Read this article in Hindi to learn about the expansion of British rule over Sindh in India.

अफगान युद्ध के बाद सिंध की विजय आयी । इन दोनों घटनाओं में अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध था । सिंध में सिंधु नदी की निचली घाटी पड़ती थी । यह अहमद शाह दुर्रानी के साम्राज्य में शामिल था ।

लेकिन अठारहवीं सदी के अंतिम वर्षों में यह अफगानिस्तान की नाममात्र की अधीनता मानता था तथा तालपुरा कबीले के मीरों या अमीरों द्वारा एक तौर से स्वतंत्र रूप में शासित होता था । ये लोग मलत: बलूचिस्तान से आये थे । सन् १७८३ ई॰ में इन्होंने अंतिम कलोरा को हरा दिया । तालपुरा सरदारों की तीन महत्वपूर्ण शाखाएँ हैदराबाद, खैरपुर और मीरपुर में स्थापित थीं ।

अंग्रेजों का सिंध में लंबे अरसे से व्यापारिक स्वार्थ चला आ रहा था । उन्होंने १७५८ ई॰ में थट्टा में एक व्यापारिक कोठी खोली । १७७५ ई॰ में यह उठा दी गयी । १७९९ ई॰ में उन्होंने तालपुर मीरों के पास अपने व्यापारिक दूतमंडल भेजे । किन्तु इसका कोई महत्वपूर्ण परिणाम न निकला ।

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सिंध से फ्रांसीसी प्रभाव हटाने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने १८०९ ई॰ में सिंध के अमीरों से एक संधि की । १८२० ई॰ में यह संधि पुन: नवीकृत हुई । १८३१ ई॰ में लाहौर पहुँचने के लिए अलेक्जेंडर बर्न्स ने सिंधु नदी के मुहाने से ऊपर की ओर यात्रा की । इससे अंग्रेजों को राजनीतिक और व्यापारिक दृष्टियों से सिंध का महत्व मालूम पड़ गया । तब से बढ़ते हुए ब्रिटिश साम्राज्य में इसका विलयन केवल समय की बात रह गयी । एक सैयद ने कहा- अफसोस, सिंध अब चला गया, क्योंकि अंग्रेजों ने नदी देख ली है” । यह सचाईयुक्त भविष्य-वाणी के रूप में पूर्णतया सत्य हुई ।

सिंध के महत्वाकांक्षी पड़ोसी सिख शासक रणजीत सिंह थे । वे अपने साम्राज्य के स्वाभाविक विस्तार-क्षेत्र के रूप में इस पर आंखे गड़ाये हुए थे । लेकिन उनके मित्र अंग्रेजों ने उनके प्रयत्न विफल कर दिये । यही नही, वे उस राज्य में अपना प्रभाव बढ़ाने में भी न चूके । इस प्रकार १८३१ ई॰ में लार्ड विलियम बेटिंक ने रणजीत सिंह के सिंध के विभाजन के प्रस्ताव का विरोध किया ।

लेकिन सिंध के अमीरों को अनिच्छा-पूर्वक ब्रिटिश सरकार से २० अप्रैल, १०३२ ई॰ को एक संधि करनी पड़ी । इसके अनुसार सिंध की “नदियाँ और सड़कें” “हिंदुस्तान के सौदागरों और व्यापारियों” के लिए खुली रहनी चाहिए, लेकिन इनसे होकर कोई “सैनिक भंडार” और “सशस्त्र जहाज या नावें” नहीं आनी चाहिए । अमीरों को अपने राज्य के अंग्रेजों द्वारा ले लिये जाने की आशंका थी ।

इसके विरुद्ध सतर्कता के रूप में उन्होंने संधि में यह शर्त भी शामिल करवा दी कि “दोनों इकरार करनेवाली शक्तियाँ शर्त करती हैं कि वे एक-दूसरे के राज्य पर लोभ की नजर से कभी नहीं देखेंगी” । यह संधि १८३४ ई॰ में पुन:नवीकृत न्‌हुर्ज्ञ । १८३८ ई॰ तक रणजीत सिंह प्राय: सिंध को अपने साम्राज्य में मिलाने की सोचा करते थे; किन्तु अंग्रेज उन्हें विफल कर देते थे ।

