भारत में जल प्रबंधन के लिए पहल | Initiatives for Water Management in India in Hindi.
Initiative # 1. कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम (Command Area Development Programme):
यह परियोजना 1973-74 में 5वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान एक क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम के रूप में शुरू की गई थी । कमान क्षेत्र वह क्षेत्र है, जहाँ बाँधों से नहरें निकालकर सिंचाई की जाती है । वर्तमान समय में 29 राज्यों व दो केन्द्र शासित राज्यों में कुल 310 कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जिनसे लगभग 284 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई हो रही है ।
कमान क्षेत्र विकास के अंतर्गत निम्न पहलू शामिल हैं:
i. नहरी सिंचाई के साथ-साथ अन्य सिंचाई साधनों को भी प्रोत्साहन देना एवं सतही जल के साथ-साथ, भूमिगत जल व वर्षा जल के बेहतर उपयोग पर बल ।
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ii. ड्रिप सिंचाई व वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक को भी बढ़ावा देना ।
iii. ऊबड़-खाबड़ भूमि का समतलीकरण किया जाना, जिसके लिए मशीनों की सहायता लेना ।
iv. कृषि के साथ-साथ पशुपालन को भी बढ़ावा देना ।
v. कमान क्षेत्र में कृषि के बेहतर विकास हेतु संरचनात्मक व संस्थागत सुधार करना एवं कृषि की बेहतर पद्धतियों, जैसे मिश्रित शस्यन, फसल-चक्रण, कृषि जलवायु प्रदेशों के अनुरूप फसलों के चयन आदि को बढ़ावा देना ।
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कमान क्षेत्र को लेकर प्रायः विवाद होते ही रहते हैं, क्योंकि सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के उत्पादन में अंतर होता है एवं इससे क्षेत्रीय असमानता में वृद्धि होती है ।
Initiative # 2. कावेरी जल बँटवारा विवाद (Kaveri Water Sharing Dispute):
कावेरी कमांड क्षेत्र के विकास के पश्चात् तमिलनाडु के कृषि उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है । शीत ऋतु में तमिलनाडु में सांबा नामक चावल की खेती होती थी, परंतु गर्मियों में कृषि उत्पादन सामान्यतः नहीं हो पाता था ।
कावेरी कमान क्षेत्र के विकास के पश्चात् तमिलनाडु में जाड़े में सांबा की खेती 6.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में एवं गर्मियों में कुर्रुवई किस्म के चावल की खेती 4.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में हो रही है । यदि कावेरी बाँध से पानी नहीं छोड़ा जाए, तो कुर्रुवई का क्षेत्र मात्र 75,000 हेक्टेयर तक सीमित रह जाएगा ।
1972 ई. में गठित सिंचाई निगरानी समिति के अनुसार कर्नाटक क्षेत्र में 28 सिंचाई परियोजनाएँ विकसित की जा सकती है, परंतु इसके लिए कावेरी जल के प्रवाह को नियंत्रित किया जाना आवश्यक है । इसीलिए वर्तमान समय में दोनों राज्यों के बीच जल के बँटवारे को लेकर विवाद चल रहे हैं ।
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वर्तमान समय में समस्या के समाधान के लिए कावेरी नदी-बेसिन प्राधिकरण बनाया गया है, जो संपूर्ण नदी-बेसिन के विकास का कार्यक्रम तय करेगा । कावेरी निगरानी समिति के अध्यक्ष व केंद्रीय जल संसाधन सचिव डी.वी.सिंह ने 7 दिसंबर 2012 को कावेरी जल विवाद की अधिसूचना दी थी ।
