मुख्यमन्त्री जब चाहे, तब इसकी बैठक बुला सकता है । इन बैठकों की अध्यक्षता मुख्यमन्त्री करता है और मुख्यमन्त्री की अनुपस्थिति में वरिष्ठतम मन्त्री (जिसे मुख्यमन्त्री अधिकृत करे) अध्यक्षता करता है ।
(9) बैठक का कोई कोरम (गणपूर्ति) नहीं होता है ।
(10) मन्त्रिमण्डल की कार्रवाई के दो प्रमुख नियम हैं-सामूहिक उत्तरदायित्व और गोपनीयता ।
(11) अनुच्छेद 163 में उल्लेखित है कि मन्त्रिमण्डल का कार्य राज्यपाल को ‘सहायता से परामर्श देना’ है, किन्तु संसदीय शासन व्यवस्था के कारण वास्तविक स्थिति इसके विपरीत है ।
(12) राज्यपाल महाधिवक्ता राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों तथा अन्य कतिपय उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करता है ।
(13) व्यावहारिक रूप से राज्यपाल द्वारा ये सभी नियुक्तियां मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के आधार पर ही की जाती है ।
(14) मन्त्रिपरिषद् ही राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति को उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में परामर्श देती है ।
(15) विधानमण्डल की बैठकों में मन्त्रीगण शासन का प्रतिनिधित्व करते हैं । मन्त्रीगण विधानमण्डल और विधान परिषद् में उपस्थित होकर सदस्यों के प्रश्नों तथा आलोचनाओं का उत्तर देते हैं और शासन की नीति का समर्थन करते है ।
(16) मन्त्रिपरिषद् न केवल शासन, वरन् कानून निर्माण के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है ।
(17) मन्त्रिपरिषद् विधानमण्डल की सहमति से कानून का निर्माण करती है ।
(18) राज्य का वार्षिक बजट वित्तीय वर्ष के आरम्भ होने से पूर्व वित्त मन्त्री द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत किया जाता है । यह बजट मन्त्रिपरिषद् द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत किया जाता है । यह बजट मन्त्रिपरिषद् द्वारा निश्चित की गयी नीति के आधार पर ही तैयार किया जाता है ।
(19) बजट के पारित कराने का उत्तरदायित्य भी मन्त्रिपरिषद् का ही होता है ।
मुख्यमन्त्री की स्थिति:
(1) राज्यों में भी संघ की तरह संसदात्मक शासन व्यवस्था होने के कारण मुख्यमन्त्री को राज्य के शासनतन्त्र में लगभग वही स्थिति प्राप्त है, जो संघ में प्रधानमन्त्री की है ।
(2) मन्त्रिपरिषद् राज्य प्रशासन की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण इकाई है और मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का प्रधान है ।
(3) मुख्यमन्त्री का सर्वप्रथम कार्य अपनी मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करना होता है ।
(4) मुख्यमन्त्री मन्त्रियों का चयन कर उसकी सूची राज्यपाल को दे देता है, जिसे राज्यपाल स्वीकार कर लेता है ।
(5) मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् के अपने सहयोगियों के बीच विभागों का बंटवारा करता है ।
(6) एक बार मन्त्रिपरिषद् के निर्माण व उसके सदस्यों के विभागों का बंटवारा कर चुकने के बाद भी वह जब चाहे, तब मन्त्रियों के विभागों तथा उनकी स्थिति में परिवर्तन कर सकता है । इस सम्बन्ध में मुख्यमन्त्री के निर्णय को समान्यतय: किसी के भी द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती है ।
(7) मुख्यमन्त्री ही मन्त्रिमण्डल की बैठकें बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है ।
