ईस्ट इंडिया कंपनी नियम के दौरान शासन | Governance during the East India Company Rule.

नौर्थ का रेगुलेटिंग ऐक्ट (Regulation of Act of the North)

ईस्ट इंडिया कम्पनी के वास्तविक रूप में बंगाल का राज्य पा लेने से महत्वपूर्ण समस्थाएँ खड़ी हुईं । क्या किसी खानगी निगम को पार्लियामेंट की किसी तरह की देखरेख के बिना विस्तृत राज्य पर शासन करने दिया जा सकता था ।

क्या वाणिज्य और व्यापार चलाने के लिए तैयार किया गया संविधान एक पूर्वीय साम्राज्य के शासन के लिए समान रूप से उपयुक्त था ? यही प्रश्न इंगलैंड में राजनीतिज्ञों और राजनयज्ञों को दोलित कर रहे थे । वे पार्लियामेंट में दलीय स्तर पर विचार्य विषय बना लिये जाते थे ।

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यहीं नहीं, उनके साथ व्यक्तिगत स्वार्थ भी बँधे थे जिस कारण वे और भी जटिल हो गये थे । इस महत्वपूर्ण समस्या का इतिहास और इंग्लैंड के संसदीय इतिहास पर इसका प्रभाव बतलाना प्रस्तुत पुस्तक के बाहर की बात है ।

इतना ही कहना यथेष्ट है कि पार्लियामेंट में काफी बहस हुई, जिसमें बहुधा प्रचंड निंदाएँ एवं व्यक्तिगत स्तर पर पारस्परिक दोषारोपण हुए तब कहीं पार्लियामेंट ने एक प्रवर समिति एवं ण्क गुप्त समिति नियुक्त की और अंत में १७७३ ई॰ में इसने प्रसिद्ध ‘रेगुलेटिंग ऐक्ट’ (नियामक कानून) पास किया, जिसने कम्पनी पर संसदीय निरीक्षण प्रारम्भ किया तथा इंगलैंड और भारत दोनों देशों में इसके संविधान को परिवर्तित किया ।

इस कानून ने मतदान के अधिकार को पाँच सौ पौंड से बढ़ाकर एक हजार पौंड कर दिया इस प्रकार इसने मालिक-मंडल (कोर्ट ऑफ प्रोप्राइटर्स) में मतदान की शक्ति को सीमाबद्ध कर दिया । अब तक चौबीस डाइरेक्टर प्रति वर्ष चुने जाते थे । वे अब चार वर्षों के लिए चुने जाने लगे ।

उनकी चौथाई संख्या प्रति वर्ष अवकाश ग्रहण करने लगी । कानून में यह भी था कि “डाइरेक्टरों को राजस्व-विभाग (ट्रेजरी) के सामने भारत से आनेवाला राजस्व-सम्बन्धी सारा पत्र-व्यवहार रख देना चाहिए, तथा राज्य-सचिव के सामने असैनिक या सैनिक शासन के सम्बन्ध की हर बात रख देनी चाहिए ।”

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इस प्रकार कम्पनी के मामलों पर पार्लियामेंट का नियंत्रण रखने की पहली निश्चित कार्रवाई की गयी । १७८१ ई॰ में एक परिपूरक कानून पास हुआ, जिसके अनुसार सभी सरकारी पत्रों को, जो भारत भेजे जानेवाले थे एक राज्य-सचिव को दिखलाना पड़ता था ।

भारत में शासन के सम्बन्ध में उक्त कानून की मुख्य धाराएँ निम्नलिखित थी: बंगाल का शासन एक गवर्नर-जनरल और चार सदस्यों की एक परिषद् (कौंसिल) के हवाले कर दिया गया । बहुमत को मानना पड़ता था मतों की बराबरी की हालत में अध्यक्ष को एक अधिक मत (वोट) प्राप्त था ।

प्रथम गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स और चार परिषत्सदस्यों-क्लेवरिंग, मौनसन, बारवेल एवं फिलिप फ्रांसिस-के नाम कानून में उल्लिखित थे । वे पाँच वर्षों के लिए नियुक्त हुए (यह अवधि परिपूरक कानूनों द्वारा और भी बढ़ा दी गयी) ।

