Read this article in Hindi to learn about:- 1. सिख शक्ति का उदय (The Rise of Sikh Power) 2. रणजीत सिंह (Ranjit Singh) 3. प्रथम अंग्रेज-सिख-युद्ध (First British-Sikh War) 4. द्वितीय अंग्रेज-सिख-युद्ध तथा पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया जाना (Second British-Sikh War and Integration of Punjab into the British Empire).

सिख शक्ति का उदय (The Rise of Sikh Power):

बंदा के धर्म-निरपेक्ष नेतृत्व में १७०८ ई॰ से १७१६ ई॰ तक जो स्वतंत्रता के लिए सिख संघर्ष चलता रहा, वह १७१६ ई॰ तक आते-आते अनर्थकारी अंत को प्राप्त हुआ । मुगलों ने घोर यंत्रणा देकर बंदा की जान ली तथा उनके अनुयायियों को निष्ठुरतापूर्वक सताया ।

किन्तु दमन खालसा की सैनिक भावना को पूरी तरह से नहीं मार सका, बल्कि दिल्ली साम्राज्य की बढ़ती हुई कमजोरी ने सिखों को अपना पुनस्संगठन करने का अवसर दे दिया । १७३९ ई॰ के नादिरशाह के आक्रमण और प्रथम तीन अब्दाली हमलों (१७४८- १७५२ ई॰) ने पंजाब पर मुगल अधिकार को कमजोर बना डाला तथा इस सूबे को गड़बड़ी में फेंक दिया । इससे सिख अपने को धनी बनाने और अपनी सैनिक शक्ति एवं राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने में समर्थ हो गये । आगे के कुछ वर्षों में वे “पराजयों की एक शृंखला से गुजरते हुए संपूर्ण विजय तक पहुँच गये” ।

अब्दाली आक्रमणकारी ने उन्हें पीस डालने की चेष्टाएं की, किन्तु उन्होंने ऐसी सभी चेष्टाओं को व्यर्थ कर दिया । पानीपत में हुई उसकी विजय के पश्चात् भी उन्होंने उसकी अवहेलना की । जब घर जाने के लिए उसने १२ दिसम्बर, १७६२ ई॰ को लाहौर छोड़ा, तब सिखों ने उसका पीछा किया, उसकी सेना के पास टहलते रहे तथा हर तरह से उसे (सेना को) हैरान किया । पंजाब में अब्दाली के प्रतिनिधि अयोग्य थे ।

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इस कारण सिखों की छेडखानियाँ बढ़ चली । वे उस पर प्रभुत्व स्थापित करने लगे । उन्होंने फरवरी, १७६४ ई॰ में लाहौर पर कब्जा कर लिया । “जिस तरह सरहिंद का मैदान पिछले साल बाँट लिया गया था, उसी तरह झेलम से सतलज के बीच का सारा देश सिख सरदारों और उनके अनुयायियों के बीच बाँट लिया गया” ।

वे अमृतसर में जमा हुए तथा सिक्के ढालकर उन्होंने अपने संघ और पथ के प्रभुत्व की घोषणा की कि गुरु गोविंद ने नानक से देरा, तेरा और फतह प्राप्त की थी । १७६७ ई॰ में अहमद शाह अब्दाली के भारत से अंतिम रूप से चले जाने के बाद सिखों ने उसके दुर्बल उत्तराधिकारी तैमूर शाह से उसके भारत में जीते हुए प्रांतों को छीन लिया ।

सन् १७७३ ई॰ तक सिख प्रभुत्व पूर्व में सहारनपुर से पश्चिम में अटक तक तथा दक्षिण में मुलतान से उत्तर में कांगड़ा और जम्मू तक फैल गया । इस प्रकार सिखों की स्वाधीनता को मूर्त रूप मिला ।

उन्होंने अपने को बारह मिस्लों में बाँट लिया- भंगी, कन्हेया, सुकरचकिया, नकाई, फैजुल्लापुरिया, अहलुवलिया, रामगढ़िया, दलेवलिया, करोड़ासिंहिया, निशानवाला, शहीद-निहंग और फुलकिया । सिखों के इस संगठन को “धर्मराज्यीय संघबद्ध सामंतवाद” कहा गया है ।

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लेकिन सामान्य शत्रु के लुप्त हो जाने के कारण सिख मिस्लों के नेताओं के बीच ईर्ष्या और विरोध ने पदार्पण किया । ऐ से समय जब कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद भारत में तेजी से फैल रहा था, वे अपनी-अपनी शक्ति बढ़ाने की नीति बरतने लगे ।

सामंतवाद का नाश कर सिखों का एक राष्ट्रीय राजतंत्र के रूप में संगठन करना रणजीत सिंह नामक एक भाग्यशाली व्यक्ति का काम था । इसके पहले कि हम सिखों और अंग्रेजों के बीच के संबंधों का अध्ययन करें, इस व्यक्ति के उदय का संक्षिप्त सर्वेक्षण आवश्यक है ।

रणजीत सिंह (Ranjit Singh):

रणजीत सिंह का जन्म १३ नवम्बर, १७८० ई॰ को हुआ था । वे सुकरचकिया मिस्ल के नेता महासिंह के पुत्र थे । उनकी माता झिंद घराने की थीं । शिवाजी के असमान, रणजीत सिंह का प्रारंभिक जीवन प्रेरणाहीन परिस्थितियों में बीता । जब वे बारह वर्षों के बालक ही थे, तभी १७९२ ई॰ में उनके पिता चल बसे ।

उस समय वे सिर्फ एक छोटी मिस्म के नेता थे, जिसके अधीन छोटा इलाका था और जिसके सैनिक साधन अत्यंत सीमित थे, जब कि दूसरे बहुत श्रेष्ठतर सरदार विद्यमान थे । किन्तु काबुल के जमाँ शाह के १७९३-१७९८ ई॰ में हुए भारतीय आक्रमणों ने उनके जीवन पर निर्णयकारी प्रभाव डाला ।

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जमा शाह ने रणजीत से महत्वपूर्ण सेवाएँ प्राप्त कीं । इसके बदले उसने उन्हें सन् १७९८ ई॰ में उन्नीस वर्षों की अवस्था में राजा की उपाधि देकर लाहौर का सूबेदार (गवर्नर) नियुक्त किया । पंजाब पर अधिकार जमाने के लिए सिखों ने इस अफगान शासक के महत्वाकांक्षी पूर्वज अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध डटकर लौहा लिया था ।

अब अब्दाली के पोते (जमाँ शाह) ने उनके एक सरदार को स्वयं ही यह उपाधि प्रदान कर दी । इस घटना से एक ”आश्चर्यजनक रूप से सफल सैनिक जीवन” का प्रारंभ हुआ, जिसके वीरतापूर्ण कामों के फलस्वरूप पंजाब में अफगान प्रभुत्व विनष्ट हो गया तथा सिखों के एक मजबूत राष्ट्रीय राजतंत्र का निर्माण हुआ ।

रणजीत ने शीघ्र अफगानों का जुआ उतार फेंका । सतलजपार की मिस्लों कें सरदारों के बीच मतभेद और झगड़े चल रहे थे । रणजीत सिंह ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर उन्हें धीरे-धीरे अपने राज्य में मिला लिया । १८०५ ई॰ में होलकर ने, लार्ड लेक से खदेड़े जाकर, रणजीत की सहायता चाही । लेकिन सिख सरदार ने उसकी प्रार्थना नहीं मानी ।

