ब्रिटिश शासन के दौरान गदर का विस्फोट | Explosion of Ghadar during British Rule.
अशांति के प्रथम लक्षण बंगाल में बारकपुर और बरहमपुर में १८५७ ई॰ के प्रारम्भ में दीख पड़े । किन्तु वे शीघ्र ही दबा दिये गये तथा अपराधियों को दंड दे दिया गया । लेकिन १० मई, १८५७ ई॰ को सिपाहियों ने मेरठ में खुल्लमखुल्ला विद्रोह कर दिया । वे भारी संख्या में कैदखानों में घुस पड़े अपने कैदी साथियों को स्वतंत्र कर दिया, कुछ यूरोपियन अफसरों की हत्या कर दी तथा उनके घर जला डाले ।
मेरठ का कमानदार अफसर जनरल हेविट अयोग्य था । उसके अधीन बाईस सौ यूरोपियन सैनिक थे । फिर भी उसने बलवाइयों के दमन का कोई उपाय न किया । बलवाई अगले दिन सुबह को घोड़े दौड़ाते हुए दिल्ली पहुंच गये । वहाँ उस समय एक भी ब्रिटिश रेजिमेंट (सैन्यदल) न था । फलत इसे वे अपने नियंत्रण में ले आये । उन्होंने बहुत-से यूरोपियनों को मार डाला तथा उनके घर नष्ट कर दिये ।
शहर के बाहर के टेलीग्राफ औफिस के दो सिगनलरों (संकेत के द्वारा संदेश भेजनेवालों) ने पंजाब के अधिकारियों के पास तार द्वारा एक संदेश भेज कर उन्हें समय रहते सावधान कर दिया । लेपिटनेट विलोबी बारूदखाने का प्रभारी अफसर था । वह अपने आठ वीर साथियों के साथ कुछ दिनों तक बारूदखाने की प्रतिरक्षा करता रहा ।
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किन्तु अंत में अपने को अभिभूत पाकर उसने इसे उड़ा दिया । इससे बलवाइयों को बहुत घाटा हुआ । फिर भी उन्होंने तुरत महल पर अधिकार कर लिया । उस समय नाममात्र का बूढ़ा बादशाह बहादुर शाह द्वितीय था । अभी भी उसका नाम बहुत के लिए एक समय के प्रतापी मुराल साम्राज्य की लुप्त प्रभा में जादू डालता था ।
बलवाइयों ने उसे ही हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया । दिल्ली अंग्रेजों के हाथ अत्यंत तुमुल संग्राम और कूटनीति के पश्चात् आयी थी । अतएव इसके पतन से ब्रिटिश साम्राज्य की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा ।
करीब तीन हफ्तो की अपेक्षाकृत मुहलत मिल गयी । इसमें पंजाब के चीफ कमिश्नर सर जौन लारेंस ने उस प्रांत को युक्तिपूर्वक शांत रखा । लेकिन दिल्ली के पुन: प्राप्त करने का प्रयत्न अभी हो नहीं पाया था कि जून के प्रथम सप्ताह में करीब-करीब सभी ऊपरी गंगाई प्रांतों और मध्य भारत के कतिपय भागों में विद्रोह उठ खड़े हुए-राजस्थान के नासिराबाद में, रोहिलखंड की बरेली में, कानपुर में, अवध के लखनऊ में बनारस में तथा बिहार के कुछ भागों में ।
बिहार के आंदोलन का नेता आरे के समीप के जगदीशपुर का कुँवर सिंह था । यह आंदोलन पटना डिवीजन (कमिश्नरी) के कमिश्नर विलियम टेलर और बंगाल गोलंदाज फौज के मेजर विंसेंट आयर द्वारा दबा दिया गया ।
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किन्तु इसके बाद कुँवर सिंह बिहार के बाहर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ता हुआ जगह-जगह घूमता रहा । वह १८५८ ई॰ के अप्रैल में पुन: यहाँ (बिहार) लौटा और अपनी मृत्यु, जो २३ अप्रैल १८५८ ई॰ को हुई, के पहले उसने अंग्रेजों के साथ अपने जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ी । बिहार के दूसरे भागों में भी विद्रोह हुए और कुँवर सिंह की मृत्यु के बाद उसका भाई अमर सिंह इस क्षेत्र के विद्रोह का स्वीकृत नेता बना ।
