Read this article in Hindi to learn about the causes of second Carnatic war in India and its consequences.
ऊपरी तौर पर दोनों दल संधि द्वारा वहीं छोड़ दिये गये, जहाँ वे पहले से थे । किन्तु घटनाओं ने तुरत सिद्ध कर दिया कि परिस्थिति वास्तव में काफी बदल चुकी थी । हाल के संघर्ष से कुछ स्पष्ट शिक्षाएं मिली, जिन्हें समझने में गूले का तेज दिमाग न चूका । ये एक नवीन और साहसपूर्ण नीति का आधार बनी, जिसने अपने अंतिम परिणामों के रूप में भारतीय इतिहास की समस्त गति को ही बदल दिया ।
युद्ध ने सामुद्रिक शक्ति के बड़े महत्व को स्पष्ट कर दिया था । इसने निस्संदिग्ध रूप में बतला दिया कि उस समय की परिस्थिति में चाहे फ्रांसीसी हों या अंग्रेज, दोनों में से कोई भी समुद्र पर नियंत्रण रखे बिना निर्णायक और स्थायी सफलता प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता था ।
इस रूप में अंग्रेजों का आधिपत्य माना जा चुका था, जिस कारण फ्रांसीसियों का भविष्य अंधकारपूर्ण प्रतीत होता था । इसके अतिरिक्त, फ्रांसीसी शक्ति करीब-करीब कर्णाटक तक ही सीमित थी, जब कि अंग्रेजी की महत्वपूर्ण बस्तियाँ बम्बई और बंगाल दोनों जगहों में थीं ।
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अतएव आधिपत्य के लिए किये गये किसी संघर्ष में स्वदेश से आपूर्ति और भारत में भी साधनों पर अधिकार-दोनों दृष्टियों से फ्रांसीसी अत्यधिक असुविधाजनक स्थिति में होते । इस प्रकार अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की अंतिम सफलता का संयोग वस्तुत: बहुत कम मालूम पड़ता था ।
कोई भी अन्य व्यक्ति इन खराब अंदाजों से घबड़ा जाता । लेकिन द्यूप्ले की प्रतिभा चमक उठी तथा उसे इस कठिनाई से बचने का एकमात्र रास्ता सूझ गया । मद्रास के सामने हुई अनवरुद्दीन की पराजयवाली घटना ने उसके दिमाग पर गहरी छाप डाली तथा एक नवीन दिशा में अनेक संभावनाएँ सुझायीं ।
स्थल पर छोटी फ्रांसीसी सेना द्वारा अनवरुद्दीन की विशाल फौज की संपूर्ण पराजय ने सिद्ध कर दिया कि युद्ध में केवल संख्या की अपेक्षा अधिक अनुशासन और आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित रहने का महत्व कहीं अधिक है । इसने यह भी सिद्ध कर दिया कि बड़ी एशियाई फौजें अब मुट्ठी भर यूरोपीय सिपाहियों से भी लोहा लेने लायक न रह गयीं ।
इस प्रकार उसकी छोटी किंतु साहसी और अनुशासनपूर्ण सेना उसके लिए एक प्रभावकारी अस्त्र थी तथा दो भारतीय राजाओं के बीच झगड़ा होने पर यह अस्त्र निर्णायक सिद्ध होता ।
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और भी राजनीतिक अशांति के उन दिनों में ऐसे भारतीय राजाओं की कमी नहीं होती, जो परिस्थिति को अपने पक्ष में लाने के लिए द्युप्ले को कोई भी कीमत देने को उद्यत होते । ऐसे भारतीय राजा की प्रतिष्ठा और साधनों का सहारा पाकर फ्रांसीसी अंत में अंग्रेजों से अधिक शक्तिशाली बन जाते । द्यूप्ले ऐसा ही तर्क करता था तथा घटनाओं ने दिखला दिया कि उसका तर्क काफी विचारपूर्ण था । भाग्य ने उसका साथ दिया तथा उसे अपनी नयी नीति को कार्यान्वित करने का एक अपूर्व अवसर प्रदान किया ।