१ जनवरी, १८०६ ई॰ को हुई लाहौर की संधि ने रणजीत सिंह को इस नवीन संकट से मुक्त किया, क्योंकि इसके अनुसार होलकर पंजाब से हट गया तथा रणजीत सिंह को सतलज के उत्तर अपनी विजयें करने को स्वतंत्र छोड़ दिया । लेकिन रणजीत सिंह का लक्ष्य था सभी सिखों पर प्रभुत्व स्थापित करना ।

कनिंगहम लिखता है- “जिस प्रकार गोविंद ने एक पंथ को एक राष्ट्र के रूप में विकसित किया था तथा नानक के सामान्य नियमों को कार्यान्वयन एवं उद्देश्य प्रदान किया था, उसी प्रकार, विभिन्न परमाणुओं एवं तितर-बितर हुए तत्वों को एकता और संगति प्रदान करने तथा बढ़ते हुए सिख राष्ट्र को एक सुव्यवस्थित राज्य या संघ के रूप में ढालने के लिए, उन्होंने (रणजीत सिंह ने) करीब-करीब बुद्धिमत्तापूर्ण मनसूबे के साथ परिश्रम किया ।”

इस उद्देश्य के कार्यान्वयन के लिए सतलज के इस पार के राज्यों (सिस-सतलज स्टेट्‌स) पर, जो उस नदी और यमुना के बीच में पड़ते थे, रणजीत सिंह के नियंत्रण का स्थापित होना आवश्यक था । सतलज के इस पार के इन राज्यों में बहुत समय से अव्यवस्था और विरोध ने घर कर रखा था । फलत: मराठों के आक्रमण होने लगे थे । १७८५ ई॰ में महादजी सिंधिया की सिखों से संधि हुई । इसके बाद सतलज के इस पार की सिख भूमि पर मराठा प्रभाव स्थापित हो गया ।

लेकिन आगे चलकर अंग्रेज सिंधिया को भगाने तथा सतलज के इस पार के राज्यों (सिस-सतलज राज्यों) को व्यावहारिक रूप से अपने संरक्षण में लाने में सफल हो गये । उन पर न तो मराठों का ही कोई ठोस दावा था और न अंग्रेजों का ही । लेकिन अव्यवस्था के उन दिनों में सब से जोरदार दावा “तलवार का” ही होता था ।

रणजीत सिंह की द्रुतगामी सफलताओं ने सिस-सतलज राज्यों के मामलों में उनका हस्तक्षेप अवश्यंभावी बना दिया । स्थानीय सिख सरदारों में झगड़े हुए । इनमें से कुछ ने उनकी सहायता के लिए प्रार्थना की । उन्हें बहाना मिल गया ।

१८०६ ई॰ और १८०७ ई॰ में उन्होंने सिस-सतलज राज्यों (सतलज के इस पार के राज्यों) पर हमले किये तथा लुधियाना पर कब्जा कर लिया । अब रणजीत सिंह, का प्रभाव फैल गया । कुछ सिख सरदारों ने इसे पसंद नहीं किया । मार्च, १८०८ ई॰ में वे दिल्ली स्थित ब्रिटिश रेजिडेट मिस्टर सेटन से मिले तथा रणजीत सिंह के विरुद्ध ब्रिटिश सहायता की प्रार्थना की । उनकी प्रार्थना अनसुनी चली गयी ।

किन्तु सामरिक और कूटनीतिक कारणों से अंग्रेज शीघ्र ही इसे आवश्यक समझने लगे कि रणजीत सिंह के यमुना तक के पूर्वी फैलाव को रोका जाए । मगर वे तुरंत तलवार का सहारा नहीं ले सके । इसका एक कारण था । तुर्कों और फारसियों के साथ मिलकर फ्रांसीसियों द्वारा भारत पर आक्रमण होने की संभावना थी ।

ऐसी हालत में देश के उत्तर-पश्चिम की एक शक्ति को शत्रु बना लेना उनके हितों के लिए हानिकारक होता । लार्ड मिंटो (१८०७-१८१३ ई॰) ने कूटनीति का सहारा लिया । उसने मेटकाफ को दूत बनाकर सिख राजा के यहाँ भेजा । इस दौत्य का प्रकट लक्ष्य यह था कि यदि कभी फ्रांसीसी फारस होकर भारत पर आक्रमण करें तो इस संभावित परिस्थिति का सामना करने के लिए फ्रांसीसियों के विरुद्ध एक आक्रमणात्मक और प्रतिरक्षात्मक संधि की बातचीत की जाय ।

इसके वास्तविक उद्देश्य दो थे-एक तो, रणजीत के प्रसार का प्रतिरोध करना और दूसरा, संभावित फ्रांसीसी आक्रमण के विरुद्ध उनकी मित्रता प्राप्त करना । रणजीत ने हिसाब लगा लिया कि ब्रिटिश सरकार को मेरी मित्रता की घोर आवश्यकता है । अतएव उन्होंने जहाँ तक हो सका सतलज के इस पार की भूमि जीत ली तथा साहसपूर्वक अंग्रेजों से प्रस्तावित संधि की कीमत के रूप में सभी सिख राज्यों पर अपनी सर्वोच्च सत्ता की स्वीकृति की माँग भी की ।

किन्तु इसी बीच नेपोलियन के प्रायद्वीपीय युद्ध (‘पेनिनसुलर वार’) में फँस जाने के। कारण उसके द्वारा भारत पर आक्रमण होने का खतरा दूर हो चला था । जनवरी, १८०९ ई॰ में टर्की और इंगलैंड के बीच डार्डेनेल्स की संधि हो जाने के बाद इन दोनों शक्तियों के बीच के संबंध भी पहले से अच्छे हो चले ।

राजनीतिक परिस्थिति में यह परिवर्तन होने से ब्रिटिश सरकार को प्रोत्साहन मिल गया । उसने निर्णय किया कि इस भारी कीमत पर रणजीत की संधि न खरीदी जाए बल्कि “इस महत्वाकांक्षी सैनिक शक्ति को सतलज के पार बढ़ने से रोका जाए, क्योंकि ऐसा न होने से यह हमारी (ब्रिटिश) सीमा पर पहुँच जाएगी, जब कि अभी यहाँ मित्र सरदारों का संघ है, जो हमारे संरक्षण के कारण (हमारा) कृतज्ञ है तथा हमारे पक्ष में दिलचस्पी रखता है” । अंग्रेजों की माँगों को लागू करने के लिए सैनिकों की एक टुकड़ी डेविड आक्टर लोनी के अधीन भेजी गयी ।

रणजीत ने दो बातें सोचीं । एक तो, उन्हें ब्रिटिश शक्ति का भय लगा । उन्हें डर हुआ कि सतलज के पूर्व के ईर्ष्यालु सिख राज्य अपने को ब्रिटिश संरक्षण में द डालेंगे । इसलिए २५ अप्रैल, १८०९ ई॰ को अमृतसर में उन्होंने अंग्रेजों से “स्थायी मित्रता” की संधि कर ली । इस संधि के अनुसार रणजीत की क्रियाशीलता सतलज की दाहिनी ओर सीमित कर दी गयी तथा सतलज के इस पार के राज्य (सिस-सतलज स्टेट्स) निश्चित रूप से ब्रिटिश संरक्षण में आ गये ।

