Read this article in Hindi to learn about the top three institutions of planning in India. The institutions are:- 1. राष्ट्रीय आयोजन समिति (National Planning Committee) 2. परामर्शदाता आयोजन बोर्ड- 1946 (Advisory Planning Board, 1946) 3. राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council NDC).

Institution # 1. राष्ट्रीय आयोजन समिति (National Planning Committee):

सन् 1934 में, सर एम. विस्वेसवर्या (Sir M. Visvesvarya) प्रसिद्ध इन्जीनियर और राजनेता ने देश के आर्थिक विकास के लिये अपनी पुस्तक ‘भारत के लिये आयोजित अर्थव्यवस्था’ में दस वर्षीय योजना बनाई । दूसरी ओर भारत सरकार अधिनिमय-1935 ने प्रान्तीय स्वशासन का आरम्भ किया जिस कारण आठ प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बन गई ।

अगस्त सन् 1937 में कांग्रेस कार्यकारी समिति ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें अन्तप्रान्तीय विशेषज्ञों की समिति का सुझाव दिया जो आवश्यक एवं महत्वपूर्ण समस्याओं पर विचार करेगी, जिनका समाधान राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और सामाजिक आयोजन की योजना के लिये आवश्यक है ।

अक्तूबर 1938 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष श्री सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में उद्योग मन्त्रियों के सम्मेलन में एक प्रस्ताव परित हुआ जिसमें कहा गया । “……निर्धनता और बेरोजगारी जैसी समस्याएं और राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक पुनरूद्धार आदि का सामान्यता औद्योगीकरण के बिना समाधान नहीं किया जा सकता । ऐसे औद्योगीकरण की ओर एक कदम के रूप में, राष्ट्रीय आयोजन की एक व्यापक योजना का निर्माण किया जाना चाहिए ।”

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पण्डित जवाहर नेहरू जी की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय आयोजन समिति’ के निर्माण द्वारा इसका अनुसरण किया गया । समिति के 15 सदस्य थे । एक विविरण पत्र में, सभी पग उठाने के लिये, समिति ने एक अनिवार्य प्रारम्भिक शर्त के रूप में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता पर बल दिया, तभी योजना के सभी पहलुओं पर कार्य हो सकेगा । किसी अन्य आधार पर योजना का निर्माण तक सम्भव नहीं है ।

”हमें अनेक प्रतिबन्धों, सीमाओं, रक्षा कवचों, और आरक्षणों में रख कर बाधित किया गया है जिससे हमारे आयोजन और उन्नति का मार्ग अवरूद्ध होता है ।” राष्ट्रीय योजना समिति ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विभिन्न पहलुओं के अध्ययन के लिये अनेक उपसमितियों का गठन किया । मौलिक आर्थिक समस्याओं के परीक्षण के लिये यह भारतीय लोगों द्वारा किया गया प्रथम प्रयास था जिसका लक्ष्य एक समन्वित योजना का निर्माण और लोगों की प्रगति था ।

राष्ट्रीय योजना समिति ने महसूस किया कि आयोजन के कार्य को राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की मुख्य धारा से अलग नहीं किया जा सकता, परन्तु आयोजन का उचित प्रयोग तभी सम्भव हो सकता है जब देश ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से स्वतन्त्र हो । अनेक समितियां तथा उपसमितियां बनाई गई । नीतियों का निर्माण किया गया ।

कृषि के विकास, औद्योगीकरण, मौलिक एवं प्रमुख उद्योगों, कुटीर और लघु उद्योगों और अन्यों सम्बन्धी परस्पर-विरोधी विचारों का ध्यानपूर्ण परीक्षण किया गया । रिपोर्टो के आधार पर, राष्ट्रीय योजना समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि जीवन का प्रगतिशील स्तर राष्ट्रीय आय में वृद्धि को पांच अथवा छ: गुना प्रभावित करेगा ।

