Read this article in Hindi to learn about:- 1. अंग्रेज-मराठा-संबंध (British Maratha Relations) 2. अंग्रेज-मैसूर-संबंध (British-Mysore Relationship) 3. हैदराबाद और कर्णाटक से ब्रिटिश संबंध (Relationship of British with Hyderabad and Karnataka) 4. अवध, बनारस और रुहेलखंड से ब्रिटिश सम्बन्ध (British Relations with Awadh, Banaras and Ruhalkhand).
अंग्रेज-मराठा-संबंध (British Maratha Relations):
(क) प्रथम अंग्रेज-मराठा युद्ध (First British-Maratha War):
पानीपत की चोट से पुनर्जीवन प्राप्त करने के बाद मराठे पुन: पूरे बल के साथ सन् १७७० ई॰ में उत्तर में प्रकट हुए । वे दिल्ली के असहाय बादशाह शाह आलम द्वितीय को अपने नियंत्रण में ले आये । तरीका यह रहा कि कुछ विशेषाधिकारों के बदले मराठों ने उसे अपनी राजधानी तक सुरक्षित रूप में पहुँचाना स्वीकार किया ।
वारेन हेस्टिग्स ने सितम्बर, १७७३ ई॰ में जो बनारस की संधि की, उसका एक उद्देश्य उत्तर में मराठों के नये दावों को रोकना भी था । किन्तु इसी बीच मराठों पर घोर विपत्ति आ गयी । नौजवान पेशवा माधव राव प्रथम सन् १७७२ ई॰ में मर गया तथा मराठों में आंतरिक कलह पैदा हो गया ।
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यह आंतरिक कलह मृत पेशवा के चाचा रघुनाथ राव या राघोबा की अपरिमित महत्वाकांक्षा तथा माधव राव के भाई और उत्ताराधिकारी नारायण राव की कमजोरी के कारण हुआ । माधव राव प्रथम अपने चाचा के मनसूबों के रोकने में, यहाँ तक कि उसे शांत करने में भी, समर्थ हुआ था । किंतु उसका उत्तराधिकारी अछी आदतों का एक अनुभव शून्य युवा था ।
वह उससे अच्छे सबंध न रख सका तथा उसे नजरबंद कर लिया । फल यह हुआ कि राघोबा ने पैदल सेना के असंतुष्ट अंश के साथ एक षड्यंत्र का संगठन किया । नारायण राव अपने चाचा की सों के सामने ही ३० अगस्त, १७७३ ई॰ को मार डाला गया ।
रघुनाथ राव अब पेशवा तो मान लिया गया, किन्तु उसका अधिकार कुछ ही महीनों तक निरापद रहा । पूना में एक जबर्दस्त दल उसके कामों का प्रतिकार करने लगा । इसका नेता एक नौजवान ब्राह्मण नाना फड़नवीस था, जो सौभाग्यवश पानीपत के सांघातिक मैदान से बच निकला था ।
अगले वर्ष (१७७४ ई॰) मृत पेशवा की स्त्री गंगा बाई को एक पुत्र हुआ । इस प्रकार संघबद्ध मराठा नेताओं के हाथों में एक हथियार आ गया । उन्होंने तुरंत उस शिशु को पेशवा मान लिया तथा उसके नाम पर एक संरक्षकसमिति की स्थापना कर दी । रघुनाथ राव अपने प्रयत्नों. में असफल हो गया ।
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उसे गृह-प्रदेशों से बाहर भागना पड़ा । तब उसने बम्बई में अंग्रेजों से सहायता की याचना की । इस प्रकार अंग्रेजों को भारतीय राजाओं और सरदारों के भीतरी झगड़ों ने उनके कामों में हस्तक्षेप करने का अवसर-प्रदान कर दिया । जो बात कर्णाटक में और भारत भागों में हुई थी वही यहाँ भी हुई ।
उस समय बम्बई में स्थित अंग्रेज पूना की मराठा सरकार से शांतिपूर्ण संबंध रखते थे । किन्तु उन्हें रघुनाथ राव का पक्ष-समर्थन करने को प्रवृत्त किया गया । एतदर्थ उन्हें प्रलोभन यह दिया गया कि बम्बई के समीप के कुछ सामुद्रिक इलाके उन्हें प्राप्त हो जाएँगे । उन्होंने हिसाब लगाया कि इस प्राप्ति से उनकी स्थिति बहुत अधिक सुरक्षित हो जाएगी ।
रघुनाथ राव की उनके प्रति की गयी प्रार्थना के उत्तर में उन्होंने उससे ७ मार्च, १७७५ ई॰ को सूरत की संधि की । इसके द्वारा अंग्रेजों ने अढ़ाई हजार आदमियों की एक सेना से रघुनाथ राव की सहायता करना स्वीकार किया, जिसका व्यय उसीके द्वारा वहन किया जाता ।
बदले में रघुनाथ राव ने अंग्रेजों को साष्टी, बसई और भड़ौच एवं सूरत जिलों के राजस्व का एक भाग देना कबूल किया । उसने यह भी वादा किया कि कम्पनी के शत्रुओं के साथ वह कोई संधि न करेगा तथा यदि वह पूना सरकार से कभी शांति स्थापित करेगा, तो उसमें अंग्रेजों को भी सम्मिलित करेगा ।
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कर्नल कीटिंग के अधीन ब्रिटिश सिपाहियों का एक दल उक्त संधि होने के पहले ही २७ फरवरी, १७७५ ई॰ को सूरत पहुँच चुका था । कर्नल कीटिंग और रघुनाथ राव की सम्मिलित सेनाओं ने १८ मई को माही नदी और आनंद नामक नगर के बीच स्थित अरस के मैदान में पूना के सिपाहियों का सामना किया तथा उन्हें हरा डाला ।
लेकिन यह लड़ाई जो शुरू की जा चुकी थी तथा सूरत की संधि पर जो दस्तखत हुआ था वह बम्बई की सरकार द्वारा, जिसने कलकत्ते की सुप्रीम कौंसिल उच्चपरिषद् से कोई हुक्म न लिया था । स्वयं वारेन हेस्टिंग्स को सूरत की संधि का दृढ़ीकरण करने में कौई उच्च न था ।
किन्तु उसके विरोधी, जिनका कौंसिल में बहुमत था, उसके विचार के विरुद्ध थे । इसलिए शीघ्र कलकत्ते की कौंसिल ने बम्बई की कौंसिल के काम की, “विवेकशून्य, खतरनाक, बिना अधिकार का और अन्यायसंगत” कहकर निंदा की तथा उसे ३१ मई को लिखा कि वह कम्पनी के सिपाहियों को लौटा ले, “जब तक कि उनकी सुरक्षा आवश्यक प्रत्यावर्तन के द्वारा खतरे में न पड़ जाए ।”
उसी वर्ष कुछ महीनों के बाद उसने पूना संरक्षक-समिति के साथ संधि की बातचीत करने के लिए कर्नल अप्टन को पूना भेजा । तदनुसार कर्नल अप्टन ने १ मार्च, सन् १७७६ ई॰ को पूना के अधिकारियों के साथ पुरंदर की संधि कर ली ।
इसके द्रारा सूरत की संधि रह हो गयी अंग्रेजों द्वारा साष्टी और भड़ौच के राजस्व के रखे जाने की बात मान ली गयी; पूना संरक्षकसमिति ने अंग्रेजों को युद्ध के खर्च की पूर्ति के रूप में बारह लाख रुपये देना स्वीकार किया अंग्रेजों ने राघोबा के पक्ष को छोड़ दिया राघोबा का पेशवा की सरकार से पचीस हजार रुपये मासिक पेंशन लेकर गुजरात के कोपर गाँव नामक स्थान में रहना तय हुआ ।
यह संधि कार्यान्वित नहीं हुई । बम्बई सरकार ने इसकी शर्तों को पसंद नहीं किया । उसने संधि का सीधा उल्लंघन कर और अप्टन के प्रतिवादों के बावजूद राघोबा को शरण दे दी । पूना के नेताओं ने भी इसकी शर्तों को पूरा नहीं किया । १७७७ ई॰ में नाना फड़नवीस ने शेवालिए द सेंत लुबिन नामक एक फ्रांसीसी साहसिक का हार्दिक स्वागत किया तथा कासीसियों को पश्चिमी भारत में एक बंदरगाह देने का वादा किया ।
इससे दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों के मनसूबों के संबंध में बम्बई कौंसिल के सदस्यों के दिमाग में संदेह पैदा नहीं हो गया । कोर्ट आव डिरेक्टर्स ने कई पत्रों में बम्बई सरकार की नीति और काम का समर्थन किया । अतएव बम्बई सरकार ने पुन: युद्ध छेड़ दिया तथा एक सेना को नवम्बर, १७७८ ई॰ में पूना की ओर भेजा । इस सेना में छ: सौ यूरोपीय और तेंतीस सौ ”सिपाही” थे तथा यह कर्नल इगर्टन के अधीन थी ।
बुरे स्वास्थ्य के कारण इगर्टन जनवरी, १७७९ ई॰ में सेना का नायकत्व कर्नल कौकबर्न के हवाले कर दिया । ९ जनवरी को ब्रिटिश फौज ने पश्चिमी घाट में स्थित तालगाँव में एक विशाल मराठी सेना का सामना किया, किन्तु शीघ्र उसकी पराजय हो गयी । अतएव विवश हो कर ब्रिटिश फौज को बड़गांव नामक स्थान पर एक अपमानजनक संधि करनी पड़ी ।
इसके द्वारा यह निश्चित हुआ कि १७७३ ई॰ से बम्बई सरकार द्वारा जीती गयी सारी भूमि लौटा दी जाएगी बंगाल से पहुँचनेवाली फौज हटा ली जाएगी तथा सिंधिया को भडौंच के राजस्व का एक भाग मिलेगा । इस लज्जाजनक संधि को गवर्नर जनरल ने नहीं माना ।
उसने लिखा- “हम लोग पहले ही बड़गांव की संधि को अस्वीकार कर चुके हैं । ईश्वर की इच्छा हुई, तो हम लोग बड़ी आसानी से उस बदनामी को मिटा सकेंगे जो हमारे राष्ट्रीय चरित्र ने उठायी है ।” अपने सहकर्मियों के घृणाजनक विरोध से मुक्त हो वारेन हेस्टिग्स अब कम्पनी की प्रतिष्ठा पुन: स्थापित करने के उपाय करने लगा ।
बंगाल से कर्नल गोडार्ड के अधीन एक मजबूत सेना भेजी गयी । यह मध्य भारत को सीधे पार करती हुई आगे बड़ी । इसने १५ फरवरी को अहमदाबाद पर अधिकार जमा लिया तथा ११ दिसम्बर, १७८० ई॰ को बसई पर कब्जा कर लिया । लेकिन जब यह पूना की ओर बढ़ने की चेष्टा कर रही थी, तब अप्रैल, १७८१ ई॰ में इसकी पराजय हो गयी तथा इसे पीछे हटना पड़ा ।
मगर इसी बीच वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल से कैप्टेन पौपहम को सिंधिया के एक पुराने शत्रु गोहद के राणा का समर्थन करने के लिए भेज दिया था । कैप्टेन पौपहम ने सीढ़ियों के सहारे दीवारों को लाँघकर ३ अगस्त को ग्वालियर पर कब्जा कर लिया । जनरल कैमैक ने भी १६ फरवरी, १७८१ ई॰ को सिपरी (आधुनिक शिवपुर) में सिंधिया को एक शिकस्त दी ।