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अब अंग्रेजों ने यह विचार किया कि जिन बंधनों से सिंध के अमीर “ब्रिटिश सरकार से सम्बन्धित” हैं, उन्हें मजबूत करना चाहिए । वे सिख आक्रमण से उनकी रक्षा करते ही थे । इसके पुरस्कार-स्वरूप वे उनसे जबर्दस्ती अनुकूल शर्तें ऐंठने को आगे बड़े । २० अप्रैल, १८३८ ई॰ को एक संधि हुई । इसके द्वारा लार्ड आकलैंड ने उन पर एक क्षमता-प्राप्त ब्रिटिश रेजिडेंट लाद दिया ।

वस्तुत: सिंध शीघ्र एक विपत्ति से छूट कर दूसरी बड़ी विपत्ति में जा पड़ा । इसके सम्बन्ध की सिख महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकी । लेकिन अंग्रेज अफसरों ने संदेहपूर्ण तरीके अख्तियार कर इसे स्वतंत्रता से वंचित कर डाला । इस प्रकार इसे अनावश्यक ब्रिटिश रक्षा के लिए ऊंची कीमत देनी पड़ी । प्रथम अंग्रेज-अफगान-युद्ध छिड़ने पर अंग्रेज सिंध होकर सशस्त्र सेना ले गये ।

यह १८३२ ई॰ की संधि का उल्लंघन था । उन्होंने अमीरों को सूचना दी कि “जब तक वर्तमान आवश्यकता बनी हुई है…तब तक (१८३२ ई॰ की) संधि की वह धारा आवश्यक रूप से स्थगित करनी पड़ेगी जिसमें सैनिक भंडारों के ले जाने के लिए सिंधु के उपयोग की मनाही की गयी है” ।

आगे चलकर अमीरों को और भी अधिक अपमान और नुकसान का सामना करना पड़ा । लार्ड आकलैंड ने शाह शुजा की सिंध पर आर्थिक माँगों के विनिमय के सफल करने में अयाचित ब्रिटिश मध्यस्थता की कीमत के रूप में उनसे भारी रकम माँगी । अमीरों ने स्वभावत: लार्ड आकलैंड की माँग को स्वीकार करने में आगा-पीछा किया ।

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कारण यह था कि अमीरों ने शाह शुजा को उसके तीस वर्षों के निर्वासन के भीतर किसी प्रकार का कर देना बंद कर दिया था । यही नहीं, १८३३ ई॰ में शाह शुजा ने उन्हें सभी दावों से लिखित रूप में बरी कर दिया था ।

लेकिन उन्हें इस आशय की चेतावनी दी गयी कि “यदि यह अंग्रेजी भारतीय साम्राज्य या सीमा की सुरक्षा और पूर्णता के लिए दूर से भी आवश्यक जान पड़ा, तो न तो उन्हें पीसकर मिटा डालने की प्रस्तुत शक्ति की ही कमी थी और न कार्यान्वित की जानेवाली वैसी इच्छा का ही अभाव था” ।

अमीरों के सामने कोई चारा न रहा । उन्हें गवर्नर-जनरल के बलपूर्वक कर-ग्रहण के सामने घुटने टेक देने पड़े । और भी, सर जौन कीन ने सिंध की राजधानी (हैदराबाद) पर ससैन्य चढ़ आने की धमकी दी; इससे अमीरों को बाधित होकर फरवरी, १८३९ ई॰ में लार्ड आकलैंड को नयी शर्तों को मान लेना पड़ा ।

इस नयी संधि के अनुसार उन्हें अपने राज्यों में एक ब्रिटिश सेना रखने के लिए तीन लाख रुपये वार्षिक देना पड़ा तथा सिंध “विधिवत् अंग्रंजी संरक्षण के अधीन रख दिया” । यह संधि लार्ड आकलैंड और उसके सलाहकारों द्वारा उनके अपने ढंग से पुन: संशोधित हुई तथा अमीरों के पास अंतिम हस्ताक्षर के लिए फिर भेज दी गयी । अमीरों ने “प्रतिवाद किया, सविनय प्रार्थना की तथा अंत में, संशोधित कागजों पर अपनी मुहरें लगाकर, घुटने टेक दिये” ।

किन्तु सिंध के भाग्य में अधिक खराबी बदी थी । लार्ड आकलैंड ने उसे डराया- धमकाया था तथा उसके साथ जबर्दस्ती की थी । लेकिन उसका उत्तराधिकारी और भी आगे बढ़ा तथा केवल ताकत के जोर से उसपर ब्रिटिश सत्ता का जुआ डाल दिया ।