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यह निर्णय लिया गया कि दस वर्षों की अवधि के दौरान 200 से 300 प्रतिशत की न्यूनतम वृद्धि का लक्ष्य रखना व्यवहारिक होगा । इसके लिये उन्होंने पौष्टिकता में सुधार का प्रस्ताव रखा, इसके अतिरिक्त, प्रति व्यक्ति कपड़े के उपभोग को दुगना करने और प्रति व्यक्ति, कम से कम 100 वर्ग फुट गृह-स्थान प्रस्तावित किया ।

परन्तु उसी समय समिति ने अन्य निम्नलिखित सुझाव दिये:

(क) कृषि और औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाना ।

(ख) बेरोजगारी को कम करना ।

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(ग) प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना ।

(घ) निरक्षरता का विलोपन ।

(ङ) सार्वजनिक उपयोगी सेवाओं में वृद्धि ।

(च) चिकित्सक सुविधाओं और औसत प्रत्याशित जीवन में वृद्धि ।

सितम्बर, 1939 में एक गम्भीर राजनीतिक संकट उत्पन्न हुआ जिसके परिणामस्वरूप सभी प्रान्तीय सरकारों ने आठ राज्यों में सामूहिक रूप में त्यागपत्र दे दिये । सभी राष्ट्रीय नेताओं को जेल में रखा गया । सभी योजनाओं तथा स्कीमों को कुछ समय के लिये रोक दिया गया ।

सन् 1940-45 के दौरान समिति का अस्तित्व नाममात्र का रह गया था । सन् 1945 में जब नेताओं को छोड़ा गया तथा समिति को पुनर्जीवित करने के लिये पग उठाये गये तथा विवरणों को नवीनतम बनाने के लिये नये आदेश जारी किये गये ।

राष्ट्रीय योजना कमेटी आने वाले महीनों में औपचारिक बैठक नहीं कर सकी, यद्यपि, अधिकांश समितियों ने अपनी क्रमिक रिपोर्ट प्रस्तुत की । इस प्रकार समिति का कार्य समाप्त हो गया । इस समय के दौरान, योजना एवं विकास का एक पृथक विभाग स्थापित किया गया । सर अर्दीशर दलाल इसके प्रभारी सदस्य थे । इसी प्रकार, सर रामास्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में युद्ध उपरान्त समिति का निर्माण किया गया ।

मुम्बई योजना (Bombay Plan):

सन् 1944 के आरम्भ में कुछ प्रसिद्ध उद्योगपतियों तथा मुम्बई के अर्थशास्त्रियों (सर परशोत्तमदास ठाकुर दास, श्री जे०आर०डी० टाटा तथा छ: अन्यों) ने एक अन्य प्रयत्न किया जिसे मुम्बई योजना कहा गया । इसका मुख्य लक्ष्य लोगों की सोच को उत्तेजित करना और नियम निर्धारित करना था जिसके आधार पर एक राष्ट्रीय योजना का निर्माण और कार्यान्वयन हो सके ।

योजनाकर्ताओं ने देखा कि इसके अन्तर्गत जारी योजना न तो किसी प्रकार से पूर्ण योजना है और न ही इसका क्षेत्र इतना व्यापक है जितना राष्ट्रीय योजना समिति का था । उनके विचार अनुसार भारत के लिये नियोजित अर्थ व्यवस्था की धारणा बहुत बड़ी थी ।

हमारा उद्देश्य केवल विचार-विमर्श के लिये ध्यान में रखने योग्य उद्देश्यों का एक सुदृढ़ कथन प्रस्तुत करना है तथा भारत में आर्थिक आयोजन द्वारा देश के साधनों की मांग किये जाने की सम्भावना है, इस प्रकार योजना का केन्द्रीय लक्ष्य राष्ट्रीय आय को ऐसे स्तर तक बढ़ाना था कि प्रत्येक की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो सके तथा हमारे पास जीवन का आनन्द उठाने के लिये और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिये पर्याप्त साधन बच जाये ।

