अन्य देशों के साथ ब्रिटिश भारत का रिश्ता | Diplomatic Relationship of British India With Other Countries.
भारत कि उत्तर-पश्चिम सीमा (North-West Boundary of India):
लार्ड कर्जन जनवरी, १८९९ ई॰ में भारत पहुँचा । आते ही उसने देखा कि करीब दस हजार ब्रिटिश सैनिक दूरबर्ती ब्रिटिश सीमा पर ठहराये गये हैं । उत्तर-पश्चिम सीमा की विवादग्रस्त समस्या ने उसका पूरा ध्यान आकर्षित किया । नये वाइसराय ने कबायली क्षेत्रों के सम्बन्ध में एक ऐसी नीति अपनायी, जो “पश्चाद्गमन और संकेंद्रण की नीति” गयी है ।
उसने चित्राल पर अधिकार कायम रखने और उस शहर से पेशावर तक सड़क बनवाने का योग्यतापूर्वक समर्थन किया । किन्तु दूसरे पहलुओं में उसकी नीति “अग्रगामी” दल की नीति से भिन्न थी । उसके आदेशानुसार खैबर दर्रे कुर्रम घाटी, वजी-रिस्तान और सामान्यतया कबायली क्षेत्र से बहुत-से ब्रिटिश सैनिक धीरे-धीरे हटा दिये गये ।
किन्तु चकदारा, मालकंद और दरगाई के किले रख लिये गये तथा अधिक मजबूत दनाये गये । ब्रिटिश सैनिकों के लौटा लेने से जो जगह खाली हुई थी उसे ब्रिटिश अफसरों के अधीन संगृहीत कबायली सैन्य से अथवा मिलिटरी पुलिस से भर दिया गया ।
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फिर भी ब्रिटिश फौज ब्रिटिश सीमा के अंतर्गत संकेंद्रित रही तथा मालकंद की जड़ में दरगाई, खैबर दर्रे के प्रवेशस्थान पर जमरूद एवं कुर्रम घाटी के मुंह पर थाल तक सामरिक रेलवे का निर्माण किया गया । साथ-ही-साथ लार्ड कर्जन ने और भी सावधानी बरती । वह कबायलियों को नियमपूर्वक किन्तु सीमित रूप से अस्त्र-शस्त्र देने लगा । महत्त्वपूर्ण कबीलों को वह नियमित अंतर पर एवं रुपये-पैसे देने लगा, जिसमें वे शांति एवं स्थिरता कायम रखने और अपराध रोकने में प्रोत्साहित हों ।
लार्ड कर्जन की नीति का एक दूसरा पहलू था पंजाब के अफसरों के बहुत विरोष करने पर भी १९०१ ई॰ में उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत का निर्माण । पहले उत्तर-पश्चिम सीमा के जिले पंजाब के लेफ्टिनेंट-नावर्नर के नियंत्रण में थे तथा भारत सरकार का केवल अप्रत्यक्ष नियंत्रण रहता था । नये सीमाप्रांत का क्षेत्रफल चालीस हजार वर्गमील हुआ । इसमें मालकंद, कुर्रम, खैबर, टोची एवं बाना की पोलिटिकल ऐजेंसियों तथा डेरागाजी खाँ छोड़ पंजाब के सिंधु पार के सभी जिले सम्मिलित हुए ।
डेरागाजीखाँ का बसा हुआ जिला पंजाब सरकार के नियंत्रण में रह गया । यह नवीन सीमा-प्रांत एक चीफ कमिश्नर के अधीन रखा गया जो सीधे भारत सरकार के प्रति उत्तरदायी था । पुराने उत्तर-पश्चिमी प्रांत को “आगरा और अवध का संयुक्त प्रांत” नाम दिया गया ।
लार्ड कर्जन के उत्तर-पश्चिम सीमा-सम्बन्धी असैनिक और सैनिक सुधारों का परिणाम यह हुआ कि घोर युद्ध के एक युग बाद अपेक्षाकृत शांति आयी तथा सीमा-युद्धों के कारण हुए भारी खर्च में किसी हद तक कमी हो गयी ।
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फिर भी महसूदों पर १९००-१९०२ ई॰ में घेरा डालना और १९०८-१९०२ ई॰ में मोहमन्दों और जक्काखेल के विद्रोहों से निबटना आवश्यक हो गया । लेकिन लार्ड कर्जन ने दावा किया कि जब कि १८९४-१८९८ ई॰ में उत्तर-पश्चिम सीमा की सैनिक कार्रवाइयों पर पैतालीस लाख चौरासी हजार पौंड खर्च किया गया था, तब भी अपने सात वर्षों के कार्यकाल में उसने हर मद पर केवल दो लाख अड़तालीस हजार पौंड खर्च किया ।
