भारत में ब्रिटिश राज के दौरान शासन प्रणाली | Governance System during British Raj in India.
स्थानीय स्वायत्त शासन (Local Autonomous Government in India):
स्मरणातीत काल से ही स्थानीय स्वायत्त शासन के विचार भारत में संसार के अन्य किसी भाग की अपेक्षा कहीं अधिक मात्रा में प्रचलित रहे । ग्राम और नगर छोटे पैमाने पर छोटे-छोटे राज्य ही थे, जहाँ स्वायत्त-रक्षा, आवागमन, न्याय और पुलिस की सारी स्थानीय आवश्यकताएँ लोगों की सभाओं से ही पूरी हो जाती थीं, जहाँ एक मुख्य कार्यपालक अधिकारी होता था ।
मुगल-साम्राज्य के नाश के बाद जो खलबली मची उसमें ये स्वायत्त शासन की संस्थाएँ नगरों से करीव-करीब पूर्णतया लुप्त हो गयीं तथा ग्रामों में बहुत ह्रासोन्मुख हो चलीं । जहाँ कहीं भी ग्राम-सभाएँ काम करने लायक थीं, वहाँ ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रखने की कोशिश की जहाँ नहीं थीं, वहाँ उन्हें पुनर्जीवित किया ।
लेकिन उसके सामने विस्तृत ग्रामीण क्षेत्र और नगर दोनों के लिए स्थानीय सरकार की एक निश्चित प्रणाली का विकास करने का काम पड़ा था । प्रारम्भ में सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय मामलों के शासन में कोई निश्चित प्रणाली नहीं अपनायी । उसने प्रचलित संस्थाओं द्वारा काम चलाया अथवा जरूरत पड़ने पर तुरंत वैसी संस्थाएँ बना ली ।
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बंगाल में १८१६ ई॰ और १८१९ ई॰ में नियम पास हुए, जिन्होंने सरकार को नाव से पार जाने की व्यवस्था के कायम रखने तथा सड़कों, पुलों एवं नालियों (खाइयों) की मरम्मत और निर्माण के लिए रुपये वसूलने का अधिकार दिया । इस प्रकार से जमा हुई रकम-सम्बन्धी शासन के कार्य में सरकार को स्थानीय समितियों से सलाह मिलती थी । सरकार ने हर जिले में स्थानीय समितियाँ नियुक्त कर दी थी, जिसका सचिव मैजिस्ट्रेट होता था ।
बंगाल के बाहर ‘सेंस’ (यानी भूमि-राजस्व पर थोड़ा सैकडेवारी कर) लगाकर आवश्यक रकम प्राप्त की गयी । १८६९ ई॰ में बम्बई में कानून-निर्माण के सहारे यह बात एक निश्चित आधार पर रख दी गयी । इसने सेसों को कानूनी रूप देकर सार्वजनिक निर्माण पर व्यय की व्यवस्था की तथा न केवल समूचे जिले के लिए, बल्कि इसके सब-डिवीजनों के लिए भी रकम के शासन के निमित्त समितियाँ नियुक्त कर दीं ।
भारत सरकार के १८७० ई॰ के प्रस्ताव से स्थानीय स्वायत्त शासन के विकास को बड़ी प्रेरणा मिली । एक वर्ष के अंतर्गत, बम्बई सरकार के कानून के ढंग पर विभिन्न प्रांतों में कानून पास किये गये । वर्तमान सेसों को कानूनी रूप दे दिया गया और बढ़ा भी दिया गया । रकम के शासन के निमित्त, समूचे जिले के लिए समितियाँ नियुक्त कर दी गयीं ।
किन्तु जिस प्रकार बम्बई में छोटे-छोटे क्षेत्रों के लिये भी समितियाँ बना दी गयी थीं, वैसा यहाँ नहीं किया गया । ये समितियाँ बिलकुल सरकार द्वारा नामजद होती थीं तथा उसी के द्वारा नियंत्रित भी होती थीं । इनमें अफसर और गैर-सरकारी व्यक्ति दोनों रहते थे । इनका अध्यक्ष सरकारी व्यक्ति होता था ।
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बंगाल में सेस पहली बार इसी नये कानून के द्वारा लगाया गया । उस समय बहुत शोर-गुल उठा कि यह चिरस्थायी बंदोबस्त का उल्लंघन है । सरकार अंशत: झुक गयी । उसने निर्णय किया कि सड़कों के लिए जितनी रकम की जरूरत है वहीं तक सेस लगाया जाए । इसे बंगाल में रोड-सेम कहा गया । यह प्राथमिक शिक्षा के लिए खर्च नहीं हो सकता था, यद्यपि दूसरे प्रांतों में ऐसा होता था ।
१८७१ ई॰ में जो प्रणाली लागू की गयी, वह निस्संदेह मौजूदा हालात से कहीं अच्छी थी । इलाकों के आवागमन, स्वास्थ-रक्षा और शिक्षा में सुधार के लिए बहुत कुछ किया गया । किन्तु इसमें बहुत-सी गंभीर त्रुटियाँ थीं । समितियों में सरकारी तत्व की पूरी प्रधानता थी । वहाँ जनता की इच्छाओं और भावनाओं की कोई गुंजाइश न थी । इसके अतिरिक्त उनका कार्यक्षेत्र बहुत बड़ा होता था । प्राइवेट सदस्यों को क्षेत्र के एक बड़े भाग के स्थानीय मामलों का बहुत अपर्याप्त ज्ञान रहता था । फलस्वरूप इन मामलों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी ।
लार्ड रिपन ने तत्परता के साथ प्रयत्न किया कि इन त्रुटियों को दूर किया जाय तथा कुछ-कुछ अंग्रेजी कानून के ढंग पर स्थानीय स्वायत्त शासन के वास्तविक तत्व को लागू किया जाए । उसके विचार मई, १८८२ ई॰ में एक सरकारी प्रस्ताव के रूप में रखे गये ।
इस नवीन योजना की दो मुख्य विशेषताएँ थीं:
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(१) एक समिति या स्थानीय परिषद् के अन्तर्गत सबसे बड़ा क्षत्र जला न होकर सब-डिवीजन होना चाहिए । इसके अधीन प्राथमिक परिषदें होनी चाहिएँ, जो बहुत छोटे क्षेत्रों के लिए हो । फलस्वरूप इसका प्रत्येक सदस्य इसके मामलों का ज्ञान रखता और उनमें दिलचस्पी लेता ।
(२) स्थानीय परिषदों (लोकल बोर्ड) में निर्वाचित गैर-सरकारी सदस्यों का काफी बहुमत होना चाहिए । उनका अध्यक्ष एक गैर-सरकारी चेयरमैन होना चाहिए ।
स्वायत्त शासन का वास्तविक प्रारम्भ यहीं से हुआ । किन्तु दुर्भाग्यवश इस प्रस्ताव के आधारभूत सिद्धांतों को बहुत-से प्रांतों में पूरे तौर पर लागू नहीं किया गया । इसके बाद जो कानून बना, वह विभिन्न प्रांतों में विभिन्न तरह का रहा । मध्य प्रदेश (सेंट्रल प्राविंसेज) में चेयरमैन गैर-सरकारी हुआ तथा चुनाव का सिद्धांत एक हद तक अपना लिया गया ।
दूसरे प्रांतों में पुरानी प्रणाली जारी रही तथा कम सदस्य चुने गये । सर्वत्र जिला ही स्थानीय परिषदों का क्षेत्र बना रहा । केवल बंगाल में लार्ड रिपन के सिद्धांतों को पूरी हद तक ले जाने की कोशिश की गयी । किन्तु इस उद्देश्य से जो बिल पेश किया गया, उसे राज्य सचिव ने रह वीटो कर डाला ।
१८८५ ई॰ में जो कानून अंतिम रूप में पास हुआ, उसके अनुसार जिला परिषदें (डिस्ट्रिक्ट बोर्ड) पूर्ववत जिला मैजिस्ट्रेटों की अध्यक्षता में काम करती रहीं ।
