ब्रिटिश राज के दौरान भारत में सामाजिक और धार्मिक सुधार | Social and Religious Reforms in India during British Raj.
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की एक विशेष घटना है धर्म और समाज में सुधारात्मक क्रिया शीलता की जबर्दस्त लहर, जिसका पथ राजा राममोहन राय ने प्रशस्त कर दिया था । उस समय समाज और धर्म में जो बुराइयाँ एवं कुरीतियाँ थी उनकी सामान्य स्वीकृति थी । किन्तु, जैसा कि बहुधा होता है, सुधारात्मक उत्साह विभिन्न मार्गों का अनुसरण कर रहा था । कुछ पश्चिमी विचारों से इतने प्रभावित हुए कि वे अत्यंत सुधारवादी नीति का अनुसरण करने लगे । स्वभावत: इसकी प्रतिक्रिया हुई, जिसने कट्टरता की शक्तियों को मजबूत करना चाहा । इन दोनों छोरों के बीच में उदार विचारवाले सुधारक थे, जो कम-से-कम प्रतिरोध के रास्ते पर अधिक सावधानी से आगे बढ़ना चाहते थे ।
हम लोग अभी भी इस युग के इतने समीप है कि उस समय काम करनेवाली विभिन्न शक्तियों और उनसे निकलनेवाले परिणामों के मल्य को ठीक-ठीक नहीं आँक सकते । इसलिए हम केवल मुख्य आंदोलनों पर दृष्टिपात करेंगे । यह सुविधाजनक होगा कि उनका अध्ययन दो शीर्षकों के अंतर्गत किया जाए-प्रथमत: वे आंदोलन जिनका अंत कट्टर हिन्दू समाज की सीमा के बाहर किसी मंडली या धार्मिक संघ की स्थापना में हुआ; दूसरे, हिन्दुओं के विश्वास, रस्म-रिवाजों एवं प्रथाओं में सामान्य परिवर्तन ।
(क) ब्रह्म समाज (Brahma Samaj):
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प्रथम शीर्षक के अंतर्गत हमारा ध्यान मुख्य तौर से बाहर समाज पर जाता है । कारण यह है कि यह एक वैसे शक्तिशाली सुधार-आंदोलन की सब से अधिक उल्लेखनीय उपज है, जो उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में मानव-मस्तिष्कों को मथनेवाले नवीन विचारों एवं विश्वासों के आघात से पैदा हुई थी ।
राजा राममोहन राय द्वारा १८२८ ई॰ में संस्थापित एक ईश्वरवादी संगठन की चर्चा पहले ही की जा चुकी है । यह बाहर सभा के नाम से प्रसिद्ध था । यह वैसे लोगों की जमात थी, जो ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे और मूर्ति पूजा से अलग रहते थे । एक मकान बनवाया गया और ट्रस्टियों की एक सभा के हवाले किया गया ।
राजा ने ८ जनवरी, १८३० ई॰ को ट्रस्ट का दस्तावेज लिखवाया । इसमें उन्होंने निर्देश किया कि यह मकान एक महान् ईश्वर की पूजा के लिए “बिना भेदभाव के सब तरह के लोगों की सार्वजनिक सभा के स्थान के रूप में” प्रयुक्त होगा, किन्तु इसमें किसी मूर्ति का प्रवेश न होना चाहिए और न यहाँ किसी प्रकार का कर्मकांड ही होना चाहिए ।
एक सच्चे ईश्वर की सांप्रदायिकताहीन पूजा का यह प्रबंध ही आजकल बाहर समाज की संस्थापना के रूप में माना जाता है । फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि राममोहन राय ने कभी भी अपने को हिन्दू छोड़ और कुछ नहीं माना । वे अपने जीवन के अंतिम दिन तक जोर के साथ इस बात से इनकार करते रहे कि वे एक भिन्न पंथ (धर्म) की स्थापना कर रहे थे ।
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उस समय इसे बाहर सभा कहते थे । वहाँ उनकी साप्ताहिक सार्वजनिक उपासना के विस्तृत कार्यक्रम में कट्टर ब्राह्मणों द्वारा वेदपाठ सम्मिलित था तथा कोठरी में किसी भी अब्राह्मण का प्रवेश निषिद्ध था । राजा स्वयं अपनी मृत्यु तक ब्राह्मणों का यज्ञोपवीत धारण किये रहे ।
राजा राममोहन राय का इंगलैंड के लिए प्रस्थान और वहाँ बाद में उनकी मृत्यु से उनके संगठन की धीरे-धीरे अवनति होने लगी । इसमें नवजीवन-संचार करने का श्रेय रवींद्रनाथ के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर (१८१७-१९०५ ई॰) को है । उन्होंने १८३९ ई॰ में तत्वबोधिनी सभा नामक एक सांस्कृतिक संस्था स्थापित की और १८४३ ई॰ में विधिवत् नये धर्म में प्रवेश किया ।
उन्होंने एक इकरारनामा बनाया तथा दीक्षा का एक औपचारिक संस्कार चालू किया । इस प्रकार उन्होंने कुछ ढीले-ढाले संगठन को एक आध्यात्मिक भाईचारे में परिवर्तित कर दिया ।
