Read this article in Hindi to learn about:- 1. दुर्रानी संकट तथा ब्रिटिश उत्तर-पश्चिम सीमा-नीति (Durrani Crisis and the British North-West Boundary-Policy) 2. जमाँ शाह के बाद अफगानिस्तान में दीर्घकालीन अशांति (Long Term Unrest in Afghanistan after Deposit Shah) 3. मुहम्मद (Mohammad) 4. प्रथम अंग्रेज-अफगान युद्ध : पहली अवस्था (First British-Afghan War: First Stage) and Other Details.
Contents:
- दुर्रानी संकट तथा ब्रिटिश उत्तर-पश्चिम सीमा-नीति (Durrani Crisis and the British North-West Boundary-Policy)
- जमाँ शाह के बाद अफगानिस्तान में दीर्घकालीन अशांति (Long Term Unrest in Afghanistan after Deposit Shah)
- मुहम्मद (Mohammad)
- प्रथम अंग्रेज-अफगान युद्ध : पहली अवस्था (First British-Afghan War: First Stage)
- प्रथम अंग्रेज-अफगान-युद्ध : दूसरी अवस्था (First British-Afghan War: Second Stage)
1. दुर्रानी संकट तथा ब्रिटिश उत्तर-पश्चिम सीमा-नीति (Durrani Crisis and the British North-West Boundary-Policy):
१७५७ ई॰ से, अथवा, अधिक निश्चित रूप सै सन् १७६५ ई॰ से-जब, बक्सर (२२ अक्टूबर, १७६४ ई॰) में अंग्रेजी विजय के बाद, बिहार की उत्तर पश्चिम सीमा पर स्थित अवध की प्रतिरक्षा बंगाल में अंग्रेजों के लिए घोर आवश्यकता और दृढ़ नीति की बात हो गयी थी-अठारहवीं सदी के अंत तक दुर्रानी आक्रमण का भय बराबर भारत में ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के मस्तिष्कों को तंग करता रहा ।
ADVERTISEMENTS:
कलकत्ते की कम्पनी-सरकार अवध पर और पीछे बंगाल पर प्रबल अफगान आक्रमण की आशंका करती रहती थी । सच पूछिए तो, जैसा १७६१ ई॰ के मराठा-अफगान-संघर्ष के साथ हुआ था, अफगानों और अंग्रेजों के बीच टक्कर होना करीब-करीब स्वाभाविक था ।
कारण यह था कि अफगान हिन्दुस्तान में मुगल साम्राज्य विनष्ट होने पर राजनीतिक प्रभुता स्थापित करने का उद्देश्य रखते थे तथा अंग्रेज भी इसी के लिए चेष्टा कर रहे थे । अंग्रेजों के लिए यह सौभाग्य की बात थी कि अहमद शाह अब्दाली (१७४७-१७७३ ई॰), पानीपत की अपनी विजय के बाद, घरेलू झंझटों के कारण अधिक पूर्व नहीं बढ़ सका । जून, १७७३ ई॰ में उसकी मृत्यु हो गयी । इसके बाद दुर्रानियों के बुरे दिन आ गये ।
अहमद शाह अब्दाली का उत्तराधिकारी उसका पुत्र तैमूर शाह (१७७३-१७९३ ई॰) हुआ । वह कमजोर और आलसी था । अपने पूर्वाधिकारी की शक्तिपूर्ण नीति का अनुसरण करने में वह असमर्थ निकला । किन्तु तैमूर का पाँचवाँ पुत्र और उत्तराधिकारी जमाँ शाह (१७९३-१८०० ई॰) एक योग्य और महत्वाकांक्षी शासक था । मई, १७९३ ई॰ में वह काबुल की गद्दी पर बैठा ।
पहले तो उसने स्वदेश में अव्यवस्था की शक्तियों का दमन किया । इसके बाद वह १७९८ ई॰ में लाहौर तक बढ़ आया । वह, नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली के समान, हिन्दुस्तान के भीतरी भाग पर आक्रमण करने का स्वप्न देखा करता था ।
ADVERTISEMENTS:
जमाँ शाह के कुछ समकालीनों ने उसकी परियोजना को “बहुत हलकापन के साथ” लिया । अधिकतर आधुनिक लेखकों ने बतलाया है कि परिवर्तित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण इसका उस समय कार्यान्वित होना असम्भव था ।
फिर भी, बंगाल की कम्पनी-सरकार “काबुल से आक्रमण होने के विचार को केवल काल्पनिक खतरा” नहीं समझ सकी । जमाँ शाह को टीपू सुलतान, वजीर अली और नासिरुलमुल्क से निमंत्रण भी मिले । वजीर अली उस समय कम्पनी के विरुद्ध एक षड्यंत्र का संगठन करने की चेष्टा कर रहा था । नासिरुलमुल्क बंगाल का असंतुष्ट नवाब था ।
सच पूछा जाये तो हिन्दुस्तान पर जमाँ शाह द्वारा होनेवाले आक्रमण के आतंक ने सर जौन शोर और लार्ड वेलेस्ली के प्रशासन-कालों में “ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य को बहुत समय तक वैचैनी की हालत में रखा” ।
बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रेसिडेंट डुंडास को “उसके (जमाँ शाह के) शत्रुतापूर्ण मनसूबों” में पक्का “विश्वास” था । उसने लार्ड वेलेंस्ली को आदेश दिया कि उस राजा की “गति-विधि पर अत्यंत सतर्क नजर रखी जाये, क्योंकि उसकी प्रतिभा, सैनिक शक्ति और आर्थिक सम्पन्नता उसे एक भयंकर विरोधी होने का साधन प्रदान करती है ।”
ADVERTISEMENTS:
गवर्नर-जनरल अवध में सर जे. क्रेग के अधीन एक बड़ी ब्रिटिश सेना रखना था इसका उदेश्य था उस राज्य की संभावित अफगान आक्रमण से रक्षा करना । उसने १८९९ ई॰ में दो दूत-मंडल फारस भेजे जिसके अफगानिस्तान के साथ सम्बन्ध उस समय मनोमालिन्यपूर्ण थे तथा अपने इस काम द्वारा संभावित अफगान आक्रमण रोकने का दावा पहला दूत-मंडल मेहदी अली खाँ का था ।
वह फारसी नागरिकता के अधिकार से संपन्न था तथा उस समय बूशायर में कम्पनी के रेजिडेंट का काम कर रहा था । दूसरा दूत-मंडल कैप्टेन जौन मैलकौम का था । फारसी मित्रता फ्रांस के एशियाई मनसूबों का प्रतिकार करने के उद्देश्य से भी अंग्रेजों के लिए आवश्यक थी ।
दोनों दृष्टियों से बेलेस्ली के दूत-मंडल सफल सिद्ध हुए । फारसी दबाव ने जमाँ शाह को लाहौर से पेशावर लौट जाने को लाचार कर दिया । जिससे अंग्रेजों को बहुत चैन मिला । स्वदेश के विद्रोहों से वह हैरान हो उठा । ये विद्रोह मुख्यत: दो दलों के बीच कलह होने के कारण होते थे ।
एक दल सदोजाइयों का था, जो शाही खानदान के सदस्य थे । दूसरा दल बरकजाइयों का था, जो पयेदा खाँ और उसके ज्येष्ठ पुत्र फतह खाँ के अधीन थे । फलत: जमाँ शाह अंत में सिंहासनच्युत हुआ तथा अंधा कर दिया गया । वह बुखारा भाग गया । वहाँ से वह हिरात भागा तथा अंत: में भागकर भारत पहुँचा ।
यहाँ लुधियाना में वह दयनीय परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार का पेंशनर (पेंशन-भोगी) बनकर बहुत वर्षों तक जीवित रहा । जो ब्रिटिश सरकार एक समय उसके आक्रमण की आशंका से इतनी अधिक व्याकुल थी, उसी के यहाँ उसे पेंशन स्वीकार करनी पड़ी !