लार्ड कर्जन से सीमा-समस्या अंतिम रूप में हल नहीं हुई । उसकी प्रणाली स्थानीय कबीलों में प्रमुखता से पायी जानेवाली बेचैनी की भावना को अच्छी तरह नहीं रोक सकी न्याय और राजस्व-सम्बन्धी प्रशासनिक कठिनाइयाँ आबाद जिले और कबायली क्षेत्र दोनों को कष्ट देती रहीं ।
उसकी प्रणाली के स्तंभ १९१४-१९१८ ई॰ के महायुद्ध द्वारा उत्पन्न सामान्य अशान्ति के आघात से गिर पड़े । परिवर्तित परिस्थितियों के कारण भारत सरकार उत्तर-पश्चिम सीमा में शक्तिपूर्ण नीति का अनुसरण करने लगी । उसने महत्वपूर्ण हिन्दुओं पर कमानवाले स्थान रख लिये । सड़कों द्वारा देश कौ खोल दिया गया ।
कबायली लाइनों को पुलिस की सहायता से वश में करने के लिए नियमित सैनिकों को मलेशिया (केवल स्वदेश-सेवा में काम आनेवाला सैनिकदल) के कर्तव्य सुपुर्द कर दिये गये कबीलों के बीच एक नवीन सभ्यता के तत्व चालू करने के प्रयत्न किये गये ।
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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव और कबीलों की पसंद के खिलाफ सामाजिक एवं शैक्षिक सुवार चालू करने के सरकार के प्रयत्नों ने एक बड़ी हद तक समस्या को उलझा दिया ।
वस्तुत: भारत सरकार को सीमा के इन हाल के उपद्रवों के दबाने में मिल्लत सैनिक तैयारियों की शरण लेनी पड़ी-१९१९ ई॰ में वजीरियों का विद्रोह, १९२५ ई॰ में महसूदों का विद्रोह, १९३०-१९३१ ई॰ में वजीरियों, मोहमंदों एवं अफरीदियों का भयंकर विद्रोह, १९३३ ई॰ में मोहमंद विद्रोह और १९३६-१९३७ ई॰ तोरीखेल का विद्रोह ।
अफगानिस्तान और फारस के साथ ब्रिटिश सम्बन्ध (British Relations with Afghanistan and Persia):
(क) अफगानिस्तान (Afghanistan):
अफगानिस्तान से भारत सरकार के सम्बन्ध रूस की फारस की खाड़ी एवं मध्य एशिया में राजनीतिक, व्यापारिक एवं निर्माणात्मक कार्रवाइयों से और १९१४-१९१८ ई॰ में काबुल-स्थित जर्मन, आस्ट्रियन एवं तुर्की मिशनों के षड्यन्त्रों से भी बहुत प्रभावित हुए अमीर अन्दुर्रहमान (१८८०-१९०१ ई॰) जिसने ब्रिटिश सरकार से मित्रतापूर्ण संधि की थी, सितम्बर १९०१ ई॰ में मर गया । उसके उत्तराधिकारी अमीर हबीबुल्ला (१९०१-१९१९ ई॰) से संधि के पुनर्नवीकरण को लेकर लॉर्ड कर्जन को कुल कठिनाई हुई ।
हबीबुल्ला का दावा था कि यह संधि दो देशों के बीच हुई थी और अमीर के मरने पर इसके पुनर्नवीकरण की आवश्यकता नहीं थी । किन्तु लॉर्ड कर्जन की दलील थी कि स्वर्गीय अमीर के साथ हुई संधि वैयक्तिक थी । अत: उसने इसके पुनर्नवीकरण पर जोर डाला । कुछ वर्षों तक अमीर हबीबुल्ला ने भारत सरकार से सारा पत्र-व्यवहार बन्द कर दिया ।
उसने अपनी सहायता की रकम भी न ली और “हिज मैजेस्टी” की उपाधि का दावा किया । निस्सन्देह रूस के अंग्रेज-विरोधी कारनामों से उसे प्रोत्साहन मिलता गया । किन्तु लॉर्ड कर्जन की भारत से अनुपस्थिति के समय नवम्बर १९०४ ई॰ में स्थानापन्न वायसराय लॉर्ड ऐम्टहिल ने सर लुईडेन के अधीन एक दूत-मण्डल काबुल भेजा ।
मार्च १९०५ ई॰ में एक संधि हुई । इसके अनुसार ब्रिटिश सरकार और अब्दुर्रहमान के बीच की सारी शर्तें फिर से मान ली गयीं और अमीर हबीबुल्ला का “हिय मैजेस्टी” का दावा मान लिया गया । किन्तु दो वर्ष बाद सारी परिस्थिति एकदम बदल गयी ।
अगस्त, १९०७ ई॰ में अंग्रेज-रूसी संधि हुई । इसके अनुसार रूस ने अफगानिस्तान को अपने प्रभाव-क्षेत्र के बाहर मानना कबूल कर लिया तथा उस राज्य में इंगलैंड और रूस के लिए समान व्यापारिक सुविधाओं की व्यवस्था हुई । अमीर हबीबुल्ला (१९०१-१९१९ ई॰) ने “दो महान् पड़ोसियों के इस मेल को स्वाभाविक संदेह के साथ देखा” ।
