द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत: योगदान, शांति और अर्थशास्त्र | India during the World War II: Contribution, Peace and Economics.

युद्ध में भारत की देन (India’s Contribution in War):

जब ब्रिटेन ने ३ सितम्बर, १९३९ ई॰ को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, तब भारत उस युद्ध में आप-से-आप फँस गया, जो आगे चलकर भूमंडल में व्याप्त हो गया । ब्रिटेन स्वाभाविकतया युद्ध चलाने के लिए भारत के प्रचुर साधनों का उपयोग करने को इच्छुक था । आगे चलकर, युद्धस्थलों के भारत की सीमाओं के समीप आ जाने से उसका सामरिक महत्व बढ़ चला ।

भारत के दोनों महान् राजनीतिक दलों-कांग्रेस और मुस्लिम लीग-ने सरकार को उसके युद्धोद्योग में सहयोग देना अस्वीकार कर दिया । मगर भारतीय रजवाड़ों ने ठोस ढंग से सरकार का साथ दिया । साथ ही, सरकार को बिना किसी प्रकार के बल-प्रयोग के काफी रंगरूट प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई ।

युद्ध की गति का विस्तृत विवरण देना अनावश्यक है । यही कारण काफी है कि १९४० ई॰ के ग्रीष्म में इसने मित्र-राष्ट्रों के लिए आपत्तिजनक मोड़ लिया । पहले तो नार्वे और डेनमार्क, तथा पीछे बेलजियम, हालैंड और फ्रांस, तेजी से शत्रु के नियंत्रण में आ पड़े । स्वयं ब्रिटेन का पतन समीप मालूम पड़ने लगा ।

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किंतु राजकीय वायु-सेना (रायल एयर फोर्स) ने जर्मन हवाई जहाज की अधिक संस्थाओं को भी बीरतापूर्वक मार भगाया तथा इंगलैंड पर जर्मन आक्रमण की योजनाओं को विफल कर दिया ।

जर्मनी की ओर से इटली का युद्ध में प्रवेश स्वेज नहर के लिए गंभीर संकट माना गया, जो (स्वेज नहर) ब्रिटिश साम्राज्य की “जीवनपंक्ति” है । यह संभव समझा जाने लगा कि शत्रु मिस्र पर कब्जा करने में समर्थ होगा तथा अंत में भारत पर आक्रमण करेगा ।

वस्तुत: ब्रिटिश पार्लियामेंट ने जून के मध्य में “भारत और बर्मा (एमर्जेंसी प्रोविजंस) कानून” पास कर दिया, जिसके अनुसार उसने गवर्नर-जनरल को अधिकार दे दिया कि “यदि संयुक्त राज्य (युनाइटेड किंगडम) से परिवहन पूर्णतया टट जाएँ”, तो वह राज्य-सचिव की कुछ शक्तियों का उपयोग करें ।

ग्रेट ब्रिटेन के इतिहास के इस भाग्य-निर्णयक एवं संकटकालीन क्षण में उसके युद्धोद्योगों को भारत की जन-शक्ति और भौतिक साधनों से बहुत बढ़ावा मिला । भारतीय सैनिक अपनी परंपरागत वीरता के साथ अफ्रिका और मध्य पूर्व में तब तक लड़ते रहे जब तक कि युद्ध की गति मित्र-राष्ट्रों के पक्ष में न हो गयी ।

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अफ्रिका में इटली के साम्राज्य का भुगतान करने में उनका जो भाग रहा, वह, जैसा कि वाइसराय ने दिसम्बर, १९४१ ई॰ में कहा, “प्रथम महत्व एवं महत्तम मूल्य का” था । और भी, भारतीय सैनिक यूरोप के मुक्ति संघर्ष भर में मित्र-पक्ष को शानदार सहायता देते रहे जब तक कि उस महादेश में मई, १९४५ ई॰ में धुरी शक्तियों का अंतिम नाश न हो गया ।

विजय-प्राप्ति में भारत की देने विविध और ठोस दोनों थीं तथा उन्हें उच्चतम प्रशंसा मिली । इटली में मित्र सेनाओं के कमान में अमेरिकन सेनापति लेपिटनैंट-जनरल मार्क क्लार्क ने भारतीय सैनिकों की करता की इस प्रकार प्रशंसा की: “इन भारतीय सिपाहियों की युद्ध में उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं ।

इन्होंने भयानक और खूनी लड़ाई में एक वैसे हठी शत्रु के विरुद्ध सफलता संघर्ष चलाया है जिसे प्रतिरक्षा के लिए विशेष रूप से अनुकूल भूखंड से सहायता मिली है । कोई भी बाधा उन्हें अधिक समय तक ठहराने में या उनकी उत्साह-सम्बन्धी उच्च मानसिक अवस्था या लड़ने की भावना घटाने में सफल नहीं हुई है ।

चतुर्थ, अष्टम और दशम [भारतीय सेनादल सदैव कैसिनो के लिए] संघर्ष, रोम की पराजय, आर्नो की घाटी, फ्लौरेंस की मुक्ति और गोथिक लाइन के तोड़े जाने से संबद्ध रहेंगे । मैं इन तीनों महान् भारतीय सेनादलों के बहादुर सिपाहियों का अभिवादन करता हूँ ।”

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अष्टम सेना के सेनापति जनरल लीज और भारत के प्रधान सेनापति जनरल सर क्कौड ऑचिन्‌लेक उसी स्वर में बोले । जापानी आक्रमण का प्रतिरोध करने और भारत की सीमा पर उनके द्वारा अधिकृत क्षेत्रों से उन्हें भगाने में भी भारतीय सैनिकों का अत्यंत महत्वपूर्ण भाग रहा ।

चतुर्दश सेना ने दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान की सैनिक शक्ति का पूर्ण नाश कर दिया था । उसके सेनापति जनरल सर विलियम स्लिम ने इस महान् संघर्ष में भारतीयों की आश्चर्यजनक सेवाओं का प्रमाण दिया था ।

