Read this article in Hindi to learn about the civil status of people during Harappan culture.

हड़प्पा संस्कृति शायद 1900 ई॰ पू॰ तक जीती-जागती रही । बाद में इसकी नगरीय अवस्था लुप्त-सी हो गई । परिपक्व संस्कृति के परिचायक थे सुव्यवस्थित नगर-निवेश, व्यापक स्तर पर ईंटों की संरचनाएँ लेखन-कला मानक बाट-माप दुर्गनगर और निम्नस्तरीय शहरों के बीच अंतर कांसे के औजारों का इस्तेमाल और काले रंग की आकृतियों से चित्रित लाल मृदभांड का निर्माण । इसकी शैलीगत एकरूपता समाप्त हो गई और शैली में भारी विविधता आ गई ।

नगरोत्तर हड़प्पा संस्कृति के कुछ लक्षण पाकिस्तान में मध्य एवं पश्चिमी भारत में तथा पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, दिल्ली और पश्चिम उत्तर प्रदेश में भी दिखाई देते हैं ।

इनका काल लगभग 1900 ई॰ पू॰ से 1200 ई॰ पू॰ तक हो सकता है । हड़प्पा संस्कृति की नगरोत्तर अवस्था को उपसिंधु संस्कृति भी कहते हैं । पहले इस संस्कृति को हड्प्पोत्तर बताया जाता था, पर अब यह उत्तर-हड़प्पा संस्कृति के नाम से अधिक जाना जाता है ।

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उत्तर-हड़प्पा संस्कृतियाँ मूलत: ताम्रपाषाणिक हैं, जिनमें पत्थर और तांबे के औजारों का उपयोग होता था । इनमें धातु के ऐसे ही उपकरण बनते थे जिनकी ढलाई आसान है । फिर भी कुल्हाड़ी, छेनी, कंगन, वक्र अस्तूरा, बंसी और बरछा मिलते हैं ।

ताम्रपाषाण संस्कृति के लोग हड़प्पा संस्कृति की उत्तर अवस्था में गाँवों में बस गए और खेती पशुपालन शिकार और मछली पकड़ने का धंधा करने लगे । शायद देहातों में धातु संबंधी तकनीकी जानकारी के फैलने से खेती करने और बस्तियाँ बन पाने में सहूलियत हुई ।

गुजरात के प्रभास पाटन (सोमनाथ) और रंगपुर जैसे कुछ स्थान तो हड़प्पा संस्कृति के मानो औरस पुत्र हैं । किंतु उदयपुर के निकटवर्ती अहार में हड़प्पाई तत्व कुछेक ही पाए जाते हैं । गिलुंद में, जो अहार संस्कृति का स्थानीय केंद्र जैसा लगता है ईंटों की संरचनाएँ भी मिली हैं जिन्हें लगभग 2000 ई॰ पू॰ और 1500 ई॰ पू॰ के बीच रखा जा सकता है ।

हालांकि, पकाई हुई ईंटों के मिलने की खबर भगवानपुरा की उत्तर हड़पाई अवस्था के बारे में दी गई है पर ईंट वाले स्तर का काल-निर्धारण संदेहास्पद है । हाँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर जिले के लाल किला के गैरिक मृद्‌भांड (ओ॰ सी॰ पी॰) स्थल पर चंद ईंटें मिली हैं ।

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फिर भी हड़प्पाई तत्व का प्रभाव मालवा की उस ताम्रपाषाण संस्कृति (लगभग 1700-1200 ई॰ पू॰) पर, जिसकी सबसे बड़ी बस्ती नवदाटोली में है, बहुत कम है । जोरवे स्थलों पर भी जो तापी गोदावरी और भीमा की घाटी में पाए गए हैं, यही बात लागू होती है ।

जोरवे बस्तियों में सबसे बड़ी है दैमाबाद की बस्ती जो करीब 22 हेक्टर में बसी है और जहाँ 4000 आबादी हो सकती है । इसका स्वरूप आद्य नगरीय कहा जा सकता है । लेकिन अधिकांश जोरवे बस्तियाँ गाँव ही हैं । नगरोत्तर हड़प्पाई बस्तियाँ स्वात घाटी में मिली है ।