उसने संधि की धाराओं के लिए अपनी स्वीकृति देना नामंजूर कर दिया । किन्तु इसकी कोई गिनती न हुई, क्योंकि रूस संधि का निर्वाह करता रहा । इस समय से हबीबुल्ला अलग रहने लगा ।
प्रथम-विश्व-युद्ध में शत्रु-दलों के उकसाने के बावजूद अमीर ने घोर तटस्थता की नीति बरती । इस प्रकार उसने इंगलैंड की बहुमूल्य सेवा की । यूरोपीय शक्तियाँ मिल गयी थी । अफगानिस्तान में पश्चिमी सभ्यता बाबू करने की उनकी कोशिशें जारी थीं । इन दोनों बातों के फलस्वरूप उस देश की अखिल-इस्लामी शक्तियों को प्रेरणा मिल गयी । १९१७ ई॰ में रूस में जार की सरकार का पतन हो गया ।
इसके फलस्वरूप अंग्रेज-रूसी मित्रता लुप्त हो गयी । इन घटनाओं का अफगानिस्तान पर यह असर पड़ा कि वहाँ अखिल-इस्लामी शक्तियाँ भयंकर हो उठीं । अमीर हबीबुल्ला ने अपने देश में यूरोपीय रस्मरिवाज चालू करने की कोशिशें कीं । इससे वह अफगानिस्तान के कट्टर एवं ब्रिटेन-विरोधी दल में अप्रिय हो गया ।
२० फरवरी, १९१९ ई॰ को उसकी गुप्त हत्या हो गयी । गद्दी के लिए एक छोटा संघर्ष चला । इसमें मृत अमीर का बेटा अमानुल्ला सफल हुआ । अंशत: आंतरिक गड़बड़ियों के दबाव में पड़कर और अंशत: युद्ध दल के प्रभाव के आकर नये अमीर अमानुल्ला (१९१९-१९२९ ई॰) ने अंग्रेजों से युद्ध करने का निर्णय किया ।
इस प्रकार तृतीय अंग्रेज-अफगान-युद्ध (अप्रैल-मई, १९१९ ई॰) प्रारम्भ हुआ । हवाई जहाजों, बेतार के तार एवं उच्च कोटि के गोला-बारूद आदि के प्रयोग ने मैं अफगान सेना को बुरी तरह परास्त करने और दस दिनों के भीतर ही जलालाबाद एवं काबुल पर बम गिराने में ब्रिटिश भारतीय सेना को समर्थ बना दिया । अफगानों ने १४ मई को युद्ध-विर्राने के लिए प्रार्थना की ।
शांति की एक संधि पर रावलपिंडी में ८ अगस्त, १९१९ ई॰ को हस्ताक्षर हुए । यह २२ नवम्बर, १९२१ ई॰ को हुई एक दूसरी संधि से संपुष्ट हुई । इन संधियों की धाराओं के अनुसार, अफगानों को भारत होकर अस्त्र-शस्त्र या युद्ध-सामग्री मँगाने की मनाही हो गयी स्वर्गीय अमीर को सहायता के बदले में दिये जानेवाले धन का बकाया ब्रिटिश सरकार ने जन्त कर लिया नये अमीर को कोई नयी रकम न दी गयी; किन्तु ब्रिटिश सरकार ने अब से अफगानिस्तान के वैदेशिक सम्बन्धों पर नियंत्रण करने की चेष्टा न करने की अपनी इच्छा व्यक्त की तथा दोनों दलों ने एक-दूसरे की स्वतन्त्रता का आदर करना स्वीकार किया ।
एक क्षमता प्राप्त ब्रिटिश मंत्री का अब से काबुल में रहना तय हुआ । अमीर का प्रतिनिधित्व लंदन में रहनेवाले उसके एक मंत्री द्वारा होना था । तब से अफगानिस्तान में यदा-कदा होनेवाले छोटे विद्रोहों और दोस्वोविकों के क्रियाकलापों के बावजूद अंग्रेज-अफगान सम्बन्ध अच्छे बने रहे ।
किन्तु शीघ्र अफगानिस्तान एक गृह-युद्ध में फँस गया । बात ऐसी हुई कि अमीर अमानुल्ला अपनी युरोपीय यात्रा से १९२८ ई॰ की गर्मी में लौटा । वह सुधारवादी उत्साह से भर उठा था । उसने कुछ आंतरिक सुधार लागू करने की चेष्टा की ।
ये सुधार सामाजिक, शैक्षिक और कानूनी थे । उसके राज्य के लोगों के कट्टर वर्गों ने इन्हें पसंद नहीं किया । उनके असंतोष को गृह-युद्ध में अभिव्यक्ति मिली । मई, १९२९ ई॰ में अमानुल्ला को गद्दी छोड़ने को लाचार कर डाला गया ।