हम पहले ही लिख चुके है कि अनवरुद्दीन खाँ की कर्णाटक के नवाब के रूप में जो नियुक्ति हुई थी, उससे भूतपूर्व नवाब दोस्त अली के दोस्तों और सगे-संबंधियों में असंतोष पैदा हो गया था इसे दोस्त अली के दामाद चंदा साहब ने पराकाष्ठा पर पहुँच दिया । बात ऐसी हुई कि जैसा ऊपर कहा जा चका है, चंदा साहव को मराठों ने १७४१ ई॰ मे बंदी बना लिया था, लेकिन सात वर्षों के बाद वह छोड़ दिया गया ।
अब वह अपने ससुर की गद्दी को फिर से प्राप्त करने का षड्यंत्र रचने लगा । इसी तरह का संघर्ष उस समय दक्कन की गद्दी के लिए भी चल रहा था । राज्य का संस्थापक आसफजाह निजामुलमुल्क सन् १७४८ ई॰ में मर गया । उसका बेटा नासिरजंग उत्तराधिकारी हुआ ।
लेकिन उसके नाती मुजपफरजंग ने इस आधार पर गद्दी पर दावा किया कि मुराल बादशाह ने उसे दक्कन का सूबेदार बहाल किया था । द्यूप्ले उत्सुकतापूर्वक ऐसे मौके की ताक में था । उसने चंदा साहब और मुजफ्फरजंग से एक गुप्त संधि की, जिसका उद्देश्य था उन्हें क्रमश: कर्णाटक और दक्कन की गद्दियों पर बैठाना ।
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३ अगस्त, १७४९ ई॰ को तीनों मित्र शक्तियों ने वेलोर के दक्षिण-पूर्व अंबूर की लड़ाई में अनवरुद्दीन को हराकर मार डाला । अनवरुद्दीन का बेटा मुहम्मद अली त्रिचनापली भाग गया । उस शहर को जीतने के लिए एक फ्रांसीसी सेना भेजी गयी ।
अंग्रेजों के सामने एक बड़ा खतरा आ गया था, जिसे महसूस करने में वे न चूके । किंतु उनमें द्यूप्ले की कर्म-शक्ति का अभाव था । उन्होंने नासिरजंग के पास अत्यावश्यक निमंत्रण भेजे कि वह आकर कर्णाटक में अपने शत्रुओं को नेस्तनाबूद कर दे । उन्होंने त्रिचनापली में मुहम्मद अली के पास कुछ सहायता भेजी । किन्तु वे उस संघ के विरुद्ध, जिसका नेता द्यूप्ले था, एक प्रभावकारी संघ का संगठन नहीं कर सके ।
परिणाम यह हुआ कि कर्णाटक में कुछ प्रारंभिक सफलता पाने के बावजूद नासिरजंग अंत में मारा गया (दिसम्बर, १७५० ई॰) । मुजफ्फरजंग, जो कैद में था, अब छोड़ दिया गया । वह दक्कन का सूबेदार घोषित हुआ । कृतज्ञ सूबेदार ने उपयुक्त तरीके से अपने फ्रांसीसी मित्र की सहायता का पुरुस्कार दिया ।
उसने द्यूप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण के समस्त मुगल राज्य का गवर्नर नियुक्त किया तथा उसे पांडिचेरी के समीप के राज्य और उड़ीसा समुद्रतट के राज्य (जिनमें मसुलीपटम का प्रसिद्ध व्यापारिक नगर भी सम्मिलित था) दे दिये । बदले में, मुजफ्फरजंग से प्रार्थित होने पर, द्यूप्ले ने उसके पास अपने सबसे अच्छे अफसर बूसी को एक फ्रांसीसी सेना के साथ रख छोड़ा । निजाम के दरबार में फ्रांसीसी प्रभाव जमाये रखने का यह सबसे निश्चित साधन सिद्ध हुआ ।