समिति ने कर्नाटक को दिसम्बर में तमिलनाडु के लिए 12 TMC जल छोड़ने का अंतरिम आदेश भी दिया हैं । कनार्टक, तमिलनाडु के अलावा केरल व पुदुच्चेरी भी इस समिति के सदस्य हैं । जून 1990 में प्राधिकरण ने फरवरी, 2007 में सर्वसम्मत निर्णय के अनुसार लोवर बेसिन में 740 TMC जल की उपलब्धता थी ।
Initiative # 3. नदी बेसिन विकास कार्यक्रम (River Basin Development Program):
नदी-बेसिन, संपूर्ण नदी अपवाह क्षेत्र के लिए बनाई जाने वाली परियोजना होती
है । उदाहरण के लिए यदि कावेरी नदी-बेसिन के लिए योजना बनाई जाए तो केरल और कर्नाटक के पर्वतीय भागों में जलविद्युत, कर्नाटक के पठारी भागों में पशुपालन एवं तमिलनाडु व पांडिचेरी के मैदानी भागों में कृषि का विकास किया जा सकता है ।
इस प्रकार संपूर्ण नदी बेसिन क्षेत्र में रहने वाले लोग लाभान्वित होंगे । इसीलिए अब कमान क्षेत्र के स्थान पर नदी-बेसिन विकास की अवधारणा पर अधिक बल दिया जा रहा है ।
ऐसी परियोजनाओं के सफल कार्यान्वयन के लिए नदी बेसिन के जल संसाधनों का सर्वेक्षण जरूरी है । परंतु मुख्य समस्या यह है कि विभिन्न नदियाँ, कई राज्यों से होकर बहती हैं एवं राज्य जल-संसाधनों के बारे में भ्रामक सूचनाएँ दे सकते हैं । साथ ही राज्य सूची का विषय होने के कारण जल-संसाधनों के बँटवारे व उसके उपयोग करने के तरीकों के बारे में विवाद हो सकता है ।
अतः नदी-बेसिन परियोजना को लागू करने के लिए व इसकी प्रभाविता को बढ़ाने के लिए नदी-जल को राष्ट्रीय सूची का विषय बनाने की ओर पहल जरूरी है । वर्तमान समय में 23 वृहद नदी बेसिन व 200 लघु नदी बेसिन हैं, जिन्हें पदानुक्रमित करते हुए विकास की योजनाएँ बनाई जा सकती हैं ।
वाटर शेड विकास वस्तुतः नदी-बेसिन की ही छोटी इकाई के अंतर्गत आता है, जिसमें औसतन 5,00 हेक्टेयर भूमि श्वइल की जाती है ।
Initiative # 4. जल संभरण प्रबंधण कार्यक्रम (Water Supply Management Programme):
यह नदी बेसिन प्रबंधन की लघु स्तरीय इकाई है । कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के विकल्प के रूप में इसे देखा गया है । 8वीं पंचवर्षीय योजना में इसकी व्यवस्थित ढंग से शुरुआत की गई । पारिस्थितिक संतुलन के लिए इस कार्यक्रम में भूमि, जल व वनों के समन्वित प्रबंधन की अनिवार्यता पर बल दिया गया ।
ग्रामीण मंत्रालय व कृषि मंत्रालय के सहयोग से नदी बेसिनों को विभिन्न जल संभरण (वाटर शेड) क्षेत्रों में बाँटने व उसके अनुरूप नियोजन करने का फैसला लिया गया । इसे अंतःप्रादेशिक व अंतरा-प्रादेशिक सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को कम करने, ग्रामीण रोजगार सृजन, गरीबी निवारण आदि में कारगर माना गया है ।
वें पंचवर्षीय योजना में हनुमंत राव कमिटी व मोहन धारिया कमेटी की अनुशंसा को आधार बनाते हुए 2 अक्टूबर 2002 से इसे राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में मान्यता दी गई । इसकी सफलता के लिए इसे पंचायती राज व्यवस्था से जोड़ा गया । 10वीं पंचवर्षीय योजना में ‘हरियाली’ नामक राष्ट्रीय कार्यक्रम आरम्भ किया गया, जो जल संभरण प्रबंधन से ही संबद्ध है ।
आंध्र प्रदेश में ‘नीरू-मीरू’ एवं राजस्थान के अलवर में ‘पानी संसद’ भी पर्याप्त सफल रहे हैं । वर्तमान समय में नदी बेसिन के लिए औसतन 500 हेक्टेयर क्षेत्र में प्रबंधन की इकाई बनाया गया है । जल संरक्षण, वाटर हार्वेस्टिंग, वानिकी, मत्स्यन, लघु सिंचाई, लघु पेयजल आपूर्ति आदि इसके उद्देश्यों में शामिल हैं ।