मई, १८८२ ई॰ के प्रस्ताव के सिद्धांतों से महान् प्रस्थान की वजह सर्वत्र एक ही थी-क्षमता की मांग । किसी हद तक शायद यह प्राप्त हो गयी । किन्तु इन नये सिद्धांतों की कीमत एक बिलकुल भिन्न दिशा में थी । उनके रचयिता लार्ड रिपन ने इसे निम्नलिखित शब्दों में बहुत साफ तौर पर बता दिया ।
“यह मुख्यत: शासन-सुधार का उद्देश्य नहीं है कि प्रस्ताव लाया जाता है और समर्थित होता है । यह मुख्यत: राजनीतिक और सार्वजनिक शिक्षा के उपाय के रूप में वांछनीय है ।”
दुर्भाग्यवश, रिपन के जैसे उदार विचार थे वैसे न तो स्थानीय सरकारों के थे और न इंगलैंड में अधिकारियों के थे । भारतीयों के मन में जो ऊँची आशाएँ जगी थीं, वे इस प्रकार धूल में मिल गयीं । किन्तु कांग्रेस ने इस प्रश्न को लिया तथा सरकार पर साल-ब-साल दबाव डालने लगी ।
नगरपालिकाएँ (Municipalities):
लार्ड रिपन के समय तक ग्रामीण क्षेत्रों के स्थानीय शासन के समान नगरों का स्थानीय शासन भी किसी समान या निश्चित सिद्धांत पर नहीं चलाया जाता था । बड़े नगरों में नगरपालिका समिति होती थी । इसे सरकार नामजद करती थी । इसका अध्यक्ष (चेयरमैन) डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट होता था । स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इसे कर लगाने की शक्ति प्राप्त थी ।
कुछ दृष्टांतों में इसका आधार था कानून किन्तु कुछ दूसरे दृष्टांतों में इसका आधार स्थानीय रस्म-रिवाज और प्रथाएँ थीं । अधिक तर दृष्टांतों में सरकार शासन पर पूर्ण नियंत्रण रखती थी, यद्यपि कुछ क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप की सीमा कानून द्वारा निर्धारित की हुई थी ।
लार्ड रिपन के मई, १८८२ ई॰ के प्रस्ताव का उद्देश्य था कि ग्रामीण परिषदों के समान नगरपालिका के शासन में भी स्वायत्त शासन के सिद्धांतों को लागू किया जाए । उसका प्रस्ताव था कि अंतिम सुपर्यवेक्षण, नियंत्रण और अधीक्षण सरकार के हाथों में छोड़ दिया जाए मगर नगरपालिका का वास्तविक शासन जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के सुपुर्द कर दिया जाए ।
गैर-सरकारी अध्यक्ष (चेयरमैन) के अधीन लोगों को अपने प्रतिनिधियों के द्वारा अपना शासन स्वयं करने का अधिकार दिया जाए । उसने यह भी प्रस्ताव किया कि सरकार को पुलिस का खर्च उठाना चाहिए तथा नगरपालिकाएँ म्यूनिसिपैलिटियाँ शिक्षा, स्वास्थ्य-रक्षा, रोशनी की व्यवस्था, सड़कें, पीने का पानी और इसी प्रकार की सार्वजनिक हित की अन्य बातों में अपने को व्यस्त रखें ।
लार्ड रिपन के आदर्श काफी हद तक फलीभूत हुए । विभिन्न प्रांतों के लिए कानून पास हुए । उसमें म्यूनिसिपल कमिश्नरों के एक बड़े अनुपात के अनिवार्य निर्वाचन की व्यवस्था की गयी । यह अनुपात आधे से लेकर तीन चौथाई तक हो सकता था । कानूनों में एक चेयरमैन के निर्वाचन की भी व्यवस्था की गयी । किन्तु यह केवल एक अनुमतिदायक धारा थी तथा बहुत दृष्टांतों में शक्ति वास्तव में नहीं दी गयी ।
जहाँ ऐसी शक्ति दी गयी, वहाँ भी जिला अफसर ही बहुधा चेयरमैन निर्वाचित होता था । लेकिन ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, त्यों-त्यों गैर-सरकारी चेयरमैन ही अपवाद न होकर नियम के रूप में हो गये ।
इस प्रकार लार्ड रिपन ने आधुनिक भारत में स्थानीय स्वायत्त शासन की दिशा में वास्तविक प्रारंभ किया । उसके विचारों को पूरे तौर पर कार्यरूप नहीं मिला । किन्तु उसने बीज बो दिये जो अंत में स्थानीय स्वायत्त शासन के वास्तविक विकास के रूप में अंकुरित हुए ।
प्रेसिडेंसी नगर (Presidency City):
कलकत्ता, बम्बई और मद्रास के प्रेसिडेंसी नगरों में स्वायत्त शासन का जो विकास हुआ उसका अलग विवेचन आवश्यक है । यहीं पहले-पहल भारत में ब्रिटिश अधिकार को जगह मिली । इसलिए इनके स्थानीय शासन का इतिहास बहुत पहले के जमाने में जाता है । यही कारण है कि ब्रिटिश भारत के अन्य नगरों में जैसा विकास हुआ, उससे यहाँ भिन्न प्रकार का विकास देखने में आया ।
अठारहवीं सदी के अंत में पार्लियामेंट-कृत कानून ने गवर्नर-जनरल को अधिकार दिया कि वह इन नगरों के लिए शांतिरक्षाकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति करें । उन्होंने स्वास्थ्य-रक्षा और पुलिस की व्यवस्था की । आवश्यक खर्च चलाने के लिए उन्हें मकानों के मालिकों एवं रहनेवालों पर कर लगाने का भी अधिकार मिला । यह प्रबंध अपर्याप्त और असंतोषजनक था ।
नगरों की रक्षा और उन्नति तथा करों के अधिक अच्छे निर्धारण एवं संग्रह के लिए १८५६ ई॰ में दो कानून पास किये गये । प्रत्येक नगर के लिए तीन कमिश्नर नियुक्त हुए । कलकत्ते के लिए जो कानून बना, उसमें गैस के द्वारा रोशनी करने और मोरियों (नालियों) के बनाने की विशेष व्यवस्था की गयी । इस समय से तीनों नगरों में विभिन्न ढंगों से विकास होने लगा ।
कलकत्ता (Kolkata):
नवीन प्रबंध प्रभावहीन सिद्ध हुआ । अतएव शांतिरक्षाकारी न्यायाधीशों को पुन: सामान्य नियंत्रण से सज्जित कर दिया गया किन्तु कार्यपालिका शक्ति सरकार द्वारा नियुक्त एक चेयरमैन के हाथों में ही छोड़ दी गयी । चेयरमैन पुलिस-कमिश्नर भी बना दिया गया ।
ऐसे मजबूत कार्यपालक अधिकारी के अधीन बहुत उन्नति हुई, तथा सर स्टेवर्ट हौग ने जल बाहर निकालने और जल की आपूर्ति की उचित प्रणाली की नींव डाली । मगर संविधान ठीक से नहीं चला । कार्यपालिका और बहुतेरे शांतिरक्षाकारी न्यायाधीशों के बीच का सम्बन्ध साफ तौर पर निर्धारित नहीं था तथा दोनों के बीच बराबर संघर्ष होता रहता था ।
१८७६ ई॰ के एक कानून द्वारा कलकत्ता कारपोरेशन पुननिर्मित हुआ । इसके बहत्तर सदस्य हुए, जिनमें दो तिहाई करदाताओं द्वारा निर्वाचित थे । १८८२ ई॰ में निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ाकर पचास कर दी गयी, तथा उपनगरीय क्षेत्रों को जोड़कर नगरपालिका का कार्यक्षेत्र विस्तृत कर दिया गया ।
कलकत्ता नगर के शासन में स्वायत्त शासन के सिद्धांतों का अधिकाधिक विकास सहसा लार्ड कर्जन द्वारा रोक दिया गया । १८९९ ई॰ में पास हुए एक कानून के अनुसार करदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों की संख्या घटाकर संपूर्ण संख्या की आधी कर दी गयी तथा सरकार द्वारा नामजद चेयरमैन को अधिक स्वतंत्र शक्तियाँ दे दी गयीं ।