अनर्थपूर्ण अफगान युद्ध के संकट के वर्षों में यह प्रांत ब्रिटिश सरकार द्वारा लड़ाई के मूल स्थान के रूप में प्रयुक्त हुआ था । इसके अमीर अंग्रेजों से की गयी अपनी संधियों के प्रति अविचलित रूप से वफादार रहे थे । लेकिन उनकी अनुरक्ति के लिए उन्हें उचित रूप में पुरस्कृत करना तो दूर रहा, लार्ड एलेनबरा उनपर यह अनुचित अभियोग लाया कि वे ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध मनमुटाव और शत्रुता रखते हैं ।

नये गवर्नर-जनरल के ऐसा करने का कारण यह था कि वह गिर ले लेने के अपने मनसूबे को कार्यान्वित करने के लिए कोई सुविधाजनक बहाना ढूढ रहा था । अपना काम आसान बनाने के लिए उसने हैदराबाद के रेजिडेंट मेजर जेम्स आउट्रम को, जिसे स्थानीय मामलों का कुछ अनुभव था, हटा दिया तथा सर चार्ल्स नेपियर को पूर्ण असैनिक और सैनिक शक्तियाँ दे कर गवर्नर-जनरल के प्रतिनिधि के रूप में सिंध भेजा ।

वह १० सितम्बर, १८४२ ई॰ को सिंध पहुंचा । सर चार्ल्स नेपियर उतावला और आवेगशील अफसर था । उसने “इस सिद्धान” पर काम किया “कि सिंध को ले लेना दुष्टता का एक अत्यंत अच्छा काम होगा, जिस के लिये कोई बहाना ढूंढना उसका काम था-यह एक डाका था जिसे युक्तिसंगत ढंग से करना था” ।

उसने यह मान लिया कि अमीरों के विरुद्ध लगाये गये अस्पष्ट दोष सिद्ध हो चुके थे । उसने खैरपुर के उत्तराधिकार-सम्बन्धी झगड़े में स्वेच्छाचारिता के साथ हस्तक्षेप किया । उसने एक नयी संधि लिखवायी ।

इसके अनुसार अमीरों को तीन लाख कर के बदले में कुछ महत्वपूर्ण इलाके सौंपने पड़े सिंधु से गुजरनेवाले ब्रिटिश जहाजों को ईंधन देना पड़ा तथा ब्रिटिश सरकार के पक्ष में सिक्का ढालने के अधिकार को छोड़ देना पड़ा । वह केवल इन माँगों के साथ ही नहीं रुका, हालाँकि इनके फलस्वरूप अमीर राष्ट्रीय स्वतंत्रता पूर्णतया समर्पित कर चुके थे ।

वह इस प्रकार काम करने लगा, मानो सिंध पहले ही ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन चुका था और “मानो ब्रिटिश भारत के गवर्नर-जनरल का इसे स्वेच्छानुसार बाँटने का अधिकार असंदिग्ध एवं निर्विवाद था; तथा, और भी, मानो इस अधिकार का उपयोग इस ढंग से किया जाना इच्छित था जिससे यह उन्हें यथासंभव अधिक-से-अधिक रुष्टकारी हो, जिन्हें इस उपयोग से कष्ट भोगना है” ।

इस प्रकार अमीरों के नयी संधि स्वीकार करने के पहले ही उसने उक्त इलाकों पर कब्जा कर लिया तथा जोरदार भाषा में घोषणा-पत्र निकाले । और भी, संधियों की चर्चा करते समय उसने अमीरों को डराने-धमकाने की चेष्टा भी की । एतदर्थ वह बिना विधिवत् युद्ध की घोषणा किये खैरपुर और हैदराबाद के बीच स्थित प्रसिद्ध रेगिस्तानी दुर्ग इमामगढ़ पर ससैन्य चढ़ दौड़ा तथा उसे जनवरी, १८४३ ई॰ के प्रारंभ में नष्ट कर डाला ।

नेपियर के इन अत्याचारपूर्ण कारनामों ने युद्धप्रिय बलूचियों के धैर्य की कष्टकर रूप में परीक्षा कर डाली । उत्तेजना की हालत में उन्होंने १५ फरवरी, १८४३ ई॰ को ब्रिटिश रेजिडेंसी पर हमला कर दिया । इस पर आउट्रम, जो ब्रिटिश कमिश्नर बनकर सिंध लौट आया था, एक जहाज पर शरण लेने के लिए भाग गया ।