जल संभरण क्षेत्रों के चयन के लिए क्षेत्र सर्वेक्षण हेतु सुदूर संवेदन की भी मदद ली जा रही है ताकि उच्चावच, मृदा, जल संसाधन, भू-उपयोग आदि की बेहतर जानकारी मिल सके ।
Initiative # 5. रेन वाटर हार्वेस्टिंग (Rainwater Harvesting):
यह वर्षा जल के अधिकाधिक उपयोग की एक विधि है । इसमें यह प्रयास किया जाता है कि वर्षा जल की हर बूँद मानव के उपयोग में आ जाए । इसके लिए प्राकृतिक व कृत्रिम गड्ढों, कुओं तथा तालाबों में जल के संग्रह, मकान की छतों पर वर्षा जल के जमाव व उससे संबद्ध टैंकों में उसके भंडारण के प्रयास किए जाते हैं । इससे जल के अभाव के समय संग्रहित जल का उपयोग सम्भव है ।
वर्षा जल के संग्रहण की इस विधि से भूमिगत जल के भंडारों में वृद्धि होती है । साथ ही बाढ़ नियंत्रण व सूखे के प्रभाव को कम करने में भी इससे मदद मिलती है । यह एक कम लागत वाला व पर्यावरण मित्र तकनीक है जो टिकाऊ विकास की दिशा में पर्याप्त महत्व रखता है ।
वर्तमान समय में अधिकतर राज्य इसे प्रोत्साहन दे रहे हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायती राज की भी इसमें भूमिका निर्धारित की गई है एवं उन्हें जल-पंचायतों के रूप में कार्य करने के निर्देश दिए गए हैं । इससे ग्रामीण स्तर पर जल के अभाव को कम करना सम्भव हो सकेगा ।
Initiative # 6. नीरांचल : राष्ट्रीय जलसंभर प्रबन्धन परियोजना (Neeranchal – National Watershed Management Project):
7 अक्टूबर, 2015 को विश्व बैंक की सहायता प्राप्त ‘राष्ट्रीय जलसंभर प्रबंधन परियोजना-नीरांचल’ को 2,142.30 करोड़ रुपये (357 मिलियन डॉलर) के परिव्यय के साथ स्वीकृति प्रदान की गई । प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के जलसंभर घटक के लिए ‘नीरांचल’ परियोजना पूववर्ती एकीकृत जलसंभर प्रबंधन कार्यक्रम के स्थान पर लाई गई है ।
यह परियोजना राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ नौ राज्यों- आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तेलगांना में क्रियान्वित की जाएगी । इस परियोजना की 2142.30 करोड़ रुपये की कुल लागत में सरकार का हिस्सा 50 प्रतिशत होगा जबकि शेष राशि विश्व बैंक से ऋण घटक के रूप में प्राप्त होगी ।
इससे भारत में जलसंभर और वर्षा सिंचित कृषि क्षेत्र प्रबंधन के तौर-तरीकों में संस्थागत बदलाव आएंगे । इससे ऐसी विशेष प्रणालियाँ सृजित की जा सकेंगी, जो जलसंभर कार्यक्रमों तथा वर्षा सिंचित सिंचाई प्रबंधन के तौर-तरीकों को और बेहतर केंद्रित एवं अधिक समन्वित कर मापन योग्य परिणाम उपलब्ध कराने में सहायक सिद्ध होगी ।
Initiative # 7. राष्ट्रीय जल-ग्रिड (National Water Grid):
राष्ट्रीय जल-ग्रिड की संकल्पना सबसे पहले प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया ने दिया था । 1972 में के. एल. राव ने इस दिशा में गंगा-कावेरी लिंक नहर की संकल्पना की जिसमें 17 हिमालयी व 19 प्रायद्वीपीय नदियों को जोड़ने की योजना थी, पंरतु ढाल प्रवणता व अत्यधिक व्यय को इसके विकास में बाधा माना गया ।
2002 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने इस बात पर बल दिया कि बाढ़ व सूखे से निजात पाने के लिए भारत की प्रमुख नदियों का जोड़ा जाना जरूरी है ।
इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी विभिन्न राज्यों के बीच नदी जल बँटवारे को लेकर बढ़ते विवादों के मद्देनजर सरकारों को यह निर्देश दिया कि देश भर की नदियों को आपस में जोड़ने के हर सम्भव प्रयास किए जाएँ तथा 10 वर्षों के अंदर इस लक्ष्य को पूरा किया जाए । 2016 तक इसे पूरा किया जाना है ।
