Read this article in Hindi to learn about the condition of ecology and environment during ancient India.
इस समय अनेक देशों में बढ़ते उद्योगीकरण और जनसंख्या के विस्फोट के कारण प्राकृतिक पर्यावरण के, अर्थात् वनस्पतियों, पशुओं, जल संसाधन, मिट्टी, धातुओं इत्यादि के संरक्षण की समस्या ने विश्वस्तर पर ध्यान आकर्षित किया है । प्राकृतिक पर्यावरणों और मानव आबादी के बीच का पारस्परिक प्रभाव महत्वपूर्ण विषय माना जाता है । इन्हीं सब को पारिस्थितिकी और पर्यावरण की समस्या कहते हैं ।
पारिस्थितिकी (Ecology):
अंग्रेजी शब्द ‘इकॉलाजी’ (अर्थात् पारिस्थितिकी) 1869 ई॰ में गढ़ा गया । यह अपेक्षाकृत नया विज्ञान है । हाल तक इसे जीव विज्ञान की शाखा समझा जाता था लेकिन अब यह स्वतंत्र विषय माना जाता है । फिर भी यह जीव विज्ञान से घनिष्ठ संबंध रखता है ।
यह विषय पौधों पशुओं और मानवों जैसे अनेक जीवधारियों के बीच पारस्परिक प्रभाव पर विचार करता है । मानवों के आविर्भाव के साथ ही भोजन आश्रय और परिवहन की आवश्यकता सामने आई ।
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प्राचीन काल में मनुष्य जंगली पैदावार को एकत्रित कर तथा पक्षियों और पशुओं का शिकार कर जीवनयापन करता था । लेकिन औद्योगिक युग में मनुष्य का पौधों और पशुओं के साथ संबंध बहुत बदल गया है और अब बहुत-से जीव-जंतु मनुष्य के प्रयत्न से सुरक्षित हैं ।
पर्यावरण और मानव प्रगति (Environment and Human Progress):
पर्यावरण का अर्थ होता है प्राकृतिक और मानवनिर्मित दोनों प्रकार के परिवेश । प्राकृतिक तत्त्वों में मिट्टी हवा और पानी हैं जिनके सहारे पशु, पौधे और मनुष्य जीवित रहते हैं । मानवनिर्मित पर्यावरण से भोजन आश्रय और परिवहन की सुविधाएँ मिलती हैं जैसे सड़कें पुल बाँध और आवास की तरह प्रयोग में आनेवाली अनेक प्रकार की संरचनाएँ ।
पर्यावरण के अंतर्गत ग्रामीण, शहरी, सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अवस्थाएं भी आती हैं । पर्यावरण मानवीय प्रयासों को दिशा प्रदान करता है । लेकिन इसे पर्यावरण नियतिवाद बतलाना गलत होगा क्योंकि मानवीय प्रयास पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जलवायु और नदी मार्गों में परिवर्तन होने से जहाँ एक ओर जातियों का परित्याग हुआ और आबादियों का स्थानांतरण हुआ वहीं दूसरी ओर मानव द्वारा जंगलों की कटाई होने से अनाजों का उत्पादन संभव हुआ और बड़ी-बड़ी बस्तियाँ बस पाईं ।
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यद्यपि 9000 ई॰ पू॰ से विश्व के पैमाने पर जलवायु संबंधी बड़े परिवर्तन नहीं हुए हैं तथापि कुछ क्षेत्रों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं । इसलिए प्राचीन जलवायु के ज्यादातर विद्वानों का मत है कि ई॰ पू॰ तीसरी और दूसरी सहस्राब्दियों में मध्य एशिया में घोर सूखापन था तथा बहुत ठंडा तापमान था ।
द्वितीय सहस्राब्दी ई॰ पू॰ के आरंभ से यहाँ कड़ाके की ठंड पड़ने लगी जिसके कारण दक्षिण मध्य एशिया के बहुत सारे लोग कम ठंड वाले इलाके की खोज में भारतीय उपमहादेश की ओर चल पड़े । इन लोगों में हिंद-आर्य भाषाभाषी तथा ऋग्वैदिक लोग भी थे ।
