आर्यन का इतिहास: भारत में आर्य आगमन, संस्कृति, युद्ध और धार्मिक व्यवहार | History of Aryan : Aryan Arrival in India, Culture, Wars and Religious Practices in Hindi.
# 1. आर्य संस्कृति का प्रस्तावना (Introduction to Aryan Culture):
वैदिक, ईरानी और यूनानी ग्रंथों के आधार पर तथा विभिन्न आद्य हिंद-यूरोपीय भाषाओं में पाए जाने वाले सजातीय शब्दों की सहायता से आर्य संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं को निर्धारित किया जा सकता है । प्राचीन ग्रंथों में ऋगवेद, जेंद अवेस्ता और होमर रचित इलियड तथा ओडिसी आते हैं ।
इनके तिथि निर्धारण की कसौटियों के बारे में विशेषज्ञों के बीच मतभेद हैं किंतु हमलोग उन तिथियों का सहारा ले सकते हैं जिन्हें विद्वानों ने सामान्यत: स्वीकार किया है । इस दृष्टि से ऋग्वदे को 1500 ई॰ पू॰ में रखा जाता है यद्यपि इसके कुछ अंश 1000 ई॰ पू॰ तक आते हैं । जेंद अवेस्ता की तिथि 1400 ई॰ पू॰ में रखी जाती है और होमर की रचनाओं को 900-800 ई॰ पू॰ के निकट रखा जाता है ।
इन ग्रंथों में ऐसे विवरण नहीं हैं जिन्हें इतिहास की कोटि में रखा जा सकता है । किंतु तो भी इनसे इतिहास की सामग्री प्राप्त हो सकती है । ये ग्रंथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के हैं तो भी वे ऐसे काल में लिखे गए थे जब तांबे और कांसे का प्रयोग चल रहा था । होमर की रचनाओं के परवर्ती अंशों में लोहे की भी चर्चा है ।
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सामान्यतः ग्रंथों से पता चलता है कि लोगों की जीविका मुख्यतः खेती और पशुपालन से चलती थी । ग्रंथों और सजातीय शब्दों से आर्य संस्कृति के प्रमुख लक्षण जाने जाते हैं । आर्य जन शीतोष्ण जलवायु में रहते थे । वे घोड़े पालते थे जिनका प्रयोग छकड़ा चलाने और सवारी करने दोनों में होता था ।
कुछ ग्रंथों से पता चलता है कि वे छकड़े में आरे वाली पहियों का इस्तेमाल करते थे । वे तीर-धनुष से लड़ते थे और तीरों को तरकस में रखते थे । उनके समाज में पुरुष की प्रधानता थी ।
वे शव को गाड़ते थे किंतु जलाते भी थे । ईरान और भारत में रहने वाले हिंद-यूरोपीय भाषा-भाषी अग्नि-पूजा करते थे और सोमरस का पान करते थे । सभी हिंद-यूरोपीय समुदायों में पशुबलि प्रचलित थी । पर आर्य संस्कृति की सबसे प्रमुख विशेषता हिंद-यूरोपीय भाषा थी ।
प्रश्न उठता है कि इन विशेषताओं को कहाँ और कब की पुरातात्त्विक संस्कृति में खोजा जाए । जहाँ तक प्राचीन ग्रंथों में वर्णित आर्य संबंधी विषयवस्तु का संबंध है, उसे उत्तर नवपाषाण युग तथा प्रारंभिक कांस्य युग में रखा जा सकता है । भूगोल की दृष्टि से हम पूर्वी यूरोप एवं मध्य एशिया पर विचार कर सकते हैं क्योंकि इनका भौगोलिक संबंध भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, अनातोलिया और यूनान से है ।
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प्राचीन काल से ही इस विशाल क्षेत्र में विभिन्न समुदाय के लोग हिंद-यूरोपीय भाषा बोलते थे । सजातीय शब्दों से जिस प्रकार के जलवायु पशु-पक्षी जगत और वृक्षों का पता चलता है उनके आधार पर हम यह कल्पना नहीं कर सकते हैं कि प्रारंभिक आर्य जन गर्म क्षेत्रों में रहते थे । अतएव आर्य संस्कृति की खोज में हमें पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के विशाल क्षेत्र को ध्यान में रखना है ।
