Read this article in Hindi to learn about the political thought of Mahatma Gandhi.

भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (मोहनदास करमचंद गांधी) आधुनिक भारत के महान् जन-नायक, समाज-सुधारक और नैतिक दार्शनिक थे । उनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई. को पोरबंदर (गुजरात) में हुआ । उन्होंने अपना व्यवसायिक जीवन 1891 में बैरिस्टर के रूप में प्रारंभ किया । दो वर्ष बाद एक मुकदमे की पैरवी के सिलसिले में उन्हें दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा ।

वहाँ उन्होंने देखा कि अंग्रेजों के शासन में भारतीयों को अत्यंत कष्ट और अपमान का जीवन बिताना पड़ रहा है । इसके प्रतिकार के लिए भारतीयों के पास कोई विशेष शक्ति नहीं थी । गांधीजी ने वहीं सत्याग्रह की शक्ति आजमाने की शुराआत की ।

वे लंबे समय तक वहीं रहे, और बीच-बीच में भारत आते-जाते रहे, जहाँ लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) और गोपाल कृष्ण गोखले (1866-1915) जैसे महान् नेताओं से उनका घनिष्ठ परिचय हुआ । 1915 में जब वे भारत लौटे तो यहाँ उनका नाम प्रसिद्ध हो चुका था ।

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यहाँ पर भी भारतीयों की दीन-हीन दशा का पता लगाने के लिए उन्होंने देश का दौरा किया और स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व संभाला । इनके प्रयत्नों और देशवासियों के बलिदानों के फलस्वरूप 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वाधीनता मिली । अंततः 30 जनवरी, 1948 को एक अतिवादी नाथूराम गोडसे की गोली लगने से उन्होंने अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया ।

गांधीजी ने सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के आधार पर मानवता को समाज के नव-निर्माण की नई राह दिखाई । वस्तुतः गांधीजी शुद्ध राजनीति-विचारक नहीं थे, बल्कि सच्चे कर्मयोगी थे । वे वर्तमान भारत के राष्ट्र-निर्माता थे, और उन्हें भारतवासी ‘राष्ट्र पिता’ अथवा ‘बापू’ के नाम से याद करते है । उनके ऊँचे चरित्र और धार्मिक रुझान को देखकर कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें ‘महात्मा’ के नाम से संबोधित किया, और आज भी वे ‘महात्मा गांधी’ नाम से लोकप्रिय हैं ।

राजनीति को उन्होंने महान् धार्मिक और नैतिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए अपनाया । अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ (My Experiments with Truth) के अंतर्गत उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को पूरी सच्चाई के साथ व्यक्त किया है । उनके विचार अनेक पुस्तकों, लेखों और प्रवचनों, इत्यादि के रूप में बिखरे पड़े है । उन्होंने किसी नए ‘वाद’ को जन्म नहीं दिया, और स्वयं यह स्वीकार किया कि ‘गांधीवाद’ नाम की किसी विचारधारा का कोई अस्तित्व नहीं है ।

व्यावहारिक जीवन में जो समस्याएं समय-समय पर उनके सामने आई, उनका समाधान करते चले । ‘सत्य’ जिस-जिस रूप में उनके समक्ष प्रकट होता चला, उसे स्वीकार करने से वे कभी पीछे नहीं हटे फिर भी उन्होंने कुछ निश्चित सिद्धांत अवश्य विकसित किए । ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ के आदर्श उनके जीवन के मूल मंत्र थे जिनके आधार पर उन्होंने अपनी राजनीतिक कार्रवाई के तरीके विकसित किए ।

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राजनीति और नैतिकता: परस्पर संबंध (Politics and Ethics: Interrelationship):

प्रसिद्ध इतालवी विचारक निकोलो मैक्यावली (1469-1527) ने राजनीति और नैतिकता के बीच दीवार खड़ी करते हुए यह तर्क दिया था कि यदि साध्य उचित हो तो साधन को अपने-आप उचित मान लिया जाएगा । इसके विपरीत, गांधीजी ने राजनीति और नैतिकता के बीच पुल का निर्माण करते हुए यह तर्क दिया कि राजनीति के क्षेत्र में साधन और साध्य दोनों समान रूप से पवित्र होने चाहिए ।