अमानुल्ला के बाद बचाए-सक्काओ नामक एक वीर साहसिक ने गद्दी हड़प ली । इस महान् परिवर्तन से जो गड़बड़ी मची, उसमें काबुल का अन्य देशों के साथ यातायात- सम्बन्ध-विच्छेद हो गया ।
किन्तु राजकीय हवाई सेना (रायल एयर फोर्स) बहुत-से बिटिश भारतीय प्रजाजनों, बहुत-से विदेशियों और अंत में २५ फरवरी १९२५ ई॰ के प्रतिनिधि-दल लिगेशन तक को बाहर निकाल लाने में सफल हुई । भारत सरकार अफगान गृहयुद्ध के दौरान को गंभीर चिन्ता के साथ देख रही थी । फिर भी इसने “अति सतर्क अहस्तक्षेप” की नीति बरती ।
अंत में मुहम्मद नादिर शाह (१९२९-१९३३ ई॰) सबकी पसंद से अमीर बना । वह पुराने शाही घराने का युवक सदस्य तथा भगाये गये अमीर का एक योग्य अफसर था । उसने अफगानिस्तान में व्यवस्था की पुन: स्थापना कर दी । उसे दुनिया का बहुत ज्ञान था । उसने अमानुल्ला का सुधार का लबादा फिर उठाया ।
किन्तु अपनी आधुनिकीकरण की योजनाओं में वह बहुत सावधानी और कौशल के साथ बढ़ा । अफगानिस्तान और भारत के बीच के सम्बन्ध पुन संतोषजनक हो चले । किन्तु ८ नवम्बर, १९३३ ई॰ को एक धर्मोन्मत्त व्यक्ति ने अमीर नादिर शाह की हत्या हर डाली । उसे कोई वैयक्तिक द्वेष था । फल यह हुआ कि मित्रतापूर्ण सम्बन्धों में विषादजनक बाधा पड़ गयी । नादिर शाह का पुत्र मुहम्मद जहीर शांतिपूर्वक गद्दी पर बैठा । वह बुद्धिमानी के साथ अपने पिता की नीति परिचालित करने लगा ।
(ख) फारस (Persia):
राजनीतिक और व्यापारिक कारणों से मध्यपूर्व में, विशेष कर फारस की खाड़ी में, ग्रेट ब्रिटेन के गहरे स्वार्थ थे जिनकी रक्षा वह उतनी सावधानी से करता था जितनी सम्भव थी । किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में फ्रांस, रूस, जर्मनी और तुर्की जैसी दूसरी शक्तियों ने फारस की साड़ी में ब्रिटेन के एकाकी प्रभाव को चुनौती दी और उस पर अपना-अपना नियंत्रण स्थापित करने की चेष्टा की ।
उत्तरी फारस में रूस का प्रवेश इंगलैंड के लिए विशेष रूप से गंभीर चिन्ता का विषय था । भारत सरकार ने दृढ़ता से इन शक्तियों के दावों का प्रतिरोध किया और उनके प्रयत्न विफलकर दिये ।
ब्रिटेन के विदेश-सचिव लॉर्ड लेंसडाउन ने ५ मई, १९०३ ई॰ को लॉर्ड-सभा में घोषणा की: “मैं बिना हिचक के कहता हूँ कि यदि कोई दूसरी शक्ति फारस की खाड़ी में कोई नाविक (सामुद्रिक) अट्टा या किलेबंद स्थान स्थापित करती है तो हमें उसे ब्रिटिश हितों के लिए गहरा खतरा मानना चाहिए और हमें अपनी शक्ति भर निश्चय ही इसका प्रतिरोध करना चाहिए ।”
फारस की खाड़ी में इन ब्रिटिश-विरोधी प्रभावों के निराकरण के लिए प्रथम कारगर कदम लॉर्ड कर्जन ने उठाये । वह स्वयं १९०३ ई॰ में खाड़ी गया और अनेक उपायों द्वारा उसने ब्रिटिश हितों की रक्षा का प्रयत्न किया ।
इन उपायों में कुछ ये थे-बन्दरगाहों में व्यापारिक मण्डलों (consulates) एवं देश के भीतर व्यापारिक केन्द्रों की स्थापना १९०३-१९०५ ई॰ का सीस्तान मिशन, जिसने सर हेनरी मैक मेहन के अधीन सीमा-निर्धारण के काम को समाप्त किया, जो १८७२ ई॰ में सर फ्रेडरिक गोल्डस्मिथ द्वारा प्रारम्भ किया गया था; क्वेटा से नुश्कीतक एक रेलवे की आयोजना; नश्की से सीमावर्ती किले रोबत किला तक एक सड़क का निर्माण; रास्ते पर डाक का प्रबन्ध और चुगी एवं कर का पुनस्संगठन ।
शीघ्र ही दो प्रकार की शक्तियों के बीच चलनेवाले संघर्ष के कारण फारस में घोर आन्तरिक अव्यवस्था फैल गयी । एक थी संविधानवाद की शक्तियाँ जिनका पक्ष वहाँ की जनता ले रही थी और दूसरी थी निरंकुशता की शक्तियाँ जिनका प्रतिनिधित्व शाही परिवार कर रहा था ।