2. जमाँ शाह के बाद अफगानिस्तान में दीर्घकालीन अशांति (Long Term Unrest in Afghanistan after Deposit Shah):
जमाँ शाह के हटाये जाने के बाद अफगानिस्तान के राज्य में लम्बी अशांति और अव्यवस्था का युग आया । उसका उत्तराधिकारी उसका भाई महमूद शाह (१८००-१८०३ ई॰ १८०९-१८१८ ई॰) था । वह बरकजाई सरदार फतह खाँ के हाथों में कठपुतली बन गया । उसने काबुल में अव्यवस्था का दमन करने में अपने को पूर्णतया अयोग्य सिद्ध किया ।
१८०३ ई॰ में अहमद शाह दुर्रानी के अन्य पोते शुजा मिर्जा (शाह शुजा) ने काबुल की गद्दी हथिया ली । लेकिन शाह राजा (१८०३-१८०९ ई॰, १८३९-१८४२ ई॰) भी क्षमतापूर्ण शासन स्थापित करने में अयोग्य सिद्ध हुआ । “उसके साधन सीमित थे तथा उसके गुण इतने अधिक निषेधात्मक प्रकृति के थे कि वे उसे ऐसे गतिशील समय की माँगों के अनुरूप नहीं बनाते थे । उसे विचार की जरूरत थी, तथा, सब के ऊपर, उसे रुपये की जरूरत थी ।”
सन् १८०९ ई॰ के बीच तक वह बरकजाइयों के द्वारा पराजित हुआ, जो महमूद शाह के पक्षपाती थे । इस प्रकार महमूद शाह फिर अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठा । प्रारम्भ में शाह शुजा ने “अपने भग्न भाग्य को नुकीला बनाने” के कुछ असफल प्रयत्न किये । इसके बाद वह १८१६ ई॰ में लुधियाना पहुँचा । यहाँ वह, अपने भाई जमाँ शाह के समान, ब्रिटिश संरक्षण में रहने लगा ।
महमूद शाह बरकजाइयों के हाथों में एक औजार-मात्र था । इससे वह धीरे-धीरे उनके नियंत्रण से अधीर हो उठा । उसने १८१८ ई॰ में उनके नेता फतह खाँ को घोर निर्ममता के साथ मरवा डाला ।
इससे बरकजाई क्रुद्ध हो उठे । कुछ वर्षों के भीतर वे समूचे अफगानिस्तान देश को अपने नियंत्रण में ले आये । केवल हिरात उनके कब्जे से अलग रहा । यहाँ महमूद शाह और उसके पुत्र कामरान ने शरण पायी तथा फारस की अधीनता स्वीकार कर ली । महमूद १८२९ ई॰ में मर गया । उसके बाद भी हिरात पर कामरान का अधिकार कायम रहा ।
3. मुहम्मद (Mohammad):
दोस्त मुहम्मद बरकजाई दल का एक योग्य सदस्य था । उसने १८२६ ई॰ में अपने को काबुल का बादशाह बना लिया । सभी आवश्यक औपचारिकताओं के साथ वह अमीर घोषित हुआ । दोस्त मुहम्मद (१०२६-१०३९ ई॰ १८४२-१८६३ ई॰) अपने समकालीनों की अपेक्षा अधिक साहसी और क्रियाशील था ।
शाह शुजा ने १८३३ ई॰ में रणजीत के समर्थन से पुन: काबुल प्राप्त करने का प्रयत्न किया, जिसे दोस्त मुहम्मद ने विफल कर दिया । लेकिन करीब इसी समय सिखों ने दोस्त मुहम्मद के भाई सुलतान मुहम्मद खाँ से समर्थन प्राप्त करने के कारण पेशावर पर कब्जा कर लिया ।
वस्तुत: दोस्त मुहम्मद की स्थिति चारों ओर से खतरों से घिरी हुई थी । “उत्तर में बल्ख में विद्रोह हो रहे थे । दक्षिण में उसका एक भाई कंधार में उसका प्रतिरोध कर रहा था । पूर्व में रणजीत सिंह पेशावर में उसे हैरान कर रहे थे तथा उन्हें शाह शुजा और ब्रिटिश सरकार से गुप्त रूप में सहायता मिल रही थीं । पश्चिम में महमूद शाह और कामरान हिरात में थे फारस पीछे से षड्यंत्र कर रहा था तथा रूस कुछ दूरी पर घात में बैठा था ।”
इन सब बातों ने स्वभावत: दोस्त मुहम्मद को अंग्रेजों से मित्रता के लिए इच्छुक छ: बना दिया । इस प्रकार लार्ड आकलैड (१८३६-१८४२ ई॰) के भारत के गवर्नर-जनरल के रूप में मार्च, १८३६ ई० में पहुंचने पर, दोस्त मुहम्मद ने उसे मई महीने में एक बधाई का पत्र भेजा तथा सिखों और फारस के विरुद्ध ब्रिटिश सहायता चाही ।
किन्तु गवर्नर-जनरल ने घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार दूसरे राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करने में अनिच्छुक है । ब्रिटिश सरकार पर कूटनीतिक दवाब डालने के उद्देश्य से अफगानिस्तान का अमीर फारस और रूस से संधि के प्रस्ताव करने लगा ।
अठारहवीं सदी के मध्य से ही यूरोपीय राजनीति एशिया के इतिहास पर गहरा प्रभाव डाल रही थी । इस समय भी वही बात हुई । उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों से ही रूस पूर्व में विस्तार के मनसूबों से चालित हो रहा था । एतदर्थ उसने फारस से १८१३ ई॰ में गुलिस्ताँ की संधि की ।
कुछ समय के लिए इंगलैंड फारस को उसकी रूस से मित्रता से अलग करने में सफल हो गया । उसने फारस से २५ नवम्बर, १८१४ ई॰ को तेहरान की संधि की । इसके अनुसार “फारस तथा ग्रेट ब्रिटेन से शत्रुता रखनेवाले यूरोपीय राष्ट्रों के बीच हुई सभी संधियाँ रह कर दी गयीं तथा वैसी सभी यूरोपीय सेनाओं को, जो ग्रेट ब्रिटेन के विरुद्ध थीं, फारस में प्रवेश करने की मनाही हो गयी” ।
फारस का शाह अब्बास मिर्जा १८३३ ई॰ की शरद् ऋतु में मर गया । उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र मुहम्मद मिर्जा हुआ । कुछ ही वर्षों के भीतर फारस का नया शाह रूस का मित्र बन बैठा । अब फारसी दरबार में रूसी प्रभाव प्रबल हो उठा । रूस ने “फारस को स्वार्थ-साधन के लिए एक औजार (“a cat’s-Paw”) बनाया” ।