इन विजयों का फल यह हुआ कि अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ गयी । महादाजी सिंधिया बहुत समय से मराठा संघ के नेतृत्व की आकांक्षा रखता था तथा उत्तरी भारत में खुला हाथ चाहता था । अब उसने अपना रुख बदल दिया तथा अंग्रेजों से संधि स्थापित करने की चेष्टा करने लगा । इसलिए उसने उनके साथ सुलह की बातचीत शुरू कर दी ।
१३ अक्टूबर, १७८१ ई॰ को उसने वादा किया कि मैं अंग्रेजों और पूना सरकार के बीच संधि करा दूंगा । १७ मई, १७८२ ई॰ को सालबाई की संधि पर उचित रूप से हस्ताक्षर हुआ । कुछ समय बाद २६ फरवरी, १७८३ ई॰ को नाना फड़नवीस द्वारा इसका दृढ़ीकरण हुआ ।
इस संधि के द्वारा सृष्टि का अंग्रेजों के अधिकार में रहना मान लिया गया उन्होंने माधव राव नारायण को अधिकार-विशिष्ट पेशवा स्वीकार कर लिया राघोवा को पेशन दे दी गयी सिंधिया ने यमुना के पश्चिम की सारी भूमि वापस पायी नया हैदर अली को, जो इस संधि में संमिलित न था, वह भूमि छोड़ देनी पड़ी, जो उसने अरकाट के नवाब से जीत ली थी ।
इस प्रकार इस संधि ने युद्ध के पहले की स्थिति स्थापित कर दी । इस संधि द्वारा प्राप्त अंग्रेजों के भौतिक लाभ ”बहुत प्रभावजनक” नहीं थे । वे भारी वित्तीय क्षति में पड़ गये । इस कारण वारेन हेस्टिंगस को आपत्तिजनक वित्तीय पद्धतियों का सहारा लेना पड़ गया ।
फिर भी, भारत में ब्रिटिश आधिपत्य के इतिहास में यह युगांतरकारी है । इस कारण उनकी “मराठों के साथ बीस वर्षों तक संधि रही । इस प्रकार इसने उन्हें टीपू और फ्रांसीसियों-जैसे अपने दूसरे शत्रुओं से लड़ने तथा निजाम एवं अवध के नवाब को अपने नियंत्रण में लाने को अपेक्षाकृत स्वतंत्र छोड़ दिया ।”
किन्तु यदि हम यह कहें कि “इसने निस्संदेह भारतीय राजनीति में नियंत्रणकारी तत्व के रूप में अंग्रेजों की प्रधानता को स्थापित कर दिया तथा आगे चलकर १८१८ ई॰ में जो वे सर्वप्रधान शक्ति के पद पर पहुँचे, वह सालबाई की संधि द्वारा प्राप्त पद का अवश्यंभावी परिणाम था”, तो यह इसके महत्व पर अनुचित रूप से जोर देना होगा ।
सच पूछिए, तो यद्यपि वारेन हेस्टिग्स अत्यंत संकटपूर्ण परिस्थिति के बावजूद भारत में ब्रिटिश पद के बचाने में समर्थ हुआ था, तथापि इसे पूर्ण सुरक्षित नहीं माना जा सकता था । अभी भी कम्पनी को मराठों और टीपू की ईर्ष्या एवं शत्रुता का हिसाब लगाना था तथा उन शक्तियों के कारनामों से होशियार रहना था, जो पंजाब, नेपाल और बर्मा में उदित हो रही थीं ।
(ख) सालबाई के बाद मराठे (Maratha after Salbai):
कौंसिल के पुराने (सीनियर) सदस्य मिस्टर (पीछे सर जान) मैकफर्सन ने लार्ड कार्नवालिस के पहुँचने तक डेढ़ वर्षों के लिए अस्थायी रूप में गवर्नर-जनरल का कौम किया । उसमें अपने पूर्वाधिकारी की नीति को योग्यतापूर्वक चालू रखने की न तो योग्यता । ही थी और न मजबूती ।
और भी, पिट के इंडिया ऐक्ट (भारत कानून) १७८४ ई॰ की धारा ३४ ने कंपनी को भारतीय राजनीति में अहस्तक्षेप की नीति बरतने की आज्ञा दी । भारत में कंपनी की करीब-करीब अरक्षित स्थिति के कारण यह नीति सख्ती के साथ न तो कार्नवालिस के द्वारा बरती जा सकी और न शोर द्वारा । फिर भी, वारेन हेस्टिग्स के प्रस्थान से लेकर लार्ड वेलेस्ली के शासन के प्रारंभ तक का युग भारत-स्थित अंग्रेजों की ओर से अपेक्षाकृत राजनीतिक अक्रियाशीलता का युग था ।
इस समय तक मराठा संघ अपने सदस्यों के “पारस्परिक अविश्वास और स्वार्थपूर्ण षड्यंत्रों” के कारण वस्तुत: बहुत कमजोर बन गया था । इसके सदस्यों की इसके प्रति राजभक्ति ढीली-ढाली थी । लेकिन मराठों में अहिल्या बाई, महादाजी सिंधिया और नाना फड़नवीस-जैसे कुछ योग्य व्यक्ति हुए ।”
सर जौन मैलकौम के शब्दों में, जिसका तत्कालीन मराठा राजनीति का ज्ञान व्यक्तिगत जाँच-पड़तालों पर आधारित था, “अपने राज्य के आंतरिक शासन में अहिल्या बाई की सफलता बिलकुल अद्भुत थी ।….यदि उसके चरित्र का अधिक-से-अधिक संयत विचार लिया जाए, तो भी वह निश्चित रूप में, अपने सीमित क्षेत्र के भीतर अब तक हुए अत्यंत पवित्र और अनुकरणीय में एक मालूम पड़ती है ।”
अहिल्या बाई १७९५ ई॰ में परलोक सिधारी । तब इंदौर की सरकार तुकोजी होलकर के हाथों में आयी । वह एक अच्छा सिपाही था, किंतु राजनीतिक योग्यता से रहित था । १७९७ ई॰ में ही उसकी मृत्यु हो गयी । तत्पश्चात् इंदौर राज्य में अस्तव्यस्तता और गड़बड़ छा गयी ।
महादाजी सिंधिया इस युग का सब से प्रमुख मराठा सरदार था । सालबाई की संधि ने उसे “जहाँ तक ब्रिटिश सरकार से संबंध है, एक स्वतंत्र राजा” स्वीकार किया । किन्तु साथ ही वह “अन्य सभी बातों में, जो पूना सरकार से उसके संबंध के बारे में थीं शिष्टाचार पर अधिक-से-अधिक सतर्कतापूर्ण ध्यान देता रहा ।”
उसने अपने नये पद का उपयोग उत्तरी भारत में अपना अधिकार बढ़ाने और दृढ़ करने में किया । उसने तुरत युद्ध के पुराने मराठा तरीके को छोड़ दिया । अपनी सेना में वह कुछ राजपूत और मुसलमान भी रखने लगा । उसने यूरोपीय वैज्ञानिक तरीकों पर इसका संगठन किया ।
इस कार्य के लिए उसने एक सेभ्वाय-निवासी (इटली-निवासी) सैनिक विशेषज्ञ बिनो द ब्वाइन तथा विविध नस्लों और वर्गों के दूसरे यूरोपीय साहसिकों को नियुक्त किया । वह उत्तर में अपनी महत्वकांक्षाओं को फलीभूत देखना चाहता था । एतदर्थ वह दिल्ली गया ।
वहाँ नाममात्र का बादशाह शाह आलम द्वितीय पहले से ही हिंसा, गड़बड़ और अराजकता के बीच लाचार बना बैठा था । सिंधिया ने उसे अपनी कठपुतली बना लिया । उसने उसकी प्रभुसत्ता की कल्पित कथा का उपयोग हिंदुस्तान (उत्तरी भारत) में शीघ्र मराठा प्रभुता की स्थापना करने में किया । अपने नाममात्र के स्वामी पेशवा के लिए उसने बादशाह से वकीलेमुतलक का पद प्राप्त किया ।
वह स्वयं पेशवा का नायब (डिप्टी) बन गया । उसने शाही फौज का नायकत्व भी प्राप्त कर लिया । वस्तुत: वह उत्तरी भारत में “दिल्ली के बादशाह बदनसीब शाह आलम का नाममात्र का गुलाम, मगर कठोर मालिक” बनकर रहा । १७९२ ई॰ तक महादाजी ने राजपूतों ओर जाटों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया तथा उत्तरी भारत में उसकी शक्ति अपनी ”मध्याह्न की गरिमा” पर पहुँच गयी ।
इसके बाद उसने पूना में अपने प्रभाव की स्थापना करना आवश्यक समझा, जहाँ चतुर राजनीतिज्ञ नाना फड़नवीस सभी कामों पर नियंत्रण रखता था । अतएव वह जून, १७९२ ई॰ में दक्षिण की ओर बढ़ा । प्रकट रूप में वह नौजवान पेशवा माधव राव द्वितीय के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने जा रहा था ।
महादाजी सिंधिया की उत्तर से अनुपस्थिति के समय में उसके पड़ोसी तुकोजी होलकर ने उसके अधिकार को चुनौती दी । किन्तु द ब्वाइन के अधीन उसके प्रशिक्षित मैनिकों ने अजमेर के निकट लखेरी में होलकर को गहरी शिकस्त दी । अपने प्रिय लक्ष्य की पूर्ति के पहले ही सिंधिया ६७ वर्षों की अवस्था में, १२ फरवरी, १७९४ ई॰ को पूना में ज्वर के कारण मर गया ।
उसकी विशाल सम्पत्ति एवम् सैनिक साधन उसके १३ साल के भतीजे और दत्तक पुत्र दौलत राव सिंधिया को विरासत में प्राप्त हुए । महादाजी सिंधिया निम्न कोटि का राजनीतिज्ञ न था तथा एक योग्य सेनानायक था । अत: ग्रांट डफ का उसकी मृत्यु के संबंध में यह कहना उचित ही है कि यह ”अत्यंत राजनीतिक महत्त्व की घटना थी, क्योंकि इसका प्रभाव मराठा साम्राज्य और भारत के अन्य राज्य-दोनों पर पड़ा ।”
इसने उत्तर में मराठा प्रभुता के भाग्य पर मुहर लगा दी । वहाँ अंग्रेज अपने साम्राज्य का निर्माण करने के लिए अपेक्षाकृत स्वतंत्र बच गये । अंग्रेज उत्तर में महादजी की सफलता को अपने राजनीतिक हितों के विरुद्ध समझते रहे होंगे ।
इसका कारण यह है कि उस ”अविश्रांत अध्यवसाय से” निर्णय करते हुए, जिससे उसने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए कभी बनायी गयी योजनाओं को प्रौढ़ता प्रदान करने के निमित्त परिश्रम किया था, यदि उसका जीवन बढ़ जाता, तो यह पूरा संभव है कि वह ग्रेट ब्रिटेन के हितों का एक प्रबल शत्रु बन जाता, जिसके (ग्रेट ब्रिटेन के) शासक उसकी सक्रिय भावना या अतृप्त महत्त्वाकांक्षा से अपरिचित नहीं थे ।
सच पूछिए, तो हम अंग्रेजों के कागजात में महादाजी की चालों की ”सतर्क ईर्ष्या के विविध प्रमाण” पाते है । अब केंद्र में मराठा राजनीति नाना फड़नवीस के पूर्ण नियंत्रण में चली आयी । नाना का एक लक्ष्य था नर्मदा के दक्षिण मराठों की खोयी हुई भूमि को पुन: प्राप्त करना ।
इससे मैसूर के टीपू सुलतान से टक्कर लेना अवश्यंभावी हो गया । अतएव मराठों ने जुलाई, १७८४ ई॰ में निजाम के साथ एक मित्रता की संधि कर ली । एक मराठा सेना हरि पंत फड़के के नायकत्व में १ दिसम्बर, १७५८ ई॰ को पूना से चली । टीपू ने आक्रमणकारियों का विरोध करने के कुछ निर्बल प्रयास किये ।
