Read this article in Hindi to learn about the climate, soil and population of Rajasthan.

राजस्थान का जलवायु:

जलवायु का (विशेष रूप से वर्षा व तापमान का) फसलों पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है । विभिन्न जलवायुवेत्ताओं ने अलग-अलग चरों के आधार पर जलवायु-प्रदेशों का विभाजन किया है ।

थार्न्थवेट ने वर्षण व तापमान प्रभाविता के आधार पर राज्य को निम्न चार जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया है:

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(i) शुष्क

(ii) अर्द्ध-शुष्क

(iii) उपार्द्र

(iv) आर्द्र

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इस विभाजन के आधार पर झालावाड व माउंट आबू को छोड्‌कर जो कि क्रमशः उपार्द और आर्द्र प्रदेश में सम्मिलित है । राज्य में मुख्यतः दो जलवायु-प्रदेश पाए जाते हैं- शुष्क और अर्द्ध-शुष्क । इन दो प्रदेशों को विभाजित करने वाली रेखा कच्छ के रन से आरम्भ होकर राज्य में पाली व झुंझुनूं जिलों से गुजरती हुई उत्तर में हरियाणा में चली जाती है ।

राज्य में मसाला फसलों का क्षेत्र इस रेखा के पश्चिम में संकेन्द्रित है । प्रत्येक फसल को बुवाई से कटाई तक विभिन्न स्थितियों में एक विशिष्ट जलवायुविक दशाओं की आवश्यकता होती है । इसी कारण से कृषि योजना का प्रारूप तैयार करते समय कृषि जलवायु प्रदेशों का ध्यान रखा जाता है । राज्य को 5 मुख्य व 10 गौण जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया गया है ।

इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:

(1) शुष्क क्षेत्र:

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शुष्क क्षेत्र को दो गौण भागों में विभक्त किया गया है:

(अ) बारानी एक फसली क्षेत्र:

यह क्षेत्र राज्य का अत्यंत शुष्क क्षेत्र है जो बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर जिलों में विस्तृत है । शुष्क क्षेत्र के इस बारानी एक-फसली भाग की मुख्य फसल बाजरा है ।

(ब) सिंचित दु-फसली क्षेत्र:

इसके अंतर्गत राज्य का एकमात्र गंगानगर जिला सम्मिलित है । गंग, भाखरा व इंदिरा गाँधी नहर से सिंचाई सुविधा उपलब्ध होने से यहाँ खरीफ व रबी दोनों फसलें उत्पादित की जाती है । खरीफ की कपास, बाजरा, खरीफ दालें, गन्ना, धान तथा रबी में चना, गेहूँ, सरसों, जी मुख्य फसलें हैं ।

(2) बारानी एक-फसल क्षेत्र:

इसे दो भागों में विभक्त किया गया है:

(अ) बारानी एक-फसली क्षेत्र:

यह क्षेत्र चुरु, झुंझुनूं, सीकर और नागौर जिलों में विस्तृत है जहाँ सिंचाई के स्रोतों की बहुत कमी है । यहाँ की मुख्य फसल बाजरा है तथा दालें, तिल, ग्वार, गेहूँ, चना व जी अन्य फसलें हैं ।

(ब) सिंचित दु-फसली क्षेत्र:

इस क्षेत्र का फैलाव जालौर व पाली जिलों में है । यहाँ नहरों व तालाबों से सिंचाई के अन्तर्गत वृहत् क्षेत्र है । इसलिए बारानी खेती के साथ-साथ रबी की भी खेती वृहत भाग में होती है । खरीफ की मुख्य फसल बाजरा है तथा तिल, मूंगफली, मक्का, ज्वार अन्य फसलें हैं तथा रबी में सरसों, गेहूँ, जी आदि बोए जाते हैं ।

(3) अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र:

इस सम्पूर्ण प्रदेश को सिंचाई के स्रोत तथा फसलों के आधार पर निम्न तीन गौण भागों में विभाजित किया गया है:

(अ) बारानी एक फसली क्षेत्र:

इस क्षेत्र का विस्तार अलवर व जयपुर जिलों में है, जहाँ अधिकतर सिंचाई कुओं और नलकूपों से होती है । बाजरा व सरसों यहाँ की मुख्य फसलें हैं ।

(ब) सिंचित दुफसली क्षेत्र:

यह क्षेत्र भरतपुर, धौलपुर सवाईमाधोपुर जिलों में है । यहाँ सिंचाई के मुख्य स्रोत कुएं, नलकूप, नहरें और तालाब हैं । इस क्षेत्र में वर्षा ऋतु के अलावा शीत ऋतु में भी लगभग 24 सेन्टीमीटर वर्षा हो जाती है जो रबी फसल के लिए फायदेमंद है । यहाँ की मुख्य फसल खरीफ में बाजरा, मूंगफली व खरीफ दालें हैं तथा रबी में सरसों, गेहूँ व चना है ।

(स) बहुफसली क्षेत्र:

