ईस्ट इंडिया कंपनी युग के दौरान व्यापार | Business and Trade during the East India Company Era.
ब्रिटिश शासन की पहली सदी में भारत के इतिहास की एक सबसे महत्वपूर्ण बात है उसके उन्नत व्यापार और उद्योग का ह्रास ।
बंगाल (Bengal):
इस बात को उचित तौर पर समझने के लिए कि ब्रिटिश शासन किस हद तक इस हास का सहायक कारण था, यह आवश्यक है कि बंगाल से प्रारंभ किया जाए, क्योंकि भारत के इसी भाग में सर्वप्रथम ब्रिटिश शासन प्रभावकर रूप में स्थापित हुआ ।
ADVERTISEMENTS:
बंगाल में यूरोपियन व्यापारी कंपनियों की क्रियाशीलताओं का उल्लेख पहले हो चुका है । सत्रहवीं सदी के प्रारंभिक भाग में पुर्तगीज बंगाल में विस्तृत वैदेशिक व्यापार का विकास कर चुके थे । किन्तु अठारहवीं सदी में उनका व्यापार एक तौर से नगण्य था । डेनों (डेनमार्क-निवासियों) का कभी भी बंगाल में महत्वपूर्ण व्यापार नहीं रहा था । बंगाल में फ्रांसीसी व्यापार भी बहुत कम था ।
द्यूप्ले के चंदरनगर का इंटेडेंट (प्रबंधक) नियुक्त होने पर यह व्यापार बढ़ने लगा । किन्तु १७४१ ई॰ में उसकी पांडिचेरी को बदली हो गयी । फलत: फ्रांसीसी व्यापार तेजी से गिर गया । अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में केवल डच और अंग्रेज ही बंगाल में समृद्ध व्यापार चला रहे थे ।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा बंगाल में राजनैतिक अधिकार प्राप्त कर लिये जाने के बाद डच मैदान से भगा दिये गये तथा अंग्रेज कम्पनी बंगाल में विदेशी व्यापार के एकाधिकार का उपभोग करती रही । जैसा पहले लिखा जा चुका है, १८१३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट ने कम्पनी के भारतीय व्यापार का एकाधिकार उठा दिया तथा १८३३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट ने कम्पनी की व्यापारिक क्रियाशीलताओं का सदा के लिए अंत कर दिया ।
यूरोपियन कम्पनियों द्वारा जो व्यापार होता था उसे छोड़कर भी बंगाल के भीतरी और वैदेशिक व्यापार का विस्तार अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में काफी बड़ा था । हिन्दू, आर्मीनियन और मुसलमान सौदागर भारत के अन्य भागों से तथा टर्की, अरब, फारस एवं तिब्बत तक से बहुत व्यापार करते थे ।
ADVERTISEMENTS:
वैदेशिक व्यापार की बढ़ती बराबर बंगाल के पक्ष में होती थी तथा इसके निर्यातों का अतिरिक्त मूल्य सोने के रूप में देना पड़ता था । सच पूछिए, तो १७०८ ई॰ से १७५६ ई॰ के बीच बंगाल के संपूर्ण आयातों का करीब तीन चौथाई भाग सोना होता था ।
बंगाल से निर्यात की सबसे महत्वपूर्ण चीजें थीं कपास और रेशम के फुटकर बेचने के कपड़े, कच्चा रेशम, चीनी, नमक, पाट, शोरा एवं अफीम । कपास के विविध प्रकार के महीन कपड़ों, खासकर ढाका की मलमल, की सारी दुनिया में बड़ी माँग थी । बंगाल के सूती कपड़े यूरोपियन कम्पनियों द्वारा भारी परिमाणों में बाहर भेजे जाते थे ।
