भारत में व्यापार और उद्योग में ब्रिटिशों का प्रभुत्व | Dominance of British in Business and Industry in India.

यह पहले ही लिखा जा चुका है कि किस प्रकार भारत का वैदेशिक व्यापार यूरोपीय राष्ट्रों, खासकर अंग्रेजों, के हाथों में चला गया । यद्यपि ईस्ट इंडिया कम्पनी का व्यापार-सम्बन्धी एकाधिकार १८१३ ई॰ में उठा दिया गया और जहां तक भारत में व्यापार की बात थी, धीरे-धीरे सभी यूरोपीय राष्ट्र समान स्थिति में रख दिये गये, तथापि बिटिश राष्ट्र ही उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों तक एक तौर से भारतीय व्यापार का एकाधिकार रखे रहा ।

अंशत: यह अंग्रेजों के असंदिग्ध सामुद्रिक आधिपत्य के कारण हुआ और अंशत: उनकी भारत में राजनीतिक प्रभुता के कारण साथ ही, दूसरे ऐतिहासिक कारण भी उसी दिशा में काम कर रहे थे । उन्नीसवीं सदी के अंतिम भाग में जाकर जर्मनी और जापान ने भारत में बिटिश व्यापार की इस सुरक्षित भूमि में अनाधिकार प्रवेश शुरू किया ।

सामुद्रिक व्यापार का परिणाम स्वेज नहर खुलने के साथ बेहद बढ़ने लगा । १८५५- १८६० ई॰ में भारतीय व्यापार का औसत वार्षिक मृल्य करीब बावन लाख रुपये था । १८६९ ई॰ से, जब कि स्वेज नहर खुली, शुरू करके पाँच वर्षों के भीतर निर्यातों और आयातों का औसत वार्षिक मूल्य करीब नब्बे करोड़ रुपयों तक जा पहुँचा ।

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१९०० ई॰ में औसत मूल्य दो सौ करोड़ से भी बढ़ गया, जब कि १९२८-१९२९ ई॰ में यह छ: सौ करोड़ से भी आगे चला गया । आयातों और निर्यातों की प्रकृति भी बदल गया । उद्योग की तैयार चीजों के बदले भारत अब जूट (पाट) गेहूँ, कपास, तेलहन, चाय इत्यादि बाहर भेजने लगा तथा यूरोपीय शिल्प की चीजें बाहर से मँगाने लगा, जिसका जिक्र आगे किया जाएगा ।

विदेशी व्यापार के बड़े परिमाण का अर्थ हो जाता है उसी मात्रा में भीतरी व्यापार का विस्तार । इसमें तीन बातों से सुबिधा हो गयी-बिटिश शासन के द्वारा शांति युग की स्थापना, देश के भीतर रास्तों की क्लेशप्रद चुंगियों का धीरे-धीरे उठा दिया जाना, तथा जल-या थल-मार्ग से ले जाने एवं परिवहन और संसार के साधनों का विकास । प्रांतों में रास्ते की चुंगियाँ १८३६ ई॰ और १८४४ ई॰ के बीच धीरे-धीरे उठा दी गयीं । १८४८ ई॰ तक अंतर्प्रातीय व्यापार उनसे मुक्त हो गया ।

रेलवे, स्टीभचालित जहाजों, नहरों, तार एवं समुद्री तार के सहारे परिवहनों का विकास, जिसने भारतीय व्यापार में क्रान्ति उत्पन्न कर दी, ज्यादातर १८५८ ई॰ के बाद हुआ । गदर तक रेलवे एक तौर से भारत में अज्ञात थी केवल कलकत्ता, बम्बई और मद्रास के इर्दगिर्द कुछ मीलों में यह बिछायी गयी थीं । मगर सदर की विपत्तियों ने परिवहन के द्रुतगामी साधन के मूल्य के सम्बन्ध में सरकार की आँखें खोल दीं ।

१८७१ तक रेलवे की एक सामान्य प्रणाली बनकर तैयार हो गयी । इसने विभिन्न प्रांतों को तथा प्रत्येक प्रांत की (समुद्रतट या नदीतट के) पीछे की भूमि को इसके बंदरगाहों से जोड़ दिया । तार का बनना १८५१ ई॰ में शुरू हुआ था । वास्तविक रूप में प्रभाव- कारी डाक-प्रणाली, सस्ती डाक दरों के साथ, १८५४ ई॰ में चालू की गयी ।