(8) बैठक के लिए ऐजेण्डा या कार्यसूची मुख्यमन्त्री के द्वारा ही तैयार की जाती है ।
(9) यदि मुख्यमन्त्री पर्याप्त प्रभावशाली है, तो मन्त्रिमण्डल की समस्त कार्रवाई मुख्यमन्त्री की इच्छा से ही सम्पादित होती है ।
(10) संविधान के उपबन्धों के अनुसार मुख्यमन्त्री का यह कर्तव्य है कि वह मन्त्रिपरिषद् और राज्यपाल के बीच सम्पर्क स्थापित करे ।
(11) मुख्यमन्त्री मन्त्रिमण्डल के निर्णय की सूचना राज्यपाल को देता है और राज्यपाल के विचार मन्त्रिमण्डल तक पहुँचाता है ।
(12) सामान्यत: कोई भी मन्त्री मुख्यमन्त्री को सूचित किये बिना राज्यपाल से वार्ता नहीं करता है ।
(13) राज्यपाल के साथ वार्तालाप के सम्बन्ध में मुख्यमन्त्री जो जानकारी देता है, वह आधिकारिक होती है ।
(14) मुख्यमन्त्री का दोहरा व्यक्तित्व है, एक और यदि वह शासन का प्रधान है, तो दूसरी और विधानसभा का नेता भी है ।
(15) विधानसभा के नेता के रूप में उसे कानून-निर्माण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थिति प्राप्त होती है और बहुत कुछ सीमा तक कानून-निर्माण उसकी इच्छानुसार ही सम्पन्न होता है ।
(16) मुख्यमन्त्री राज्य सरकार का प्रधान प्रवक्ता होता है और राज्य सरकार की ओर से अधिकृत घोषणा मुख्यमन्त्री द्वारा ही की जाती है ।
(17) यदि कभी किन्हीं दो मन्त्रियों के परस्पर विरोधी वक्तव्यों से भ्रम उत्पन्न हो जाये तो इसे मुख्यमन्त्री के वक्तवय से ही दूर किया जाता है ।
(18) मुख्यमन्त्री राज्य विधानसभा में बहुमत दल का नेता भी होता है ।
(19) उसे दलीय ढांचे पर नियन्त्रण प्राप्त होता है और यह स्थिति उसके प्रभाव तथा शक्ति में और अधिक वृद्धि कर देती है ।
(20) कुछ ऐसी परिस्थितियां हो सकती है, जिनमें राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् की सलाह के बिना ही कार्य करे । उदाहरण के लिए राज्य में संवैधानिक तन्त्र की विफलता के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को रिपोर्ट राज्यपाल अपने ही विवेक के आधार पर तैयार करके भेजता है और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में राज्यपाल केन्द्र सरकार के निदेशों को दृष्टि में रखते हुए राज्य के शासन का संचालन करता है ।
राज्य का महाअधिवक्ता:
(1) संविधान के अनुच्छेद 165 में राज्य के महाअधिवक्ता पद की व्याख्या की गयी है, जिसकी नियुक्ति राज्यपाल करेगा ।
(2) इस पद पर वही व्यक्ति नियुक्त किया जा सकता है, जिसमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद की योग्यता हो ।
(3) महाअधिवक्ता राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त पद धारण करेगा और उसे राज्यपाल द्वारा निर्धारित वेतन भत्ते व अन्य सुविधाएं प्राप्त होंगी ।
(4) महाअधिवक्ता राज्य का प्रथम विधि अधिकारी होता है ।
(5) महाअधिवक्ता का प्रमुख कार्य विधि-सम्बन्धी ऐसे सभी विषयों पर राज्य सरकार को परामर्श देना है, जिन पर राज्यपाल उसे परामर्श मांगे ।
(6) इसके अतिरिक्त उसे विधि से सम्बन्धित वे सभी कार्य करने होंगे जो राज्यपाल द्वारा उसे सौंपे जायें या जिन कार्यों को पूरा करने का भार संविधान अथवा कानून उसे सौंपे ।
राज्य विधानमण्डल:
(1) संविधान के अनुच्छेद 168 (1) में प्रावधान है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमण्डल होगा जो राज्यपाल और (क) आन्ध्र प्रदेश बिहार महाराष्ट्र कर्नाटक और उ॰प्र॰ (तथा इसमें जम्मू-कशमीर को भी जोड़ा जा सकता है जिसने अपने राज्य के विधान द्वारा द्वि-सदनीय विधानमण्डल स्वीकार किया है) राज्यों में दो सदनों से (ख) अन्य राज्यों में एक सदन से मिलकर बनेगा ।