ब्रिटिश सीमा यमुना से सतलज तक फैल गयी तथा ब्रिटिश सैनिक लुधियाना में रख दिये गये । इस प्रकार रणजीत को अपने जीवन के सर्वाधिक प्रिय आदर्श-सभी सिखों पर निर्विवाद स्वामित्व के आदर्श-का त्याग करना पड़ा । उनका सब से हाल का जीवनी-लेखक कहता है कि “सिस-सतलज राज्यों के लेने में रणजीत की असफलता युद्धरत सिख राष्ट्रीयता के लिए एक दु:खद घटना थी तथा ब्रिटिश सरकार की सहायता से प्राप्त सिस-सतलज राज्यों की सफलता ने गुरु गोविंद सिंह की महान् कृति में विच्छेद का प्रारम्भ कर दिया” ।

इस प्रकार जब रणजीत की पूर्वीय विस्तार की महत्त्वाकांक्षा व्यर्थ हो गयी, तब इसने उत्तर, उत्तर-पश्चिम और पश्चिम में रास्ते चाहे । १८०९ ई॰ से १८११ ई॰ तक गुर्खो से अपने संघर्षों में वे सफल हार तथा काँगड़ा ले पर कब्जा कर लिया ।

जुलाई, १८१३ ई॰ को उन्होंने हैदारू में अफगानों को करारी हार दी तथा अटक पर अधिकार कर लिया । यह सीमा के लिए कुंजी का काम करता था । इस नगर की रक्षा के लिए उन्होंने वहाँ मजबूत सेनादल रखने का प्रबंध कर दिया ।

अफगान राजा शाह शुजा ने अफगानिस्तान से भगाये जाकर लाहौर में शरण ली (१८१३-१८१४ ई॰) जब रणजीत ने उससे जगत्प्रसिद्ध कोहेनूर हीरा ले लिया । शाह शुजा अप्रैल, १८१५ ई॰ में लाहौर से भागने में सफल हुआ । वह ब्रिटिश प्रभाव-क्षेत्र के अंतर्गत लुधियाना में चला आया ।

अनेक प्रयत्नों के बाद, रणजीत ने १८१८ ई॰ में मुलतान पर अधिकार जमा लिया तथा १८१९ ई॰ में काश्मीर पर कब्जा कर लिया । पेशावर भी १८२३ ई॰ में उनके अधीन हो गया । इस प्रकार सन् १८२४ ई॰ तक सिंधु की घाटी का सब से बड़ा भाग रणजीत के राज्य के अंतर्गत हो गया ।

लार्ड विलियम बेंटिंक ने भारत पर संभावित रूसी मनसूबों के विरुद्ध इस बढ़ते हुए सिख राज्य का बफर स्टेट के रूप में उपयोग करना चाहा । इस उद्देश्य से वह अक्टूबर, १८३१ ई॰ में सतलज के किनारे स्थित रूप में रणजीत सिंह से मिला तथा उनसे मित्रता की संधि को फिर से नया करा लिया ।

६ मई, १८३४ ई॰ को पेशावर का किला सिख सेनापति हरि सिंह नौला (नलवा) द्वारा जीत लिया गया तथा पेशावर विधिवत् सिख नियंत्रण में चला गया । किन्तु अफगानों के सम्बन्ध में रणजीत की अगली महत्त्वाकांक्षाओं को अंग्रेजों ने रोक दिया । सिंध के राज्य ने भी सिख विस्तार का धक्का महसूस किया ।

सच पूछिए, तो रणजीत के लिए सिंध पर अधिकार जमाना महत्वपूर्ण था, क्योंकि इससे उनके राज्य का ठोसपन बढ़ जाता । वस्तुत: सिंध और पंजाब “सिंधु के प्रांत” थे, “जिस प्रकार बंगाल और बिहार गंगा के प्रांत है” ! किन्तु यहां भी उनकी चाल को अंग्रेजों ने पहले ही भाँप लिया तथा उन्हें रोक दिया ।

फिर भी, रणजीत अपने जीवनकाल में एक ऐसे राज्य को स्थापित करने में सफल हुए, जो विस्तार में बड़ा था तथा प्रसिद्धि से पूर्ण था । २७ जून, १८३९ ई॰ को उनसठ की उम्र में उनकी मृत्य हुई । रणजीत सिंह आधुनिक भारत के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्तियों में हैं ।

उनका शारीरिक रूप कोई खास सुंदर न था शीतला के कारण उनकी बायीं आँख चली गयी थी । लेकिन उनके आचरण और ढंग आनंदप्रद थे तथा उनके लक्षण प्रेरणा प्रदान करते थे । कनिंगहम लिखता है कि वे “अपनी साधना में परिश्रमी थे; वे प्रसिद्ध पुण्यात्मा पुरुषों की प्रतिष्ठा करते थे तथा उन्हें अधिक दानशील होने में समर्थ बनाते थे प्रत्येक सफलता को वे ईश्वर-कृपा मानते थे तथा अपने को एवं अपनी प्रजा को संयुक्त रूप से गोविंद का ‘खालसा’ या संघ कहते थे” ।

रणजीत मनुष्यों के जन्मजात शासक थे । यह सही है कि अखिल-सिखवाद का उनका आदर्श मूर्त नहीं हो सका, क्योंकि अंग्रेजों ने सिस-सतलज राज्यों की ओर से हस्तक्षेप कर दिया । लेकिन, युद्धरत सिख राज्यों को एक ठोस राष्ट्रीय राजतंत्र का आश्चर्य- जनक रूप देने में उन्हें सफलता मिली और इसी कारण वे प्रधानतया प्रसिद्धि के भागी हैं ।

उनका एक जीवनी-लेखक सर लेपेल ग्रिफिन कहता है- “हम तभी उन्हें एक वीर, मनुष्यों का एक शासक, तथा इतिहास द्वारा समादृत होनेवाले एवं निर्विवाद रूप से महत्ता के अधिकारी इने-गिने व्यक्तियों के मंदिर के एकदम भीतरी भाग में एक स्थान के योग्य साबित करने में सफल हो सकते हैं, जब कि हम अपने मस्तिष्कों को पूर्व-संस्कार (पक्षपात) से मुक्त कर लें तथा परंपरागत गुण का ख्याल न करके केवल उन्हीं बिरल गुणों को देखें, जो मनुष्य को उसके अनुयायियों से एकदम ऊपर उठा देते हैं । तब हम तुरंत यह मान लेंगे कि यद्यपि वे अपने समय और शिक्षा के साधारण और निकृष्ट दोषों के पूरे हकदार थे, तथापि उन्होंने अपनी सैनिक प्रतिभा से जीते देश पर इच्छा-शक्ति और उस योग्यता के साथ राज्य किया, जिसने उन्हें उस सदी के राजनीतिज्ञों की अगली पंक्ति में बैठा दिया ।”

रणजीत के दरबार के एक फ्रांसीसी यात्री विक्टर जैक्वीमौं ने उन्हें “एक असाधारण पुरुष-छोटे पैमाने पर एक बोनापार्ट” कहा है । सिख सरदार “वस्तुत: बहादुर थे, पर कला के रूप में युद्ध से अपरिचित” थे । पहले इन्हीं सिख सरदारों से सामंतवादी तरीके से सैन्य-संग्रह होता था ।