# 2. आर्य संस्कृति में अश्व पालन और प्रसारण की प्रक्रिया (Aryan Culture – Horse Rearing and Propagation Process):
आर्य संस्कृति की पहचान में घोड़े का स्थान बहुत ऊँचा है । हिंद-यूरोपीयों के प्रारंभिक जीवन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है । अश्व और इसके सजातीय शब्द संस्कृत अवेस्ता की भाषा, यूनानी, लैटिन और अन्य हिन्द-यूरोपीय भाषाओं में मिलते हैं । वदे और अवेस्ता की भाषा में बहुत-से व्यक्तियों के नाम अश्वकेंद्रित हैं । 1000 ईसा-पूर्व के पहले वैदिक काल में हमें इस प्रकार के पचास घोड़े वाले नाम मिलते हैं और तीस रथ वाले ।
हिरोडोतस ने कुछ ईरानी जनजातियों के नाम बतलाए हैं जो घोड़े के नाम पर हैं । उसी प्रकार 17वीं सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में बेबिलोनिया पर हमला करने वाले कस्सियों के नाम का संबंध भी घोड़े से है । विभिन्न रूपों में ऋग्वेद में अश्व की चर्चा 215 बार है । किसी दूसरे जानवर की चर्चा इतनी बार नहीं है ।
गो की चर्चा 176 बार है और वृषभ (बैल) की चर्चा 170 बार है । गो और वृषभ के बारंबार उल्लेख से जीवनयापन के लिए पशुपालन की प्रधानता प्रतीत होती है । किंतु जहाँ तक सामाजिक संरचना का प्रश्न है गोपालकों पर अश्वधारियों का वर्चस्व था ।
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उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद पर मध्य एशियाई प्रभाव होने के कारण उष्णकटिबंध क्षेत्रों के कई जानवरों की चर्चा नहीं है । इसमें बाघ और गैंडे के नाम नहीं मिलते हैं । गाय बैल और घोड़े के उल्लेखों की तुलना में सिंह हाथी और भैंस की चर्चा बहुत कम हुई है । ऋग्वेद के दो पूरे सूक्तों में घोड़े की प्रशंसा की गई है ।
लगभग सारे वैदिक देवताओं का संबंध घोड़े से है और यह विशेषत: इंद्र और उनके साथी मरुतों पर लागू होता है । यद्यपि वैदिक जन बहुधा प्रजा (संतति) और पशु के लिए प्रार्थना करते हैं, तथापि वे स्पष्ट रूप से घोड़े की कामना करते हैं और कभी-कभी एक हजार घोड़े माँगते हैं ।
अवेस्ता में पशु धन अधिक महत्व का दिखाई पड़ता है किंतु घोड़े का अपना स्थान है । मिश्र देवता की प्रार्थना में घोड़े और रथ के उल्लेख बार-बार आते हैं । सूर्य के विषय में कहा जाता है कि उनके पास तेज चाल वाले घोड़े हैं । बहुत बाद भारत की मूर्तिकला में सात रथ वाले सूर्य की प्रतिमा बहुत जगहों पर दिखाई पड़ती है ।
अपाम् नपात् नामक दूसरे देवता को भी अवेस्ता में तेज घोड़े वाला बतलाया जाता है । इस देवता का उल्लेख ऋग्वेद में भी है । ईरानी धर्म प्रवर्तक जरथुष्ट्र युवा राजा विस्तास्प को आशीर्वाद देते हैं कि उसके पास अनेक घोडे हों । वे देवताओं से प्रार्थना करते हैं कि युवा राजा को तेज घोड़े और शक्तिशाली सुपुत्र प्राप्त हों ।
यह भी ध्यान रखने का विषय है कि विस्तास्प के नाम में ही केवल अस अर्थात् अश्व शब्द का प्रयोग नहीं होता है बल्कि यह शब्द कई और सरदारों और योद्धाओं के नाम में पाया जाता है । ये नाम हैं: पोरसास्य (जरथुष्ट्र के पिता) करेसास्प, गुश्तास्प और गमास्प ।
ईरान के शासक वर्ग के जीवन में घोड़ा ऐसा अभिन्न अंग बन गया था कि धार्मिक अथवा अन्य अपराधों के लिए जिस कोड़े से अपराधियों को मारा जाता था वह अस्फे-अस्त्र कहलाता था । गाथा को अवेस्ता का सबसे प्राचीनतम अंश माना जाता है ।