गांधीजी ने राजनीति को आध्यात्मिक आधार देकर उसे स्वच्छ रखने का समर्थन किया । इसकी प्रेरणा उन्हें उनके गुरू गोपाल कृष्ण गोखले (1866-1915) से मिली । आध्यात्मिक, धार्मिक, और नैतिक-ये तीनों अभिव्यक्तियाँ गांधीजी के लिए एक ही अर्थ का संकेत देती थीं । धर्म को उन्होंने कभी संकुचित अर्थ में नहीं लिया । उनकी दृष्टि में विश्व के सब धर्मों का सार तत्व एवं ध्येय एक-जैसा था ।

वे धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता के समर्थक थे । राजनीति के धार्मिक आधार से उनका तात्पर्य यह था कि प्रत्येक राजनीतिक कृत्य या संस्था को नैतिक कसौटी पर कसना आवश्यक है । मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन के विपरीत महात्मा गांधी अध्यात्म-तत्व की प्रधानता में विश्वास रखते थे ।

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गांधीजी के अनुसार, यह भौतिक संसार एवं इसकी चमक-दमक नश्वर है; अतः सांसारिक जीवन की उन्नति के लिए आध्यात्मिक जीवन का तिरस्कार करना बुद्धिमता नहीं है । जो राजनीति धर्म से विहीन है, वह मृत्युजाल के तुल्य है, और आत्मा को पतन के गर्त में धकेलती है ।

वस्तुतः गांधीजी ने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन को पृथक्-पृथक् विभागों में कभी नहीं देखा बल्कि संपूर्ण जीवन को अखंड मानकर धर्म को उसका सार-तत्व समझा । वे गीता के इस वचन में विश्वास करते थे- ”योगकर्मसु कौशलम्” (अर्थात् कर्म में कुशलता ही ‘योग’ है) । धर्म मनुष्य को निकम्मा रहना नहीं सिखाता, बल्कि कर्मठ व्यक्ति ही धर्मनिष्ठ हो सकता है ।

गांधीजी के शब्दों में, ”मेरी सत्य-निष्ठा ही मुझे राजनीति के क्षेत्र में ले आई है, और मैं तनिक भी संकोच किए बिना, परंतु पूर्ण विनम्रता के साथ, कह सकता हूँ-जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई सरोकार नहीं है, वे धर्म का अर्थ ही नहीं जानते ।”

वे भारत की पराधीनता को भारतवासियों के नैतिक उत्थान के मार्ग में बाधक मानते थे । इसी बाधा को हटाने के लिए उन्होंने स्वाधीनता-दोलन में भाग लिया । राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ उन्होंने आर्थिक स्वतंत्रता को भी समान महत्व दिया । उनके विचार से, राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों नैतिक जीवन की आवश्यक शर्तें थीं ।

आर्थिक स्वतंत्रता की दिशा में गांधीजी ने साम्यवादी सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया । उन्होंने ‘समस्त भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति’ के स्थान पर आवश्यकताओं को संयत करने पर बल दिया । उन्होंने शरीर-श्रम को विशेष महत्व दिया । उनका विचार था कि प्रत्येक सक्षम व्यक्ति को अपनी भौतिक आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन में योग देने के लिए स्वयं शरीर-श्रम करना चाहिए ।

इससे सबकी भोजन, वस्त्र और मकान की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति तो होगी ही, साथ ही श्रम की प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी । जब सभी श्रमशील होंगे तो सामाजिक विषमता समाप्त हो जाएगी और वर्गहीन समाज की स्थापना संभव हो सकेगी । सच्ची आर्थिक स्वतंत्रता के लिए उत्पादन बढ़ाकर आत्मनिर्भर तो होना चाहिए, परंतु अपनी आवश्यकताओं पर भी नियंत्रण रखना चाहिए ।

इच्छाओं को संयत रखकर ही उनकी पूर्ति की जा सकती है । इच्छाएं बढ़ाने से वे तृष्णा का रूप धारण कर लेती हैं । तृष्णा की तृप्ति का कोई उपाय नहीं है । मरुस्थल में मरीचिका के पीछे भटकने वाला मृग कभी शांति प्राप्त नहीं करता ।

शांति तो मनुष्य को अपनी अंतरात्मा के भीतर ही मिल सकती है- जैसे कस्तुरी का वास मृग की नाभि में होता है; वन में भटकने से उसे कुछ हासिल नहीं होता । मनुष्य को चाहिए कि संसार में रहते हुए भी सांसारिक विषयों से निर्लिप्त रहे, जैसे कमल का पत्ता जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता ।