उसने शाह को हिरात पर घेरा डालने को उकसाया, जो ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के हितों की दृष्टि से सामरिक महत्व का स्थान था । सर टी. एच. हील्डिच लिखता है: “एशिया में बेर्हारग के मुहाने से लेकर कास्पियन सागर तक पहाड़ों की एक लगातार और भयंकर दीवार आरपार जाती है । हिरात के ही नजदीक इस दीवार में एकमात्र छेद है । हिरात के नजदीक, बिना किसी भयकर ऊँचाई का सामना किये हुए, रूसी चौकियों से….भारत चला जाना सम्भव है-और यह अन्यत्र कहीं भी सम्भव नहीं है ।”
नवम्बर, १८३७ ई॰ में फारस के शाह ने हिरात पर घेरा डाल दिया । अफगानों ने वीरतापूर्वक प्रतिरक्षा की । एक नौजवान ब्रिटिश अफसर एल्ड्रेड पौटिंगर के साहसपूर्ण प्रयत्नों से भी उन्हें सहायता मिली, जो उस समय अफगानिस्तान में यात्रा कर रहा था । फलत: हिरात पर फारसी प्रयत्न निष्फल हो गया । सितम्बर, १८३० ई॰ में फारस के शाह ने हिरात का घेरा उठा लिया । फिर भी, इससे एशिया में रूसी महत्त्वाकांक्षाओं के संबंध में सर्वदा वर्धनशील ब्रिटिश चिंता और भी गहरी हो चली ।
4. प्रथम अंग्रेज-अफगान युद्ध : पहली अवस्था (First British-Afghan War: First Stage):
(अ) युद्ध के कारण तथा आकलैंड की नीति की आलोचना:
रूस के लिए निस्संदेह यह कठिन होता कि वह दूर मास्को से अपनी एशियाई महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करें तथा अफगानिस्तान के भयंकर पठार को पार कर और तब पंजाब की प्रशिक्षित सेना को पराजित कर, जिसका शासक अंग्रेजों का मित्र था, ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की सीमा पर चढ़ दौड़े ।
तो भी, रूस की गतियों ने ब्रिटिश राजनीतिज्ञों को चिंता में डाल दिया । इन्होंने सिंध के अमीरों के प्रति लार्ड विलियम बेंटिंक की नीति को बहुत प्रभावित किया । इन गतियों ने लार्ड आकलैंड के मस्तिष्क में बहुत बेचैनी पैदा कर दी । ऐसा खासकर उस समय हुआ जब अफगानिस्तान का अमीर अंग्रेजों से, सिखों के विरुद्ध सहायता की उनकी अस्वीकृति के कारण, चिढ़कर फारस और रूस से संधि की बातचीत करने लगा ।
इस “रूस के प्रति विषम विद्वेष” ने इंगलैड में लार्ड मेलबोर्न के लिंग मंत्रिमंडल को भी गहराई के साथ आदोलित किया । दिलेर वैदेशिक सचिव लार्ड पामर्स्टन को रूसी मनसूबों में भारतीय साम्राज्य की “सुरक्षा और स्थिरता के लिए तात्कालिक खतरा” दीख पड़ा । उसने भारत सरकार पर अंकुश चुभोया कि वह उन मनसूबों को विफल करने के लिए प्रभावशाली कारवाइयाँ करें ।
२५ जून, १८३६ ई॰ को संचालक-मंडल (कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स) की गुप्त समिति ने गवर्नर-जनरल को लिखा: “अफगानिस्तान में घटनाओं की प्रगति पर अब तक जितनी निगरानी बरती गयी है उससे अधिक गहरी निगरानी रखनी है । यदि रूसी प्रभाव एक ऐसी दिशा में, जो हमारे भारतीय राज्य के समीप है, एक बार भी स्थापित हो गया, तो वह हमारी संधि-प्रणाली को हानि पहुँचाने तथा संभवत: हमारे अपने राज्य की स्थिरता तक में हस्तक्षेप करने में न चूकेगा; अत: इस दिशा में रूसी प्रभाव की प्रगति का प्रतिकार करना है ।
इन दोनों उद्देश्यों की सिद्धि के लिए कौन-कौन उपाय करना उचित और वांछनीय है, इसका आप निर्णय कीजिए । इस अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या के समाधान का क्या तरीका होगा, यह हम आपके विवेक पर छोड़ देते है: आप चाहें तो काबुल के दोस्त मुहम्मद के पास एक विश्वस्त अभिकर्ता (एजेंट) शीघ्रता के साथ भेज सकते है ।
उसका काम घटनाओं की प्रगति को देखना भर हो सकता है । अथवा उसका काम इस सरदार से सम्बन्ध स्थापित करना हो सकता है । यह राजनीतिक कोटि का हो सकता है या प्रारम्भ में केवल व्यापारिक कोटि का रह सकता है । सीमा पर के अपने अभिकर्ताओं से अथवा इसके बाद फारस पहुँचने पर मिस्टर मैकनील से आपको खबरें मिलती रहेंगी ।
यदि आप इन खबरों से संतुष्ट हो जाएँ कि वह समय आ गया है जब आपके लिए अफगानिस्तान के मामलों में निश्चित रूप से हस्तक्षेप करना उचित होगा, तो उस दिशा में रूसी बढ़ावों का प्रतिकार करने के लिए आपको जो अन्य उपाय वांछनीय जँचे उनका अपनाया जाना भी हम आपके ही विवेक पर छोड़े दे रहे हैं । या तो उस दिशा में फारसी आधिपत्य के विस्तार को रोकने के लिए या रूसी प्रभाव के होनेवाले अनाधिकार प्रवेश के विरुद्ध समयोपयोगी बाधा खड़ी करने के लिए इस प्रकार का हस्तक्षेप निस्संदेह आवश्यक होगा ।”
इस सरकारी पत्र के बल पर गवर्नर-जनरल ने नवम्बर, १८३६ ई॰ में अलेक्जेंडर बर्न्स को बम्बई से काबुल भेजा । ऊपरी तौर पर यह व्यापारिक दूतमंडल के रूप में था, किन्तु वारतव में, जैसा बर्न्स स्वयं कहता है, वह “मामलों की तह तक देखने तथा इसके बाद क्या किया जाना था इसका निर्णय करने के लिए” भेजा गया था । बर्न्स २० सितम्बर, १८३७ ई॰ को काबुल पहुँचा ।