पर अवेस्ता में इसके कुछ ही अंश पाए जाते हैं और इनमें घोड़े के उल्लेख अधिक नहीं है । किंतु सामान्यतया घोड़े से अवेस्ता का अच्छा परिचय है । साथ-ही-साथ इसमें रथ में लगाने वाले घोड़े और सवारी करने वाले घोड़े के उल्लेख खास तौर पर हैं ।
घोड़े और घोड़े वाले रथ दोनों होमर की रचनाओं में समान रूप से महत्वपूर्ण हैं । इक्वेरी पद वाला सरदार के घोड़े की देखरेख करता था और इस पद का नाम ओडइसी में बार-बार आता है । अतएव वैदिक ईरानी और यूनानी ग्रंथों से स्पष्ट है कि प्राचीन हिंद-यूरोपीय भाषा-भाषी घोड़े से भली-भांति परिचित थे । इसकी पुष्टि पश्चिमी एशिया में दूसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ के कुछ अभिलेखों से भी होती है ।
अश्वपालन का प्राचीनतम पुरातात्त्विक साक्ष्य भारतीय महादेश से काफी दूरी पर मिलता है । पश्चिम में नीपर नदी और पूरब में वोलघ नदी के बीच पालतू घोड़ों की सबसे बड़ी संख्या मिलती है । पुरातत्त्व बतलाता है कि घोड़ा पहले-पहल दक्षिण यूराल क्षेत्र में 6000 ई॰ पू॰ के आसपास मिलता है ।
प्रसिद्ध पुरातत्वविद मेरिजा गिंबुटस का कहना है कि वोल्गा स्टेप के गड़ेरियों ने संभवत: पहले-पहल घोड़े को पालतू बनाया था यद्यपि उसी काल में घोड़े के अवशेष काला सागर के इलाके में भी मिलते हैं । काला सागर के निकट होने के कारण घोड़ा चौथी सहस्राब्दी ईसा-पूर्व अनातोलिया में पाया जाता है ।
तीसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ आते-आते घोड़े काफी संख्या में साइबेरिया में मिलते हैं । दक्षिणी-पूर्वी ईरान में तीसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ के प्रारंभ में एलम की लिपि में घोड़े का भाव-चित्र मिलता है । सुमेर की लिपि में भी इस प्रकार का भाव-चित्र 2500 ई॰ पू॰ के आसपास मिलता है ।
किंतु पश्चिमी एशिया के जीवन में चौथी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ और तीसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ के प्रथमार्द्ध में घोड़े की कोई महत्व की भूमिका दिखायी नहीं पड़ती है । ऐसा लगता है कि तीसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ के अंत में घोड़े की जानकारी दक्षिणी-पूर्वी ईरान के स्याल्क-111 नामक स्थान और दक्षिणी अफगानिस्तान के मुंडिगक नामक स्थान में भी थी । ऐसा लगता है कि पालतू होने के बाद भी घोड़े का व्यापक इस्तेमाल बहुत दिनों के बाद ही हुआ ।
यद्यपि घोड़े की जानकारी छठी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में दक्षिण यूराल और काला सागर के बीच वाले क्षेत्र में हुई, इसका आम इस्तेमाल 2000 ई॰ पू॰ के आसपास आकर हुआ । इसमें संदेह नहीं है कि प्रारंभिक अवस्था में आद्य-ईरानी और आद्य-वैदिक भाषा के बोलने वाले लोग इसका व्यापक इस्तेमाल करते थे ।
इन्हीं के संपर्क में आने के कारण अन्य कबीलों ने घोड़े को अपनाया । हत्तियों के अभिलेख में तथा हिब्रू, अकाड्डी और कॉकेसी भाषाओं में जो घोड़े के लिए शब्द मिलते हैं उनका संबंध अश्व से है । 19वीं शताब्दी ई॰पू॰ के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी एशिया में घोड़े के प्रयोग के अभिलेखीय साक्ष्य मिलते हैं ।
घोड़े पर सवार होकर लोग इराक की सीमा पर हमला करते थे । इस संदर्भ में कस्सियों का उल्लेख नहीं है । यद्यपि उन्हीं के आगमन के कारण 17वीं शताब्दी ई॰पू॰ में इस क्षेत्र में घोड़े आए । बेबीलोनिया में जब पहले-पहल घोड़ा आया तो वहाँ के लोग उसे पहाड़ी गधा के नाम से पुकारते थे ।
युद्ध-रथ (War Chariot):