अतः 15 वर्षों के भीतर देश में प्रति व्यक्ति आय को दुगुना करना इसका उद्देश्य था । इसने कृषि और उद्योग को क्रमशः 130 प्रतिशत और 500 प्रतिशत बढाने का सुझाव दिया ।

कुल 10,000 करोड़ रूपयों का व्यय प्रस्तावित किया गया । कोष का विस्तृत निर्धारण इस प्रकार था-उद्योग एवं ऊर्जा के लिए 4480 करोड़ रूपये, कृषि के लिए 1240 करोड़ रूपये, वाणिज्य के लिए 940 करोड़ रुपये, शिक्षा और आवास के लिए 3340 करोड़ रूपये ।

इसके वित्तीय प्रबन्ध के साधन इस प्रकार थे- बाहरी वित्त 2600 करोड़ रूपये (जिसमें 100 करोड़ रूपये स्ट्रलिंग शेषों के और विदेशी ऋण के 700 करोड़ रूपये सम्मिलित हैं) और 7400 करोड़ रूपयें तक का आन्तरिक वित्त (जिसमें 4000 करोड़ रूपयें की बचतें तथा 3400 करोड़ रुपयों की आन्तरिक मुद्रा सम्मिलित है) ।

योजनाकर्ताओं का विश्वास था कि इसकी प्राप्ति कृषि के अत्याधिक प्रभुत्व को कम करके और एक सन्तुलित अर्थव्यवस्था की स्थापना द्वारा की जा सकती है । यह योजना आर्थिक नियोजन की विधिवत स्कीम थी जिससे देश योजना-प्रवृतिक बन गया । इसकी मुख्य त्रुटि पूँजीवादी क्रम को बनाये रखने और कृषि क्षेत्र को सौतेली मां वाला व्यवहार देना था ।

लोगों की योजना (People’s Plan):

एक अन्य योजना (एक दस वर्षीय योजना) का निर्माण स्वर्गीय एम०एन० रॉय द्वारा किया गया जिसे लोगों की योजना कहा गया । यह विधि और प्राथमिकताओं में बम्बई योजना से भिन्न थी । इसका मुख्य बल कृषि और उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों पर था जो कि एकत्रीकरण और राज्य के स्वामित्व वाले उद्योगों की स्थापना द्वारा किया गया था ।

कुल व्यय 15,000 करोड़ रूपये था । इसने भूमि के राष्ट्रीयकरण का भी समर्थन किया । योजना महत्वाकांक्षी थी तथा ठीक प्रकार से साधन न जुटा पाने के कारण यह पूर्णतया अव्यवहारिक थी ।

गान्धी जी की योजना (Gandhian Plan):

गान्धी जी के दर्शन पर आधारित गान्धी जी की योजना वर्धा के श्री एस.एन. अग्रवाल द्वारा प्रस्तुत की गई । योजना का अनुमानित व्यय केवल 3500 करोड़ रूपये था और इसने आत्मनिर्भर गाँवों और औद्योगिक उत्पादन सहित विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था की स्थापना का प्रस्ताव प्रस्तुत किया । इसने लघु स्तरीय उद्योगों और कृषि पर बल दिया, परन्तु इसका वित्तीय प्रबन्ध दृढ नहीं था । इस योजना को अधूरी एवं अपर्याप्त कह कर आलोचना की गई ।

युद्ध-उत्तर पुनर्निर्माण (1941-46) (Post War Reconstruction 1941-46):

भारत सरकार ने जून 1941 में युद्ध पश्चात पुननिर्माण की योजना पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया तथा मन्त्रि मण्डल की एक पुनर्निर्माण समिति की नियुक्ति की जिसमें अध्यक्ष वाइसराय थे और कार्यकारिणी परिषद के सदस्य इसके सदस्य थे । जून 1944 में योजना और विकास विभाग की रचना कार्यकारिणी परिषद के एक सदस्य के अधीन की गई जिसका लक्ष्य देश में आयोजन को व्यवस्थित करना था ।