बनारस का विद्रोह प्रथम मद्रास सेना-दल के कर्नल नील द्वारा दबा दिया गया । जो भी बलवाई पकड़े जा सके, सभी नील के द्वारा मौत के घाट उतार डाले गये । आसपास के जिलों को गवर्नर-जनरल ने सैनिक कानून के अंतर्गत रख दिया ।
वहां “क्रुद्ध अफसरों और गैरसरकारी ब्रिटिश रेजिडेंटों द्वारा, जो जल्लादों का काम करने के लिए स्वेच्छापूर्वक आगे बड़े थे, विद्रोही, संदिग्घ व्यक्ति और उच्छृंखल लड़के तक फाँसी पर चढ़ा दिये गये” ।
कैप्टन ब्रेजायर एक छोटी सिख सेना के साथ इलाहाबाद के प्रसिद्ध किले की वीरतापूर्वक प्रतिरक्षा कर रहा था । ११ जून को नील ने आकर उसका उद्धार किया । कानपुर, दिल्ली और लखनऊ में बलवाई बहुत क्रियाशील हो गये ।
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अंग्रेजो के लिए यह सौभाग्य की बात थी कि नर्मदा के दक्षिण के क्षेत्र बिद्रोह से पूरी तर प्रभावित नहीं हुए, यद्यपि कुछ स्थानों पर असंतोष और बेचैनी थी । लार्ड एल्फिस्टन ने बम्बई प्रेसिडेंसी में अपेक्षाकृत शांति बनाये रखी केवल कोल्हापुर में भारतीय रेजिमेंट ने सदर मचा दिया ।
जार्ज लारेंस राजस्थान को शांत रखने में समर्थ हुआ । पंजाब और खासकर इसके सिख सरदार, काश्मीर का गुलाब सिंह तथा बहुत-से जमींदार और भारतीय अफसरकम्पनी के प्रति स्वामिभक्त रहे ।
सिंधिया एवं उसके मंत्री सर दिनकर राव, हैदराबाद के वजीर सर सालार जंग, भोपाल की बेगम तथा नेपाल के योग्य मंत्री सर जंग बहादुर जैसे कतिपय प्रसिद्ध भारतीय शासकों और राजनीतिज्ञों ने आंदोलन के विस्तार के रोकने के संबंध में बहुमूल्य सेवाएँ कीं ।
इस की राय में सिधिंया की स्वामिभक्ति ने “भार को अंग्रेजों के लिए बचा लिया” । होल्म्स, जो भारतीय गदर के इतिहास पर अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक के लिए प्रसिद्ध है, कहता है कि सर सालार जंग ऐसा “आदमी” था, “जिसका नाम अंग्रेजों को सदैव कृतज्ञता और प्रशंसा के साथ लेना उचित है” ।
कानपुर में बलवाइयों का नेता नाना साहब था । वह कानपुर के समीप बिठूर में रहता आया था । उसने अपने को पेशवा घोषित कर दिया । कानपुर स्टेशन का कमानदार पचहत्तर वर्षों का बूढ़ा सर ह्यू व्हीलर था । उसने जल्दीजल्दी में अंग्रेजों के लिए खाइयों तैयार करायीं ।
ये इस ढंग से तैयार हुईं, जिससे प्रभावकारी रूप में प्रतिरक्षा नहीं हो सकती थी । बलवाइयों ने ब्रिटिश खाइयों को घेर लिया । ८ से २६ जून तक घिरा हुआ नगर-रक्षार्थ सैन्यदल भयंकर कष्ट और कठिनाई के बीच वीरतापूर्वक अपनी प्रतिरक्षा करता रहा ।
सैन्यदल में करीब चार सौ आदमी हथियार धरने लायक थे तथा कुछ औरतें और बच्चे थे । जब उन्हें सुरक्षापूर्वक इलाहाबाद पहुँचाने के आश्वासन दिये गये; तब २७ जून को उन्होंने आत्म-समर्पण कर दिया । लेकिन इस नगर-रक्षक ब्रिटिश सैन्यदल को घोखा दिया गया । ज्यों ही यह सैन्यदत नावों पर चढकर यह स्थान छोड़ रहा था, त्यों ही सती चौड़ा घाट पर उनपर खूनी गोलियों चलायी गयीं ।
परिणाम यह हुआ कि अधिकांश आदमी नदी तट पर मार डाले गये । केवल चार बचकर भाग सके । बड़ी संख्या में स्त्रियाँ और बच्चे बीबीगढ़ नामक मकान में कैद थे । वहाँ नाना साहब के सैनिकों द्वारा वे १५ जुलाई को क्रूरतापूर्वक मार डाले गये ।