राष्ट्रीय विकास एजेंसी (NWDA) ने इस परिप्रेक्ष्य में उत्तर के नदी बेसिन को दक्षिण के नदी बेसिनों से जोड़ने तथा पूर्व के नदी बेसिनों को पश्चिम के नदी बेसिनों से जोड़ने के लिए व्यावहारिक रणनीति बनाने के प्रयास किए ताकि राष्ट्रीय जल-ग्रिड का निर्माण किया जा सके ।
इसके अन्तर्गत 14 हिमालयी तथा 16 प्रायद्वीपीय अर्थात् कुल 30 ऐसी नदियों की पहचान की गई है, जो एक से अधिक राज्यों से होकर गुजरती हैं । इन नदियों को लिंक-नहरों के माध्यम से जोड़ा जाना है जिससे राष्ट्रीय जल ग्रिड निर्मित होगा ।
निर्माणाधीन परियोजनाओं सतलज-व्यास लिंक, ब्रह्मपुत्र-गंगा लिंक, घाघरा-यमुना लिंक, गंगा-सुवर्ण लिंक, यमुना-राजस्थान लिंक आदि प्रमुख हैं । लघु स्तर पर कुछ छोटी परियोजनाएँ पूरी भी हो चुकी हैं, जिनमें से पेरियार, डायवर्जन, परम्बीकुलम-अलियार लिंक, कुर्नूल-कडप्पा लिंक, केन-बेतवा लिंक परियोजना व इंदिरा गांधी नहर परियोजना शामिल है ।
इन लिंक परियोजनाओं से बेहतर जलापूर्ति सम्भव होगी जिनसे बाढ़ व सूखे की समस्या का समाधान सम्भव होगा । खाद्यान्न व कृषि उत्पादन बढ़ेंगे, जल विद्युत का उत्पादन होगा तथा देश के आर्थिक विकास में गति आएगी । सस्ते व पर्यावरण-मित्र जल-परिवहन का विकास होगा । राष्ट्रीय जल-ग्रिड का निर्माण भू-राजनीतिक उद्देश्य से भी महत्वपूर्ण है ।
पंरतु इसके निर्माण हेतु लगभग 5 लाख करोड़ रुपये के भारी निवेश की आवश्यकता है । इसके अलावा जल संसाधनों के ठीक से सर्वेक्षण नहीं होने पर नए जल-विवादों के उभरने की आशंका भी है । बड़े पैमाने पर विस्थापन व पर्यावरणीय मुद्दे भी इसके निर्माण में बाधा हैं । अतः उपर्युक्त समस्याओं को ध्यान में रखते हुए ही राष्ट्रीय जल-ग्रिड का विकास किया जाना जरूरी है ।
Initiative # 8. नदी जोड़ों (फिजिबिलिटी रिपोर्ट) (River Links Feasibility Report):
केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर नदी जोड़ी परियोजना की ताजा स्थिति बताते हुए कहा है कि हिमालय क्षेत्र में शारदा-यमुना और घाघरा-यमुना लिंक की भारतीय क्षेत्र में संभावनाओं पर फिजिबिलिटी रिपोर्ट तैयार कर ली गई है ।
हिमालय क्षेत्र की नदियों के पाँच और लिंक यमुना-राजस्थान, गंगा-दामोदर-सुवर्णरेखा, सुवर्णरेखा-महानदी, चुनाव-सोन बैराज तथा फरक्का-सुन्दरवन का सर्वे और जाँच पूरी हो चुकी है । राजस्थान-साबरमती लिंक, सोन बाँध-दक्षिण में गंगा की सहायक नदियाँ, गंडक-गंगा और कोसी-घाघरा का भारतीय क्षेत्र का सर्वे और जाँच का काम भी जल्द पूरा कर लिया जाएगा ।
सरकार का मानना है कि कोसी-मेची लिंक का पूरा भाग नेपाल में पड़ता है, इसलिए इनके सर्वे और जाँच का काम नेपाल सरकार की सहमति से ही शुरू हो सकता है । हिमालय क्षेत्र के पाँच लिंक कोसी-मेची, कोसी-घाघरा, गंडक-गंगा, घाघरा-यमुना और शारदा-यमुना को जोड़ना नेपाल में कोसी के जल संग्रह पर निर्भर होगा ।
बाकी के दो जोड़ मानस-संकोश-तीस्ता-गंगा और जोगीघोपा-तीस्ता-फरक्का लिंक भूटान में मानस और संकोश नदियों के जल संग्रह पर निर्भर करेगा । उपर्युक्त दो नदी परियोजनाएँ पड़ोसी देश नेपाल व भूटान पर निर्भर हैं ।
नहरी सिंचाई मैदानी भागों में अधिक है जबकि पठारी भागों में कम:
चूँकि प्रायद्वीपीय चट्टानें कठोर हैं अतः उनका कटाव आसनि से संभव नहीं है । इस प्रकार इन क्षेत्रों में नहरों का निर्माण करन अत्यंत खर्चीला कार्य है । साथ ही पठारी भागों की नदियाँ सतत्-वाहिनी नहीं हैं जिससे उन पर निर्मित बाँधों में जल प्रवाह की निश्चित मात्रा को बनाए रखना कठिन है ।