देवेंद्रनाथ अपनी ‘तत्वबोधिनी पत्रिका’ से और कुछ प्रचारकों को निशुक्त करके भी नवीन सिद्धांत का प्रचार करने लगे । स्मरण रहे कि नवीन धर्म में दीक्षित होने का ढंग ‘महानिर्वाण तंत्र’ पर आधारित था तथा सस्था की मुखपत्रिका ‘तत्वबोधिनी पत्रिका’ ने खुले तौर पर घोषणा की कि वेद अपौरुषेय हैं और नवीन धर्म (चर्च) के धार्मिक विश्वासों के एकमात्र आधार हैं ।
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किन्तु नवीन धर्म के अनुयायियों का युवक वर्ग, जिसके नेता अक्षयकुमार दत्त थे, धीरे-धीरे वेदों की अकाटबता के सिद्धांत के प्रति आलोचनात्मक रुख दिखलाने लगा । देवेंद्रनाथ ने उनके प्रति सहानुभूति प्रकट की ।
उन्होंने उपनिषदों के चुने हुए एकेश्वरवादी अंशों का संग्रह किया तथा इस धर्म (चर्च) के लिए एक नया इकरारनामा तैयार किया । इसमें पुराने वेदांती इकरारनामे के स्थान पर प्राकृतिक और सार्वभौम ईश्वरवाद के सिद्धांत अंगीभूत कर लिये गये (१८५० ई॰) इस सफलता से उत्साहित होकर युवक वर्ग न केवल दूर तक प्रभाव डालनेवाले सामाजिक सुधारों की वकालत करने लगा, बल्कि उसने धार्मिक विश्वास की मौलिक धाराओं तक को शुष्क तर्क की कसौटी पर कसना चाहा ।
इस तर्कवादी दल को एक उल्लेखनीय रंगरूट मिल गया । ये थे केशवचंद्र सेन (१८३८-१८८४ ई॰) । इन्होंने १८५७ ई॰ में इस नवीन धर्म में प्रवेश किया । केशव चंद्र की उत्कट भक्ति, अदम्य उत्साह और अपूर्व वाग्मिता ने आंदोलन को लोकप्रिय बनाया तथा इसके सदस्यों की संख्या बढ़ा दी । साथ ही, वे इसके तर्कवादी सिद्धांतों को और आगे ले गये तथा उस चीज की नींव डाली, जिसे नवीन ब्राह्मवाद कह सकते है ।
उन्होंने पश्चात्ताप और प्रार्थना की सच्ची भावना भर दी तथा नवीन धर्म (चर्च) के पक्ष में सबल मनोभाव एवं भक्तिपूर्ण व्यग्रता का तत्व चलाया । केशव के अनुयायियों में नवीन मिशनरी उत्साह भर गया । इनमें से कुछ ने तो अपने सांसारिक काम भी छोड़ डाले तथा बंगाल भर में नवीन सिद्धांत का प्रचार करने में अपना पूरा समय देने लगे । केशव अपने विचारों का प्रचार करने के लिए स्वयं बम्बई और मद्रास गये ।
इन कामों के परिणाम बहुत जबर्दस्त निकले । १८६५ ई॰ समाप्त होने के पहले ५४ समाज (स्थानीय शाखाएँ हो गये । पचास बंगाल में, दो उत्तर-पश्चिमी प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में एक पंजाब में और एक मद्रास में ।
प्रारंभ में देवेंद्रनाथ ने केशव चंद्र की सेवाओं की बड़ी प्रशंसा की तथा बहुत-से अधिक पुराने सस्दयों की इच्छाओं की अवहेलना कर उन्हें चर्च का पुरोहित और समाज का सचिव बना दिया । लेकिन केशव एवं उनके दल के प्रगतिशील विचारों ने शीघ्र उन्हें पूज्य नेता से अलग कर डाला ।
उन्होंने अंतर्जातीय विवाह एवं विधवा-पुनर्विवाह की वकालत की और खुले तौर पर इन्हें मनाया । यही नहीं, उन्होंने जिद की कि यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण पुरोहित धर्मोपदेशकों के उच्च आसनों से उंपदेश न दें ।
समाज को राजा राममोहन राय द्वारा निर्धारित पुराने हिन्दू ढंगों से अलग जाने देने के बदले देवेंद्रनाथ ने, समाज के एकमात्र ट्रस्टी की हैसियत से, केशव एवं उनके अनुयायियों को सभी पदों और विश्वास एवं उत्तरदायित्व के स्थानों से बर्खास्त कर डाला ।
केशव ने चुनौती स्वीकार कर ली । उन्होंने एक अलग संगठन चलाया । ज्यादातर स्थानीय शाखाएँ इसीमें शामिल हो गयीं । इस प्रकार: सन् १८६५ ई॰ तक लाला समाज दो भागों में बँट गया-परिवर्तन-विरोधी (कट्टरपंथी) और प्रगतिशील ।
कट्टरपंथी दल में वे लोग थे जो एक ईश्वर में विश्वास रखते थे और मूर्तिपूजा नहीं मानते थे, किन्तु हिन्दू समाज से सारा सम्बन्ध नहीं हटाना चाहते थे । प्रगतिशील दल में वे थे जो प्रचलित हिन्दू-धर्म को बहुत संकीर्ण मानते थे तथा संस्कृत ग्रंथों के व्यवहार और हिन्दूधर्मपरक सामाजिक रस्म-रिवाजों के पालन से चिढ़ते थे ।
इस भारी फूट के बाद, देवेंद्रनाथ का संगठन आदि बाहर समाज चुपचाप हिन्दू धर्म का शुद्ध एकेश्वरवादी रूप मानता रहा तथा जानबूझ कर किसी भी प्रकार के सामाजिक सुधार या प्रचार का विरोधी बन बैठा । किन्तु यह शीघ्र अंधकार (अप्रसिद्धि) में लीन हो गया । राजा राममोहन राय द्वारा लाये हुए सुधार का युग समाप्त हो चुका था तथा अब एक क्रांति आगे बढ़ रही थी ।