ये जमीन के रास्ते से इस्फहान जाते थे तथा समुद्र द्वारा बसरा, मोचा एवं जहां के बाजारों में पहुँचते थे । सत्रहवीं सदी के मध्य में डच प्रति वर्ष साढ़े सात लाख पौंड कासिमबाजार का कच्चा रेशम जापान या हॉलैंड भेजते थे तथा एक भारी परिमाण मध्य एशिया भी भेजा जाता था ।
अलीवर्दी खाँ के समय तक में यूरोपियनों द्वारा व्यापार में लगाये हुए धन को छोड्कर मुर्शिदाबाद के महसूलघर की किताबों में करीब सत्तर लाख रुपयों का कच्चा रेशम चढ़ाया गया था । बंगाल चीनी उद्योग का मुख्य केंद्र था ।
ADVERTISEMENTS:
यह इस चीज के बड़े परिमाण अठारहवीं सदी के मध्य तक में बाहर भेजा करता था । सन् १७५६ ई॰ तक बंगाल की चीनी का काफी व्यापार मद्रास, मलाबार समुद्रतट, बम्बई, सूरत, सिंध, मस्कत, फारस की खाड़ी, मोचा और जहां के साथ चलता था ।
बंगाल का पार्ट उद्योग भी अठारहवीं सदी के मध्य में विकसित होने लगा । एक प्रसिद्ध अंग्रेज लेखक ने लिखा है कि सन १७५६ ई॰ तक में “कोरोमंडल एवं मलाबार के समुद्रतट फारस की खाड़ी और लाल सागर से, नहीं बल्कि मैनिला, चीन और अफिका के समुद्रतट से” बंगाल का भारी व्यापार चलता था । इस प्रकार ब्रिटिश शासन कायम होने के पहले तक बंगाल में, इसके समृद्ध कृषि एवं शिल्प उद्योगों के कारण, संपन्न और उन्नतिशील व्यापार था ।
किन्तु प्लासी की लड़ाई न केवल बंगाल के राजनैतिक, बल्कि आर्थिक इतिहास में भी एक महान् युगांतरकारिणी घटना थी । इसके फलस्वरूप कुशासन और गड़बड़ी आयी, जिसका व्यापार और उद्योग पर उलटा प्रभाव पड़ा ।
यही नहीं, अनेक कारण देश के निर्धन बनाने और इसके संपन्न एवं उन्नतिशील व्यापार और उद्योग के नष्ट करने में सीधे तौर से जुटे पड़े:
(१) पहला था बड़े पैमाने पर रुपये-पैसे का खींचा जाना (Freedom Struggle (1905-1947)):
मीरजाफर और मीरकासिम को बंगाल की गद्दी पाने के लिए कम्पनी एवं इसके नौकरों को मोटी रकमें अदा करनी पड़ी । १७५७ ई॰ से १७६५ ई॰ के बीच यह रकम पचास लाख स्टर्लिग से भी बढ़ गयी ।
१७६५ ई॰ से, जब कि कम्पनी ने दीवानी प्राप्त कर ली, बंगाल के अतिरिक्त राजस्व को अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा भारत से बाहर भेजी जानेवाली चीजों के खरीदने में लगाया जाने लगा । १७८० ई॰ तक, जब यह धन का खिंचाव अंतिम रूप में बंद हो गया इसकी रकम एक करोड़ से ज्यादा हो चुकी थी ।
इसके अतिरिक्त, चीन को सोने-चाँदी की ईंटें भेजी जाती थीं; तथा कम्पनी, के नौकरों ने खानगी तौर पर भारी रकम बना रखी थी, जिसका यथेष्ट भाग किसी-न-किसी रूप में इंगलैंड चला गया होगा । यह का गया है कि १७५७ ई॰ से १७८० ई॰ तक जितनी सारी रकम बंगाल से इंगलैंड खींची गयी, वह करीब तीन करोड़ अस्सी लाख पौंड स्टर्लिग के बराबर थी । यह अनावश्यक है कि यह धन सोने-चाँदी की ईंटों के रूप में अथवा निर्यात की चीजों की शकल में बदल लिया गया था, जिसके बदले में बंगाल को कुछ नहीं मिला ।
सच्ची बात यह है कि तेईस वर्षों के दरम्यान बंगाल करीब साठ करोड़ रुपयों से वंचित होकर अधिक दरिद्र बन गया । इस भारी खिंचाव ने सूवे को अवश्य ही बहुत गरीब बना डाला होगा तथा इसके व्यापार और उद्योग को गहरा धक्का पहुँचाकर इसके मुख्य धन को अयोग्य कर दिया होगा ।