उनके उत्तराधिकारी कम्पनी द्वारा नियुक्त होनेवाले थे । कौंसिल-सहित गवर्नर-जनरल युद्ध और शान्ति के मामलों में बम्बई और मद्रास की अधीन प्रेसिडेंसियों पर नियंत्रण रख सकता था । और भी, कानून ने क्राउन को अधिकार दिया कि वह राजकीय सनद द्वारा एक सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट ऑफ जस्टिस) स्थापित करें, जिसमें एक प्रधान न्यायधीश और तीन छोटे दर्जे के न्यायाधीश हों ।

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‘रेगुलेटिंग ऐक्ट’ १७७३ ई॰ से १७८४ ई॰ तक चालू रहा । इस प्रकार गवर्नर-जनरल की हैसियत से वारेन हेस्टिंग्स का करीब-करीब पूरा शासन-काल इसके अंदर आ जाता है । अतएव इस कानून के परिणामों का सबसे अच्छा विस्तृत अध्ययन उस युग की घटनाओं में ही हो सकता है ।

सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि यह कानून ज्योंही व्यावहारिक अर्क में पर चढ़ाया गया, करीब-करीब त्योंही टूट भी गया । गवर्नर-जनरल कौंसिल के बहुमत के अधीन था । इस बात से केंद्रीय सरकार में कमजोरी एवं अस्थिरता चली आयी और यह भारत में ब्रिटिश शासन के लिए सांधातिक साबित हो सकती थी ।

अधीन प्रेसिडेंसियों पर निगरानी रखना अत्यंत कठिन काम था और प्रथम अंग्रेज-मराठा-युद्ध की घटनाओं ने इसके अव्यावहारिक पहलू को दिखा दिया । सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना से अनंत उलझनें पैदा होने लगीं, क्योंकि इसका अधिकार क्षेत्र उचित रूप में निर्धारित नहीं था और स्वभावत: कानून की मौजूदा कचहरियों से इसका संघर्ष होने लगा ।

इंगलैंड में भी बहुत-से उल्लेखनीय उदाहरणों में डाइरेक्टरों के कामों पर मंत्रि-मंडल का नियंत्रण भ्रांतिपूर्ण ही सिद्ध हुआ । समूची परिस्थिति निम्नलिखित वाक्य में सुंदर ढंग से संक्षेप में कह दी गयी है- “इसने न तो राज्य को कम्पनी पर निश्चित नियंत्रण दिया, न डाइरेक्टरों को अपने नौकरों पर निश्चित नियंत्रण दिया, न गवर्नर-जनरल को अपनी कौंसिल पर निश्चित नियंत्रण दिया, और न कलकत्ता प्रेसिडेंसी को मद्रास एवं बम्बई पर निश्चित नियंत्रण दिया ।”

नवीन शासन-काल का उद्‌घाटन २६ अक्टूबर, १७७४ ई॰ को हुआ । इसके तुरंत बाद वारेन हेस्टिग्स को अपनी कौंसिल में बहुमत के विरोध का सामना करना पड़ गया । नवीन कौंसिलरों का रुख प्रारम्भ से ही अमैत्रीपूर्ण था । वे विभिन्न बातों के सम्बन्ध में गवर्नर-जनरल की नीति पर आक्रमण करते थे ।

फ्रांसिस गवर्नर-जनरल का विरोध करने में मुख्य व्यक्ति था । वह इस पूर्व-निश्चित धारणा के साथ भारत आया था कि शासन बुराइयों से भर गया था तथा उसमें मौलिक सुधारों की आवश्यकता थी ।

कौंसिलरों के प्रबल और दृढ़तापूर्ण आक्रमणों से वारेन हेस्टिंग्स कुछ वर्षों तक अपनी कौंसिल में शक्तिहीन बना रहा तथा उसकी प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा परिणाम यह हुआ कि उसके शत्रुओं द्वारा उसपर घूसखोरी और सबन के अभियोग लगाये गये । यह परिस्थिति मौनसन की मृत्यु (२५ सितम्बर, १७७७ ई॰) तक कायम रही ।