संविधान के अनुच्छेद 168 (2) के अनुसार, जहां किसी राज्य के विधानमण्डल के दो सदन हैं, वहां एक का नाम विधान परिषद् और दूसरे का नाम विधानसभा होगा और जहाँ केवल एक सदन है, वहा उसका नाम विधानसभा होगा ।
(2) संविधान के अनुच्छेद 169 के अनुसार संसद को अधिकार प्राप्त है कि राज्य में विधान परिषद् की स्थापना अथवा उसका अन्त कर दे यदि सम्बन्धित राज्य की विधानसभा अपने कुल बहुमत व उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित करे ।
(3) वर्तमान समय में भारतीय संघ के केवल 6 राज्यों-आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार में द्वि-सदनात्मक व्यवथापिका है । मध्य प्रदेश को सिद्धान्तत: विधान परिषद् की स्थापना की अनुमति दी गयी है, जबकि वहां विधान परिषद् की अभी तक स्थापना नहीं की गयी है । शेष राज्यों में एक सदनात्मक व्यवस्थापिका है ।
(4) उत्तर प्रदेश में तथा विधान परिषद् वाले अन्य 5 राज्यों में राज्य विधानमण्डल के निम्न तीन अंग हैं:
(1) राज्यपाल
(2) विधानसभा, जिसे प्रथम या निम्न सदन कहते हैं ।
(3) विधान परिषद् जिसे द्वितीय या उच्च सदन कहते हैं ।
विधान परिषद:
(1) विधान परिषद् राज्य के विधानमण्डल का द्वितीय या उच्च सदन कहलाता
(2) संविधान में यह प्रावधान है कि प्रत्येक राज्य की विधान परिषद् के सदस्यों की संख्या विधानसभा के सदस्यों की संख्या के एक-तिहाई से अधिक नहीं होगी, पर साथ ही यह भी कहा गया है कि किसी भी दशा में विधान परिषद् की सदस्य संख्या 40 से कम नहीं होनी चाहिए ।
(3) परन्तु जम्मू-कशमीर इसका अपवाद है ।
(4) विधान परिषद् के ये सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं । ये चुनाव आनुपातिक पद्धति के अनुसार कल संक्रमणीय मत द्वारा होंगे ।
(5) विधान परिषद् में लगभग 5/6 सदस्यों को निर्वाचित किया जाता है तथा शेष लगभग 1/6 सदस्यों को मनोनीत किया जाता है ।
(6) समस्त सदस्यों के यथाशक्य निकटतम 1/3 सदस्य उस राज्य की नगर पालिकाओं जिला बोर्डों और ऐसी अन्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा चुने जाते हैं, जैसा कि ससद कानून द्वारा निर्धारित करे ।
(7) समस्त सदस्यों के यथाशक्य निकटतम एक-तिहाई सदस्यों का निर्वाचन विधानसभा के सदस्य ऐसे व्यक्तियों में से करते हैं, जो विधानसभा के सदस्य न हों ।
(8) समस्त सदस्यों के 1/12 भाग का चुनाव राज्य में रह रहे स्नातकों द्वारा (कम-से-कम तीन वर्ष से स्नातक हो) तथा 1/12 भाग का चुनाव राज्य की माध्यमिक पाठशालाओं के अध्यापकों (कम-से-कम तीन वर्ष से पढ़ा रहे हों) के द्वारा किया जाता है ।
(9) शेष सदस्य राज्यपाल द्वारा नाम निदेशित किये जायेंगे ।
(10) विधान परिषद् की सदस्यों की सदस्यता के लिए भी वे ही योग्यताएं हैं, जो विधानसभा की सदस्यता के लिए हैं, अन्तर केवल यह है कि विधान परिषद् की सदस्यता के लिए आयु 30 वर्ष होनी चाहिए ।
(11) इसके अतिरिक्त निर्वाचित सदस्य को उस राज्य की विधानसभा के किसी निर्वाचन क्षेत्र का निर्वाचक होना चाहिए एवं नियुक्त किये जाने वाले सदस्य को उस राज्य का निवासी होना चाहिए जिस राज्य की विधान परिषद् का वह सदस्य बनना चाहता है ।
(12) निर्वाचन मण्डलों द्वारा विधान परिषद् के सदस्यों का यह निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल संक्रमणीय मत पद्धति के अनुसार होता है ।