उसने १९४६ ई॰ में कहा “भारत हमारी लड़ाई का मूल स्थान था । हर चीज का तीन चौथाई भाग हमें वहीं से मिला । भारत से मिली चीजों में सबसे अच्छी थी भारतीय सेना । वस्तुत: बर्मा में किया गया अभियान अधिकतर भारतीय सेना का अभियान था । लड़नेवाले सिपाहियों का अधिकांश और परिवहन-पंक्ति पर स्थिर सैनिकों का करीब-करीब पूर्णांश भारतीय सेना के सिपाही थे और लाजवाब थे वे । यही नहीं, भारत ने हमारी अतिरिक्त सेना को प्रशिक्षित कर हमारे लिए भेजा” ।

भारतीय सेना की युद्ध-पूर्व संख्या एक लाख बयासी हजार थी । १९४५ ई॰ के मध्य तक सेना की संस्था बीस लाख के भी ऊपर जा पहुँची, यद्यपि रंगरूटों की भर्ती बराबर स्वेच्छा के आधार पर ही होती रही थी । जहाँ तक भारतीय सैनिकों की बात है युद्ध में मृत और घायलों की संख्या १ लाख अस्सी हजार थी ।

इसमें “छ: में एक मारा गया था इसके अतिरिक्त साढे छ हजार सौदागर मल्लाह थे, जो या तो मारे गये थे या लापता थे” । और भी, बमों के गिराये जाने से ४ हजार असैनिक व्यक्ति मरे थे । और भी अधिक जन-हानि होती लेकिन सिविल डिफेंस कोर (असैनिक प्रतिरक्षा सैनिकदल) के सदस्यों ने जरूरत पड़ने पर काफी मदद पहुंचायी । एक समय इनकी संख्या बयासी हजार तक जा पहुँची थी ।

अफसर-वर्ग की भर्ती में अनुपातानुरूप वृद्धि हुई । दोनों वर्गों के अफसर भर्ती किये गये-किंग्स कमीशंड अफसर और वाइसरायज कमीशंड अफसर । देहरादून की इंडियन मिलिटरी एकेडेमी में युद्ध के पहले दो सौ युद्ध-विधार्थी (कैडेट) रहते थे अब वहाँ छ: सौ की व्यवस्था की गयी । अन्य अफसर ट्रेनिंग स्कूल खोले गये ।

युद्ध छिड़ने के समय केवल चार सौ भारतीय अफसर थे इसकी समाप्ति के समय भारतीय कमीशंड और किंग्स कमीशंड अफसरों की संख्या बढ्‌कर दस हजार से भी ऊपर जा पहुँची । सेना को अधिक मशीनसंपन्न बनाने और अधिक सक्षम प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए सब तरहों के ट्रेनिंग स्कूलों की संख्या में बड़ी वृद्धि हुई ।

भारतीय गोलंदाज फौज भी बहुत विस्तृत और विकसित की गयी । निम्नलिखित संगठित दलों से बहुमूल्य सहायता मिली । भारतीय एलेक्ट्रिकल और मेकानिकल इंजिनियरों का दल एक मई, १९४३ ई॰ को कायम हुआ था ।

यह भारतीय सेना के टेकनिकल साजसमान की मरम्मत पुनर्प्राप्ति और रक्षा के लिए स्थापित हुआ था । भारतीय सिगनल कोर १९२२ ई॰ बना था । इस युद्ध में इसका बहुत विस्तार किया गया । भारतीय सेना मेडिकल कोर १९४३ ई॰ में कायम किया गया । नारी-सहायक दल की सदस्य-संख्या दस हजार से ऊपर थी ।

यह इसलिये कायम किया गया था, जिससे सिपाही और टेकनीशियन अधिक सक्रिय कार्य के लिए छुट्टी पा सकें । राजकीय भारतीय नौ-सेना ने उल्लेखनीय सेवाएँ कीं तथा इसकें वीरतापूर्ण कार्य भी उल्लेखनीय रहे । युद्ध के प्रारंभ में इस कार्य में नियुक्त व्यक्ति थे बारह सौ अफसर और आदमी ।

१९४४ ई॰ के प्रारंभ तक जाते-जाते यह संख्या बढ़ाकर करीब तीस हजार कर दी गयी । भारतीय वायु-सेना १९३२ ई॰ में प्रारम्भ की गयी थीं । पीछे इसका नाम राजकीय भारतीय वायु-सेना (रायल इडियन एयर फोर्स) रख दिया गया । इसकी शक्ति बढ़ाकर दो सौ से सत्ताईस हजार कर दी गयी तथा यह आधुनिक हवाई जहाजों-लड़ाके और बमबाज दोनों-से सुसज्जित कर दी गयी ।

इस प्रकार तैयार होकर यह १९४२ ई॰ से आगे बर्मा पर वीरतापूर्वक लड़ती रही । भारत ने अस्त्र-शस्त्र, गोला-बारूद, साज-समान और अन्य विविध प्रकारों की युद्ध-सामग्री में भी मित्र-राष्ट्रों की अत्यधिक सहायता की । इस सम्बन्ध में ताता लोहा और इस्पात कम्पनी तथा बंगाल इस्पात कारपोरेशन का विशेष उल्लेख होना आवश्यक है ।

इन्होंने इस्पात के उत्पादन को तेजी से बढ़ाकर युद्धोद्योग की काफी सहायता की । भारतीय जहाजी हातों ने युद्ध के समय दो हजार छोटे जहाज बनाये जिनका पूरा टनगत वजन एक लाख टन था । भारतीय रेलवे की भारी बोझ ढोनेवाली चार पहियों की गाड़ियों की बड़ी संख्या मध्य पूर्व में भेजी गयी ।

भारतीय रियासतें सहायता देने में उदार थीं । उन्होंने भारत की लड़नेवाली सेना के लिए पौने चार लाख से भी ज्यादा रंगरूट दिये । इसके अतिरिक्त उन्होंने टेकनिकल काम के लिए आदमी दिये तथा महत्वपूर्ण सामग्री भी दी, यथा इस्पात, कम्बल और दूसरी तरहों के ऊनी कपड़े पैराशूट (बहुत ऊँचाई से उतरने के लिए छातें की तरह का यंत्र-विशेष अवतरण-छत्र) बनाने के लिए, रेशम, नेवार का कपड़ा, तथा रबड़ की पैदावारें । रियासतों की कुल वित्तीय देन साढ़े छ: करोड़ रुपयों से भी अधिक थी । वाइसराय के फंड के कुल चंदे का करीब आधा उन्हीं से आया ।