नंद कुमार इस परिस्थिति का अच्छा उदाहरण है । वह कुलीन ब्राह्मण था । उसने नवाब की सरकार में महत्वपूर्ण पद प्राप्त किया था । वारेन हेस्टिंग्स ने उसे उसके घर से वंचित कर डाला तथा उसके शत्रु मोहन प्रसाद नामक एक भारतीय बैंक के प्रबंवकर्ता पर विशेष कृपा दिखलायी । इससे वह वारेन हेस्टिंग्स से रंज हो गया ।

११ मार्च, १७७५ ई॰ को वह यह अभियोग लाया कि वारेन हेस्टिंग्स ने कई लाख रुपयों के उपहार लिये है । इस रकम में उसके मतानुसार तीन लाख चौवन हजार एक सौ पाँच रुपये भी सम्मिलित थे जो वारेन हेस्टिंग्स ने मीर जाफर की विधवा मुन्नी बेगम से उसे नवाब के घर के नियंत्रण में रखने के लिए लिये थे ।

यह निश्चयपूर्वक कहना बहुत कठिन है कि अभियोग सच थे या झूठ । वारेन हेस्टिंग्स ने इन अभियोगों का जवाब देने तथा अपनी कौंसिल के समक्ष विचारित होने से कर दिया, यद्यपि ऐसा करके उसने कोई बुद्धिमानी नहीं की । उसका कहना था कि कौसिल का एक सदस्य वादी था जिससे उसे सबसे अधिक घृणा थी तथा जिसे यह “नराधम” समझता था ।

लेकिन कौंसिल के सदस्य गवर्नर-जनरल के लिए सन्देह और नफरत से भरे थे । वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उसके विरुद्ध लगाये गये अभियोग सच थे तथा उसे कम्पनी के खजाने में रकम जमा कर देनी चाहिए ।

१७७६ ई॰ में इंगलैंड में कम्पनी के कानून अफसरों ने घोषणा की कि यदि इन अभियोगों पर एकतरफा विचार किया जाए तो भी ये झूठे ठहरेंगे । इसी बीच १७७५ ई॰ के मई महीने में मोहन प्रसाद नंद कुमार पर जालसाजी का अभियोग ले आया ।

यह पाँच साल पहले अमल में लाये गये एक वसीयतनामे के सम्बन्ध में था । सर्वोच्च न्यायालय और एक पंच-समुदाय द्वारा नंद कुमार की जाँच हुई । वह दोषी पाया गया । उसे प्राण-दंड मिला तथा फाँसी पर चढ़ा दिया गया ।

इसमें संदेह नहीं कि नंद कुमार के साथ उचित न्याय नहीं किया गया तथा कम-से- कम उसके प्राणदंड के सम्बन्ध में “न्याय का गला घोंटा गया” । सर जेम्स-स्टीफेन कहते हैं कि “यदि मुझे उसी प्रमाण पर निर्भर रहना पड़ता जो वादीपक्ष के लिए प्रस्तुत किया गया था, तो मैं बंदी को सजा न देता” । फिर, सर्वोच्च न्यायालय का देशी जनता पर अधिकार-क्षेत्र संदिग्ध था ।

सच तो यह है कि- “वह अंग्रेजी कानून जिसमें जालसाजी के लिए प्राण-दंड निर्धारित हुआ था नंद कुमार की बतायी गयी जालसाजी के बहुत वर्ष बाद भारत में लागू किया गया था” । और भी, न्यायाधीशों ने एक नया तरीका अख्तियार किया वह यह कि उन्होंने मुद्दालेह के गवाहों से खुद जिरह की, “और वह भी कुछ कड़ाई के साथ” ।

कभी-कभी यह कहा जाता है कि नंद कुमार की फाँसी “न्याय की हत्या थी” । उस समय कुछ के द्वारा यह खुले तौर पर कहा जाता था कि मोहन प्रसाद वारेन हेस्टिग्स की कठपुतली था, जिसने अभियुक्त के विरुद्ध न्याय-संबंधी निर्णय पर प्रभाव डाला ।