दोस्त मुहम्मद स्पष्टत: रूसियों की मित्रता की अपेक्षा अंग्रेजों की मित्रता को अधिक अच्छा समझता था । उसने ब्रिटिश संधि प्रस्तावों को स्वीकार करने की अपनी इच्छा जतलायी, बशर्ते ब्रिटिश सरकार उसे पेशावर लौटाने के लिए रणजीत सिंह पर दबाव डालना कबूल कर ले । बर्न्स ने भी अमीर से संधि करने की सिफारिश की ।
लेकिन लार्ड आकलैंड और उसके दोनों सचिवों-विलियम मैकनाटन एवं जौन कोलविन ने उसके सुझाव पर कान न दिया । इस प्रकार अंग्रेज-अफगान-संधि की आशा विनष्ट हो गयी तथा बर्न्स का दौत्य-कर्म विफल हो गया । अतएव उसने २६ अप्रैल, १८३८ ई॰ को काबुल छोड़ दिया ।
अमीर ब्रिटिश मित्रता प्राप्त करने में निराश हो गया । तब स्वभावत: उसने फारसी-रूसी संधि चाही । इसके पहले रूसी दूत विकतेविच के साथ “नीच और निरुत्साहकर तरीके” से बर्ताव किया गया था । किन्तु अब वह अमीर द्वारा बहुत अनुग्रह के साथ समादृत हुआ ।
बिलकुल हाल में दोस्त मुहम्मद ने सिखों से पेशावर पुन: प्राप्त करने में ब्रिटिश सहायता की याचना की थी । उस समय लाई आकलैंड ने दूसरे राज्यों के मामलों में अहस्तक्षेप के सिद्धांत की दलील दी थी । लेकिन रणजीत सिंह की सहायता से दोस्त मुहम्मद के अपदस्त करने तथा निर्वासित शाह शुजा के काबुल की गद्दी पर पुन: स्थापित करने के निमित्त करिवाइयाँ करने में अब उसी को सिद्धांत-संबंधी कोई हिचक नहीं हुई ।
इस संकल्प को फलवान् बनाने के लिए उसने सरकारें के सचिव मैकनाटन को लाहौर भेजा । २६ जून १८३८ ई॰ को शाह शुजा, रणजीत सिंह और अंग्रेजों के बीच एक त्रिगुट-संधि हो गयी । अंग्रेजों का अफगानिस्तान से युद्ध होना इस कार्रवाई का स्वाभाविक परिणाम था १ अक्टूबर, १८३८ ई॰ को गर्वनर-जनरल ने शिमला से एक नीति-सम्बन्धी घोषणा-पत्र निकाला ।
यह अभिप्रेत युद्ध के सरकारी सर्मथन के तौर पर निकाला गया था । इसमें जैसा कि हर्बर्ट एडवर्ड स लिखता है, “दोस्त मुहम्मद के विचारों और व्यवहार का इतनी घृष्टता के साथ गलत रूप में वर्णन किया गया था, जो एक रूसी राजनीतिज्ञ के लिए भी ईर्ष्या की वस्तु थी” ।
शिमला घोषणा-पत्र मैं “झूठी बातों के ढेर लगा दिये गये” । गवर्नर-जनरल ने दोस्त मुहम्मद के “हमारे पुराने मित्र पर अकारण आक्रमण” के संबंध में जो मंतव्य प्रकट किया था, उसकी उचित तुलना ट्रौटर ने उस “सचाई” के साथ की है, जो “कहानी में भेड़ के बच्चे के विरुद्ध भेड़िये द्वारा की गयी शिकायत” में थी ।
लार्ड आकलैंड की नीति सभी दृष्टियों से समर्थन के अयोग्य है । अफगानिस्तान के स्वतंत्र शासक की हैसियत से दोस्त मुहम्मद को इसका प्रत्येक अधिकार था कि वह अपनी ओर फारसी रूसी संधि की सहायता प्राप्त करें, भले ही यह ब्रिटिश हितों के लिए हानिकारक हो ।
यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि दोस्त मुहम्मद ने ब्रिटिश मित्रता प्राप्त करने के प्रयत्न किये थे तथा अपने इन प्रयत्नों की विफलता के बाद ही उसने फारसी-रूसी संधि स्वीकार करने का निर्णय किया था । के उचित ही कहता है कि “हम लोग स्वयं ही बरकझाई सरदारों की मित्रता से विमुख हुए थे । उन्होंने अपने भाग्य को फारसी शाह की दया पर छोड़ दिया, केवल इसलिए कि हम लोगों ने उन्हें दूर ढकेल दिया था ।”
और भी, सितम्बर, १८३८ ई॰ में फारसियों के हिरात से हट जाने के बाद ब्रिटिश हितों के लिए खतरे के रूप में फारसी-रूसी आक्रमण का लचर बहाना बिलकुल कमजोर पड़ गया । इससे “लार्ड आकलैंड द्वारा पेश किये गये समर्थन के सभी कारण हवा हो गये तथा सिंधु के पार का आक्रमण तुरत मूर्खता और अपराध में परिणत हो गया” ।
राजनीतिक दृष्टि से विचार करने पर गवर्नर-जनरल की नीति विवेचना-शून्य और अनुचित थी । दोस्त मुहम्मद, जिसे वह अपदस्थ करना चाहता था, योग्य शासक था । उसका वश में न आनेवाले अफगान कबीलों पर यथेष्ट नियंत्रण था ।
इसके विपरीत, गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत व्यक्ति शाह शुजा को, कुछ योग्यता होने पर भी, अब तक केवल असफलता ही हाथ लगी थी तथा उसके अफगानिस्तान के मुसलमानों के बीच प्रिय बनने की आशा न थी, क्योंकि वह अफगानों के पुराने शत्रु सिखों ओर ईसाई ब्रिटिश शक्ति की सहायता से पुन: गद्दी पर बैठाया जाता ।
शाह ऐसा आदमी था, “जिसे अफगानिस्तान के लोगों ने बार-बार, जोरदार एवं धर्मग्रंथ पर अवलंबित भाषा में, जबर्दस्ती बाहर निकाल दिया था तथा उसके बदले में इन बरकज़ाई सरदारों को रखा था, जिन्होंने चाहे उनकी सरकार में जो भी त्रुटियाँ रही हों, ऐसी शक्ति और एकनिष्ठा के साथ अपने को सुरक्षा में एवं अपने देश को शांति में रखने का प्रबंध कर लिया था, जो अभागे सुद्दोझाई शाहों को अज्ञात थी ।”