किंतु उसे अंग्रेजों और मराठों के बीच मित्रतापूर्ण संधि हो जाने का डर हो गया । इसलिए उसने सुलह की बातचीत शुरू कर दी । अप्रैल, १७८७ ई॰ में सुलह हो गयी । टीपू ने मराठों को पैतालीस लाख रुपये देना तथा बादामी, किट्टूर और नारगुंड के जिले उनके हवाले करना स्वीकार किया ।
मराठों ने जो स्थान जीते थे, उसे वे वापस मिल गये । लेकिन टीपू और मराठों के बीच की यह संधि बहुत समय तक नहीं टिक सकी, क्योंकि अंग्रेजों और टीपू के बीच लड़ाई (सन् १७८९-१७९२ ई॰) छिड़ने पर मराठों और निजाम ने मैसूर के सुलतान के विरुद्ध कार्नवालिस से एक आक्रमणकारी एवं प्रतिरक्षात्मक संधि कर ली ।
यह त्रिगुट-संधि, पिट के इंडिया ऐक्ट (भारत कानून) की धारा ३४ के बावजूद, कुछ समय तक “भारतीय राजनीति में एक निश्चित तत्व” के रूप में बनी रही । जो भी हो, यह संधि, अत्यंत अरक्षित आधार पर टिकी होने के कारण, अधिक समय तक प्रभावकारी न रही, क्योंकि मित्र-राज्य टीपू के आक्रमण के विरुद्ध अपना-अपना उल्लू सीधा करने के लिए एक साथ मिले थे आपस में निष्कपट प्रेम की भावना से प्रेरित होकर नहीं ।
निजाम मराठों का पुराना शत्रु था । ज्योंही टीपू की ओर से खतरा थोड़ा घट गया, त्योंही सभी मराठा नेता-पेशवा, दौलत राव सिंधिया, तुकोजी होलकर और बरार का राजा-उसके विरुद्ध एक साथ मिल गये । निजाम पर पेशवा के चौथ और सरदेशमुखी के दावे ने युद्ध के तात्कालिक कारण का काम किया ।
निजाम के सैनिक रेमन नामक एक फ्रांसीसी द्वारा प्रशिक्षित हुए थे । जब सुलह की सारी बातचीत बेकार गयी, तब दोनों दल ”तलवार द्वारा अपने मतभेदों का निर्णय करने” को लाचार हो गये । निजाम ने अंग्रेजों से सहायता की प्रार्थना की, किन्तु उनसे कुछ नहीं मिला ।
वह मराठों द्वारा मार्च, १७९५ ई॰ में खर्दा या कुर्दला (अहमद नगर से ५६ मील दक्षिण-पूर्व) में हरा दिया गया । वह अपमानजनक संधि करने को विवश हुआ । इस संधि ने उसे भारी आर्थिक क्षति सहने और काफी भूमि से हाथ धोने को लाचार किया । यदि शोर हस्तक्षेप करता, तो लड़ाई का परिणाम दूसरा हो सकता था ।
उसके आलोचक बताते है कि फरवरी, १७६८ ई॰ की संधि के जोर पर, जिसके द्वारा निजाम ने अपने को अंग्रेजों की रक्षा के अधीन रख दिया था, निजाम ब्रिटिश समर्थन का अधिकारी था ।
लेकिन शोर के बचाव में यह दलील दी जा सकती है कि वह पिट के इंडिया ऐक्ट (भारत कानून) की धारा ३४ के द्वारा इस प्रकार के हस्तक्षेप के अधिकार से वंचित कर दिया गया था । और भी, उस समय मराठों का अंग्रेजों के साथ शांतिपूर्ण संबंध था तथा अंग्रेज पहले की किसी संधि द्वारा एक मित्र-शक्ति के विरुद्ध निजाम की सहायता करने को बँधे हुए नहीं थे ।
अंग्रेज-मैसूर-संबंध (British-Mysore Relationship):
(क) हैदर अली का उदय: The Rise of Haider Ali
अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में हैदर और टीपू के अधीन मैसूर भारत में उदयोन्मुख ब्रिटिश शक्ति के लिए खतरे का एक साधन था । जबकि कर्णाटक युद्धों से क्षत-विक्षत हो रहा था तथा बंगाल राजनीतिक क्रांतियों से गुजर रहा था, हैदर मैसूर में दृढ़ रूप से शक्ति पर आरुढ़ हो गया ।
प्रारंभ में हैदर साहसिक था । उस समय मैसूर का दलवाई या प्रधान मंत्री नंदराज था । वह राज्य के नाममात्र के हिन्दू शासक के ऊपर एक तौर से डिक्टेटर बन बैठा था । हैदर ने नंदराज के यहाँ नौकरी कर । अशिक्षित और निरक्षर होने पर भी हैदर दृढ़ संकल्प, प्रशंसनीय साहस, तीव्र मेधा ओर चतुरतापूर्ण सामान्यबुद्धि से संपन्न था ।
दक्षिण में फैली हुई अशांति से लाभ उठाकर उसने अपनी शक्ति बढ़ा ली । शीघ्र ही उसने अपने पुराने प्रश्रयदाता को चालाकी से अधिकारविहीन कर डाला । उसका बेदनूर, सुंदा, सेरा, कनारा और फूटी को जीत लिया तथा दक्षिण भारत के छोटे-छोटे पोलिगारों को पराजित कर वशीभूत किया । इस प्रकार उसने अपना राज्य बढ़ा लिया ।
(ख) प्रथम अंग्रेज-मैसूर-युद्ध (First British-Mysore War):
हैदर के शीघ्र उदय ने स्वभावत: मराठों, निजाम और अंग्रेजों की ईर्ष्या को उभाड़ डाला । मराठों ने सन् १७६५ ई॰ में उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया । वह उन्हें गूटी और सवानूर देने तथा बत्तीस लाख रुपये हर्जाने के तौर पर अदा करने को बाध्य उसके बदले में उसे हैदर के विरुद्ध मदद देना स्वीकार किया । संक्षेप में, मराठ, नजाम और अंग्रेज हैदर के विरुद्ध एक त्रिगुट-संधि में सम्मिलित हुए ।
लेकिन मराठों को, जिन्होंने पहले मैसूर पर आक्रमण किया था, रुपये देकर शीघ्र मैसूर के सरदार ने उनसे छुट्टी पा ली । निजाम के साथ जनरल जोसफ स्मिथ के नायकत्व में ब्रिटिश सैनिकों की एक टुकड़ी थी । इन दोनों ने अप्रैल, १७६७ ई॰ में मैसूर पर हमला कर दिया ।
लेकिन निजाम कर्णाटक के ब्रिटिश पक्षीय नवाब मुहम्मद अली के भाई और प्रतिद्वंद्वी महफूज खाँ के प्रभाव में आ गया । उसने तुरंत अंग्रेजों का साथ छोड़ दिया तथा उनके शत्रु से जा मिला । यहाँ हमें यह कह देना चाहिए कि मद्रास सरकार कुशलतापूर्वक कामों का प्रबंध करने में चूक गयी ।
लेकिन स्मिथ नयी मित्र-शक्तियों को सितम्बर, १७६७ ई॰ में चंगामा घाट और त्रिनोमाली में हराने में समर्थ हुआ । हैदर को शीघ्र उसके अस्थिर मित्र निजाम ने छोड़ दिया । निजाम के साथ मद्रास सरकार ने २३ फरवरी, १७६८ ई॰ को एक संधि कर ली । यह काम अनाड़ीपन का हुआ तथा इसमें सत्परामर्श का कोई स्थान न था ।
इसके द्वारा निजाम ने अपनी पुरानी संधि की शर्तों को उसी गैर-जिम्मेवार तरीके से दृढ़ किया, जिससे उसने उन्हें तोड़ा था । उसने हैदर को “विद्रोही और बलपूर्वक अधिकार करनेवाला व्यक्ति” घोषित किया । उसने उसे दंड देने में अंग्रेजों और कर्णाटक के नवाब की सहायता करना स्वीकार कर लिया ।
डाँवाडोल रहनेवाला निजाम के साथ की गयी यह संधि अंग्रेजों के किसी काम की न हुई । लेकिन इसने अनावश्यक रूप में हैदर की शत्रुता को उत्तेजित कर दिया । कोर्ट ऑव डिरेक्टर्स ने लिखा “आपने हम लोगों को कठिनाइयों की ऐसी भूलभुलैया में ला पटका है कि हम लोग कैसे उनसे मुक्त होंगे यह हम नहीं देख पा रहे हैं ।”
कोर्ट ऑव डिरेक्टर्स उस समय भारत में ब्रिटिश राज्य के आगे फैलाने के पक्ष में न था, किन्तु पहले से प्राप्त भूमि को बचाने के लिए व्यग्र था । उसने आगे चलकर लिखा- …कम्पनी का काम हिन्दुस्तान का मध्यस्थ बनना नहीं है । यदि आप अविवेकपूर्ण काम न किये होते, तो देश की शक्तियाँ अपने में ही संतुलन रख लेती । हम लोग भारतीय राजाओं को बिना हमारे हस्तक्षेप के ही एक दूसरे पर रुकावट के रूप में देखना चाहते है ।
निजाम के पक्ष-त्याग के बावजूद हैदर बहुत उत्साह के साथ लड़ता रहा । बम्बई के सैनिकों को हराकर उसने मंगलोर को पुन: प्राप्त कर लिया । मार्च, १७६९ ई॰ में वह मद्रास के पाँच मीलों के भीतर जा धमका । ४ अप्रैल, १७६९ ई॰ को एक संधि हुई जिसकी शर्तें उसी ने लिखायीं ।
इसमें कैदियों की अदला-बदली तथा विजित स्थानों के आपसी बदलाव की व्यवस्था हुई । यह प्रतिरक्षात्मक संधि भी थी, क्योंकि अंग्रेजों ने हैदर को, किसी दूसरी शक्ति द्वारा आक्रांत होने पर, सहायता का वचन दिया ।
(ग) द्वितीय अंग्रेज-मैसूर-युद्ध तथा हैदर अली का मूल्यांकन (Second British-Mysore War and Assessment of Haider Ali):
१७६९ ई॰ की संधि की शर्तों का मद्रास सरकार द्वारा पालन नहीं हुआ । जब मराठों ने १७७१ ई॰ में हैदर के राज्य पर आक्रमण किया, तब अंग्रेजों ने उसकी सहायता नहीं की । इससे स्वभावत: मैसूर का शासक क्रुद्ध हुआ । वह फिर चोट करने के अवसर की ताक में रहने लगा ।
१७७१ ई॰ में वह अंग्रेजों के विरुद्ध एक महान् संघ में सम्मिलित हुआ । यह संघ असंतुष्ट निजाम द्वारा संगठित हुआ था । मराठे भी, जो पहले से ही बम्बई सरकार से लड़ रहे थे, इसमें शामिल हो गये । इसी समय अंग्रेजों ने माही को जीत लिया । यह हैदर के अधिकार-क्षेत्र में एक छोटी फ्रांसीसी बस्ती थी ।
इस जीत ने उसके रोष को और बढ़ा दिया । उसने यह विचार प्रस्तुत किया कि इस प्रकार उसके राज्य की तटस्थता भंग हुई है तथा युद्ध की घोषणा कर दी । इस प्रकार, जैसा कि वारेन हेस्टिग्स ने कहा, “हिन्दुस्तान की प्रत्येक दिशा में और प्रत्येक शक्ति से वास्तविक या आसन्न युद्ध” था ।
भारत के बाहर फ्रांस, स्पेन, हाउंड और विद्रोही अमेरिकन उपनिवेश भी इंगलैंड के विरुद्ध मिल गये थे । फ्रांस भारत में खोये अपने पद को पुन: प्राप्त करने के लिए इस अवसर का उपयोग करना चाहता था । कारोमण्डल के डचों ने २९ जुलाई, १७१८ ई॰ को हैदर के साथ एक संधि की जिसे ४ सितम्बर को संपुष्टि दी गयी ।