नंद कुमार ने क्लेवरिंग को लिखा कि मैं गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल (कौंसिल सहित गवर्नर-जनरल) और सुप्रीम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायालय) के बीच हुए एक षड्‌यंत्र का शिकार बन गया हूँ । लेकिन यह याद रखना चाहिए कि केवल इंपे ही मुकद्दमे की जाँच करनेवाला न्यायाधीश न था; वहाँ उसके सहकर्मी एवं पंच-समुदाय (जूरी) भी थे ।

यह भी याद रखना चाहिए कि इंपे के साथ वारेन हेस्टिग्स का षड्‌यंत्र सिद्ध करनेवाला कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है इंपे के साथ सदैव उसके संबंध अच्छे नहीं रहते थे । कौंसिल का नंद कुमार के बचाने की चेष्टा न करना कुछ-कुछ रहस्यमय प्रतीत होता है ।

फ्रांसिस ने सुझाव दिया कि प्राणदंड से छुटकारे के लिए अपील की जाए; किन्तु क्लेवरिंग और मौनसन ने इसका विरोध किया । राबर्ट्स कहता है- “जिन लोगों ने उसका अपने खास उद्देश्य के लिए उपयोग किया और पीछे निर्दयता एवं घृणा के साथ उसे भेड़ियों के बीच फेंक दिया, उनकी प्रतिष्ठा पर यह सबसे काला और सबसे बुरा कलंक है ।”

पिट् का इंडिया ऐक्ट  (Pitt’s India Act):

कुछ वर्षों के भीतर रेगुलेटिंग ऐक्ट की बड़ी-बड़ी त्रुटियाँ साफ दीख पड़ने लगीं । तब उचित उपचारों के लिए नवीन प्रयत्न होने लगे । १७८३ ई॰ में जब कम्पनी वित्तीय सहायता के लिए पार्लियामेंट के सम्मुख हाथ पसारने को लाचार हुई, तब यह बात आ खड़ी हुई । बर्क ने दावा दिया कि कम्पनी की सहायता और कम्पनी का सुधार दोनों साथ-साथ ही होना चाहिए । ऐसा कहकर वह सामान्य मत ही प्रकट कर रहा था ।

सुधार का पहला प्रस्ताव डुंडाज द्वारा किया गया; किन्तु इसका कोई फल न निकला । फौक्स ने विधेयक (बिल) पेश किया, जो एक लंबे और उग्र विवाद के वाद ब्रिटिश लोक-सभा (हाउस ऑफ कौमंस) में पास हो गया, लेकिन मुख्यतया राजा जार्ज तृतीय के हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप लार्ड-सभा में गिर गया । फौक्स के बाद पिट आया । उसने जनवरी, १७८४ ई॰ में एक नया विधेयक पेश किया । यह उसी वर्ष अगस्त में पास हो गया ।

पिट के इंडिया ऐक्ट (भारत कानून) ने “भारत के मामलों के लिए” छ: “कमिश्नर” (आयुक्त) बहाल किये-एक राज्य-सचिव, अर्थ-सचिव (चांसलर ऑफ दि एक्स-चेकर) और चार प्रिवी कौंसिलर । इनकी नियुक्ति राजा द्वारा होती थी । यह संस्था सामान्यतया “बोर्ड ऑफ कंट्रोल” (नियंत्रण-समिति) के नाम से प्रसिद्ध हुई ।

इसे बोर्ड ऑफ डिरेक्टर्स (संचालक-समिति) पर प्रभावजनक रूप में निगरानी रखनी थी । इसकी पहुंच कम्पनी के सभी कागजों तक थी । इसकी स्वीकृति के बिना शुद्ध व्यापारिक छोड़ दूसरा कोई भी सरकारी पत्र नहीं भेजा जा सकता था ।