विभाग की सहायता के लिये, एक आयोजन एवं विकास बोर्ड था जिसमें आर्थिक विभाग के सचिव सम्मिलित थे । इन्होंने प्रान्तीय सरकारों को सुझाव दिये कि तकनीकी स्टाफ के प्रशिक्षण की योजनाओं को विशेष प्राथमिकता दी जाये । 1946 में आयोजन का कार्य व्यवहारिक रूप में पूरा हो चुका था तथा आयोजन एवं विकास विभाग को समाप्त कर दिया गया ।

परामर्शदाता आयोजन बोर्ड- 1946 (Advisory Planning Board, 1946):

24 अगस्त, 1946 को अंतरिम सरकार की स्थापना की गई और अक्तूबर 1946 में एक ‘परामर्शदाता आयोजन बोर्ड’ की स्थापना की गई जिसका विषय वस्तु निम्नलिखित था:

(i) सरकार द्वारा पहले किये गये आयोजन पर पुनर्विचार करना, राष्ट्रीय योजना समिति और अन्य योजनाओं के कार्य पर विचार करना ।

(ii) आयोजन के समन्वय एवं संशोधन के लिये सुझाव देना ।

(iii) उद्देश्यों और प्राथमिकताओं सम्बन्धी सुझाव देना ।

(iv) भविष्य के आयोजन तन्त्र के सम्बन्ध में सुझाव देना ।

बोर्ड ने जनवरी 1947 में विवरण प्रस्तुत किया, इसकी मुख्य सिफारिशें थी:

(क) उत्पादन में वृद्धि जो कि आवश्यक है केवल सुविचारित योजना द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है ।

(ख) ऊर्जा साधनों के प्रयोग पर नियन्त्रण आवश्यक है, वितरण एवं कीमत तथा पट्टों और उपपट्टों पर नियन्त्रण हो ।

(ग) बंगाल और बिहार के स्थायी रूप में निश्चित क्षेत्रों में खनिज अधिकार राज्य द्वारा प्राप्त कर लिये जाने चाहियें ।

भविष्य के आयोजन संगठन के लिये, बोर्ड ने मात्र एक सुबद्ध संगठन की स्थापना का सुझाव दिया जो मन्त्रिमण्डल के प्रति उत्तरदायी होगा (अथवा मन्त्रिमण्डल की समिति के प्रति उत्तरदायी होगा) ।

(i) प्रान्तीय योजनाओं का परिनिरीक्षण और समन्वय ।

(ii) प्रमुख उद्योगों और खनिजों के विकास की योजनाएं बनाना ।

(iii) उद्योगों की राज्य सहायता और नियन्त्रण, मौद्रिक एवं वित्तीय नीति, आन्तरिक और बाहरी व्यापार (दोनों) आदि के सम्बन्ध में सुझाव देना ।

योजना आयोग के गठन के सम्बन्ध में सुझाव दिया गया कि एक वरिष्ठ मन्त्री, जिसे कोई विभाग न सौंपा गया हो इसका अध्यक्ष होना चाहिये । कोई भी मन्त्री योजना आयोग का सदस्य नहीं होना चाहिए और जहां तक सम्भव हो सके यह एक गैर-राजनीतिक आयोग होना चाहिये जिसके पांच सदस्य हो ।

संगठन निम्नलिखित अनुसार होना चाहिये:

(क) एक प्रतिष्ठित व्यक्ति जिसे सार्वजनिक कार्यों का साधारण अनुभव हो, इसका अध्यक्ष होगा ।

(ख) उद्योग, कृषि और श्रम के क्षेत्रों का ज्ञान और अनुभव रखने वाले दो गैर-सरकारी अधिकारी ।

(ग) वित्त और सामान्य प्रशासन के क्षेत्र में ज्ञान तथा अनुभव रखने वाला एक सरकारी अधिकारी ।

(घ) विज्ञान और तकनीकी विज्ञान के क्षेत्र में से एक प्रसिद्ध व्यक्ति ।

इसने एक 25-30 सदस्यों की परामर्शदात्री संस्था का भी सुझाव दिया, जिसकी बैठक छ: माह अथवा तीन माह बाद होगी तथा समस्याओं के सम्बन्ध में परामर्श देगी और प्रगति के विवरण प्राप्त करेगी । इसके सुझाव व्यवहार्य और तर्कसंगत थे परन्तु इसकी कुछ सीमाएँ भी थीं ।