केशव चंद्र सेन की नवस्थापित संस्था का नाम था “ब्रह्मा समाज ऑफ इंडिया” (भारत का ब्राह्म समाज) । केशव चंद्र के मार्ग-प्रदर्शन में यह संस्था खूब ही चल निकली । बंगाल भर में धर्म-प्रचार सम्बन्धी उद्योग हुए । यही नहीं, इसकी सीमाओं के बाहर भी दूर तक उद्योग हुए । फलस्वरूप स्थानीय चर्चों की संख्या में वृद्धि हो गयी ।
स्त्रियाँ सदस्याओं के रूप में सम्मिलित की गयीं । सामाजिक सुधार का एक संयत कार्यक्रम अपना लिया गया । पुनर्योवन प्राप्त संस्था की ये दो नवीन विशेषताएं थीं । यह मुख्यत: इसी के प्रयत्नों का फल था कि सरकार ने १८७२ ई॰ का तीसरा कानून पास किया ।
इसके अनुसार लड़कियों का समय के पूर्व विवाह और बहुविवाह उठा दिये गये तथा हिन्दु धर्म एवं इस्लाम-जैसे स्वीकृत धर्म न म लोगों को विधवा विवाह और अंतर्जातीय विवाह की आज्ञा मिल गयी । एक दूसरी खास विशेषता यह थी कि प्रचार के लिए वैष्णव ढंग का संकीर्तन अपना लिया गया ।
प्रारंभ में “जेसस केशव के प्रेरक एवं शिक्षक थे और अब चैतन्य आ पहुँचे । दोनों धाराओं ने मिल कर ऐसा संगम बनाया, जिसने शीघ्र नवीन और उल्लेखनीय परिणाम प्रस्तुत किये” । भक्ति-भावना ने सदस्यों को धर दबोचा । सच्चे वैष्णव ढंग से बहुत-से सदस्य एक-दूसरे के चरणों पर और विशेषकर केशव चंद्र सेन के चरणों पर दंडवत् करते थे । नेता के लिए तेजी से श्रद्धा बढ़ चली । धीरे-धीरे कुछ उन्हें पैंबर या दिव्य अवतार मानने लगे ।
“मानव-पूजा” की इन प्रथा से बाड़ा समाज में एक नयी फूट पैदा हुई । प्रगतिशील एवं तर्कवादी कुछ नयी बातों का तीव्र प्रतिवाद करने लगे । उन्होंने माँग की कि चर्चों के प्रबंध के लिए एक निश्चित संविधान तैयार किया जाना चाहिए । शीघ्र दूसरी बातें आ गय तथा दोनों वर्गों के बीच की खाईं चौड़ी हो चली ।
केशव नारी-शिक्षा और नारी-मुक्ति के सम्बन्ध में संयत विचार रखते थे । अधिक अग्रगामी वर्ग दूसरे छोर पर जाना चाहता था । केशव वहाँ तक जाने को तैयार न थे । उनका विचार था कि उच्चतर विश्वविद्यालयीय शिक्षा स्त्रियों के किए उपयुक्त न होगी तथा पुरुषों एवं स्त्रियों का खुल कर मिलना या पर्दा-प्रथा का पूर्ण बहिष्कार समाज के लिए बहुत खतरनाक है ।
अग्रगामी या प्रगतिशील वर्ग महान् नेता से मतभेद की इन महत्वपूर्ण बातों पर बहुत आंदोलित हो उठा । इसी समय मार्च १८७८ ई॰ में केशव की चौदह वर्षों की कन्या का कूचविहार के हिन्दू महाराजा के साथ विवाह हुआ । फलस्वरूप बाहर समाज में दूसरी बार फूट हुई । उनसे मतभेद रखनेवाले संस्था से पृथक् हो गये । उन्होंने १५ मई १८७८ ई॰ को एक अलग संगठन बनाया, जिसका नाम “साधारण ब्राह्म समाज” पड़ा । इस दल में महान् शक्ति थी ।
केशव के समाज (चर्च) की वही गति हुई, जो देवेंद्रनाथ के समाज की हुई थी-वह अपेक्षाकृत अंधकार में विलीन हो गया । ब्रह्मा आंदोलन की आत्मा अब मुख्यत: साधारण बाल समाज में निहित हें । करीब-करीब सभी प्रांतीय समाज इसीसे संबद्ध है ।
इस नवीन ‘समाज’ ने बराबर संविधानिकता के पथ का अनुसरण किया है तथा सामाजिक सुधार के एक अग्रगामी कार्यक्रम का समर्थन किया है । जहाँ तक समाज में स्त्रियों के स्थान की बात है, इसने पर्दा-प्रथा हटा कर, विधवा-पुर्नाविवाह लागू कर, बहुविवाह एव बाल-विवाह उठा कर और उच्चतर शिक्षा की व्यवस्था कर अत्यंत महत्वपूर्ण परिणाम प्राप्त किये है ।
यह दिलचस्प बात है कि हिन्दू समाज ने अधिकतर इन विचारों को अपना लिया है । इसने जाति की कठोरता को हटा दिया है । इस प्रकार इसने हिन्दू समाज के सम्मुख एक दूसरा ऐसा सुधार रखा है, जो हिन्दू समाज धीरे-धीरे स्वीकार कर रहा है । ऐसे कानून पास हो गये है, जिन्होंने हिन्दुओं में विधवा-पुनर्विवाह एव अंतर्जातीय विवाहों को वैध करार किया है ।
इस बात से यह झलकता है कि हिन्दू समाज पर ब्राह्म समाज की महान् प्रतिक्रिया हुई है । हिन्दू सामाजिक विचारों में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन क्रमिक रूप में एवं चुपचाप होते रहे है और हो रहे है । यह ब्रह्मा समाज के अप्रत्यक्ष प्रभाव का फल है ।
इसके दो उदाहरण दिये जा सकते हैं-सार्वजनिक और कभी-कभी सामाजिक उत्सवों तक में विभिन्न जातियों के बीच अंतर्भोजन तथा बिना जाति खोये हुए समुद्रपार विदेश- यात्रा ।
विचित्र बात यह है कि नवीन आंदोलन जिस प्रथम और मौलिक विचार से शुरू हुआ, वह था इसका एकेश्वरवाद एवं मूर्तिपूजा विरोध पर जोर और केवल इसीमें हिन्दू समाज को किसी उल्लेखनीय हद तक प्रभावित करने में यह असफल रह गया ।