कारपोरेशन केवल कर की दर निश्चित कर सकता था तथा सामान्य नीति निर्धारित कर सकता था । शासन के ब्योरों के संबंध में चेयरमैन पर एकमात्र रोक बारह सदस्यों की एक सामान्य समिति थी । इनमें चार निर्वाचित कमिश्नरों द्वारा चार अन्य कमिश्नरों द्वारा और चार सरकार द्वारा नियुक्त होते थे ।
इस प्रकार जनता की शक्तियों के घटाने के कारण ये थे कि कारपोरेशन में बात बहुत होती थी और काम कुछ न होता था तथा आगे बढ़ाने की आवश्यक शक्ति एक मजबूत स्वतंत्र कार्यपालिका द्वारा ही प्राप्त की जा सकती थी, जो कारपोरेशन या इसकी विशेष समितियों के नियंत्रण से मुक्त हो ।
यह कहना अनावश्यक है कि इस काम का जनता ने घोरतम प्रतिवाद किया । जब इस काम पर बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल में विवाद चल रहा था तब श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने अत्यंत वाग्मितापूर्ण ढंग से इसकी निंदा की । २७ सितम्बर को विवाद का अंतिम दिन था ।
उस दिन अंतिम रूप में बिल का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि यह तिथि “बंगालियों की अगली पीढ़ियों द्वारा” कलकत्ता नगर में “स्थानीय स्वायत्त शासन का विनाश दिखलानेवाली के रूप में याद की जाएगी ।” इस काम के प्रतिवाद के रूप में कारपोरेशन के २८ सदस्यों ने, जिनमें सुरेंद्रनाथ भी थे अपना त्यागपत्र दे दिया । यह नियति की विचित्र विडंबना थी कि चौबीस वर्ष बाद सुरेंद्र नाथ को ही मंत्री के रूप में उस बुराई को हटाना पड़ा ।
बम्बई (Bombay):
कलकत्ते के समान बम्बई में भी पुरानी प्रणाली १८६५ ई॰ में पुनर्जीवित की गयी । नगर के शासन के लिए पाँच सौ शांतिरक्षाकारी न्यायाधीशों का एक संघ बना । इसका अध्यक्ष (चेयरमैन) उच्च वेतन प्राप्त एक अफसर था, जिसे कमिश्नर कहते थे । इसका एक स्वतंत्र हिसाब-नियंत्रक (कंट्रोलर ऑफ एकाउंट्स) था ।
यह प्रणाली अच्छी तरह नहीं चली । हिसाब-नियंत्रक प्रभावकारी नियंत्रण नहीं रखता था । साथ ही, रोक या मार्गप्रदर्शन के ख्याल से कारपोरेशन बहुत विशाल हो जाता था । संविधान १८७२ ई॰ में बदल दिया गया । कारपोरेशन के सदस्यों की संख्या घटाकर चौसठ कर दी गयी ।
इनमें आधे कर दाताओं द्वारा और एक चौथाई निवासी-न्यायाधीशों द्वारा निर्वाचित होते थे बाकी एक चौथाई सरकार द्वारा नामजद होते थे । कार्यपालिका शक्ति पूर्ववत् कमिश्नर में निहित थी लेकिन हिसाब-नियंत्रक का पद उठा दिया गया ।
इसके बदले यह व्यवस्था की गयी कि कारपोरेशन की एक स्थायी समिति द्वारा हिसाब की साप्ताहिक जांच हो तथा पेशेवर हिसाब-निरीक्षकों से, रुपये देकर माहवारी जाँच करा ली जाए । यह संविधान अच्छी तरह चला तथा स्वल्प परिवर्तनों के साथ उन्नीसवीं सदी के अंत तक कायम रहा ।
मद्रास (Madras):
मद्रास में तीन कमिश्नरों द्वारा शासन की प्रणाली १८६७ ई॰ तक कायम रही । उस माल एक कानून पास हुआ जिसके अनुसार नगर आठ भागों (वार्डो) में वाँट दिया गया तथा प्रत्येक के लिए सरकार द्वारा चार कौंसिलर नियुक्त हुए ।
१८७८ ई० में कारपोरेशन के आधे सदस्य करदाताओं द्वारा निर्वाचित होते थे किन्तु प्रेसिडेंट और दोनों वाइस-प्रेसिडेंट वेतनभोगी अफसर थे, जिन्हें सरकार नियुक्त करती थी । १८८४ ई॰ में निर्वाचन का सिद्धांत और भी आगे बढ़ा दिया गया तथा कारपोरेशन के बत्तीस सदस्यों में से चौबीस करदाताओं द्वारा निर्वाचित होने लगे ।
लार्ड कर्जन की वाइसरायगिरी में प्रतिक्रिया हुई तथा मद्रास का कारपोरेशन १८९९ ई॰ के कलकत्ता कारपोरेशन ऐक्ट के ढंग पर पुनर्निर्मित हुआ । इस प्रकार विभिन्न परीक्षाओं के बाद तीनों प्रेसिडेंसी नगरों के लिए एक शासन-व्यवस्था विकसित हुई, जिसकी मुख्य विशेषताएँ समान थीं, यानी एक बड़ा कारपोरेशन जिसमें निर्वाचित सदस्यों का एक अनुपात होता था, एक मजबूत स्वतंत्र कार्यपालिका शक्ति जो सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति में निहित रहती थी हिसाब के जाँचने के पर्याप्त पूर्वोपाय तथा आवश्यक कार्यों-जैसे स्वास्थ्य-रक्षा, जल-आपूर्ति आदि-के किये जाने की कानूनगत व्यवस्था । घोर लापरवाही या कुप्रबंध होने पर सरकार को हस्तक्षेप करने का अधिकार होता था ।
वित्तीय शासन (Financial Governance in India):
१८५८ ई॰ के कानून द्वारा भारत की वित्तीय प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये गये । अब सेक्रेटरी ऑव स्टेट-इन-कौंसिल का वित्तीय शासन पर पूरा नियंत्रण था । इंडिया कौसिल की स्वीकृति के बिना भारतीय राजस्व खर्च नहीं किया जा सकता था । हाँ, भारत सरकार को थोड़ी कार्यस्वातंत्र्यमूलक शक्तियाँ दी हुई थीं ।
इस नियंत्रण के अधीन रहते हुए भारत सरकार भारत के वित्तीय शासन पर पूरा अधिकार रखती थी तथा प्रातीय सरकारों को गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल की स्वीकृति के बिना खर्च करने का कोई अधिकार न था । बजट की प्रणाली १८६० ई॰ में चालू की गयी । उसमें विभिन्न मदों के अंतर्गत राजस्व के खर्च करने की व्यवस्था थी । स्थानीय अधिकारियों को इसे अटल रूप में मानना पड़ता था ।
यह अत्यंत केंद्रीकृत प्रणाली अच्छी तरह नहीं चली । प्रांतीय सरकारों को खर्च के मामलों में स्वतंत्रता नहीं थी । इसलिए आमदनी बढ़ाने या खर्च में मितव्ययिता बरतने में उन्हें कोई प्रेरणा नहीं मिलती थी । भारत सरकार को इतना आवश्यक ज्ञान नहीं था कि वह इतने बड़े देश के प्राप्त साधनों का न्यायसंगत बँटवारा कर सके ।
ऐसी परिस्थितियों में यह अवश्यंभावी था कि स्थानीय और केंद्रीय सरकारों में बराबर झगड़ा होता रहे । स्ट्रॅची ने बहुत ठीक कहा है कि इस प्रणाली के अंतर्गत “सार्वजनिक आय का विभाजन भ्रष्ट होकर एक संघर्ष जैसा बन गया, जिसमें सबसे उग्र, जिसका तर्क की ओर कोई ध्यान न होता था, फायदे में रहता था” ।
इन महान् त्रुटियों के फलस्वरूप १८७१ ई॰ और १८७७ ई॰ के बीच कुछ विकेंद्रीकरण हुआ । नवीन योजना के अंतर्गत डाकघर और रेलवे-जैसे केंद्रीकृत विषय केंद्रीय सरकार द्वारा पूर्णतया ले लिये गये । इन विभागों से प्राप्त धन तथा नमक, अफीम और चुंगी-जैसे राजस्व के कुछ अन्य साधन केंद्रीय सरकार द्वारा पूर्णतया रख लिये गये ।