साधन और साध्य:

राजनीति और नैतिकता के निकट संबंध को स्पष्ट करने के लिए गांधीजी ने साधन और साध्य दोनों की पवित्रता पर बल दिया । मैक्यावली और उसके अनुयायियों के विपरीत गांधीजी साधन को साध्य से पहले रखते हैं- जैसे साधन होंगे, वैसा ही साध्य होगा । साध्य की प्रकृति साधन की प्रकृति से निर्धारित होती है । साधन की तुलना बीज से कर सकते हैं; साध्य की वृक्ष से । जैसा बीज डालेंगे, वैसा ही वृक्ष उगेगा ।

बबूल का पेड़ बोकर आम का फल नहीं उगाया जा सकता । साध्य और साधन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिन्हें एक-दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है । यदि साधन अनैतिक होंगे तो साध्य चाहे कितना ही नैतिक क्यों न हो, वह अवश्य ही भ्रष्ट हो जाएगा क्योंकि गलत रास्ता कभी सही मंजिल तक नहीं ले जा सकता ।

जो सत्ता भय और बल प्रयोग की नींव पर खड़ी की जाती है, उससे लोगों के मन में स्नेह और आदर की भावना पैदा नहीं की जा सकती । स्वराज-प्राप्ति के लिए गांधीजी ने सत्याग्रह का मार्ग दिखाया, क्योंकि सत्याग्रह ऐसा साधन था जो साध्य (अर्थात् स्वराज) के समान ही पवित्र था ।

यदि हिंसा, छल-कपट और असत्य के मार्ग पर चलकर स्वराज भी मिल जाता तो वे उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे । यही कारण था कि 1922 में जब क्रुद्ध भीड़ ने (उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में) ‘चौरीदौरा’ थाने को आग लगा दी, तब गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन (Civil Disobedience Movement) वापस ले लिया हालांकि इस आंदोलन की सफलता के लक्षण दिखाई देने लगे थे । उन्होंने अनुभव किया कि जनता अभी तक अहिंसा के मार्ग पर चलना नहीं सीख पाई थी ।

गांधीजी ने यह मान्यता रखी थी कि सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलना अपने-आपमें श्रेयस्कर है । वह जिस लक्ष्य की ओर ले जाएगा, वही वरेण्य होगा ।

गांधीजी गीता के इस सिद्धांत में विश्वास करते थे:

”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” ‘कर्म’ और ‘फल’ के इस सबध को ध्यान में रखते हुए गांधीजी बार-बार कहते थे, ”मेरे लिए अहिंसा का स्थान स्वराज से पहले है ।”

i. सत्य और अहिंसा (Truth and Non-Violence):

अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ (My Experiments with Truth) के अंतर्गत गांधीजी ने लिखा है- ”मेरे निरंतर अनुभव ने मुझे विश्वास दिला दिया है कि सत्य से अलग कोई ईश्वर नहीं है ।…. और सत्य की सिद्धि का एकमात्र उपाय अहिंसा है । अहिंसा की अखंड साधना से ही सत्य का पूर्ण साक्षात्कार प्राप्त किया जा सकता है ।”

वस्तुतः ईश्वर की तरह सत्य का साक्षात्कार भी बहुत कठिन है क्योंकि वह अत्यंत रहस्यमय है । बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, ज्ञानी और मनीषी उसके भेद को नहीं जान सके तो साधारण मनुष्य उसे क्या पहचान पाएगा ? वह तो उसकी ओर जाने वाले मार्ग पर ही चल सकता है, और वह मार्ग है ‘अहिंसा’ । महाभारत में ‘अहिंसा परमो धर्म:’ की शिक्षा दी गई है, अर्थात् ‘अहिंसा परम धर्म है ।’

महात्मा बुद्ध और भगवान् महावीर ने अपने अनुयायियों को अहिंसा का पाठ पढाया । पश्चिम में ईसा मसीह ने सारे संसार की अहिंसा की शिक्षा दी परंतु अहिंसा का स्वरूप है क्या’ इस शब्द का मूल अर्श है-ऐसा व्यवहार जिसमें हिंसा का सहारा न लिया जाए, अर्थात् ‘किसी (जीव) को पीड़ा न पहुँचाई जाए ।’

परंतु यह तो अहिंसा का ‘नकारात्मक’ पक्ष है जो यह बताता है कि मनुष्य को ‘क्या नहीं करना चाहिए?’ दूसरी ओर गांधीजी ने ‘अहिंसा’ के ‘सकारात्मक’ पक्ष पर बल दिया जो यह निर्देश देता है कि मनुष्य को ‘क्या करना चाहिए?’