प्राचीन काल से ही मनुष्य अपनी प्रगति के लिए प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पर निर्भर रहा है । भारत में प्राचीनतम मानव बस्तियों की स्थापना प्राय: पहाड़ी, पठारी और जगंली क्षेत्रों में झीलों और नदियों के नजदीक हुई जहाँ लोग शिकार करने के लिए पत्थर और हड्डी के औजार बना सकते थे । इन औजारों से कृषि के लिए जमीन भी जोती जाती थी । साथ ही आवासों को खड़ा करने हेतु समतल जमीन तैयार की जाती थी ।
पर्यावरण और मानव बस्तियाँ (Environment and Human Settlements):
गंगा के मैदान में जगंलों की कटाई और कड़ी कछारी भूमि की जुताई के बिना बड़ी कृषक बस्तियों की स्थापना होनी असंभव थी । यह सब 500 ई॰ पू॰ से लोहे की कुल्हाड़ी और लीहे के फाल के प्रयोग से ही प्रभावकारी ढंग से संभव हो सका ।
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इसके लिए लोहे की खानों की खोज करना और निष्कर्षण को प्रौद्योगिकी तथा लौहशिल्प की तकनीक को विकसित करना जरूरी था क्योंकि मध्य गंगा के मैदान की कड़ी कछारी मिट्टी विंध्य क्षेत्र की लाल मिट्टी और दकन तथा पश्चिमी भारत की कपास पैदा करनेवाली काली मिट्टी की कारगर जुताई के लिए लोहे के फालों की आवश्यकता थी ।
आजकल पर्यावरण के संरक्षण पर बल दिया जाता है । फिर भी जंगलों की कटाई के बावजूद सोलहवीं-सत्रहवीं सदियों तक दोआब के जंगल बरकरार रहे और वहाँ पशुओं के शिकार होते रहे । जंगलों की भारी कटाई से होने वाला पारिस्थितिकीय परिवर्तन आधुनिक समय की घटना है ।
बहरहाल, मानव समाज का प्रारंभिक विकास वनस्पतियों और पशुओं की कीमत पर हुआ । लेकिन जबसे मनुष्य ने वनस्पतियों का उत्पादन और पशुपालन शुरू किया इससे दोनों की वृद्धि हुई ।
मानव बस्तियों के स्थान और आकार पर्यावरण संबंधी घटकों द्वारा निर्धारित होते थे । वासस्थल का चुनाव मिट्टी और जलवायु पर बहुत हद तक निर्भर करता था । अनुकूल वर्षावाले क्षेत्र, जहाँ नदियाँ, झीलें, जंगल, पहाड़ियाँ धातुएँ और उपजाऊ मिट्टियाँ होती थीं, लोगों को बसने के लिए आकर्षित करते थे ।
इसके विपरीत जल संसाधन रहित शुष्क मरुस्थल लोगों को वहाँ बसने से हतोत्साह करते थे । इस प्रकार गंगा के मैदान मानव बस्ती के आकर्षक क्षेत्र बन गए । इनमें 500 ई॰ पू॰ के बाद के काल में बहुसंख्यक और उसके पहले बहुत कम बस्तियाँ दिखती हैं ।
उसी काल में दोआब और मध्य गंगा के मैदानों में बहुत-से नगर मिलते हैं । सड़कों और रेलमार्गों की तरह नदियाँ परिवहन के मार्ग बनीं । इनकी बाड़े जंगली तटों को साफ कर देती थीं और वहाँ फिर से जंगलों को उगने से रोकती थीं ।
इसके अतिरिक्त वे कृषकों के लिए न सिर्फ भूमि तैयार करती थीं बल्कि उस भूमि की सिंचाई भी करती थीं । लगभग 2500 ई॰ पू॰ में नदियों के मार्गों में दिशा परिवर्तन होने से मानव बस्तियों पर प्रभाव पड़ा । घग्घर-हकरा की समरूपा नदी सरस्वती यमुना और सतलज से मिल गई और तीनों ने मिलकर हड़प्पा संस्कृति के विकास में योगदान किया ।
लेकिन 1700 ई॰ पू॰ में सतलज और संभवत: यमुना पूरब की ओर बढ़ गईं । इसका हड़प्पा संस्कृति की बस्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । नदियों के संगम प्रारंभिक मानव बस्तियों के रूप में उभरे । नदियों के संगम ने जगंलों का प्रभावी ढंग से सफाया किया और मनुष्य के बसने में सहायता की । यह भारत के प्रथम महानगर पाटलिपुत्र के विषय में कहा जा सकता है ।