जुलाई, १७८० ई॰ में हैदर, करीब अस्सी हजार आदमियों और सौ बंदूकों के साथ, “बर्फ के गिरते हुए ढेर के समान अपने साथ विध्वंस ले चलते हुए” कर्णाटक के मैदान पर उतर पड़ा । उसने कर्नल बेली के अधीन एक विच्छिन्न अंग्रेजी सैन्यदल को हरा दिया । अक्टूबर, १७८० ई॰ में उसने अरकाट पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया ।
कम्पनी के लिए परिस्थिति वस्तुत: संकटपूर्ण थी । सर अल्फ्रेड लायल द्वारा प्रयुक्त शब्दों में “भारत में अंग्रेजों का भाग्य सब से नीचे पहुँच गया था” । किन्तु वारेन हेस्टिंग्स ने तुरत सर आयर कूट को दक्षिण भेज दिया । वांडीवाश का विजेता सर आयर कूट उस समय भारत में प्रधान सेनापति तथा सुप्रीम कौंसिल (सर्वोच्च परिषद) का एक सदस्य था ।
उसके दक्षिण भेजने का उद्देश्य था “डटे रहकर अपने कामों से ब्रिटिश सैनिक शक्ति के अधिकारों और प्रतिष्ठा का दोष-प्रक्षालन करना” । वारेन हेस्टिंग्स ने बरार के राजा, महादाजी सिंधिया और निजाम को हैदर की संधि से अलग भी कर दिया । इन लोगों के पक्ष त्यागने से हैदर थोड़ा भी भयभीत नहीं हुआ । उसने अपनी पहले की दृढ़ता और शक्ति के साथ युद्ध जारी रखा ।
किन्तु सर आयर कूट ने १७८१ ई॰ में पोर्टो नोवो में उसे बुरी तरह हरा दिया । अंग्रेजों ने डचों से सीलोन के सबसे अच्छे बन्दरगाह त्रिंकोमाली को जनवरी १७८२ ई॰ में छीन लिया और भारत में नागपट्टम (नवम्बर १७८१ ई॰ में) और १७८१ ई॰ के अन्त तक दक्षिण भारत में सद्रास तथा पुलीकट और बंगाल और बिहार की उनकी बस्तियों पर कब्जा कर लिया ।
किन्तु कर्नल ब्रेथवेट के अधीन एक अंग्रेजी फौज मैसूर के सैनिकों द्वारा पराजित हो गयी । १७८२ ई॰ के प्रारंभ में एडमिरल सफ्रेन के नायकत्व में एक छोटा फ्रांसीसी जहाजी बेड़ा भारतीय समुद्र में प्रकट हुआ । अगली फरवरी के महीने में दुशेमी अपने नायकत्व में दो हजार आदमियों के साथ आया ।
अंग्रेजों की फ्रांसीसियों और मैसूर के सैनिकों के साथ कुछ लड़ाइयाँ हुई, पर उनका कोई परिणाम न निकला । तदनंतर वर्षा-ऋतु प्रारंभ होने पर जमकर लड़ाई लड़ना बंद हो गया । हैदर को आगे लड़ना नहीं बदा था । दूषित घाव के सांधातिक परिणामों के कारण ७ दिसम्बर, १७८२ ई॰ को भरी आयु में वह इस संसार से चल बसा ।
अंग्रेजी पक्ष में, कूट ने बुरे स्वास्थ्य के कारण अवकाश ग्रहण किया तथा जनरल स्टुअर्ट कंपनी के सैनिकों का नायक हुआ । कूट अप्रैल, १७८३ ई॰ में मद्रास में मर गया । हैदर भारत के इतिहास के योग्यतम व्यक्तियों में से था । अठारहवीं सदी के विश्रांत वातावरण में वह अंधकार से निकलकर शक्ति को प्राप्त हुआ था ।
वह पूर्णतया स्वभुजाक्रमी पुरुष था । वह दृढ़ संकल्प, प्रशंसनीय साहस, तीव्र मेधा और धारण-क्षम स्मृति से संपन्न था । उसमें पढ़ने-लिखने की योग्यता का अभाव था । किन्तु उसके पूर्वलिखित गुण उसके उक्त अभाव को छिपा देते थे यही नहीं, बल्कि उसका गुण-पक्ष अभाव-पक्ष से अधिक सबल हो जाता था । वह स्थिर, चतुर और मैदान में निर्भय था ।
शासन के मामलों में वह विलक्षण रूप से कार्यकुशल एवं स्फूर्तिपरायण था । वह नियमितता और तत्परता के साथ अपनी सोच के सामने सारा राजकाज करवाता था । उसके यह सब की आसानी से पहुँच थी । उसमें एक ही समय में विविध विषयों पर ध्यान देने की अपूर्व क्षमता थी तथा वैसा करते समय वह इनमें से किसी भी विषय से विभ्रांत न होता था ।
डाक्टर स्मिथ ने लिखा है कि वह एक पूर्णतया सिद्धांतहीन “मनुष्य था, जिसका न कोई धर्म था, न सदाचार था और न दया थी ।” पर उसे ऐसा लिखना अनुचित होगा । यद्यपि वह अपने मजहब के बाहरी अनुष्ठानों का कड़ाई के साथ पालन न करता था, तथापि उसमें सच्चा धार्मिक विवेक था तथा किलर ने उसे सभी मुसलमान राजाओं में “सब से अधिक सहिष्णु” कहा है ।
बाडरिंग इन शब्दों में उसका यथार्थ मूल्यांकन करता है ….वह साहसी, मौलिक और दिलेर सेनापति था, सैनिकों की व्यूहरचना-कला में कुशल और साधनों में उर्वरतापूर्ण, स्फूर्ति से भरा हुआ और पराजय में कभी भी निराश न होनेवाला । वह असाधारण रूप से अपने कामों के प्रति वफादार तथा अंग्रेजों के प्रति अपनी नीति में खरा था ।
उसका आंतरिक शासन कड़ा था तथा उसने आतंक कायम कर रखा था । किन्तु इन दोनों बातों के बावजूद, उसका नाम मैसूर में यदि प्रशंसा के साथ नहीं तो आदर के साथ अवश्य लिया जाता है । जब कि उसके क्रूरतापूर्ण काम, जो वह कभी-कभी किया करता था, विस्मृत हो चुके हैं, उसकी वीरता और सफलता ने जनता की स्मृति में एक स्थायी स्थान बना लिया है ।
हैदर की जीवनी के एक आधुनिक भारतीय लेखक ने ठीक ही कहा है कि वह “निरंकुश सैनिक शासक के रूप में बहुत ही सफल प्रशासक था” । टीपू अपने पिता के ममान ही बहादुर और लड़ाका था । उसने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखी । ब्रिगेडियर मैथ्यूज को बम्बई सरकार ने सर्वोच्च कमान पर नियुक्त किया । वह अपने सभी आदमियों के साथ टीपू द्वारा १७८३ ई॰ में पकड़ लिया गया ।
उसी वर्ष २३ जून को अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच हुई संधि का समाचार भारत पहुँचा । कर्नल फुलार्टन ने नवम्बर, १७८३ ई॰ में कोयंबटोर पर कब्जा कर लिया । वह टीपू की राजधानी सेरिंगापटम (श्रीरंगपट्टम्) पर टूटना चाहता था । किन्तु वह मद्रास के अधिकारियों द्वारा वापस बुला लिया गया ।
कारण यह हुआ कि इस समय मद्रास का गवर्नर लार्ड मैकार्टनी अपने आने के समय से ही टीपू के साथ संधि करने को व्यग्र था तथा उसने उसके पड़ाव पर दूत भी भेज दिये थे । इस प्रकार मार्च, १७८४ ई॰ में मंगलोर की संधि हुई ।
दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटा दिये तथा बंदियों को मुक्त कर दिया । वारेन हेस्टिंग्स ने संधि की शर्तों को थोड़ा भी पसंद न किया तथा क्रोध में चिल्ला पड़ा, ”यह लार्ड मैकार्टनी कैसा आदमी है ! मैं अभी भी विश्वास करता हूँ कि वह, संधि के बावजूद, कर्णाटक को खो डालेगा ।”
(घ) तृतीय अंग्रेज-मैसुर-युद्ध (Third British-Mysore War):
लार्ड कार्नवालिस (१७८६-१७९३ ई॰) पिट के इंडिया ऐक्ट (भारत कानून) की इस धारा से बंधकर भारत आया कि वह, शुद्ध प्रतिरक्षात्मक उद्देश्यों को छोड्कर, युद्ध और विजय की नीति का अनुसरण करने से परहेज करेगा । लेकिन वह जल्द महसूस करने लग गया कि उक्त ऐक्ट (कानून) के आदेशों का कड़ाईपूर्वक पालन संभव नहीं था, क्योंकि, जैसा कि उसने व्यक्त किया, इस (कानून) में यह “अनिवार्य असुविधा निहित थी कि हम (कम्पनी) योग्य मित्रों की सहायता पहले से प्राप्त किये बिना ही, युद्ध प्रारंभ करने की आवश्यकता के लिए बराबर अनावृत रहेंगे ।”
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की बातों को ध्यान में रखते हुए उसने ठीक ही सोचा कि यूरोप की अंग्रेज-फ्रांसीसी शत्रुता की भारत में अवश्य प्रतिक्रिया होगी तथा टीपू फ्रांसीसियों से मिलकर जरूर एक बार फिर अंग्रेजों पर चोट करेगा । उसने मार्च, १७८८ ई॰ में पूना-स्थित रेडिग्ट मैलेट को लिखा: “मैं टीपू से अनबन होने को फ्रांस से युद्ध का एक निश्चित और तात्कालिक परिणाम देखता हूँ, तथा उस घटना में मराठों का सबल सहयोग निश्चय ही इस देश में हमारे हितों के लिए सब से अधिक महत्व का होगा ।”
सच पूछिए, तो मंगलोर की संधि एक “खोखली विराम-संधि” को छोड़कर और कुछ नहीं थी । टीपू भी जानता था कि अंग्रेजों से फिर लड़ाई होना अवश्यंभावी है, क्योंकि दोनों का उद्देश्य दक्कन पर राजनीतिक प्रभुता जमाना था । टीपू जैसा शासक १७८४ ई॰ के प्रबंध से संतुष्ट नहीं रह सकता था ।
उसने अपने लिए फ्रांस और कुस्तुनतुनिया (कौंस्टैटीनोप्ल) का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न किया तथा १७८७ ई॰ में दोनों स्थानों पर दूत भेजे । किन्तु उसे केवल “भविष्य की सहायता के वचन” मिले तथा “तत्काल के लिए कोई सक्रिय सहायता नहीं” मिली ।
कुछ बातों से तुरत तृतीय अंग्रेज-मैसूर-युद्ध छिड़ गया । १७८८ ई॰ में लार्ड कार्नवालिस ने निजाम से उत्तरी सरकार में गुटूर प्राप्त किया । इसके बदले में निजाम ने १७६८ ई॰ की मसुलीपटम की संधि के बूते पर ब्रिटिश सहायता माँगी ।
अब कार्नबालिम ने एक ऐसा काम किया, जो, अक्षर में नहीं तो कम-से-कम भाव में, १७८४ ई॰ के कानून (ऐक्ट) के उल्लंघन के समान था । उसने एक स्थायी और सबल सहयोग की नीव डालने के उद्देश्य से निजाम को ७ जुलाई, १७८९ ई॰ को एक पत्र लिखा । उसने जानबूझकर टीपू का नाम इस पत्र से हटा दिया । यह घोषित हुआ कि यह पत्र उतना ही बाँधनेवाला होगा, ”जितनी उचित रूप में की गयी एक संधि हो सकती है ।”
