Read this article in Hindi to learn about:- 1. भारतीय योजना आयोग का परिचय (Introduction to the Planning Commission of India) 2. भारतीय योजना आयोग के कार्य (Functions of Planning Commission of India) 3. प्रक्रिया (Process) and Other Details.
Contents:
- भारतीय योजना आयोग का परिचय (Introduction to the Planning Commission of India)
- भारतीय योजना आयोग के कार्य (Functions of Planning Commission of India)
- भारत में आयोजन की प्रक्रिया (Process of Planning in India)
- भारत में आयोजन प्रक्रिया की विशेषताएं (Features of Planning Process in India)
- योजना आयोग की त्रुटियां (Pitfalls of Planning Commission in India)
1. भारतीय योजना आयोग का परिचय (Introduction to the Planning Commission of India):
भारत के संविधान में योजना आयोग की व्यवस्था नहीं है तथापि इसका निर्माण एक परामर्शदाता एवं विशेषकृत संस्था के रूप में सरकार के एक दस्तावेज द्वारा किया गया है । फलतः सरकार इसके स्वरूप और संगठन को समय-समय पर बदलती रहती है ।
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उस समय के प्रधानमन्त्री श्री जवाहर लाल नेहरू जी को योजना आयोग का सर्वप्रथम अध्यक्ष नियुक्त किया गया । पाँच पूर्ण कालिक सदस्य भी मनोनीत किये गये । मन्त्री ओंर विद्वान समय-समय पर इस आयोग में मनोनीत किये जाते हैं । प्रधान मन्त्री, इसके पदेन (Ex-Office) अध्यक्ष रहते हैं ।
इसके उपाध्यक्ष के कार्यकाल की अवधि निश्चित नहीं होती । इसके सदस्यों की कोई सुनिश्चित योग्यता नहीं होती । सदस्यों की नियुक्ति सरकार की इच्छानुसार होती है तथा सदस्यों की संख्या सरकार की इच्छानुसार बदलती रहती है ।
2. भारतीय योजना आयोग के कार्य (Functions of Planning Commission of India):
1. देश की भौतिक पूँजी और मानवीय साधनों का अनुमान लगाना ।
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2. मानवीय साधनों के प्रभावी और सन्तुलित उपयोग के लिये योजना का निर्माण करना ।
3. आयोजन के विभिन्न सोपानों का निर्धारण करना और प्राथमिकता के आधारों पर साधनों का आबंटन प्रस्तावित करना ।
4. सरकार को ऐसे कारकों की सूचना देना जो आर्थिक विकास के मार्ग में बाधा बनते हैं और उन परिस्थितियों को निर्धारित करता जो वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों के अन्तर्गत योजनाओं के कार्यान्वयन के लिये आवश्यक हैं ।
5. योजना के प्रत्येक सोपान पर प्राप्त उन्नति का समय-समय पर मूल्यांकन करना और उपचारी उपायों के सुझाव देना ।
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3. भारत में आयोजन की प्रक्रिया (Process of Planning in India):
भारतीय आयोजन की प्रक्रिया के चार सोपान इस प्रकार हैं:
1. निर्माण (Formation):
विकास योजना का निर्माण आर्थिक आयोजन का प्रथम सोपान है । सबसे ऊपर योजना आयोग विभिन्न मन्त्रालयों अथवा आर्थिक परिषदों के परामर्श से योजना का एक खाका तैयार करता है, निचले भाग पर, पिछले अनुभव और भविष्य की आवश्यकताओं के आधार पर व्यक्तिगत संदर्श योजना तैयार की जाती है ।
योजना आयोग तकनीकी सम्भवताओं के सन्तुलनों सिफारिशों, सुझावों और आवश्यकताओं का अनुमान दो अभिकरणों (एक ऊपर से और दूसरा तल से) द्वारा दिये विवरणों के आधार पर लगाता है । अन्तिम खाका व्यापक, सुसंगत तथा सुबद्ध दस्तावेज होता है |
भारत में अपनायी गई विधि लगभग अन्य देशों द्वारा अपनाई विधि की भान्ति है । सबसे पहले योजना आयोग अंतरिम रूप में कुछ सामान्य लक्ष्य लम्बे समय के लिये अर्थात् 15 या 20 वर्ष के लिये निर्धारित करता है, तकनीकी सम्भवताओं, अर्थव्यवस्था की मौलिक एवं गैर-मौलिक आवश्यकताओं और विकास की विभिन्न विधियों का ध्यानपूर्वक विश्लेषण करने के पश्चात ही ऐसा किया जाता है ।