संक्षेप में, जैसा कि के ने बतलाया है, अफगान युद्ध “राजनीतिक और दैनिक उपयो- गिता के प्रत्येक विचार की अवहेलना कर” चलाया गया था; “तथा ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने, केवल उपयोगिता से भी ऊपर उठकर दलील करते हुए, इसकी निश्चित असफलता की घोषणा कर दी थी, क्योंकि इसके भीतरी भाग में अन्याय का कीड़ा था । यह वस्तुत: ईश्वर और मनुष्य दोनों के धैर्य पर समान रूप से प्रयोग था और इसलिए यदि इसक प्रारम्भ सफलता एवं विजय से भी होता, तो भी इसका अंत अवश्य ही असफलता और अपमान में होता ।”
लार्ड आकलैंड की नीति के अनेक समकालीन आलोचकों में डयूक ऑफ वेलिंगटन भी था । उसने मिस्टर टकर को लिखा कि “यदि एक बार अफगानिस्तान में सरकार निश्चित करने के लिए सिंधु को पार किया जाएगा, तो इसके परिणामस्वरूप बराबर हमारी सेना उस देश में जाती रहेगी” । उसका कथन भविष्यसूचक था ।
(आ) युद्ध की घटनाएँ:
लार्ड आकलैंड ने इन बातों की परवाह नहीं की । वह अपने खानगी परामर्शदाताओं-जौन कौल्विन और डब्ल्यू. एच. मैकनाटन-द्वारा अधिक प्रभावित हुआ । आदेश जारी कर डाले कि “सिंधु की सेना” दोस्त मुहम्मद के राज्य पर आक्रमण करने के लिए एकत्र हो । रणजीत सिंह को अपने राज्य होकर ब्रिटिश सैनिकों के जाने देने में उज था ।
इस कारण तथा कुछ दूसरे कारणों से ऐ सा प्रबंध किया गया कि सर जौन कीन और सर विलोबी कौट्न के अधीन मुख्य ब्रिटिश सेना शाह शुजा के साथ फीरोजपुर से चलेगी तथा रास्ते में बहावलपुर, सिंध, बलूचिस्तान तथा बोलन एवं खाजक दर्रो से होकर और एक हजार मीलों की दूरी पार कर काबुल पहुंचेगी, जब कि सिख मेना कर्नल वेड और नाह शुजा के पुत्र तैमूर के साथ पंजाब से रवाना होगी तथा पेशावर एवं खैबर दर्रे से गुजरेगी ।
जैसा डाक्टर स्मिथ कहता है, “यह योजना ठोस युद्धकला की सभी बातों के विरुद्ध थी, तथा एक विवेकशील राजनीतिज्ञ की योजना न होकर एक पागल की योजना थी” । और भी, सिंध होकर सैन्य-यात्रा का मतलब था सिंध के अमीरों से हुई १८३२ ई॰ की संधियों का घोर उल्लंघन ।
कंधार पहुँचने के पहले ही ब्रिटिश सेना पानी और रसद की कमी के कारण संख्या में काफी घट गयी । आक्रमणकारी सेना के साथ सर डल्यू॰ एच॰ मैकनाटन इसके राजनीतिक मामलों का प्रभारी बन कर गया सर अलेक्जेंडर बर्न्स उसका प्रमुख सहायक रहा ।
मित्र-सेनाओं को प्रारम्भ में सफलताएँ मिलीं । सर जौन कीन उनका प्रधान सेनापति बना । उन्होंने अप्रैल, १८३९ ई॰ में कंधार पर कब्जा कर लिया तथा २३ जुलाई को गजनी को तहस-नहस कर डाला । ३ अगस्त, १८३९ ई॰ को काबुल उनके हाथों में पड़ गया, जब दोस्त मुहम्मद ने उसे खाली कर दिया ।
(इ) अफगानिस्तान में शाहशुजा का शासन:
शाह शुजा विजयोल्लास के साथ काबुल की गद्दी पर बैठा दिया गया । किन्तु उसका कोई स्वागत नहीं हुआ । यहाँ तक कि उसे लोगों से ”सामान्य सलाम” भी नहीं मिला । के लिखता है कि “अपने पुनर्जित राज्य की राजधानी में किसी राजा के प्रवेश की अपेक्षा यह शव-यात्रा की तरह ही अधिक लग रही थी” । कुछ समय तक ऐसा जान पड़ा मानो ब्रिटिश सेना को अधिक कीर्ति मिल रही हो । किन्तु सन् १८४१ ई॰ के अंत तक “वह कीर्ति खेदजनक रूप से गंदी हो गयी” ।
इस परिस्थिति में भारी खतरे छिपे हुए थे । शाह शुजा ब्रिटिश सेना की शाक्त बार सिख सहायता के कारण पुन: राज्य पा सका था । अतएव वह राष्ट्रीय सहानुभूति और समर्थन का आह्वान करने में असफल रहा । दोस्त मुहम्मद ने १८४० ई॰ में आत्म- समर्पण कर दिया तथा वह बंदी बनाकर कलकत्ते भेज दिया गया ।
“फिर भी यह आवश्यक था कि गद्दी को ब्रिटिश संगीन रूपी काँटेदार पौधे की जानदार झाड़ियों से घेर दिया जाए” । किन्तु ब्रिटिश सेना अफगानिस्तान में भारी खर्च पर रखी जा रही थी तथा भारत के रुपये पानी के समान बहाये जा रहे थे । उसकी वहाँ उपस्थिति से साधारण उपभोग की वस्तुओं के दाम बढ़ गये ।
इसका प्रभाव अमीर और गरीब दोनों तरह के लोगों पर पड़ा । विदेशी आधिपत्य से जनता को असंतोष तो था ही स्वतंत्रता-प्रिय अफगानों के देश में ठहराये गये ब्रिटिश सैनिकों की भूलों के कारण यह असंतोष और भी बढ़ चला । वस्तुत: अफगानों पर लादी गयी शासन-प्रणाली “समस्त राष्ट्र के लिए शाप बन रही थी” ।
जब शाह शुज़ा राष्ट्र द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ, तब अंग्रेजों के लिए अधिक बुद्धिमानी की बात यह होती कि वे उसके साथ ही पीछे हट जाते । अफगानिस्तान में परिस्थिति के खतरों पर विचार करते हुए कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने बुद्धिमानी के साथ “देश के संपूर्ण त्याग तथा पूर्ण असफलता की स्पष्ट स्वीकारोक्ति” का सुझाव दिया ।
किन्तु मैकनाटन ने पीछे हटने के प्रस्ताव को “अद्वितीय राजनीतिक नृशंसता” समझा तथा इसे अस्वीकार कर दिया । कारण यह था कि वह आसक्ति के साथ यह विश्वास करता था की “प्रत्येक दिशा में” अंग्रेजों के अवसर “चमक रहे” हैं और यह भी कि हर चीज “गुलाब के रंग” की है ।