इस समय के दक्षिणी भारत का इतिहास लिखनेवाला विश्व कहता है कि ”एक ऐसे राजनीतिज्ञ को, जिसका संयत और शांत स्वभाव के लिए अत्यधिक प्रशंसित होना उचित ही है, एक बहुत स्पष्ट आक्रमणात्मक संधि में प्रवेश कर, इन गुणों के प्रचलन के लिए बने हुए एक कानून का इस प्रकार परोक्ष रूप में भंग करते हुए देखना अत्यंत शिक्षाप्रद है ।”
सर जौन मैलकौम कहता है- ”पार्लियामेंट के कानून (ऐक्ट) के प्रतिबंधों की उदारतापूर्ण बनावट का इस अवसर पर यह परिणाम हुआ कि गवर्नर-जनरल ऐसा रास्ता अख्तियार करने लगा, जो ईमानदारी की दृष्टि से केवल संदेह-योग्य ही नहीं था, बल्कि जो, टीपू की अपरिमित महत्वकांक्षा कों सीमित करने के स्पष्ट एवं उचित उद्देश्य से किये गये प्रतिरक्षात्मक युद्ध के एक स्वीकृत इकरारनामे की अपेक्षा भी, अवश्य ही टीपू सुलतान को अधिक रोषजनक लगा होगा तथा फ्रांस के साथ युद्ध उत्पन्न करने में अधिक सहायक हुआ होगा ।”
यह वस्तुत: टीपू के लिए काफी उत्तेजनाकारक था । किन्तु युद्ध का तात्कालिक कारण, जिसे टीपू और कार्नवालिस दोनों ने पहले ही समझ लिया था, तिरुवांकुर पर २९ दिसम्बर, १७८९ ई॰ को टीपू द्वारा आक्रमण था । तिरुवांकुर का राजा मंगलोर की संधि के अनुसार कम्पनी का एक पुराना मित्र था तथा अंग्रेजों की रक्षा का अधिकारी था ।
उसने मद्रास के गवर्नर जौन हालैंड के पास सहायतार्थ निवेदन किया, किन्तु मद्रास सरकार ने कोई ध्यान न दिया । मगर लार्ड कार्नवालिस ने तिरुवांकुर पर टीपू के आक्रमण को लड़ाई का एक काम समझा तथा मद्रास सरकार के व्यवहार की तीब्र भर्त्सना की ।
निजाम और मराठे दोनों को आशंका थी कि टीपू की अभिवृद्धि उनके हितों के लिए हानिकारक है तथा इस प्रकार वे उसके प्रति अच्छा रुख नहीं रखते थे । इन दोनों ने क्रमश: १ जून और ४ जुलाई, १७९० ई॰ को अंग्रेजों के साथ एक ”त्रिगुटसंधि” की । मराठों और निजाम के सैनिकों ने लड़ाई के दौरान में अंग्रेजों की उपयोगी सेवा की, जैसा कि लार्ड कार्नवालिस ने स्वयं स्वीकार किया ।
तृतीय अंग्रेज-मंसूर-युद्ध तीन चढ़ाइयों में करीब दो वर्षों तक चला । पहली चढ़ाई मेजर-जनरल मेडोज के अधीन हुई । टीपू ने मेडोज की अपेक्षा ”युद्धकला में अधिक कुशलता” दिखलायी । अतएव इस चढ़ाई का कोई निर्णयकारी परिणाम न निकला । लार्ड कार्नवालिस ने बोर्ड ऑव कंट्रोल के हेनरी डुडाज़ को लिखा- “हमने समय खोया है तथा हमारे शत्रु ने यश प्राप्त किया है और लड़ाई में यही दो सबसे कीमती चीज हैं ।”
दिसम्बर, १७९० ई॰ में उसने ब्रिटिश सैनिकों का कमान स्वयं अपने हाथों में लिया । उस समय उसने मैसूर के पुराने हिन्दू राजवंश के उत्तराधिकारी के पक्ष में टीपू को गद्दी से उतारने की योजना भी बनायी । वेलोर और अंबूर होता हुआ वह ससैन्य बंगलोर बढ़ा । २१ मार्च, १७९१ ई॰ को इस पर कब्जा हो गया ।
१३ मई तक वह टीपू की राजधानी सेरिंगापटम (श्रीरंगपट्टम्) से करीब नौ मील पूर्व अरिकेरा जा पहुँचा । किन्तु इस अवसर पर भी टीपू ने असाधारण सेनापतित्व का परिचय दिया । जब वर्षा आ गयी, तल कार्नवालिस को पीछे हटकर मंगलोर चला जाना पड़ा, क्योंकि उसकी सेना के लिए साज-सामान और रसद की बिलकुल कमी थी ।
१७९१ ई॰ के ग्रीष्म में लड़ाई फिर से शुरू हुई । टीपू ने ३ नवम्बर को कोयंबटोर पर कब्जा कर लिया । कार्नवालिस को बम्बई से भेजी गयी एक सेना की सहायता मिल गयी ।
इसके सहारे उसने तुरत सेरिगापटम के अपने रास्ते में पड़नेवाले पहाड़ी किलों पर अधिकार कर लिया, इसके समीप ५ फरवरी, १७९२ ई॰ को पहुँच गया तथा इसके बाहरी भागों पर हमला कर दिया । अपनी सैनिक और कूटनीतिक कुशलता के द्वारा टीपू ने एक पूर्ण विपत्ति को रोक लिया । किन्तु उसने महसूस कर लिया कि आगे प्रतिरोध करना असंभव है ।
समझौते की कुछ प्रारंभिक बातचीत के बाद मार्च, १७९२ ई॰ में सेरिंगापटम की संधि हुई । टीपू को अपने आधे राज्य से हाथ धोना पड़ा । इसका एक बड़ा भाग, जो कृष्णा से लेकर पेनार नदी के आगे तक फैला हुआ था, निजाम को दिया गया । इसका एक हिस्सा मराठों को मिला, जिससे उनका राज्य तुंगभद्रा तक फैल गया ।
अंग्रेजों को (पश्चिम में) मलाबार एवं कुर्ग के राजा पर सर्वोच्च सत्ता (जिसे टीपू को स्वतंत्रता दे देनी पड़ी दक्षिण में डिंडीगल और आसपास के जिले तथा पूर्व में बारामहल जिला मिले । “कम्पनी के राज्य की ताकत और ठोसपन बढ़ाने में” ये “स्थानार्पण काफी महत्व के” थे । और भी, टीपू को तीस लाख पौंड से अधिक का हर्जाना देना पड़ा तथा अपने दो पुत्रों को कार्नवालिस के पड़ाव पर शरीर-बंधकों के रूप में भेजना पड़ा ।
कुछ लेखकों ने लार्ड कार्नवालिस की आलोचना की है, चूँकि उसने मैसूर के सुलतान के साथ संधि कर ली तथा उसका नाश नहीं किया, जो, उनकी सम्मति में, आसानी से किया जा सकता था । मुनरो ने लिखा- “अब प्रत्येक बात संयम और सुलह से होती है । इस गति से हम लोग अगले बीस वर्षों में क्वेकर (=बेकार) हो जाएँगे ।”
थौर्न- टन को अफसोस है कि टीपू को “वैसी अनुकूल शर्तें दी गयीं” । लेकिन यह लिख देना उचित होगा कि कार्नवालिस ने कुछ व्यावहारिक विचारों से ही यह कदम उठाया । उसके सैनिकों में बीमारी फैल रही थी । फ्रांस से युद्ध, और इसके फलस्वरूप टीपू और फ्रांसीसियों के बीच संधि की आशंका थी ।
कोर्ट ऑव डिरेक्टर्स शांति-स्थापना के लिए जिद कर रहा था । और भी, कार्नवालिस मैसूर का समूचा राज्य लेने को जरा भी इच्छुक न था । उसकी राय में ऐसा करने से मित्र-शक्तियों के साथ सुविधाजनक समझौता होने में कठिनाई हो जाती ।
हैदराबाद और कर्णाटक से ब्रिटिश संबंध (Relationship of British with Hyderabad and Karnataka):
(क) हैदराबाद का निज़ाम (Nizam of Hyderabad):
निजामुल मुल्क आसफ जाह ने, सिद्धांतत: दक्कन में दिल्ली के बादशाह का प्रतिनिधि होने पर भी, दूसरे प्रांतों के सूबेदारों के समान, मुहम्मद शाह के राजत्वकाल में अपने को एक नौर में दिल्ली के बादशाह की सत्ता से स्वतंत्र कर लिया था । लेकिन उसके पुत्र निजाम अली की सत्ता, मराठों और मैसूर के सुलतानों की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं के कारण, संकट में पड़ गयी ।
अतएव वह ब्रिटिश सहायता की याचना करने लगा । १२ नवम्बर, १७६६ ई॰ को उसने मदारा कौंसिल से एक प्रथमाघातकारी और प्रतिरक्षात्मक संधि की ।
प्रथम अंग्रेज-मैसूर-युद्ध के दौरान में हैदर अली का एक अभिकर्ता (एजेंट) उसे कुछ समय के लिए इस संधि से हटा ले गया । किन्तु उसने शीघ्र मसुलीपटम में २३ फरवरी, १७६८ ई॰ को अंग्रेजों से संधि कर ली ।
१७६६ ई॰ की संधि और १७६८ ई॰ की संशोधित मंधि के अनुमार निजाम ने कंपनी को उत्तरी सरकार दे दिया तथा इसके बदले में कंपनी ने निजाम को नौ लाख रुपयों का वार्षिक कर देने का वादा किया । गुंटूर की सरकार निजाम के भाई बसालत जंग को जिंदगी भर के लिए दे दी गयी थी ।
अतएव कर की रकम घटाकर सात लाख कर दी गयी । किन्तु १७७९ ई॰ में मद्रास के अनाड़ी गवर्नर रंबोल्ड ने सीधे बसालत जंग से गुंटूर की सरकार प्राप्त कर ली । इस बीच निजाम ने फ्रांसीसी सैनिकों को अपनी नौकरी में लेकर १७६८ ई॰ की संधि का उल्लंघन कर दिया था । इसलिए रंबोल्ड ने निजाम को कर देना बंद करना चाहा । इसे गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने अस्वीकार कर दिया ।
किन्तु इसने निजाम के दूसरी ओर ले जाने का काम कर दिया । यों भी एक अत्यंत संकटपूर्ण क्षण में अंग्रेजों के राघोबा से संधि कर लेने से निजाम का रोष पहले ही जंग गया था । अत: वह एक अंग्रेज-विरोधी संघ में हैदर और मराठों के साथ जा मिला ।
लेकिन जब द्वितीय अंग्रेज-मैसूर-युद्ध आगे बढ़ा तथा उसमें अंग्रेजों की हानि होने लगी, तब वारेन हेस्टिंग्स, बसालत जंग को गुटूर लौटाकर, निजाम को मित्रों से फोड़ने में सफल हो गया । १७८२ ई॰ में बसालत जंग की मृत्यु हो गयी । इसके बाद अंग्रेजों ने १७६८ ई॰ की संधि के बल पर निजाम से गुंटूर माँगा ।
गुंटूर की स्थिति निजाम और अंग्रेज दोनों के लिए महत्वपूर्ण थी । निजाम के लिए समुद्र तक पहुँचने का यह एकमात्र रास्ता था । अंग्रेजों का अपने उत्तर के उपनिवेशों और दक्षिण के उपनिवेशों को मिलाने के लिए इसपर अधिकार रखना आवश्यक था । कुछ आगापीछा करने के बाद निजाम ने १७८८ ई॰ में अंग्रेजों को गुंटूर समर्पित कर दिया ।
इसके बदले में उसने १७६८ ई॰ की संधि के अनुसार उनकी सहायता चाही जिसमें वह टीपू द्वारा बलपूर्वक लिये गये अपने कुछ जिलों को लौटा ले । तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड कार्नवालिस ने अपने को नाजुक स्थिति में पाया । इसके दो कारण थे ।