शांति-उद्योगों में भारत का भाग (Part of India in Peace-Industry):

मित्र शक्तियों की विजयोपलब्धि में इस प्रकार महान् सहयोग देकर भारत ने पीड़ित मानवता की समस्याओं के हल में वास्तविक दिलचस्पी दिखलायी । अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और शांति के लिए काम करनेवाले संगठनों से वह सक्रिय रूप में संबद्ध हो गया ।

वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रमुख अंगों और विशिष्ट एजेंसियों से संबद्ध हो गया । वह इसके अधिकार-पत्र पर एक हस्ताक्षरकर्ता है तथा इसका एक मौलिक सदस्य है । इसका एक प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र-संघ की सामाजिक एवं आर्थिक परिषद् का अध्यक्ष बन गया तथा प्रारंभिक कठिन अवस्थाओं में बहुत कीमती सहायता दी ।

उसके सभी प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्रीय शैक्षिक वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संघ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भाग लिया । संयुक्त राष्ट्र के १९४६ के अधिवेशन में भारतीय प्रतिनिधियों ने कुछ बड़े प्रश्नों पर स्वतंत्र रुख अख्तियार किया । वे युनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के विरोध के बावजूद, दक्षिण अफ्रिका में भारतीयों के प्रति बर्ताव के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र द्वारा ले लिये जाने में सफल हुए ।

भारत ने संयुक्त राष्ट्र की ट्रस्टीशिप कौंसिल में राजनीतिक रूप से पिछड़े लोगों के अधिकारों की रक्षा करने की भी दृढतापूर्वक चेष्टा की । लेकिन १९४७ ई॰ में, उन दो बातों में जिनमें उसकी प्रत्यक्ष दिलचस्पी थी अर्थात् सुरक्षा-परिषद् में उसके चुनाव और दक्षिण अफ्रिका से झगड़े में-उसे आशानुरूप सफलता नहीं मिली ।

फिर भी वह संयुक्त राष्ट्र के काम में सक्रिय भाग लेता रहा । विश्व-शक्तियों के दो महान् दलों के बीच तनाव पड़ता गया । एक दल को नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन कर रहे थे और दूसरे दल का नेता था यूनियन ऑफ सोवियट सोशलिस्ट रिपब्लिक्स ( रूस) ।

ऐसी परिस्थिति में भारत ने बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी इस नीति की घोषणा की कि वह किसी दल में नहीं रहेगा । वह बाहर के विभिन्न देशों में अपने कूटनीतिक प्रतिनिधि भी रखने लगा । ये प्रतिनिधि विविध श्रेणियों और पदवियों के होते थे-राजदूतों (ऐंबेसेडरों) से लेकर कौंसलों और कमिश्नरों तक । इसी प्रकार बाहरी देशों ने यहाँ अपने प्रतिनिधि-कूटनीतिक अथवा कौंसिल-सम्बन्धी-रखे ।

भारत ने बहुत-से अंतर्राष्ट्रीय संमेलनों में भाग लिया, यथा प्रशांत सम्बन्ध सम्मेलन (१९३४-१९४४ ई॰), विश्व ट्रेड यूनियन सम्मेलन (फरवरी, १९४५ ई॰), कॉमनवेल्थ सम्बन्ध सम्मेलन ( फरवरी-मार्च, १९४५ ई॰), विश्व ट्रेड यूनियन कांग्रेस ( सितम्बर १९४५ ई॰) पराधीन जाति सम्मेलन ( लंदन, अक्टूबर, ११४५, ई०) और अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन (जेनेवा, जुलाई, १९४७ ई॰) ।

यही नहीं, बल्कि उसने एशियाई सम्बन्ध सम्मेलन का संगठन भी किया (नयी दिल्ली, तेइस मार्च से दो अप्रैल १९४७ ई॰ तक) । उसने प्रतिनिधि-वर्गों ओर बहिर्प्रेषित दूत-मंडलियों का विनिमय किया तथा अन्य देशों से विविध संधियाँ भी की । भारत में दिलचस्पी लेनेवाले सभाएँ बाहरी देशों में उठ खड़ी हुईं ।

उदाहरण के लिए, २५ अक्टूबर, १९४३ ई॰ को भारत की स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय समिति बनी, जिसका प्रधान कार्यालय, वाशिंगटन में रखा गया । आस्ट्रेलियन इंडिया ऐसोसिएशन अक्टूबर, १९४३ ई॰ में बना । तेहरान की इंडो-ईरानियन कल्चरल सोसाइटी १९४४ ई॰ में स्थापित हुई ।

युद्धोत्तर कालीन आर्थिक अवस्था (Post-War Period)

भारत पर द्वितीय विश्व-युद्ध के सामाजिक और आर्थिक परिणाम घने एवं गहरे थे । आर्थिक जीवन की कोई शाखा अप्रभावित न रही । युद्ध बंद होने के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में नवीन शक्तियाँ खुलकर आ गयीं, जिससे देश को पुनर्निर्माण एवं पुन: अनुकूल बनाने की विविध कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ा । वस्तुत: इस युद्ध को एक नवीन सामाजिक व्यवस्था का प्रारम्भ माना जा सकता है ।

(क) उद्योगों का विकास (Development of Industries): 

कुछ अनुकूल बातों ने औद्योगिक शिल्प के प्राय: सभी विभागों में वर्धनशील सक्रियता और उत्पादित परिणाम में सहायता की, यथा स्वदेश और (ब्रिटिश) राष्ट्रमंडल के अन्य भाग दोनों में युद्ध-सामग्री की बढ़ती हुई माँग आयातों पर प्रतिबंध तथा उद्योगों के सम्बन्ध में सरकार द्वारा अधिक चिंता और सहायता ।