अन्य साधनों-जैसे भूमि-राजस्व, आबकारी, स्टांप, जंगल और रजिस्ट्री-से प्राप्त राजस्व प्रांतीय और केंद्रीय सरकारों के बीच बाँट दिया गया । प्रांतों का भाग उनकी आवश्यकताओं के अनुसार निश्चित किया जाता था । अपने-अपने भागों के इस बंदोबस्त की निर्दिष्ट काल पर पुनर्परीक्षा होती थी तथा उसे फिर से ठीक किया जाता था । इस प्रणाली के अंतर्गत प्रांतीय सरकारों को उसी राजस्व के भीतर अपने खर्च का प्रबंध करना पड़ता था, जो उन्हें निर्धारित किया हुआ था ।
इस प्रकार उन्हें न केवल अपने से जमा किये हुए राजस्व के खर्च करने में अधिक स्वतंत्रता और फैलाव था, बल्कि राजस्व के बढ़ाने और अपने खर्च में मितव्यय करने में भी स्पष्ट दिलचस्पी थी । ऊपर राजस्व के जिन विभिन्न मदों की चर्चा हुई है, उनमें ब्रिटिश भारत के विभिन्न भागों के भूमि-राजस्व और नमक एवं अफीम के सरकारी एकाधिकार से प्राप्त आय का पहले ही वर्णन किया जा चुका है ।
स्टांप-राजस्व वस्तुत: न्याय सम्बन्धी कार्रवाइयों और व्यापारिक कामों पर सीधा कर था, जो लोग कानून की कचहरियों में मुकद्दमे पेश कदझे थे या व्यापारिक काम करते थे । दस्तावेजों पर निर्दिष्ट मूल्य के स्टांप साटने पड़ने थे जिमसे वे (दस्तावेज) कानूनी तौर पर पुष्ट हों ।
चुंगी के मद के अंतर्गत जो राजस्व था, वह विभिन्न चीजों पर, जो भारत के बाहर जाती थीं या इसके भीतर आती थीं, मूल्यानुसार लगाये गये कर से प्राप्त होता था । इस कर की दर समय-समय पर बदलती रहती थी । सबसे अधिक महत्वपूर्ण था सूती चीजों पर आयात कर ।
आयातों से प्राप्त पूरी आय की करीब-करीब दो तिहाई इसी से आती थी । किन्तु ज्यों ही भारत में सूती मिलें स्थापित होने लगीं, त्यों ही इस कर ने इंगलैंड में बनी सूती चीजों के आयात पर प्रतिकूल प्रभाव डाला अंग्रेज शिल्पियों (निर्माताओं) ने गृह सरकार पर दबाव डाला ।
भारत सरकार को स्वतंत्र व्यापार की नीति अपनाने को राजी किया गया, जो उस समय इंगलैंड में प्रचलित थी । फलत: १८८२ ई॰ में सभी आयातकर उठा दिये गये केवल शराब और नमक-जैसी चीजों पर ही यह कर रहने दिया गया, जिनपर आंतरिक कर लगाये जाते थे ।
लेकिन चुंगी न लेने से जो घाटा हुआ उसकी अन्य स्रोतों से पूर्ति अत्यधिक कठिन सिद्ध हुई । चाँदी के दाम में भारी गिराव, जो भारत में मुद्रा का मान थी बर्मा के युद्धों और उत्तर-पश्चिम में रूसियों के धमकीपूर्ण रुख के कारण सैनिक व्यय और अकाल बीमा कोष की व्यवस्थाएँ-इन सब से भारतीय वित्त पर गहरा आघात पड़ा ।
बजट को बराबर करने के लिए भारत सरकार १८९४ ई॰ में पाँच प्रतिशत मूल्यानुसार की दर से एक सामान्य आयात-कर पुन: लगाने को विवश हो गयी । सूती चीजों के अंग्रेज शिल्पियों के हितों की रक्षा के लिए भारतीय मिलों में बनी सूती चीजों पर उसी तरह का एक आबकारी कर लगा दिया गया ।
सूती चीजों पर से आयात-करों का उठा दिया जाना, उससे भी बढ़कर, आयातकर के पुन: लगाये जाने पर भी भारत में बनी सूती चीजों पर कर का लगाया जाना भारतीय हितों के लिए स्पष्टत: इतने अन्यायपूर्ण थे कि वाइसराय की कौंसिल तक ने इन कामों का प्रतिवाद किया । दोनों दृष्टांतों में ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने अपने विचार अनिच्छुक भारत सरकार पर लाद डाले ।
पिछले दृष्टांत में राज्यसचिव सर हेनरी फाउलर ने सामान्य नीति इस प्रकार विर्धारित की:
“जब एक बार (ब्रिटिश) मंत्रिमंडल के निर्देश में किसी प्रकार की नीति अपना ली गयी है, तब भारत सरकार के प्रत्येक सदस्य का यह साफ कर्त्तव्य हो जाता है कि वह इस पर बिचार न करें कि क्या नीति होनी चाहिए थी, बल्कि यह सोचे कि निर्णीत नीति को कार्यान्वित करने का सबसे अच्छा ढंग क्या है ।”
ऊपरलिखित राजस्वों के अतिरिक्त आयकर प्राप्त धन का एक कीमती स्त्रोत सिद्ध हुआ । यह १८६० ई॰ में एक अस्थायी काम के तौर पर चालू किया गया था । इसका उद्देश्य था गदर द्वारा उत्पन्न की गयी वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना ।
प्रारंभ में यह पाँच सौ रुपयों या अधिक की सभी आमदनी पर चार प्रतिशत के हिसाब से तथा दो सौ रुपये पर और पाँच सौ रुपयों के बीच की सभी आमदनी पर दो प्रतिशत के हिसाब से एक सामान्य कर के रूप में था ।
यह १८६५ ई॰ में उठा दिया गया, किंतु दो वर्ष बाद व्यापारों एवं पेशों पर अनुमतिकर (लाइसेंस टैक्स) फिर रूपभेदित शकल में पुन-जीवित कर दिया गया । एक सामान्य आय-कर १८६९ ई॰ में पुन: लगाया गया, पर फिर हटा दिया गया । अंत में वित्तीय कठिनाइयों से पुन: लाचार होकर सरकार ने १८८६ ई॰ में सभी कृषीतर आयो पर एक कर लगाया । यह कर आगे भी चालू रहा, यद्यपि इसकी दरें समय-समय पर बदलती रहीं ।
दो शब्द मुद्रा की विवादग्रस्त समस्या के संबंध में भी कहना आवश्यक है । मुगल शासन के प्रारंभिक काल में सोने की मुहरें चाँदी के रुपये दोनों उत्तरी भारत में प्रचलित थे यद्यपि दक्षिणी भारत में सोना ही मुख्य सिक्का था ।
मुगल-साम्राज्य का पतन होने पर जो अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ, उसके फलस्वरूप बहुत तरह के सिक्के जारी हो गये क्योंकि सिक्कों का प्रचलन सर्वोच्च सत्ता का एक निशान समझा जाता था । यह कूता गया है कि नौ सौ चौरानवे विभिन्न तरहों के सिक्के, जो सोना और चाँदी दोनों के थे भारत में प्रचलित थे ।
व्यापार और वाणिज्य के लिए इसकी असुविधाएँ स्पष्ट थीं । ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस कठिनाई के हल करने की कोशिश की । एतदर्थ उसने सोना और चाँदी दोनों के सिक्के निकाले तथा उनमें निश्चित कानूनी अनुपात, वजन एवं विशुद्धता रखी । लेकिन दोनों धातुओं की कीमत में बढ़ाव-घटाव होते रहने के कारण दोनों तरहों के सिक्कों के बीच कानूनी अनुपात कायम रखना अत्यंत कठिन सिद्ध हुआ ।
धीरे-धीरे सोने की मुहर की कीमत गिर गयी और वह लुप्त हो गयी । १८१८ ई॰ में मद्रास के सोने के पगाडा का स्थान १८० ग्रेन ( शुद्ध) के चाँदी के रुपये ने ले लिया । १८३५ ई॰ में वर्तमान रूप और आकार का रुपया, जिसका वजन एवं शुद्धता १८१८ ई॰ के रुपये के बराबर ही रहने दी गयी, भारत के समग्र ब्रिटिश राज्य में एकमात्र कानूनी सिक्का बना दिया गया । सरकारी टकसालें यह रुपया जनता के लिए धड़ल्ले से ढालने लगीं । सोने की कीमत उसकी कानूनी कीमत के बराबर ही रही ।