एक तो, ठीक उन्हीं इलाकों पर मैसूर सुलतानों के अधिकार को अंग्रेजों ने दो पृथक् संधियों द्वारा स्वीकार कर लिया था, जो हैदर और टीपू के साथ क्रमश: १७६९ ई॰ एवं १७८४ ई॰ में हुई थीं ।
दूसरे, पिट के इंडिया ऐक्ट (भारत कानून) की धारा ३४ के द्वारा वह बिना पहले आक्रांत हुए भारतीय शक्तियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने अथवा इन उद्देश्य के साथ संधि करने से रोक दिया गया था । लेकिन साथ ही वह टीपू से होनेवाले निश्चित युद्ध को ध्यान में रखकर मित्र प्राप्त करने को उत्सुक था ।
इसलिए उसने ७ जुलाई, १७८९ ई॰ को निजाम के पास एक पत्र लिखा, जिसमें उसने अपने मतलब के मुताबिक १७६८ ई॰ को संधि की व्याख्या की तथा ब्रिटिश मैनिकों से निजाम का समर्थन करना स्वीकार किया । ये ब्रिटिश सैनिक अंग्रेजों के मित्रों के विरुद्ध प्रयुक्त नहीं हो सकते थे ।
इन मित्रों की सूची उस पत्र में दी हुई थी । टीपू का नाम जानबूझकर इस सूची से हटाया हुआ था । ड्स प्रकार निजाम १७९० ई॰ की त्रिगत-संधि का सदस्य बन गया तथा तृतीय अंग्रेज-मैसूर-युद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ा । जैमा हम पहले ही लिख चुके हैं, सर जान शोर ने पिट के इंडिया ऐक्ट द्वारा निर्धारित तटस्थता-नीति का पालन किया तथा मराठों के विरुद्ध निजाम को सहायता नहीं दी । फलत: मराठों ने मार्च १७९५ ई॰ में खर्दा में उसे करारी हार दी ।
(ख) कर्णाटक (Karnataka):
कर्णाटक अठारहवीं सदी के मध्य के अंग्रेज-फ्रांसीसी कलहों से तबाह हो गया । आगे चलकर इसे आचारभ्रष्ट शासन की बुराइयों से बहुत कष्ट झेलना पड़ा । शासन के आचारभ्रष्ट होने के दो कारण थे । आंशिक रूप में यह वहाँ के नवाब मुहम्मद अली के निंदनीय चरित्र के कारण हुआ तथा अंशत: यह मद्रास सरकार की अस्थिर और स्वार्थपूर्ण नीति के कारण हुआ ।
थौर्नटन लिखता है: “इस समय मद्रास का नैतिक वातावरण अनिष्टकर मालूम पड़ता है । भ्रष्टाचार खुलकर रंगरेलियाँ मना रहा था । वस्तुत: कोई मजबूत ताकत ही इसे प्रभावपूर्ण रूप में दबा सकती थी, जब कि मुहम्मद अली (मुहम्मद अली) को काम बनाना था तथा रुपया अथवा वादा देना था ।”
मुहम्मद अली ने अरकाट में रहना छोड़ दिया था । वह मद्रास के आसपास के एक मछलियाँ पकड़ने वाले गांव चेपौक में एक शानदार महल में अपने दिन बिताता था । वह आनंद और विलास में डूबा रहता था । इस आनंद और विलास का बेहिसाब खर्च चलाने के लिए वह मद्रास की कम्पनी के नौकरों से बहुत ज्यादा उधार लेता था ।
इसके सूद की दरें बहुत ऊँची होती थीं । कभी-कभी तो यह दर छत्तीस प्रति शत प्रति वर्ष तक उठ जाती थी । वह उन्हें कर्णाटक के जिलों के भू-राजस्व तक के अंश दे देता था । बर्क ने निश्चित रूप से कहा कि वह ”एक वास्तविक शासक” नहीं था, बल्कि ”एक छाया, एक स्वप्न, अत्याचार का एक प्रेत” था ।
”अरकाट के नवाब के कर्जों” के द्वारा यूरोपीय तमस्सुकवालों (बांड-होल्डरों) ने, जिनमें मद्रास कौंसिल के कुछ सदस्य भी थे, राज्य के हितों का सत्यानाश कर बेहद धन कमाया । इन कर्जों से शासन-संबंधी घोर बदनामी फैल गयी । इसलिए ब्रिटिश पार्लियामेंट ने इन्हें तय करने की कोशिश की ।
लेकिन बोर्ड ऑव कंट्रोल (नियंत्रण-संघ) ने इस बात में हस्तक्षेप किया तथा आदेश दिया कि नवाब के कर्ज कर्णाटक के राजस्व से ही अदा किये जाने चाहिएं । मंत्रिमंडल के इस निर्णय ने, जो बर्क और दूसरों द्वारा निंदित हुआ, ”पूर्व मैं शुद्ध शासन के पक्ष पर” तीव्र प्रहार किया ।
२ दिसम्बर, १७८१ ई॰ के एक प्रबंध के अनुसार कर्णाटक का राजस्व ब्रिटिश नियंत्रण में दे दिया गया तथा नवाब को अपने निर्वाह के लिए छठा भाग दिया गया । लेकिन इसपर नवाब के महाजन अपने रुपयों के लिए शोर मचाने लगे । तब बोर्ड ऑव कंट्रोल ने नवाब को राजस्व लौटाने का आदेश दे दिया । नवाब कर्ज में और भी अधिक गहराई के साथ डूबता चला गया ।
इस प्रकार जब लार्ड कार्नवालिस पहली बार कम्पनी का गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया, तब मुहम्मद अली और कम्पनी के बीच के संबंध बहुत जटिल थे । २४ फरवरी, १७८७ ई॰ को अंग्रेजों ने नवाब से एक संधि की, जिसके अनुसार अंग्रेजों ने पंद्रह लाख पगोडों की एक रकम के बदले में समूचे राज्य की प्रतिरक्षा करना स्वीकार किया ।
किन्तु टीपू से युद्ध (१७९०-१७९२ ई॰) के समय कम्पनी ने कर्णाटक का संपूर्ण नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया । मैलकौम के शब्दों में इसका उद्देश्य था ”दोनों राज्यों (कर्णाटक और मद्रास) के नवाबों के अफसरों के कुप्रबंध से होनेवाले खतरों से, जिनके लिए उसके (कम्पनी के) विचारानुसार वे राज्य खुले पड़े थे रक्षा करना” ।
युद्ध का अंत होने पर १२ जुलाई, १७९२ ई॰ को एक संधि हुई, जिसके अनुसार कर्णाटक उसके नवाब को लौटा दिया गया तथा साथ ही अंग्रेजों की रकम पंद्रह लाख पगोडा से घटाकर नौ लाख कर दी गयी ।
मुहम्मद अली १३ अक्टूबर, १७९५ ई॰ को मर गया । उसका पुत्र और उत्तराधिकारी ओमदुतुल उमरा था । इस समय मद्रास का गवर्नर लार्ड होबर्ट था, जो सितम्बर १७९४ ई॰ से ही इस पद पर था ।
वह चाहता था कि नवाब १७९२ ई॰ की संधि का इस हद तक संशोधन करें कि वह कम्पनी को वे सभी इलाके दे दे, जो बाकी पड़ी हुई आर्थिक किश्तों के लिए जमानत के रूप में बंधक रखे जा चुके हैं । पर नवाब रास्ते पर न लाया जा सका ।
अपने महाजनों द्वारा “परेशान किये गये सताये गये और धमकाये गये” नये नवाब ने उन प्रस्ताओं को नहीं माना । मद्रास के गवर्नर की इच्छा इस हद तक आगे जाने की थी कि तिनेवली को अपने राज्य में मिला लिया जाएं । किन्तु गवर्नर जनरल सर जान शोर ने इसका समर्थन नहीं किया ।
कर्णाटक सरकार में भ्रष्टाचार पूर्ण रूप से जारी रहा । इसका कारण, जैसा कि मिल ठीक ही व्यक्त करता है सर्वोच्च सरकार (सुप्रीम गवर्नमेंट) और व्यक्तियों के शक्तिशाली वर्ग का, जिनका मुनाफा देश के कुशासन पर निर्भर था, सम्मिलित विरोध” ।
अवध, बनारस और रुहेलखंड से ब्रिटिश सम्बन्ध (British Relations with Awadh, Banaras and Ruhalkhand):
(क) वारेन हेस्टिंग्स की अवध नीति तथा रुहेला युद्ध (Warren Hasting’s Awadh Policy and Ruhal War):
अंग्रेजों और अवध के बीच हुई १७६५ ई॰ की संधि के समय से ही कम्पनी ने अवध के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध निभाने का निश्चित संकल्प कर लिया था । इसका उद्देश्य था मराठों अथवा अफगानों के आक्रमणों के विरुद्ध इसका (अवध का) रक्षा के साधन के रूप में उपयोग करना ।
इस प्रकार जब १७७०-१७७१ ई॰ में दिल्ली के बादशाह शाह आलम द्वितीय ने अपने को मराठा संरक्षण में रख लिया, तब वारेन हेस्टिग्स ने बादशाह को कड़ा और इलाहाबाद के जिला से वंचित कर दिया तथा इन्हें अवध के नवाब के हवाले कर दिया ।
इसके बदले में उसने पचास लाख रुपये लिये तथा नवाब की रक्षा के लिए रखी गयी कम्पनी के सैनिकों की टुकड़ी के खर्च के निमित्त एक वार्षिक रकम भी नवाब को देनी पडी । जब वारेन हेस्टिंग्स ने नवाब से परामर्श किया तब सितम्बर, १७७३ ई॰ में बनारस की संधि द्वारा यह प्रबंध दृढ़ किया गया ।
लेकिन वारेन हेस्टिंग्स की यह नीति कम्पनी को रुहेलों से एक युद्ध में खींच लायी । रुहेलखंड का उपजाऊ राज्य अवध के उत्तर-पश्चिम में हिमालय के नीचे स्थित था । इसकी जनसंख्या करीब साठ लाख थी । इसके अधिकांश हिन्दू थे । यह हाफिज रहमत खाँ के नेतृत्व में रुहेला सरदारों के एक संघ द्वारा शासित होता था ।
१७७१ ई॰ से इसपर मराठों का भय छाया हुआ था । अवध का नवाब भी रुहेलखंड के सूबे. पाए नजर उडाये हुए था । उसके और रुहेलखंड के अफगानों के बीच प्रेम का अभाव था । लेकिन मराठों का खतरा दोनों पर था ।
इस कारण रुहेलों और अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने १७ जून, १७७२ ई॰ को सर राबर्ट बारकर की उपस्थिति में संधि कर ली । इसके अनुसार यदि मराठों ने रुहेलखंड पर आक्रमण किया, तो अवध का नवाब उन्हें खदेड़ देगा तथा इसके लिए रूहेले उसे चालीस लाख रुपये देंगे ।
मराठों ने १७७३ ई॰ के वसंत में रुहेलखंड पर आक्रमगा किया । लेकिन अंग्रेजों और अवध की सम्मिलित सेनाओं द्वारा वे पीछे हटा दिये गये । पेशवा माधवराव प्रथम की मृत्यु के पश्चात् पूना में जो अव्य-वस्था फैली, उसकी वजह से वे अपने हमलों के दुहराने की नहीं सोच सके । तब अवध के नवाब ने रुहेला सरदार से करार किये गये चालीस लाख रुपये माँगे । किन्तु रुहेला सरदार इस संबंध में टालमटोल करता रहा ।