(13) विधान परिषद् एक स्थायी सदन है तथा पूरी विधान परिषद् कभी भी शा नहीं होती और इसे राज्यपाल द्वारा भंग नहीं किया जा सकता ।
(14) विधान परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है ।
(15) प्रति दो वर्ष के पश्चात् एक-तिहाई सदस्य अपना पद छोड़ देते हैं और उनके स्थान के लिए नये निर्वाचन होते हैं ।
विधान परिषद के अधिकार व कार्य:
विधायिका शक्तियां:
(1) वित्त विधेयक को छोड्कर अन्य विधेयक राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन में प्रस्तावित किये जा सकते है तथा ये विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत होने चाहिए ।
(2) संविधान के अनुच्छेद 197 में कहा गया है कि यदि कोई विधेयक विधानसभा से पारित होने के पश्चात् विधान परिषद् द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है या परिषद् विधेयक में ऐसे संशोधन करती है, जो विधानसभा से तीन माह तक विधेयक पारित नहीं किया जाता है, तो विधानसभा उस विधेयक को पुन: स्वीकृत करके विधान परिषद् को भेजती है ।
(3) यदि परिषद् विधेयक को पुन: स्वीकृत कर देती है अथवा विधेयक रखे जाने की तिथि से एक माह बाद तक विधेयक पास नहीं करती या परिषद् विधेयक में पुन: ऐसे संशोधन करती है, जो विधानसभा को स्वीकार्य नहीं होते तो विधेयक विधान परिषद् द्वारा पारित किये जाने के बिना ही दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है । इस प्रकार विधान परिषद् किसी साधारण विधेयक को केवल चार माह तक रोक सकती है ।
(4) विधान परिषद किसी विधेयक को समाप्त नहीं कर सकती है ।
कार्यपालिका शक्तियां:
(1) विधान परिषद् के सदस्य मन्त्रिपरिषद् के सदस्य हो सकते हैं ।
(2) विधान परिषद् प्रश्नों, प्रस्तावों तथा वाद-विवाद के आधार पर मन्त्रिपरिषद् को नियन्त्रित कर सकती है, किन्तु उसे मन्त्रिपरिषद् को पदक्षत करने का अधिकार नहीं है । यह कार्य केवल विधानसभा के द्वारा ही किया जा सकता है ।
वित्तीय शक्तियां:
(1) संविधान में स्पषट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि वित्त विधेयक केवल विधानसभा में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं, विधान परिषद् में नहीं ।
(2) विधानसभा जब किसी वित्त विधेयक को पारित कर सिफारिशों के लिए विधान परिषद् के पास भेजती है, तो विधान परिषद् 14 दिन तक वित्त विधेयक को अपने पास रोक सकती है । यदि वह 14 दिन के भीतर अपनी सिफारिशों सहित विधेयक विधानसभा को नहीं लौटा देती है, तो वह विधेयक उसी रूप में दोनों सदनों से पारित समझा जाता है, जिस रूप में उसे विधानसभा में पारित किया गया था ।
(3) यदि वित्त विधेयक के सम्बन्ध में विधान परिषद् कोई सिफारिशें करती है, तो उन्हें मानना या न मानना विधानसभा की इच्छा पर निर्भर करता है । इस प्रकार विधान परिषद् विधानसभा की तुलना में एक कमजोर सदन है ।
(4) 1967 के पूर्व पंजाब और पश्चिम बंगाल में भी विधान परिषदों की व्यवस्था थी लेकिन 1967 में इन राज्यों की विधानसभाओं ने विधान परिषद् समाप्त करने का प्रस्ताव पारित किया और 1969 में इन दोनों राज्यों की विधान परिषदें समाप्त कर दी गयीं ।
(5) आन्ध्र प्रदेश विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर 1985 में आन्ध्र प्रदेश विधान परिषद् और इसी प्रकार तमिलनाडु विधान परिषद् समाप्त कर दी गयी ।
विधानसभा:
(1) संविधान में राज्य की विधानसभा के सदस्यों की केवल न्यूनतम और अधिकतम संख्या निश्चित की गयी है ।
(2) संविधान के अनुच्छेद 170 के अनुसार राज्य की विधानसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 और न्यूनतम संख्या 60 होगी ।
(3) चुनाव के लिए प्रत्येक राज्य को भौगोलिक आधार पर अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रकार विभाजित किया जाता है कि विधानसभा का प्रत्येक सदस्य कम-से-कम 75 हजार जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करे ।
(4) इस नियम का अपवाद केवल असम के स्वाधीन जिले शिलांग की छावनी और नगरपालिका के क्षेत्र में सिक्किम और मिजोरम तथा अरूणाचल प्रदेश है ।
(5) अनुच्छेद 170 (3) में कहा गया है कि प्रत्येक जनगणना के उपरान्त विधानसभा की सदस्य संख्या पुन: निचित की जायेगी ।
विभिन्न राज्य की विधानसभाओं में स्थानों का वितरण:
(i) संसद द्वारा पारित वे संविधान संशोधन विधेयक (अगस्त, 2001) के अनुसार विधानसभाओं की सीटों की संख्या में सन् 2026 तक कोई छेंड़छाड़ नहीं की जायेगी ।
(ii) विधेयक में किये गये प्रावधानों के अनुसार सीटों की संख्या यथावत् रखते हुए राज्यों में निर्वाचित क्षेत्रों का पुनर्सीमन किया जा सकेगा ।
(iii) राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों व अनसूचित जन-जातियों के लिए स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था 95वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (अक्टूबर 2009 में पारित) के अनुसार 25 जनवरी 2020 तक के लिए है ।
(iv) राज्य की विधानसभा के निर्वाचन के बाद सम्बन्धित राज्य का राज्यपाल यदि यह अनुभव करता है कि विधानसभा में अहल-भारतीय समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, तो वह उस समुदाय के एक सदस्य को विधानसभा में मनोनीत कर सकता है ।
(v) आंग्ल-भारतीय समुदाय के नामजद सदस्य को छोड्कर विधानसश्रा के अन्य सभी सदस्यों का मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप मे, चुनाव होता है ।
(vi) चुनाव के लिए वयस्क मताधिकार और संयुक्त निर्वाचन प्रणाली तथा साधारण बहुमत की पद्धति अपनायी गयी है । विधानसभा की सदस्यता के लिए प्रत्याशी की निम्न योग्यताएं होती चाहिए:
(क) वह भारत का नागरिक हो ।
(ख) उसकी आयु कम-से-कम 25 वर्ष हो ।
(ग) भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन लाभ का पद धारण किये हुए न हो ।
(घ) वह पागल या दिवालिया घोषित न किया जा चुका हो ।
(ड) वह संसद या राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्धारित शर्तों की पूर्ति करता हो । राज्य विधानसभा का कार्यकाल प्रथम अधिवेशन से 5 वर्ष होता है ।
राज्यपाल द्वारा इसे समय से पुर्व भी क्या किया जा सकता है, परन्तु यदि संकटकाल की घोषणा प्रवर्तन में हो तो ससद विधि द्वारा विधानसभा का कार्यकाल बढ़ा सकती है, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगा तथा किसी भी अवस्था मैं संकटकाल की घोषणा समाप्त हो जाने के बाद 6 माह की ठार्वास से अधिक नहीं होगा । ध्यातव्य है कि जम्मू-कशमीर विधानसभा का कार्यकाल प्रथम अधिवेशन से 6 वर्ष होता है ।
राज्य विधानसभा की शक्तियां व कार्य: राज्य विधानसभा राज्य की व्यवस्थापिका है और संविधान के द्वारा राज्य विधानसभा को व्यापक शक्तियां प्रदान की गयी हैं ।
विधायिका शक्तियां:
(i) राज्य के विधानमण्डल को सामान्यत: उन सभी विषयों पर कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है जो राज्य सूची में और समवर्ती सूची में दिये गये हैं, परन्तु समवर्ती सूची के विषय पर राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित विधि यदि उस, विषय पर निर्मित विधि के विरुद्ध हो, तो राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित विधि मान्य नहीं होगी ।
(ii) राज्य विधानमण्डल की कानून निर्माण की शक्ति पर निम्न प्रतिबंध भी हैं:
(iii) अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग होने के कारण राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है, तो संसद उस राज्य के सम्बन्ध में राज्य सूची के विषयों पर कानूनों का निर्माण कर सकती है ।
(iv) यदि अनुच्छेद 352 या 360 के अन्तर्गत भारत में संकटकाल लागू है, तो देसी स्थिति में संसद भारतीय सघ के सभी राज्यों के लिए राज्य सूची के सभी विषयों पर कानून बना सकती है ।
(v) राज्यसभा यदि राज्य सूची के किसी विषय के सम्बन्ध में दो-तिहाई बहुमत से ऐसा प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्रीय हित में संसद को इस विषय पर कानून बनाना चाहिए, तो (अनुच्छेद) 249 के अनुसार, संसद ऐसा कर सकती है ।
(vi) कुछ विधेयकों के राज्य विधानमण्डल द्वारा स्वीकृत हो जाने पर भी राष्ट्रपति की स्वीकृति होना आवश्यक है । इसमें प्रमुखतय: दो प्रकार के विधेयक आते हैं : प्रथम, जिनका सम्बन्ध राज्य द्वारा सम्पत्ति प्राप्त करने से हो एवं द्वितीय समवर्ती सूची के विषय पर बना हुआ कानून जो इस विषय पर ससद द्वारा निर्मित कानून के विरोध में हो । (अनुच्छेद 254)
(vii) कुछ विधेयक राज्य विधानमण्डल में प्रस्तावित किये जाने के पूर्व उन रार भी राष्ट्रपति की स्वीकृति होना आवश्यक है । ऐसे विधेयक वे हैं, जिनका सम्बन्ध राज्यों के भीतर या विभिन्न राज्यों के बीच व्यापार वाणिज्य पर व आने-जाने की स्वतन्त्रता पर रोक लगाने से होता है । (अनुच्छेद 304)
(viii) संघीय संसद अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों और समझौतों का पालन करने के लिए भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है ।
(ix) साधारण विधेयक राज्य विधानमण्डल के किसी सदन में प्रस्तावित किये जा सकते हैं, किन्तु इसके सम्बन्ध में अन्तिम शक्ति विधानसभा को ही प्राप्त है ।
वित्तीय शक्तियां:
(i) विधानमण्डल, मुख्यतय: विधानसभा को राज्य के वित्त पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त होता है ।
(ii) आय-व्यय का वार्षिक-तेरत्हा (बजट) विधानसभा से स्वीकृत होने पर ही शासन के द्वारा आय-रूग्य से सम्बन्धित कोई कार्य किया जा सकता है ।
(iii) विधानमण्डल से विनियोग विधेयक पास होने पर ही सरकार संचित निधि से व्यय हेतु धन निकाल सकती है ।
प्रशासनिक शक्तियां:
(i) संविधान द्वारा राज्यों के क्षेत्र में संसदात्मक व्यवस्था स्थापित किये जाने के कारण राज्य मन्त्रिमण्डल अपनी नीति और कार्यों के लिए विधानमण्डल विशेषतय: विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होता है ।
(ii) विधानसभा या विधान परिषद् के सदस्यों द्वारा मन्त्रियों से उनके विभागों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जा सकते हैं । मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध निन्दा या आलोचना का या काम रोको प्रस्ताव पारित किया जा सकता है ।