उनकी लाशें एक कुएँ मैं फेंक दी गयीं । नाना साहब को इस हत्याकाण्ड के लिए अपराधी ठहराया गया है । उसका तर्क था कि उसे इसकी जानकारी नहीं थी । किन्तु “जबतक यह निश्चित रूप से सिद्ध नहीं हो जाता है कि उसे इसकी कोई जानकारी नहीं थी तबतक उसे हत्या को नजरअन्दाज (Connivance) करने के अभियोग से मुक्त नहीं किया जा सकता; और उसे इस लज्जाजनक काम की बदनामी सहनी पड़ेगी ।”
यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है कि किस अंश तक ये नृशंसतापूर्ण दुष्कर्म बनारस और इलाहाबाद में ब्रिटिश एवं सिख सैनिकों के दमनकारी कामों के प्रतिशोध के रूप में थे । कानपुर-हत्याकांड के परिणाम अत्यंत शोचनीय हुए । इससे भारत और इंगलैंड दोनों देशों में स्थित अंग्रेजों के मन में बदला लेने की तीव्र इच्छा धधक उठी ।
हॅवलॉक के अधीन एक बदला लेनेवाली ब्रिटिश सेना उस दु:खपूर्ण घटना के एक दिन बाद कानपुर पहुँची । नील, जो जेनरल हॅवलॉक के नीचे (अधीन) ब्रिगेडियर जेनरल नियुक्त हुआ, २० जुलाई को कानपुर पहुँचा । २७ और २० नवम्बर को ग्वालियर की बलवाई सेना ने कानपुर को अंग्रेजों से पुन: छीन लिया । किन्तु सर कौलिन कैंपबेल ने ६ दिसम्बर को इसपर पुन: अधिकार जमा लिया ।
दिल्ली बागियों के एकत्र होने का एक महत्वपूर्ण केंद्र थी । उसे पुन: प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार को पूरा ध्यान देना आवश्यक हो गया । अंबाला से एक ब्रिटिश सेना उद्धारार्थ चली । मेरठ से आनेवाला एक दल उससे जा मिला ।
संयुक्त सेना ने ८ जून को बदली सारी में बलवाई फौज को हरा दिया तथा दिल्ली नगर के समीप की प्रसिद्ध पहाड़ी पर जा डटी । दिल्ली की बाह्य सीमा पर स्थित ब्रिटिश सैनिको से मिलने के लिए सर जीन लारेंस ने निकोल्सन नामक एक साहसी अफसर के अधीन पंजाब से अतिरिक्त सैनिक भेजे, जिनमें कुछ सिख भी थे ।
विरोधी सेना ने उसका आगे बढ़ना रोकना चाहा, किन्तु निकोल्सन ने उसके प्रयत्न को विफल कर दिया । सर आर्चडेल विलसन, बेयर्ड स्मिथ और नेविल चेंबरलेन से सहायता प्राप्त कर उसने बागियों पर कसकर हमला किया । १४ सितम्बर को काश्मीर गेट उड़ा दिया गया । शहर और महल छ: दिनों की घमासान लड़ाई के बाद कब्जे में आये ।
निकोल्सन को एक सांघातिक चोट लगी । ब्रिटिश सैनिकों ने शहर को लूटा-खसोटा । इस सिलसिले में इसके बहुत-से निर्दोष पुरुष नागरिक तलवार के घाट उतार डाले गये । प्रसिद्ध उर्दू कवि गालिब ने, जो उस समय दिल्ली में था, शोकाकुल होकर लिखा- “यहाँ मेरे सामने रक्त का विशाल सागर है; केवल खुदा ही जानता है कि मुझे अभी और क्या देखना (बदा) है ।”
“बॉम्बे टेलीग्राफ” ने लिखा- “जिस समय हमारे सैनिकों ने नगर में प्रवेश किया, उस समय दीवालों के भीतर पाये गये नगर के सभी लोग उसी जगह संगीन से मार डाले गये । संख्या काफी थी, जैसा कि आप मेरे यह कहने पर समझ सकते हैं कि कुछ घरों में चालीस या पचास आदमी छिप रहे थे ।”
एक भयंकर अश्वारोही-दलीय अफसर लेप्टिनेंट हौडसन ने दिल्ली के नाममात्र के बादशाह बहादुर शाह द्वितीय को हुमायूँ की कब्र पर गिरफ्तार कर लिया । उसके पुत्रों और एक पौत्र ने युद्ध-बंदियों के रूप में हौडसन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया ।
बहादुर शाह द्वितीय रंगून निर्वासित कर दिया गया । वहीं निर्वासन में उसने अपने अंतिम वर्ष बिताये । अंत में सतासी की उम्र में वह १८६२ ई॰ में मर गया । शाहजादे हौडसन द्वारा गोलियों से मार डाले गये ।