रणजीत ने जिस काम को अपने ऊपर लिया था, उसके लिए उन्होंने एक मजबूत सेना की जरूरत अच्छी तरह महसूस की । इसलिए उन्होंने इस प्रथा को एक मजबूत और योग्य राष्ट्रीय सेना के रूप में बिलकुल बदल डाला । यह सेना पूर्णतया उनके कमान में रहती थी ।

हंटर के मतानुसार “स्थिरता और धार्मिक जोश में ओलिवर कौम्‌वेल के ‘आयरनसाइड्‌स’ (लौह-सैनिकों) के बाद से” इस सेना का “कोई जोड़ा नहीं है” । स्वयं रणजीत ने ही सैनिक सुधार का सूत्रपात किया । उनकी सेना का अधिकांश सिखों से निर्मित हुआ ।

अलार्ड, बेंतुरा, कोर्ट, अविटेबिल और दूसरों के समान विभिन्न जातियों के यूरोपियन अफसरों ने, जिनमें से कुछ को यूरोप के नेपोलियन-संबंधी युद्धों का अनुभव भी प्राप्त था, इस काम में उनकी सहायता की । फिर भी उनकी सेना अन्तर्राष्ट्रीय नहीं हुई तथा वे इस पर सदैव कड़ा नियंत्रण रखते थे । उनकी गोलंदाज फौज बहुत योग्य थी ।

महान् विजयी होने पर भी रणजीत स्वभाव के कड़े न थे, बल्कि, दूसरी ओर, वे अपने पराजित शत्रुओं के प्रति दया और विचारशीलता दिखलाते थे । बैरन कार्ल वौन हमल नामक एक जर्मन यात्री १८३५ ई॰ में रणजीत के दरबार में गया था ।

वह हमें बतलाता है कि उन्होंने कभी भी “उद्देश्यहीन ढंग से अपने हाथ खून में नहीं रँगे । शायद कभी भी इतना बड़ा साम्राज्य एक मनुष्य द्वारा इतनी कम अपराधशीलता के साथ स्थापित नहीं हुआ ।”

रणजीत वस्तुत: एक मजबूत शासक थे । अपनी सरकार पर उनका पूर्ण नियंत्रण रहता था । लेकिन वे वैसे निरंकुश शासक न थे जिसका “मस्तिष्क अति-केंद्रीकरण के विचार से आविष्ट होता है” । उनकी सरकार में “अप्रधान अधिकार” सुरक्षित रहते थे । उनके असैनिक शासन में विस्तृत कानून, निश्चित न्यायपालिका या योग्य पुलिस-जैसी एक सुसंगठित शासन की कुछ विशेषताओं का अभाव था । फिर भी यह अनुचित रूप से कठोर न था ।

एक समकालीन ब्रिटिश अफसर रिपोर्ट करता है- “ठोस तरीके से स्थित एक राज्य में उन्होंने उन सुधारों में अपने को लगाया है जो केवल महान् मस्तिष्कों से ही निकलते हैं और यहाँ हम पाते हैं निरंकुश शासन जो अपनी कठोरताओं से रहित है, एक निरंकुश शासक जो निष्ठुरता से शून्य है, तथा एक शासन-प्रणाली जो पूर्व को देशी संस्थाओं से बहुत ऊपर है यद्यपि यूरोप की सभ्यता से दूर है ।” शिल्प और व्याप रणजीत के राज्य में उन्नति पर थे ।

अंग्रेज लेखकों ने सिख राजा की उसकी “ईस्ट इंडिया कम्पनी की ताकत की राजनीतिज्ञोचित स्वीकृति, ब्रिटिश प्रतिज्ञाओं के प्रति विश्वास तथा अपने दिये वचन के प्रति वफादारी” के लिए प्रशंसा की है । इस बारे में वे हैदर और टीपू दोनों से भिन्न थे । किन्तु कुछ आलोचकों का कहना है कि अंग्रेजों के प्रति अपने व्यवहारों में उन्होंने निर्भीकता और साहसपूर्ण राजनीतिज्ञता का अभाव दखलाया ।

उन्होंने सिख राज्य का सर्जन किया उन्होंने एक बार कहा था- “सब लाल हो जाएगा” । इससे पता चलता है कि आपत्ति की पूर्व सूचना थी । फिर भी उन्होंने ब्रिटिश आधिपत्य रोकने का कोई उपाय न किया । इसके बदले में उन्होंने कम-से-कम प्रतिरोध की नीति अपनायी ।

प्रथम अंग्रेज-सिख-युद्ध (First British-Sikh War): 

रणजीत ने जो सिख सैनिक राजतंत्र का ढाँचा खड़ा किया, उसे बहुत समय तक टिका रहना नहीं बदा था । जैसा कि ऐसी प्रणालियों में होता है, इसका चालू रहन अथवा वृद्धि प्राप्त करना एक मजबूत व्यक्तित्व के मार्ग-प्रदर्शन पर निर्भर था । यह उस समय और भी आवश्यक था, जब कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद तेजी से बढ़ रह था । जिस समय रणजीत ने इस संसार से कूच किया, उस समय सिख अपनी शक्ति की चरम सीमा पर थे । किन्तु, जैसा कि जनरल सर जे. एच. गौर्डन कहता है, “इसके बाद यह जोर से फट पड़ी तथा भयंकर परंतु क्षीण होती हुई ज्वालाओं में विलुप्त हो

गयी” ।

सच पूछिए, तो रणजीत का देहावसान उनके राज्य के भीतर अराजकता और गड़बड़ी के प्रारम्भ का संकेत था । इनके बहुत समय तक टिकने से सिख शक्ति बहुत कमजोर पड़ गयी तया अंत में इसे अंग्रेजों के सामने घुटने टेक देने पड़े । एक-के-बाद-दूसरा कमजोर शासक बड़ी फुर्ती से गद्दी से उतारा गया । अंत में १८४३ ई॰ में दलीप सिंह नामक एक अल्पवयस्क बालक राजा माना गया तथा उसकी माता रानी झिंदन संरक्षिका (रीजेंट) बनी ।

इस युग के संघर्षों और खलबलियों के कारण केंद्रीय असैनिक सरकार एकाएक गिर पड़ी तथा खालसा सेना ने, अपने प्रतिनिधि पंचायतों (पाँच की समितियों) द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । सेना पर किसी मजबूत शक्ति की रोकथाम न रही । वह अशासनीय और भयंकर हो उठी तथा एक तौर से राज्य की डिक्टेटर बन बैठी ।

लाहौर दरबार सेना पर नियंत्रण रखने अथवा खुल्लम-खुल्ला इसकी अवहेलना करने में असमर्थ हो गया । इसे गहरी चिंता सताने लगी कि किस प्रकार इस भयानक क्लेशदायक शक्ति से छुटकारा पाया जाए । इसलिए इसने यह उपाय निकाला कि इसे (सेना को) ब्रिटिश राज्य पर आक्रमण करने में प्रवृत्त किया जाए ।

