गरीबी को कम करने में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की भूमिका | Role of Public Distribution System in Reducing Poverty!

निर्धनता से तात्पर्य उस न्यूनतम आय से है, जिसकी एक परिवार को अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक होती है और जिसे वह परिवार जुटा पाने में असमर्थ रहता है । दूसरे शब्दों में, गरीबी से आशय, मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं, भोजन, वस्त्र, आवास आदि की पूर्ति के लिए पर्याप्त वस्तुओं एवं सेवाओं को जुटा पाने में असमर्थता से है ।

मार्गरेट हासबेल के अनुसार:

निर्धनता उस बिन्दु पर कही जाती है । जिस पर की व्यक्ति अपनी आय के समाज के आवश्यक कार्यों की पूर्ति में भी असमर्थ हो जाता है जिस स्तर पर समाज कार्य करने के लिए अभ्यस्त होता है ।

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योजना आयोग के अनुसार:

भारत में निर्धनता के मापन के लिए योजना आयोग ने एक पौष्टिक आहार को मापदण्ड माना है ।  इस मापदण्ड के अनुसार आधार वर्ष 1973-74 में एक व्यक्ति प्रति दिन ग्रामीण क्षेत्र में 2,400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्र में 2,100 कैलोरी प्राप्त करने के लिए उपभोग पर एवं माह में व्यय करता है । वह निर्धनता की रेखा है । इससे कम कैलोरी का उपभोग गरीबी कीं रेखा से नीचे माना जायेगा ।

इस उपभोग व्यय को रुपयों में परिवर्तन करने पर ग्रामीण क्षेत्र में 49.10 रूपये प्रतिमाह तथा शहरी क्षेत्र में 49.10 रूपये प्रतिमाह से कम पाने वाला व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे माना गया । निर्वाह लागत में परिवर्तन होने पर इसी उपभोग के आधार पर गरीबी की रेखा को संशोधित कर लिया जाता है ।

1987-88 में इस आधार पर ग्रामीण क्षेत्र के लिए 131.80 रूपये प्रतिमाह तथा शहरी क्षेत्र के लिए 150.10 रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिमाह निर्धनता की रेखा थी । 1993-94 की कीमतों के आधार पर यह बढ़कर क्रमशः 228.90 रूपये प्रतिमाह तथा 264.10 रुपये प्रतिमाह हो गयी ।

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प्रो- अमर्त्य सेन के अनुसार:

अर्थशास्त्र के क्षेत्र में 1998 में नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्यसेन ने 1973 में अपने लेख गरीबी की गहनता को मापने की एक विधि विकसित की, जिससे आधार पर उन्होंने गरीबी गुणांक निकाला । इस विधि के अनुसार गरीबी रेखा कि न्यूनतम निर्धारित राशि के नीचे रहने वाले सभी लोग गरीबी की श्रेणी में आएंगे ।

उदाहरण के लिए किसी देश की गरीबी रेखा 250रु. कुछ कि आय 100रु. कुछ कि 200रु. कुछ कि 245रू. भी हो सकती है । इन सभी व्यक्तियों कि आय को आरोही क्रम में अर्थात 100, 120, 130, 145… आदि रखने पर स्पष्ट है । कि इस कम में जो व्यक्ति जितना अधिक ऊपर होगा, वह उतना ही कम गरीब होगा । प्रो. अमर्त्य सेन ने इसके आधार पर एक गुणांक निकाला, जिसे सेन का गरीबी गुणांक कहते हैं ।

गरीबी रेखा में नामांकन:

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गरीब निर्धन व्यक्ति अपना गरीबी रेखा में नाम जुड़वाने हेतु B.P.L. सर्वेक्षण शेडयूल में आवेदन ग्राम पंचायत को प्रस्तुत करता है । जिस में ग्राम पंचायत के सरपंच, सचिव, पटवारी, पंच या नियुक्त कमेटी (समिति) उक्त व्यक्ति से संबंधित भूमि, दैनिक जीवन में उपभोग की वस्तुयें, टेलीविजन, विद्युत पंखा, रेडियो, कूलर, यातायात के साधन, रोजगार, रोजगारत सदस्य का नाम (क्या वह परिवार का मुखिया है ।)