बनारस की संधि (सितम्बर, १७७३ ई॰) के बल पर शुजाउद्दौला ने १७७४ ई॰ की फरवरी के प्रारंभ में हाफिज रहमत खाँ को जबरदस्ती राह पर लाने के लिए कम्पनी की सहायता माँगी । तदनुसार एक ब्रिटिश सेना कर्नल चपियन के नायकत्व में भेजी गयी ।
अंग्रेजों और अवध की संयुक्त सेनाएँ १७ अप्रैल, १७७४ ई॰ को रुहेलखंड में घुस गयीं । छ: दिन बाद मीरनपुर कटरा में निर्णयात्मक लड़ाई लड़ी गयी । रुहेलों ने, जैसा कि ब्रिटिश सेनानायक ने कहा, ”महान् वीरता और संकल्प” प्रदर्शित किया । मगर फिर भी वे हार गये । हाफिज रहमत वीरता पूर्वक लड़ता हुआ मारा गया ।
करीब २० हजार रुहेले गंगा के पार खदेड दिये गये । उनका सूबा अवध के राज्य में मिला लिया गया । उसका केवल एक टुकड़ा, रामपुर के साथ, रुहेला शक्ति के संस्थापक अली मुहम्मद रुहेला के पुत्र फैजुल्लाह खाँ के अधिकार में छोड़ दिया गया ।
रुहेला युद्ध में वारेन हेस्टिंग्स की नीति के गुणों और दोषों के मंबंध में मतों की भिन्नता उग्र रूप में है । १७८६ ई॰ में पार्लियामेंट में वारेन हेस्टिग्स पर जो आक्रमण हुआ उसकी यह एक मुस्य बात थी । केवल बर्क और मेकाले ने ही नहीं, बल्कि मिल एवं अन्यों के समान पुराने स्क्ल के अधिकतर इतिहासकारों ने भी कड़े शब्दों में इसकी निंदा की है ।
उनके मत में वारेन हेस्टिग्स ने “जानबूझकर एक स्वतंत्र जाति के जीवन और स्वतंत्रता को बेच डाला तथा अवध के नवाब की सेनाओं द्वारा किये गये नृशंसता के भयंकर कामों की उपेक्षा कर दी ।”
किन्तु कुछ आधुनिक बेखक इस नीति के समर्थक निकल आये हैं । इनमें प्रमुख हैं सर जॉन स्ट्रची, जिन्होंने अपनी ‘हेस्टिंग्स ऐड द’ रोहिला वार’ नामक पुस्तक में इसे पूर्ण रूप से उचित ठहराने का प्रयास किया है । यद्यपि वर्क, मैकाले या मिल के कुछ वाक्य अनुचित कटूक्ति माने जा सकते है, तथापि वारेन हेस्टिंग्स की नीति कुछ दृष्टियों से तर्कसंगत आलोचना नहीं बच सकती ।
इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि इस व्यापार की युक्तियुक्तता पर स्वयं वारेन हेस्टिंग्स को संदेह था तथा उसकी कौंसिल को और भी अधिक संदेह था; इसकी प्रारंभिक अवस्थाओं में वे इनके नबध में डाँवाडोल हालत में थे । बनारस की संधि करते समय वारेन हेस्टिग्स ने सोचा होगा कि अवध के नवाब की मदद करने का मौका कभी नहीं आएगा । लेकिन बिना रचिन रूप में इर के परिणामों को तौले हुए किसी काम मैं बँध जाना, मिस्टर पी॰ई॰ रौबर्टस के शब्दों में- ”राजनीतिक बर्ताव का उपयुक्ततम या योग्यतम प्रकार” नहीं है ।
इस विचार का समर्थन करना भी कठिन है कि वारेन हेस्टिंग्स को अवध के नवाब की मदद करना लाजिमी था, चूँकि अवध के नवाब और रुहेलों के बीच की संधि ब्रिटिश गारंटी पर हुई थी । सर राबर्ट बार्कर ने केवल दोनों दलों के दस्तखतों को देखा भर था इस संबंध में उसने और क्रुछ नहीं किया ।
और भी, सर जॉन स्ट्रची के समान यह दलील करना अनुचित हे कि रुहेले अपने सूबे से खदेड़े जाने लायक थे चूंकि उन्होंने इसकी हिन्दू जनता पर केवल पचीस वर्ष पहले अपना शासन स्थापित किया था । यह स्पष्ट है कि उस दुबे पर उनका हक उतना ही अच्छा था जितनी उस समय के बहुत से भारतीय राज्यों का, जो मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर पनप रहे थे ।
हमें इस बात का समकालीन प्रमाण है, जिसकी पूरी उपेक्षा सर जॉन ऊंची तक नहीं कर सके, कि रुहेलखंड के हिन्दू रुहेलों के अधीन सुशासित थे तथा समृद्धि का उपयोग करते थे यह अवध का नवीन शासन ही था, जो उनके लिए अत्याचारपूर्ण सिद्ध हुआ ।
सर जॉन स्ट्रूची तक को यह स्वीकार करना पड़ा है कि वारेन हेस्टिंग्स की नीति “कुछ रूखी” थी । अंतत: रुहेले किसी भी रूप में अंग्रेजों को नाराज करने के दोषी नहीं ठहराये जा सकते । सर अल्फेड लायल अत्यंत तर्कसंगत ढंग से कहता है कि “रुहेलों के खिलाफ हमला सिद्धांतत गलत था, क्योंकि उन्होंने हमलोगों को क्रुद्ध नहीं किया था, तथा वजीर पर केवल इसी का विश्वास किया जा सकता था कि वह अपने लाभों का दुरुपयोग करेगा ।”
समूचे व्यापार से स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की गंध मिलती है, जो मुख्यतया धन-लोलुप किस्म के थे । इसने निस्संदेह एक खराब उदाहरण पेश किया । जो कुछ वारेन हेस्टिंग्स ने स्वयं स्वीकार किया, उससे इसकी किस्म स्पष्ट है ”मराठों की अनुपस्थिति तथा रोहिलों का कमजोर राज्य उनकी (रोहिलों की) आसान विजय की आशा दिलाते थे । और मैं स्वीकार करता हूँ कि राज्य के भीतर कम्पनी के कष्ट के सम्बन्ध में मेरी धारणा ऐसी थी तथा राज्य के बाहर उसकी आवश्यकताओं के बारे में मेरा ज्ञान उससे इस रूप में जुड़ा हुआ था कि यदि उसकी (कंपनी की) सेना का उपयोग करने का कोई अवसर आता जो उसके दरमाहा और खर्च को किसी हद तक बचा दे, तो मैं उससे प्रसन्न ही होता ।”
(ख) चेत सिंह के साथ दुर्व्यवहार (Misconduct with Chet Singh):
धनलोलुप उद्देश्यों ने वारेन हेस्टिंग्स से दो और ऐसे काम करवाये, जिनका बचाव नहीं हो सकता । एक मामले में उसने बनारस के राजा चेत सिंह से अत्यधिक माँगे पेश कीं । प्रारंभ में चेत सिंह अवध के नवाब का सामंत था ।
जुलाई, १७७५ ई॰ में हुई एक संधि द्वारा उसने अपने को कम्पनी की प्रभुसत्ता के अधीन कर लिया । इस संधि के द्वारा उसने अपने नये स्वामी को साढ़े बाईस लाख रुपयों का वार्षिक कर देना स्वीकार किया । लेकिन १७७८ ई॰ में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच लड़ाई छिड़ जाने पर वारेन हेस्टिंग्स न राजा से लड़ाई के चंदे के रूप में पाँच लाख अधिक रुपये माँगे ।
राजा ने इसे अदा कर दिया । लेकिन इस तरह की माँग बहुत बार दुहरायी गयी । राजा में, समय और मुक्ति के लिए अनुरोधपूर्वक कहने के बाद, हर बार इसकी पूर्ति कर दी ।
यह वारेन हेस्टिंम्स को संतुष्ट करने के लिए काफी नहीं था । १७८० ई॰ में उसने राजा को दो हजार घुड़सवार देने का आदेश दिया । राजा की प्रार्थना पर घुड़सवारों की संख्या घटाकर एक हजार कर दी गयी । राजा ने पाँच सौ घुड़सवार तथा बदले में पाँच सौ पैदल सिपाही जमा किये । उसने वारेन हेस्टिंग्स को सूचना दी कि वे कम्पनी की सेवा करने को तैयार हैं ।
किन्तु उसे कोई उत्तर नहीं मिला । वारेन हेस्टिंग्स ने पहले ही उसपर पचास लाख रुपयों का जुर्माना करने का निश्चय कर लिया था । उसने कहा- “में उसके अपराध से कम्पनी के कष्ट के प्रतिकार का उपाय निकालने को कृत-संकल्प था ।…..एक शब्द में मैने निश्चय कर लिया था कि उससे उसकी क्षमा के लिए काफी रकम अदा करवा के, नहीं तो उसके पहले के दुष्कर्म के लिए घोर दंड दूँ ।”
अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए वारेन हेस्टिंग्स स्वयं बनारस गया तथा राजा को कैद कर लिया । राजा ने चुपचाप अधीनता मान ली । किन्तु उसपर जो तिरस्कार लादा गया था, उससे उसके सैनिक क्रुद्ध हो गये ।
बिना अपने स्वामी के उकसाये हुए अथवा उसकी जानकारी के वे अकस्मात विद्रोह कर उठे । उन्होंने तीन अफसरों के साथ कुछ अंग्रेज सिपाहियों की हत्या कर डाली । वारेन हेस्टिंग्स अपनी जान बचाने के लिए चुनार भाग गया । किन्तु शीघ्र सभी प्राप्त सैनिकों को एकत्र कर उसने विद्रोह को दबा डाला ।
जहाँ तक हत्या के अपराध में साझेदारी का संबंध था, चेत सिंह ने उचित ही अपनी निर्दोषता के लिए दलील की । लेकिन कोई फल न निकला । वह अपने राज्य से खदेड़ दिया गया तथा ग्वालियर में उसने शरण पायी । उसका राज्य उसके भतीजे को प्रदान किया गया, जिसे कम्पनी को साढ़े बाईस लाख के बदले चालीस लाख का कर अदा करना था ।
वारेन हेस्टिंग्स की ओर से कैफियत देनेवाले आधुनिक लेखकों द्वारा जो कुछ भी कहा जाए, इसमें संदेह नहीं कि चेत सिंह वाले काम में उसका बर्ताव “निष्ठुर, अन्याय- संगत और अत्याचारपूर्ण” था, जैसा कि पिट ने उसके महाभियोग के समय कहा । वारेन हेस्टिंग्स के प्रतिरक्षकों ने गलत ही उसे राजा न कहकर एक जमींदार-मात्र बताया ।
यदि वे उसे केवल जमींदार ही साबित कर भी दें, तब भी उसे और केवल उसे लूटने-खसोटने एवं सभी जमींदारों पर एक सामान्य कर न लगाने के न्याय में बहुत अच्छी तरह आपत्ति की जा सकती है । ५ जुलाई, १७७५ ई॰ की संधि अभी भी राजा और कम्पनी के बीच के संबंधों को नियमित करती थी ।
इसमें निश्चित रूप से लिखा था कि “उससे कम्पनी माहब बहादुर द्वारा किसी तरह की अथवा किसी भी बहाने पर कोई माँग न की जायगी ओर न किसी व्यक्ति को उसके अधिकार में हस्तक्षेप करने दिया जाएगा, न उसके देश की शानि को भंग करने दिया जाएगा ।” इसलिए कानूनी तौर पर राजा कोई अतिरिक्त चंदा देने को बाध्य न था ।