(ख) प्रार्थना समाज (Prayer Society):
ब्राह्म समाज आदोलन धीरे-धीरे बंगाल के बाहर फैल गया । किन्तु केवल महाराष्ट्र में ही इसकी गहरी जड़ जमी, जहाँ इसके फलस्वरूप प्रार्थना समाज की स्थापना हुई । ब्रह्मा समाज के समान ही, एक ईश्वर की विवेकसंगत पूजा और सामाजिक सुधार इसके आदर्श बने ।
फिर भी, यह ठीक ही कहा गया है कि बंगालियों के भावप्रवण चरित्र और मराठों की व्यावहारिक चतुरतापूर्ण सामान्य बुद्धि के बीच जो अंतर है, वे दोनों संस्थाओं में स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित हैं, जो एक ही प्रकार की परिस्थितियों में उत्पन्न हुई थीं ।
ब्रह्मा समाज का प्रभाव महाराष्ट्र में १८४९ ई॰ में ही परिलक्षित हुआ था, जब कि परमहंस सभा स्थापित हुई थी । किन्तु यह अधिक समय तक नहीं टिकी और न इसका अधिक प्रभाव ही रहा ।
प्रार्थना समाज की स्थापना १८६७ ई॰ में केशव चंद्र सेन की उत्साहपूर्ण निगरानी में हुई । नाम का अंतर स्पष्टतया जानबूझ कर ही रखा गया था, क्योंकि हिन्दु धर्म के प्रति बंगाल के ब्रह्मा समाज के अनुयायियों का जो रुख था, उससे प्रार्थना समाजवालों का रुख भिन्न था ।
प्रार्थना समाज के अनुयायियों ने कभी “अपने को इस रूप में नहीं देखा कि वे सामान्य हिन्दू मत के बाहर और उसके पास ही एक नवीन धर्म या एक नवीन पंथ के अवलंबी हैं, बल्कि इसके अंतर्गत एक आंदोलन-मात्र हैं” ।
वे भक्तिभावपूर्ण आस्तिक जन थे तथा नामदेव, तुकाराम एवं रामदास-जैसे मराठा संतों की महान् धार्मिक परंपरा के अनुयायी थे । लेकिन धार्मिक चिंतन के बदले उन्होंने अपना मुख्य ध्यान सामाजिक सुधार की ओर लगाया, जैसे विभिन्न जातियों के बीच अंतभोंजन एवं अंतर्विवाह, विधवाओं का पुनर्विवाह, और स्त्रियों एवं दलित वर्गों की अवस्था में उन्नति ।
उन्होंने एक परित्यक्त शिशु-सदन एवं अनाथालय पंढरपुर में स्थापित किया और रात्रिपाठशालाएँ, एक विधवा-भवन, एक दलित वर्ग मिशन एवं इस तरह की अन्य उपयोगी संस्थाएँ कायम कीं । प्रार्थना समाज पश्चिम भारत में समाज-सुधार-सम्बन्धी बहुत-से कामों का केंद्र रहा है । इसकी सफलता मुख्यत: जस्टिस महादेव गोविंद राणडे (१८४२-१९०१ ई॰) के कारण है ।
जैसा कि सी॰ एफ॰ एंड्रूज ने लिखा, “भारत के नवीन सुधार के अंतिम अग्ऐर बहुत तरहों से अत्यंत टिकाऊ पहलू का उदय बम्बई प्रेसिडेंसी में हुआ है तथा यह (पहलू) जस्टिस राणडे के नाम के साथ बहुत घनिष्ठता से सम्बद्ध है” ।
उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन प्रार्थना समाज के उद्देश्यों के आगे बढ़ाने में लगाया । वे १८६१ ई॰ में स्थापित विधवा-विवाह-संघ के संस्थापकों में से थे । प्रसिद्ध दक्कन एडुकेशन सोसाइटी (दक्षिण शिक्षा समाज १८८४-८५ ई॰) उन्हीं की प्रेरणा से कायम हुई थी । उनका प्रभाव भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में दीख पड़ता है ।
उन्होंने कांग्रेस की वार्षिक सभा के साथ-साथ एक सामाजिक सम्मेलन करने की प्रथा चलायी । जस्टिस राणडे ने दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों की स्पष्ट व्याख्या की । प्रथमत: उन्होंने इस सत्य पर जोर डाला कि “सुधारक को संपूर्ण मनुष्य से निबटने की कोशिश करनी चाहिए, न कि केवल एक ही ओर सुधार चालू करने की” ।
“राणडे के लिए धर्म सामाजिक सुधार से उसी प्रकार अभिन्न था, जिस प्रकार मानव-प्रेम ईश्वर-प्रेम से अभिन्न है” । इस प्रकार उनके सुधार-सम्बन्धी विचार बहुत व्यापक थे ।
उन्होंने कहा- “जब आप अपने को राजनीतिक अधिकारों के तराजू पर नीचे पाते हैं, तब आप अच्छी सामाजिक प्रणाली नहीं रख सकते; और जब तक आपकी सामाजिक प्रणाली तर्क एवं न्याय पर आधारित नहीं होती, तब तक आप राजनीतिक अधिकारों का उपभोग करने लायक नहीं हो सकते । यदि आपके सामाजिक प्रबंध अपूर्ण हैं, तो आप अच्छी आर्थिक प्रणाली नहीं रख सकते । यदि आपके धार्मिक विचार नीच और हीनता-व्यंजक हैं, तो आप सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सफल नहीं हो सकते । यह अंतरकलंबन कोई आकस्मिक घटना नहीं है, अपितु यह हमारी प्रकृति का नियम है ।”