यह क्षेत्र अजमेर, टोंक व भीलवाड़ा जिलों में विस्तृत है जहाँ खरीफ में मक्का, जवार, बाजरा व सौंफ तथा रबी में गेहूँ व चना मुख्य फसलें हैं । इसके अतिरिक्त मूंगफली, हल्दी, मिर्च, तिल, कपास, खरीफ की दालें तथा रबी में अलसी, गन्ना, जीरा व सरसों अन्य फसलें हैं ।

(4) अल्पार्द्र क्षेत्र:

यह क्षेत्र चित्तौडगढ, बूंदी, उदयपुर जिला (दक्षिण भाग को छोड्‌कर) व सिरोही जिले की शिवगंज और रेवदर तहसीलों में विस्तृत है । यहाँ वार्षिक वर्षा का औसत 72.66 सेन्टीमीटर है जो कि राज्य के पश्चिमी और पूर्वी जिलों की तुलना में काफी अधिक है । यहाँ की मुख्य फसलें रबी में गेहूँ, मेथी, लहसुन, सरसों तथा खरीफ में मक्का, मूंगफली, सौंफ, हल्दी, अदरक हैं ।

(5) आर्द्र क्षेत्र:

इस क्षेत्र का विस्तार राज्य की कोटा, झालावाड़, बांसवाडा, डूंगरपुर जिला, सिरोही जिले के पूर्वी भाग तथा उदयपुर जिले के दक्षिणी भाग में है । राज्य में सबसे अधिक औसत वर्षा इस जलवायुविक क्षेत्र में होती है ।

कृषि-पद्धतियों के आधार पर इसे पुन: दो भागों में विभक्त किया जाता है:

(अ) बारानी एक फसली:

इसके अंतर्गत डूंगरपुर, बांसवाड़ा जिले के दक्षिणी व सिरोही जिले के पूर्वी भाग सम्मिलित हैं, जहाँ खरीफ में मक्का तथा रबी में गेहूं मुख्य फसल है ।

(ब) सिंचित-दुफसली:

यह क्षेत्र राज्य के दक्षिणी-पूर्वी भाग के कोटा व झालावाड़ जिलों में विस्तृत है । यहां वार्षिक वर्षा का औसत 80 सेन्टीमीटर से अधिक है । इस क्षेत्र में सोयाबीन को खरीफ की मुख्य फसल के रूप में बोया जाने लगा है, तत्पश्चात् ज्वार व मक्का का स्थान है । रबी में सरसों, मेथी, लहसुन, धनिया, गेहूं मुख्य फसलें हैं ।

राज्य की जलवायु:

प्रदेशों व कृषि-जलवायु प्रदेशों का संक्षिप्त अध्ययन करने के पश्चात् यह आवश्यक है कि फसल ऋतु अनुसार भी राज्य की जलवायु का वर्णन किया जाये, क्योंकि फसलों की बुवाई (खरीफ, रबी, जायद) ऋतु अनुसार ही की जाती है ।

राजस्थान में वर्ष को तीन मुख्य ऋतुओं में विभाजित किया गया है:

(i) ग्रीष्म ऋतु (मार्च से मध्य जून तक)

(ii) वर्षा ऋतु (मध्य जून से सितम्बर तक)

(iii) शीत ऋतु (अक्टूबर से फरवरी तक)

(i) ग्रीष्म ऋतु (1 मार्च से मध्य जून तक):

ग्रीष्म ऋतु मार्च से आरम्भ होकर मध्य जून तक रहती है । मार्च के माह में तापमान में वृद्धि आरम्भ हो जाती है, इसी समय रबी की फसलों की कटाई आरम्भ हो जाती है । मार्च के महीने में तापमान में अधिक वृद्धि हो जाती है तो फसलों की पैदावार कम हो जाती है । इस मौसम में तापमान 32 डिग्री से. से 43 डिग्री सेल्सियस तक पाया जाता हैं । राज्य के पश्चिमी भाग भीषण रूप में गर्म रहते हैं तथा तापमान 45 से. से भी अधिक हो जाते हैं ।

तापमान के दैनिक परिसर में वृद्धि के परिणामतः दिन अधिक गर्म हो जाते हैं । राज्य के पश्चिमी भागों में मुख्यतः बीकानेर, फलौदी, जैसलमेर, बाड़मेर आदि में अधिकतम दैनिक तापक्रम इन महीनों में 40 डिग्री सेल्पिायस से 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है ।

यहाँ दिन के समय ताप में वृद्धि सूर्य के बढ़ने के साथ-साथ होती है । शुष्क वायु तथा आकाश मेघ रहित होने के कारण सूर्य की किरणें बिना किसी अवरोध के बलुई और चट्‌टानी सतहों पर पहुँचती हैं, परिणामतः यहाँ तीसरे पहर का तापमान 49 डिग्री तक पहुँच जाता है तथा वातावरण की शुष्कता, स्वच्छ आकाश, मृदा की बलुई प्रकृति और वनस्पति के अभाव के कारण रात में तापमान अचानक गिर जाता है ।