(२) दस्तकों का दुरुपयोग (Misuse of Knocks):
१६५६ ई॰ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल के गवर्नर सूबेदार शाहजादा शुजा से तीन हजार रुपये वार्षिक अदायगी के बदले में सवा दो प्रतिशत सामान्य चुंगी की अदायगी से मुक्ति प्राप्त कर ली थी । मुर्शिद कुली जाफर खाँ ने यह रियायत नामंजूर कर दी ।
तब अंग्रेजी कम्पनी ने १७१७ ई॰ में बादशाह फर्रुख-सियर से एक नया फर्मान प्राप्त किया, जिसमें पुराने विशेषाधिकार पुनर्नवीकृत हो गये । किन्तु नवाब ने यह शर्त लगायी और कम्पनी ने इसे स्वीकार कर लिया कि कम्पनी के दस्तक आंतरिक व्यापार के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकेंगे तथा उनके अंतर्गत वही चीजें आएँगी जो समुद्र द्वारा देश के भीतर लायी गयी हैं अथवा देश के बाहर जानेवाली हैं ।
लेकिन इस रियायत का दो तरीकों से दुरुपयोग होने लगा । प्रथमत: कम्पनी के नौकर अपने खानगी व्यापार के लिए दस्तकों का उपयोग करने लगे दूसरे, ये दस्तक भारतीय सौदागरों के हाथ बेच दिये जाने लगे जिससे वे (भारतीय सौदागर) चुंगी से बच सकें । मुर्शिद कुली और अलीवर्दी की सजगता के बावजूद, ये दुरुपयोग बहुत व्यापक हो चले तथा आगे चलकर सिराजुद्दौला ने इनकी शिकायत भी की ।
मीरजाफर के गद्दी पर बैठने के बाद ये दुरुपयोग व्यापक रूप में फैल गये तथा कम्पनी के नौकर भी देश के भीतर के व्यापार के संबंध में करों की अदायगी से मुक्ति का दावा करने लगे । मीरजाफर ने कलकत्ते के अंग्रेज गवर्नर से दयनीय रूप में शिकायतें कीं, किन्तु कोई सफलता नहीं मिली ।
परिणाम यह हुआ कि कम्पनी के नौकरों ने बंगाल के भीतरी व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया तथा गहरी रकमें हासिल कीं, जब कि नवाब ने अच्छी खासी आमदनी खो दी तथा भारतीय व्यापारी इस अनुचित प्रतिद्वंद्विता से नष्ट हो गये ।
इसके अतिरिक्त, कम्पनी के नौकरों ने गरीब लोगों पर अत्याचार कर अनुचित एवं गैरकानूनी नफा उठाया । उनके विषय में मीरकासिम ने १७६२ ई॰ में कम्पनी के गवर्नर को लिखा- “वे सिर्फ चौथाई दाम देकर…..जबर्दस्ती माल उठा लेते हैं तथा हिंसा एवं अत्याचार के तौर पर, वे दैयतों को लाचार करते हैं कि वे (रैयत) एक रुपये की चीज को पाँच रुपयों में लें” ।
कम्पनी के सरकारी कागज इस हालत की पुष्टि करते हैं तथा कहते है कि जो कम्पनी के नौकरों की अनुचित मांगों को नामंजूर करते थे उन्हें “कोड़ा मारा जाता था अथवा कैद में रखा जाता था” ।
मीरकासिम ने अपने पूर्वाधिकारी की अपेक्षा अधिक तीव्र रूप में इन अन्यायों का प्रतिवाद किया । जब कौंसिल ने किसी प्रकार का प्रतिकार अस्वीकार किया, तब उसने भीतरी चुंगी बिलकुल उठा दी, जिससे सभी व्यापारी बराबरी पर आ जाएँ । जैसा हमने ऊपर देखा है, इस कारण उसका अंग्रेजों से झगड़ा हो गया तथा उसे अपनी गद्दी से हाथ धोना पड़ा ।
(३) कम्पनी का एक तौर का एकाधिकार (Monopoly):