हिंद-यूरोपीय रथ चलाने में घोड़ों का प्रयोग खूब करते थे और इस बात की जानकारी वैदिक ग्रंथ अवेस्ता और होमर की रचनाओं से मिलती है । परवर्ती वैदिक ग्रंथों में वर्णित वाजपेय यज्ञ में रथों की जिस दौड़ की चर्चा की गई है वह दौड़ यूनान में भी प्रचलित थी और होमर ने इसका पूरा वर्णन किया है । आद्य हिंद-यूरोपीय भाषा में रथ के लिए दो शब्द मिलते हैं । उनमें से प्रत्येक आधे दर्जन हिंद-यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित हैं ।
उसी प्रकार धुरी जोत और नाभि के लिए जो सजातीय शब्द हैं वे छह हिंद-यूरोपीय भाषाओं में पाए जाते हैं । कई हिंद-यूरोपीय भाषाओं में घोड़े पर चढ़ने के लिए एक ही प्रकार की क्रिया मिलती है । उसी तरह हत्ती और संस्कृत में रथ जोतने के लिए जिन शब्दों का व्यवहार होता है, वे एक प्रकार के हैं ।
आद्य हिंद-यूरोपीय भाषा में पहिए के लिए दो अलग-अलग शब्द हैं । संभवतः दो में से एक शब्द उनका अपना नहीं है । इसे व्यापार और दूसरे प्रकार के अन्य संपर्क के कारण हिंद-यूरोपीयों ने पश्चिमी एशिया से सीखा ।
किंतु पहिया वाली गाड़ी स्टेपवासियों के जीवन में इस तरह समा गई कि इसके लिए जो उधार लिया हुआ शब्द है वह भी कई हिंद-यूरोपीय भाषाओं में फैल गया । यह कहा जाता है कि चौथी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में पश्चिम एशिया में चक्केवाला रथ का आरंभ हुआ और उसी समय यह दक्षिण रूस के स्टेपों में पहुँचा ।
दक्षिण रूस की खुदाइयों में 3000 ई॰ पू॰ से रथ होने का प्रमाण मिलता है । तीसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में दो या तीन पहिएवाले रथ मिलते हैं । मितानी शासकों के नाम से पता चलता है कि 1400 ई॰ पू॰ के आसपास वे रथों का प्रयोग करते थे ।
बहुत-से ऐसे शब्द मिलते हैं जैसे ”दौड़ते रथों का स्वामित्व”, ”रथों का सामना करना” और ”बड़े घोड़ों का स्वामित्व” । हिंद-ईरानी उपाधि ”रथ चालक” की भी चर्चा है । एक मितानी राजा का नाम दशरथ है जिसका अर्थ होता है दस रथों को रखनेवाला ।
भारत के बाहर काठ के पहिए मिलते हैं, किंतु 2000 ई॰ पू॰ तक साधारणतः उनमें आरे नहीं होते थे । हड़प्पाई संदर्भ में मिट्टी के बने खिलौने में पहिए मिलते हैं, किंतु उनका तिथि-निर्धारण ठीक से नहीं हो सकता है । ऐसा लगता है कि वे 2000 ई॰ पू॰ के पहले के नहीं हैं ।
आरे वाले पहिए (Saw Wheels):
उत्तर-पूर्वी ईरान में स्थित हिसार नामक स्थान में और उत्तरी कॉकेसस क्षेत्र में 2300 ई॰ पू॰ के लगभग आरे वाले पहिए मिलते हैं । बेलना जैसे मुहर पर छह आरे वाले पहिए का रथ हिसार में मिला है और इसका समय 1800 ई॰ पू॰ है । यह कहा जाता है कि 19वीं शताब्दी ई॰ पू॰ में हत्ती लोगों ने अनातोलिया जीतने के लिए ऐसे रथों का इस्तेमाल किया जिनमें आरे वाले पहिए थे ।
1500 ई॰ पू॰ आते-आते पूर्वी यूरोप और पश्चिमी एशिया के कई स्थानों में आरे वाले पहिए मिलने लगते हैं । हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो में मिट्टी के बने खिलौने के चक्के में आरे नहीं मिलते हैं । हरियाणा के हिसार जिले में अवस्थित बनावली नामक स्थान में हड़प्पाकालीन आरे वाले पहियों के होने की बात कही जाती है । इस स्थान के उत्खनन आर॰ एस॰ बिष्ट बतलाते हैं कि मिट्टी के पहिए पर कुछ लकीरें हैं जो आरे जैसे लगते हैं । अतएव वास्तव में ये आरे नहीं माने जा सकते हैं । यह भी ध्यान रहे कि बनावली का हड़प्पा चरण 2425-1250 ई॰ पू॰ तक रखा गया है ।