उसकी मासिक आय, उसका वर्ग, इन सभी बिंदुओं पर निरीक्षण कर सरपंच, सचिव, पटवारी, या उक्त कमेटी (समिती) उक्त आवेदन पर अपना अभिमत (सहमति) देकर उक्त कमेटी में इसका उनमोदन करेंगे कि यह व्यक्ति पात्र है या नहीं ।

उक्त प्रक्रिया पूर्ण होने के पश्चात आवेदक अपना गरीबी रेखा में नाम जोड़ने हेतु अपना शपथ पत्र प्रस्तुत करेगा । कि यह उस स्थान का स्थाई निवासी हूँ । उसका गरीबी रेखा में पूर्व से नाम नहीं है । यह कि मैं भूमिहीन हूँ । उक्त आवेदक एवं एक आवेदक नायब तहसीलदार महोदय को उक्त कमेटी प्रस्तुत करती है ।

जिसके आधार पर नायिब तहसीलदार नाम जोड़ता है । 1 से 14 अंक प्राप्त व्यक्तियों का नाम BPL में जोड़ा जायेगा उनकी मासिक आय 500 से 1500 रू. के मध्य होना चाहिए ।  1 से 6 अंक प्राप्त व्यक्तियों का नाम गरीबी में भी गरीबी (अंत्योदय) थमा में जोड़ा जायेगा, उनकी मासिक आय 250 रु. से 500 रु. के बीच होनी चाहिए । 14 से 15 अंक प्राप्त व्यक्तियों का नाम APL में जोड़ा जायेगा, जिसे साधारण राशनकार्ड कहा जाता है । उनकी कुल मासिक आय 2500 रु. से अधिक होने पर या 2500 रु. है भी तो उनका नाम A.P.L. सूची में जोड़ा जायेगा ।

खाद्य-सुरक्षा एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली:

खाद्य-सुरक्षा सुनिश्चित करने में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं को सस्ती कीमतों पर आवश्यक उपभोग वस्तुएँ उपलब्ध कराना है । ताकि उन्हें इनकी बढ़ती हुई कीमतों के प्रभाव से बचाया जा सके तथा जनसंख्या को न्यूनतम आवश्यक उपभोग स्तर प्राप्त करने में सहायता दी जा सके ।

इस प्रणाली को चलाने के लिए सरकार व्यापारियों तथा उत्पाकों से वसूली कामतों के लिए खरीदती है । इस प्रकार जो खरीद की जाती है उसका वितरण उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से किया जाता है । खाद्यान्नों के अलावा सार्वजनिक वितरण प्रणाली का प्रयोग खाद्य तेलों, चीनी, कोयला, मिट्‌टी का तेल तथा कपड़े के वितरण के लिए भी किया जाता हे ।

इस प्रणाली में संपूर्ण जनसंख्या को शामिल किया गया है ।  अर्थात इसे किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं किया गया है । जिन परिवारों के पास निश्चित घरेलू पता है उन सबको राशन कार्ड दिये गये है । औसतन एक दुकान 2000 लोगों के लिए होती है ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली से आशय:

सार्वजनिक वितरण प्रणाली से आशय उस प्रणाली से हे जिससे उपभोक्ता वस्तुओं को सार्वजनिक रूप से इस प्रकार वितरित किया जाता है कि वे सभी उपभोक्ताओं को निर्धारित मूल्यों पर उचित मात्रा में प्राप्त हो सके ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के उद्देश्य:

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

(1) वस्तुओं का वितरण समाज के गरीब वर्गों को न्यायोचित ढंग से करना ।

(2) वस्तुओं की मांग व पूर्ति में संतुलन बनाये रखना ।

(3) उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना ।

(4) मूल्यों के उतार-चढ़ाव को रोकना ।

(5) व्यापारियों की लाभ कमाने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखना ।

भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विशेषताएँ:

भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वर्तमान प्रणाली को 1 जुलाई, 1979 से लागू किया गया ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

(i) प्रणाली का क्षेत्र एवं जनसंख्या:

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की यह व्यवस्था पूरे देश में लांग! है और इसे सामान्यत: क्षेत्रों के आधार पर प्रारम्भ किया गया है । प्रत्येक गाँव या गाँव समूह में जिसकी जनसंख्या 2000 से अधिक है एवं उचित मूल्य की दुकान में 1000 की जनसंख्या पर ही यह दुकान खोली जा सकती है ।

(ii) सार्वजनिक वितरण की वस्तुएँ:

सार्वजनिक वितरण प्रणाली में प्रमुख रूप से सात वस्तुओं को शामिल किया गया है- चावल, गेहूँ, आयतिति खाद्य तेल, मिट्‌टी का तेल, सोट कोक तथा नियन्त्रित कपड़ा । परन्तु राज्य सरकारें आवश्यकता पड़ने पर इनमें और वस्तुओं को भी शामिल कर सकती है ।

(iii) केन्द्र व राज्य सरकारों के दायित्व:

इस योजना में केन्द्रीय सरकार सामान्य मूल्य स्थिरीकरण के उपाय निश्चित करती है साथ ही उसका उत्तरदायित्व राष्ट्रीय नीति तैयार करने व आयात तथा सुरक्षित भण्डार बनाने का है सार्वजनिक वितरण प्रणाली के क्रियान्वयन का पूर्ण उत्तरदायित्व राज्य सरकारों पर है ।

“शासकीय उचित मूल्य की दुकान की कार्यप्रणाली”:

शासकीय उचित मूल्य की दुकान या सार्वजनिक वितरण प्रणाली के परिचय को निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है ।

भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का इतिहास:

खाद्य समस्या एवं बढ़ते हुए की रोकथाम के लिए भारत में खाद्य नीति तथा खाद्य व्यवस्था में सरकार की सक्रिय भागीदारी की तरह सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से एक स्पष्ट और महत्वपूर्ण आर्थिक राजकीय प्रशासनिक व्यवस्था के रूप में चालू है । सन 1939 में तत्कालीन व्यवस्था में सबसे पहले बम्बई में उचित दर पर अनाज बेचने की व्यवस्था की शुरुआत की ।

इसका उद्देश्य व्यापारियों में सट्‌टेबाजी को पनपाने से रोकना भी था । धीरे-धीरे देश के अनेक भागों में इस तरह के प्रबंध किये गये । सन 1943 मैं सर ग्रेगरी के नेतृत्व में एक समिति देश में राशन व्यवस्था तथा माँग और पूर्ति का राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर अध्ययन करने के लिए बनाई गयी थी । इस समिति ने राशनिग जारी रखने की सलाह दी । और राशन व्यवस्था को कारगर बनाने के लिए उपाय सुझाए ।

आजादी के बाद की उथल-पुथल तथा विभाजन की वजह से अनाज के क्षेत्र में बढ़े असंतुलन को देखते हुए राशन व्यवस्था को जारी रखा गया, लेकिन सन 1948 में एक अन्य समिति की सिफारिस तथा महात्मा गाँधी की राय के सम्मान में राशन व्यवस्था समाप्त कर दी गई । परन्तु व्यापारी इस नियंत्रण मुक्त व्यवस्था का अनुचित लाभ उठाने से बाज नहीं आये ।

कीमतें आसमान छूने लगी. इसलिए सरकार को पुन: खाद्य नियंत्रण लागू करने पड़े । सन् 1952-53 में देश की नई नीतियों और योजनाओं खेती के नये भूमि विस्तार लगातार अच्छी और नियमित मानसूनी वर्षा के कारण अन्य के उत्पादन में अच्छी खासी सफलता मिली, इससे खाद्य नियंत्रणों में कमी की गयी । खासकर कानूनी राशन व्यवस्था हटा दी गई । परन्तु सस्ते अनाज की सरकारी नियंत्रण वाली दुकानें जारी रही ।

सन 1957 में गहराते सकट को देखते हुये श्री अशोक मेहता की अध्यक्षता में खाद्यान्नों की जाँच समिति नियुक्त की गई । इस समिति में खाद्य समस्या पर एक प्रसिद्ध रिपोर्ट दी । इसके अनुसार उचित मूल्य दुकान प्रणाली तथा अनाज के आयात और सुरक्षित भण्डार बनाने की नीति का समर्थन किया गया । इस समिति ने देश के आंतरिक उत्पादन से बाजार में आने वाले गेहूँ का भी उचित मूल्य दुकान के माध्यम से उपभोक्ता तक पहुँचाने की राय दी ।

हरित क्रांति के बाद खाद्य स्थिति और नीति में कई परिवर्तन किये गये, उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि कीमत नीति में मूलभूत परिवर्तन किया गया, इसके पश्चात भारत द्वारा सार्वजनिक वितरण को वर्तमान प्रणाली की 1 जुलाई, 1979 से लागू किया गया ।

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