कम्पनी के नौकरों के अत्याचार ने शीघ्र एक नया मोड़ लिया सूती मालों की नियमित और अत्यधिक आपूर्ति निश्चित रूप में पाने के लिए कम्पनी ने जुलाहों से अग्रिम इकरार कर लिया कि वे उसे निश्चित तारीखों पर शर्त के मुताबिक कपड़े दिया करें । उसके नौकरों के हाथों में पड़कर यह अत्याचार का एक नया साधन बन गया । वे कम्पनी के अधिकार से सुसज्जित थे ।
उन्होंने गरीब जुलाहों को, कोड़े मारने का भय दिखाकर, अत्यंत अन्यायपूर्वक इकरारनामों पर दस्तखत करने को लाचार कर दिया । इन जुलाहों को अपने मालों के लिए उनके साधारण दाम से बहुत वाम दिया जाता था । कभी-कभी तो उन्हें सामान के खर्च से भी कम दिया जाता था । लेकिन उन्हें बेत की मार का भय दिखाकर किसी भी दूसरे दल के लिए काम करने की मनाही कर दी गयी थी । इसी तरह की नीति कच्चे रेशम के कारीगरों के साथ भी अपनायी गयी ।
बंगाल में कहानी प्रचलित है कि कम्पनी के लिए चुनने को लाचार होने से बचने के निमित्त बहुत-से जुलाहे अपनी अंगूठे स्वयं काट डालते थे । यह कहानी शायद मनगढ़ंत हो, किन्तु इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं कि इस समय कम्पनी के नौकरों के हाथों से गरीब जुलाहों को महान् कष्ट और उत्पीड़न मिला ।
१७६७ ई॰ में लिखते हुए वेरेल्स्ट जुलाहों की असामान्य कमी का जिक्र करता है, जिनमें से बहुत ने अपना पेशा छोड़ दिया था । इस प्रकार कम्पनी के एकाधिकारात्मक नियंत्रण और उसके नौकरों के दुर्व्यवहार ने बंगाल के दो उन्नत उद्योगों-सूती एवं रेशमी बुनाई के नाश का रास्ता साफ कर दिया । कार्नवालिस ने दोनों बुराइयों को बंदकर इस व्यापार के पुनर्जीवित करने का गंभीर प्रयत्न किया । मगर पहले ही इतना अनिष्ट हो चुका था, जिसका प्रतिकार करीब-करीब असंभव था ।
(४) अंग्रेजी प्रतियोगिता (English Competition):
बंगाल के जुलाहों के नाश को इंगलैंड के शिल्पियों की अनुचित प्रतियोगिता ने पूरा कर डाला । ज्यों ही ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा भेजे गये सूती और रेशमी माल इंगलैंड में लोकप्रिय हुए, त्यों ही ईर्ष्यालु ब्रिटिश शिल्पियों ने कानून द्वारा इस उद्योग को मार डालना चाहा । पार्लियामेंट ने १७०० ई॰ और १७२० ई॰ में दो कानन पास किये । इनके अनुसार भारत से भेजे गये सूती और रेशमी माल “इंगलैंड में न तो पहने जा सकते थे और न किसी दूसरे प्रयोग में लाये जा सकते थे” ।
लेकिन दूसरे यूरोपीय देशों में इन चीजों की बड़ी माँग थी । इसलिए कम्पनी जो माल इंगलैड भेजती थी, वह सारे-का-सारा यूरोप के अन्य विभिन्न देशों को भेज दिया जाता था । किन्तु पहले तो अमेरिकन स्वातंत्रय-संग्राम के समय और पुन: नेपोलियन के युद्धों के समय इंगलैंड तथा अन्य यूरोपीय शक्तियों के बीच शत्रुता पैदा हो गयी ।