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प्रथम स्टीमचालित जहाज गंगा में गदर के कुछ ही वर्ष पहले चले । जहाँ तक सड़कों और नहरों के विकास की बात है, १८५४-१८५५ ई॰ में लार्ड डलहौजी द्वारा सार्वजनिक निर्माण विभाग (पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट या पी. डबल्यू. डी.) के संगठित होने के पूर्व कोई उल्लेखनीय काम नहीं हुआ । अंत में, १८६५ ई॰ में भारत और यूरोप के बीच प्रथम तार सम्बन्ध स्थापित हुआ ।

उद्योग (Industry):

पश्चिम से नयी और सस्ती यंत्र-निर्मित चीजों के आगमन से धीरे-धीरे लोगों की रुचियां और आदत बदल गयीं । पुरानी भारतीय पैदावारें करीब- करीब पूर्णतया निकाल दी गयीं । उनकी जगह विदेशी आयातों ने ले ली । यदि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में आनेवाली चीजों की सूची का अध्ययन किया जाए, तो यह आर्थिक और सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों से मनोरंजक होगा ।

इसमें विलास-वस्तुएं थीं, जैसे- रेशमी वस्त्र व ऊनी कपड़े चमड़ा एवं चमड़े के सामान, लकड़ी के असबाब एवं साज-सामान, बड़ी घड़ियाँ एवं छोटी घड़ियाँ, मिट्टी के वर्तन एवं चीनी मिट्टी के बर्तन, शीशा एवं शीशे के बने सामान, कागज, दपती, लिखने के सामान और तत्संबंधी वस्तुएँ, खिलौने एवं खेलों की आवश्यक वस्तुएँ, सुगंधित द्रव्य, सिगरेटें, गाड़ियां एवं बरिया, तथा और हाल से बाइसिकिलें, मोटर-साइकिलें और मोटर-कारें ।

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इसमें उन चीजों को जोड़ना है, जो प्रत्येक घर में करीब-करीब आवश्यक हो गयी है, जैसे- दियासलाइयाँ, सीने की मशीनें, छाते, साबुन, सस्ता शीशा एवं चीनी मिट्टी से निर्मित वस्तु-समूह, कलमें एवं निबें, अल्युमिनियम एवं कलईयुक्त लोहे के सामान, टार्च और किरासन तेल ।

इन दोनों में से कोई भी सूची पूरी नहीं है । किन्तु आयात की हुई वस्तुएँ नयी आदतों एवं रुचियों की वृद्धि सूचित करती हैं, जो इन भारतीय उद्योगों के लिए घातक सिद्ध हुई हैं, जैसे- महीन ऊन, रेशम एवं सूत के सामनों का शिल्प, कांसे के सामानों का शिल्प, इत्यादि । यदि ऐसा न होता, तो ये उद्योग अभी भी उन्नत रहते ।

इस प्रकार धीरे-धीरे किन्तु क्रमिक रूप से भारतीय बाजारों में विदेशी तैयार माल भर गये तथा भारत का, पुराना गृह-उद्योग भारतीय अर्थ-पद्धति में करीब-करीब नगण्य स्थान का अधिकारी रह गया ।

धीरे-धीरे भारत इस संज्ञाहीनता से उठा, जिसमें वह पश्चिम के इस आकस्मिक आधात से पटक दिया गया था । यह असंभव था कि भारतीयों-जैसी एक अधिक सभ्य और बौद्धिक नस्ल बहुत समय तक औद्योगिक जगत में नपुंसक बनी बैठी रहती । धीरे-धीरे उद्योग आधुनिक ढंगों पर संगठित होने लगे ।