पाटलिपुत्र गंगा और सोन के संगम पर स्थित था । उत्तर में गंडक और घाघरा नदियाँ गंगा से मिलती थीं और पुनपुन नदी दक्षिण में मिलती थी । ये संगम स्थल शहर से ज्यादा दूर नहीं थे । तीन दिशाओं में नदियों की उपस्थिति ने पाटलिपुत्र को प्राय: जल-दुर्ग बना दिया और इसे महान राजधानी बनने का गौरव भी प्राप्त हुआ ।
यद्यपि पाटलिपुत्र गंगा और सोन के संगम पर अवस्थित था तथापि सोन नदी बाद में पश्चिम की ओर खिसक गई । प्रागैतिहासिक काल में पाटलिपुत्र से उत्तर गंगातट पर स्थित चिराँद महत्वपूर्ण हो गया क्योंकि यह वास्तव में गंगा और घाघरा के संगम पर अवस्थित था ।
ऐसा लगता है कि इसके आसपास के क्षेत्र में जंगल थे । इसका संकेत चिराँद में प्राप्त नवपाषाणयुगीन उपकरणों से मिलता है । इनमें अधिकांश हरिण की सींगों के बने हैं जिससे संकेत मिलता है कि निकटवर्ती जंगल में हरिणों का शिकार होता था ।
यद्यपि वास के लिए नदियों के निकट के क्षेत्रों को तरजीह दी जाती थी तथापि लोग झीलों और तालाबों के निकट भी बसते थे । हमें इस तरह के स्थल दूसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में मिलते हैं । जलस्रोतों के पास बसने का रिवाज आज भी बरकरार है ।
वर्षा और मानवीय प्रयास (Relationship between Rain and Human Effort):
यहाँ हम वर्षा और मानवीय प्रयासों के बीच के संबंध का परीक्षण कर सकते हैं । यद्यपि हड़प्पा संस्कृति शुष्क, अर्द्ध-मरुस्थलीय कटिबंध में पाई गई है तथापि हड़प्पा संस्कृति के उद्भव और विकास का श्रेय अच्छी वर्षा को ही दिया जाता है । वैज्ञानिकों के अनुसार, तीसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में हड़प्पा संस्कृति के क्षेत्र में यथेष्ट वर्षा होती थी । लेकिन जैसे-जैसे वर्षा की मात्रा में कमी आने लगी वैसे-वैसे हड़प्पा संस्कृति पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा ।
महाराष्ट्र के इनामगाँव से प्राप्त वनस्पतियों और पशुओं के अवशेषों से 1000 ई॰ पू॰ में अत्यंत शुष्क अवस्था की शुरुआत का संकेत मिलता है । इससे कृषकों को अपना घर छोड़कर पशुचारी खानाबदोशी जीवन अपनाना पड़ा । वर्षा निश्चित रूप से मानव समाज को खेती करने और बस्तियाँ बसाने में सहयोग देती थी ।
लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में भारी वर्षा लोगों को नियमित काम करने से रोक देती थी । गौतम बुद्ध प्रतिवर्ष वर्षाकाल में चार माह के लिए उपदेश देने एवं पर्यटन करने का कार्यक्रम स्थगित करके किसी स्थान पर वर्षावास करते थे । वे वर्षावास के लिए राजगृह, वैशाली और श्रावस्ती जैसे स्थानों में ठहर जाते थे ।
कहा जाता है कि उन्होंने श्रावस्ती में 26 वर्षावास किए । यह धारणा अभी भी कुछ लोगों को प्रभावित करती है और भादो महीने, अर्थात् जुलाई-अगस्त, में विवाह संपन्न नहीं होते हैं ।