१८४१ ई॰ में सोने के सिक्के पुन: चलाने की कोशिश की गयी तथा प्रति मुहर पंद्रह रुपयों की दर से सोने की मुहरें सार्वजनिक अदायगी के लिए स्वीकृत हुई । किन्तु १८४८-१८४९ ई॰ में आस्ट्रेलिया और कालीफोर्निया में सोने का पता लग जाने से इस धातु की कीमत गिर गयी तथा लार्ड डलहौजी ने १८४१ ई॰ का प्रयोग निश्चित रूप से छोड़ दिया । इस प्रकार सोना विनिमय के माध्यम के रूप में छोड़ दिया गया । लेकिन इससे प्रचलित मुद्रा का अभाव हो चला तथा व्यापार को धक्का लगा । भारत में चाँदी के बदले सोने की मुद्रा चलाने के बहुत-से प्रस्ताव किये गये पर उन्हें काम में न लाया गया ।
१८७४ ई॰ से समस्या कठिन हो चली । अधिकतर यूरोपीय देशों ने स्वर्ण मान अपना लिया था । चाँदी का उत्पादित परिणाम बढ़ गया । इन दोनों कारणों से सोने की तुलना में चाँदी का मूल्य कम हो गया । इस प्रकार जब १८७१ ई॰ में एक रुपया अंग्रेजी मुद्रा के दो शिलिंगों के बराबर था, १८९२ ई॰ में इसका मूल्य घटकर एक शिलिंग दो पेस के बराबर रह गया ।
भारत का विस्तृत व्यापार स्वर्ण मुद्रावाले विदेशों से था । अतएव परिस्थिति अत्यंत बुरी मालूम पड़ने लगी । १८७८ ई॰ में भारत सरकार ने राज्य-सचिव से सिफारिश की कि भारत में स्वर्ण मुद्रा चलायी जाए । किन्तु राज्य-सचिव ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया ।
१८९३ ई॰ में सरकार ने हर्शल समिति की सिफारिशों पेर अपनी मुद्रा में निम्नलिखित महत्वपूर्ण परिवर्तन किये:
(१) भारतीय टकसालें जनता के लिए सोने और चांदी के सिक्के धड़ल्ले से ढालने के लिए बंद कर दी गयीं ।
(२) एक शिलिंग चार पेस प्रति रुपये के अनुपात में रुपयों के विनिमय में सोना टकसालों में स्वीकार किया जाता था ।
(३) सार्वजनिक बकाया की अदायगी में पंद्रह रुपये प्रति सौव्रिन की दर से सौररिन स्वीकार किये जाते थे ।
(४) सोने के सिक्कों या सोने के विनिमय में उसी दर से करेंसी नोटों का निकाला जाना ।
इन कामों का परिणाम यह हुआ कि यद्यपि सोना अभी तक कानूनी सिक्का न बना था, तथापि यह मूल्य का मान बन गया तथा रुपयों के विनिमय मूल्य का चाँदी के असली दाम के बराबर होना बंद हो गया । इन नये कामों का यह मतलब लगाया गया कि ये अंत में स्वर्ण मुद्रा के अपनाये जाने के लिए प्रारंभिक कदम हैं ।
एक दूसरी समिति १८९८ ई॰ में सर हेनरी फाउलर के अधीन हुई । इसकी सिफारिशें १८९९ ई॰ में अपनायी गयीं । इनके अनुसार सौवरिन और रूपये दोनों एक शिलिंग चार पेंस प्रति रुपये की दर से असीमित कानूनी टेंडर बना दिये गये तथा टकसालें केवल सोने के सिक्के धड़ल्ले से ढालने के लिए खोली गयीं । सरकार के लिए रुपयों का ढाला जाना फिर शुरू किया गया । इससे जो लाभ हुआ उससे १९०० ई॰ में एक गोल्ड स्टैंडर्ड रिजर्व बनाया गया ।
किन्तु इसने भी भारतीय सिक्के की समस्या का समाधान नहीं किया । बीसवीं शताब्दी में अन्य परिवर्तन किये गये और आज भी यह भारतीय अर्थशास्त्र के सबसे अधिक विवादास्पद प्रश्नों में एक है ।
शासन का उच्चतर मान (Higher Standard of Governance):
भारत के शासन के कम्पनी के हाथों से क्राउन के हाथों में पड़ने का परिणाम यह हुआ कि भारत और इंगलैंड की सरकारों में अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया-यह हम पहले देख चुके हैं । समय बीतने के साथ-साथ, सिद्धांत और व्यवहार दोनों में भारतीय सरकार एक तौर से ब्रिटिश सरकार की मातहत शाखा मानी जाने लगी ।
राज्य-सचिव सर हेनरी फाउलर ने असंदिग्ध भाषा में कहा कि यदि ब्रिटिश मंत्रिमंडल के किसी निर्णय को भारत सरकार भारत के हितों के लिए घातक समझती है, तो भी उसे सदैव उस निर्णय को मानना ही पड़ेगा । एक दूसरे राज्यसचिव ने वैदेशिक नीति के सम्बन्ध में इसी प्रकार की बात कही ।
यह अवश्यंभावी था कि नीतियों एवं कार्य की रुपरेखा का निर्धारण करने में ब्रिटिश मंत्रिमंडल अधिकतर ब्रिटेन के स्वार्थों के सर्वोच्च विचार से प्रभावित हो और ज्यादातर साम्राज्यीय विचारों के लिए भारतीय स्वार्थों का बलिदान कर दिया जाय ।
यह खास तौर से व्यापार, शिल्प, मुद्रा और वैदेशिक नीति पर प्रभाव डालनेवाले मामलों में पाया जाता था तथा कुछ कम मात्रा में शासन की दूसरी शाखाओं में दृष्टिगोचर होता था । किन्तु इन असंदिग्ध बुराइयों के विरुद्ध हमें उनकी बराबरी में समान रूप से असंदिग्ध उन लाभों को भी रखना पड़ेगा, जो उन्हीं कारणों से भारत को प्राप्त हुए ।
ब्रिटिश सरकार से घनिष्ठ एवं अंतरंग सम्बन्ध ने, उन्नीसवीं सदी में यूरोप को एशिया से पृथक् करनेवाले उच्चतर प्रशासनिक आदर्शों एवं “आधुनिक” भावना का संचार कर, भारत सरकार में करीब-करीब क्रांति उत्पन्न कर दी । ब्रिटिश सरकार ने स्वभावत: प्रशासनिक क्षमता के उसी ऊँचे मान को भारत में लादने का प्रयत्न किया जो उनके अपने देश में विकसित हुआ था ।
पश्चिम की प्रबुद्ध उदार मानवतावादी भावना भारत में अपना प्रभाव महसूस कराने में नहीं चूकी । पश्चिम के वैज्ञानिक आविष्कार भी भारत में जल्द ही व्यवहृत होने लगे जिससे इसके भौतिक साधनों में वृद्धि हो । संक्षेप में इंगलैंड वह माध्यम बन गया, जिसके द्वारा यूरोप की आधुनिक प्रगतिशील भावना ने भारत में शासन के पुराने तंद्राग्रस्त मध्यकालीन रूप को फिर से सँवारा ।
यह प्रक्रिया निस्संदेह क्राउन के भारत का शासन अपने हाथों में लेने के पहले ही प्रारंभ हो चुकी थी । किन्तु उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्थ के पहले तक अनुभव-योग्य परिणाम और उल्लेखनीय रूपांतर नहीं हो पाये थे । यह नयी भावना तभी अच्छी तरह समझी जा सकती है, जब हम सरकार के कुछ विशेषत्व-सूचक कामों को लें । अब हम इसी पर आते हैं । पहले हम उन कामों पर विचार करें, जो मानवतावादी भावना से प्रेरित हुए थे ।
(क) मादक द्रव्यों पर प्रतिबंध (Prohibition on Substance Abuse):
मादक द्रव्यों से परहेज के आदर्श इंगलैंड और भारत दोनों में परिश्रमपूर्वक प्रचारित किये जाते थे । अंग्रेज जनता के एक अंश की यह बड़ी और दृढ़ माँग थी कि भारत में अफीम, भंग और शराब का व्यवहार बिलकुल उठा दिया जाए ।