इंगलैंड और रूस ने निर्णय किया कि हम दोनों शांतिपूर्ण संधि द्वारा फारसी राज्य में अपने-अपने हित-क्षेत्रों का निश्चय कर लें । इसलिए उन्होंने ३१ अगस्त, १९०७ ई॰ को अंग्रेज-रूसी संधि पर हस्ताक्षर किये । इसके अनुसार, दोनों दलों ने फारस की पूर्णता एवं राजनीतिक स्वतंत्रता का उचित आदर करना स्वीकार किया ।
उत्तरी फारस में एक रूसी प्रभाव-क्षेत्र का सीमा-निर्देश कर दिया गया । इसी प्रकार दक्षिण-पूर्वी प्रांतों में एक ब्रिटिश क्षेत्र की सीमा निर्दिष्ट हुई । प्रत्येक दल ( शक्ति) ने एक-दूसरे के प्रभाव-क्षेत्र के सम्बन्ध में स्वीकार किया कि हम “अपने लिए या अपने खास प्रजाजनों के लिए या किसी अन्य देश के प्रजाजनों के लिए कोई राजनीतिक या व्यापारिक रियायत-जैसे रेलवे, बैंकिग, तार, सड़कें, वहन या बीमा-पाने की चेष्टा नहीं” करेंगे और न दूसरे दल को वहाँ ऐसी रियायतें प्राप्त करने से रोकेंगे ।
इसमें संदेह नहीं कि इस संधि के कारण १९०७-१९१० ई॰ के संकट-काल में इंगलैंड और रूस के बीच घोर संघर्ष टल गये । यह वह समय था, जब फारस अस्तव्यस्तता की स्थिति में था और किसी भी शक्ति को अपने मनसूबे आगे बढ़ाने के लिए उसके मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रलोभन हो सकता था । किन्तु यह (संधि) आलोचना के परे नहीं थी ।
जैसा कि साइक्स बतलाता है, इसने “फारसवालो को काफी रंज कर डाला” । कारण यह था कि इस नये प्रबंध के सम्बन्ध में उनसे कुछ भी नहीं पूछा गया था, जिसका उनके भाग्य पर पूरा प्रभाव पड़ता था । लोवट फ्रेजर ने इस संधि के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कही है, जिसमें बहुत सचाई है ।
वह कहता है कि “जिस ढंग से पश्चिमी शक्तियाँ दूसरी नस्लों की विरासत को तय कर देती है (हस्तांतरित कर देती हैं) वह आश्चर्यजनक रूप से विषादयुक्त (मानवद्वेषी) है ।”
कुछ की राय में, उक्त संधि ने इंगलैड की अपेक्षा रूस को अधिक लाभ प्रदान किये । रूस का प्रभाव-क्षेत्र फारस के राज्य के आधे भाग तक फैला हुआ था जब कि इंगलैड का प्रभाव-क्षेत्र एक तौर से बहुत छोटा था । लेकिन एक बात थी, जिसकी इंगलैड आसानी से उपेक्षा नहीं कर सकता था ।
रूस पहले ही उत्तरी फारस में इतनी गहराई के साथ घुस चुका था कि उसे अब चुपचाप पीछे हटने को नहीं कहा जा सकता था । अत: इस विचार को ध्यान में रखते हुए, हमें सर जे॰ डी॰ रीज का यह कथन मान लेना पड़ेगा कि ग्रेट ब्रिटेन ने “उतने लाभ नहीं दिये, जितना कि पहले से विकसित एक परिस्थिति को स्वीकार कर लिया ।”
फारस में आंतरिक गड़बड़ियां जारी थीं । अत: वह स्वयं विपन्न अवस्था में था । फलस्वरूप १९१४-१९१८ ई॰ के युद्ध में उसने पूर्ण तटस्थता की घोषणा कर दी । किन्तु जर्मनी ने और उसके मित्र टर्की ने भी अपने मन से या जर्मनी के दूत की हैसियत से “फारस, अफगानिस्तान एवं भारत की सीमाओं पर उपद्रव कर ग्रेट ब्रिटेन एवं रूस को झझट में डालने तथा अपनी ओर से फारस को विश्व-युद्ध में फँसाने को चेष्टा की । इसने ग्रेट ब्रिटेन को फारस की खाड़ी में अपूर्व रूप से गतिशील बना डाला । फिर भी, आम तौर पर, फारस से उसके सम्बन्ध मित्रतापूर्ण बने रहे ।
भारत कि उत्तर-पूर्वी सीमा (North-East Border of India):
(क) तिब्बत और उत्तरी सीमा पर के राज्य (State of Tibet and Northern Borders):