स्वतन्त्रता के पश्चात, विभाजन के कारण सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन के परिणामस्वरूप योजना अपर्याप्त हो गई । फिर भी तकनीकों के सम्बन्ध में इसके सुझावों को स्वीकार्य माना जाता है ।

राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council NDC):

राष्ट्रीय विकास परिषद् का निर्माण 6 अगस्त, 1952 को सरकार के एक सुझाव द्वारा किया गया । प्रधान मन्त्री इसके अध्यक्ष हैं और योजना आयोग के सचिव इसके सचिव हैं । राष्ट्रीय विकास परिषद एक गैर-वैधानिक संस्था है । इसका निर्माण राज्यों और योजना आयोग के बीच आर्थिक नियोजन के लिये सहयोग का निर्माण करने के लिये किया गया ।

आरम्भ में केवल प्रान्तों के मुख्य मन्त्री ही इसके सदस्य थे । परन्तु सन् 1967 के पश्चात केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के सभी मन्त्रियों, केन्द्रशासित राज्यों के प्रशासकों और योजना आयोग के सभी सदस्यों को इस संस्था के सदस्यों के रूप में सम्मिलित किया गया । राष्ट्रीय विकास परिषद एक महत्वपूर्ण संगठन है ।

इसके मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं:

1. समय-समय पर राष्ट्रीय आयोजन के कार्यान्वयन का मूल्यांकन करना ।

2. उन आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों का परीक्षण करना जो आर्थिक विकास को प्रभावित करती हैं ।

3. राष्ट्रीय योजना में निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सुझाव देना । इसका लक्ष्य लोगों का अधिकतम सहयोग प्राप्त करना, प्रशासनिक दक्षता को सुधारना, अल्पविकसित और पिछड़ी हुई श्रेणियों के विकास के लिये आवश्यक उपायों के लिए सुझाव देना तथा राष्ट्रीय विकास के साधनों को गतिंशील करना है ।

4. योजना आयोग द्वारा तैयार की गई योजना का विश्लेषण करना तथा परस्पर विचार-विमर्श के पश्चात इसे अन्तिम रूप देना । केवल इसके संशोधन के पश्चात ही योजना के प्रारूप का प्रकाशन किया जाता है ।

आन्तरिक संगठन (Internal Organisation):

योजना आयोग का कार्य आन्तरिक संगठन के दृष्टिकोण से निम्नलिखित पाँच वर्गों अथवा भागों में विभाजित किया गया है:

1. सामान्य भाग (General Division):

सामान्य भाग में अन्य उपभाग है ।

जो इस प्रकार हैं:

(क) वित्तीय साधनों के लिये पांच उपवर्गों सहित आर्थिक भाग, आर्थिक नीति और विकास, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और विकास, कीमत नीति और अन्तःउद्योग अध्ययन ।

(ख) संदर्श योजना भाग

(ग) श्रम एवं रोजगार भाग ।

(घ) सांख्यिकी और सर्वेक्षण भाग ।

(ङ) साधन और वैज्ञानिक शोध भाग ।

(च) संगठन और प्रशासन भाग ।

2. विषय विभाग (Subject Division):

इसमें दस विषय भाग सम्मिलित हैं जैसे:

(क) कृषि जिसमें सहयोग और समाज विकास कार्यक्रम भाग सम्मिलित हैं ।

(ख) सिचाई और ऊर्जा विभाग ।

(ग) भूमि सुधार विभाग ।

(घ) यातायात और संचार विभाग ।

(ङ) उद्योग, खनिज और सार्वजनिक उद्यम विभाग ।

(च) ग्राम और लघु उद्योग विभाग ।

(छ) शिक्षा विभाग ।

(ज) स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग ।

(झ) आवास और शहरी विकास विभाग ।

(भ) सामाजिक कल्याण विभाग जिसमें पिछड़ी श्रेणियों का कल्याण भी सम्मिलित हैं ।

3. समन्वय विभाग (Coordination Division):