इस लंबे काल में आरे का प्रयोग कब हुआ यह भी नहीं बतलाया गया है । यह भी उल्लेखनीय है कि बिष्ट के प्रकाशित लेखों में इन आरे वाले पहियों की चर्चा नहीं है । सूरज भान भी हिसार जिले के मिथल स्थान में मिट्टी की छोटी चकती के ऐसे टुकड़े का उल्लेख करते हैं जिसमें पाए गए लकीरों से आरे का बोध होता है ।
वे इस चकती का समय 1800 ईसा-पूर्व रखते हैं । किंतु उनकी पुस्तक में दिए गए प्लेट नं॰ -21 पर जो लकीरें दिखलाई गई हैं वे अलंकरण जैसा दिखती हैं । जो भी हो हिसार जिले के दोनों स्थानों में आरे वाले चक्के तब मिलते हैं जब परिपक्व हड़प्पाई संस्कृति का अंत हो गया था । लगता है कि हिंद-आर्यों के संपर्क में आने के कारण 2000 ई॰ पू॰ के बाद आरे वाले पहिए मिलने लगे ।
दूसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में घोड़े के अवशेष दक्षिण मध्य एशिया ईरान और अफगानिस्तान में पाए जाते हैं । 1500 ई॰ पू॰ आते-आते घोड़े और रथ की आकृतियाँ किरगिजिया, अल्लाई क्षेत्र, मंगोलिया, पामीर पहाड़ और सबसे बढ़कर तजिकिस्तान में मिलती है ।
भारतीय उपमहादेश में घोड़े के अवशेष (Horse Residues in the Indian Sub-Continent):
तीसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ वाले घोड़े के कुछ अवशेषों की उपमहादेश में होने की चर्चा की जाती है किंतु ये सभी संदेहास्पद लगते हैं । रिचर्ड मिडो नामक अमेरिकी पुरातत्वविद ने अवशेषों का ठीक से अध्ययन किया है और उनके अनुसार 2000 ई॰ पू॰ तक उपमहादेश में घोड़े की हड्डियों के मिलने का स्पष्ट प्रमाण नहीं है । उनका कहना है कि बलूचिस्तान के कोची मैदान में अवस्थित पिराक में सच्चे घोड़े के मिलने का प्राचीनतम साक्ष्य मिलता है ।
जिम जे॰ शैफर का भी यही विचार है और उनके अनुसार पिराक I-II की तिथि 2000 से 1300 ई॰ पू॰ तक पड़ती है । घुड़सवारों की मिट्टी की बनी आकृतियाँ पिराक में पाई गई हैं और उनका समय 1800 से 1300 ई॰ पू॰ तक है । घोड़े के अवशेष और उसके साज-बाज स्वात घाटी में अवस्थित गंधार संस्कृति में 1400 ई॰ पू॰ और उसके बाद मिलते हैं ।
पिराक, गोमल घाटी और स्वात घाटी में घोड़े के आगमन का संबंध इसके प्रसार से है । हड़प्पाई और चित्रित धूसर भांड संस्कृतियों का सम्मिश्रण हरियाणा के भगवानपुरा स्थल में मिलता है जहाँ घोड़े की हड्डियाँ पाई गई हैं । जिन स्तरों में हड्डियाँ पाई गई हैं उनका समय 1400-1000 ई॰ पू॰ है ।
संभवतः सुरकोटदा में पाया गया घोड़ा पिराकी घोड़े का समकालीन था । नगरोत्तर हड़प्पाई चरण में मोहेंजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल और रोपड़ में घोड़ा मिलता है । इधर हड़प्पा की खुदाई 1980 से 1993 तक हुई और धोलावीरा की भी खुदाई चल रही है पर कहीं भी घोड़े के अवशेष मिलने की खबर नहीं है ।
इसी प्रकार हड़प्पा के नगरीय चरण में आरे वाले पहिए भी नहीं मिलते हैं । यह ध्यान रहे कि हड़प्पा की बाद वाली संस्कृतियों में अथवा गैर-हड़प्पाई संस्कृतियों में घोड़े का महत्व था, जैसे गोमल और स्वात की घाटियाँ तथा धूसर भांड वाले स्थान । हस्तिनापुर के चित्रित धूसर भांड वाले स्तर में घोड़े की हड्डियाँ लगभग 500 ई॰ पू॰ में मिलती हैं और इसी भांड वाले स्तरों में उत्तर भारत के कई अन्य स्थानों पर भी मिट्टी के घोड़े मिलते हैं ।
दाह-संस्कार (Cremation):