भारत सरकार को चीन एवं स्ट्रेट्स में अफीम के व्यवहार के एकाधिकार से तथा भारत में अफीम, शराब एवं भंग पर आबकारी कर से बहुत मुनाफा होता था । फिर भी यह किसी सीमा तक लोकमत के सामने झुकने को लाचार हो गयी । १८९४ ई॰ में एक रायल कमीशन इस मामले की जाँच के लिए नियुक्त हुआ ।
१९०७ ई॰ में चीन से एक संधि हुई जिसके अनुसार तय हुआ कि अफीम का व्यापार धीरे-धीरे घटाया जाए और अंत में समाप्त कर दिया जाए । जहाँ तक तीन मादक द्रव्यों की घर में खपत का सम्बन्ध है, सरकार ने पूर्ण मादक द्रव्य निषेध की योजना को मानने से इनकार कर दिया, किन्तु उनके व्यवहार को सीमाबद्ध और नियंत्रित करने की एक निश्चित नीति अपनायी ।
एतदर्थ उसने एक ऊँचा आबकारी कर लगाया तथा इन चीजों के खुदरा व्यापार की अनुमति दी । इसने खुलमखुल्ला घोषणा की कि “इसकी निश्चित नीति मदत्यागी के लिए प्रलोभन घटा ने और दूसरों के बीच असंयम के निरुत्साह करने की थी; तथा इस नीति के रोकने में राजस्व का कोई विचार नहीं किया जा सकता था” ।
(ख) फैक्ट्री कानून-निर्माण (Factory Law-Building):
अंग्रेजी इतिहास के विद्यार्थी इससे परिचित हैं कि इंगलैंड में फैक्ट्री-कार्य-कर्ताओं के काम के घंटे घटाने और उन्हें जीवन की अन्य सुविधाएँ देने के लिए लगातार आंदोलन हो रहा था । बहुत-से कानून बनाकर ब्रिटिश सरकार ने मिल-मालिकों को लाचार कर दिया कि वे काफी आर्थिक हानि सहकर भी अपने कार्यकर्त्ताओं की हालत बेहतर करें ।
उसी भावना में भारत सरकार ने भी भारत में फैक्ट्री-कार्यक्रर्त्ताओं की हालत सुधारने के लिए बहुत-से कानून पास किये । १८८१ ई॰ और १८९१ ई॰ में पास हुए कानूनों द्वारा औरतों और बच्चों के लिए काम के घंटे सीमित कर दिये गये तथा स्थानीय सरकारों को अधिकार दे दिया गया कि वे फैक्ट्रियों में स्वच्छ पेय जल की आपूर्ति और उचित वायु-संचार एवं सफाई के लिए स्वयं नियम बनाएँ ।
(ग) अकाल में सहायता (Help in Famine):
शायद विचार्य काल में भारतीय शासन की सबसे महत्त्वपूर्ण सफलता थी अकाल में सहायता की एक निश्चित प्रणाली का निर्माण । भारत-जैसे कृषि-प्रधान देश में स्मरणातीत काल से ही अकाल इसके निवासियों के लिए एक महान् दंड सिद्ध होता गया । मेगास्थनीज ने लिखा है कि भारत में कभी अकाल नहीं पड़ता । किन्तु इस कथन को ठीक नहीं माना जा सकता ।
शायद ग्रीक लेखक को इसलिए भ्रम हुआ कि अकाल की कठोरता किसी बड़े क्षेत्र में उतनी ज्यादा महसूस न होती थी तथा अधिकतर स्थानीय क्षेत्रों तक ही सीमित रहती थी । आबादी बढ़ने और औद्योगिक क्रियाशीलता के घटने के साथ-साथ नियतकालिक अकाल अधिक भयंकर रूप धारण करने लगे ।
हमलोगों को इसका ठीक-ठीक पता नहीं है कि ब्रिटिश काल के प्रारंभ तक इनके द्वारा किया गया विनाश किस हद तक हुआ । १७७० ई॰ में बंगाल में एक भयंकर अकाल पड़ा तथा आबादी का करीब एक तिहाई भाग इसका शिकार हो गया ।
अगली सदी में भारत के विभिन्न भागों में अकाल पड़ते रहे । १८६६-१८६७ ई॰ में एक घोर अकाल पड़ा । इसके कारण उड़ीसा में बहुत लोगों की जानें गयीं । यह कलकत्ते से मद्रास तक संपूर्ण पूर्वी समुद्रतट पर फैल गया ।
अगले दस वर्षों में स्थानीय अकाल पड़े । संयुक्त प्रांत, पंजाब और राजस्थान में १८६८-१८६९ ई॰ में अकाल पड़ा तथा उत्तरी बिहार में १८७३ ई॰ में दुर्भिक्ष आया । इसके बाद एक दूसरा भयंकर अकाल १८७६ ई॰ में आया । यह करीब दो वर्षो तक ठहरा तथा मद्रास, मैसूर, हैदराबाद, बम्बई और संयुक्त प्रांत के बड़े क्षेत्र में छाया रहा ।
इन सभी अवसरों पर सरकार द्वारा लोगों को आराम पहुँचाने के लिए विभिन्न उपाय अपनाये गये । किन्तु वे अधिक प्रभावकारी न थे । यह पाया गया कि निश्चित सिद्धांतों और सुचिंतित कार्य-प्रणालियों के अभाव में, विभिन्न क्षेत्रों में दी गयी सहायता न तो एकरूप थी और न व्यय के अनुरूप ही थी ।
उदाहरणार्थ मद्रास की अपेक्षा बम्बई में आधे से भी कम खर्च में अधिक लोगों की जानें बचा ली गयीं । गवर्नर-जनरल लार्ड लिटन का यह विचार ठीक था कि अकाल में सहायता के सामान्य सिद्धांतों का निश्चित किया जाना आवश्यक था । एतदर्थ उसने जनरल सर रिचार्ड स्ट्रची के अधीन एक मजबूत कमीशन नियुक्त कर दिया । कमीशन ने १८८० ई॰ में रिपोर्ट दी ।
इसकी शिफारिशों के आधार पर ही आगे विभिन्न अकाल-नियमसंग्रह (फेमिन कोड) प्रचारित हुए-भारत सरकार ने १८८३ ई॰ में फेमिन कोड प्रचारित किया तथा आगे के वर्षों में विभिन्न प्रांतीय फेमिन कोड तैयार किये गये ।
कमीशन इस आधारभूत सिद्धांत से चला कि अकाल के समय में जरूरतमंद लोगों की सहायता पहुँचाना राज्य का कर्त्तव्य है । सहायता पहुँचाने का यह रूप तय हुआ कि बली लोगों को काम दिया जाए तथा वृद्ध और अशक्त लोगों में भोजन या द्रव्य बाँटा जाए । प्रथम कार्य के लिए सहायता कार्य की योजनाएं पहले से ही तैयार की जानी चाहिए, जिससे अकाल पड़ने के तुरंत बाद ही वास्तविक काम शुरू हो सके ।
ये काम स्थायी उपयोगिता के हों तथा बड़े पैमाने पर कराये जाएँ जिससे बड़ी संख्या में लोगों को काम मिल सके । गाँवों में पोखरों की खुदाई या बाँधों का ऊँचा किया जाना इत्यादि-जैसे स्थानीय काम भी लिये जा सकते थे जिससे बड़े कामों पर न भेजे जाने योग्य लोगों को काम मिल जाए ।
इस पर विशेष जोर दिया गया कि भूखमरी के कारण शारीरिक शक्ति क्षीण होने के पहले ही लोगों को काम मिल जाना चाहिए । और अधिक सहायता भूमिराजस्व एवं मालगुजारी स्थगित और माफ करके तथा बीज का अनाज एवं बैलों की खरीद के लिए कर्ज देकर हो सकती है ।
कमीशन का विचार था कि, सहायता देने में बर्बादी और फिजूलखर्ची रोकने के लिए, खर्च का एक बड़ा भाग स्थानीय अधिकारियों को उठाना पड़ेगा तथा केंद्रीय सरकार, प्रांत के साधनों एवं योग्यताओं की सावधानीपूर्वक परीक्षा करने के बाद केवल प्रांतीय कोष को बढ़ाकर पूरा करेगी ।
सम्बद्ध लोगों में और भी उत्तरदायित्व का भाव जगाने के लिए, कमीशन ने सिफारिश की कि सहायता करदाताओं के प्रतिनिधियों के द्वारा दी जानी चाहिए, जिन्हें रकम का बड़ा भाग देना है । अकाल से होनेवाले भारी अज्ञात खर्च को पूरा करने के लिए यह निर्णय किया गया कि प्रत्येक वर्ष डेढ़ करोड़ रुपये अलग रख दिये जाएँ, जिससे “फेमिन रिलीफ ऐंड इंश्यो-रेंस फंड” (अकाल सहायता और बीमा कोष) का निर्माण हो ।