हाँ, केवल तीन उद्योगों के साथ यह बात लागू नहीं हुई-जुट, दियासलाई और गेहूँ का आटा । जूट शिल्प के पतन का प्रमुख कारण था माँग का अभाव । दियासलाइयों के उत्पादन में कमी का मुख्य कारण था कच्चे मालों का अभाव ।

गेहूँ के आटे के गिरने की वजह यह हुई कि फसल के अपेक्षाकृत अच्छी होने पर भी मिलों के लिए आपूर्ति की कमी पड़ गयी । पेट्रोलियम और विश्वत-शक्ति बड़े हुए उत्पादन के प्रमुख उदाहरण थे । मजदूरों की कमी ने कोयले और लोहे (कच्ची धातु) के उत्पादन पर प्रभाव डाला ।

भारत के जहाज-निर्माण-उद्योग ने अब तक उचित राष्ट्रीय आशाएँ पूरी नहीं की थीं । फिर भी यह उल्लेख करना आवश्यक है कि १९४० ई॰ में विजगापटम में जहाज बनानेवाले हाते खोले गये तथा दो वर्षों के भीतर ही चार हजार समुद्रगामी जहाजों की मरम्मत हुई । अप्रैल, १९४७ ई॰ में ‘जहाजरानी पर पुनर्निर्माण नीति उपसमिति’ ने सिफारिश की कि आर्थिक एवं सामरिक विचारों के आधार पर भारतीय जहाजरानी का योजनापूर्ण विकास होना चाहिए ।

(ख) आर्थिक योजना  (Economic Plan):

आधुनिक युग की जटिल समस्याओं और द्वितीय विश्व-युद्ध के प्रभावों ने अधिकतर अन्य देशों के समान भारत में भी आर्थिक जीवन के संपूर्ण ढांचे के योजनापूर्ण पुनर्निर्माण के प्रति लगभग सार्वभौम आवेश का सृजन किया ।

१९३८ ई॰ के अंत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनवरोध पर एक राष्ट्रीय योजना समिति बनी । इसके अध्यक्ष श्री जवाहरलाल नेहरू हुए । इसके पंद्रह सदस्य थे । इनके अतिरिक्त इसमें प्रांतीय सरकारों एवं स्वेच्छा से आनेवाली भारतीय रियासतों के भी प्रतिनिधि थे । मगर युद्ध छिड़ जाने के बाद राजनीतिक परिस्थिति में परिवर्तन हो गया तथा कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया ।

इस कारण यह समिति दुर्बल पड़ गयी । सितम्बर, १९४२ ई॰ के पहले यह अपना काम फिर से चालू न कर पायी । पीछे आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए बहुत-सी अन्य योजनाएँ बनीं, यथा बम्बई योजना, जन-योजना, गांधी योजना ।

इसके अतिरिक्त प्रांतीय योजनाएँ केंद्रीय सरकार के विभागों की योजनाएँ, बडे उद्योगों के लिए योजनाएँ और: भारतीय रियासतों की योजनाएँ भी थीं । मोटे तौर पर योजना-निर्माण के उद्देश्य थे “समग्र जनता के सामान्य जीवनस्तर को उठाना तथा सबके लिए उपयोगी काम देना पक्का करना” । इससे दो उपाय सोचे गये थे-अधिक-से-आधिक संभव सीमा तक देश के साधनों का विकास तथा राष्ट्रीय धन का न्यायसंगत तरीके से वितरण ।

जून, १९४१ ई॰ के प्रारम्भ में भारत सरकार ने एक युद्धोत्तर पुनर्निर्माण समिति बनायी । २६ अक्टूबर, १९४६ ई॰ को इसने एक सलाहकार योजना संघ की नियुक्ति की घोषणा की । इस संघ ने जनवरी, १९४७ ई॰ की अपनी रिपोर्ट में जोरदार ढंग से यह राय जाहिर की कि “बड़े पैमाने वाले उद्योगों का उचित विकास तभी हो सकता है जब राजनीतिक इकाइयाँ, चाहे वे प्रांत हों या रियासतें, एक सार्वजनिक योजना के अनुसार काम करने को राजी हों” । किन्तु उद्योग की हालत. कई कारणों से चिंताजनक ही बनी रही । इनमें से एक कारण था श्रम और प्रबंध के बीच मनोमालिन्य का बना रहना ।

(ग) श्रम (Labour):

युद्ध की भारत के मजदूरों पर भीषण प्रतिक्रियाएँ हुईं । जीवन-व्यय में अभूतपूर्व वृद्धि हो गयी । इसका एक बड़ा परिणाम हुआ असाधारण आर्थिक अवस्था । इमने बेहतर हालत की जोरदार माँग पैदा कर डाली । यह माँग अधिकांशत: इन उपायों द्वारा पूरी की गयी-मजदूरी में वृद्धि महँगाई के भत्तों और बोनसों का अनुदान तथा पेंशन योजनाओं, प्रोविडेंट फंडों और अदायगी की अधिक वैज्ञानिक पद्धतियों का चालू किया जाना ।

इस युग की एक विशेषता थी इस देश के साधारण कार्यकर्त्ता की हालत के मुधार न्ने लिए जबाबदेही की बढ़ती हुई भावना । इसका परिणाम यह हुआ कि महत्वपूर्ण श्रम कानून बनाये गये ।

फैक्ट्रीज संशोधन कानून अप्रैल, १९४६ ई॰ में पास हुआ तथा एक अगस्त से लागू हुआ ? इसने स्थायी और मौसिमी फैक्ट्रियों में काम के अधिकतम घंटों को घटाकर प्रति सप्ताह क्रमश: ५४ से ४८ और ६० से ५० कर दिया । इसने दैनिक काम के अधिकतम घंटों को क्रमश: ९ और १० पर निश्चित कर दिया ।