परिणामतः यहाँ दिन के समय तापक्रम बहुत अधिक तथा रात्रि में तापक्रम काफी कम हो जाता है । तापमान का दैनिक परिसर अरावली के पश्चिम में लगभग 14 डिग्री सेल्सियस से 17 डिग्री सेल्सियस के बीच हो जाता है । दिन का तापक्रम ताप-तरंगों के सम्पर्क में आकर काफी बढ़ जाता है । इसलिए गंगानगर में उच्च तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है ।

जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर में 49 डिग्री सेल्सियस, जयपुर, कोटा में 40 डिग्री सेल्सियस और झालावाड़ में 47 डिग्री सेल्सियस तक तापक्रम पहुँच जाता है । अरावली श्रेणी के उत्तरी और पश्चिमी भागों में तापक्रम निरंतर बढता जाता है । 36 डिग्री सेल्सियस तापमान रेखा कोटा व झालावाड़ तथा बीकानेर के पश्चिमी और जैसलमेर के उत्तरी भागों से गुजरती है ।

32 डिग्री सेल्सियस की समताप रेखा अरावली के पश्चिमी पार्श्व के सहारे विस्तृत है तथा यह अजमेर और जयपुर के पश्चिम से होती हुई चली जाती है । इस ऋतु में भयंकर लू चलती है जिससे तापक्रम बढ़ जाता है तीव्र गर्मी के कारण स्थानीय वायु भंवर बन जाते हैं जो रेत भरी आधियों का रूप ले लेते हैं ।

रेत भरी आधियों का वार्षिक औसत गंगानगर में 27 दिन, कोटा में 5 दिन और अजमेर व झालावाड में 3 दिन रहता है । सम्पूर्ण ऋतु में सापेक्षिक आर्द्रता प्रातः 35 प्रतिशत से 60 प्रतिशत और दोपहर में 10 प्रतिशत से 30 प्रतिशत रहती है ।

(ii) वर्षा ऋतु (मध्य जून से सितम्बर तक):

वर्षा ऋतु की सामान्य अवधि जून के अंतिम सप्ताह से सितम्बर तक रहती है । राज्य में खरीफ मसालों की फसलें मुख्य रूप से मिर्च, हल्दी, अदरक, सौंफ की बुवाई मानसूनी वर्षा आरम्भ होते ही कर दी जाती है । ग्रीष्मकाल में राज्य में वायुदाब समीपवर्ती सागरीय क्षेत्रों की तुलना में कम होने के कारण समुद्री भाग से उत्तरी क्षेत्रों की ओर बहने वाली पवन आर्द्रता लिए हुए आती हैं । यह प्रदेश अपनी स्थिति के कारण दोनों मानसून शाखाओं (बंगाल की खाड़ी और अरब सागर शाखा) के मार्ग में आता है ।

प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा का वितरण असमान है । 50 से.मी. की सम वर्षा रेखा राज्य को दो भागों में विभाजित करती है । मरु प्रदेश में वर्षा बहुत विरल । अत्यधिक अनियमित, मौसमिक और वार्षिक दृष्टि से परिवर्तनशील है ।

मारवाड़ में तिल फसल महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका कम वर्षा में ही उत्पादन अच्छा हो जाता है । यहाँ वर्षा का औसत 25 से.मी. से भी कम रहता है । प्रदेश में समवर्षा रेखाओं की सामान्य प्रवृत्ति उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर रहती है ।

इस प्रदेश का दक्षिणी भाग सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र है । यहाँ औसत वार्षिक वर्षा 100 सेन्टीमीटर तक होती है । प्रदेश के आबू पर्वत क्षेत्र में 150 सेन्टीमीटर तक वर्षा होती है । प्रदेश के पूर्वी भाग में बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसूनी हवाओं से 60 से 75 सेन्टीमीटर तक वर्षा होती है । दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी दोनों मानसूनों से 75 से 90 सेन्टीमीटर तक औसत वार्षिक वर्षा हो जाती है वर्षा वितरण में इस क्षेत्र पर अरावली शृंखला का प्रभाव स्पष्ट है ।

यह पर्वत श्रेणी उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम में विस्तृत है तथा दक्षिण-पश्चिम में इसकी ऊँचाई 970 मीटर है तथा उत्तर-पूर्व की ओर ऊँचाई कम होती जाती है परिणामस्वरूप दक्षिण-पश्चिम में आबू पर्वत पर सर्वाधिक वर्षा की मात्रा सामान्य प्रवृत्ति उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर रहती है ।

(iii) शीत ऋतु (अक्टूबर से फरवरी तक):

प्रदेश में शीत ऋतु की सामान्य अवधि अकबर से फरवरी तक रहती है । अक्टूबर से मध्य दिसम्बर तक का समय मानसून प्रत्यावर्तन काल होता है । यह ऋतु कृषकों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि रबी की फसलों की बुवाई इसी ऋतु में तापमान कम होने पर की जाती है ।