दूसरे सोपान पर आयोग एक संक्षिप्त विवरण-पत्र तैयार करता है जिसे मन्त्रिमण्डल और राष्ट्रीय विकास परिषद् के सामने रखा जाता है । तीसरे सोपान पर, पंचवर्षीय योजना की रूप रेखा का खाका राष्ट्रीय विकास परिषद् के सुझावों को ध्यान में रखते हुये तैयार किया जाता है तथा योजना के लागू होने से कई महीने पहले इसका प्रकाशन किया जाता है । इसे परिचर्चा हेतु संसद के सामने प्रस्तुत किया जाता तथा फिर विभिन्न केन्द्रीय मन्त्रालयी, प्रान्तीय संस्थाओं और प्रान्तीय सरकारों को भेजा जाता है ।
संक्षेप में इन सुझावों पर समाचार पत्रों, विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थाओं में विस्तृत परिचर्चा होती है । तब अन्तिम रिपोर्ट तैयार करके मन्त्रिमण्डल तथा राष्ट्रीय योजना परिषद् के सामने रखी जाती हे और अन्त में स्वीकृति के लिये संसद के सामने प्रस्तुत की जाती है ।
योजना आयोग, योजना की अन्तिम स्वीकृति के पश्चात भी समय-समय पर इसके विभिन्न पहलुओं का अध्ययन और परीक्षण करता रहता है और आवश्यकता पड़ने पर योजना का संशोधन करता है । तब पंचवर्षीय योजना को वार्षिक योजनाओं में विभाजित किया जाता है । प्रत्येक वर्ष नवम्बर अथवा दिसम्बर के महीनों में आयोग तथा केन्द्रीय एवं प्रान्तीय मन्त्रालयों के बीच परामर्श किये जाते हैं ।
जिसमें योजना की उन्नति पर विचार किया जाता है, लक्ष्यों के समन्वय और पुन: समन्वय और अगले वर्ष के लिये वार्षिक योजना की आवश्यकताओं के लिये साधनों और तकनीकी सम्भवताओं का पुन: अनुमान लगाया जाता है । इस प्रकार पंच वर्षीय योजना का आरम्भ अन्तिम वर्षीय योजना के कार्यन्वयन के लिये आवश्यक लोच से किया जाता है ।
2. योजना का निष्पादन अथवा कार्यान्वयन (Execution or Implementation of Plan):
अधिकांश नियोजित अर्थव्यवस्थाओं में केन्द्रीय योजना आयोग केवल एक परामर्शदात्री संस्था होती है और योजना के निष्पादन का कार्य केन्द्रीय प्रशासन को सौंपा जाता है जिसमें विभिन्न अभिकरण तथा सरकारी विभाग सम्मिलित होते हैं । प्रारम्भिक सोपानों पर केन्द्रीयकरण की बहुत सम्भावना होती हैं, परन्तु बाद में, विकेन्द्रीकरण प्रभावी नियन्त्रण और प्रशासन ले आता है ।
जहां तक कि अत्यधिक नियोजित देश जैसे पूर्व सोवियत यूनियन और पूर्वी यूरोपियन देश भी प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण स्थापित करना चाहते हैं । इससे कुछ ही हाथों में आर्थिक केन्द्रीकरण प्रतिबन्धित होता है । इस प्रवृति का अनुकरण भारत में भी होता है । उचित निष्पादन वास्तव में एक भिन्न कार्य है और दुर्भाग्य से भारतीय आयोजन के प्रकरण में ऐसा हुआ है ।
ल्युस के शब्दों में- “भारतीय बेहतर कर्ताओं के स्थान पर बेहतर आयोजनकर्ता हैं ।” (Indians are better planners than doers) इसी प्रकार मिलिकॉन ने एक सम्भव और कार्यान्वयन योग्य योजना के आवश्यक लक्ष्णों का वर्णन किया ।
(i) मुख्य लक्ष्यों का क्षेत्रानुसार पूर्ण रूप में विशेषीकरण किया जाना चाहिये । लक्ष्यों की सम्भवता का परीक्षण वित्तीय एवं भौतिक सन्दर्भ में किया जाना चाहिये ।
(ii) लक्ष्यों का वर्णन दोनों उत्तम एवं प्रचलित सन्दर्भों में किया जाना चाहिये ।
(iii) विशेषीकृत लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर ले जाने वाले कार्यक्रम गतिविधियों और सभी परियोजना का पूर्ण विशेषीकरण आवश्यक है ।
(iv) सभी मुख्य गतिविधियों की समय-सीमाओं का स्पष्ट वर्णन होना चाहिये ।
(v) अर्थव्यवस्था में प्रारम्भिक स्थितियों का पूर्ण विवरण होना आवश्यक है । जिनके योजना आरम्भ होने से पहले प्रचलित होने की सम्भावना होती है ।