इसका परिणाम विगत सदी की आठवीं दशाब्दी में भारत के निर्यातों और आयातों पर उल्लेखनीय रूप में दीख पड़ा । इस प्रकार भारत के संपूर्ण निर्यातों से इसके तैयार मालों के निर्यातों का अनुपात १८७९ ई॰ में आठ प्रतिशत था, जो बढ्‌कर १८९२ ई॰ में सोलह प्रतिशत हो गया तथा १९०७-१९०८ ई॰ में बाईस प्रतिशत हो गया; इसी तरह संपूर्ण आयातों से तैयार मालों के आयातों का अनुपात १८७९ ई॰ में पैंसठ प्रतिशत था, जो घटकर १८९२ ई॰ में सत्तावन प्रतिशत हो गया तथा १९०७ ई॰ में तिरपन प्रतिशत रह गया ।

भारत के बड़े पैमाने पर किये जानेवाले संगठित उद्योगों में अधिक महत्वपूर्ण ये हैं-रूई, पाट (लूट) लोहा एवं इस्पात, कागज, चमड़े को कमाना या शोधना, और चमड़ा । लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंत तक इन चीजों में किये जानेवाले व्यापार के पूर्ण परिमाण की तुलना में इनकी बहुत कम प्रगति हुई ।

तब भी यह अच्छा प्रारम्भ था तथा इसकी महान् संभावनाएं थीं । यह भी ख्याल रखना चाहिए कि इन बड़े उद्योगों का प्रबंध सदैव भारतीयों द्वारा नहीं होता था, इनमें से कुछ के मालिक यूरोपीय थे ।

सूती मिलों का इतिहास भारत में इस नवीन औद्योगिक जागरण की प्रकृति और मात्रा का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है । यों तो कुछ छिटपुट उदाहरण थे, जैसे १८१८ ई॰ में कलकत्ते में एक मिल खड़ी की गयी थी किन्तु, इन्हें छोड्‌कर, यह उद्योग प्रारंभ में बम्बई में केंद्रित था, जहाँ १८५४ ई॰ में पहली मिल चालू की गयी ।

१८७७ ई॰ के बाद बहुत-सी सूती मिलें नागपुर, अहमदाबाद, शोलापुर-जैसे कपासोत्पादक क्षेत्रों मे और कुछ अन्य स्थानों में चालू की गयीं । १९०५ ई॰ में बंगाल में जो स्वदेशी दो- लन चला, उससे इस उद्योग को प्रेरणा मिली । तब से बड़ी तायदाद में मिलें चालू की गयी हैं । बहुत-सी मिलें बंगाल में भी खुली हैं ।

किन्तु इस नवजात उद्योग को, अन्य उद्योगों के ही समान, घोर विषमताओं के विरुद्ध अपना मार्ग प्रशस्त करना पड़ा । इसे उस बाजार में स्थान पाने के लिए लड़ना था, जिसे पश्चिम ने दृढ़तापूर्वक दबोच रखा था । इसे पश्चिमी शिल्पियों के लंबे एवं परिपक्य अनुभव और असीमित पूंजी के विरुद्ध संघर्ष करना था ।

इस असमान संघर्ष में यह सरकार से किसी समर्थन की आशा नहीं कर सकता था । बल्कि, जैसा कि घटनाओं ने दिखलाया, इसे प्रारंभ में इसकी ( सरकार की) प्रत्यक्ष शत्रुता का सामना करना पड़ा । लंकाशायर के शिल्पी भारतीय मिलों की सफलता से चिंतित हो उठे । उनके दबाव के कारण भारत सरकार ने तैयार अंग्रेजी सूती मालों को पुराने आयात-कर से मुक्त कर दिया, जो भारतीय उद्योग के लिए संरक्षण देता आ रहा था । जब वित्तीय कठिनाइयों के कारण आयात-कर को पुन: लगाना पड़ गया, तब बम्बई के सूती शिल्पों पर बल बराबर करनेवाला आबकारी कर लगाकर लंकाशायर के हितों को प्रसन्न किया गया ।

भारत के महान् दुर्भाग्यवश इसका उद्योग अठारहवीं सदी में इंगलैंड की संरक्षणवादी नीति और उन्नीसवीं सदी की नि:शुल्क व्यापारनीति का समान रूप से शिकार बन गया-इन दोनों विरोधी सिद्धांतों ने ब्रिटिश उद्योग के पक्ष में और भारतीय उद्योग के विपक्ष में काम किया । ये कठिनाइयाँ अंशत: भारतीय उद्योग की बहुत धीमी प्रगति की व्याख्या करती हैं ।