अब तक फ्रांसीसियों के लिए हर बात अच्छी ही गुजर रही थी तथा द्यूप्ले की नीति की आशातीत रूप में विजय हुई । उसके संरक्षित मुजफ्फरजंग और चंदा साहब हैदरा- बाद एवं अरकाट की गद्दियों पर बैठे थे । दो वर्षों से कम समय में ही विदेशी सौदागरों की एक महत्वहीन संस्था दक्कन और कर्णाटक में सर्वोच्च राजनीतिक स्थान पर पहुँच गयी । द्यूप्ले कीं सफलता मित्रों और शत्रुओं-दोनों को समान रूप से अलौकिक घटना प्रतीत हुई ।
अपनी सफलता को पूरा करने के निमित्त द्यूप्ले के लिए मुहम्मद अली के साथ संधि कर लेना आवश्यक था, जिसने त्रिचनापली के मजबूत किले में शरण ले रखी थी । जो फ्रांसीसी में ना उस शहर को जीतने के लिए भेजी गयी थी, उसने तंजोर जीतने के निष्फल प्रयत्न में अपनी शक्ति को नष्ट किया । अतएव द्यूप्ले ने कूटनीति के परिणाम को आज-माने का निर्णय किया ।
शायद उसे सफलता मिल जाती, लेकिन अंग्रेजों के हस्तक्षेप ने सारा गुड़ गोबर कर दिया, क्योंकि उनकी सहायता और प्रोत्साहन ने मुहम्मद अली के प्रतिरोध को और कड़ा कर दिया ।
बड़े-से-बड़े मूर्ख मस्तिष्क के लिए भी अब यह सण्ट था कि यदि चूने के अपनी योजनाओं को पूर्ण करने को स्वतंत्र छोड़ दिया जाए, तो अंग्रेजों को मद्रास से सदा के लिए हट जाना पड़ेगा । अंग्रेजों के लिए सौभाग्य की बात थी कि उनका नया गवर्नर सौंडर्स, जिसने सितंबर, १७५० ई॰ में कार्य-मार ग्रहण किया था, अपने पूर्वाधिकारी की अपेक्षा अधिक फुर्तीला था ।
उसकी देखरेख में अंग्रेज इस संघर्ष में जी-जान से पिल पड़े । परिस्थिति की गंभीरता को महसूस कर उनके स्वदेश के अधिकारियों ने अपने सभी साधनों से युक्त हो उसका साथ देने का निश्चय किया ।
इस प्रकार यदापि यूरोप में अंग्रेजी और फ्रांसीसी जातियों के बीच उस समय कोई नियमित युद्ध-घोषणा न थी, यहाँ तक कि खुल्लमखुल्ला दुश्मनी भी न थी, तथापि वे भारत में एक खुले युद्ध में लग पड़ी । कहने को तो वे देशी शक्तियों की नौकरी में रखी गयी विदेशी सेनाएँ थीं, किंतु वास्तव में वे ही मुख्य पक्ष थीं, जो जीवन-मरण के संघर्ष में जुट गयी थीं ।
यदि द्यूप्ले मुहम्मद अली पर, अंग्रेजों के उसके सहायतार्थ आने के पहले ही, सफल आक्रमण करने में समर्थ होता, तो वह अपने प्रतिद्वंद्वियों की देर से की गयी कोशिशों को बिल्कुल बेकार कर देता । लेकिन उसके शत्रुओं ने चातुर्यपूर्ण कूटनीति से उसे छका दिया ।
अंग्रेजों से राय लेकर मुहम्मद अली द्यूप्ले से बातचीत चलाता रहा, जो द्यूप्ले ने ही शुरू की थी । ऐसा उसने केवल समय खेपने के लिए किया, जिससे अंग्रेज उसके पास अच्छी सहायता भेजने लायक हो जाएँ । मई, १७५१ ई॰ के पहले, जब एक ब्रिटिश टुकड़ी सचमुच त्रिचनापली की ओर चल पड़ी, तब द्यूप्ले ने यह महसूस किया कि उसे ठगा जा रहा था ।
उसने तब लॉ के अधीन एक फ्रांसीसी सेना उस जगह को जीतने के लिए भेजी । किन्तु लॉ ड्रा काम के लिए पूर्णतया अयोग्य सिद्ध हुआ । त्रिचनापली का घेरा चलता रहा तथा वर्ष के अंत तक मैसूर और तंजोर के शासक एवं मराठा सरदार मुरारी राव मुहम्मद अली और अंग्रेजों से जा मिले ।