इसका विश्वास था कि या तो सेना अंग्रेजों से अपने युद्ध के दौरान में पूर्णतया विनष्ट हो जाएगी अथवा विजय-यात्रा में इसकी “अत्यधिक शक्तियाँ” समाप्त हो जाएँगी । इस प्रकार स्थिति यह थी कि अपने नेताओं के आधे मन से काम करने के कारण सिख पक्ष का युद्ध छिड़ने के पहले ही करीब-करीब ट-निर्णय हो गया । जैसा कि राबर्ट्स बतलाता है, अंग्रेज “एक उत्तम सेना से” लड़े, “जिसका कोई सेनापति न था, अथवा, कम-से-कम जिसमें एक सर्वोच्च मियंत्रणकारी मस्तिष्क का अभाव था” ।

दरबार के कारनामों के अतिरिक्त, अंग्रेजों की ओर से भी कुछ उत्तेजनाजनक हुए । इन कामों से सिख सेना को पूरा विश्वास हो गया कि “उनके विशाल पड़ोसी” की इच्छा उनका देश लेने तथा उनकी स्वतंत्रता नष्ट करने की है । इन कामों उसे युद्ध करने को उकसाया । अंग्रेजों ने सतलज की ओर सैनिकों की टुकड़ियाँ भेजीं ।

१८४४ ई॰ और १८४५ ई॰ में वे सतलज के आरपार पुल बनाने के उद्देश्य से बम्बई में नावें तैयार कर रहे थे । मुलतान पर आक्रमण करने के लिए सिंध के नवविजित राज्य में सिपाहियों को आवश्यक वस्तुओं से सजाया जाने लगा । उत्तरी-पश्चिमी जिलों में नगर-रक्षा के लिए नियुक्त सेनादलों को धीरे-धीरे मजबूत किया जाने लगा । कनिंगहम लिखता है कि सिख सेना को यह सब “प्रतिरक्षात्मक काम न मालूम होकर आक्रमणात्मक काम मालूम पड़ा” ।

इस प्रकार, ऐसे समय में जब कि ईस्ट इंडिया कम्पनी निश्चित रूप से संयोजन की नीति वरतती आ रही थी, सिख सेना की सिख राज्य पर ब्रिटिश आक्रमण की आशंका निराधार नहीं थी । खालसा ने ११ दिसम्बर, १८४५ ई॰ को निर्विरोध सतलज पार की । इसका कारण यह नहीं था कि अंग्रेजों की ओर से तैयारियों की कोई कमी थी ।

बल्कि सच्ची बात तो यह थी कि सरहदी जिलों में अंग्रेजी सेना पहले से ही अधिक मजबूत कर दी गयी थी तथा बढ़ाकर चालीस हजार आदमी और सौ बंदूकें कर दी गयी थी । इस निर्विरोध पार करने की वास्तविक वजह थी फीरोजपुर के ब्रिटिश नायक मेजर ब्रौडफूट की व्यक्तिगत रूप से मिथ्या धारणाएं तथा लापरवाही ।

गवर्नर-जनरल सर हेनरी (पीछे लार्ड) हार्डिज अवसर के उपयुक्त तुरंत ऊपर उठ गया । उसने १३ दिसम्बर, १८४५ ई॰ को युद्ध का एलान कर दिया तथा घोषणा कर दी कि सतलज के बायें किनारे के सिखों के सभी अधिकृत स्थान जब्त कर लिये गये और ब्रिटिश राज्य में मिला लिये गये ।

पहली लड़ाई मुदकी में लड़ी गयी । वह स्थान फीरोजपुर से बीस मील दक्षिण-पूर्व स्थित है । लड़ाई तीव्र और रक्तमय रहा । एक ओर ब्रिटिश सैनिकों की मिली हुई अंत्राला और लुधियाना शाखाएँ थी, जिनका नायक सर हयू गफ था ।

दूसरी ओर मिख सेना थी, जो लाल सिंह के अधीन थी । साहसी सिख पैदल सेना ने ताकत के साथ मिपाहियों और यूरोपियन सैनिकों पर हमला किया । शत्रु का निशाना ऐसा अचूक था कि पहलें तो सिपाही और यूरोपियन सैनिक लड़खड़ा गये । लेकिन ऐन मौके पर लाल सिंह के आलस्य ने सारा गुड़ गोबर कर दिया ।

सिख अंत में पराजित हुए तथा उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा । अंग्रेजों को भी भारी हानि हुई उनके छ: सौ सत्तावन सैनिक घायल हुए तथा दो सौ पंद्रह, जिनमें जलालाबाद के प्रतिरक्षक मेजर जनरल सर राबर्ट सेल और मेजर-जनरल सर जौन मैक-कैस्किल भी थे मारे गये ।

इसके वाद ब्रिटिश सेना ने २१ दिसम्बर, १८४५ ई॰ को फीरोजशाह (फीरोजशहर) में सिखों पर हमला किया । यह स्थान सतलज से करीब बारह मीलों पर है । यहाँ सिख खाइयों से घेरकर पड़े हुए थे । उन्होंने डटकर भयानक प्रतिरोध किया । भयंकर गोलाबारी के द्वारा उन्होंने बटालियन (पदाति सेनादल) पर बटालियन को पीछे हटा दिया । अंग्रेजों के सामने वस्तुत: गंभीर परिस्थिति उपस्थित हो गयी ।

प्रधान सेनापति ने पीछे लिखा कि- “उस भयानक रात में हम लोग संकट और जोखिम की हालत में थे” । लेकिन बहादुर सिख वीरों को पुन: धोखा दिया गया । उनके सेनापति तेज सिंह ने अचानक मैदान छोड़ दिया । इस प्रकार सिखों ने अंत में लड़ाई छोड़ दी तथा सतलज के पार लौट गये । उनके शत्रुओं को बहुत आराम महसूस हुआ ।

मैलेसन कहता है कि- “यदि कोई मार्ग-प्रदर्शक मस्तिष्क सिख सेना की गति का निर्देशन करता होता, तो थके हुए अंग्रेजों को कोई बात नहीं बचा सकती” । दोनों ओर भारी नुकसान हुए । अंग्रेजों की ओर से छ: सौ चौरानवे मनुष्य मारे गये जिनमें एक सौ तीन अफसर भी थे तथा सत्रह सौ इक्कीस घायल हुए । सिखों को आठ हजार आदमियों और तिहत्तर बंदूकों का घाटा रहा ।

फीरोजशाह में हुई अपनी विजय के बाद ब्रिटिश सेना दिल्ली से बंदूकें, लड़ाई के सामान (गोला-बारूद आदि) एवं भोजन-सामग्री आने का रास्ता देखती रही तथा इस कारण कुछ समय के लिए कुछ पंगु (“लकवा-ग्रस्त”) जैसी बनी रही ।

इसी समय सिखों ने जनवरी, १८४६ ई॰ में रंजर सिंह मझीठिया के अधीन फिर सतलज को पार किया तथा लुधियाना के सीमा-स्टेशन पर हमला कर दिया । खालसा की गति को रोकने के लिए सर हैरी स्मिथ (पीछे केप कोलोनी का गवर्नर) भेजा गया ।

वह २१ जनवरी को बुडीवल के अव्यवस्थित युद्ध में पराजित हुआ । तत्पश्चात् अतिरिक्त सैनिक आने पर उसने २८ जनवरी, १८४६ ई॰ को लुधियाना के पश्चिम अलीवाल नामक स्थान पर सिखों को, उनके वीरतापूर्ण प्रतिरोध के बावजूद, हरा दिया । पराजित सेना सड़सठ बंदूकों से वंचित हुई तथा सतलज के उस पार भगा दी गयी ।