यहाँ वे लोग पशुचारण के साथ-साथ अच्छी खेती और पशुपालन भी करते थे । वे मंद चाल वाले चाक पर बने काला-धूसर ओपदार मृद्‌भांडों का प्रयोग करते थे । ये मृद्‌भांड ईसा-पूर्व तीसरी सहस्राब्दी और उसके बाद के उन मृद्‌भांडों से मिलते हैं जो उत्तरी ईरान के पठार से प्राप्त हुए हैं ।

स्वात घाटी के निवासी भी चाक पर लाल-पर-काले रंग वाले मृद्‌भांड तैयार करते थे जो आरंभिक नगरोत्तर काल के मृद्‌भांडों से निकट संबंध जताते थे । इनसे प्रकट होता है कि हड़प्पा से संबंद्ध कारोत्तर संस्कृति से इनका संबंध था । इसलिए स्वात घाटी को उत्तर- हड़प्पा संस्कृति का उत्तरी छोर मान सकते हैं ।

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भारत स्थित पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और जम्मू में भी कई उत्तर-हड़प्पा स्थलों की खुदाई हुई है । इनमें जम्मू में मंडा, पंजाब में चंडीगढ़ और संघोल, हरियाणा में दौलतपुर और उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर और हुलास उल्लेखनीय हैं ।

जान पड़ता है कि हडप्पाई लोगों ने चावल की खेती तब शुरू की जब वे हरियाणा में दौलतपुर और उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले में हुलास पहुँचे । रागी उत्तर भारत के किसी भी हड़प्पा स्थल में अभी तक नहीं देखा गया है । आलमगीरपुर में उत्तर-हड़प्पाई लोग संभवत: कपास भी उपजाते थे जैसा कि हड़प्पा के मृद्‌भांडों पर मिले कपड़े की छापों से अनुमान लगाया जा सकता है ।

उत्तरी और पूर्वी क्षेत्रों के उत्तर-हड़प्पा स्थलों में जो चित्रित हड़प्पाई मृद्‌भांड पाए गए हैं उनमें आकृतियाँ अपेक्षाकृत सरल हो गई हैं हालाकिं कुछ नए पात्र-प्रकार भी मिलते हैं । कुछ उत्तर-हड़प्पा पात्र-प्रकार भगवानपुरा के चित्रित धूसर मुद्‌भांड अर्थात् पेंटेड ग्रे वेअर (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) अवशेषों से सम्मिश्रित पाए गए हैं लेकिन इस काल में हड़प्पा संस्कृति पूर्ण विघटन की अवस्था में आ चुकी प्रतीत होती है ।

उत्तर-हड़प्पा अवस्था में लंबाई मापने की कोई वस्तु नहीं पाई गई है । गुजरात के उत्तर काल में पत्थर के पनाकार बाट और पकी मिट्‌टी की पिंडिकाएँ (टेराकोटा केक) नहीं मिलते हैं । आमतौर से सभी उत्तर-हड़प्पा स्थलों में मानव मूर्तिकाओं और वैशिष्ट्य सूचक चित्राकृतियों का अभाव है । यद्यपि गुजरात में वाग्दत्र (फायंस) अप्रचलित हो चुका था तथापि उत्तर भारत में यह खूब चलता था ।

नगरोत्तर अवस्था में पहुँचने पर पश्चिम एशियाई केंद्रों से हड्प्पाइयों का व्यापार समाप्त हो गया । लाजवर्द मणि, चर्ट, इंद्रगोप मणि (कार्नेसियन बीड) तथा तांबे और कांसे के पात्र व्यापार-वस्तुओं में या तो लुप्त हो चुके थे या विरल हो गए थे । यह सब स्वाभाविक था क्योंकि पंजाब हरियाणा और उत्तर प्रदेश में उत्खनित अधिकांश उत्तरकालीन हड़प्पा स्थल देहाती बस्तियाँ ही हैं ।