मालिक-मंडल (कोर्ट ऑफ प्रोप्राइटर्स) की ताकत काफी घट गयी, क्योंकि कमिश्नरों द्वारा स्वीकृत संचालक-समिति के किसी प्रस्ताव को यह (मंडल) रद्द या स्थगित नही कर सकता था । इन कमिश्नरों को यह भी अधिकार मिला की वे डाइरेक्टरों की एक गुप्त समिति द्वारा आवश्यक या गुप्त आदेश भेज सकते हैं ।

गुप्त समिति द्वारा इन आदेशों की स्वीकृति औपचारिकता मात्र थी । इस प्रकार सर्वोच्च अधिकार कमिश्नरों के हाथों में चला गया तथा डाइरेक्टरों के हाथों में केवल नियुक्त करने का अधिकार-यानी अपने नौकरों के बहाल और बर्खास्त करने का अधिकार-रह गया । भारतीय शासन में भी साथ-ही-साथ महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये ।

गवर्नर-जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या घटाकर तीन कर दी गयी । केवल कम्पनी के अहदनामे-से-बंधे नौकर ही इन पदों के योग्य बनाये गये । कौंसिल सहित गवर्नर-जनरल का मद्रास और बम्बई की प्रेसिडेंसियों पर नियंत्रण स्पष्ट रूप में निर्धारित हुआ तथा अधिक प्रभावकारी हनाया गया । १७८६ ई॰ में एक परिपूरक विधेयक पास हुआ ।

इसके अनुसार खास-खास हालतों में गवर्नर-जनरल को कौंसिल के बहुमत के विरुद्ध काम करने तथा प्रधान सेनापति का पद धारण करने का अधिकार मिल गया । भारत में कम्पनी का शासन जब तक रहा, तव तक पिट के इंडिया ऐक्ट द्वारा तैयार किये गये संविधान में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ । १७८६ ई॰ और १८५८ ई॰ के बीच जो परिवर्तन हुए भी, वे कम महत्वपूर्ण है ।

चार्टर ऐक्ट (Charter Act):

यह स्मरण रखना चाहिए कि १७८६ ई॰ और १८५८ ई॰ के बीच जो भी कानून-निर्माण-संबंधी परिवर्तन हुए, वे सदैव कंपनी के चार्टर (सनद) के पुनर्नवीकरण से संवद्ध थे । ये पुनर्नवीनीकरण १७९३ ई॰, १८१३ ई॰, १८३३ ई॰ और १८५३ ई॰ में हुए । जहाँ तक गृह सरकार का सम्बन्ध है सबसे अधिक उल्लेखनीय परिवर्तन बोर्ड ऑफ कंट्रोल के बारे में हुए ।

इसकी शक्तियाँ धीरे-धीरे प्रेसिडेंट के हाथों में केंद्रीभूत कर दी गयीं । फलत: वह एक तौर से भारत के लिए कैबिनट मिनिस्टर बन बैठा । १८१३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट ने (जो लार्ड मिंटो के समय में पास हुआ) कम्पनी के भारतीय व्यापार के एकाधिकार को उठा दिया तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकत स्थानों में एवं उसके अधिकृत स्थानों पर “क्राउन की असंदिग्ध सर्वोच्च शक्ति” स्थापित की । १८३३ ई॰ के चार्टर एक्ट ने कम्पनी की व्यापारिक क्रियाशीलता उठा दी और तब से यह (कम्पनी) क्राउन के अधीन एक शुद्ध प्रशासनिक संस्था रह गयी ।

भारत में, अधीन प्रेसिडेंसियों पर गवर्नर-जनरल की शक्तियाँ १७९३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट द्वारा और भी बढ़ा दी गयीं । इस कानून ने उसे इस योग्य बना दिया कि वह स्वयं मद्रास एवं बम्बई जाए और उनके शासन पर भी बंगाल जितना अधिकार ही रखे ।

१८३३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट ने न केवल गवर-जनरल और कौंसिल को अधीन प्रेसिडेसियों के ऊपर अधीक्षण, निर्देशन एवं नियंत्रण दिये, बल्कि अधीन प्रेसिडेंसियों से कानून बनाने की सारी ताकत छीन ली तथा कानून-निर्माण-सम्बन्धी समग्र अधिकार गवर्नर-जनरल और कौंसिल में केंद्रीभूत कर दिया ।