अंतिम लड़ाई सतलज पर सोबराँव में हुई । यहाँ सिख सेना का मुख्य भाग मजबूती के साथ खाइयों से घेरकर पड़ा हुआ था । यहाँ भी सिख सैनिकों ने आश्चर्यजनक स्थिरता और दृढ़ता दिखलायी । वे १० फरवरी को सबेरे तड़के से ही “वीरों की बहादुरी से, धर्मयुद्ध वालों (क्रूसेडरों) के उत्साह से तथा उन धर्मोन्मत्त व्यक्तियों की नैराश्यजनित निर्भीकता से” लड़ने लगे, “जो शत्रु को पराजित करने अथवा तलवार हाथ में रखे मर जाने की कसम खा लिये होते हैं” ।

किन्तु यह सब व्यर्थ सिद्ध हुआ । शाम सिंह के प्रतिष्ठित अपवाद को छोड्‌कर करीब-करीब सभी सिख सेनापतियों ने उत्साहहीनता और विश्वासघात का परिचय दिया । करीब एक बजे दिन तक सिख पराजित हो गये तथा उनकी भयंकर खाइयों को ब्रिटिश सेना ने तहस-नहस कर डाला । सतलज पार करते समय बड़ी संख्या में सिख क्रुद्ध ब्रिटिश सैनिकों द्वारा भुन डाले गये । अंग्रेजों की ओर से तीन सौ बीस मारे गये तथा दो हजार तिरासी घायल हुए ।

सोबराँव में हुई अंग्रेजों की विजय निर्णयकारी प्रकृति की थी । वे “भारत में सामना किये जानेवाले सब से बहादुर और स्थिर शत्रु” के खतरे से छुटकारा पा गये, जिसने ऊपरी प्रांतों में ब्रिटिश राज्य की इमारत को बिलकुल नीच तक करीब-करीब झकझोर दिया था । इंगलैंड के अधिकारी सिखों के पतन से प्रसन्न हुए, जो उचित ही था ।

उन्होंने, अत्यंत महत्व की इन देदीप्यमान विजयों के पुरस्कार-स्वरूप, गवर्नर-जनरल सर हेनरी हार्डिज और प्रधान सेनापति सर हयू गफ को पियर (लार्ड) बना दिया तथा सभी साधारण सैनिक-गणों में धड़ल्ले से सम्मानों एवं अनुग्रहों का वितरण किया ।

विजयो ब्रिटिश सेना के साथ गवर्नर-जनरल ने १३ फरवरी को नावों के पुल द्वारा सतलज पार की तथा २० फरवरी को लाहौर पर अधिकार कर लिया । सिख अब पूर्णरूप से पराजित हो गये । अब उनके लिए लार्ड हार्डिज द्वारा दी गयी किसी भी शर्त को मानने के सिवा दूसरा कोई चारा न था । लेकिन वह पंजाब को पूर्ण रूप में ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने में हिचका । कारण यह था कि इस काम के लिए उसके पास जितनी सेना थी उससे अधिक की जरूरत होती । उसने सहायक संधि वाले तरीके को भी छोड़ दिया, क्योंकि भविष्य में इससे हानियाँ होतीं ।

९ मार्च, १८४६ ई॰ को उसने पराजित सिखों से उनकी राजधानी में ही एक संधि लिखवायी । इसके अनुसार सिख सतलज की बायीं ओर का संपूर्ण प्रदेश तथा सतलज और व्यास के बीच स्थित विस्तृत जालंधर दोआब अंग्रेजों को देने को बाध्य हुए । लाहौर दरबार को डेढ़ करोड़ रुपयों का लड़ाई का भारी हर्जाना अदा करना पड़ा ।

कुछ रुपये नकद दिये गये तथा शेष के बदले में काश्मीर और हजारा के सहित व्यास और सिंधु के बीच के पहाड़ी जिले अंग्रेजों को दे दिये गये । सिख सेना घटाकर पचीस बटालियन पैदल तथा बारह हजार घुड़सवार कर दी गयी । जो बंदूकें पहले जीत ली गयी थीं उनके अतिरिक्त छत्तीस बंदूकें अंग्रेजों को अर्पित कर दी गयीं ।

ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बिना सिखों को कोई ब्रिटिश, यूरोपियन या अमेरिकन प्रजा रखने तथा अपने राज्य की सीमाएँ बदलने की मनाही हो गयी । अल्पवयस्क दलीप सिंह महाराजा मान लिया गया । रानी झिंदन उसकी संरक्षिका बनी । लाल सिंह मुख्य मंत्री बना ।

गवर्नर-जनरल ने लाहौर राज्य के आंतरिक शासन में हस्तक्षेप न करना स्वीकार किया । लेकिन १८४६ ई॰ के अंत तक लाहौर में एक ब्रिटिश सेना का रखा जाना तय हुआ, जो इतनी बड़ी हो कि महाराजा के शरीर की रक्षा कर सके । हेनरी लारेंस वहाँ का ब्रिटिश रेजिडेट नियुक्त हुआ ।

लाहौर राज्य का आकार घटाने के लिए अंग्रेजों ने काश्मीर को लाहौर दरबार के एक सरदार गुलाब सिंह के हाथों दस लाख स्टर्लिग में बेच दिया । इसके लिए १६ मार्च को अमृतसर में अलग संधि हुई ।

कनिगहम कहता है: “यदि सिखों की शक्ति घटाने की नीति को ही ध्यान में रखें, तो यह प्रबंध दक्षतापूर्ण था । लेकिन यह कारवाई ब्रिटिश नाम और महत्ता के योग्य नहीं मालूम पड़ती । जब यह विचारा जाता है कि युद्ध छिड़ने के पहले गुलाब सिंह ने अपने सर्वोच्च शासक को जुर्माने के रूप में अड़सठ लाख रुपये देना स्वीकार कर लिया था तथा यह भी कि पूर्व और पश्चिम दोनों की प्रथा के अनुसार सामंत को विदेशी युद्ध एवं घरेलू झगड़े में अपने स्वामी की सहायता करनी पड़ती है, तब उच्च और भी मजबूत बन जाते हैं । इस प्रकार गुलाब सिंह को लाहौर की प्रजा होने के नाते बाकी रुपयों को अदा कर देना चाहिए था, न कि उसे एक स्वतंत्र राजा की हैसियत से लाहौर राज्य के प्रांतों का मालिक बना दिया जाना चाहिए था ।”

कुछ समय बाद उत्पात शुरू हो गये । खासकर, लाल सिंह के उकसाने से गुलाब सिंह के विरुद्ध विद्रोह उठ खड़ा हुआ । लाल सिंह को इस अपराध के लिए हटा दिया गया । इन उत्पातों का फल यह हुआ कि लाहौर की पुरानी संधि १६ दिसम्बर, १८४६ ई॰ को इस कदर दुहरा दी गयी, जिसमें पंजाब अंग्रेजों के अधिक प्रभावकारी नियंत्रण में आ गया ।

इसके अनुसार लाहौर सरकार आठ सिख सरदारों की संरक्षक-परिषद् (कौंसिल ऑफ रीजेंसी) के हाथों में सौंप दी गयी, जिन्हें ब्रिटिश रेजिडेंट की एक तौर की तानाशाही (डिक्टेटरशिप) के अधीन काम करना था ।