फौरेस्ट कहता है कि राजा का चरित्र “हठी, विद्रोहपरायण और दंडनीय” था । किन्तु वह संचाई का बिल्कुल गलत बयान करता है । वस्तुत: चेत सिंह बराबर वशवर्ती रहा । उसके आदमी बिना उसके इशारे के अपने स्वामी के अपमानित होने के बाद ही विद्रोह में उठ खड़े हुए ।
निष्पक्ष लेखकों को सर अल्फ्रेड लायल का यह तर्कसंगत निर्णय अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि “बनारस में विद्रोह खड़े कराने का दोष हेस्टिंग्स को ही उठाना पड़ेगा” तथा “चेत सिंह के विरुद्ध उसको कार्रवाइयों” के संबंध में विवेकहीन कठोरता एवं उतावलेपन का स्पर्श था, जिसका कारण था “राजा के विरुद्ध किसी हद तक प्रतिहिंसात्मकता और निजी चिढ़” ।
यह बहुत स्पष्ट है कि समूचा व्यापार नैतिक दृष्टि से अन्यायपूर्ण था । यह अयुक्तियुक्त भी था । डॉक्टर वी. ए. स्मिथ ने युक्तियुक्तता को कारण बनाकर वारेन हेस्टिंग्स की अत्यधिक माँगों का वचाय करने की कोशिश की है इस संबंध में उनका कहना है कि उस समय की उपद्रवपूर्ण राजनीतिक परिस्थिति की “गंभीर आवश्यकताएँ” थीं ।
लेकिन गवर्नर जनरल को कोई वित्तीय लाभ नहीं हुआ क्योंकि राजा अपने साथ अपनी संपत्ति का एक भाग ले गया तथा बाकी तेईस लाख को सैनिकों ने लूटकर आपस में बाँट लिया । इसके विपरीत कम्पनी पर बाद में होनेवाली सैनिक कार्रवाइयों का खर्च उठाने का बोझ पड़ गया ।
इस प्रकार कोर्ट ऑव डिरेक्टर्स ने उचित ही वारेन हेस्टिंग्स की नीति की “असमर्थ-नीय और विवेकहीन” कहकर आलोचना की । और भी, कम्पनी ने बनारस के नये राजा से चालीस लाख का बढ़ा हुआ कर उस राज्य के हितों का महान् बलिदान करके प्राप्त किया, क्योंकि उसके संरक्षित व्यक्ति के अधीन उस राज्य का शासन बदतर हो गया ।
(ग) अवध की बेगमों के साथ अत्याचार (Atrocities with the Begum of Awadh):
शुजाउद्दौला एक चालाक, परिश्रमी और कुशल शासक था । २६ जनवरी, १७७५ ई॰ को उसकी मृत्यु हुई । उसका पुत्र आसफुद्दौला उसका उत्तराधिकारी हुआ । उसने कम्पनी के साथ एक नयी संधि की, जो फैजाबाद की संधि के नाम से प्रसिद्ध है । इस संधि की एक खास बात यह थी कि इसके द्वारा उसने अपने ऊपर ब्रिटिश सैनिकों के खर्च के लिए पहले से अधिक रकम अदा करने की शर्त डाल ली ।
इस प्रकार उसने मूर्खतावश अपने ऊपर कम्पनी के ऋण को बढ़ा लिया । नये नवाब के अधीन अवध का शासन अधिकाधिक भ्रष्टाचारपूर्ण होता गया तथा कम्पनी को दी जानेवाली रकम बाकी पड़ गयी । शासन करनेवाले नवाब की माता और दादी ने, जो अबध की बेगमों के नाम से मशहूर हैं, मृत नवाब: से बहुत जागीरें और अपार संपत्ति विरासत में पायी थी ।
कम्पनी ने रुपये के लिए नये नवाब पर दबाव डाला । तब आसफुलैला ने यह कारण बताकर कि उसे अनुचित रूप से उन चीजों से वंचित किया गया था उन्हें (जागीरों और संपत्ति को) बलपूर्वक लेने की चेष्टा की । १७७५ ई॰ में, अवध के ब्रिटिश रेजिडेंट मिड्लटन के प्रतिवादों पर, शुजाउद्दौला की विधवा ने अपने पुत्र को तीन लाल पौंड दिये । इसके पहले वह उसे अढ़ाई लाख पौंड दे चुकी थी ।
ब्रिटिश रेजिडेंट और कलकत्ते की कौंसिल ने एक गारंटी दी कि भविष्य में उसके सामने किसी तरह की अगली माँगे पेश नहीं की जाएँगी । वारेन हेस्टिंग्स इस समय अपनी कौंसिल के विरुद्ध था । वह मताधिक्य (वोटों की अधिकता) ने हार गया ।
जब १७८१ ई॰ में अवध के नवाब ने, ब्रिटिश रेजिडेंट द्वारा दवाब डाले जाने पर प्रस्ताव किया कि मुझे कम्पनी का बकाया साफ करने के लिए बेगमों की जायदाद और दौलत जब्त करने की आज्ञा मिलनी चाहिए, तब वारेन हेस्टिंग्स को इसे स्वीकार करने नया उन (बेगमों) पर से ब्रिटिश संरक्षण हटा लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई । नवाब तुरंत पसोपेश में पड़ गया ।
जैसा कि रेजिडंट ने कहा, वह “अपनी औरत रिश्तेदारों के असाधारण रूप से प्रचंड क्रोध” से भय खाता था । लेकिन वारेन हेस्टिंग्स उसके साहस को बढ़ावा देने में मदद करता रहा । गवर्नर-जनरल ने मिड्लटन को दिसम्बर, १७८१ ई॰ में लिखा- “आप सुलह की बातचीत न होने दें और न क्षमा ही करें । बल्कि आप तबतक कड़ाई से चलते रहें, जब तक कि बेगमें नवाब की पूरी मर्जी पर न हो जाएँ” ।
ब्रिटिश सैनिक फैजाबाद भेजे गये, जहाँ बेगमें रहती थीं । उनके हिजड़ों को कैद किया गया, भूखों मारा गया तथा यदि कोई सचमुच न मारे गये तो, कोड़े मारने की धमकी दी गयी । इन यातनाओं से विवश होकर हिजड़ों ने दिसम्बर, १७८२ ई॰ में खजाना समर्पित कर दिया ।
वारेन-हेस्टिंग्स का इस अवसर पर किया गया व्यवहार शिष्टता और न्याय की सभी सीमाओं को पार कर गया । सर अल्फ्रेड लायल कहते हैं- “औरतों और हिजड़ों से रुपये एंठने के ख्याल से ब्रिटिश अफसरों की कवीक्षकता में शारीरिक सख्तियों का बरता जाना एक अधम प्रकार का कार्य है ।…..गारंटी हटा लेना तथा नवाब को विद्रोहशील राजकुमारों से निबटने को छोड़ देना समर्थनीय था । उसे आगे ढकेलना तथा औरतों एवं हिजड़ों के विरुद्ध जबर्दस्ती के कामों में सक्रिय रूप से सहायता करना ऐसा बर्ताव था जो अयोग्य है और जिसका बचाव नहीं किया जा सकता ।”
इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि वारेन हेस्टिंग्स संपूर्ण व्यापार में “मुख्य शक्ति” (“मूभिंग स्पिरिट”) था । वारेन हेस्टिंग्स ने दलील की, तथा उसके प्रतिरक्षक इसका समर्थन करते है, कि बेगमें, चेत सिंह वाले काम में अपने अपराध की साझेदारी के कारण, ब्रिटिश संरक्षण पर से अपना अधिकार खो चुकी थी ।
उस पक्ष का यह कथन समर्थनीय नहीं है । इस संवंध का प्रमाण विरोध में है; तथा “विद्रोह का दोष घटना होने के बाद गढ़ा गया था, यह तब बनाया गया जब समस्त व्यापार के लिए एक औचित्य प्रस्तुत करना आवश्यक समझा गया ।
अपने पद के अंतिम वर्ष में वारेन हेस्टिग्स ने अवध के शासन और वित्त का पुनस्त्रंगठन करने के कुछ असफल प्रयत्न किये । कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स से आदेश प्राप्त कर उसने बेगमों को कुछ जागीरें लौटा दी तथा ब्रिटिश रेजिडेंसी को हटा दिया, किन्तु इसके स्थान पर “गवर्नर-जनरल की एक एजेंसी” स्थापित कर दी । यह एजेंसी राज्य के साधनों के लिए एक अधिक भारी बोझ साबित हुई ।
(घ) अवध के प्रति कार्नवालिस और शोर की नीति (Cornwallis and Noise Policy towards Awadh):
वस्तुत: अवध कुशासन की बुराइयों और कम्पनी की वित्तीय माँगों के बोझ से कराहता रहा । लार्ड कार्नवालिस के समय में नवाब ने उससे प्रार्थना की कि कानपुर और फतहगढ में तैनात किये हुए कम्पनी के सैनिकों को हटा लिया जाए तथा इस प्रकार उसे “उत्पीड़नकारी आर्थिक बोझ” से मुक्त किया जाए ।
नवाब के मंत्री हैदर बेग से मिलकर परामर्श करने के बाद गवर्नर-जनरल ने रकम को चौहत्तर से घटाकर पचास लाख करना स्वीकार किया किन्तु उसने ब्रिटिश सैनिकों के हटाये जाने पर आपत्ति की ।
हैदर बेग वास्तव में एक योग्य मंत्री था । वह शासन को सुधारने के लिए उत्सुक रहता था । उसकी मृत्यु १७९४ ई॰ में हो गयी । इसके साथ ही सुधार की सारी आशा समाप्त हो गयी । आसफुद्दौला १७९७ ई॰ में मर गया । वह वजीर अली को अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखता था । मृत नवाब का सबसे बड़ा भाई सआदत अली था ।
इन दोनों के वीच में गद्दी के लिए झगड़ा होने लगा । सर जान शोर ने इसमें हस्तक्षेप किया । उसने सआदत अली को गद्दी पर बैठाया तथा उसके साथ २१ जनवरी, १७९८ ई॰ को एक संधि की ।
इसके अनुसार नवाब के द्वारा दी जानेवाली वार्षिक रकम बढ़ाकर छिहतर लाख रुपये कर दी गयी, इलाहाबाद का किला, जिसे मार्शमैन ने ”सूबे की सैनिक कुंजी” बतलाया, कम्पनी को सदा के लिये दे दिया गया नागब ने प्रतिज्ञा की कि वह दूसरे यूरोपियनों के साथ पत्रव्यवहार नहीं करेगा और न उन्हें अपने राज्य में आने देगा वजीर अली को डेढ़ लाख रुपये वार्षिक पेंशन पर बनारस में रहने दिया गया ।
इस प्रबंध से निस्संदेह कम्पनी का प्रभाव बहुत बढ़ गया, किन्तु अवध की आंतरिक सरकार में फैले हुए भ्रष्टाचार को यह दूर नहीं कर सका । समूचे सूबे में “सब तरह से अर्थ-कष्ट और अव्यवस्था थी । अंग्रेजों को दी जानेवाली रकम बराबर बाकी पड़ जाती थी, जब कि राजस्व की वसूली में सबसे भयानक उत्पीड़न काम में लाया जाता था । न्याय अज्ञात था । सेना एक अव्यवस्थित समूह थी । यह जिसकी नौकरी करने का दम भरती थी, उसी शक्ति के लिए भयंकर थी । देशी बढ़ती हुई बुराइयाँ असाधारण संख्या में यूरोपीय साहसिकों की उपस्थिति से और भी बढ़ गयीं । इन साहसिकों में अधिकतर जैसे संपत्ति से शून्य थे वैसे ही चरित्र और सिद्धान्त से भी शून्य थे ।”