दूसरा महान् सिद्धांत, जिसपर राणडे ने जोर डाला, यह था कि भारत का समाज-शरीर वृद्धि दिखलाता है, जिसे उपेक्षित नहीं होना चाहिए और जो जबर्दस्ती दबाया नहीं जा सकता । उन्होंने कहा “हम लोगों में से ऐसे भी हैं, जो सोचते हैं कि सुधारक का काम यहीं तक सीमित है कि अतीत से नाता तोड़ने का साहसपूर्ण संकल्प किया जाए तथा अपना तर्क जिसे उचित और ठीक कहे, केवल उसे ही किया जाए । ऐसा सोचने में बहुत समय से बनी हुई आदतों और प्रवृत्तियों की शक्ति की उपेक्षा कर दी जाती है ।”
राणडे ने ऐसा कहने का साहस कर परिस्थितियों का अधिक वास्तविक ज्ञान प्रदाशत किया- “सच्चे सुधारक को किसी साफ स्लेट पर नहीं लिखना है । उसका काम बहुधा अर्धलिखित वाक्य को पूर्ण करना होता है ।”
राणडे का महान् संदेश था कतिपय भारतीय सुधारकों के अत्यधिक उत्साह के प्रति कड़ी किन्तु सामयिक चेतावनी । इससे भारतीय सुधारों को एक नवीन दिशा देने में बड़ी सहायता मिली है । राणडे का यह संक्षिप्त परिचय सी. एफ. एंड्रूज की निम्नलिखित प्रशंसा से समाप्त किया जा सकता है- “पहले जिन सुधारकों की चर्चा हो चुकी है उनमें राणडे अपने दृष्टिक्षेत्र की बड़ाई एवं अपने चरित्र की महत्ता में राजा राममोहन राय और सर सैयद अहमद खाँ के बिलकुल समीप चले आते हैं, किन्तु अपने रचनात्मक उद्देश्य की चौड़ाई, पश्चिमी सम्यता के आधारभूत की अपनी पहचान और भारतीय परिस्थितियां में उनके प्रयोग में वे इन दोनों की अपेक्षा अधिक अग्रगामी थे” ।
ब्रह्मा समाज और प्रार्थना समाज अधिकतर पश्चिम से संबद्ध विचारों के परिणाम थे तथा पश्चिमी तर्कवाद के प्रति भारतीय उत्तर को व्यक्त करते हैं । इनसे प्रकृति में बिलकुल भिन्न दो अन्य सुधार-आंदोलन थे, जिन्होंने भारत के अतीत से प्रेरणा प्राप्त की तथा उसके प्राचीन धर्मग्रंथों से अपने आधारभूत सिद्धांत लिये ।
(ग) आर्यसमाज (Aryasamaj):
कालक्रमानुसार इनमें पहला आर्य समाज है । इसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती (१८२४-१८८३ ई॰) ने की थी । वे संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे, किन्तु उन्हें अंग्रेजी शिक्षा नही मिली थी । उनका आदर्श वाक्य था, “वेदों की ओर लौट चलो” । उन्होंने वेदों के नमूने पर-बाद के सभी प्ररोहों को हटा कर-समाज की रचना करनी चाही ।
उन्होंने न केवल पुराणों-जैसे बाद के धर्मग्रंथों के अधिकार की अवहेलना की, बल्कि उन्हें इसकी घोषणा करने में कोई हिचक नहीं हुई कि ये स्वार्थी एवं ज्ञानहीन लोगों की रचनाएँ है । इसलिए उनका आधारभूत दृष्टिकोण ठीक वही था जो राजा राममोहन राय का था तथा दोनों के विस्तृत विचार एक बड़ी सीमा तक एक समान थे ।
राजा के समान दयानंद भा एक ईश्वर में विश्वास करते थे तथा बहुदेववाद एवं मूर्तिपूजा की निंदा करते थे । उन्होंने भी जातीय प्रतिबंधों, बाल-विवाह और समुद्र-यात्रा-निषेध के विरुद्ध अपनी आवाज उठायी तथा स्त्री-शिक्षा एवं विधवा-पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया । उन्होंने शुद्धि-आंदोलन भी प्रारंभ किया ।
इसका मतलब है गैरहिन्दुओं को हिन्दू धर्म में दीक्षित करना । यह तब से हिन्दू सुधार-आंदोलन की एक अत्यंत महत्वर्श्ण विशेषता बन गया है । निस्संदेह शुद्धि-आदोलन का उद्देश्य था “भारत को राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक रूप में एक करने के आदर्श को प्राप्त करना” ।
राजा राममोहन के समान दयानंद ने मुद्रित पुस्तकों के सहारे अपने विचारों को प्रकाशित किया । उनका सब से प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ है, “जिसने उनके सिद्धांत की व्याख्या की तथा इसे एक अनुपम सिद्धांत के रूप में रखा” । किन्तु उन दोनों में अंतर भी था ।
दयानंद ने सोधे जनता को उपदेश दिया-उन्होंने अपने उपदेशों को बौद्धिक श्रेष्ठव्यक्तिगण तक सीमित नहीं किया (जैसा राजा राममोहन ने किया था) । फलत: उनके अनूपायियों की संस्था तेजी से बढ़ चली तथा उनके उपदेशों ने विशेषकर पंजाब और युक्त प्रांत में गहरी जड पकड़ ली ।
यद्यपि दयानंद उसी आधारभूत सिद्धांत से चले जिससे राजा राममोहन चले थे, तथापि उनमें राजा राममोहन की आलोचनात्मक भावना का अभाव था । उन्होंने दावा किया कि “कोई भी मत या सिद्धांत जो आधुनिक काल में उत्पन्न माना जाता हैं वेदों के अंतर्गत सिद्ध किया जा सकता है” ।