हौडसन ने इस काम के लिए अपने को इस युक्ति द्वारा तसल्ली दे दी थी कि वे (शाहजादे) अंग्रेज-पुरुषों और स्त्रियों की हत्या करने के अपराधी थे तथा यदि वे उसके द्वारा किसी सुरक्षा-स्थल के लिए ले जाये जाते, तो बीच ही में भीड़ उन्हें छुड़ा लेती । इस प्रकार मुगल राजवंश समाप्त हो गया ।
इसमें संदेह नहीं कि हौडसन का काम “अत्यंत अनुचित” था । इन आपत्तिग्रस्त व्यक्तियों के विरुद्ध जो अभियोग थे वे किसी निश्चित प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं हुए और न भीड़ द्वारा उन्हें बचाने की ही कोई कोशिश की गयी । मैलेसन कहता है कि “इससे अधिक” पाशविक अथवा इससे अधिक अनावश्यक अत्याचार कभी नहीं किया गया । यह भयंकर भूल थी और था अपराध ।”
लखनऊ में सदर ३० मई को शुरू हुआ । वहाँ मिस्टर जैकसन के बाद सर हेनरी लारेंस चीफ कमिश्नर बनकर आया था । जुलाई का प्रारम्भ होने पर वह सभी यूरोपियनों एवं ईसाइयों और करीब सात सौ स्वामिभक्त सिपाहियों के साथ रेजिडेंसी में चला गया । वहां वह कुछ ही दिनों तक प्रतिरोध करता रहा, क्योंकि बम फूट जाने के कारण वह शीघ्र ही मर गया ।
तब घिरी हुई नगर-रक्षक सेना का कमान ब्रिगेडियर इंगलिस पर आ पड़ा । वह वीरतापूर्वक विविध आक्रमणों से इस स्थान की प्रतिरक्षा करता रहा । अंत में हॅवलॉक और आउट्रम २५ सितम्बर को अत्यंत आवश्यक अति-रिक्त-सेना के साथ संगीन से मारते तथा लड़ाई करके अपना रास्ता निकालते हुए रेजिडेंसी पहुँचे ।
जनरल नील, इस समय लखनऊ में मर गया । इंगलिस, हॅवलॉक और आउट्रम घिरी हुई नगररक्षक सेना के साथ बाहर नहीं निकल सके । उनका अंतिम उद्धार नवम्बर के मध्य में सर केलिन कैंपबेल (पीछे लार्ड क्लाइड) द्वारा हुआ, जो इंगलैंड से अगस्त १८५७ ई॰ में प्रधान सेनापति के रूप में आया था ।
सर कौलिन कैंपबेल ने अवध और रोहिलखंड में विद्रोह का दमन करने के लिए जबर्दस्त उपाय किये । नेपाल के जंग बहादुर से उसे बहुमूल्य सहायता प्राप्त हुई । जंग बहादुर एक शक्तिशाली गर्खा सेना का नायक बनकर उससे आ मिला । फल यह हुआ कि २१ मार्च, १८५८ ई॰ को वह अंतिम रूप से लखनऊ को ब्रिटिश नियंत्रण में ले आया ।
मार्च के अंत में कैनिंग ने इस आशय की घोषणा कर दी “छ: उल्लिखित को तथा अन्य तालुकदारों को जो अपनी स्वामि-भक्ति सिद्ध कर सकेंगे छोड़कर” बाकी सभी तालुकदारों की जमीन छीन ली जाएगी । यह बिलकुल विवेकहीन घोषणा थी । इससे अवध के तालुकदार क्रुद्ध हो उठे ।
वे बहुत समय तक छापामार रण-नीति का प्रयोग करते रहे । मई महीने में रोहिलखंड में स्थित बरेली पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया । उससे वे बहुत ही हतोत्साह हो गये । वर्ष का अंत होते-होते वे पूर्णतया पराजित हो गये । बहुत-से विप्लवकारी ब्रिटिश सिमा पार कर नेपाल भाग गये, जहाँ वे कष्ट के साथ नष्ट हुए ।
इस बीच मध्य भारत में विद्रोहियों को तात्या टोपे नामक मराठा ब्राह्मण में एक योग्य नेता मिल गया था । ग्वालियर के विप्लवी सेना बीस हजार थी । इसके साथ तात्या टोपे ने कालपी में यमुना पार की तथा नाना साहब के सैनिकों से जा मिला । इस समय कानपुर का भार जनरल बिंडहम पर था ।