(vi) आगत-निर्गत सतता का पूर्ण परीक्षण आवश्यक है । अन्य शब्दों में, योजना में विभिन्न परियोजनाओं के बीच तथा विभिन्न क्षेत्रों के बीच और कार्यान्वयन के लिये उतरादायी निर्णय लेने वाली इकाइयों के बीच अन्तनिर्भरता को पूर्णतया स्पष्ट करना चाहिये जिससे मध्यस्थ वस्तुओं और सेवाओं जैसे ऊर्जा, परिवहन, कृषि से सम्बन्धित कच्चे माल और अन्य गतिविधियों के लिये विभिन्न आवश्यक आगतों के पूर्ति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयां स्पष्ट हो जायेंगी ।
(vii) योजना को चाहिये कि उन वित्तीय, भौतिक और मानवीय साधनों के प्रस्तावित निर्धारण के समय-पक्षीय सकेत को सम्मिलित करें जिनके विकास गतिविधियों में महत्वपूर्ण अवरोध बनने की सम्भावना है ।
(viii) भौतिक उत्पादक लक्ष्यों में मांग के वर्ग स्तर का पूर्ति के स्तर के साथ सन्तुलन होना आवश्यक है ।
3. योजना का निरीक्षण (Supervision of the Plan):
योजना का निरीक्षण भी सफल आयोजन का एक आवश्यक तत्व है । निरीक्षण को योजना के निष्पादन से अलग रखा जाये तथा वह विशेष संस्था द्वारा किया जाना चाहिये । अतः योजनाओं के निष्पादन को निरन्तर निरीक्षण की आवश्यकता होती है क्योंकि यह समय-समय पर विकास की असफलता और त्रुटियों को डूब निकालने में सहायता करता है ।
निरन्तर निरीक्षण योजना के सफल कार्यान्वयन की स्थितियों को सुधारता है । भारत में निरीक्षण योजना अभिकरण अथवा एक विशेष अभिकरण द्वारा किया जाता है । कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन जो एक निष्पक्ष संस्था है योजनाओं का निरीक्षण करती है ।
प्रशासनिक सुधार आयोग ने सन् 1968 में इसकी प्रगति और मूल्यांकन के लिये निम्नलिखित सिफारिशें की:
(i) सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में विभिन्न कार्यक्रमों के निष्पादन के सम्बन्ध में प्रगति रिपोर्ट का होना आवश्यक है । इस रिपोर्ट को छ: महीनों के भीतर संसद में प्रस्तुत करना आवश्यक होना चाहिये ।
(ii) प्रान्तों में भी राज्य आयोजन की प्रगति की सूचना लेने के लिये भी इसी प्रकार के प्रबन्ध होने चाहिये तथा इसकी रिपोर्ट विधान सभा में पेश की जानी चाहिये ।
(iii) योजना आयोग में, मूल्यांकन के लिये एक पृथक शाखा की स्थापना आवश्यक है ।
(iv) मूल्यांकन शाखा के पास प्रशिक्षित और योग्य कर्मचारी होने चाहिये और उन्हें केन्द्र और राज्य सरकारों की विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों का निरन्तर अध्ययन करना चाहिये और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उनका मार्गदर्शन करना चाहिये ।
4. कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन [Programme Evaluation Organisation (PEO)]:
मूल्यांकन भी सफल आयोजन की एक अन्य पूर्वापेक्षा है । प्रत्येक कार्यक्रम का सदैव व्यवस्थित ढंग से कार्यान्वयन किया जाना चाहिये । ”फोर्ड फाउंडेशन” की सहायता से ‘प्रोग्राम एवैल्यूएशन आर्गेनाइजेशन’ (Programme Evaluation Organisation) की सन 1952 में स्थापना की गई ।
यह संगठन एक स्वतन्त्र संगठन है और योजना आयोग के मार्गदर्शन और निर्देशन के अधीन कार्य करता है । अब मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, लखनऊ, चण्डीगढ़, जयपुर, हैदराबाद ये सात क्षेत्रीय मूल्यांकन कार्यालय हैं जो भिन्न-भिन्न समयों पर कार्य करते हैं ।
4. भारत में आयोजन प्रक्रिया की विशेषताएं (Features of Planning Process in India):
भारत में आयोजन प्रक्रिया के मुख्य लक्षणों का वर्णन नीचे किया गया है:
1. विकेन्द्रीयकृत तंत्र (Decentralised Machinery):
भारत में आयोजन की विकेन्द्रीकृत प्रक्रिया है । उदाहरणतया आयोजन तन्त्र त्रिपक्षीय है- केन्द्रीय, प्रान्तीय और जिला योजना संस्थाएं । यह संस्थाएं योजनाओं के निर्माण और निष्पादन के साथ घनिष्टता से जुड़ी हुई हैं ।
2. प्रजातान्त्रिक स्वरूप (Democratic Character):