जीरा व धनिया फसलें हैं जिनकी बुवाई के साथ तापमान कम व मृदा में नमी होनी चाहिए । अधिक तापमान व कम नमी में बीज का अंकुरण नहीं हो पाता है जिसे कृषक स्थानीय भाषा में ”बीज का उड़ना” कहते हैं । मध्य दिसम्बर से तापक्रम धीरे-धीरे कम होने लगता है तथा पश्चिमी विक्षोभों से मामूली वर्षा होती है जिसे ”मावठ” कहते हैं ।

आबू पर्वत पर ऊँचाई के कारण तापक्रम आस-पास के क्षेत्रों की तुलना में काफी कम होता है । इस ऋतु में समताप रेखाएँ अक्षांशों के समानान्तर पश्चिम से पूर्व की ओर होती है । ये रेखाएँ अरावली को पार करते समय दक्षिण की ओर मुड़ जाती है ।

जनवरी माह में औसत तापमान 1.6 डिग्री सेल्शियस से 6.0 डिग्री सेल्शियस रहता है । कोटा, झालावाड़, जोधपुर, बाड़मेर और उदयपुर में जनवरी का तापक्रम लगभग 1.6 डिग्री सेल्शियस रहता है, बीकानेर में 15.4 डिग्री सेल्शियस, जैसलमेर में 15 डिग्री सेल्यिायस, जोधपुर में 17 डिग्री सेल्यिायस तथा माउंट आबू पर्वतीय क्षेत्र में यह 14.6 डिग्री सेल्यिायस रहता है ।

इस समय उत्तरी क्षेत्रों में शीत लहर के कारण तापक्रम कभी-कभी पाले के साथ हिमांक बिन्दु तक पहुँच जाता है । मसाला फसलों पर पाले का अत्यधिक प्रभाव पडता है । इस कारण से कई कृषक अजवायन, जीरा, धनिया की जल्दी बुवाई भी करते हैं ताकि पाले का प्रभाव नहीं पड़ सके ।

आर्द्रता:

सापेक्षिक आर्द्रता मार्च, अप्रैल और मई महीनों में निम्नतम तथा जुलाई, अगस्त व सितम्बर के महीनों में अधिकतम होती है । अप्रैल के महीने में सबसे कम आर्द्रता तथा सबसे अधिक अगस्त के महीने में होती है । अधिक आर्द्रता अधिक बादलों के निर्माण में सहायक होकर अधिक वर्षा प्रदान करती है ।

जुलाई से सितम्बर की अवधि में आर्द्रता 55 प्रतिशत से 70 होती है जो खरीफ मसाला फसल मिर्च व सौंफ की बुवाई के लिए अत्यन्त लाभकारी है । अरावली के दक्षिण-पश्चिमी और पश्चिमी क्षेत्रों में आर्द्रता कम तथा इसके पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में जहां वर्षा अधिक होती है आर्द्रता अधिक पाई जाती है ।

हवाएँ:

राजस्थान में हवाएँ प्रायः दक्षिण-पश्चिम और पश्चिम की ओर से चलती है । जून के महीने में सबसे तेज हवाएँ व नवम्बर के महीने में सबसे हल्की हवाएँ चलती हैं । राज्य के पश्चिमी भाग के बीकानेर, गंगानगर, जोधपुर, जैसलमेर व बाड़मेर जिलों के शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में वायु की गति अधिक तीव्र होती है । राज्य में वायु की अधिकतम गति लगभग 40 किलोमीटर प्रति घन्टा है । पश्चिमी राजस्थान में गर्म, तेज हवाएँ व आँधियाँ ग्रीष्म ऋतु की विशेषताएँ हैं ।

आंधियाँ:

ग्रीष्म ऋतु में गर्म एवं धूलभरी हवाएँ राजस्थान में सामान्य घटना है । पश्चिमी रेतीले मैदान में ये प्रचण्ड धूल के तूफान एक साधारण बात है । राज्य के उत्तरी क्षेत्र में ये आँधियाँ जून के महीने में तथा दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी क्षेत्रों में मई के महीने में सबसे अधिक आती है । ये धूल-भरी आँधियाँ प्रायः तीसरे पहर आती हैं जिनसे तापक्रम अचानक गिर जाता है ।

इन धूल-भरी आंधियों की संख्या व तीव्रता पश्चिमी शुष्क भागों से अर्द्ध-शुष्क उपजाऊ मैदानों व अधिक वर्षा वाले पूर्वी और दक्षिणी-पूर्वी क्षेत्रों की ओर क्रमशः कम होती है । राज्य के पूर्वी भागों में पश्चिमी शुष्क क्षेत्रों की अपेक्षा वज्र तूफान प्रायः अधिक आते हैं ।

वर्षा:

जलवायुविक चरों में वर्षा कृषि को प्रभावित करने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है । 50 सेन्टीमीटर की समवर्षा रेखा के आधार पर ही राज्य को (पूर्वी व पश्चिमी) दो भागों में विभाजित किया जाता है । राज्य के जैसलमेर जिले के उत्तर-पश्चिम भाग में जून से सितम्बर तक वर्षा का औसत 1 से 10 सेन्टीमीटर है जबकि राज्य के दक्षिणी भाग के पश्चिमी भाग में ऐसी फसलें बोई जाती हैं जिनमें जल की कम आवश्यकता हो तथा जो सूखे को सहन कर सके, जैसे-बाजरा, जी, ग्वार, अजवायन आदि जबकि पूर्वी व दक्षिणी भाग में गेहूं, सोयाबीन, गन्ना, लहसुन आदि फसलें बोई जाती हैं ।

वार्षिक वर्षा के साथ-साथ वर्षा की परिवर्तनशीलता या अस्थिरता भी कृषि को अत्यधिक प्रभावित करती है । निम्न वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा की अधिक परिवर्तनशीलता में फसलों को उत्पादित करना जोखिम भरा कार्य है, जबकि निम्न परिवर्तनशीलता वाले स्थानों में फसलों को अधिक विश्वसनीयता से बोया जा सकता है । राज्य के पश्चिमी भाग की अपेक्षा पूर्वी व दक्षिणी भाग में फसलों को आसानी से पैदा किया जाता है क्योंकि इस भाग में वर्षा की परिवर्तनशीलता कम पायी जाती है ।

राजस्थान की मृदाएँ:

मृदा भू-पृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है जो मूल चट्‌टानों अथवा वनस्पति के योग से बनती है । मृदाओं की स्थानीय अवस्थिति उनकी मुख्य विशेषताओं और कृषि के लिए उनकी उपयुक्तता के आधार पर इनका विभाजन किया जाता है ।

राज्य में पाई जाने वाली मृदाओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:

(1) रेतीली मृदा:

रेतीली मृदा का विस्तार राज्य में सर्वाधिक है । यह मुख्यतः पश्चिमी रेतीले मैदान में पाई जाती है । वर्षा की न्यूनता और ढीली संरचना के कारण इसमें ऊर्वरा शक्ति कम पाई जाती है ।

इस मृदा को पुन: चार वर्गों में विभाजित किया जाता है:

(अ) रेतीली बालू मृदा:

इसका विस्तार राज्य के गंगानगर, बीकानेर, चूरू, जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर और झुंझुनूं जिलों में है । इस मृदा में लगभग 90-95 प्रतिशत तक बालू और लगभग 5-7 प्रतिशत तक मृत्तिका पाई जाती है । इसमें सामान्यतया जैविक पदार्थों की कमी तथा लवण व पी.एच. मूल्य की अधिकता पायी जाती है ।

इस मृदा में नत्रजन की कमी को उच्च नाइट्रेट द्वारा संतुलित किया जाता है तथा जहां जल की नियमित आपूर्ति है, वहां यह मृदा उपजाऊ बन चुकी है । ऐसे उपजाऊ क्षेत्रों में कृषि सफलतापूर्वक की जा रही है । इस मृदा में मसाला फसलों में मिर्च बोई जाती है ।

(ब) लाल रेतीली मृदा:

इसका विस्तार राज्य के नागौर, जोधपुर, पाली, जालौर, चुरु व झुंझुनूं जिलों के कुछ भागों में है । पानी की उपलब्धता की दशा में यह मृदा कृषि के लिए उपयुक्त है ।

(स) पीली-भूरी रेतीली मृदा:

यह मृदा राज्य के नागौर व पाली जिलों में पाई जाती है । यह पीली-भूरी रेतीली से बालू दोमट आदि के रूप में मिलती है । इस मृदा में खरीफ में मिर्च की खेती सफलतापूर्वक की जाती है ।

(द) खारी मृदा:

बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर व नागौर जिलों की निम्न भूमियों अथवा गर्तों में यह मृदा पाई जाती है । यह मृदा कृषि लवण की मात्रा अधिक होती है तथा प्रवाह अवरुद्ध होता है ।

(2) भूरी रेतीली मृदा:

इस मृदा का विस्तार राज्य के बाड़मेर, जालौर, जोधपुर, सिरोही, पाली, सीकर, झुंझुनूं जिलों के लगभग 36,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर है । पूर्व और उत्तर-पूर्व की ओर इस मृदा की उर्वरता में वृद्धि पाई जाती है ।

इन क्षेत्रों में पानी की सामान्य कमी है तथा भूमिगत जल 30 मीटर से 125 मीटर की गहराई तक पाया जाता है तथा नाईट्रेट के रूप में नाइट्रोजन की उपस्थिति के कारण उर्वरा शक्ति अधिक बढ़ जाती हैं । इसमें जीरा, सौंफ, मिर्च, मसाला फसलें उत्पादित की जाती हैं ।

(3) कछारी मृदा:

इस प्रकार की मृदा राज्य के उत्तर-पूर्वी भाग के भरतपुर, धौलपुर तथा जयपुर व टोंक जिलों में पाई जाती है । गठन में यह मृदा गहरी, रेतीली दोमट व दोमट प्रकार की होती है इसका रंग लाल है । जिसमें चुना, फास्फोरिक अम्ल और नमी की कमी पाई जाती है ।

जहां जल स्तर ऊँचा है वहाँ छोटे-छोटे भू-भाग लवणीय या क्षारीय मृदा के पाए जाते हैं । कुछ स्थानों पर इसमें कंकड़ भी पाए जाते हैं, जो या तो रेत के ऊपर बिछे रहते है या कहीं-कहीं मृदा की परतों के अंग होते हैं । यह मृदा अच्छी उत्पादकता के लिए प्रसिद्ध है ।

(4) भूरी रेतीली कछारी मृदा:

यह मृदा उत्तर-पूर्वी भाग के अलवर जिले में तथा भरतपुर जिले के उत्तरी भाग में पाई जाती है । इसमें चुना, फास्फोरस की कमी होती है । इसका रंग कुछ लाल भूरापन लिए होता है । यह मृदा नदियों द्वारा लाई जाने के कारण उपजाऊ है ।

(5) लाल व पीली मृदा:

यह मृदा सवाईमाधोपुर, अजमेर, उत्तरी भीलवाड़ा, सिरोही व उदयपुर जिले के पश्चिमी भागों में फैली हुई है । यह लाल व पीली मृदाओं का मिश्रण है । इस मृदा पर जलवायु व स्थानीय दशाओं का प्रभाव अधिक पड़ा है । इनका निर्माण ग्रेनाइट, शिस्ट, नीस आदि चट्‌टानों के टूटने से हुआ है । इनमें कार्बोनेट, ह्यूमस और नमक की कमी तथा कैल्सियम कार्बोनेट का अभाव पाया जाता है ।

मृदा के इस क्षेत्र में अन्य मृदा के वर्ग भी पाए जाते हैं जो निम्न प्रकार हैं:

(अ) रेतीली मृदा:

इस क्षेत्र का भूदृश्य, पहाड़ियों, चट्‌टानी दृश्यों व रेत के टीलों के कारण बहुत उबड़-खाबड़ है । मृदा रेतीली से दोमट रेतीली है, जिसमें रेत की मात्रा 75 से 90 प्रतिशत होती है । हल्की पीली मृदा भी मिलती है जो खुली, मुलायम और भुरभुरी है जिसके कारण इसमें जल को सोखने की क्षमता बहुत अधिक है । अजमेर जिले में रेतीली मृदा है । कहीं-कहीं बालुका-लूप और चट्‌टानें भी मिलती हैं ।

(ब) सतही अथवा छिछली मृदा:

चट्‌टानी क्षेत्रों में चट्‌टानी सतह से ऊपर 30 सेन्टीमीटर से 120 सेन्टीमीटर की गहराई तक यह मृदा मिलती है यह दोमट रेतीली दोमट एवं हल्की भूरी से पीली भूरी मृदाओं के रूप में मिलती है । इन मृदाओं में 65 से 85 प्रतिशत तक रेत का मिश्रण होता है । अरावली पहाड़ों के ढालों पर कम गहराई की मृदा पाई जाती है जिसके कण अपेक्षाकृत बड़े और रंग कुछ भूरा होता है ।

(स) गहरी मध्यम भारी मृदा:

यह मृदा काफी गहरी है । पार्श्व रचना से यह पूर्ण विकसित स्तम्भीय खण्ड के रूप में दिखाई देती है । यह काफी कठोर और सुदृढ़ मृदा है जिसमें पानी आसानी से प्रवेश नहीं कर पाता है । इसका रंग भूरे से गहरा भूरा, हल्का भूरा होता है ।

(6) लाल दोमट मृदा:

इस प्रकार की मृदा राज्य के दक्षिणी जिलों डूंगरपुर, उदयपुर के मध्य व दक्षिणी भाग में मिलती है । इसका निर्माण कायान्तरित और प्राचीन स्फटकीय चट्‌टानों से हुआ है । इसमें गहराई और उर्वरा शक्ति में विषमता मिलती है अतः इसमें विभिन्न कृषि फसलें उत्पादित की जा सकती है ।

इस मृदा का रंग लौह कण के सम्मिश्रण के कारण लाल है । इसमें औसत रूप में नाइट्रोजन, फास्फोरस और ह्यूमस आदि कम पाए जाते हैं । इसमें गठन, रन्ध्रयुक्त संरचना तथा उपजाऊपन के आधार पर विषमताएँ देखने को मिलती है ।

(7) मिश्रित लाल व काली मृदा:

यह मृदा लाल व काली मृदा का मिश्रण है जो चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा, भीलवाड़ा व उदयपुर जिलों के दक्षिण-पूर्वी भागों में पाई जाती है । काली मृदा मालवा के पठार की मृदा व विस्तार है तथा लाल मृदा ग्रेनाइट और नीस चट्‌टानों से निर्मित है । यह बलुई मटियार अथवा बलुई दोमट के रूप में मिलती है ।

इसमें साधारणतया फास्फेट, नाइट्रोजन, केल्शियम और कार्बनिक पदार्थों की कमी पाई जाती है । स्थानिक रूप से इसकी गहराई और उर्वरा शक्ति में भिन्नता पाई जाती है । काली मटियारी मृदा में कृषि अच्छी होती है तथा दूसरी ओर कंकरीली लाल मृदाओं की किस्म अच्छी नहीं होती है । सामान्यतया यह मृदा उपजाऊ है ।

(8) मध्यम काली मृदा:

इस मृदा का विस्तार राज्य के दक्षिण-पूर्वी जिले-झालावाड, बूंदी, कोटा आदि में है । झालावाडू, कोटा व बूंदी जिलों में यह मृदा गहरे भूरे रंग की मिटियारी और दोमट के रूप में पाई जाती है । इस मृदा क्षेत्र का सामान्य ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर होने के कारण काली व कछारी मृदाओं का मिश्रण नदी घाटियों में पाया जाता है । इस मृदा में फास्फेट, नाइट्रोजन व जैविक पदार्थों की कमी होती है किन्तु चूना व पोटाश की मात्रा अधिक होने से यह अधिक उपजाऊ है ।

यह मृदा धनिया व हल्दी की खेती के लिए वरदान सिद्ध हुई है, सतही रंग के आधार पर इस मृदा को निम्न वर्गों में विभाजित किया गया है:

(अ) भारी मृदा:

यह मृदा सतह पर चिकनी है किन्तु नीचे की परतें मटियारी और दोमट के रूप में पाई जाती है । यह काफी गहराई तक धूसर भूरे से गहरी धूसर भूरे रंग के रूप में मिलती है तथा निम्नतम गहराई की परतों में यह पीली भूरी रंग में पाई जाती है ।

(ब) मध्यम भारी मृदा:

इस मृदा का सतही रंग धूसर भूरे से भूरे रंग के मध्य होता है तथा सतही गठन काफी सरल होता है ।

(स) पीली और लाल हल्की मृदा:

यह मृदा सतह पर पीले व हल्के लाल रंग की होती है, लेकिन गहराई के साथ इसके रंग में विभिन्नता आती जाती है । इस मृदा में 1 से 6 प्रतिशत तक चूर्णमयी कंकड़ पाए जाते हैं ।

राजस्थान की जनसंख्या:

राजस्थान राज्य में सन् 2001 में कुल जनसंख्या 5,64,73,122 थी । राज्य के जयपुर जिले का जनसंख्या केन्द्रीकरण की दृष्टि से प्रथम स्थान है । राज्य में प्रति एक हजार पुरुषों के अनुपात में स्त्रियों की संख्या 922 है ।

जनसंख्या घनत्व:

राज्य में जनसंख्या घनत्व में काफी भिन्नता मिलती है । उल्लेखनीय है कि राज्य के उत्तर-पूर्वी भाग में सर्वाधिक जनघनत्व तथा अरावली श्रेणी के पश्चिम में प्रतिकूल जलवायुयिक दशाओं के कारण जनघनत्व कम पाया जाता है ।

राज्य के विभिन्न जिलों में जनसंख्या घनत्व को निम्न 5 वर्गों में वर्गीकृत करके विवेचन किया गया है:

1. सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व क्षेत्र:

(400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से अधिक) राज्य के उत्तर-पूर्वी भाग के जयपुर व भरतपुर जिले इस वर्ग में सम्मिलित हैं । जयपुर व भरतपुर जिले का जनसंख्या घनत्व क्रमशः 471 व 414 है । राज्य की राजधानी क्षेत्र समतल व उपजाऊ भूमि पर बसा है तथा आधारभूत सुविधाओं व प्रशासनिक केन्द्र होने के कारण यहाँ जनसंख्या घनत्व सर्वाधिक है । भरतपुर जिले की नवीन कांप मृदा कृषि की दृष्टि से उपयोगी है जिससे जनसंख्या घनत्व अधिक है ।

2. अधिक जनसंख्या घनत्व क्षेत्र:

(300 से 399 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर) इस समूह में अलवर (357), दौसा (384), धौलपुर (324), झुंझुनूं जिला (323) समतल धरातल व निश्चित जलापूर्ति क्षेत्रों पर कृषि पर अधिक ग्रामीण जनसंख्या निर्भर है अतः जनसंख्या अधिक है ।

3. मध्यम उच्च जनसंख्या घनत्व:

(200 से 299 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर) इस समूह में बांसवाड़ा (298), सीकर (296), ड़ंगरपुर (294), कोटा (288), अजमेर (257), राजसमन्द (256), सवाईमाधोपुर (248), गंगानगर (224), करौली (218) जिले सम्मिलित हैं । इन क्षेत्रों में अधिक उत्पादकता व पर्याप्त वर्षा के कारण यहां जन घनत्व अधिक है ।