पठारी भागों में कृषि क्षेत्र का आकार छोटा है तथा एक जगह बड़े उपजाऊ क्षेत्र नहीं मिलते । यहाँ विभिन्न कृषि भूमियाँ असमान रूप से वितरित हैं । इस प्रकार नहरी सिंचाई में होने वाले निवेश के अनुरूप लाभ की प्राप्ति संभव नहीं है । यही कारण है कि पठारी भाग में नहरी सिंचाई का विकास कम हुआ है ।
तालाब सिंचाई पठारी प्रदेशों में अधिक मिलते हैं:
चूँकि यहाँ उपजाऊ भूमि कम है, एवं विस्तृत क्षेत्रों में फैला हुआ है, अतः नहरी सिंचाई के विकास से यहाँ पर्याप्त लाभ नहीं मिल सकता है । साथ ही पठारी प्रदेशों में प्री-कैम्ब्रियन काल के ज्वालामुखी कैल्डेरा से बने प्राकृतिक गड्ढे भी हैं, जो तालाबों का कार्य करते हैं ।
सतह के ठोस होने के कारण यहाँ तलीय रिसाव भी काफी कम होता है । यही कारण है कि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक आदि प्रदेशों में तालाब सिंचाई अधिक प्रचलित है । तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले को तालाबों का जिला भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ लगभग 25,000 तालाब हैं ।
भारत में भूमिगत जलस्तर में ह्रास का कारण:
प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास पर अधिक बल दिए जाने एवं बहुउद्देशीय बाँध बनाए जाने के पश्चात् भारत में नहरी सिंचाई का तेजी से विकास हुआ । परंतु 1967 के अकाल के बाद यह महसूस किया गया कि कृषि विकास के लिए नहरी सिंचाई ही पर्याप्त नहीं है ।
इसी कारण 1967-76 के दौरान भूमिगत जल के प्रयोग अर्थात् कुआँ, नलकूप, डीजल पम्पसेट आदि पर विशेष ध्यान दिया गया । 1951 में जहाँ नलकूपों की संख्या मात्र 2,500 थी वहीं 2001 ई. में यह बढ़कर लगभग 30 लाख हो गई । इसी प्रकार डीजल पम्पसेटों का प्रयोग काफी तेजी से बढ़ा ।
1951 ई. में यह 0.8 लाख था जो 2001 ई. में बढ़कर लगभग 50 लाख पहुँच गया । इस प्रकार सिंचाई सुविधाओं का पर्याप्त विस्तार हुआ । वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा के क्षेत्रों में कुआँ, नलकूप व पम्पसेटों का उपयोग अधिक हो रहा है ।
पठारी भागों में काली मिट्टी प्रदेश में भी नलकूपों के द्वारा जल प्राप्त किया जा रहा है एवं इससे महाराष्ट्र में गन्ने की खेती संभव हो सकी है । परंतु इसके परिणामस्वरूप भूमिगत जलस्तर में काफी तेजी से ह्रास भी हुआ है जिससे नवीन पारिस्थितिक संकट उत्पन्न होने की आशंका है ।
Initiative # 9. राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (National River Conservation Plan):
इसके अंतर्गत 34 नदियों के संरक्षण की योजना है, जो भी 20 राज्यों एवं 160 शहरों तक फैली हुई है । इस योजना में गंदे जल को शोधित करना, नदी तट विकास कार्य, वृक्षारोपण व नदी के स्वच्छीकरण से संबंधित जागरूकता पैदा करना जैसे कार्यक्रम शामिल हैं ।
इस योजना के अंतर्गत गंगा, यमुना, गोमती व दामोदर नदियाँ शामिल नहीं हैं क्योंकि यह नदियां गंगा कार्य योजना एवं यमुना कार्य योजना के अंतर्गत आती
हैं । केन्द्र सरकार ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है तथा इस ऐतिहासिक नदी को प्रदूषण से बचाने के लिए ‘गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ (GRBA) का गठन फरवरी 2009 में किया गया ।