घोड़े के व्यवहार के साथ-साथ दाह-संस्कार भी आर्य संस्कृति की विशेषता बन गई । वैदिक, अवेस्ताई और होमर वाले साहित्य में इस प्रथा की चर्चा है । यह प्रथा परिपक्व हड़प्पाई संस्कृति में नहीं पाई जाती है । हड़प्पाई लोग मुर्दों को जमीन में गाड़ते थे । फिर इसमें बहुत बदलाव आया ।
यह बदलाव 1500 ई॰ पू॰ के आसपास हड़प्पा स्थित सिमेटरी-एच के पाए गए बरतन में मुद्दे को रखकर गाड़ने की प्रथा से प्रारंभ होता है । कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें समाधियों में जली हुई हड्डियाँ मिलती हैं । पहले लोग सोचते थे कि सिमेटरी-एच की संस्कृति केवल हड़प्पा तक सीमित थी, किंतु अब 72 ऐसे स्थल हैं जहां सिमेटरी-एच वाली सामग्रियाँ पाई जाती हैं ।
सर मार्टिमर ह्वीलर सिमेटरी-एच वाली संस्कृति को हड़प्पोत्तर काल में रखते हैं । विद्वान आमतौर पर स्वीकार करते हैं कि सिमेटरी-एच प्रथा से नए लोगों के आगमन की सूचना मिलती है । दाहोपरांत समाधि बनाने की प्रथा गुजरात की हड़प्पाई संस्कृति में मिलती है, किंतु इस प्रथा का तिथि निर्धारण कठिन है ।
सुरकोटदा का साक्ष्य संदेहास्पद है । अधिक-से-अधिक हम उस प्रथा को 2000 ई॰ पू॰ से पहले नहीं रख सकते हैं और इसी समय से हड़प्पा के नगरोत्तर चरण का प्रारंभ होता है । संभवत: इस प्रथा का प्रारंभ उपमहादेश में बाहरी संपर्क के कारण हुआ ।
यह ठीक है कि हड़प्पाई संस्कृति में चिड़ियों और जानवरों की हड्डियाँ जलाकर गाड़ी जाती थीं किंतु इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि मनुष्य का शरीर भी जलाया जाता था जैसा कुछ लोगों का विचार है । दाह-संस्कार की प्रथा पाँचवी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में प्रारंभ हुई ।
5000-4000 ई॰ पू॰ में इसके उदाहरण पोलैंड, जर्मनी, पूर्वी यूरोप, इराक और उत्तरी मध्य एशिया के कज़खस्तान में मिलते हैं । किंतु अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि घोड़े पालने वाले लोगों ने कब और कहाँ दाह-संस्कार की प्रथा को अपनाया ।
जो भी हो, इसमें संदेह नहीं कि 1500 ई॰ पू॰ आते-आते यह प्रथा यूरोप एवं एशिया दोनों में चल गई और यह पूर्वी मध्य एशिया के चीनी भाग में पहुंच गई । भारतीय उपमहादेश में घोड़े पालनेवालों ने पहले-पहल स्वात की घाटी में इस प्रथा की शुरुआत की ।
बाहरी संपर्क के कारण कुछ हड़प्पाई लोगों ने भी इसे अपनाया होगा पर इसका स्पष्ट प्रमाण अभी तक नहीं मिला है । यह भी ध्यान रहे कि स्वात की घाटी से 500 कि॰ मी॰ की दूरी पर दक्षिण एशिया के तजिकिस्तान देश में यह प्रथा 1400 ई॰ पू॰ के लगभग पाई जाती है ।
# 3. आर्य संस्कृति ओर धार्मिक प्रथाएँ (Religious Practices during the Period of Aryan Culture):
आर्य संस्कृति और अग्नि-पूजा (Fire Worship in the Time of Aryan Culture):
अग्नि-पूजा हिंद-आर्यों और हिंद-ईरानियों की विशेषता मानी जाती है । ऋग्वेद में वेदि की चर्चा है और जदें-अवस्तो में अग्नि-पूजा को बहुत महत्व दिया गया है । कुछ लोग अग्नि-पूजा को हड़प्पाई मानते हैं, किंतु जो ‘अग्नि-वेदियाँ’ गुजरात के लोथल नामक स्थान और राजस्थान के कालीबंगा में पाई गई हैं उनके उत्खनक भी उन्हें सच्ची वेदियाँ नहीं मानते हैं ।
एस॰ आर॰ राव के विचार में लोथल की वेदियाँ चूल्हे हो सकती हैं । कालीबंगा में आग रखने की जगह को बी॰ बी॰ लाल वेदि इसलिए बतलाते हैं क्योंकि इसके लिए कोई और समुचित शब्द उन्हें नहीं मिलता है ।