अब से, कुछ आवश्यक अपवादों को छोड़, गवर्नर-जनरल और कौंसिल सभी व्यक्तियों के लिए-चाहे वे ब्रिटिश हों या भारतीय-एवं सभी न्यायालयों के लिए-चाहे वे ब्रिटिश सम्राट् (हिज मैजेस्टी) की सनदों द्वारा स्थापित हों या दूसरे ढंग सें-कानून और नियम बना सकती थी ।

कौंसिल को इन महत्वपूर्ण कामों के योग्यतापूर्वक करने में समर्थ बनाने के लिए इसमें कानून का विशेष ज्ञान रखनेवाला एक नया सदस्य बढ़ा दिया गया । कानून-सदस्य कम्पनी का नौकर नहीं हो सकता था । वह कौंसिल की केवल उन्हीं बैठकों में बोल सकता और मत दे सकता था, जिनमें कानून-निर्माण-सम्बन्धी काम पर विचार होता था ।

अब कम्पनी के भारत-स्थित राज्य में गवर्नर-जनरल और कौसिल का अधिक महत्वपूर्ण स्थान हो गया । इस पर जोर देने के उद्देश्य से इस देश का सर्वोच्च अधिकारी अब से ‘गवर्नर-जनरल ऑफ इंडिया इन कौंसिल’ कहा जाने लगा । गवर्नर-जनरल-इन कौंसिल ही बंगाल की सरकार का भी निर्माण करता था । कानून ने यह आदेश दे दिया कि कौंसिल का एक सदस्य प्रांत का डिप्टी गवर्नर नियुक्त हो सकेगा ।

१८५३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट से और भी परिवर्तन हुए । डाइरेक्टरों की संख्या घटाकर अठारह कर दी गयी । इनमें तीन (पीछे छ:) को क्राउन द्वारा नियुक्त होना था । असैनिक नौकरों की बहाली के लिए एक खुली प्रतियोगितात्मक परीक्षा शुरू हुई । इससे डाइरेक्टरों का नियुक्त करने का अधिकार छिन गया ।

बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रेसिडेंट का दरमाहा एक राज्य-सचिव के दरमाहे के बराबर कर दिया गया । केंद्रीय और प्रांतीय दोनों तरह के कौंसिलरों की सभी नियुक्तियों के लिए क्राउन की स्वीकृति आवश्यक थी ।

जहां तक भारत की सरकार का सम्बन्ध है, सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन इसके कानून-निर्माण-सम्बन्धी काम के बारे में हुए । कानून-सदस्य गवर्नर-जनरल की कौंसिल का एक साधारण सदस्य बना दिया गया । कोई भी कानून गवर्नर-जनरल की स्वीकृति के बिना नहीं बन सकता था ।

कानून-निर्माण के लिए कौंसिल को भी बड़ा कर दिया गया । इसमें छ: नये सदस्य बढ़ा दिये गये, जो “लेजिस्लेटिव कौंसिलर” कहलाते थे । ये थे-चार प्रांतीय सरकारों (बंगाल, बम्बई, मद्रास और उत्तर-पश्चिमी प्रांत) के चार मनोनीत व्यक्ति, तथा सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश एवं छोटे-दर्जे का न्यायाधीश ।

मनोनीत सदस्यों को कम-से-कम दस वर्षों की पद-मर्यादावाले असैनिक नौकर होना चाहिए । भारतीय कानूनों के संग्रह के लिए लंदन में एक कानून-आयोग नियुक्त किया गया । इसीके फलस्वरूप अंत में पीनल कोड, क्रिमिनल प्रोसीडयोर कोड और सिविल प्रोसीडयोर कोड कानून के रूप में आये ।