4. मध्यम निम्न जनसंख्या घनत्व:

(100 से 199 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर) इस समूह में उदयपुर (196), भीलवाड़ा (192), झालावाड (190), बूंदी (160), चित्तौडगढ (166), सिरोही (166), नागौर (157), पाली (147), बारां (146), जालौर (136), जोधपुर (126), हनुमानगढ़ (120), चूरू (114) आदि जिले सम्मिलित हैं, उद्योग-धन्धे खनिज संसाधनों व कृषि उत्पादन के कारण यहाँ धरातलीय जलवायुवीय कठिन परिस्थितियों के बाद भी मध्यम निम्न घनत्व है ।

5. निम्न जनसंख्या घनत्व:

(100 से कम व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर) इस वर्ग में बाड़मेर (69), बीकानेर (61), जैसलमेर (13), मरुस्थलीय जिले सम्मिलित हैं । जीवन के लिए कठिन परिस्थितियों के कारण इन जिलों में बहुत कम जन घनत्व पाया जाता है ।

1999-2001 के दशक में जनसंख्या वृद्धि:

राज्य में 1991-2001 में जनसंख्या वृद्धि दर 28.33 प्रतिशत रही है । यह वृद्धि जैसलमेर जिले में सर्वाधिक 47.52 प्रतिशत तथा बीकानेर, बाड़मेर, जयपुर, जोधपुर जिलों में परिणामस्वरूप सिंचित क्षेत्र में विस्तार होने से जनसंख्या के प्रवास से जनसंख्या वृद्धि हुई है जबकि जयपुर राज्य का प्रमुख प्रशासनिक, राजनैतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक केन्द्र होने से जनसंख्या वृद्धि अधिक हुई है । दूसरी ओर राजसमन्द जिले में गत दशक में न्यूनतम (19.88 प्रतिशत) जनसंख्या वृद्धि दर रही है ।

साक्षरता:

राजस्थान राज्य में साक्षरता का प्रतिशत अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम (61.03%) है । कोटा राज्य का सर्वाधिक साक्षर (74.45% साक्षरता) जिला है । झुंझुनूं व जयपुर में क्रमशः झुंझुनूं (73.61%), सीकर (71.19%), जयपुर (70.63%), और चुरू (66.67%) में साक्षरता पाई गई है । राज्य के दक्षिणी भाग के बांसवाड़ा जिले में न्यूनतम साक्षरता (44.22%) है ।

पुरुष साक्षरता भी सर्वाधिक झुंझुनूं व कोटा जिलों में है यहाँ क्रमशः 86.61 व 86.25% पुरुष साक्षर हैं, इसी प्रकार महिला साक्षरता भी कोटा में सर्वाधिक (61.25%), तत्पश्चात झुंझुनूं में 60.10% है । बांसवाड़ा जिला पुरुष साक्षरता की दृष्टि से (60.24%), जालौर जिला महिला साक्षरता की दृष्टि से (27.53%) निम्नतम स्थान पर है ।

ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या:

राजस्थान राज्य मौलिक रूप से कृषि प्रधान राज्य है अतः 7604 जनसंख्या गाँवों में व 23.88% नगरों में निवास करती है । अजमेर जिले में सर्वाधिक (40.09%) जनसंख्या नगरीय है तथा सर्वाधिक ग्रामीण जनसंख्या राज्य के दक्षिणी भाग के कृषि प्रधान जिलों डूंगरपुर व बांसवाडा (92.76% व 92.28%) में है ।

खेतीहर जनसंख्या:

राज्य की कुल कार्यशील जनसंख्या का 66 प्रतिशत अर्थात् दो-तिहाई भाग कृषि गतिविधियों में संलग्न है । इसमें से 55.37 प्रतिशत काश्तकार हैं जबकि शेष 10.63 प्रतिशत खेतीहर मजदूर हैं । कृषिगत गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की अपेक्षा अधिक है कुल महिला श्रमिकों का 83.46 प्रतिशत भाग कृषिगत गतिविधियों में संलग्न है जबकि पुरुषों का 55.23 प्रतिशत भाग ही कृषिगत गतिविधियों में कार्यरत है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में कुल ग्रामीण श्रमिकों का तीन-चौथाई से अधिक (77.30 प्रतिशत) कृषिगत गतिविधियों में कार्यरत हैं । नगरीय श्रमिकों का मात्र 8.46% सर्वाधिक प्रतिशत टोंक नगर में 9.66 प्रतिशत तथा सबसे कम उदयपुर नगर में 0.68 प्रतिशत है । खेतीहर मजदूरों का सर्वाधिक प्रतिशत हनुमानगढ नगर में 3.33 प्रतिशत तथा सबसे कम उदयपुर नगर में 0.33 प्रतिशत है ।

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