इसमें दो समन्वय भाग सम्मिलित है:

(क) कार्यक्रम प्रशासनिक भाग जो राज्यों की योजनाओं का समन्वय और अनुवर्तन करता है । और उन्हें परामर्श देता है । यह केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्य सरकारों को दी गई सहायता वाली विकास योजनाओं की प्राप्तियों का अनुमान भी लगाता है ।

(ख) योजना समन्वय विभाग जो योजना आयोग के विभिन्न भागों के वर्गों का समन्वय करता है ।

4. विशेष विकास कार्यक्रम भाग (Special Development Programme Division):

यह विभाग दो भागों में विभाजित है:

(क) ग्रामीण कार्य भाग जो स्थानीय विकास कार्यों से सम्बन्धित है जिसमें ग्रामीण श्रम शक्ति साधनों के बेहतर उपयोग के लिये स्व-सहायता सम्मिलित है ।

(ख) सार्वजनिक समन्वय भाग राष्ट्रीय विकास के विशेष कार्यक्रमों से सम्बन्धित है ।

5. मूल्यांकन विभाग (Evaluation Division):

किसी योजना के कार्यक्रमों और परियोजनाओं में मूल्यांकन से सम्बन्धित योजना आयोग के दो पक्ष हैं । परियोजना मूल्यांकन विभाग एक शक्तिशाली भाग है जो सार्वजनिक निवेश बोर्ड के सचिवालय के रूप में कार्य करता है । इसी प्रकार मूल्यांकन विभाग योजना के विभिन्न कार्यक्रमों का मूल्यांकन करता है ।

अन्य महत्वपूर्ण संस्थाएं (Other Significant Bodies):

योजना आयोग की अन्य अनेक महत्वपूर्ण संस्थाएं हैं जो किसी योजना के निर्माण और कार्यान्वयन से सम्बन्धित होती हैं ।

वह हैं:

(i) राष्ट्रीय योजना परिषद (National Planning Council):

राष्ट्रीय योजना परिषद् का सबसे पहले फरवरी 1965 में निर्माण किया गया । परिषद् में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ सम्मिलित होते हैं जैसे विज्ञान, तकनीकी विज्ञान, और अर्थशास्त्र । परिषद् ने चौथी योजना में 12 अध्ययन वर्गों की स्थापना की जो मुख्य क्षेत्र के विकास से सम्बन्धित हैं ।

वह इस प्रकार थे जैसे सिंचाई और ऊर्जा, कृषि, भूमि सुधार, शिक्षा, श्रम, रोजगार, प्रबन्ध, सामाजिक कल्याण, उद्योग और खनिज, परिवहन, प्राकृतिक साधन, परिवार नियोजन, मानव शक्ति तथा विदेशी व्यापार आदि । अब प्रत्येक योजना के निर्माण के समय ऐसे गुप्तों का निर्माण किया जाता है, जब कभी राष्ट्रीय योजना परिषद् की स्थापना की जाती है ।

(ii) राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council):

राष्ट्रीय विकास परिषद् योजना आयोग और राष्ट्र के मध्य समन्वयकर्ता का कार्य करती है ।

इस लिये इसके मुख्य कार्य हैं:

(क) समय-समय पर राष्ट्रीय योजना की कार्यप्रणाली का पुनरीक्षण करना ।

(ख) राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाले, सामाजिक एवं आर्थिक नीति के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार करना ।

(ग) राष्ट्रीय योजना में निर्धारित उद्देश्यों और लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये पग प्रस्तावित करना ।

(घ) लोगों की सक्रिय भागादारी और सहयोग प्राप्त करना ।

(ङ) प्रशासनिक सेवाओं की दक्षता को सुधारना

(च) अल्पविकसित क्षेत्रों और समाज के विकसित वर्गों का पूर्णत्तम विकास सुनिश्चित करना ।