आगे के वर्षों में जो छोटे अकाल पड़े तथा १८९६-१८९७ ई॰ एवं १८९९-१९०० ई॰ में जो भयंकर दुर्भिक्ष आये उनमें फेमिन कोड (अकाल-नियमसंग्रह) के सिद्धांत प्रभावकारी रूप में कार्यान्वित किये गये । १८९६-१८९७ ई॰ का अकाल संयुक्त प्रांत, बिहार, मध्य प्रदेश (सेंट्रल प्राविंसेज) मद्रास और बम्बई में पड़ा ।
करीब सवा लाख बर्गमीलों के तीन करोड़ चालीस लाख निवासी अत्यंत कष्ट में थे । १८९६-१८९७ ई॰ के अकाल के बाद सर जेम्स लायल के अधीन एक कमीशन नियुक्त हुआ इसने १८८० ई॰ में अपनाये गये सिद्धांतों का पूरा समर्थन किया केवल योजना के विस्तृत कार्यान्वयन में कुछ परिवर्तन सुझाए ।
१८९९-१९०० ई॰ में एक भयंकर अकाल पड़ा, जिससे पौने पाँच लाख वर्गमीलों के पाँच करोड़ पंचानबे लाख निवासी प्रभावित हुए । इस वर्ष (१८९९-१९००) ई॰ में बम्बई, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बड़ौदा और मध्य भारतीय रजवाड़े विभिन्न मात्राओं में कष्ट के भागी हुए । सहायता के काम बड़े पैमाने पर किये गये । लार्ड कर्जन ने अनुमान लगाया “कि भारत की संपूर्ण आबादी का एक चौथाई हिस्सा या कम परिमाण में सहायता-कार्यों के अंतर्गत चला आया था” ।
इस अकाल के फलस्वरूप एक दूसरा कमीशन सर ऐंटोनी मैकडोनेल के अधीन १९०० ई॰ में नियुक्त हुआ । इसने १९०१ ई॰ में रिपोर्ट दी । इसने भी १८८० ई॰ के सिद्धांतों का समर्थन किया, किन्तु उन लाभों पर जोर दिया, जो भूमि-राजस्व एवं मालगुजारी के पहले ही स्थगित करने और बीज का अनाज एवं मवेशी की खरीद के लिए पहले ही उधार रुपये बाँटने से हो सकते थे । इसने सिफारिश की कि जिस प्रांत में सहायता- कार्यों के बड़े पैमाने पर अपनाये जाने की सभावना हो, वहाँ एक अकाल-आयुक्त (फेमिन कमिश्नर) नियुक्त किया जाए ।
कमीशन की दूसरी विभिन्न सिफारिशों में निन्नलिखित अधिक महत्वपूर्ण माने जा सकते है:
(i) खास परिस्थितियों में बड़े सार्वजनिक कामों की अपेक्षा, जो अब तक सहायता-कार्यों की मुख्य विशेषता थे गाँव में स्थानीय कामों को तरजीह दी जाए ।
(ii) सहायता बाँटने के मामले में सैर-सरकारी मदद अधिक पैमाने पर ली जाए ।
(iii) कृषि-बैकों की स्थापना तथा कृषि के उन्नत तरीकों का प्रयोग ।
(iv) सिंचाई के काम का अधिक विस्तार ।
इस प्रकार कमीशन ने “नैतिक युद्धकला” अथवा “जनता में जी जान लगा देने” की आवश्यकता पर जोर डाला । इसका अर्थ यह था कि ज्यों ही खतरे का कोई लक्षण मालूम पड़े, त्यों ही ऋणों एवं अन्य साधनों से जनता की सहायता की जाए, जैसे- समय पर अच्छे पैमाने पर तकावी कर्ज देकर; भूमि-राजस्व को स्थगित करके; आनेवाली विपत्ति के लक्षणों के संबंध में सतर्क होकर; खानगी दान का संगठन कर; तथा गैर-सरकारी समर्थन प्राप्त करके ।
ये सिफारिशें सरकार द्वारा स्वीकृत और कार्यान्वित हुईं । इन्हीं के आधार पर आगे की अकाल-सहायता-नीति निर्धारित हुई । इस प्रकार भारत में अकाल बंद करने एवं उसका सामना करने के लिए एक बड़ा कदम उठाया गया ।
यहाँ यह कह देना उचित होगा कि रेलवे का विस्तार भी अकाल-सहायता का एक महत्व-पूर्ण साधन हुआ । वह इस तरह कि इसके द्वारा संकटग्रस्त प्रांत में अनाज भेजने में सुविधा होती थी और वह अनाज जरूरत के मुताबिक विभिन्न क्षेत्रों में बाँट दिया जाता था ।
(घ) रेलवे (Railway):
रेलवे प्रणाली का बिस्तार सरकार के भौतिक साधनवर्धक कार्यों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । डलहौजी द्वारा बहुत ही छोटे पैमाने पर प्रारंभ होकर अन्तत: ३५ करोड़ पौंड की लागत से ३६,००० मील रेलवे का निर्माण हुआ । प्रारंभ में ये साहसपूर्ण उद्योग खानगी प्रयत्नों पर छोड़ दिये गये । भारत सरकार ने गारंटी देकर खानगी कंम्पनियों को यह काम उठाने के लिए प्रोत्साहित किया ।
वह गारंटी यह थी कि यदि उनका वास्तविक लाभ पाँच प्रतिशत से नीचे गिर गया, तो सरकार बाकी अदा कर देगी । इसके बदले सरकार ने कुछ विशेषाधिकार प्राप्त किये । यदि कंपनी का लाभ गारंटी-प्राप्त पाँच प्रतिशत से अधिक हुआ, तो सरकार अतिरिक्त लाभ में आधे की भागी बनेगी । और भी, सरकार रेलवे लाइनों के प्रबन्ध पर नियंत्रण रख सकती थी तथा एक करारी समय के अंत में जो बहुधा पचीस वर्ष होता था, उन्हें एक निश्चित दर पर खरीद सकती थी ।
प्रारंभ में, और वस्तुत: उन्नीसवीं सदी के अंत तक, सरकार को बहुत घाटा रहा । किन्तु प्रारम्भिक ठेके की समाप्ति पर कम्पनियों पर अधिक अनुकूल शर्तें लाद दी गयीं और कुछ हालतों में सरकार ने स्वयं रेलवे लाइनें बनवायीं और उनका प्रबन्ध किया । धीरे-धीरे रेलवे राजस्व का साधन बन गयी । रेलवे के महत्व का निर्णय केवल इसके द्वारा कमाये गये लाभ से ही नहीं किया जाना चाहिए ।
इसका महत्व आवागमन की सुविधा तथा व्यापार और उद्योग को दी गयी प्रेरणा में भी निहित था । इस विशाल देश की दूरस्थ जगहों को सुगम पहुँच के भीतर लाकर इसने भारतीयों में एकता और राष्ट्रीयता की भावना फैलायी ।
(ङ) वन (Forest):
भारत के बन सदैव राजस्व का एक बहुमूल्य साधन सिद्ध हुए हैं । किन्तु वन शास्त्र के विकास ने, जो विशेषकर जर्मनी और फ्रांस में हुआ, दिखला दिया कि वन जलवायु पर भारी प्रभाव डालते हैं । उसने उन मार्गों को भी निर्दिष्ट किया जिनपर चलकर किसी बन को कायम रखा जा सकता है तथा देश को अधिकाधिक लाभ पहुँचाने के लिए विकसित किया जा सकता है ।
१८६४ ई॰ में एक जर्मन विशेषज्ञ की भारत के वन-महानिरीक्षक के रूप में नियुक्ति से भारतीय वनों के प्रबन्ध में नवीन वैज्ञानिक पद्धति का सूत्रपात हुआ । सरकारी वनों की रक्षा और कुशल प्रबन्ध के लिए १८६५ ई॰ में एक कानून पास हुआ । अगले वर्षों में बहुत-से अन्य कानून भी पास हुए । १८७८ ई॰ में देहरादून में एक ट्रेनिंग स्कूल की स्थापना की गयी । वन-विभाग के नियंत्रण में ५००,००० वर्गमील का क्षेत्र था और भारत को वनों की एक वैज्ञानिक पद्धति का लाभ मिला ।
(च) सिंचाई (Irrigation):