इस कानून ने स्थायी और मौसिमी दोनों फैक्ट्रियों में अतिरिक्त कालिक काम के लिए अदायगी की एक-सी दरें निश्चित कर दीं, जो साधारण दर से दुगुनी होती थीं । १९४६ ई॰ के औद्योगिक एंप्लायमेंट (स्टैडिंग आर्डर्स) कानून के अनुसार ब्रिटिश भारत के वसे औद्योगिक कार्यालयों के मालिकों को, जो एक सौ या अधिक कार्यकर्त्ताओं को रखते थे जरूरी था कि वे नौकरी की शर्तों को स्पष्टतया बता दें तथा परिस्थिति के मुतालिक केंद्रीय सरकार या प्रांतीय सरकार के द्वारा इस अर्थ नियुक्त किसी अफसर से इन शर्तों को उचित तरीके से प्रमाणित करा लें ।

१९४६ ई॰ का कार्यकर्ता हर्जाना कानून १९४७ ई॰ में संशोधित हुआ । इसके अनुसार कार्यकर्त्ता चार सौ रुपये प्रति महीने की अधिकतम सीमा तक मजदूरी पाते थे उन्हें अपनी नौकरी के दौरान में क्षति होने पर हर्जाना पाने का अधिकार दिया गया तीन सौ रुपयों से चार सौ रुपयों के बीच कमानेवाले कार्यकर्त्ताओं के लिए हर्जाने का एक क्रम बना दिया गया ।

भारतीय राष्ट्रीय सरकार ने औद्योगिक सम्बन्धों, सामाजिक बीमा और काम की हालत में सुधार के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण कानून पास किये । प्रांतीय सरकारें भी श्रम एवं उद्यौगों के सम्बन्ध में अपने उत्तरदायित्वों के प्रति-जागरूक थीं ।

इसके खास उदाहरण के तौर-पर बम्बई औद्योगिक सम्बन्ध कानून (१९४६) की चर्चा की जा सकती है । इस कानून का उद्देश्य था श्रम-सम्बन्धी झगड़ों की नियमन एवं शीघ्र निपटारा । इसके लिए दो साधन बताये गये-श्रम-न्यायालयों की स्थापना तथा औद्योगिक कार्यालयों में प्रबंध एवं श्रम की संयुक्तं समितियों की स्थापना ।

औद्योगिक सम्बन्धों को ठीक रखने के लिए केंद्रीय और प्रान्तीय सरकारों द्वारा बहुत-से अन्य महत्त्वपूर्ण कदम भी उठाये गये । १९४७ ई॰ में मालिकों, नौकरों एवं सरकार के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ । यह सर्वसंमति से इस निर्णय पर पहुंचा कि औद्योगिक शांति को कायम रखा जाए तथा आगामी तीन वर्षों के लिए लाकआउटों (मजदूरी आदि के झगड़े में मजदूरों का मालिक द्वारा बहिष्करण) हड़तालों बार उत्पादन की गति के मंद करने से बचा जाए ।

विविध निबटारे-फैसलों और सुन्दर बोर्डों की सिफारिशों का भी यही उद्देश्य रहता था कि सहृदयतापूर्ण औद्योगिक सम्बन्ध प्राप्त किया जाए । उदाहरणार्थ, उस सुलह बोर्ड (१९४७) की सिफारिशें, जिसने बंगाल और बिहार के कोयला-क्षेत्रों में औद्योगिक झगडों के कारणों की जांच की, “कोयले की खान खोदनेवाले व्यक्तियों के लिये एक नये सौदे” के रूप में संबोधित की गयी । इनमें एक बैसे कार्यकर्त्ता-वर्ग की हालत के सुधार की व्यवस्था थी, जिसके हितों की अतीत में उपेक्षा की गयी थी ।

युद्ध ने श्रम-आंदोलन को ज्यादा बल दिया तथा ट्रेड यूनियनवाद की ओर भी वृद्धि को सहज बना दिया । इंडियन ट्रेड्‌स यूनियन फेडरेशन अब तक नेशनल ट्रेड्स यूनियन फेडरेशन में मिल चुका था । १९४० ई॰ में नेशनल ट्रेड्‌स भूनिया फेडरेशन अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में जा मिला । किन्तु १९४१ में भारत की श्रम-पंक्तियों में फिर एक दरार पड़ गयी ।

उस वर्ष इंडियन फेडरेशन ऑफ लेबर नामक एक नवीन केंद्रीय संगठन अस्तित्व में आया । १९४७ के वर्ष ने इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस नामक एक अन्य संगठन का जन्म देखा । इसने गांधी दर्शन से प्रेरणा ग्रहण की थी । इसका उद्देश्य था “बिना काम रोके हुए, समझौता-सम्बन्धी बातचीत और मिलाप (सुबह) के सहारे, तथा इसके असफल होने पर पंचैती या निवटारा के द्वारा, शिकायतों का प्रतिकार प्राप्त किया जाए” ।

यह संगठन, जो १९ औद्योगिक मंडलियों के ५७७ यूनियनों का प्रतिनिधित्व करता था, बहुत शीघ्र “राष्ट्रीय जीवन में एक शक्ति” बन बैठा । किन्तु इन सबके बावजूद अभी भी भारतीय श्रम-जगत् में बहुत गड़बड़ और काफी हंगामा है ।

(घ) जन-साधारण कीं दुरवस्था  (Common Misery):

भारत के सामान्य जनों को, जिनकी हालत सदैव शोचनीय रही थी, युद्ध के समय और उसके बाद बहुत कष्ट झेलने पड़े । “पेपर करेंसी रिजर्व मैं स्टर्लिग सुरक्षाओं के आधार पर भारत में ब्रिटिश क्यों की अंतहीन धारा चली इसके फलस्वरूप अविश्रांत स्फीति हुई; इसके परिणामस्वरूप” सब चीजों के मूल्यों में शीघ्र वृद्धि हो गयी ।

असैनिक जनना के लिए आवश्यक पदार्थों, खासकर खाद्यान्न एवं वस्त्र की आपूर्ति में प्रचंड कमी हो गयी । युद्ध के पहले अन्न की कुल-प्राप्त आपूर्ति साढे चार करोड़ टन से अधिक थी । युद्ध-काल के पूर्वार्ध में यह घटकर चार करोड़ तीस लाख टन हो गयी । पुन: युद्ध के पहलें छ: सौ करोड़ गज कपड़ा आपूर्ति में था । १९४२ ई॰ में केवल तीन सौ सत्तर करोड़ गज कपड़ा प्राप्त था । यहां तक कि दो वर्षों के बाद भी आपूर्तियाँ पांच सौ करोड़ गज से कुछ ही अधिक थीं ।