यह विचार हमें सर्वव्यापक परमात्मा की ओर ले जाता है जो सत्य का चिन्मय रूप है; और वह समस्त जीव जगत में व्याप्त है । महात्मा बुद्ध उसे ‘विश्वात्मा’ की संज्ञा देते हैं, और यह बताते हैं कि किसी भी जीव को कष्ट पहुँचाने से विश्वात्मा को दुःख पहुँचता है । महात्मा गांधी एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं, ”अतः विश्व के समस्त जीवों से प्रेम करो । धरती पर निम्नतम कोटि का प्राणी भी ईश्वर का प्रतिरूप है, इसलिए वह तुम्हारे प्रेम का अधिकारी है ।”

आबु बिन आदम को ज्ञान देने वाले फरिश्ते की सीख को दोहराते हुए गांधीजी कहते हैं कि जो मनुष्य अपने साथ जीवन बिताने वाले मनुष्यों से प्यार करता है, वही ईश्वर से प्यार करता है । कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर की तरह वे भी अनुभव करते हैं कि यदि तुम्हें ईश्वर की झलक देखनी है तो वह तुम्हें खेतों में कड़ी दुपहर को काम करने वाले मजदूर के माथे पर ढुलकती हुई पसीने की बूंदों में मिलेगी ।

अतः अहिंसा का सकारात्मक पक्ष है- मानव-प्रेम । अहिंसा वह सिद्धांत या नीति है जिसमें अपने विरोधी को प्रेम से जीता जाता है, घृणा या लड़ाई से नहीं । अहिंसा की दृष्टि में कोई भी घूणा का पात्र नहीं हो सकता; पापी भी नहीं । गांधीजी बाइबल के इस वाक्य के अनुयायी हैं- ”पाप से घृणा करो, पापा से नहीं ।”

यदि कोई पापी तुम्हारे सम्पर्क में आता है तो अपने चरित्र-बल से उसे भी पाप से विमुख करके सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो । अतः अहिंसा का साधक समाज से अपना संबंध नहीं तोड़ सकता । गांधीजी ऐसी आध्यात्मिक साधना में विश्वास नहीं करते जिसमें मनुष्य संसार से पलायन करके पर्वतों और कंदराओं में या वनों में एकांत जीवन व्यतीत करे । वे स्वयं आजीवन सार्वजनिक कार्य में व्यस्त रहे और उन्होंने ऐसी तपस्या या साधना को प्रोत्साहन नहीं दिया जिससे समाज का कोई हित न हो ।

अहिंसा का सिद्धांत मनुष्य को ‘हिंसा’ से दूर रहने की शिक्षा देता है । जैसे-जैसे हम इसकी गहराई में जाते हैं, इसका अर्थ विस्तृत होता जाता है । मोटे तौर पर, प्रस्तुत सिद्धांत यह मांग करता है कि हमारे किसी कृत्य से किसी मनुष्य को कष्ट नहीं पहुँचना चाहिए । गांधीजी की दृष्टि में, किसी को कष्ट पहुँचाने का विचार या किसी का बुरा चाहना भी हिंसा है ।

किसी के प्रति घृणा या द्वेष की भावना रखना ही हिंसा है । फिर, अपनी तात्कालिक आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ ग्रहण करना या धन बटोरना भी हिंसा है क्योंकि ऐसा करके हम दूसरों को उनके उचित अधिकार या हिस्से से वंचित करते हैं ।

यहाँ तक कि पर्यावरण में किसी तरह की गंदगी या प्रदूषण फैलाना भी हिंसा है क्योंकि इससे जन-स्वास्थ्य को क्षति पहुँचने का अंदेशा है । इस तरह देखा जाए तो नागरिकता के सारे आदर्श और सदाचार के सारे नियम ‘अहिंसा’ के विचार-क्षेत्र में आ जाते हैं ।