तात्या टोपे ने उसे पीछे हटा दिया । किन्तु वह सर कौलिन कैंपबेल द्वारा ६ दिसम्बर, १८५७ ई॰ को पराजित हुआ तथा भगा दिया गया । तब तात्या टोपे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से जा मिला तथा मध्य भारत में घमासान लड़ाई करता रहा ।
इस बीच सर ह्यू रोज सदर के सब से दक्षिणी केंद्र बुंदेल खंड में सफल आक्रमण कर रहा था । उसका लड़ाई का मूल स्थान मऊ में था । वहाँ रो वह जनवरी, १८५८ ई॰ के प्रारंभ में ससैन्य रवाना हुआ । उसने सागर में नगर रक्षक सेना का उद्धार किया, फरवरी के प्रारंभ में हाटगढ़ पर कब्जा किया तात्या टोपे को बेतवा नदी पर हराया तथा ३ अप्रैल को झाँसी पर अधिकार जमाया ।
रानी ने ४ अप्रैल की रात में झाँसी का किला छोड़ा । कुछ अनुचरों के साथ वह कालपी पहुँची । इसे भी अंग्रेजों ने २२ मई को ले लिया । अदमनीय रानी और तात्या टोपे तब ससैन्य ग्वालियर को बड़े तथा सिंधिया को आगरे भगा दिया । यह राजा स्वामिभक्त रहा था, किन्तु उसकी सेना ने अब उसे छोड़ दिया । नाना साहब पेशवा घोषित हुआ ।
सर ह्यूरोज ने मराठा विद्रोह के खतरे को महसूस किया । उसने रानी और तात्या के कारनामों के रोकने के लिए तत्काल उपाय किये । उसने विद्रोहियों को मोरार और कोटा में पराजित कर ग्वालियर को पुन: ले लिया ।
झाँसी की रानी, जो सवार के रूप में पुरुष वेश में सज्जित थी, इन्हीं में से एक लड़ाई में १७ जून, १८५८ ई॰ को वीरगति को प्राप्त हुई । तात्या टोपे को एक स्थान से दूसरे स्थान तक खदेड़ा जाने लगा । सिंधिया के एक सामंत मान सिंह ने उसे अप्रैल, १८५९ ई॰ के प्रारंभ में अंग्रेजों को सौंप दिया ।
विद्रोह और हत्या के अभियोगों पर उसे फाँसी दे दी गयी । प्राय: कहा जाता है कि उसे कानपुर के हत्याकांड में हाथ रखने के कारण फाँसी दी गयी थी, जो गलत है । नाना साहब नेपाल के जंगलों में भाग गया ।
जंग बहादुर की एक रिपोर्ट तथा कुछ अन्य रिपोर्टों के अनुसार यह कहा जाता है कि वही सितम्बर १८५९ ई॰ में उसकी मृत्यु हो गयी । किन्तु भारत में उसके प्रत्यागमन तथा भारत से बाहर उसकी गतिविधियों के बारे में अनेक उत्तेजक कहानियाँ और अफवाहें बहुत वर्षों तक प्रचलित रहीं । विद्रोह के मुख्य नेता नेपाल चले गये ।
पेशवा परिवार की महिलाओं ने अपने अंतिम दिन वही बिताये । अवध के बेगम हजरत महल ने भी अपने पुत्र तथा कुछ परिचारकों के साथ वही ठहरने का निश्चय किया । इस प्रकार गदर की कहानी समाप्त हुई, तथा कैनिंग ने समस्त भारत में शांति की घोषणा की ।
भारत और इंगलैड दोनों देशों के बहुत-से लोगों ने माँग की कि “प्रतिशोध की निर्मम और अभेदकारी नीति” बरती जाए । निकोल्सनतक ने कहा कि “दिल्ली की औरतों और बच्चों के हत्यारों के जीवित खाल खींचे जाने, सूली पर चढ़ाये जाने या जलाये जाने” को कानून का रूप दिया जाए । किन्तु कैनिंग पर इस शोर का प्रभाव नहीं पड़ा ।
उसने इस बात पर राजनीतिज्ञोचित बुद्धिमानी और शांत विचार के साथ विचार किया । उसने केवल उन्हीं की उचित सुनवाई और सजा का बंदोबस्त किया जो वास्तव में अपराधी थे ।
इसके लिए वह उपहास में “क्लीमेंसी कैनिंग” कहा गया । किन्तु यह मानना पड़ेगा कि गवर्नर-जनरल की नीति बुद्धिमत्तापूर्व और युक्तियुक्त थी तथा उसने उन बातों का विरोध कर अच्छा ही किया, जिनका एकमात्र परिणाम होता शासकों और शासितों के बीच कड़वापन की भावना को बढ़ाना ।