इस बीच घटनाएं उत्तर में तेजी से बढ़ रही थीं । मद्रास का एक किरानी राबर्ट क्लाइव हाल में फौज में भर्ती हो गया था । उसने प्रस्ताव किया कि अरकाट पर आक्रमण किया जाए । मुहम्मद अली यह सुझाव पहले ही दे चुका था ।
इसे अंग्रेज गवर्नर सौडर्स ने त्रिचनापली का पतन बचाने के सर्वोत्तम उपाय के रूप में स्वीकार भी कर लिया था, क्योंकि अपनी राजधानी की रक्षा करने के लिए चंदा साहब अपनी सेना का एक अच्छा भाग अवश्य उधर भेजता । प्रस्ताव स्वीकृत हुआ तथा क्लाइव पर इसके कार्यान्वयन का भार सौंपा गया । केवल दो सौ यूरोपियनों और तीन सौ सिपाहियों के साथ उसने अरकाट पर कब्जा कर लिया ।
वहाँ उसे किसी तरह के तीव्र विरोध का सामना नहीं करना पड़ा । जैसा उसने पहले सोच रखा था, चंदा साहब ने अपनी राजधानी को फिर से जीतने के लिए तुरंत त्रिचनापली से एक सेना सहायतार्थ भेजी । तिरपन दिनों तक क्लाइव ने वीरतापूर्वक नगर की प्रतिरक्षा की (सितम्बर-अक्टूबर, १७५१ ई॰) । अंत में घेरा डालनेवाली सेना लौटकर चली गयी ।
अरकाट की विजय इस युद्ध की सबसे उल्लेखनीय सफलता थी । इस साहसपूर्ण काम ने तुरत ही लड़नेवाली ताकत के रूप में अंग्रेजों का सम्मान बढ़ा दिया तथा फ्रांसीसियों की प्रतिष्ठा को एक गहरी शिकस्त दे दी ।
फ्रांसीसी सेनापति लॉ, जिसे त्रिचनापली के घेरे का भार दिया गया था, क्लाइव की सफलता से हतोत्साह हो गया तथा उसने श्रीरंगम् के द्वीप में शरण ली । राबर्ट क्लाइव के कहने पर अंग्रेजों ने द्वीप को घेर लिया । द्यूप्ले ने सहायतार्थ सेना भेजी । पर इस सेना ने ९ जून, १७५२ ई॰ को अंग्रेजों को आत्म-समर्पण कर दिया ।
तीन दिनों के बाद लॉ और उसके सिपाही अंग्रेजों के बंदी हो गये । इसी समय चंदा साहब ने भी आत्म-समर्पण कर दिया तथा तंजोर के सेनापति ने उसका सिर काट डाला । फ्रांसीसियों की दुरवस्था पूर्ण हो गयी ।
द्यूप्ले की ऊंची आशाएँ अब मिट्टी में मिल गयी । अपने सेनापतियों की घोर मूर्खता और अयोग्यता के कारण उसने उस पुरस्कार को खो दिया था, जो करीब-करीब उसकी पकड़ में आ चुका या । फिर भी वह हाल की असफलताओं से बिना भयभीत हुए आगे काम करता रहा । उसने मुरारी राव और मैसूर के शासक को अपनी ओर मिला लिया तथा तंजोर के राजा की तटस्थता प्राप्त कर ली ।
इसके बाद उसने तेजी से लड़ाई ठान दी (३१ दिसम्बर, १७५२ ई॰) तथा त्रिचनापली पर फिर से घेरा डाल दिया । १७५३ ई॰ में साल भर छोटी-मोटी लड़ाइयां होती रही जिनमें कभी इस दल की जीत होती तो कभी उस दल की । अंतिम ममय तक भी द्यूप्ले ने त्रिचनापली जीत लेने की आशा नहीं छोड़ी । किन्तु फ्रांस-स्थित फ्रांसीसी अधिकारी द्यूप्ले से बिल्कुल ऊब चुके थे ।
उन्होंने उसे बुला लेने का निर्णय किया । उन्होंने अपने प्रतिभासम्पन्न गवर्नर की दक्षतापूर्ण नीति के पूरे महत्व को कभी नहीं समझा । फ्रांसीसी सिपाहियों की पराजय और उसकी नीति से हुई गहरी वित्तीय हानियों से वे बहुत चिंतित हो उठे । तदनुसार उन्होंने गोदेहो को स्थानीय हालत की जाँच कर परिस्थिति सुधारने के लिए उचित कार्रवाई करने को भेजा ।