आधुनिक युग में महात्मा गांधी ने अहिंसा को भारत के स्वाधीनता-आंदोलन में एक राजनीतिक सिद्धांत के रूप में अपनाया और इसकी शक्ति को प्रमाणित किया । गांधीजी ने यह सिखाया कि ‘अहिंसा’ निर्बल व्यक्ति का आश्रय नहीं बल्कि शक्तिशाली का अस्त्र है । विरोधी की शक्ति से डर जाने या अत्याचार के विरुद्ध बल-प्रयोग न कर पाने की स्थिति अहिंसा नहीं है ।

इसके विपरीत, यह नैतिक दृष्टि से शक्तिशाली व्यक्ति या समूह का बल है जो सत्य पर दृढ़ निष्ठा रखने से प्राप्त होता है । अहिंसा स्वयं एक शक्ति है जिससे विरोधी के हृदय पर विजय प्राप्त की जाती है । यह भौतिक शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति के आगे झुकाने की कला है । मनुष्य के लिए अहिंसा आत्मशुद्धि का साधन है । अहिंसा का साधक सत्य के प्रति अनन्य निष्ठा रखकर असत्य की शक्ति को परास्त करने की क्षमता रखता है ।

समकालीन परिस्थितियों में अहिंसा का महत्व और भी बढ़ गया है । गांधीजी के अनुयायी एवं अमरीकी अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग के शब्दों में, ”आज के अत्यंत विनाशकारी अस्त्रों के युग में हमारे सामने दो ही रास्ते हैं- या तो हम अहिंसा को अपना लें, या फिर अपने अस्तित्व को ही मिट जाने दें ।”

ii. सत्याग्रह (Satyagraha):

सत्य और अहिंसा का अटूट संबंध ही ‘सत्याग्रह’ के विचार को जन्म देता है । वस्तुतः ‘सत्याग्रह’ ही सामाजिक क्रांति का गांधीवादी तरीका है । सत्याग्रह का शब्दार्थ है सत्य + आग्रह, अर्थात् सत्य पर अडिग रहना । सत्य क्या है, इसका निर्णय कैसे हो? जब अहिंसा का पालन करते हुए मनुष्य आत्मशुद्धि कर लेता है तो उसकी अंतरात्मा ही सत्य का दर्पण बन जाती है ।

जब मनुष्य को यह विश्वास हो जाए कि वह सत्य के मार्ग पर चल रहा है, तब चाहे उसे जितनी भी बाधाएँ और यातनाएँ क्यों न सहन करनी पड़े-अपने मार्ग से तनिक भी विचलित न होना सत्याग्रह है । सत्य की सिद्धि कठिन तो है, परंतु अंततः विजय उसकी ही होती है- ”सत्यमेव जयते नानृतम्” (सत्य की ही जय होती है, अनृत या असत्य की नहीं) अतः सत्याग्रही कभी पराजय स्वीकार नहीं करता ।

वह किसी भी परिस्थिति में सत्य के पथ से विचलित नहीं होता । स्वयं सत्य पर दृढ़ रहकर ही वह अपने विरोधी का हृदय-परिवर्तन करने को तत्पर होता है- उसे पीडा पहुँचाकर नहीं (क्योंकि अहिंसा सत्याग्रह की आवश्यक शर्त है) ।

सत्याग्रही अपने-आपको कष्ट पहुँचाकर, जैसे कि अनशन करके या कारावास की यातना सहन करके विरोधी के मन को आंदोलित कर देता है, जिससे वह अंततः अन्याय के मार्ग से हटकर न्याय के मार्ग से हट कर न्याय के मार्ग पर चलने के लिए नैतिक रूप् से विवश हो जाता है ।

इसी परंतु मनुष्य स्वयं अपूर्ण है । अतः कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि उसने सत्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है । राजनीति के क्षेत्र में सत्य की व्याख्या के प्रश्न पर भी मतभेद पैदा हो सकता है । ऐसी हालत में, गांधीजी के अनुसार, हठधर्मिता (Obstinacy) का रास्ता अपनाना उपयुक्त नहीं होगा ।

सत्याग्रही को विरोधी पक्ष के साथ संवाद स्थापित करके एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की प्रेरणा देनी चाहिए ताकि दोनों पक्ष मिलकर सत्य का अन्वेषण कर सके । यदि विरोधी पक्ष सत्याग्रही के आमंत्रण को अस्वीकार कर दे, अर्थात् बातचीत के लिए तैयार ही न हो, तभी उसे नैतिक दबाव के तौर-तरीकों का सहारा लेना चाहिए ।

iii. सविनय अवज्ञा (Civil Disobedience):