इस कारण भारतीय मालों के इस पुनर्निर्यात को गहरा धक्का पहुँचा । १७७९ ई॰ में बंगाल से आये हुए सूती माल में अचानक कमी पड़ गयी । यही नहीं, १७८० ई॰ में सूती कपड़े पर नक्शे की छपाई करनेवाले अंग्रेजों ने एक स्मारक-पत्र दिया । इसके फलस्वरूप कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने चार वर्षों के लिए बंगाल से छपे हुए सूती मालों का मँगाना बंद करना स्वीकार कर लिया ।
कानून के द्वारा बाहर से आनेवाले मालों के कृत्रिम अवरोध से इंगलैड के सूती व्यवसाय को उत्तेजना मिल गयी । अनेक आविष्कारों द्वारा अंग्रेज सूती शिल्पियों ने अपने मालों के गुण को उन्नत किया ।
कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने अपने २० अगस्त, १७८८ ई॰ के पत्र में लिखा कि कंपनी के द्वारा लाये मालों पर लगायी गयी चुंगी और माल ढोने के महसूल के कारण अंग्रेज शिल्पी (मैनुफैक्चरर) पहले से ही इस लायक हो चुके हैं कि वे भारतीय सूती मालों को ब्रिटिश बाजार में दूसरे से सस्ता बेचे ।
इसलिए कम्पनी ने तैयार माल के बदले में कच्चे माल-यानी कपास-मँगाने की नीति का अनुसरण किया । तत्पश्चात्, वह बंगाल को मैंचेस्टर के सूती माल भेजने लगी । यांत्रिक बल से चलनेवाले कर्घे में पूर्णता लाकर मैंचेस्टर बहुत ज्यादा सस्ते सूती माल पैदा करने लगा तथा शीघ्र ही भारत के बाजारों में इन मालों के ढेर लग गये ।
१७८६ ई॰ और १७९० ई॰ के बीच इंगलैंड से प्रति वर्ष बाहर जानेवाले सूती मालों की औसत कीमत करीब-करीब बारह लाख पौंड थी । १८०९ ई॰ आते-आते यह बढ्कर एक करोड़ चौरासी लाख पौंड तक पहुँच गयी । इसके बाद की बढ़ती और भी अधिक आश्चर्यजनक रही ।
इस प्रकार, ठीक उसी क्षण जब कि कार्नवालिस के प्रयत्नों और यूरोपीय युद्ध के अंत के फलस्वरूप बंगाल का सूती व्यवसाय पुनर्जीवित हो सकता, इंगलैंड में सूती मालों के शिल्प में यांत्रिक बल द्वारा सूत-कताई एवं यांत्रिक बल द्वारा बुन को लागू कर देने से उक्त व्यवसाय मार डाला गया ।
बंगाल के व्यवसाय को अवश्यंभावी नाश से बचाने के लिए कानून द्वारा या उन्नत तरीकों के व्यवहार द्वारा कोई प्रयत्न नहीं किया गया । इस प्रकार, प्लासी की लड़ाई की आधी सदी के भीतर बंगाल की असाधारण समृद्धि को गहरा धक्का पहुँचा ।
जिन परिस्थितियों में बंगाल के समृद्ध व्यवसाय नष्ट हो गये तथा अंदरूनी व्यापार एक विशेषाधिकार-संपन्न वर्ग के हाथों में चला गया, उन्होंने बंगाल की व्यापार और उद्योग की भावना तक को करीब-करीब पूर्ण रूप से पीस डाला । संपत्ति के महान् खिंचाव के कारण पूंजी का अभाव था ।
ब्रिटिश आधिपत्य के प्रारंभिक युग में कुशासन के कारण देश की दशा अनिश्चित थी । इन दोनों बातों से व्यापार और उद्योग का पुनर्जीवन करीब-करीब असंभव हो गया । साथ ही, स्थायी बंदोबस्त के कारण कृषि तथा भूमि में पंजी लगाने को प्रेरणा मिली ।
इस प्रकार, जब कि उद्योग के लुप्त हो जाने से गरीब लोग खेती की ओर ज्यादा-से-ज्यादा झुकने लगे उपलब्ध पूंजी अधिकतर भूमि में फँसा दी गयी । देश का व्यापार यूरोपियों के हाथों में चला गया । उन्होंने धीरे-धीरे वाणिज्य और बैकिंग (साहूकारी) की अपनी प्रणाली स्थापित की । भूमि के लोगों का इसमें कोई भाग न था । संक्षेप में, बंगाल की समस्त वर्तमान आर्थिक प्रणाली का मूलरूप हमें यहीं मिलता है ।