एक ब्रिटिश सेना का लाहौर में रखा जाना तय हुआ । लाहौर की सरकार को इस सेना के खर्च के लिए छब्बीस लाख रुपये देना था । इस बात का उल्लेख कर दिया गया कि नवीन प्रबंध ४ सितम्बर, १८५४ ई॰ को महाराजा के बालिग होने तक चालू रहेगा, अथवा उस समय तक चालू रहेगा, जब तक गवर्नर-जनरल और लाहौर दरबार आवश्यक समझेंगे ।

ब्रिटिश रेजिडेंट सर हेनरी लारेंस ने लार्ड हार्डिंज के साथ ही १८ जनवरी, १८४८ ई॰ को जलमार्ग से इंगलैड के लिए प्रस्थान किया । कुछ समय तक उसके भाई सर जान (पीछे लार्ड) लारेंस ने उसका पद सुशोभित किया । तत्पश्चात् वह पद ६ अप्रैल, १८४८ ई॰ को सर फ्रेडरिक कुरी को दिया गया ।

द्वितीय अंग्रेज-सिख-युद्ध तथा पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया जाना (Second British-Sikh War and Integration of Punjab into the British Empire):

लार्ड हार्डिज ने पंजाब में सिख सरदारों के न थ जो बंदोबस्त किया था, उसमें “स्थायित्व की आशाओं” का अभाव था । सिख जनता के पीछे ज्वलंत उपलब्धियों की परंपराएं थी तथा उसने बिलकुल हाल में भयकर संकल्प के साथ अंग्रेजों का विरोध किया था । इसलिए यदि सिख सेना की पराजय हुई, तो इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि सिख जनता के बीच में राष्ट्रीय भावनाओं का विनाश हो गया । उसने अपने नेताओं के विश्वासघात को अपने अपमान का कारण समझा, जो ठीक ही था ।

वह पंजाब में अंग्रेजों के प्रभुत्व से खीझ उठी । राजमाता रानी झिंदन पर ब्रिटिश रेजिडेंट के विरुद्ध पड्‌यंत्र करने का अभियोग लगाया गया तथा वह लाहौर से हटा दी गयी । इससे सिख जनता का असंतोष बढ़ गया । राष्ट्रीय विद्रोह के रूप में एक प्रचंड विस्फोट समीप आने लगा । असंतुष्ट सिखों और उनके विजयी शत्रुओं के बीच शक्ति की एक दूसरी परीक्षा अवश्यंभावी हो गयी और यह बहुत शीघ्र आ भी गयी । मुलतान शहर की एक घटना ने इसे तात्कालिक अवसर प्रदान कर दिया ।

मुलतान का गवर्नर दीवान मूलराज वित्तीय संकट में पड़ गया । कारण यह हुआ कि उसके जिले में राजस्व-संग्रह में कमी आ गयी । लाहौर दरबार ने उसके पद की कीमत के रूप में उसे दस लाख स्टर्लिग देने के लिए उस पर दबाव डाला । इस पर क्रोध में उसने मार्च, १८४८ ई॰ में पद-त्यागकर दिया ।

लाहौर दरबार ने उसके स्थान पर सरदार खान सिंह को नियुक्त किया तथा सिविल सर्विस के वैस अगतिक एवं बम्बई यूरोपियन रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट एंडरसन नामक दो नवयुवक ब्रिटिश अफसरों के साथ उसे मुलतान का कार्यभार लेने को भेजा । ये दोनों अफसर २० अप्रैल को मार डाले गये ।

ऐसा समझा गया कि यह अपराध मूलराज के उकसाने पर ही किया गया था । मूलराज अंग्रेजों का प्रतिरोध करने के लिये तैयारियाँ भी करने लगा । प्रधान सेनापति लार्ड गफ और गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौजी ने विद्रोह के दबाने के लिए तत्काल कोई उपाय नहीं किया ।

उन्होंने जाड़े तक ठहरने का निर्णय किया । उनकी नीति उनके स्वदेश के अधिकारियों द्वारा स्वीकृत हो गयी यद्यपि कुछ क्षेत्रों में इसकी घोर आलोचना हुई । जो भी हो यह सच है कि उनके काम के पीछे राजनीतिक उद्देश्य थे । उन्होंने कई कठिनाइयों पर विचार किया । हमले दूर जगहों पर किये जाते ।

सैनिकों को गर्मी के मौसम और बरसात में एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता । इन कठिनाइयों के अतिरिक्त वे चाहते थे कि लाहौर सरकार को शक्ति ओर इसकी उपद्रव दबाने की क्षमता को नापा जाए, क्योंकि कानूनत: उसे ही यह काम करना था ।

वे यह भी चाहते थे कि केवल इसे ही दबाने की चेष्टा करने में ज्यादा जोखिम न लिया जाए, जब कि मुलतान में एक व्यापक विद्रोह के काफी चिह्न विद्यमान थे । सर्वोच्च सरकार (सुप्रीम गवर्नमेंट) की “ठहरो और देखो” नीति के बाबजूद, सिख संरक्षक-परिषद् के अधीन नियुक्त एक नवयुवक ब्रिटिश लेफ्टिनेट हर्बर्ट एडवर्डस तथा ब्रिटिश रेजिडेंट कुरी ने विद्रोह के दबाने और मुलतान पर घेरा डालने के कुछ असफल प्रयत्न किये ।

हजारा जिले के सिख गवर्नर छत्तर सिंह का बेटा शेर सिंह था । उसे ब्रिटिश रेजिडेंट ने मुलतान में घेरा डालनेवाले सैनिकों की सहायता करने को भेज दिया । रेजिडेंट का यह काम विवेकशून्य हुआ ।

शेर सिंह १४ सितम्बर, १८४८ ई॰ को मूलराज के पक्ष में जा मिला । रानी झिंदन के कारनामों ने सिख असंतोष की आग में घी का काम किया । अनुभवी सिख नेता शेर सिंह के चारों ओर जमा होने लगे । इस प्रकार मुलतान के विद्रोह ने शीघ्र ही सिख राष्ट्रीय आंदोलन का रूप धारण कर लिया ।

अवश्यभावी द्वितीय अंग्रेज-सिख-युद्ध प्रारंभ हो गया । इस बार सिरहों ने अपने पुराने शत्रु अफगानों को, पेशावर शहर सौंपने का प्रलोमन देकर, अपनी ओर मिला लिया था । इस समय तक लार्ड डलहौजी ने खुल्लमखुल्ला सिख राष्ट्रीय चुनौती का सामना करने का निश्चय कर लिया था ।

१० अक्टूबर, १८४८ ई॰ को उसने घोषणा की “सिख राष्ट्र ने युद्ध के लिए ललकारा है । पहले की घटना से उसने चेतावनी नहीं ली । उदाहरण से वह अप्रभावित रहा । तो महाशय, मैं गंभीरतापूर्वक घोषणा करता हूँ कि उसे यह (युद्ध) मिलेगा और भीषण रूप थे मिलेगा ।”

लार्ड गफ ने १६ नवम्बर को एक ब्रिटिश मेना के साथ रावी पार किया । चनाब पर रामनगर में शेर सिंह से उसका सामना हुआ, पर इसका कोई फल न निकला । तब सिखों ने और भी मजबूत. स्थिति में, खाइयों से घेरकर, अपने को चिलियान- वाला में रखा । यहीं १३ जनवरी, १८४९ ई॰ को भीषण युद्ध हुआ ।