एक-के-बाद-दूसरे चार्टर ऐक्टों (सनद-कानूनों) के द्वारा किये गये परिवर्तन नौर्थ के रेगुलेटिंग ऐक्ट और पिट के इंडिया ऐक्ट के द्वारा प्रारंभ की गयी प्रक्रिया को उसके तर्क-संगत अंत तक लाने के प्रयत्न-मात्र थे यानी कम्पनी से धीरे-धीरे शक्ति और अधिकार क्राउन को हस्तांरित करना ।

इस समूचे युग में इन दोनों के बीच का सम्बन्ध उलझनपूर्ण था । यह अधिक अंश तक बोर्ड के प्रेसिडेंट के व्यक्तित्व और कैबिनेट (मंत्रिमंडल) में उसके प्रभाव पर निर्भर रहता था । सूत्रपात, निर्देशन एवं नियंत्रण के अतिरिक्त शक्तिशाली प्रेसिडेंट करीब-करीब हर बात में डाइरेक्टरों को जबर्दस्ती झुका सकता था ।

लेकिन डाइरेक्टरों को भी सदैव बड़े अंश तक प्रतिरोध करने और उसके रास्ते में रोड़े अटकाने की शक्ति प्राप्त थी । गवर्नर-जनरल को वापस बुलाने का अधिकार सदैव उनके हाथों में एक महत्वपूर्ण अस्त्र था । कोई भी प्रेसिडेंट आसानी से उनकी दृढ़ शत्रुता और विकट प्रतिरोध की जोखिम नहीं उठा सकता था । लेकिन अवश्यंभावी घटनाओं की श्रेणी ने बतला दिया कि एकमात्र तर्कसंगत अंत कम्पनी का विनाश है ।

१८३३ ई॰ के चाटर ऐक्ट के बाद कम्पनी का मुख्य विशेषाधिकार और अस्तित्व का औचित्य रह गया था असैनिक नौकरों की नियुक्ति । यह एक शक्तिपूर्ण अधिकार था, जो ब्रिटिश लोकतंत्र पर खतरा लाये बिना कैविनेट (मंत्रिमंडल) को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता था ।

जब असैनिक नौकरों की बहाली के लिए प्रतियोगितात्मक परीक्षा की व्यवस्था हुई (१८५३ ई॰) तब प्रभावपूर्ण शक्ति का यह अंतिम चिह्न भी जाता रहा तथा कम्पनी के उठा देने और क्राउन को इसकी शक्तियों के हस्तांतरण का रास्ता साफ हो गया । यह अंत बहुत को पहले ही मालूम पड़ गया था । रादर इसे एक-ब-एक आकस्मिक तौर पर ले आया । किन्तु यदि सदर नहीं भी होता, तो भी यह (अंत) साधारण ढंग से शीघ्र ही घटित हो जाता ।

सुप्रीम कोर्ट  (Supreme Court):

कलकत्ते में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना और इसके प्रारंभिक इतिहास के सम्बन्ध में पहले ही उल्लेख किया जा चुका है । १७९७ ई॰ में जजों की संख्या घटाकर तीन कर दी गयी । उसी प्रकार की शक्तियों, संविधान एवं कार्यक्षेत्र से संपन्न एक सुप्रीम कोर्ट मद्रास में १८०१ ई॰ में और बम्बई में १८२३ ई॰ में खोला गया ।

१८५३ ई॰ में इन कचहरियों का कार्यक्षेत्र इन तक सीमित था:

(a) ब्रिटिश- जात प्रजाजन,

(b) तीनो नगरों की सीमाओं के अंतर्गत रहनेवाले या इनमें कोई निवास-भवन एवं नौकर रखनेवाले व्यक्ति, तथा

(c) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कम्पनी की नौकरी में रहनेवाले सभी व्यक्ति ।

इन कचहरियों द्वारा जिस कानून का अनुसरण किया जाता था, वह था १७२६ ई॰ का अंग्रेजी कानून जो पीछे भारत के ख्याल से खास तौर पर संशोधित होता रहा तथा भारत सरकार द्वारा बनाये गये नियम ।