इस प्रकार युद्ध अब खुल्लमखुल्ला घोषित हो गया । करीब बाईस हजार आदमियों की एक बलूची सेना १७ फरवरी को हैदराबाद से कुछ मील दूर मियानी में नेपियर द्वारा हरा दी गयी, जो अठाईस सौ आदमियों और बारह बंदूकों से लड़ रहा था । इसके बाद तुरत ही कुछ अमीरों ने अधीनता मान ली ।

लेकिन “शेर-मीरपुर” शेर मुहम्मद अभी भी वीरतापूर्वक प्रतिरोध करता रहा । अंत में वह २४ मार्च को हैदराबाद से छ: मील दूर दाबों में पूर्णतया पराजित हुआ । फलस्वरूप नेपियर ने २७ मार्च को मीरपुर पर और ४ अप्रैल को अमरकोट पर अधिकार कर लिया तथा लार्ड एलेनबरा के पास एक श्लेषात्मक संदेश में अपनी विजय का समाचार भेजा ।

वह संदेशवाहक शब्द एक लैटिन वाक्य था-“पेकेविं” (“Peccavi”) जिसका अंग्रेजी में अर्थ हो ता है-“आइ हैव सिंड” (‘मैने पाप किया है’ मूल अर्थ है; ‘मैने सिंध जीता है । नेपियर का तात्पर्य था)’ शेर मुहम्मद जून में सिंध के बाहर भगा दिया गया तथा युद्ध की समाप्ति हो गयी ।

सिंध विधिवत् अगस्त, १८४३ ई॰ में ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया । अमीर निर्वासित कर दिये गये । नेपियर ने बिना किसी हिचक के छीनी हुई संपत्ति में अपने हिस्से के रूप में सत्तर हजार पौड स्वीकार कर लिया । आउट्रम ने, अपेक्षाकृत अल्प साधनो का व्यक्ति होने के बावजूद, अपना हिस्सा नहीं लिया, जो तीन हजार पौंड होता था ।

उसने यह रकम कुछ दातव्य संस्थाओं को दे दी । वस्तुत: आउट्रम नेपियर की नीति को पसंद नहीं करता था । उसने उसे लिखा- “मैं नीति से हैरान हूँ । मैं यह नहीं कहूँगा कि आपकी नीति सर्वश्रेष्ठ है, किन्तु निस्संदेह यह लघुतम (सबसे शीघ्र समाप्त होनेवाली) हैं-तलवार की नीति । ओह, क्या ही अच्छा होता यदि आप इसे (=तलवार को) श्रेष्ठतर कार्य के लिए चलाते ।”

सिंध के सम्बन्ध में लार्ड एलेनबरा की नीति और सर चार्ल्स नेपियर के अत्याचारपूर्ण कारनामों की अधिकांश लेखकों ने निंदा की है, जो उचित ही है । इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने शुद्ध साम्राज्यवादी उद्देश्यों से प्रेरित होकर काम किया । अमीरों ने अंग्रेजों का कुछ नहीं बिगाड़ा था । किन्तु अंग्रेजों ने संधि की शर्तों का रूखे ढंग से उल्लंघन किया ।

ऐसा करके उन्होंने अमीरों को दासता की हालत में लाने के लिए अत्यंत आपत्तिजनक साधनों का सहारा लिया । इस कहता है कि “यदि हमारे इतिहास में अफगानोवाली घटना सब से अनर्थपूर्ण है, तो सिंधवाली घटना नैतिक रूप में और भी कम क्षंतव्य है” । नेपियर ने अनेक परिश्रमपूर्ण दलीलों से उस नीति का बचाव करने की कोशिश की है । ये दलीलें नितांत तर्कहीन और अनैतिहासिक हैं ।

फिर भी उसने अपनी डायरी में स्वीकार किया है- “हमें सिंध लेने का कोई अधिकार नहीं है । फिर भी हम उसे लेकर रहेंगे । और यह पाजीपन का एक बहुत लाभपूर्ण, उपयोगी एवं दयापूर्ण काम होगा” ।

अचरज की बात तो यह है कि कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने सिंध क ब्रिटिश सासाज्य में मिलाये जाने की नीति की निंदा तो की, मगर उस गलत। के रह करने के लिए कुछ नहीं किया । नेपियर सिंध का पहला गवर्नर बनाया गया । वह चार वर्षों तक वहाँ शासन करता रहा । इस अवधि में उसने उस प्रांत में ब्रिटिश दबदबा ठोस बनाने की कड़ी कोशिश की ।