भारत-जैसे कृषि-प्रधान देश में सिंचाई सदैव शासन की एक महत्वपूर्ण शाखा रही है । हिन्दू और मुसलमान दोनों तरह के शासकों द्वारा उल्लेखनीय सिंचाई परियोजनाएँ कार्यान्वित की गयीं । प्रारम्भिक ब्रिटिश शासक भी उन्हीं के पद चिह्नों पर चले । किन्तु १८६६ ई॰ में लार्ड लारेंस ने एक नवीन नीति चलायी ।
उसने सार्वजनिक ऋणों द्वारा विस्तृत सिंचाई योजनाओं के लिए धन की आवश्यकता पूरी की । इस नवीन नीति के परिणाम हुए-आगरा नहर (१८७४ ई॰) निचली गंगा नहर (१८७८ ई॰) और सरहिंद नहर (१८८२ ई॰) । सहायक नहरों समेत सरहिंद नहर की पूरी लम्बाई ३७०० मील थी ।
पंजाब की “कोलोनी नहरों” की एक विशिष्ट कोटि थी । उनका उद्देश्य था विस्तृत बंजर भूमि को आबाद करना, जो सरकार की थी । निचली चनाब नहर १८९० ई॰ और १८९९ ई॰ के बीच बनी । इसकी पूरी लम्बाई २७०० मील है । इससे चनाब और रावी नदियों के बीच बीस लाख एकड़ से अधिक भूमि की सिंचाई होती थी ।
यह क्षेत्र प्रारंभ में बंजर पड़ा था । इसमें कोई आबादी न थी । १९०१ ई॰ में इससे आठ लाख लोगों का भरण-पोषण होने लगा । नहर से वार्षिक आमदनी भी आने लगी जो लगी हुई पूंजी का ४० प्रतिशत थी । सिंचाई प्रत्येक प्रान्तीय प्रशासन की एक महत्वपूर्ण शाखा बन गयी । जोत में लायी हुई जमीन सींचने और बंजर जमीन को जोत में लाने के उद्देश्य से छोटी-बड़ी अनेक योजनाएँ लागू की जा रही थीं ।
सैनिक शासन (Military Rule):
गदर तक और उसके बाद भी बहुत समय तक बंगाल, बम्बई और मद्रास की प्रेसिडेंसियाँ अलग सेनापतियों के अधीन अलग सेनाएँ रखती थीं । यद्यपि बंगाल सेना का प्रधान सेनापति नाममात्र के लिए भारत की सेना का प्रधान बन गया, तथापि बम्बई और मद्रास की सरकारें अपनी सेनाओं का स्वयं प्रबंध करती थीं तथा उन्हें मुख्यत स्थानीय रूप से भर्ती करती थी ।
१८९३ ई॰ में एक कानून पास हुआ, जो १८९५, ई॰ में कार्यान्वित हुआ । इसके अनुसार भारत की संपूर्ण सेना अकेले प्रधान सेनापति के नियंत्रण में रख दी गयी यह चार क्षेत्रीय इकाइयों में बाँट दी गयी-बंगाल, मद्रास बम्बई और पंजाब की क्षेत्रीय इकाइयाँ हुई प्रत्येक एक लेफिटनेंट-जनरल के अधीन रही ।
१९०४ ई॰ में लार्ड किचनर ने विभिन्न सिद्धांतों पर एक नया संगठन बनाया । भारतीय सेना को तीन सैनिक कमानों और नौ सेनादलों (डिवीजनों) में संगठित किया गया । इस प्रणाली के लाभ इस बात में निहित थे कि यह प्रणाली संगठन के शांति-कालीन कार्य और युद्ध-काल में होनेवाले आवश्यक कार्य को मिला देती थी ।
दूसरें शब्दों में, वही जनरल शांति और युद्ध दोनों में सेना की उन्हीं इकाइयों के प्रधान होते । प्रत्येक प्रेसिडेंसी सेना के प्रारंभ में तीन तत्व होते थे, अर्थात् – (i) भारतीय सैनिक, जो मुख्यतया स्थानीय रूप से भर्ती किये जाते थे (ii) यूरोपीय इकाइयाँ, जो कम्पनी की थीं और (iii) रायल रेजिमेंट ।
१८५८ ई॰ के बाद अंतिम दोनों को मिलाना आवश्यक हो गया । किन्तु इससे कम्पनी के सैनिकों में घोर असंतोष फैल गया तथा करीब दस हजार आदमियों ने अपने बर्खास्त (बरी) किये जाने का दावा किया । यह “श्वेत गदर” के नाम में प्रसिद्ध है । उदार दान और दूसरी रियायतों के देने से यह असंतोष शांत हो गया । सिपाही-विद्रोह के फलस्वरूप सेना के संगठन में बहुत-से परिवर्तन किये गये ।
प्रथमत:, यूरोपीय सैनिकों का अनुपात बढ़ा दिया गया तथा भारतीय सैनिकों का अनुपात घटा दिया गया । १८६३ ई॰ में पैंसठ हजार यूरोपीय सैनिक थे, जब कि एक लाख चालीस हजार भारतीय थे । एक तौर से यही अनुपात प्रथम विश्व-युद्ध के छिड़ने के पहले तक बरता गया । गोलंदाज फौज सिर्फ यूरोपीय सैनिकों द्वारा ही नियंत्रित होती थी ।
दूसरे, भारतीय सैनिकों, विशेषकर उत्तरी भारत के सैनिकों की बनावट में महान् परिवर्तन आ गया । पहले ये सिपाही उसी क्षेत्र से भर्ती किये जाते थे तथा करीब-करीब ऊँची जातियों के ही होते थे । गदर ने इस प्रणाली की त्रुटियों को दिखा दिया । तब से भर्ती मिश्रित आधार पर होने लगी, जिससे हर कम्पनी (सेनादल) में सभी नस्लों, जातियों और धर्म-विश्वासों के लोग रहें जो आसानी से एकबद्ध होकर विद्रोह नहीं कर सकें ।
एक तीसरा परिवर्तन भी आया, जो बहुत धीरे-धीरे महसूस किया गया । यह था गुर्खो, पठानों और सिखों-जैसी लड़नेवाली नस्लों के अधिक तत्वों का प्रवेश । समय बीतने के साथ इन्होंने बहुत हद तक बंगाल सेना के हिन्दुस्तानी सैनिकों तथा बम्बई और मद्रास में स्थानीय रूप से भर्ती किये गये सिपाहियों का स्थान ले लिया ।
सबसे प्रचंड परिवर्तन मद्रास सेना में हुए । यह धीरे-धीरे सिखों, गुर्खों एवं अन्य उत्तरवान्नों से भर दी गयी तथा अंत में तेलगओं की भर्ती बिलकुल बंद हो गयी । १८६१ ई॰ से एक सैनिक अफसर गवर्नर-जनरल की एक्जिक्यूटिव कौंसिल का सैनिक सदस्य नियुक्त होने लगा । उसी के द्वारा सरकार भारतीय सेना के शासन का सुपर्यवेक्षण करती थी ।
परिस्थिति इस बात से बहुत बेकायदा हो चली कि प्रधान सेनापति भी गवर्नर-जनरल की एक्जिक्यूटिव कौंसिल का एक असाधारण सदस्य था । यद्यपि वह सैनिक सदस्य से जरूर ही ओहदे में ऊपर था, तथापि यदि वह कोई प्रस्ताव देना चाहता, तो वह (प्रस्ताव) सैनिक सदस्य के पास पुनर्परीक्षा एवं आलोचना के लिए पेश होता ।
जिस समय प्रत्येक प्रेसिडेंसी अलग-अलग सेना रखती थी, उस समय इस विचित्र अनरीति के लिए थोड़ा औचित्य हो सकता था । लेकिन जब सारी भारतीय सेना १८९५ ई॰ में अकेले प्रधान सेनापति के नियंत्रण में आ गयी, तब इस अनरीति के प्रतिकार की जरूरत पड़ गयी । लार्ड किचनर ने १९०४ ई॰ में इस प्रश्न को लिया । उसने इस अनरीति के हटाने का प्रस्ताव किया ।
एतदर्थ उसने प्रधान सेनापति को भारत सरकार का एकमात्र सैनिक परामर्शदाता बनाना चाहा । उस समय लार्ड कर्जन वायसराय था । उसने इस प्रणाली का घोर विरोध किया; क्योंकि उसे भय था कि इससे एक बड़ी सीमा तक सैनिक अधिकारियों पर से असैनिक अधिकारियों का अंतिम नियंत्रण हट जाएगा और इस प्रकार संविधान के आधारभूत सिद्धांत प्रभावित होंगे ।
किन्तु राज्य-सचिव लार्ड किचनर से सहमत हो गया । उसका निर्णय ऐसे शब्दों में पहुँचाया गया कि वाइसराय लार्ड कर्जन ने अगस्त, १९०५ ई॰ में अपना त्यागपत्र दे दिया । १९०७ ई॰ के बाद प्रधान सेनापति ही सैनिक शासन के लिए भारत सरकार के अधीन एकमात्र उत्तरदायी अधिकारी हो गया ।