अंतिम विश्लेषण करने पर उनका सामान्य सिद्धांत इसपर पहुँचता है कि “दयानंद ने वेदों की जो व्याख्या की है उसीमें सारा सत्य निहित है” । मगर दयानंद की व्याख्या पुराने हिन्दू और आधुनिक पश्चिमी भाष्यों से बहुत भिन्न है । अपनी स्पष्ट सीमाओं के बावजूद दयानंद निस्संदेह हिन्दू समाज में एक गतिशील शक्ति सिद्ध हुए ।
जनता के प्रति उनकी अपील को महान् सफलता मिली । इससे सभी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक सुधारकों की आँखें खुल गयीं । उनके एवं उनके अनुयायियों द्वारा किये गये सामाजिक और शैक्षिक काम के ठोस परिणाम हुए हैं । उनकी मृत्यु के बाद उनके काम को उनके अनुयायियों ने जारी रखा । इनमें प्रमुख थे लाला हंसराज, पंडित गुरुदत्त, लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद ।
मगर आर्य समाज वर्तमान युग की तर्कवादिता से नहीं बच पाया है । इसमें पहले से ही एक ऐसा वर्ग बढ़ रहा था जो अंग्रेजी शिक्षा की कीमत मानता था तथा अधिक उदार कार्यक्रम के पक्ष में था । इसके मुख्य व्याख्याता थे लाला हंसराज तथा इसका प्रत्यक्ष प्रतीक है लाहौर का दयानंद ऐंग्लो-वैदिक कालेज ।
इसके विपरीत हम १९०२ ई॰ में स्थापित प्रसिद्ध हरद्वार गुरुकुल को रख सकते है, जो आधुनिक जीवन में वैदिक आदर्श को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न करता है ।
उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि अपने जीवन के प्रारंभ में दयानंद ने बाह्य समाज से संधि करने की चेष्टा की थी ।
एतदर्थ १८६९ ई॰ में कलकत्ते में एक सम्मेलन हुआ था । मगर इसका कोई फल न निकला । अंत में आर्य समाज ने पंजाब में ब्राह्म समाज-आंदोलन को दबा कर समाप्त कर डाला, जहाँ लाहौर में पहले ही एक बाह्य समाज १८६३ ई॰ में स्थापित किया गया था ।
(घ) रामकृष्ण मिशन (Ram Krishna Mission):
रामकृष्ण मिशन उन्नीसवीं सदी का अंतिम महान् धार्मिक एवं सामाजिक आंदोलन है । इसकी विशेषता है प्राचीन या पूर्वीय और आधुनिक या पश्चिमी-इन दोनों महान् शक्तियों का समन्वय । मिशन का नामकरण रामकृष्ण परमहंस के नाम पर हुआ ।
रामकृष्ण परमहंस (१८३६-१८८६ ई॰) कलकत्ते के समीप के एक मंदिर में निर्धन पुजारी थे । नाम लेने को उन्हें कोई भी पूर्वी या पश्चिमी शिक्षा न मिली थी । किन्तु वे घोर एकांत में अत्यंत आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते थे ।
उनका सभी धर्मों के अंतर्वर्ती सत्य में गहरा विश्वास था । न केवल विभिन्न हिन्दु संप्रदायों, बल्कि इस्लाम और ईसाई मत की प्रथाओं और रीतियों के अनुसार धार्मिक कृत्य करके वे अपने विश्वास की परीक्षा भी लेते थे । उनकी विस्तृत उदारता, रहस्यवादिता और आध्यत्मिक व्यग्रता से आकर्षित हो कर कभी-कभी कुछ दर्शनार्थी, विशेषकर कलकत्ते से, चले आते थे ।
वे एकांतवासी आध्यात्मिक भक्त के रूप में जीए और मरे तथा अपेक्षाकृत कम ही लोगों को ज्ञात रहे । उनके सामने वे संक्षिप्त लघु कहावतों और प्रशंसनीय शिक्षाप्रद रूपकों में अपने विचारों की व्याख्या करते थे । इनमें से अधिकांश उनकी मृत्यु के पूर्व ही संग्रहीत और प्रकाशित किये गये और तब से उनके और उनकी कहावतों के बारे में अनेक अन्य ग्रन्थ प्रकाशित किये गये हैं ।
उनके शिष्यों में सब से प्रसिद्ध और गुरु के सब से अधिक प्यारे थे कलकत्ता विश्व- विद्यालय के एक नवयुवक ग्रेजुएट । उनका नाम नरेंद्रनाथ दत्त था । आगे चल कर वे स्वामी विवेकानंद (१८६३-१९०२ ई॰) के नाम से प्रसिद्ध हुए । उन्हीं ने रामकृष्ण के संदेश को भारत भर में फैलाया । उनकी विद्या, वाग्मिता आध्यात्मिक तीक्ष्णता और आश्चर्यजनक व्यक्तित्व के कारण उनके पास अनुयायियों की एक मंडली जमा हो गयी, जिसमें राजा और किसान दोनों थे ।
उनकी सहायता से और अपार कष्ट के बाद वे १८९३ ई॰ में शिकागो के प्रसिद्ध “पार्लियामेंट ऑफ रिलिजंस” (विश्व-धर्म-महासभा) में उपस्थित हुए तथा तुरंत अपनी धाक जमा ली । उस महान जमात में हुए उनके भाषणों से उन्हें यश और मित्र मिले । उस दिन से स्वामी विवेकानंद द्वारा व्याख्या किये गये रामकृष्ण के उपदेश विश्व-शक्ति के रूप में माने जाने लगे ।