तिब्बत नाममात्र को चीनी आधिपत्य में था । सभी व्यावहारिक मामलों में वह दो महान् लामाओं, लासा के दलाई लामा और शिगचे के निकट स्थित प्रसिद्ध तशिल हुन्पो विहार के तशीलामा, के अधीन स्वतंत्र धर्मराज्य था । राजनीतिक शक्ति दलाईलामा अथवा उसकी नाबालगी में शासन चलानेवाली एक कौंसिल के हाथों में केन्द्रित थी ।
तिब्बत से ब्रिटिश सम्बन्ध स्थापित करने के सबसे प्रारम्भिक प्रयत्न १७७४ ई॰ में किये गये थे । वारेन हेस्टिंग्स ने बोग्ल को दूत बनाकर शिगचे के तशीलामा के यहाँ भेजा ।
इसका उद्देश्य था उस देश में मुख्यत: व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त करना । किन्तु आते चलकर तिब्बती अपने देश के साथ ब्रिटिश सम्पर्क पर रोष प्रकट करने लगे । १८८७ ई॰ में उन्होंने सिक्किम के संरक्षित राज्यपर एक “व्याख्यातीत आक्रमण किया ।” किन्तु अगले साल जनरल ग्राहम द्वारा वे खदेड़ दिये गये ।
१८९० ई॰ की अंग्रेजी-चीनी संधि कती सिक्किम-तिब्बत सीमा-सम्बन्धी धाराओं का तथा कुछ व्यापारिक सुविधाओं का जो १८९३ ई॰ में और अधिक निश्चित की गयीं, तिब्बतियों ने अच्छा स्वागत नहीं नहीं किया ।
भारत पहुँचने पर लॉर्ड कर्जन ने देखा कि तिब्बत से ब्रिटिश सम्बन्ध “पूर्णतया जिच की हालत” में है । दो बातों से इस समय समस्या और भी जटिल बन गयी थी । एक ओर तो दलाई लामा अपनी नाबालिगी खतम कर अपने गृह-शिक्षक दोर्जिफ नामक एक रूसी बौद्ध की सहायता से जबर्दस्ती अभिभावकीय सरकार को उलट चुका था और अपने को मजबूत शासक दिखाने की चेष्टा कर रहा था ।
दूसरी ओर, तिब्बती चीनी आधिपत्य को हटाने के लिए व्यग्र थे और संतुलन के रूप में रूसी मित्रता का स्वागत करना चाहते थे । दोर्जिफ १८९८, १९०० और १९०१ ई॰ में तिब्बती दूत-मण्डलों का नेता बनकर रूस गया । ऐसी अफवाह फैल गयी कि वह तिब्बत को तथ्यत: रूसी संरक्षण में रखते हुए रूस से संधि कर चुका था ।
रूसी सरकार ने सरकारी तौर पर इस अफवाह का खण्डन किया और सेंट पीटर्सबर्ग-स्थित ब्रिटिश राजदूत को आश्वासन दिया कि इन दूत-मण्डलों का उद्देश्य धार्मिक था । किन्तु इससे रूसी मनसूबों के सम्बन्ध में इंगलैंड की आशंकाएँ दूर नहीं हो सकीं । सच पूछा जाये तो तिब्बत में ब्रिटिश नीति मध्य एशिया में इंगलैंड एवं रूस के बीच बहुत दिनों से चली आ रही प्रतिस्पर्धा का एक पहलू मात्र थी ।
परिस्थिति का सामना करने के लिए लॉर्ड कर्जन ने १९०३ ई॰ में प्रस्ताव किया कि सशस्त्र रक्षक दल के साथ तिब्बत में एक मिशन भेजा जाये । गृह-सरकार ने काफी हिचक के साथ इसपर स्वीकृति दे दी । तदनुसार कर्नल यंग हजबैंड के अधीन एक पिवन तिब्बत के लिए रवाना हुआ ।
रास्ते में तिब्बतियों से अनेक बार जमकर मुठभेड़ हुई तत्पश्चात् ३ अगस्त, १९०४ ई॰ को वह लासा पहुँचा । अन्त में एक संधि पर हस्ताक्षर हुए । इसके द्वारा तिब्बतियों ने स्वीकार किया कि वे ग्यंचे, गर्टोक और यातुग में व्यापारिक मंडियाँ खोलेंगे, पचीस लाख का हर्जाना अदा करेंगे और अस्थायी बन्धक के रुप में अंग्रेजों को तीन वर्ष तक चुम्बी घाटी पर अधिकार जमाये रखने की अनुमति देंगे ।
जून १९०६ ई॰ में इंगलैंड और चीन के बीच संधि हुई । इसके द्वारा इंगलैंड ने स्वीकार किया कि वह न तो तिब्बती राज्य को मिलायेगा और न तिब्बत के आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप ही करेगा । चीन ने वादा किया कि वह किसी विदेशी शक्ति को तिब्बत के आन्तरिक शासन या भौमिक अखण्डता में हस्तक्षेप न करने देगा ।