लार्ड आकलैंड ने भी अपनी नीति की पूर्ण असफलता को मान लेना कबूल नहीं किया । उसने अर्ध-उपायों का सहारा लिया, जो बिलकुल जोखिम से भरे और अकीर्तिकर थे । कब्जा करनेवाली ब्रिटिश सेना अफगानिस्तान में बनी रहने दी गयी । मितव्यय करने का प्रयत्न किया गया ।
एतदर्थ पूर्वी अफगानिस्तान के कबीलों के सरदारों की सहायता के बदले में दी जानेवाली रकमें घटा दी गयीं । केवल इन्हीं रकमों के लालच ने अब तक उन्हें अंग्रेजों से चिपका रखा था । इस “गलत मितव्ययिता” के स्वाभाविक परिणामस्वरूप सरदारों ने विभिन्न भागों में विद्रोह कर दिया ।
दो अन्य गहरी भूलें भी गवर्नर-जनरल के द्वारा हुई । उसने अप्रैल, १८४१ ई॰ में कौट्न के बाद, एक पुराने अक्षम व्यक्ति जनरल एल्फिस्टन को काबुल की सेना के कमानदार के रूप में नियुक्त कर दिया ।
यह काम विपत्तिजनक हुआ, क्योंकि यह प्रधान सेनापति की इच्छा के विरुद्ध था, जो कंदहार के कमानदार नौट को अधिक पसंद करता था । यह भी उसके लए बुद्धिशून्य काम हुआ कि उसने शाह शुजा को बाला हिसार के नाम से प्रसिद्ध काबुल के किले का अपने अंत पुर के रूप में उपयोग करने की आज्ञा दे दी, जब कि सैनिक अपने रसद-विभाग के भंडारों से कुछ दूरी पर शहर के बाहर खराब गढ़बंदी वाली छावनियों में बुरी तरह रखे गये ।
इस समय एक और परिस्थिति उपस्थित हुई । २७ जून, १८३९ ई. को अंग्रेजों के मित्र रणजीत सिंह का देहांत हो गया । इसके बाद पंजाब में अव्यवस्था फैल गयी । फलस्वरूप अंग्रेजों का सिखों से सहायता मिलना बंद हो गया ।
5. प्रथम अंग्रेज-अफगान-युद्ध : दूसरी अवस्था (First British-Afghan War: Second Stage):
(अ) अफगानों का विद्रोह तथा कम्पनी-सरकार की नीति की आलोचना:
१८४१ ई॰ की शरद् ऋतु तक आते-आते उपद्रव उठ खड़े हुए । २ नवम्बर को एक गरजती हुई भीड़ ने अलेक्जेंडर बर्न्स को उसके पर के बाहर खींच निकाला तथा उसकी, उसके भाई चार्ल्स की और लेफ्टिनेंट विलियम ब्रौडफूट की भी हत्या कर दी । असैनिक एवं सैनिक दोनों तरह के अंग्रेज अफसरों तथा सैनिकों ने तत्परता और योग्यता का शोचनीय अभाव प्रदर्शित किया ।
इस प्रकार उन्होंने “छोटी आग” को दोस्त मुहम्मद के पुत्र अकबर खाँ के नेतृत्व में “अन्यमनस्कता के कारण विशाल अग्निदाह” बन जाने दिया । वे आपस में ही झगड़ते थे । वे इस विद्रोह की भयंकर प्रकृति के समझने में चूक गये । एक समकालीन लेखक थौर्नटन टिप्पणी करता है- “ऐसा मालूम पड़ता है कि इस बात के लिए करीब-करीब सर्वस्वीकृत संकल्प कर लिया गया था कि खतरे के सभी संकेतों से कान बंद कर लिए जाएँ तथा मराठा खाई में जितनी सुरक्षा रहती है उतनी सुरक्षा के विलासमय स्वप्न में लिप्त हुआ जाए” ।
इन अनर्थों के सुनने पर लार्ड आकलैंड बहुत ही उद्विग्न हुआ । उसने बहुत देर के बाद “सार्वभौम राष्ट्रीय एवं धार्मिक मत के विरुद्ध” कुश्ती लड़ने की मूर्खता महसूस की ।
वह “इसका विचार करने के लिए” इच्छुक हुआ कि “किस प्रकार भारत की जो भी चीज है उसे बिलकुल तुरंत और अत्यंत आदर के साथ उस देश के लौटा लिया जाए” ।
कमजोर जनरल एल्फिस्टन ने बिना चोट किये हुए विद्रोहियों द्वारा सेनादल के मालगोदाम को जीत लेने दिया । अफगानिस्तान का ब्रिटिश राजनीतिक अफसर मैकनाटन दुविधा में पड़ा हुआ था । उसे भय था कि कहीं उसे भूखों न मरना पड़े । इसलिए उसने ११ दिसम्बर को अकबर खाँ से एक अपमानजनक संधि कर ली ।
यह तय हुआ कि ब्रिटिश सेना यथाशीघ्र काबुल खाली कर दे, दोस्त मुहम्मद काबुल लौट आए तथा शाह शुजा या तो अफगानिस्तान में पेंशन पर रहे या ब्रिटिश सेना के साथ भारत चला जाए । किन्तु मैकनाटन, इन शर्तों के पालन के लिए सचाई के साथ इच्छुक होने की बात तो दूर रही, उलटे कुछ दिनों के भीतर ही प्रतिद्वंद्वी गिजाली और किजिलबाशी सरदारों के साथ आपत्तिजनक संधि-प्रस्ताव करने लगा ।
उसे समान कार्य द्वारा इस विवेकशून्य काम का प्रतिफल मिल गया । इन सरदारों ने उसे धोखा दिया । दम-दिलासा देकर उसे वे २३ दिसम्बर को अकबर खाँ के साथ होनेवाले एक साक्षात्कार में ले गये । वहाँ उन्होंने उसे उसके एक साथी कैप्टेन ट्रेवर के साथ मार डाला । उसके दो दूसरे साथी लारेंस और मेकेंजी अपनी जानों के साथ बच निकले लेकिन उन्हें कैद में डाल दिया गया ।
मैकनाटन का उत्तराधिकारी मेजर एल्ड्रेड पौटिंगर हुआ । वह अफगानों से सभी संधि-वार्ताएँ तोड़ लेना चाहता था । वह चाहता था कि या तो बाला हिसार पर कब्जा कर सहायता आने तक ठहरा जाए या जलालाबाद चला जाए जिसकी सेल वीरतपूर्वक प्रतिरक्षा कर रहा था ।