किन्तु जहाँ तक पूर्व पुरुषों से संपत्ति-अर्जन उत्तराधिकार एवं इकरारनामे का संबंध है, हिन्दू कानून और रस्म-रिवाज हिन्दुओं के लिए तथा मुस्लिम कानून और रस्म-रिवाज मुस्लिमों के लिए लागू होने को थे ।

यदि झगड़े की रकम चार हजार रुपयों (बम्बई में तीन हजार रुपयों) से अधिक होती थी, तो इन कचहरियों के फैसलों के विरुद्ध किंग-इन-कौंसिल में अपील की जा सकती थी । १८३३ ई॰ के कानून (स्टेटयूट) ने किंग-इन-कौंसिल के समस्त अपीलीय कार्य-क्षेत्र को बदलकर नवनिर्मित प्रिवी कौंसिल की जुडीशियल कमिटी (न्याय-समिति) को दे दिया । इस कमिटी में प्रेसिडेंट, लार्ड चांसलर तथा अन्य सदस्य होते थे । सदस्यों में दो ऐसे रहते थे, जो समुद्र के पार ब्रिटिश राज्य में जज का काम किये हुए होते थे ।

अंत में हम भारत के न्याय-शासन की दो अत्यंत उल्लेखनीय युगांतरकारिणी घटनाओं का जिक्र करना चाहते हैं । वे हैं कानूनों को क्रमानुसार रखना (कोडबद्ध करना) तथा हाई कोर्टों की स्थापना । इनकी नींव कम्पनी के शासन में ही डाली गयी थी, यद्यपि ये भारत के क्राउन के अधीन जाने पर पूरे हुए ।

विभिन्न कानूनों और रस्म-रिवाजों के स्थान पर कानून के एक क्रमबद्ध कोड (संग्रह) का विचार ब्रिटिश इतिहास के प्रारंभिक युग में ही उठा था । ब्रिटिश राज्यों में व्यवस्थित कानून के कम-से-कम पाँच विभिन्न दल काम कर रहे थे तथा यह स्थिति बराबर अत्यंत असंतोषजनक समझी जाती थी ।

१८३३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट ने नियम बनाया कि उनका दृढ़ीकरण और संग्रह हो जाना चाहिए । तदनुसार सन् १८३४ ई॰ में एक लॉ कमीशन की नियुक्ति हुई । मैकाले इस कमीशन का प्रमुख व्यक्ति था । उसने इंडियन पेनल कोड (भारतीय दंड-संहिता) का एक प्रारूप तैयार किया । किन्तु उसके चले जाने के बाद कुछ नहीं किया गया तथा कमीशन अंत में उठा दिया गया ।

१८५३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट से एक नवीन कमीशन की नियुक्ति हुई । इसने योजनाएँ पेश कीं, जिनके अनुसार सुप्रीम कोर्ट एवं सदर दीवानी अदालत को मिलाकर हाई कोर्टों का निर्माण होना था तथा ब्रिटिश भारत के इन हाई कोर्टों एवं निम्नतर कचहरियों में एक ही तौर का दीवानी और फौजदारी कानून लागू किया जाना था ।

सिफारिशें मान ली गयीं । १८६१ ई॰ में इंडियन हाई कोर्ट्स ऐक्ट (भारतीय हाईकोर्ट कानून) ने कलकत्ता, बम्बई, मद्रास इनमें से प्रत्येक नगर में पुरानी सुप्रीम कोर्ट और सदर दीवानी अदालत के स्थान पर एक-एक हाई कोर्ट की स्थापना का अधिकार दे दिया । इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट और सदर दीवानी अदालत करीब नब्बे वर्षों के बाद लुप्त हो गयीं । इसी नीति का अनुसरण कर १८६६ ई॰ में इलाहाबाद में एक हाई कोर्ट की तथा पंजाब में एक चीफ कोर्ट की स्थापना की गयी । मैकाले का पेनल कोड संशोधित होकर १८६० ई॰ में कानून के रूप में पास हुआ । एक सिविल प्रोसीडयोर कोड और एक क्रिमिनल प्रोसिडयोर कोड क्रमश: १८५९ ई॰ और १८६१ ई॰ में जारी किये गये ।