गोदेहो पहली अगस्त, १७५४ ई॰ को जहाज से उतरा, द्यूप्ले को अधिकारच्युत कर, स्वयं अधिकार लिया तथा उसकी नीति को पलट दिया । उसने अंग्रेजों से समझौते की बातचीत चलाकर संधि कर ली । अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों देशी राजाओं के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने पर राजी हुए । संधि के समय जिस दल के कब्जे में जितना राज्य वास्तव में था वह उसी के अधीन छोड़ दिया गया ।
इस प्रकार द्यूप्ले ने फ्रांसीसियों के लिए जो कुछ भी प्राप्त किया था, उसे उन्होंने करीब-करीब खो दिया । केवल दक्कन में द्यूप्ले की नीति का अभी भी कुछ फल दीख पड़ा । असाधारण योग्यता और शक्ति के सहारे बुसी अभी भी वहाँ अपना प्रभाव बनाये रहा, जहाँ करीब-करीब हर जगह सरदारों का विरोध चल रहा था ।
ये सरदार फ्रांसीसियों को नापसंद करते थे और उन्हें दक्कन के बाहर खदेड़ भगाना चाहते थे । वह बहुधा बूसी कर्णाटक चले जाने की सोचता था । किन्तु द्यूप्ले उसे मना कर देता था । वह द्यूप्ले राजधानी में प्रभावकारी नियंत्रण बनाये रखने की नीति का बराबर अनुसरण करता रहा ।
दक्षतापूर्ण नीति द्वारा बूसी ने निजाम को अपने सिपाहियों के खर्च के बदले में उसे उत्तरी सरकार दे देने को राजी किया । उत्तरी सरकार में मुस्तफानगर, एलोर, राजमहेंद्री और शिकाकोल के चार जिले थे जिनकी वार्षिक आमदनी तीस लाख रुपयों से अधिक थी । लेकिन इस ठोस प्राप्ति से भी बूसी कर्णाटक में विपदा की कठिनतम घड़ियों में फ्रांसीसियों की काफी सहायता करने में समर्थ नहीं हुआ ।
द्यूप्ले की असफलता के कारणों पर विचार कर सकते हैं । इस विषय पर समकालीनों और पिछले इतिहास लेखकों-दोनों के जो विभिन्न मत हैं, उनपर विस्तारपूर्वक विचार करना स्पष्ट ही इस पुस्तक के बाहर का काम है ।
तीव्र भावनाओं और पूर्व संस्कारों के कारण विचार्य विषय धूमिल पड़ गये हैं तथा आवश्यक सामग्री की कम जानकारी से किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना असंभव हो जाता है । इसलिए हमें समस्त परिस्थिति का, बिना विस्तार में गये हुए, मोटे तौर से सामान्य मूल्यांकन करके ही संतोष करना पड़ेगा ।
यह सर्वस्वीकृत बात है कि गूले की पराजय का तात्कालिक ओर मुख्य कारण यह था कि फ्रांस-स्थित अधिकारी न तो उसकी योजनाओं की उत्तमता को ही समझ सके और न काफी सहायता भेजकर उनके कार्यान्वयन का समर्थन ही कर सके ।
लेकिन कहा जाता है कि इसके लिए केवल द्यूप्ले ही उत्तरदायी था, क्योंकि उसने अपने उच्चतर अधिकारियों का कभी विश्वास नहीं किया और न उन्हें पूरे विस्तार के नाथ अपनी योजनाएँ ही बतायीं और जब यह सब किया गया, तब तक काफी देर हो चुकी थी ।