(iii) विधानसभा के द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जा सकता है, जिसके कारण मन्त्रिमण्डल को पद त्याग करना पड़ता है ।
संविधान के संशोधन की शक्ति: हमारे संविधान के कुछ प्रावधान ऐसे हैं, जिनमें संशोधन के लिए आवश्यक है कि संसद द्वारा विशेष बहुमत के आधार पर पारित प्रस्ताव को कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा स्वीकार किया जाये ।
निर्वाचन सम्बन्धी शक्ति: राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति राज्यसभा राज्य विधान परिषद् के सदस्यों आदि के निर्वाचन में भाग लेते हैं । स्पष्टीकरण-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सदस्यों के निर्वाचक मण्डल में विधानसभा के निर्वाचित सदस्य होते हैं तथा विधान परिषद् के जिन सदस्यों का चुनाव विधानमण्डल करती है उसमें निर्वाचक मण्डल में विधानसभा के सभी के सदस्य शामिल हैं ।
विधि निर्माण:
साधारण विधेयक की प्रक्रिया:
(i) साधारण विधेयक मन्त्रिपरिषद् के किसी सदस्य या राज्य विधानमण्डल के किसी सदस्य द्वारा विधानमण्डल के किसी सदन में रखे जा सकते हैं ।
(ii) यदि विधेयक मन्त्रिपरिषद् के किसी सदस्य द्वारा रखा जाता है, तो इसे सरकारी विधेयक और यदि राज्य विधानमण्डल के किसी अन्य सदस्य द्वारा रखा जाता है, तो इसे निजी विधेयक कहा जाता है ।
(iii) राज्य विधानमण्डल को भी कानून निर्माण के लिए लगभग वैसी ही प्रक्रिया अपनानी होती है, जैसी प्रक्रिया संसद के द्वारा अपनायी जाती है ।
(iv) विधेयक को कानून के रूप में ग्रहण करने के लिए निम्नलिखित अवस्थाओं से गुजरना होता है:
प्रथम वाचन:
(i) सरकारी विधेयक के लिए कोई पूर्व सूचना देने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु निजी विधेयकों के लिए एक महीने की पूर्व सूचना देना आवश्यक है ।
(ii) सरकारी विधेयक साधारणतय: सरकारी गजट में छाप दिया जाता है और इस पर किसी समय आवश्यकता के अनुसार विचार किया जाता है ।
(iii) निजी विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए तिथि निश्चित कर दी जाती है ।
(iv) निश्चित तिथि को विधेयक पेश करने वाला सदस्य अपने स्थान पर खड़ा होकर उस विधेयक को पेश करने के लिए सदन में आज्ञा माँगता है और इसके बाद विधेयक के शीर्षक को पड़ता है ।
(v) यदि विधेयक बहुत महत्त्वपूर्ण है, तो विधेयक पेश करने वाला सदस्य विधेयक पर एक संक्षिप्त टिप्पणी भी दे सकता है ।
(vi) यदि उस सदन में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्य बहुमत से विधेयक का समर्थन करते हैं, तो विधेयक सरकारी गजट में प्रकाशित कर दिया जाता है । यही विधेयक का प्रथम वाचन है ।
द्वितीय वाचन:
(i) प्रथम वाचन के बाद विधेयक प्रस्तावित करने वाला सदस्य प्रस्ताव रखता है कि उसके विधेयक का दूसरा वाचन किया जाये ।
(ii) इस अवस्था में विधेयक के सामान्य सिद्धान्तों पर ही वाद-विवाद होता है, उसकी एक-एक धारा पर बहस होती है ।
(iii) जब इस प्रकार की बहस के बाद विधेयक पास हो जाता है, तो उसे प्रवर समिति के पास भेज दिया जाता है ।
(iv) दूसरे वाचन के बाद विवादपूर्ण विधेयक को प्रवर समिति के पास भेज दिया जाता है ।
(v) इस अवस्था में विधेयक की प्रत्येक धारा पर गहरा विचार किया जाता है ।
(vi) अनेक प्रकार के सुझाव इस अवस्था में रखे जाते हैं और अन्त में प्रतिवेदन तैयार किया जाता है । इस प्रतिवेदन को सदन के सम्मुख पेश किया जाता है ।
प्रवर समिति अवस्था:
(i) अब प्रवर समिति के द्वारा रखे गये प्रतिवेदन पर सदन द्वारा विचार किया जाता है ।
(ii) इस अवस्था में सदन के सदस्यों को भी अपने संशोधन और सुझाव प्रस्तुत करने का अधिकार होता है ।
(iii) समिति द्वारा सुझाये गये और सदस्यों द्वारा रखे गये प्रत्येक सुझाव पर सदन में मतदान होता है ।
(iv) यदि कोई सुझाव पास न हो तो मूल धारा पर मतदान किया जाता है ।
(v) इस तरह विधेयक की प्रत्येक धारा पर विचार और वाद करके उसे स्वीकार किया जाता है ।
(vi)विधि-निर्माण की पूरी प्रक्रिया में यह अवस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है ।
प्रतिवेदन अवस्था:
(i) प्रतिवेदन अवस्था की समाप्ति के कुछ समय बाद उसका तृतीय वाचन प्रारम्भ होता है ।
(ii) इस अवस्था में विधेयक के साधारण सिद्धान्तों पर फिर से बहस की जाती है और विधेयक में भाषा-सम्बन्धी सुधार किये जाते हैं ।
(iii) इस अवस्था में विधेयक धाराओं में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है । या तो सम्पूर्ण विधेयक को स्वीकार कर लिया जाता है या अस्वीकार ।
(iv) इसके बाद मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के बहुमत के द्वारा स्वीकार हौंने पर इस सदन के द्वारा स्वीकृत समझा जाता है ।
विधेयक दूसरे सदन में:
(i) एक सदन द्वारा विधेयक स्वीकार कर लिये जाने पर जिन राज्यों में विधानमण्डल का एक ही सदन है, वहां विधेयक राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है और जिन राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन है, वहां विधेयक दूसरे सदन में भेज दिया जाता है ।
(ii) द्वितीय सदन में विधेयक को उन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है, जिन अवस्थाओं से होकर विधेयक प्रथम सदन में गुजरा था ।
(iii) यदि विधेयक विधानसभा द्वारा पारित होने के पश्चात् विधान परिषद् द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है या परिषद् तीन महीने तक विधेयक पर विचार पूरा नहीं कर पाती या विधेयक में ऐसे संशोधन करती है, जो विधानसभा को स्वीकार नहीं होते तो विधानसभा उस विधेयक को पुन: परिषद् के पास भेज देती हें ।
यदि परिषद् पुन: विधेयक अस्वीकार कर देती है अथवा दोबारा विधेयक उसके पास आने की तिथि से एक माह बाद तक विधेयक पास नहीं करती या परिषद् विधेयक में पुन: ऐसे संशोधन करती है, जो विधानसभा को स्वीकार्य नहीं होते हैं, तो विधेयक विधान परिषद् द्वारा पारित किये बिना ही दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाता है ।
राज्यपाल की स्वीकृति:
(i) विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत होने के पश्चात् राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है ।
(ii) राज्यपाल या तो इस विधेयक को अपनी स्वीकृति दे देता है या अपनी ओर से कुछ संशोधन का सुझाव देकर विधेयक विधानमण्डल के पास दोबारा भेज देता है ।
(iii) यदि राज्य विधानमण्डल उस विधेयक को राज्यपाल द्वारा सुझाये गये संशोधनों सहित या उसके बिना दोबारा राज्यपाल के पास भेज देता है, तो राज्यपाल को विधेयक को अपनी स्वीकृति देनी होगी ।
(iv) राज्यपाल की स्वीकृति के बाद विधेयक कानून बन जाता है ।
(v) अनेक बार राज्यपाल कुछ विशेष प्रकार के विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज देता है, ग्रेसे विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने के बाद ही कानून बन पाते हैं ।