२. भारत के अन्य भाग (Other Parts of India):
व्यापार और उद्योग के संबंध में बंगाल के विषय में जो बात कही गयी है, वह साधारण तौर पर भारत के अवशिष्ट भाग के लिए भी लागू है । यह साधारण विश्वास कि भारत कभी औद्योगिक देश नहीं रहा है नितांत भ्रामक है सरणातीत काल से ही भारतीय कारीगरी और हुनर भारत के अपार धन का एक महत्वपूर्ण सहायक तत्व रहे हैं ।
इंडस्ट्रियल कमीशन रिपोर्ट में लिखा है- “बहुत पीछे के युग तक में, जब कि पश्चिम के व्यापारी साहसिक भारत में पहली बार प्रकट हुए, इस दंश का औद्योगिक विकास प्रत्येक दशा में अधिक उन्नत यूरोपीय राष्ट्रों के औद्योगिक विकास से घटिया नहीं था ।”
भारतीय उद्योग के तैयार माल तथा उसकी प्राकृतिक पैदावारे जैसे मोती, सुगंधित द्रव्य, रँगाई का सामान, मसाले, चीनी, अफीम इत्यादि-दूर के देशों को भेजी जाती थीं । भारत बाहर से सोना, ताँबा, जस्ता, टिन, सीसा, शराब, घोड़े इत्यादि मँगाता था । लेकिन बराबर आयात की अपेक्षा निर्यात अधिक होता था, जिसका जरूरी मतलब हो जाता था काफी सोने का देश के भीतर की ओर प्रवाह ।
पहली सदी में प्लिनी ने कठोर शिकायत की कि भारतीय विलास-सामग्री के प्रयोग के कारण रोमन साम्राज्य से सोना खिंचता चला जा रहा है । इसी तरह की शिकायत अठारहवीं सदी में अंग्रेजों तक ने की ।
भारत का मुख्य उद्योग कपास, रेशम और ऊन की बुनाई थी । बंगाल के बाहर, लखनऊ, अहमदाबाद, नागपुर और मदुरा सूती उद्योग के महत्वपूर्ण केंद्र थे तथा पंजाब । काश्मीर में बढ़िया शालें बनायी जाती थीं । पीतल, ताँबे और काँसे के बिक्री के माल भारत में सर्वत्र तैयार किये जाते थे ।
कुछ उल्लेखनीय केंद्र थे, बनारस, तंजोर, पूना, नासिक और अहमदाबाद । अन्य महत्वपूर्ण उद्योग थे रत्न-व्यवसाय, पत्थर फी संगतराशी, सोने एवं चाँदी के तार का बारीक काम, तथा संगमरमर, चंदन, हाथीदाँत और शीशे पर कलापूर्ण काम । इनके अतिरिक्त कई दूसरे फुटकर कारीगरी और हुनर के काम थे जैसे चमड़ा शोधन, गंधी का काम, कागज बनाना इत्यादि ।
ढोने का व्यापार भी अधिकतर भारतीयों के हाथों में था । ईसा की उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक जहाज बनाने का उद्योग इंगलैंड की अपेक्षा भारत में अधिक विकसित था । भारतीय वस्त्र-व्यवसाय के समान, इसने भी अंग्रेज शिल्पियों में ईर्ष्या जगा दी तथा कानून के द्वारा इसकी प्रगति और विकास को अवरुद्ध कर दिया गया ।
बंगाल के समान ही, भारत के अवशिष्ट भाग में भी व्याप और उद्योग का हास अठारहवीं सदी के अंत में प्रारंभ हुआ तथा उन्नीसवीं सदी के मध्य तक जाते-जाते इसका नाश करीब-करीब पूरा हो गया ।
ह्रास के प्रमुख कारण वही थे जो बंगाल में काम कर रहे थे ब्रिटिश पार्लियामेंट की नीति, यंत्र द्वारा तैयार किये गये सस्ते मालों की प्रतियोगिता, तथा भारतीय कारीगरी एवं हुनर रक्षा करने अथवा उसे गेत्साहन देने में भारतीय सरकार की अनिच्छा या असमर्थता । किस हद तक भारत में ब्रिटिश सरकार की नीति भारत के व्यापार और उद्योग के ह्रास के लिए उत्तरदायी थी, यह विवादग्रस्त विषय है ।