साथ ही, इंगलैंड को व्यापारिक स्थानों से भारत को मिलाने के लिए टेलीग्राफ लाइनें खोलने का अधिकार दिया गया । १८९० ई॰ की संधि और १८९३ ई॰ के व्यापारिक नियमों की धाराएँ चालू घोषित की गयीं । चीनी सरकार ने तीन वर्ष में हर्जाना अदा कर दिया और अंग्रेजों ने चुम्बी घाटी खाली कर दी ।
यंग हजबैंड मिशन के राजनीतिक परिणाम बहुत महत्वपूर्ण नहीं हुए । इसका प्रत्यक्ष परिणाम यही हुआ कि तीन व्यापारिक मंडियाँ खुल गयीं और ग्यंचे में एक ब्रिटिश व्यापारिक ऐजेन्ट स्थापित हुआ । यंग हजबैड़ को “लासा पर से घूंघट हटाने” का श्रेय दिया जाता है । किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि प्राचीन एवं मध्य युगों में बंगाल के धर्म प्रचारकों ने धर्म प्रचारार्थ तिब्बत में प्रवेश किया था । यंग हुजबैंड के बहुत पहले रायबहादुर शरच्चन्द्र दास, सी.आई.ई. नामक प्रसिद्ध विद्वान् और अन्वेषक अज्ञात का कुछ भी भय न कर और अपनी जान की बाजी लगाकर दलाई लामा की वर्जित भूमि में जा पहुँचा था ।
१९०७ ई॰ की अंग्रेजी-रूसी संधि के द्वारा इंगलैंड और रूस दोनों ने स्वीकार किया कि वे तिब्बत से राजनीतिक सम्बन्ध चीन के माध्यम से रखेंगे । तिब्बत पर चीन का आधिपत्य, जो अबतक केवल “संवैधानिक गल्प” था, अब स्पष्टत: पुन: संपुष्ट हुआ ।
किन्तु इस संधि का उल्लंघन करते हुए १९१० ई॰ में चीन ने तिब्बत पर चढ़ाई कर दी और पूरे देश पर कब्जा कर लिया । दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी । १९११ ई॰ की चीनी क्रान्ति का, जिसमें शाही मंचू वंश का पतन हुआ, लाभ उठाकर तिब्बतियों ने चीनियों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उन्हें तिब्बत से भगा दिया ।
जून १९१२ ई॰ में दलाई लामा तिब्बत लौट गया । उसने अब यह दावा किया कि पुराना सामन्तअधिपति का सम्बन्ध, जो मंचू सम्राटों के प्रति उसकी वैयक्तिक वफादारी पर आधारित था, मंजू, घराने के अन्त के साथ ही खत्म हो गया । उसने तिब्बत पर सम्पूर्ण प्रभुता सम्पन्न अधिकार धारण किये ।
तिब्बत द्वारा चीनी अधिपत्य की अस्वीकृति से जो गंभीर परिस्थिति उत्पन्न हो गयी थी उसे सुगम बनाने और जब एक भारी यूरोपीय युद्ध प्राय: सन्निकट दीखने लगा तो भारत की उत्तरी सीमा पर शान्ति बनाये रखने के लिए अंग्रेजों ने १९१३ ई॰ में शिमला में आयोजित एक त्रिमुखी सम्मेलन में चीन और तिब्बत के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया ।
२७ अप्रैल १९१४ ई॰ को तीनों सरकारों के प्रतिनिधियों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किये । इसकी शर्तों के अनुसार तिब्बत को दो क्षेत्रों में बाँट दिया गया और दोनों पर चीनी आधिपत्य को स्वीकार किया गया ।
किन्तु चीन ने भारत की सीमा को आवृत्त करनेवाले “बाहरी तिब्बत” के साथ-साथ लासा, शिगचे और चमडों की पूर्ण स्वाधीनता को स्वीकार करने और तिब्बत के शासन में सभी प्रकार के हस्तक्षेप से अलग रहने का वचन दिया । उसने यह भी वादा किया कि वह वहाँ सेना नहीं भेजेगा, सैनिक या असैनिक अफसरों को नहीं बैठायेगा और उपनिवेश नहीं बसायेगा ।
शिमला सम्मेलन ने भूटान के पूर्व से ८५० मील तक तिब्बत और उत्तर-पूर्वी भारत के .बीच सीमा भी निर्धारित की । यह सीमा मैकमोहन रेखा कही जाने लगी, क्योंकि भारत सरकार के विदेश विभाग के सचिव सर हेनरी मैकमोहन ने, ब्रिटिश पूर्णाधिकारी (Plenipotentiary) की हैसियत से काम करते हुए ब्रिटिश सरकार के बदले, उसपर हस्ताक्षर किये थे ।