लेकिन एल्फिस्टन तथा दूसरे सैनिक अफसरों में डटकर अपनी राष्ट्रीय मर्यादा की रक्षा करने का साहस न था । उन्होंने उसके सुझावों की उपेक्षा की तथा अधिक रियायतें करने पर उतर आये । उन्होंने बंदूकें, छोटी वदूर्के और तोप-गोदाम अर्पित कर दिये । १ जनवरी, १८४२ ई॰ को उन्होंने संधि भी संपुष्ट कर दी ।
६ जनवरी को “हीनता से नीचे झुके हुए, कुम्हलाये और भग्नोत्साह” ब्रिटिश सैनिक एवं सेनादल के नौकर भारत की ओर लौट चलने के लिए रवाना हुए । वे कुल साढ़े सोलह हजार आदमी थे । जाड़े की डंक मारनेवाली बर्फ से संघर्ष करते हुए वे गुजर रहे थे । यही नहीं, उन्हें अफगानों की गोलियों की अविरल बौछार का भी सामना करना पड़ रहा था, चूंकि अकबर खाँ उनके धर्मोन्मादयुक्त क्रोध को रोकने में असमर्थ था ।
कुछ ही दिनों के भीतर औरतें, बच्चे तथा पौटिंगर, लारेंस और एल्फिस्टन सहित कुछ अफसर अकबर खाँ को जामिन के रूप में दे दिये गये । लेकिन ब्रिटिश सैनिकों की हत्या जारी रही । १० जनवरी को सेना का करीब चतुर्थांश-मात्र बच रहा । राबर्ट्स के संक्षिप्त वाक्य में “प्रत्यावर्तन (‘रिट्रीट’) पूर्ण पराजय (‘राउट’) में परिवर्तित हो गया तथा पूर्ण पराजय निर्दय हत्याकांड में परिणत हो गयी” ।
इस प्रकार लौटनेवाले सैनिक काफी कम हो गये । उन्होंने ११ जनवरी को जग्दलक के दर्रे पर अंतिम साइसत्रर्ण प्रयत्न किया । पर उन्हें कुछ हाथ न लगा, उलटे उन्हें अपने बारह अफसरों में हाथ धोना पड़ा । सप्ताह पहले काबुल से साढे सोलह हजार आदमी चले थे । उनमे अकवर खाँ के अधीन रखे गये एक सौ वीस कैदियों को छोड्कर बाकी सभी नष्ट हो गय ।
केवल एक डाक्टर बाइडन, जो बहुत घायल और पूर्णतया शक्तिशून्य हो चुका था, इस दु:खपूर्ण प्रत्यावर्तन की कष्टजनक कहानी कहने के लिए १३ जनवरी को जलालाबाद पहुंचा । नौट और रौलिंसन द्वारा कंदहार की तथा सेल और ब्रौडफूट द्वारा जलालाबाद की वीरत्वपूर्ण प्रतिरक्षा को अनर्थ रूपी बढ़ते हुए अंधकार में प्रकाश की एकमात्र रेखा समझा जा सकता है ।
इन विपत्तियों से लार्ड आकलैड स्वभावत: स्तब्ध और निर्जीव बन गया । उसने अपना दूरदर्शिता का अभाव छिपाने का प्रयत्न किया । एतदर्थ उसने ३१ जनवरी को निकाले गये सामान्य आदेश में इस भयंकर विपत्ति का “एक आशिक पराजय” कहकर वर्णन किया, जो (पराजय) “ब्रिटिश शक्ति की स्थिरता और ताकत तथा ब्रिटिश-भारतीय सेना की प्रशंसनीय भावना एवं वीरता प्रदर्शित करने का एक नवीन अवसर” दे रही थी ।
उसने ब्रिटिश प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त करने के कुछ प्रयत्न किये, किन्तु सब बेकार । शीघ्र ही उसे अपना पद छोड़ने को विवश किया गया तथा २० फरवरी, १८४२ ई॰ को लार्ड एलेनबरा (१८४२-१८४४ ई॰) ने इसका भार लिया ।
इसमें संदेह नहीं कि भारत की कम्पनी-सरकार के लिए अफगान युद्ध एक अनुचित कार्यवाही था और इसलिए कुछ लेखकों के मत में इस पर जो “प्रतिशोधात्मक न्याय की देवी का भयंकर प्रहार” हुआ वह उचित ही था । के महत्वपूर्ण ढंग से कहता है- “…जब एक अपवित्र काम पर ईश्वर का शाप कड़े तौर से पड़ता है, तब हमारे राजनीतिज्ञों की बुद्धिमत्ता मूर्खता-मात्र रह जाती है तथा हमारी सेनाओं की शक्ति केवल कमजोरी बन जाती है” ।
और भी, जिस कमजोर और मूर्खतापूर्ण ढंग से यह चलाया गया, उससे इसकी असफलता अवश्यभावी हो गयी । अफगान युद्ध के सम्बन्ध में हुई ब्रिटिश पराजयों और अनर्थों के कारणों की आलोचनात्मक परीक्षा करते हुए कैप्टेन ट्रौटर कहता है कि यद्यपि वह (लार्ड आकलैंड की) नीति दु:खदायी, कानून-विरुद्ध और गलती से भरी हुई थी, तथापि उसके एकाएक पूर्णतया टूट गिरने का मुख्य कारण यह था कि जो अभिकर्ता (एजेंट) चुने गये थे वे अपने काम के लिए आयोग्य थे ।
मैकनाटन की प्रफुल्ल विश्वासपूर्णता, एलफिंस्टन का शारीरिक और मानसिक हास शेल्डन का मूर्खतापूर्ण हठ, असैनिक और सैनिक शक्तियों के बीच बराबर रहनेवाले मतभेद, सेल का समयोचित सहायता रोक लेना, लार्ड आकलैंड के आधे मन से (किये गये काम एवं अनुचित समय पर की गयी मितव्ययिता-सबने उस साहसपूर्ण काम को उसके नाटकीय प्रतिशोधात्मक अंत तक पहुँचा दिया, जो मूर्खता और दोष से शुरू ही हुआ था ।
(ब) लार्ड एलेनबरा तथा अफगान मामलों का समाधान:
विगत अफगान युद्ध के महान् अनर्थ को ध्यान में रखते हुए लार्ड एलेनबरा (१८४२- १८४४ ई॰) ने प्रधान सेनापति को १५ मार्च, १८४२ ई॰ को लिखे गये एक पत्र में घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार त्रिगुट-संधि का समर्थन करने के लिए अब “अपनी सेनाओं और अपनी सेनाओं के साथ भारतीय साम्राज्य को खतरे में” नहीं डालेगी, बल्कि “अफगानों पर कोई असाधारण एवं निर्णयकारी चोट पहुँचाकर” अपनी सैनिक प्रतिष्ठा की स्थापना का उद्देश्य रखेगी ।
लेकिन हकलजाई में जनरल इंगलैंड की पराजय और पामर द्वारा गजनी के समर्पण के समाचार सुनने पर उसने यह संकल्प बदल दिया । अब उसने आज्ञा दी कि जो ब्रिटिश सैनिक अभी भी अफगानिस्तान में रह गये हों वे तुरत लौट आएँ तथा इस सम्बन्ध में प्रतिशोधों या बंदियों की मुक्ति का कोई विचार न किया जाए ।