जो भी हो इतना तो स्पष्ट है कि हड़प्पाई संदर्भ में जिस प्रकार की वेदिकाएँ मिली हैं उनका वर्णन न तो प्राचीन ग्रंथों में मिलता है और न ही उनकी आकृति प्राचीन परंपराओं के अनुरूप है । अग्नि-पुजा प्राचीन काल में अनेक समाजों में होती होगी और इसमें सैंधव सभ्यता को शामिल किया जा सकता है ।
लेकिन यह स्थापित नहीं किया जा सकता कि हड़प्पा की वेदिकाओं का रूप वैदिक वेदियों जैसा है । यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण यूक्रेन में 4000-3500 ई॰ पू॰ में कुछ ऐसे अग्नि-स्थल मिले हैं जिनसे अग्नि-पूजा होने का तो अनुमान होता है पर उन्हें वैदिक अग्नि-वेदी की संज्ञा दी जा सकती है ।
आर्य संस्कृति और पशु-बलि (Cattle Sacrifice in the Time of Aryan Culture):
पशु-बलि आर्य संस्कृति का महत्वपूर्ण अनुष्ठान था किंतु इस तरह से यह पशुचारी जनजातीय समाज में हर जगह पाई जाती है । अतएव इससे कोई बड़ा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है । प्राचीनतम पशुपालक दूध और इससे बनी चीजों को पाने के लिए गाय नहीं पालते थे ।
द्रविड भाषा-भाषी गोंड जनजाति के एक समुदाय का अभी भी यह विश्वास है कि दूध पर वास्तव में बछड़े का हक बनता है, अतएव प्राचीन पशुपालक गाय और अन्य पशुओं को मांस खाने के लिए पालते थे दूध पीने के लिए नहीं । ऐसा लगता है कि मांसाहारी भोजन प्राप्त करने के लिए पशु-बलि की अनुष्ठान का विकास किया गया ।
यूक्रेन और दक्षिण रूस के कब्रों में चौथी और तीसरी सहस्राब्दी ईसा-पूर्व के श्राद्धकर्म में पशु-बलि के अनेक उदाहरण मिलते हैं । दक्षिण मध्य एशिया में दूसरी सहस्राब्दी ईसा-पूर्व और उसके बाद भी इसी तरह के उदाहरण मिलते हैं । ऐसा लगता है कि लागों के जीवनकाल में पशु-बलि प्रचलित थी । मरणोपरांत भी यह अनुष्ठान इसलिए किया जाता था कि मृतकों को परलोक में भोजन मिलता रहे ।
वैदिक समाज में अवश्मेध का विशिष्ट स्थान था । किंतु वेदों के फ्रांसीसी विद्वान लुई नू का मानना है कि अवश्मेध हिंद-यूरोपीय अनुष्ठान था । यह प्रथा प्राचीन रोम और मध्यकालीन आयरलैंड में प्रचलित थी । अश्व-बलि संबंधी प्राचीनतम पुरातात्त्विक प्रमाण उसी प्रकार का है जैसा पशु-बलि के संबंध में है । यूक्रेन और दक्षिण रूस के अनेक कब्रगाहों में एक से अधिक घोड़े की बलि का उदाहरण है ।
इस प्रथा का जन्म पाँचवी सहस्राब्दी ईसा-पूर्व के परवर्ती भाग में हुआ । बाद की सदियों में यह काफी फैल गई और मध्य एशिया में मध्यकाल तक चलती रही । भारत में वैदिक युग में इसे अवश्मेध का रूप दिया गया जिसका वर्णन परवर्ती वैदिक ग्रंथों में विस्तार से है ।
उपमहादेश में प्राक्-वैदिक काल में भी शायद पशु-बलि होती होगी । किंतु अभी तक इसका पुरातात्त्विक साक्ष्य नहीं प्राप्त हुआ है । चूंकि 18वीं शताब्दी ई॰ पू॰ तक भारत में घोड़े के मिलने का पक्का प्रमाण नहीं है, इसलिए इसकी बलि का प्रश्न ही नहीं उठता है ।
पूर्व मध्यकालीन भारत में शक्ति के विभिन्न रूपों की पूजा में भैंसे का बलिदान बड़ा अनुष्ठान बन गया । परंतु यह जानवर पूर्वी यूरोप एवं मध्य एशिया में शायद ही मिलता था, और इसलिए उन क्षेत्रों में भैंसे के मारने का अनुष्ठान प्रचलित नहीं था ।
सोमपान की प्रथा:
सोमपान की प्रथा केवल ईरानी और वैदिक जनों में प्रचलित थी । ”स” का ”ह” में बदल जाने के कारण अवेस्ता में सोम के बदले होम शब्द का प्रयोग होता है । सोम के पौधे की पहचान पर बहुत दिनों से विवाद चल रहा है । किंतु अब इफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते हैं ।
इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियाँ बरतनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर के परिसर में पाए गए हैं । इन बरतनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था । यद्यपि इस पहचान की मान्यता बढ़ रही है तो भी निर्णायक साक्ष्य के लिए खोज जारी है ।
स्वस्तिक:
स्वस्तिक (卐) आर्यत्व का चिह्न माना जाता है । जब जर्मनी में नात्सियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व का प्रतीक घोषित किया तो इसका विश्वव्यापी महत्व हो गया । वैदिक साहित्य में स्वस्तिक की चर्चा नहीं है । यह शब्द ईसवी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है ।
किंतु रेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले-पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है जिसे हड़प्पा से पहले का जाना जाता है और जिसका संबंध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है ।
स्टाइन की दृष्टि में स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है क्योंकि ऐसा प्रतीक भारतीय और पश्चिमी एशिया के संस्कृतियों में नहीं मिलता है । किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले एलम अर्थात् आर्य-पूर्व दक्षिण ईरान में प्रकट होता है । स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई संस्कृति में और अल्तीन-टेपे में पाए गए हैं और उनका समय 2300-2000 ई॰ पू॰ है ।
शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग श्राद्ध वाले बरतनों पर होता था और 1200 ई॰ पू॰ के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो कब्रगाह मिले हैं उनमें कब्र की जगह पर इस प्रकार का चिह्न मिलता है । 800 ई॰ पू॰ के आसपास अलंकरण के रूप में प्रतीक धूसर चित्रित भांडों पर मिलता है जो घरेलू काम में लगाए जाते थे ।
इसलिए स्वस्तिक को प्राक्-वैदिक और प्राक्-हड़प्पाई कहा जा सकता है । ऐसा लगता है कि यह एलम से चलकर बलूचिस्तान, सिंधु घाटी और तुर्कमेनिस्तान में पहुंचा । संभवतः यह तुर्कमेनिस्तान से तजिकिस्तान गया । मौर्य और मौर्योत्तर कला में इसका कैसे प्रयोग हुआ इस विषय की छानबीन की जानी चाहिए ।
# 4. आर्य संस्कृति का मध्य एशिया से प्रसारण (Expansion of Aryans from Central Asia):
मध्य एशिया से मानव प्रसारण की पुष्टि जीवविज्ञानियों के हाल के शोध से होती है । मानव शरीर की रक्त कोशिकाओं (cells) में उत्पत्ति संबंधी संकेतों की खोज हुई है । इन्हें DNA का नाम दिया जाता है । उत्पत्ति संबंधी संकेत आनुवंशिक होते हैं, और वे पुश्त-दर-पुश्त चलते रहते हैं ।
विज्ञानियों के अनुसार कुछ खास तरह के संकेत मध्य एशिया के एक छोर से दूसरी छोर तक 8000 ई॰ पू॰ के आसपास मिलते हैं । इन उत्पत्ति संबंधी संकेतों का नाम M 17 दिया गया है, और ये मध्य एशिया के 40% से अधिक लोगों में मिलते हैं । खोजने पर दिल्ली के 35% से अधिक हिंदी भाषा-भाषियों में M 17 मिला है, पर द्रविड भाषा-भाषियों के केवल 10% आबादी में मिला है ।
इससे स्पष्ट है कि हिंद-आर्य भाषा-भाषी मध्य एशिया से भारत पहुँचे । जीवविज्ञानी हिंद-आर्य भाषा-भाषियों के मध्य एशिया से भारत पहुँचने का समय 8000 ई॰ पू॰ के बाद रखते हैं, पर कोई तिथि निश्चित नहीं करते हैं । पुरातात्त्विकों के अनुसार यह समय 2000 ई॰ पू॰ से आरंभ होता है । भाषाविज्ञानी भी हिंद-आर्य भाषियों का भारत प्रवेश इसी समय के लगभग रखते हैं ।