“सभी उम्र के” सिख जान पर खेलकर कड़े तथा वीरतापूर्वक मैदान में शत्रु का सामना किया । अंत में अंग्रेजों ने भारी खर्च उठाकर एक ऐसी विजय प्राप्त की, जो पराजय के बराबर थी । उनके सैनिकों में छ: सौ दो मारे गये तथा सोलह सौ इक्यावन घायल हुए तीन रेजिमेंटों के झंडे और उनकी चार बंदूकेने छिन गयीं । सिखों को कुछ बहादुर सैनिकों और बारह बंदूकों से हाथ धोना पड़ा ।

मुलतान में ब्रिटिश सैनिकों का अधिक अच्छी सफलता मिली । २२ जनवरी १८४९ ई॰ को इसका किला जीत लिया गया । मूलराज पर एक सैनिक अदालत में विचार

हुआ । वह जीवन भर के लिये समुद्रों के पार भेज दिया गया । वहाँ शीघ्र ही उसके प्राण छूट गये ।

चिलियानवाला की ब्रिटिश क्षतियों के समाचार से भारत और इंगलैंड दोनों देशों में लार्ड गफ के विरुद्ध तीव्र आलोचनाएँ हुईं । कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स (निर्देशक-मंडल) ने उसे अधिकारच्युत कर उसके स्थान पर सर चार्ल्स नेपियर को नियुक्त किया । इस समय सिखों और उनके अफगान मित्रों को आपूर्ति की कमी पड़ गयी । अत: वे चिलियान- वाला के अपने मजबूत खाईदार स्थान से गुजरात चले आये ।

यह चनाब के समीप एक शहर है । सर चार्ल्स नेपियर के भारत पहुँचने के पहले ही लार्ड गफ सिखों और उनके अफगान मित्रों को इस स्थान पर २१ फरवरी, १८४९ ई॰ को एक करारी शिकस्त देने में समर्थ हुआ । गुजरात की इस लड़ाई में “प्रधानत: तोपों का काम पड़ा तथा यह तोपों की लड़ाई के रूप में प्रसिद्ध है” ।

सिख सैनिक पूर्ववत् दृढ़ साहस के साथ लडे । कंतु योग्य नेतृत्व के अभाव में उनकी पराजय हो गयी । मैलेसन कहता है “सिख जिस प्रकार लड़े उससे कोई दूसरी सेना अधिक अच्छी तरह नहीं लड़ सकती थी । साथ ही, कोई दूसरी सेना इतनी खराब तरह से संचालित भी नहीं हो सकती थी ।” सिखों को भारी क्षति उठानी पड़ी ।

उनकी पराजय पूर्ण हो गयी । अब आगे प्रतिरोध करने का कोई अवसर नहीं रह गया । ब्रिटिश क्षति अपेक्षाकृत कम हुई । केवल उनहत्तर मारे गये तथा छ: सौ सत्तर घायल हुए । उनकी विजय निर्णयकारी हुई । गवर्नर-जनरल कहता है कि गुजरात की लड़ाई को “भारत में ब्रिटिश युद्धकला के इतिहास में बराबर सब से स्मरणीय युद्धों में मानना पड़ेगा । यह अवसर की महत्ता के कारण जितनी स्मरणीय थी, उतनी ही मुठभेड़ के ज्वलंत और निर्णयकारी प्रश्न को लेकर भी थी ।”

१२ मार्च को शेर सिंह, छत्तर सिंह तथा सभी सिख सरदारों और सैनिकों ने अपने हथियार डाल दिये । सर वाल्टर गिल्‌बर्ट ने अफगानों की खैबर की घाटी और काबुल तक खदेड़ दिया । अब सिखों के लिए स्वतंत्रता की रक्षा करना संभव नहीं था । ३० मार्च, १८४९ ई॰ को लार्ड डलहौजी ने अपने उत्तरदायित्व पर एक घोषणा के द्वारा पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया । इस काम में उसने सर हेनरी लारेंस, लार्ड ऐलेनबरा और मंत्रिमंडल (कैबिनेट) की भी प्रतिकूल इच्छाओं की कोई परवाह न की ।

उसने घोषणा की- “चाहे यह हमारे पुराने विचारों और हमारे वर्तमान विचारों के कितना भी विरुद्ध क्यों न हो, पंजाब का मिलाया जाना हमारे लिए सब से उपयोगी नीति है, जिसका हमें अनुसरण करना चाहिए । मैं दृढ़तापूर्वक विश्वास करता हूँ कि हम एक मित्रतापूर्ण सिख शक्ति स्थापित करने में सफल नहीं होंगे ।”

इसमें संदेह नहीं कि गवर्नर-जनरल की साहसपूर्ण नीति ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक मूल्यवान् लाभ प्राप्त किया । इसने उसकी सीमाओं को “अफगानिस्तान के पहाड़ों की जड़ तक, जो भारत की प्राकृतिक सीमा है” ठेल दिया । अभागे बालक दलीप सिंह को दूसरों के पापों के लिए कष्ट झेलना पड़ा ।

उसे पाँच लाख रुपये वार्षिक की पेंशन से संतोष करना पड़ा । अपना माता रानी झिंदन के साथ वह इंगलैंड भेज दिया गया । अंत में उसने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया तथा कुछ समय तक नारफाक में एक इंगलैडदेशीय भूस्वामी की हैसियत में रहा । पीछे वह पंजाब लौट आया । वह अपने पुराने धर्म में फिर आ गया, किन्तु अपनी पुरानी स्थिति को न लौट सका । रानी झिंदन लंदन में मर गयी ।

पंजाब में ब्रिटिश राजनीतिक प्रभुता की स्थापना में जो सैनिक सफलता मिली थी, उसे सर हेनरी लारेंस, उसके भाई जौन लारेंस, हर्बर्ट एडवर्ड़स, जौन निकोलसन रिचार्ड अंगुल तथा बहुतेरे दूसरों-जैसे कुछ योग्य ब्रिटिश अफसरों के प्रशासनिक कामों द्वारा आगे बढ़ाया गया ।

इन अफसरों ने गवर्नर-जनरल की निगरानी में सेना, पुलिस, थाम, भूमि-राजस्व, उद्योग, कृषि इत्यादि प्रशासन की विविध शाखाओं में सुधार किये । प्रारंभ में गवर्नर-जनरल ने इन तीन सदस्यों का एक बोर्ड बना दिया-सर हेनरी लारेंस, जो इस बोर्ड का प्रेसिडेंट हुआ उसका भाई जौन लारेंस, तथा चार्ल्स जी॰ मैन्सेल, जिसे १८५१ ई॰ में हटना पड़ा और जिसके स्थान पर राबर्ट मांटगोमरी नियुक्त हुआ ।

किन्तु १८५३ ई॰ में बोर्ड उठा दिया गया, सर हेनरी लारेंस गवर्नर-जनरल का एजेंट बनाकर राजस्थान भेज दिया गया तथा जौन लारेंस पंजाब का प्रथम चीफ कमिश्नर बना दिया गया । अब से सिख ब्रिटिश साम्राज्य के स्वामिभक्त बन गये । उन्होंने द्वितीय अंग्रेज-बर्मी-युद्ध और १८५७-१८५९ ई॰ के गदर में वफादारी के साथ उनका पक्ष लिया ।