प्रधानमंत्री के अध्यक्षता में गठित इस प्राधिकरण में गंगा नदी बेसिन के राज्यों उत्तराखंड, उत्तर-प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री को भी शामिल किया गया है ।
यह प्राधिकरण 1985 में शुरु किए गए ‘गंगा एक्शन प्लान’ के सफल नहीं होने के कारणों को समझते हुए गंगा नदी को भारत की धरोहर के रूप में आम जन के बीच लोकप्रिय बना रहा है एवं इसे प्रदूषण मुक्त बनाए रखने व इसके जल के सयंमित उपयोग को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा ।
5 अक्टूअबर, 2009 को हुई इसकी पहली बैठक में गंगा नदी को 2020 तक प्रदूषण मुक्त करने का लक्ष्य रखा गया है । इस नए ‘क्लीन गंगा मिशन’ में 15 हजार करोड़ रु. के व्यय का अनुमान है ।
Initiative # 10. ड्रिप सिंचाई (Drip Irrigation):
लघु सिंचाई परियोजना के अंतर्गत की जाने वाली यह सिंचाई प्रणाली शुष्क कृषि व बागवानी के लिए अत्यधिक उपयुक्त है । इस प्रणाली के अंतर्गत सिंचाई संभावित प्रदेशों में पाईप-लाइनों का जाल बिछाया जाता है, जिनसे बूँद-बूँद करके पौधों की जड़ों तक पानी पहुँचता रहता है । इस पद्धति से जल की खपत में 30-40% तक की कमी होती है एवं उत्पादकता में 25-30% तक की वृद्धि देखी गई है ।
इस प्रकार जल की बर्बादी को रोकने में भी यह सहायक है । आंध्र प्रदेश के ‘नागार्जुनी कृषि अनुसंधान परिषद’ द्वारा विकसित फर्टीगेशन (Fertigation) विधि को अपनाए जाने से आजकल इस पद्धति का महत्व और भी बढ़ गया है क्योंकि इससे पौधों को एक ही समय में उचित मात्रा में खाद व पानी दोनों ही पहुँचाए जा सकते हैं ।
वर्तमान समय में यह सबसे ज्यादा राजस्थान में उपयोग में लाया जा रहा है, जहाँ लगभग 25,000 हेक्टेयर क्षेत्र इससे सिंचित है । अन्य शुष्क कृषि प्रदेशों व बागवानी क्षेत्रों में भी इसे प्रोत्साहित किया जा रहा है ।
भारत सरकार ने इस प्रणाली को प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक राजकीय सहायता (Subsidy) की व्यवस्था की है जो कि सीमांत किसानों और अनुसूचित जातियों व जनजातियों के मामलों में अधिकतम 25,000 रु. प्रति हेक्टेयर तक है ।
ड्रिप सिंचाई के प्रसार में सबसे बड़ी बाधा इसकी तकनीकी जटिलता व पूँजी निवेश की अधिकता है । यह कृषि भूमि का एक बड़े क्षेत्र का अधिग्रहण कर लेता है । इन सीमाओं के बावजूद बागवानी व शुष्क कृषि प्रदेश के लिए यह अत्यंत उपयोगी है । इससे न सिर्फ जल की खपत में कमी आती है, वरन् कृषि उत्पादकता में भी वृद्धि देखी जा रही है ।
Initiative # 11. राष्ट्रीय जल मिशन (The National Water Mission):
6 अप्रैल, 2011 को देश में जल संरक्षण के मुद्दे को जनांदोलन का स्वरूप प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय जल मिशन को स्वीकृति दी गई । यह जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत कार्यान्वित होने वाले आठ राष्ट्रीय मिशनों में से एक है ।
राष्ट्रीय जल मिशन का प्रमुख उद्देश्य जल का संरक्षण, जल का अपव्यय रोकना तथा समेकित जल संसाधन दिवस और प्रबंधन के जरिए राज्यों के बीच जल का समान वितरण सुनिश्चित कराना है ।
राष्ट्रीय जल मिशन के अन्तर्गत पाँच लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र में जल का एक व्यापक डाटाबेस तैयार करना एवं जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन करना, जल संरक्षण हेतु आम लोगों एवं राज्यों को प्रोत्साहित करना, जल के उपयोग की प्रभाव क्षमता को 20% तक बढ़ाना, जल संचयन के लिए जलाशयों के स्तर को बढ़ावा आदि शामिल है ।