संयुक्त राज्य (युनाइटेड् स्टेट्स) के विभिन्न केंद्रों में रामकृष्ण मिशन और मठ स्थापित हो गये । विजयी वीर के स्वदेश लौट आने के बाद वे भारत भर में फैल गये । रामकृष्ण मिशन का उद्देश्य है धार्मिक एवं सामाजिक सुधार किन्तु यह भारत की प्राचीन संस्कृति से अपनी प्रेरणा ग्रहण करता है ।
यह शुद्ध वेदांत के सिद्धांत को अपना आदर्श मानता है । इसका लक्ष्य है मनुष्य के भीतर की उच्चतम आध्यात्मिकता का विकास । किन्तु साथ ही, यह हिन्दु धर्म में पीछे विकसित मूर्तिपूजा-जैसी चीजों की कीमत और उपयोगिता भी स्वीकार करता है ।
रामकृष्ण ने अपने जीवन में ही न केवल काली देवी की पूजा एवं उच्चतम आध्यात्मिक जीवन की अनुरूपता (अविरोध) दिखला दी थी, बल्कि उन्होंने इससे भी कुछ अधिक दिखलाया था । वह यह था कि मूर्तिपूजा का उपयोग मनुष्य की उच्चतम आध्यात्मिक व्यग्रता के विकास के एक उत्तम साधन के रूप में हो सकता है ।
लेकिन उन्होंने वर्तमान हिन्दू धर्म में बुराई के वास्तविक स्रोत को भी उंगली बता कर कह दिया था यानी बाहरी अनुष्ठानों को आवश्यक आध्यात्मिक तत्व और प्रतीक को वास्तविक पदार्थ समझ बैठने की भूल करना ।
मिशन की एक दूसरी विशेषता है सभी धर्मों की सचाई में विश्वास । इस भी रामकृष्ण ने व्यवहार में दिखा दिया था । महान् स्वामी बहुधा कहा करते थे कि “सभी विभिन्न धार्मिक विचार एक ही मंजिल तक पहुंचने के केवल विभिन्न रास्ते हैं” । जिस प्रकार विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त विभिन्न शब्द एक ही पदार्थ को व्यक्त करते है, जैसे जल “उसी प्रकार अल्लाह, हरि, क्राइस्ट, कृष्ण आदि केवल विभिन्न नाम है, जिनके स हारे हम उसी महान् ईश्वर की पूजा करते हैं ।
वह एक और अनेक, साकार और निराकार, दोनों है । उसकी कल्पना महाविश्वात्मा के रूप में भी हो सकती है और विचित्र प्रतीकों के सहारे भी । आज गद्य कि सांप्रदार्यिक विचार आधुनिक जगत को बहुत-से शत्रु-शिविरों में बाँट रहे हैं तथा धर्म को प्रेम एवं भ्रातृत्व के बदले पूणा एवं फूट का प्रतीक बना रहे हैं, रामकृष्ण का यह उदार और स्पष्ट विचार उन सब से बिलकुल भिन्न है ।
इन दो विशेषताओं के अतिरिक्त, भारत में और इसके बाहर मिशन की सफलता के अन्य अनेक कारण हैं । प्रथमत: इसमें अपर धर्म से दीक्षित करने का आक्रामक उत्साह नहीं है । इसकी इच्छा बाह्य समाज या आर्य समाज के समान किसी अलग पंथ (संप्रदाय) के रूप में विकसित होने की नहीं है ।
जनता के बीच सुधारात्मक विचारों का प्रचार करते हुए किन्तु उसे अपनी सामाजिक या धार्मिक परिस्थितियों से उग्र रूप में निर्मूल न करते हुए यह शुद्ध संन्यासी संप्रदाय बना रहना पसंद करता है । दूसरे, इसने अपने कार्यक्रम में सब से आगे समाज-सेवा के विचार को रखा है: केवल लोकोपकारी कार्य के रूप में नहीं, बल्कि धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन के लिए एक आवश्यक संयम के रूप में भी ।
मिशन ने बहुत-से स्कूल और औषधालय खोले हैं । अकाल या बाढ़ या अन्य विपत्ति से हुए कष्ट के समय में इसने सदैव लोगों को दिल खोल कर सहायता दी है । विशेषकर, भारत के मूक लक्ष्यों को ऊपर उठाना मिशन का मुख्य लक्ष्य है । संसार के राष्ट्रों के बीच भारत को अपने उचित स्थान पर पुन: प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से उसकी मानवता को ऊँचा उठाने की महान् इच्छा रखते हुए स्वामी विवेकानंद में स्वदेशानुराग विशिष्ट एवं आध्यात्मिक भावनाएँ मिल गयीं ।
उनका विश्वास था कि वर्तमान युद्धरत संसार आध्यात्मिक उपदेशों से बचाया जा सकता है जो केवल भारत ही दे सकता है । किन्तु ऐसा करने के पहले उसे अपना पद ऊँचा करके दूसरे राष्ट्रों का आदरप्राप्त करना पड़ेगा । इस प्रकार स्वामी के राष्ट्रीय और सार्वभौम दोनों दृष्टिकोण थे तथा इसी कारण वें भारत और अमेरिका में लोकप्रिय हुए ।
और भी, भारत के हिन्दुओं के स्वामी विवेकानंद के प्रति श्रद्धा दिखाने के विशेष कारण है । वर्तमान युग में पहली बार उन्होंने संसार के सम्मुख साहसपूर्वक हिन्दु संस्कति एवं सभ्यता की उच्चता, उसके अतीत की महत्ता और उसके भविष्य की आशा घोषित की । पहले यूरोंपीय संस्कृति एवं सभ्यता के प्रति भारतीय रुख में क्षमा-याचना की ध्यनि और हीनता की भावना पायी जाती थी ।