लेकिन अगर यह सच है, तो इससे द्यूप्ले का अंतर्वर्ती पूर्ण विश्वास ही प्रकट होता है कि फ्रांस की सरकार भारतीय समस्याओं पर गहरा ध्यान देने में अनिच्छुक अथवा असमर्थ थी तथा उन्हें बराबर अपनी सामान्य नीति के छोटे और गौण अंग समझने को तत्पर थी, क्योंकि जब कि इंगलैंड में ईस्ट इंडिया कम्पनी जैसी एक खानगी (प्राइवेट) संस्था थी, जिसका समूचा स्वार्थ भारत की अंग्रेजी व्यापारिक कोठियों के स्वार्थ के साथ बंधा हुआ था, फ्रांसीसी व्यापारिक संस्था सीधे सरकार द्वारा नियंत्रित होती थी, जिसकी नीति स्वभावत अधिक बड़ी राजनीतिक बातों द्वारा निर्णीत होती थी । सच पूछिए, तो उनके भारत में अंग्रेजों से सुलह कर लेने का एक मुख्य कारण था अमेरिका में उलझनों का भय ।
दूसरे, यह कहा गया है कि द्यूप्ले ने बहुत अधिक के लिए प्रयत्न किया तथा उसकी सेना का दक्कन और कर्णाटक में बाँट दिया जाना ही उसकी असफलता का वास्तविक कारण था । इस मत को तो थोड़ा सही मानना भी कठिन है । १७५४ ई॰ के पहले भाग में द्यूप्ले के पास, बात को अंतिम निर्णय पर पहुँचाने के लिए, काफी सैनिक शक्ति थी ।
अंग्रेजों के मुहम्मद अली के सहायतार्थ बढ़ने के बाद भी इस बात का तर्कसंगत मय न था कि अंग्रेज फ्रांसीसियों से संख्या में बढ़ सकेंगे अथवा उन्हें श्रेष्ठतर कौशल से पराजित कर सकेंगे ।
सभी प्रासंगिक बातों पर सावधानीपूर्वक विचार कर लेने के बाद द्यूप्ले की असफलता के दो मुख्य कारण मालूम पड़ते हैं । वह यह समझने में चूक गय कि जिस खेल में वह लगा है वह ऐसा है जिसमें दो खेल सकते हैं, अर्थात् अंग्रेज भी अपनी खोयी हुई जगह को पुन: प्राप्त करने के लिए उसी की नीति का अनुकरण कर सकते हैं । यदि वह इसे समझ लेता तो अंग्रेजों के प्रभावकारी सहायता भेजने के लिए तैयार होने के पहले ही वह मुहम्मद अली से किसी-न-किसी प्रकार अंतिम हिसाब अवश्य कर डालता ।
दूसरे, फ्रांसीसी सेनापतियों को आशातीत अयोग्यता ने उसे अपनी प्रारंभिक भूल को सुधारने से रोक दिया । इस बात को अस्वीकार करना बेकार है कि कर्णाटक में आगे होनेवाली घटनाओं का निर्णय बहुत अंश में परिस्थितियों ने नहीं, बल्कि व्यक्तियौं ने किया ।
एक ओर क्लाइव की देदीप्यमान प्रतिभा और साहसपूर्ण आघात तथा दूसरी ओर लॉ एवं उसके सहकर्मियों द्वारा प्रदर्शित दुविधा और शक्तिहीनता ने उपस्थित समस्याओं का निर्णय कर डाला । यदि द्यूप्ले के पास क्लाइव-जैसा प्रतिभाशाली सैनिक अधिकारी होता तो भारत में फ्रांसीसियों का इतिहास बिल्कुल भिन्न होता । यदि द्यूप्ले विजय- पूर्वक युद्ध को, १७५१ ई॰ के आरंभ में या उसके अंत तक भी, समाप्त कर सकता तो फ्रांसीसी सरकार उसका भारत में अपने (फ्रांसीसी) साम्राज्य के संस्थापक के रूप में अभिवादन करती और उसके पास काफी धन-जन भेजती ।
ऐसा करने में असफल होने से वह अप्रतिष्ठा और कलंक का भागी हुआ । वह एक ऐसे जोखिमवाले काम में लगा था जहाँ सफलता मनुष्य को ऊपर उठाकर वीर के पद पर पहुँचा देती है, किंतु असफलता उसे एक जिद्दी और अंधी खोपड़ी का साहसिक बतलाकर उसकी निंदा कराती है ।