यद्यपि चीनी पूर्णाधिकारी ने इस संधि पर हस्ताक्षर किये थे, चीनी सरकार ने इसे संपुष्ट करने से इंकार कर दिया । किन्तु बाद में चीन ने ग्रेट ब्रिटेन को यह सूचित किया कि बाहरी और भीतरी तिब्बत की सीमा से सम्बद्ध मामले को छोड़कर वह अन्य सभी बातों में संधि को स्वीकार करता है । इस प्रकार चीन ने यह स्वीकार किया कि मैकमेहन रेखा तिब्बत और उत्तर-पूर्वी भारत के बीच की सीमा-रेखा है ।
पहले बाहरी शक्तियों द्वारा तिब्बत में अंग्रेजी हितों के क्षतिग्रस्त होने का संकट बना रहता था । १९१७ ई॰ की क्रांति के बाद रूस में हुए परिवर्तनों और चीन की बढ़ती हुई गड़बड़ी ने भारत सरकार को इस चिन्ता से छुट्टी दे दी । तब से ब्रिटेन और तिब्बत एक-दूसरे से मिलकर रहने लगे ।
१९३६-१९३७ ई॰ के जाड़े में एक ब्रिटिश सद्भावना-मंडल तिब्बत गया । इसके नेता थे राजनीतिक विभाग के मिस्टर बी॰जे॰ गुल्ड, आई॰ सी॰ एस॰ । इसने तिब्बती सरकार के मुख्य अफसरों एवं तिब्बत की जनता से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये या पुन: नवीन किये । नेपाल, सिक्कम और भूटान से, जिससे भारत की उत्तरी सीमाएँ मिली हुई है, सम्बन्ध अच्छे रहे ।
तिब्बत में चीनी कार्रवाइयों का प्रतिरोध करने के लिए भारत सरकार ने १९१० ई॰ में भूटान के साथ अपने सम्बन्ध अधिक मजबूत बनाये । उसने सहायता के रूप में भूटान को दिये जानेवाले धन को बढ़ाकर पचास हजार से एक लाख रुपये प्रति वर्ष कर दिया । साथ ही, उसने भूटान के वैदेशिक सम्बन्धों में मार्गप्रदर्शन का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया । सरकार ने पीछे सरकारी तौर पर चीन को सूचना दे दी कि वह भूटान एवं सिक्कम के अधिकारों और हितों की रक्षा करेंगी ।
आसाम और बर्मा (Assam and Burma):
१९०५ ई॰ में बंगाल का बँटवारा होने पर पूर्वी बंगाल और आसाम का नया रात बनाया गया । इस प्रक्रिया में आसाम एवं सुर्मा घाटी को पुराने बंगाल प्रांत के पंद्रह जिलों से मिला दिया गया । किन्तु यह प्रबंध १९१२ ई॰ में उठा दिया गया । आसाम पुन: एक अलग प्रशासनिक इकाई बना ।
आसाम की सीमा पर बहुत सी जातियाँ (कबीले) रहती थी, जैसे- दफला, मीरी, अबोर और मिश्मी । इनमें से अबोरों को छोड्कर अन्य किसी ने ब्रिटिश सरकार को कष्ट नहीं दिया । १९११ ई॰ में मिन्योंग अबोरों ने मिस्टर विलियमसन और डाक्टर ग्रेगर्सन की हत्या कर डाली ।
इस पर भारत सरकार ने उस जाति को वशीभूत करने के लिए उत्तर-पूर्व सीमा पर स्थित अबोर देश की दिहंग घाटी को एक आक्रामक सेना भेजी । आक्रमण अपने उद्देश्य में सफल सिद्ध हुआ । मीरी और मिश्मी देशों को मित्रतापूर्ण मंडल (मिशन) भेजे गये ।
बर्मा की सीमा पर युन्नान का चीनी प्रांत है । इसकी सीमा करीब-करीब अनिर्धारित थी । इस कारण ब्रिटिश सरकार को बर्मी राज्य पर छोटे हमलों के होने का डर बना रहता था । वह सावधानी के साथ इस सीमा की रक्षा करती थी । चीन और ग्रेटब्रिटेन के बीच बातचीत चली । इसका उद्देश्य था बर्मा और युन्नान के चीनी प्रांत के बीच सीमा निश्चित कर देना ।
एक सीमा-निर्देश-आयोग नियुक्त हुआ । इसके ब्रिटिश और चीनी सदस्य (कमिश्नर) थे । इसका तटस्थ अध्यक्ष स्विट्जरलैड का प्रसिद्ध इंजिनियर कर्नल एफ॰ इसेलिन था । आयोग ने १९३५ ई॰ और १९३६ ई॰ में इस मामले की जांच की तथा १९३७ ई॰ के वसंत में एक सर्वसंमत रिपोर्ट पेश की । इसने बर्मा और युन्नान के बीच की सीमा-रेखा पक्के तौर पर निश्चित कर दी ।