इसके स्थान पर स्वामी विवेकानंद की वाणियों में उत्साहकारक साहस और अंतर्वर्ती शक्ति का ज्ञान पाया गया । जब इसके साथ उनका देशभक्तिपूर्ण जोश मिल गया । तब वे पुनर्जाग्रत भारतीय राष्ट्र के उच्चतम आदर्शों के अवतार हो गये । सर वैलेंटाइन चिरोल के शब्दों में वे “प्रथम हिन्दु थें जिनके व्यक्तित्व ने भारत की प्राचीन सम्यता और राष्ट्र होने के उसके नवजात हक के लिए विदेश में निर्णायक स्वीकृति प्राप्त की थी” ।
(ङ) थियोसोफिकल सोसाइटी (Theosophical Society):
थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना “रहस्यपूर्ण” मैडम एच॰ पी॰ ब्लैवेट्स्की और कर्नल एच॰ एस॰ ऑलकॉट द्वारा संयुक्त राज्य (युनाइटेड् स्टेट्स) में १८७५ ई॰ में हुई थी । वे १८७१ ई॰ में भारत आये । १८८६ ई॰ में उन्होंने मद्रास के उपनगर अड्यार में अपना प्रधान कार्यालय स्थापित किया ।
भारत में इस आदोलन की वास्तविक सफलता का श्रेय श्रीमती एनी बेसेंट को है । उन्होंने १८८९ ई॰ में इस सोसाइटी में प्रवेश किया । छियालीस वर्षों की उम्र में १८९३ ई॰ में वे भारत में ही बस गयीं । थियोसोफिकल सोसाइटी ने प्रारंभ से ही अपने को हिन्दु पुनर्जीवन आंदोलन से संयुक्त कर रखा था ।
श्रीमती बेसेंट का विचार था कि भारत की वर्तमान समस्याएँ उसके प्राचीन आदर्शों एवं संस्थाओं के पुनर्जीवन और पुनर्प्रवेश से सुलझ सकती थीं । आत्मकथा (१८९३ ई॰) में वे लिखती हैं- “भारतीय कार्य सबसे पहले पुराने धर्मों का पुनर्जीवन, दृढ़ीकरण और उत्थान है । इसके साथ चला आता है नवीन आत्म-सम्मान, अतीत के प्रति गौरव, भविष्य में विश्वास और, अवश्यंभावी परिणाम के रूप में, देशभक्तिपूर्ण जीवन की महान् लहर, राष्ट्र के पुनर्निर्माण का प्रारंभ ।”
अपने उद्देश्य की प्राप्ति के प्रमुख साधन के रूप में उन्होंने बनारस में सेंट्रल हिन्दु स्कूल खोला । उन्होंने अपने रुपये-पैसे और शक्ति इसी संस्था में लगा दी । यह संस्था धीरे-धीरे एक कालेज के रूप में विकसित हुई । अंत में १९१५ ई॰ में इसने हिन्दु विश्वविद्यालय का रूप धारण किया ।
थियोसोफिकल सोसाइटी की भारत भर में बहुत-सी शाखाएँ हैं । यह विशेषकर दक्षिण भारत में सानायिक और धार्मिक सुधार में एक महत्वपूर्ण तत्व सिद्ध हुई हैं । किन्तु प्राचीन की ओर लौट चलने के अपने प्रयत्न में यह कुछ वैसे रस्म-रिवाजों एब विश्वासों का समर्थन करती है जो बहुत के द्वारा पश्चाद्गामी समझे जाते हैं ।
इसके दुर्बोध रहस्यवाद ने बहुत को विमुख कर डाला है, जो इसके अनुयायी हो सकते थे । भारतीय जीवन में इसके महत्त्व का कारण इस आंदोलन की किसी अंतर्वर्ती शक्ति की अपेक्षा श्रीमती बेसेंट का व्यक्तित्व ही अधिक है ।
(च) सामाजिक सुधार के प्रयत्न (Social Reform Efforts):
ऊपर जिन सामान्य आंदोलनों का वर्णन किया गया है, उनका परिणाम यह निकला कि हिन्दु समाज में महान् परिवर्तन आ गया तथा सामाजिक सुधार के व्यक्तिगत एवं संगठित प्रयत्नों को बढ़ावा मिला ।
दक्कन एडुकेशन सोसाइटी की स्थापना १८८४ ई॰ में राणडे की प्रेरणा से हुई थी । इसका प्रारंभ इस विचार से हुआ कि युवकों की शिक्षा इस प्रकार पुनर्गठित होनी चाहिए जिससे वे देश-सेवा के योग्य हो सकें । यह ऐ सा काम था जिसे करने में वर्तमान शिक्षाप्रणाली असफल हुई थी ।
सोसाइटी के सदस्यों ने कम-से-कम बीस वर्षों तक नाममात्र के वेतन (प्रारंभ में पचहत्तर रुपये) पर नौकरी करने का जिम्मा लिया । इस प्रकार बिना बड़े दानों के ही पूना का प्रसिद्ध फर्गुसन कालेज, सांगली का विलिंगडन कालेज और उनके पोषण के लिए कुछ प्रस्तुतकारी स्कूल चलाना संभव हो गया । “सोसाइटी के आजीवन- कार्यकर्ताओं में प्रासद्ध गोपाल कृष्ण गोखले” (१८६६-१९२५ ई॰) भी थे ।
पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर (१८२०-१८९१ ई॰) और बहरामजी एम॰ मलाबारी (बड़ौदा में १८५३ या १८५४ ई॰ में जन्म) के नाम भारतीय नारियों के उस्थान के सम्बन्ध में सब से आगे आते हैं । नारियों के कष्टों ने उनके हृदयों को छू लिया । उनकी अवस्था सुधारने के लिए वे जीवन-भर आंदोलन करते रहे ।
लगातार मिहनत और परिश्रमपूर्ण आंदोलन के फलस्वरूप विद्यासागर हिन्दु विधवाओं का पुनर्विवाह वैध करने कला कानून पास करने के लिए सरकार को राजी करने में सफल हुरा । इसी प्रकार मलाबारी के प्रयत्नों के फलस्वरूप १८९१ ई॰ का “एज ऑफ कंसेंट ऐक्ट” (स्वीकृति-अवस्था-कानून) पास हुआ ।