जैसा कि अवश्यम ने लिखा, यह आज्ञा सेना पर “बिजली की कड़क के समान” गिरी । इससे इंगलैंड और भारत दोनों देशों में रोष की आँधी उठ खड़ी हुई । शाह शुजा इसी बीच मारा जा चुका था । नौट और पोलक दोनों ने लौटने का झुकाव नहीं दिखलाया । बल्कि वे अपनी जगहों पर डटे रहे । पीछे हटने में अपनी हिचक का कारण देते हुए उन्होंने ले जाने के साधन की कमी की दलील पेश की ।
लार्ड एलेनबरा ने आखिर “एक ऐसा रास्ता ढूंढ ही निकाला जिससे अनुरूपता का एक खास तौर से खाली स्वाँग चालू रहे तथा साथ-साथ काबुल की निश्चित पुनर्विजय और पीछे हटने की प्रारंभिक क्रिया के रूप में बंदियों की पुन: प्राप्ती की सार्वदेशिक माँग को संतुष्ट किया जाए” ।
४ जुलाई को उसने नौट और पोलक के पास पत्र लिखे जिनमें उसने अफगानिस्तान से लौटने की आज्ञा को दुहराया किन्तु साथ-साथ उसने नौट को भारत लौटने के संबंध में काफी कार्य-स्वातंत्रय दे दिया, जिसके अनुसार उसे बोलन के दर्रे से न लौटकर गजनी एवं काबुल होकर खैबर से गुजरते हुए आना था गवर्नर-जनरल ने पोलक को भी आज्ञा दे दी कि वह लौटने के इस मामले में नौट से मिल-जुलकर काम करें ।
यह स्पष्ट है कि गवर्नर-जनरल ने इस प्रकार निर्णय करने की जवाबदेही सेनापतियों पर डाल दी । किन्तु सेनापतियों ने इसे बिना किसी हिचक के स्वीकार कर लिया ।
२० अगस्त को पोलक अपने आठ हजार चुने हुए सैनिकों के साथ जलालाबाद से रवाना हुआ । अफगानों को उसने ८ सितम्बर को जग्दलक में तथा १३ सितम्बर को लेकिन में परास्त किया । १५ सितम्बर को वह काबुल पहुँचा ।
एक बार फिर उसने बाला हिसार पर ब्रिटिश झंडा गाड़ दिया । इधर नौट ने ६ सितम्बर को गजनी के शहर और गढ़बंदियों को नष्ट कर डाला था । १७ सितम्बर को वह पोलक से आ मिला । अपने साथ वह लार्ड एलेनबरा के आदेशानुसार “सोमनाथ के तथा-कथित फाटक” भी उठा ले आया, जिन्हें सुलतान महमूद ग्यारहवीं सदी में उठा के गया बताया जाता है । अंग्रेज बंदी मुक्त कर दिये गये ।
ब्रिटिश सेना ने काबुल के विशाल बाजार को बारूद से उड़ा दिया । नगर को निर्दयतापूर्वक लूटा गया । बहुत-से निर्दोष मनुष्य महान् कष्ट में डाले गये । इस प्रकार “बर्बरता के कामों ने काबुल में बदला लेनेवाली सेना की कीर्नि को क्षति पहुँचा दी” । १२ अक्ट्बर को यह नगर खाली कर दिया गया ।
लौटती हुई सेना का विजय-सूचक मेहराबों और अभिनयात्मक जय-गानों” के साथ गवर्नर-जनरल द्वारा फीरोजपुर में स्वागत किया गया । लार्ड एलेनबरा ने शिमला से १० अक्टूबर को एक घोषणा-पत्र निकाला, यद्यपि इसपर १ अक्टूबर की तारीख डाली गयी थी ।
इसमें उसने कड़ी भाषा में अपने पूर्वाधिकारी की नीति की निंदा की तथा “स्वयं अफगानों द्वारा स्वीकृत किसी भी सरकार: को मान्यता देने” की अपनी इच्छा प्रकट की, “जो पड़ोसी राज्यों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध विभाने के लिए इच्छुक और योग्य मालूम पड़े” ।
गवर्नर-जनरल ने एक दूसरा बड़े-बड़े शब्दोंवाला धोषणा-पत्र भी निकाला । यह भारत के राजाओं, सरदारों और जनता को संबोधित कर कहा गया था । इसमें उसने घोषित किया । “हमारी विजयिनी सेना जय प्राप्त कर अफगानिस्तान से सोमनाथ के मंदिर के फाटक ला रही है । सुलतान महमूद की लूटी-खसोटी गयी कब्र गजनी के भग्नावशेषों को देरह रही है । आठ सौ वर्षों के अपमान का बदला ले लिया गया है ।”
दूसरे घोषणा-पत्र की बुद्धिश्न्यता और अनुपयोगिता में कोई संदेह नहीं हो सकता । के कहता है- “इस बात की मूर्खता निर्विवाद रूप से थी । साथ ही, यह मूर्खता अत्यंत बेवकूफ किस्म की थी, क्योंकि इसने किसी को खुश नहीं किया, प्रत्युत बहुत को नाराज कर डाला ।”
इससे मुसलमानों की भावनाओं पर चोट पहुँची तथा हिन्दू इन फाटकों के सम्बन्ध में उदासीन रहे । पुरातत्वज्ञों ने ठीक ही बतलाया कि ये फाटक ग्यारहवीं सदी के बहुत बाद बने थे तथा इनमें “बहुमूल्य काठ की क्या बात, चीड़ या देवदार की लकडी” लगी थी ।
गवर्नर-जनरल का “सफल युद्ध का कीर्तिपूर्ण विजय-चिह्न” अंत में आगरे के किले के लकड़ी-गोदाम के हवाले कर दिया गया । उसने अपने को उपहास और निंदा का पात्र बनाया, यद्यपि डयूक ऑफ वेलिंगटन और लार्ड हार्डिज ने उसका जोरदार समर्थन किया ।
दोस्त मुहम्मद को बिना किसी शर्त के पुन: अपनी गद्दी पर बैठने दिया गया । इस पर वह अपने जीवन के अंत तक बना रहा । अस्सी वर्षों की अवस्था में १८६३ ई॰ में उसकी मृत्यु हुई । उसका अंग्रेजों के प्रति बराबर मित्रतापूर्ण रुख रहा साथ ही वह फारस का विरोध करता रहा । इससे यह स्पष्ट हो गया कि वह “संपूर्ण अनर्थपूर्ण घटना”, जिसमें बीस हजार आदमियों की जानें गयीं तथा डेढ़ करोड़ रुपये खर्च हुए, “पूर्णतया अनावश्यक” थी ।