(छ) राष्ट्रीय विकास के लिये साधनों का निर्माण करना ।

योजना आयोग की भान्ति, राष्ट्रीय विकास परिषद् केवल एक परामर्शदात्री संस्था है और इसके पास कोई वैधानिक अधिकार नहीं है । परन्तु इसके सुझावों और सिफारिशों पर बड़े सम्मान से विचार किया जाता है क्योंकि इसका प्रयोजन योजना को एक राष्ट्रीय स्वरूप देना और देश के सभी राज्यों की सभी गतिविधियों में समन्वय लाना होता है ।

(iii) खोज कार्यक्रम समिति (Research Programmes Committee):

योजना आयोग ने एक खोज कार्यक्रम समिति की स्थापना की है तथा योजना आयोग का उपाअध्यक्ष इसका अध्यक्ष होता है । इसमें विभिन्न विश्वविद्यालयों और शोध संस्थाओं के प्रमुख समाज वैज्ञानिक सम्मिलित होते हैं । भारतीय सांख्यिकीय संस्था विकसित राष्ट्रीय विज्ञान और खोज परिषद् जैसी समितियां आयोग के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक अध्ययनों के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ी हुई हैं ।

(iv) परामर्शदात्री संस्थाएं (Advisory Bodies):

योजना आयोग अनेक परामर्शदात्री संस्थाओं, पैनलों, परामर्शदात्री समितियों से सम्बन्धित होता है । वह विकास कार्यक्रमों की विभिन्न समस्याओं पर परामर्श देती हे ।

विभिन्न पैनल इस प्रकार है:

अर्थशास्त्रियों और वैज्ञानिकों का पैनल, भूमि सुधार और कृषि सम्बन्धी पैनल, आयुर्वेद, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास एवं क्षेत्र विकास का पैनल । अन्य परामर्शदात्री समितियो भी हैं जैसे सिंचाई, बाढ़ नियन्त्रण, ऊर्जा परियोजनाएं जनसहयोग के लिये समन्वय समिति आदि । इसके अतिरिक्त संसद के परामर्श सदस्यों के लिये महत्वपूर्ण परामर्शदात्री समितियां हैं जिन्हें संसद के सदस्यों की योजना आयोग के लिये परामर्शदात्री समिति तथा आयोजन के लिये प्रधानमन्त्री की अनौपचारिक परामर्शदात्री समिति कहा जाता है । योजना आयोग, योजना के निर्माण से पहले और बाद में उनके प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श करता है ।

(v) सम्बन्धित संस्थाएं (Associated Bodies):

कुछ सम्बन्धित संस्थाएं हैं जो योजना के निर्माण में सहायता करती हैं । इनमें अधिक महत्वपूर्ण हैं- केन्द्रीय मन्त्रालय, रिजर्व बैंक का आर्थिक विभाग, केन्द्रीय सांख्यिक संगठन आदि । उदाहरणतया केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन आयोजन के लिये सांख्यिकीय आकड़ों को व्यवस्थित करने के लिये उत्तरदायी है ।

इसके अतिरिक्त योजना की विभिन्न परियोजनाओं की वास्तविक कार्यप्रणाली का मूल्यांकन करने के लिये विशेष संस्थाएं हैं जो मूल्यांकन संस्थाओं के रूप में जानी जाती हैं । इन समितियों को योजना की परियोजनाओं और कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन कहा जाता है ।

(vi) क्रियाशील ग्रुप (Working Groups):

योजना आयोग योजना का निर्माण करते समय कार्यशील वर्गों की भी नियुक्ति करता है । यह वर्ग विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित होते हैं जैसे कृषि, उर्वरक, साधन, ऊर्जा, ईंधन, शिक्षा, उद्योग मशीनरी आदि । यह वर्ग योजना के निर्माण को बहुत प्रभावित करते हैं तथा योजना के वास्तविक संचालन में बड़ी मात्रा में उत्साह की रचना करते हैं ।

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