राष्ट्रीय योजना समिति की श्रम उपभमिति की रिपोर्ट महत्वपूर्ण ढंग से कहती है: “नियंत्रण के सब उपायों, मूत्य के नियमन, भोजन, किरासन, चीनी जैसी आवश्यक आपूर्तियों की सरकारी प्राप्ति और वितरण तथा नगर-नगर एवं प्रांत-प्रांत में लागू की गयी समस्त राशनिंग प्रणाली के बावजूद दाम ऊँचे चढ़ते रहे, चोर बाजारों ने तरक्की की, भ्रष्टाचार ने श्रेणी या स्त्री पुरुष की सीमाएँ नहीं जानीं” ।

१९४३ ई॰ के बंगाल के भयंकर अकाल ने उस प्रांत के लोगों के लिए अकथिन कष्ट पैदा किये । यह निसंदेह युद्ध की हालहों का एक प्रत्यक्ष परिणाम था । किन्तु यह “अधिकारियों की असावधानी ओर दूरदर्शिता की पूरी कमी” तथा कतिपय पदवाले व्यक्तियों के अपरिमित लोभ से बढ़ गया ।

सर जौन उडहेड की अध्यक्षता में एक अकाल जांच कमीशन बैठाया गया । मई, १९४५ ई॰ में इसकी रिपोर्ट प्रकाशित हुई । उसमें कहा गया: “बंगाल के अकान के दौरान और कारणों की जाँच करना हमारै लिए एक विषाद-जनक काम रहा है । हम लोगों के नन में बार-बार उस दु:खद घटना की गहरी भावना आती रही है । बंगाल के पंद्रह लाख गरीब उन परिस्थितियों के शिकार बन गये, जिनके लिए वे स्वयं उत्तरदायी न थे । समाज अपने अवयवों के साथ अपने निर्बलतर सदस्यों की रक्षा करने में असफल रहा । वस्तुत: नैतिक एवं सामाजिक बिगाड़ आ गया था तथा प्रशासनिक बिगाड़ भी आ गया था ।” इस भयंकर विपत्ति ने बंगाल पर जो घाव किये, वे बहुंत धीरे-धीरे भरे ।

(ङ) कृषि (Agriculture):

भारतीय कृषक और साधारण उपभोक्ता आर्थिक नियंत्रणों की असफलता, मुनाफाखोरी और बहु-प्रचलित भ्रष्टाचार के कारण सबसे अधिक कष्ट में रहे । हों, बड़े किसानों ने, जिनके पास बेचने को काफी बचा हुआ था, ऊँचे दामों से लाभ उठाया । जहां तक कृषि-सम्बन्धी अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध है, द्वितीय विश्व-युद्ध के कारण कतिपय समस्याएँ ठीक सम्मुख भाग में आ खड़ी हुई-उत्पादन एवं वितरण की योजना एक यथेष्ट वहनप्रणाली की व्यवस्था जो बहुत दूर स्थित बचत एवं कमी के क्षेत्रों के मिरा दे, कम-से-कम स्टॉक (अन्न-भंडार) कायम रखना, उत्पादन-व्ययों एवं मूल्यों पर प्रभावकारी नियंत्रण, तथा निर्यातों और आयातों का नियमन ।

केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों ने उचित कृषि-योजना द्वारा, खेती की हालत और जनसाधारण की अवस्था में सुधार लाने का वादा किया, जिससे उत्पादन क्षौर समृद्धि के उच्च स्तर प्राप्त होने में सुविधा ने ।

(च) सहयोग (Help):

इस सामान्य सुधार में एक महत्वपूर्ण भाग सहयोग को दिया गया । १९४५-१९४६ ई॰ में प्रांतीय और केंद्रीय सहयोग बैकों की संख्या ६१४ थी, जिनके कुल दो लाख छब्बीस हजार सदस्य थे । १९४४-१९४५ ई॰ में काम में लगी पूंजी साठ लाख रुपये थी, जो बढ्‌कर १९४५-१९४६ ई॰ में उनहत्तर लाख संतानवे हजार हो गयी ।

कृषि-सम्बन्धी सहयोग समितियों की संख्या १९४४-१९४५ ई॰ में १३६३५४ थी, जो बढ्‌कर १९४६ ई॰ में १४६९५८ हो गयी तथा उनकी सदस्यता ५०१३००० से बढ्‌कर ५५०१००० हो गयी । यह आशा की जाती थी कि केंद्र और प्रांतों की प्रजातांत्रिक सरकारों के अधीन वे सब सफलतापूर्वक काम करेंगी ।

(छ) व्यापार  (Business):

द्वितीय विश्व-युद्ध ने वस्तुत: भारत के व्यापार पर गहरे परिणाम उत्पन्न किये । इसने उसे यूरोप के महादेश से तथा जापान और विविध पड़ोसी देशों से, जो जापानियों द्वारा रौद डाले गये थे, पूर्णतया काट डाला । व्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत के देशों के साथ उसके व्यापार में इसने बहुत बाधा डाली । युद्धपूर्व वर्ष १९३८-३९ की तुलना में १९४२-४३ ई॰ में निर्यात में करीब ३० प्रतिशत और आयात में ७० प्रतिशत की वास्तविक कमी हो गयी ।

किन्तु विगत वर्ष की तुलना में १९४३-४४ ई॰ में भारत की व्यापारिक स्थिति में थोड़ी तरक्की हुईये । युद्ध में उसके निर्यात व्यापार का ढाँचा भी बहुत बदल गया । तैयार मालों के निर्यात में वृद्धि हुई तथा कच्चे मालों के निर्यात में कमी पड़ी । “१९३८ ई॰ में तैयार माल निर्यात का ३०.५ प्रतिशत थे तथा कच्चे माल और खाद्य क्रमश: ४४.३ प्रतिशत एवं २३.५ प्रतिशत थे । १९४४ ई॰ में तैयार माल ५१.५ प्रतिशत हो गये तथा कच्चे माल और खाद्य क्रमश: २४.९ प्रतिशत एवं २२.५ प्रतिशत रह गये ।”