एक अन्य लक्षण इसका प्रजातान्त्रिक स्वरूप है । निःसन्देह बहुत सी योजनाओं का निर्माण विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है, परन्तु लोगों को योजना के विभिन्न स्तरों पर इसमें सक्रियतापूर्वक भाग लेने के लिये पर्याप्त अवसर उपलब्ध किये जाते हैं । भारतीय संविधान की संघीय संरचना होने के कारण, संघीय सरकार केवल इसके राजकोषीय, मौद्रिक और भौतिक नियन्त्रणों का प्रयोग पंच-वर्षीय योजनाओं के अनुरूप केवल मार्गदर्शन और निर्देश देने के लिये करती है ।
3. योजना आयोग की केवल परामर्शदात्री भूमिका (Only an Advisory Role of Planning Commission):
आयोजन की विकेन्द्रीकृत व्यवस्था में योजना आयोग सर्वोच्च है । यह आवश्यक संदर्श मार्गदर्शन और समन्वय उपलब्ध करता है । इसके अतिरिक्त यह विभिन्न अभिकरणों के बीच एक कड़ी का कार्य करता है ताकि निविष्ट कार्यवाही हो । इस प्रकार, योजना आयोग का स्वरूप परामर्शदाता की भान्ति है ।
4. आवश्यक रूप में एक ढांचात्मक योजना (Essentially a Framework Plan):
एक अन्य विभेदक लक्षण है कि भारतीय योजना आवश्यक रूप में ढांचात्मक योजना है । इसने मुख्य प्राचल निर्धारित किये हैं तथा केन्द्र एवं राज्यों में जिलों और ब्लाकों में लक्ष्य निश्चित किये हैं । इसे कार्याक्रमों के निर्माण और उनके परिचालन के सम्बन्ध में पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त है ।
5. एक सतत प्रक्रिया (A Continuous Process):
इसकी प्रक्रिया के आधार पर, भारतीय योजनाओं का स्वरूप सतत है । योजना आयोग एक संदर्श योजना का निर्माण करता है जिसे पंचवर्षीय योजनाओं में विभाजित किया जाता है तथा उनमें एक योजना से दूसरी योजना तक निरन्तरता का एक माध्यम होता है ।
वार्षिक योजना अगले वर्ष के लिये, पंचवर्षीय योजना काल के लक्ष्यों एवं वित्तीय व्यवस्थाओं के प्रकार में कार्य का एक विस्तृत कार्यक्रम और बजट उपलब्ध करती है । इस लिये, यह उप-विभाजन आयोग में आवश्यक निरन्तरता बनाये रखने के लिये लाभप्रद है और योजना को लोच उपलब्ध करता है ।
सारांश में, भारत में आयोजन की प्रक्रिया का स्वरूप अति विशिष्ट है जिसने अपने निर्माण को केन्द्रीकृत किया हुआ है, इसका कार्यान्वयन विकेन्द्रीकृत है, सार्वजनिक क्षेत्र में निर्देशात्मक है और निजी क्षेत्र में संकेतात्मक है । यह नियोजित अर्थव्यवस्था, वास्तव में अर्थव्यवस्था के प्रगतिशील तथा समाजवादी ढंग का लक्ष्य रखती है ।
5. योजना आयोग की त्रुटियां (Pitfalls of Planning Commission in India):
योजना आयोग की निम्नलिखित त्रुटियां हैं:
1. योजना आयोग एक वैध संस्था नहीं है अतः न तो योजना की असफलता और न ही इसके उचित ढंग से कार्यान्वयन के लिये इसका कोई दायित्व है ।
प्रभु अनुसार- “अन्य मन्त्री योजना आयोग को एक आवश्यक बुराई मानते हैं । यह एक अपरिहार्य बाधा है । बहुत से मन्त्री अपनी असफलताओं का दायित्व योजना आयोग पर थोप देते हैं, कुछ और, मामलों को विलिम्यत करने के लिये आयोग को सौंप देते हैं ।”
2. राष्ट्रीय योजनाओं के निर्माण में प्रान्तों को कोई महत्व नहीं मिलता ।
3. प्रान्तों के लिये सहायता अनुदानों और अन्य वित्तीय सहायताओं की विधि त्रुटिपूर्ण है ।
4. आयोजन तन्त्र पर राजनीतिक लक्ष्यों का प्रभुत्व होता है ।
5. योजना के निर्माण और इसके कार्यान्वयन के बीच समन्वयन का अभाव होता है ।
6. जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से परामर्शदाता और विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श की कोई लाभप्रद प्रथा नहीं है ।
7. योजनाओं के कार्यान्वयन में लाल फीताशाही, भ्रष्टाचार और अदक्षता ने स्थिति को बिगाड़ दिया ।
8. परियोजना और कार्यक्रमों की उन्नति के व्यवस्थित निरीक्षण का अभाव ।
9. योजना आयोग के गठन का अस्थायी ढंग ।