कुछ अन्य प्राकृतिक संकट भारी वर्षा से कहीं अधिक अनर्थकारी होते हैं । इनके अंतर्गत बाढ़ तूफान और भूकंप का उल्लेख किया जा सकता है । हम प्राक्-मौर्ययुगीन अकाल के बारे में सुनते हैं जिसके फलस्वरूप कुछ जैन धर्मावलंबी मगध छोड़कर दक्षिण भारत चले गए थे । शोधकर्ताओं को अभी भी उन स्रोतों का पता लगाना चाहिए जिनमें अकाल और अन्य प्राकृतिक संकटों का उल्लेख हो ।
प्राचीन काल में पर्यावरण संबंधी चेतना (Environmental Consciousness in Ancient Times):
प्राचीन भारत में नदियों ईश्वरतुल्य मानी जाती थीं । ऋग्वेद में सरस्वती नदी को देवी के रूप में चित्रित किया गया है । लेकिन वैदिकोत्तर काल में गंगा को मातृदेवी कहा गया और ऐसी परंपराएँ आज तक बरकरार हैं । चूंकि पृथ्वी और जल दोनों से वनस्पतियों और पशुओं का संपोषण होता था इसलिए इन्हें माता का दर्जा दिया गया । हालांकि इनमें से किसी को सुरक्षित रखने के लिए योजनाएँ बनाई गईं हों, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है ।
अनेक वृक्ष, जिनमें नीम, पीपल, वट, शमी और तुलसी शामिल हैं, पवित्र माने जाते हैं । जड़ी-बूटियों के विषय में भी, जिनमें घास शामिल हैं, यही बात लागू होती है । औषधीय विशेषताओं के कारण इन सबका महत्व है । अतएव इनकी सुरक्षा की जाती है और इनकी पूजा होती है ।
बड़े और छोटे वृक्षों के संरक्षण की कामना अनेक प्राचीन ग्रंथों में की गई है । वृक्ष संरक्षण की अभिलाषा आज तक बरकरार है । आज भी बड़े-बड़े यज्ञों और छोटे-छोटे धार्मिक अनुष्ठानों के अंत में पुरोहित तथा उपासक जगंली वृक्षों और सामान्य वनस्पतियों की उन्नति तथा शांति की कामना करते हैं ।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश प्राचीन मूलग्रंथ गोहत्या की निंदा करते हैं । गौतम बुद्ध पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सत्तनिपात नामक धार्मिक मूलग्रंथ में गायों की सुरक्षा की आवश्यकता पर बल दिया । उन्होंने गोपालन के सद्गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया ।
उनके अनुसार गायें वनस्पतियों के बढ़ने और मनुष्यों को भोजन और बल देने में सहायता करती हैं । इसलिए उन्होंने लोगों से गोहत्या नहीं करने को कहा । ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में ब्राह्मण मूलग्रंथों ने बौद्ध धर्म की शिक्षा को धार्मिक रंग दे दिया । इनमें गाय की हत्या करनेवालों के लिए अगले जन्म में भयानक परिणामों का उल्लेख है । बाद में हाथी तक की भी पूजा होने लगी ।
पारिस्थितिकी और पर्यावरण की जानकारी प्राचीन भारत के अध्ययन में सहायक हो सकती है । यह खासकर प्रागैतिहासिक काल के अध्ययन में उपयोगी हो सकती है । लेकिन प्रकृति के विरुद्ध मानव के संघर्ष को रोक कर मानव समाज का विकास नहीं हो सकता है ।
प्राचीनकाल में इस संघर्ष का लक्ष्य मुख्यत: वनस्पतियों और पशुओं के विरुद्ध निदेशित था । जैसें ही इन जीवों पर नियंत्रण हुआ वैसे ही वनस्पतियों और पशुओं दोनों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रयास होने लगे । इतिहास मुख्यत: समय और स्थान के संदर्भ में मनुष्यों के बीच पारस्परिक संबंधों पर विचार करता है ।
लेकिन इतिहास का सही निर्माण तब तक नहीं हो सकता है जब तक इतिहासकार मानवीय प्रयासों और प्राकृतिक शक्तियों के क्रियाकलापों के बीच होते रहे पारस्परिक प्रभाव पर विचार नहीं करते हैं ।