ऊपर दिये गये आँकडों में सरकारी हिसाब पर खाद्यान्न आदि के आयात और सरकारी स्टोर रेलवे स्टाक आदि के आयात शामिल नहीं है । १९४५ ई॰ में भारत के पूरे व्यापार की कीमत का जोड़ ४८१.९ करोड़ रुपये था ।

इसकी तुलना में १९४६ ई॰ में यह जोड़ ५६६.२ करोड़ रुपये को पहुँच गया तथा आयात की अपेक्षा निर्यात में अधिक वृद्धि हुई । लेकिन भारत का आयात व्यापार शीघ्र पुनर्जीवित होकर शुद्ध-पूर्व अवस्था को फिर प्राप्त होने लगा ।

यहाँ तक कि तैयार मालों का आयात भी बढ़ चला: १९४४ ई॰ में यह ३१.९ प्रतिशत था, जो बढ्‌कर १९४६ ई॰ में पर ५५.४ प्रतिशत हो गया । किन्तु कुछ विचारों से प्रेरित होकर मई और जुलाई, १९४७ ई॰ में आयात नियंत्रण आदेश निकालने पड़े जिनका अभिप्राय था आयातों को कम करनर ।

भारत के निर्यात व्यापार के पुन: युद्ध-पूर्व स्थिति पर पहुँच ने में मंद प्रगति हुई । इसके मुख्य कारण थे कृषि-सम्बन्धी पैदावार की कमी का लगातार बना रहना तथा “उपभोग के बढ़ते हुए स्तर” । युद्ध के बंद होने पर विभिन्न देशों के साथ खानगी व्यापार, जो इस बीच स्थगित था, फिर से चालू हो सका ।

भारत के व्यापार के निर्देशन में जो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए उनमें दो प्रमुख हैं-युद्ध के प्रारंभ से १९४५ ई॰ तक ब्रिटिश राष्ट्रसंघ के वेशों से होनेवाले व्यापार में अनुकूल हिसाब रहा, किन्तु १९४६ ई॰ में प्रतिकूल हिसाब रहा । संयुक्त राज्य अमेरिका से निर्यात और आयात दोनों व्यापार की कीमत बढ चली ।

“१९३८-३९ ई॰ में इस देश में अमेरिकन वाणिज्य-द्रव्य का आयात ९७८ लाख रुपयों का हुआ । १९४५-४६ ई॰ में यह बढ्‌कर ६७४० लाख रुपयों का हो गया । यह उछाल बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर जब हम उसी युग में यूनाइटेड किंगडम से आयात में हुई वृद्धि से तुलना करते है । यह वृद्धि ८८५६ लाख रुपयों से १०१८३ लाख रुपयों को जा पहुंची थी ।”

१९४५ ई॰ में संयुक्त राज्य अमेरिका से हुआ व्यापार प्रतिकूल (हानिप्रद) था । किन्तु १९४६ ई॰ में यह परिवर्तित होकर भारत के पक्ष में हो गया । इंडियन टैरिफ बोर्ड १९४५ ई॰ में संस्थापित हुआ । इसने रक्षा के लिए विभिन्न उद्योगों के दावों के सम्बन्ध में कुश्ट्र सिफारिशे कीं । किन्तु ये तुरत कार्यान्वित नहीं हो सकी । भारत के विदेशी व्यापार पर प्रभाव डालनेवाली १९४७ ई॰ की एक उल्लेखनीय घटना यह थी कि उसने जेनेवा व्यापार सम्मेलन में भाग लिया, जिसमें बहुत-सी महत्त्वपूर्ण आर्थिक संधियाँ की गयी ।

शिक्षा और सामाजिक प्रगति (Education and Social Progress):

शिक्षा-प्रणाली का पुनस्संगठन भारतीय राष्ट्र की प्रगति के लिए सार्वभौमिक रूप से अत्यावश्यक माना जाता है । नवजात प्रजातंत्र और राष्ट्रीयता की भावना को जनता के सभी वर्गों में शिक्षा के उचित प्रकार के प्रचार द्वारा पोसना और विकसित करना आवश्यक है । स्मरण रहे कि १९३१ ई॰ और १९४१ ई॰ के बीच साक्षरता आठ प्रतिशत से बढ्‌कर केवल बारह प्रतिशत ही हुई । संस्थाओं की संख्या की वृद्धि और हाल के वर्षों के नवीन शैक्षिक कामों के बावजूद, निरक्षरता अभी भी देश के लिए भयानक समस्या है ।

भारत सरकार के अनुरोध पर शिक्षा के केंद्रीय सलाहकार बोर्ड ने १९४४ ई॰ के प्रारम्भ में शैक्षिक पुनर्निर्माण की एक युद्धोत्तर योजना पेश की, जिसमें शिक्षा की सभी शाखाएँ सम्मिलित की गयी थी ।

इसने न केवल छ: से चौदह तक के सभी लड़कों और लड़कियों के लिए सार्वभौम अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा निर्धारित की, बल्कि छ: से कम उम्र के दस लाख बच्चों के लिए नर्सरी और क्लासों की व्यवस्था पर भी विचार किया ।

और भी, इसने सेकंडरी स्कूलों की व्यवस्था की सिफारिश की, इसका उद्देश्य था टेकनिकल और पेशा-सम्बन्धी शिक्षा के विविध प्रकारों को उत्साहित करना, जो (प्रकार) विभिन्न वर्गों एवं योग्यताओं के छात्रों की प्रतिभाओं के अनुकूल हों ।

हमने नि:शुल्क शिक्षा, छात्रवृत्तियों एवं निर्वाह खर्च के रूप में उदार वित्तीय महायता प्रदान करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया, जिससे गरीबी प्रमाणित योग्यता के विद्यार्थियों की शिक्षा में बाधक न बने ।