कुछ लेखकों का विचार है कि सूती मालों के भारतीए शिल्प का नाश इंगलैंड की औद्योगिक क्रांति ने किया, जिसमें सूती मालों के उत्पादन में यांत्रिक सूत-कताई एवं यांत्रिक बुनाई का उपयोग किया गया था ।
वे कहते है कि इस उद्योग की रक्षा करने का कोई सफल प्रयत्न करना शासना- धिकारियों के लिए असंभव था, क्योंकि वे यंत्र और हस्त शिल्प के बीच हुए घोर वैषम्य को उलटने में सर्वथा असमर्थ थे । रशब्रुक विलियम्स उपर्युक्त विचार रखते है ।
वे आगे कहते है- “जो ब्रिटिश अधिकारियों पर, यंत्र-चालित ब्रिटिश उद्योग के नवीन और अत्यधिक लाभों के विरुद्ध, भारतीय सूती शिल्पों की रक्षा के लिए उपाय न करने का दोष महंगे वे यह मान लेने को विवश हैं कि उस समय के राजनीतिज्ञ इन समस्याओं को शुद्ध आधुनिक दृष्टिकोण से देखते थे” ।
दूसरी ओर, प्रसिद्ध लेखकों ने, जिनमें भारतीय और अंग्रेज दोनों है, बतलाया है कि इंगलैंड की औद्योगिक क्रांति स्वयं “भारत के लूटे हुए धन का परिणाम” थी, तथा ब्रिटिश अधिकारियों ने न केवल पतनोन्मुख भारतीय उद्योगों की रक्षा के लिए कोई उपाय नहीं किया, बल्कि उन्होंने उनके मार्ग में बाधाएं तक डालीं, और कम-से-कम कुछ दृष्टांतों में इंगलैंड के शिल्पों की उन्नति के उद्देश्य से भारतीय शिल्पों को हतोत्साह किया ।
ऊपर हमने रशब्रुक विलियम्स का मत उद्धृत किया है । इस सम्बन्ध में यह याद रखना आवश्यक है कि बहुत पहले ही- यहाँ तक कि १७०० ई॰ में (और उसके बाद बराबर ही) ब्रिटिश राजनीतिज्ञों को आधुनिक आर्थिक प्रणाली का काफी ज्ञान था कि अंग्रेजी उद्योग को कानून द्वारा भारतीय प्रतियोगिता से बचाना चाहिए ।
भारतीय उद्योग की रक्षा के लिए वैसे उपाय नहीं किये गये । मगर इस बात की व्याख्या, उपर्युक्त कारण से, राजनीतिज्ञता का अभाव कहकर नहीं की जा सकती थी और अगर हम यह कहें कि शासनाधिकारी भारतीय उद्योग को मारकर अंग्रेजी उद्योग की उन्नति करना चाह रहे थे, तो यह तर्करहित नहीं माना जा सकता ।
हाँ, इसमें तर्कसंगत संदेह हो सकते है कि यदि अंग्रेजी प्रतिद्वंद्विता के ज्वारभाटे के प्रतिरोध की कोई चेष्टा होती, तो उसमें सफलता मिलती या नहीं । किन्तु यह प्रश्न कल्पना पर अवलंबित है तथा महत्वपूर्ण विचार्य विषयों को उठाता है, जिनका विश्लेषण यहाँ नहीं हो सकता ।
मोटामोटी बात यही है कि उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में भारत ने संसार के व्यापार एवं उद्योग में आधिपत्य का गौरवपूर्ण स्थान खो दिया जो इसे करीब-करीब दो हजार वर्षों तक प्राप्त था, तथा धीरे-धीरे यह कच्चे मालों के उत्पादन के एक उपनिवेश एवं पश्चिम के सस्ते तैयार सालों के ।
एक गोदाम के रूप में परिवर्तित हो गया । इस समय सरकार, जिस पर इसके अतिवर्धनशील साधारण जनों की भलाई का भार था, टुकुर-टुकुर ताकती रही तथा आपत्ति के रोकने का यथेष्ट उपाय नहीं किया ।