इसके उपसिद्धान्त के रूप में, इसने विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालयीय स्तर की पेशेवर एवं टेकनिकल संस्थाएँ-दोनों में उच्चतर शिक्षा के लिए यथेष्ट और सुधरे प्रबंधों की आवश्यकता पर जोर दिया ।

बोर्ड ने “सब स्तरों पर टेकनिकल व्यापारिक एवं कला-सम्बन्धी शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था को बढ़ने और अधिक व्यावहारिक बनाने” की आवश्यकता पर जोर दिया, “जिससे भारत को अनुसंधान-कार्यकर्त्ता, कार्य-साधक प्रबंधक-वर्ग एवं कौशल-संपन्न शिल्पी उपलब्ध हों, जिनकी, उसके (भारत के) औद्योगिक, आर्थिक और कृषि -सम्बन्धी साधनों के विस्तार के कारण, अवश्य ही माँग होगी ।”

इसने शिक्षा के सांस्कृतिक एवं विश्रामप्रद आमोदजनक पक्ष के लिए अधिक सुविधाओं की माँग की, जिससे विद्यार्थियों को “व्यक्तित्व-निर्माण” में सहायता मिले । इसने महसूस किया कि “नैतिक आधार से शून्य पाठक्रम अंत में निष्फल सिद्ध होगा” । अतएव इसने शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक उपदेश के उचित समन्वय द्वारा शिक्षा की सभी अवस्थाओं में चरित्र के प्रशिक्षण पर बहुत महत्त्व डाला ।

बोर्ड ने स्पष्ट कर दिया कि इसका उद्देश्य सब प्रकार से “लोक-शिक्षा की एक आदर्श प्रणाली की योजना करना” नहीं था; बल्कि इसका उद्देश्य यह था कि “बिल्कुल कम-से-कम को बतला दिया जाए जो भारत को अन्य सभ्य जातियों के करीम-करीब बराबर स्तर पर रखने के लिए आवश्यक हो ।” इसने सुझाव दिया कि शिक्षा के विविध अधिकारी अपने-अपने क्षेत्रों की विशेष आवश्यकताओं के अनुकूल विस्तृत योजनाएँ बना डालें ।

केंद्रीय और प्रांतीय सरकारें प्राथमिक, सेकंडरी एवं विश्वविद्यालयीय शिक्षा, शारीरिक शिक्षा, बाधाग्रस्तों की शिक्षा और पेशेवर (टेकनिकल, कृषि सम्बन्धी एवं व्यापारिक) शिक्षा के विकासार्थ योजनाएँ और मसविदे बनाने में सुस्त नहीं थीं ।

बुनियादी तालीम की वर्धा-प्रणाली, जो हस्तशिल्प (शिल्पविद्या) के प्रशिक्षण को साहित्यिक शिक्षा से मिला देती है, धीरे-धीरे नयी प्रांतीय सरकारों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में लागू की जाने लगी । विश्वविद्यालयीय शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को स्पानच्चुत कर किसी अन्य भाषा को उसी स्थान पर प्रतिष्ठित करने का प्रश्न उठाया गया ।

विभिन्न विश्वविद्यालयों के वाइस-चांसलरों और केंद्रीय सरकार के शिक्षा-मंत्री की एक सभा में इस पर विवाद हुआ । इस सम्बन्ध में सर्वस्वीकृत मत यह है कि संक्रांति की इस अवस्था में एक निश्चित समय के लिए माध्यम अंग्रेजी ही रहे और उस समय के बाद क्षेत्रीय या राजभाषा धीरे-धीरे उसका स्थान ले ले ।

१९४४ ई॰ के केंद्रीय सलाहकार बोर्ड ने स्त्रियों के लिए शैक्षिक सुविधाएँ बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया । यहां तक कि इसके विचार में लडुकों के लिए जो व्यवस्था थी, वही लड़कियों के लिए भी होनी चाहिए । इसने शिशुओं की शिक्षा में स्त्रियों इतने विशेष स्थान को स्वीकार किया ।

अतएव इसने सिफारिश की कि “प्री-प्राइमरी स्कूलों के अतिरिक्त जहाँ कब शिक्षक स्त्रियां ही हों, जूनियर बेसिक स्कूलों में कम-से-कम तीन पंचमांश और सीनियर बेसिक स्कूलों में आधे शिक्षकों को औरतें ही होना चाहिए” ।

भारतीय महिलाओं ने महसूस किया कि वे मदों के साथ बराबरी के आधार पर काम करने में अधिक अवसरों की अधिकारिणी है । उनमें से बहुत पहले से ही जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रमुख बन चुकी थीं । श्रीमती राधाबाई सुब्बारायन १९३८ ई॰ में राज्य-परिवह की प्रथम महिला सदस्य हुई ।

१९४३ ई॰ में श्रीमति रेणुका राय केंद्रीय लेजिस्लेटिव एसेंब्ली में बैठनेवाली प्रथम महिला हुई । भारत के लिए यह गर्व की बात है कि विजयलक्ष्मी पंडित और राजकुमारी अमृत कौर-जैसी नेत्रियाँ (महिला लीडरें) संयुक्त राष्ट्र एवं संयुक्त राष्ट्रीय शैक्षिक वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) सरीखी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से अपने देश की प्रतिनिधियों के रूप में सक्रिय ढंग से संबद्ध हुई ।

अखिल भारतीय महिला सम्मेलन ने विधान-निर्मात्री परिषद् के पास नारी-अधिकापत्र भेजा । इसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषताएँ थी-भारत के नये संविधान में सार्वभौम मताधिकार लागू करने की माँग तथा केंद्र और प्रांत दोनों में एक सामाजिक सेवा मंत्रालय के निर्माण की माँग । स्वतंत्र भारत ने सरोजिनि नायडू को संयुक्त प्रांत की गवर्नर, विजयलक्ष्मी पंडित को मास्को एवं वाशिंगटन में राजदूत और अमृत कौर को केंद्रीय सरकार में एक मंत्री नियुक्त कर अपने नारी वर्ग का सम्मान किया ।