गांधीजी के अनुसार, मनुष्य मूलतः नैतिक प्राणी है । इस दृष्टि से वह राज्य के आदेशों और कानूनों का पालन करने के लिए वहीं तक बाध्य है जहाँ तक ये नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों । जो कानून नैतिकता के सिद्धांतों के विरुद्ध हो, उसका विरोध करने के लिए गांधीजी ने सविनय अवज्ञा का रास्ता दिखाया ।

सविनय अवज्ञा का मूल अर्थ है- ऐसे कानून का उल्लंघन जो स्वयं अन्यायपूर्ण हो । विस्तृत अर्थ में, जब सरकार की किसी नीति पर विरोध प्रकट करने के लिए, या किसी राजनीतिक सुधार की माँग पर सरकार का ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से कोई कानून तोड़ा जाता है तो उसे भी सविनय अवज्ञा कहा जाता है ।

इस शब्दावली के आविष्कार का श्रेय अमरीकी लेखक हेनरी डेविड थोरो (1817-62) को है जिसने 1848 में अपने एक निबंध के अंतर्गत यह स्पष्ट किया था कि उसने कर चुकाने से इनकार करके जेल में रात क्यों बिताई थी? थोरो ने तर्क दिया था कि जब अपनी ही सरकार अन्याय करने लगे तो जनता को उसका विरोध अवश्य करना चाहिए ।

महात्मा गांधी ने भारत के स्वाधीनता-आंदोलन के दौरान इस विचार को अहिंसात्मक संघर्ष और सत्याग्रह की संकल्पना के साथ मिलाकर एक विस्तृत सिद्धांत का रूप दे दिया । गांधीजी ने अपने जीवन में इसका सार्थक प्रयोग भी कर दिखाया जिसका सबसे प्रमुख उदाहरण 1932 का ‘नमक सत्याग्रह’ था ।

गांधीजी के अनुसार, सविनय अवज्ञा का अर्थ यह है कि सामान्य रूप से कानून का हार्दिक सम्मान किया जाए; केवल अन्यायपूर्ण कानून को ही तोड़ा जाए; ऐसे कानून का उल्लंघन सर्वथा अहिंसात्मक होना चाहिए; यह कार्रवाई सार्वजनिक रूप से करनी चाहिए, छिपकर नहीं; और कानून तोड़ने पर जो दंड मिले, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए ।

फिर, सविनय अवज्ञा का सहारा तभी लेना चाहिए जब अनुनय-विनय (Persuasion and Petition) के सारे प्रयास किए जा चुके हों और वे विफल हो चुके हों ।

समकालीन राजनीति में कई बार सविनय अवज्ञा के दुष्प्रयोग के उदाहरण भी देखने को मिलते हैं । यह बात याद रखनी चाहिए कि सविनय अवज्ञा का ध्येय सत्ताधारियों का हृदय-परिवर्तन करना है, उन्हें विवश करना नहीं ।

किसी अधिनायकतंत्र (Dictatorship), विदेशी शासन या अन्यायपूर्ण शासन के विरुद्ध सविनय अवज्ञा का प्रयोग तर्कसंगत होगा परंतु जो शासन प्रणाली नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करती हो, जिसमें लोकतंत्रीय तरीकों से शासन पर अपना प्रभाव डाल सकते हों या सरकार को बदल सकते हों, वहाँ यह तरीका बहुत सोच-समझकर ही अपनाना चाहिए ।

iv. स्वराज (Swaraj):

गांधीजी के चिंतन में स्वराज का विशेष महत्व है । यह शब्द भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में प्रचलित हुआ था जो स्वशासन (Self-Rule), आत्म-निर्णय (Self-Determination) और स्वाधीनता की मांग को व्यक्त करता था । शुरू में बिपिन चंद्र पाल (1858-1932), लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) और श्री अरविंद (1872-1950) जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने विदेशी शासन से पूर्ण स्वाधीनता पर बल देते हुए ‘पूर्ण स्वराज’ को अपना लक्ष्य घोषित किया ।

महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू (1889-1964) ने भी इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए कमर कस ली । गांधीजी ने ‘स्वराज’ के अर्थ का विस्तार करते हुए यह तर्क दिया कि स्वराज का अर्थ केवल राजनीतिक स्तर पर विदेशी शासन से स्वाधीनता प्राप्त करना नहीं है; इसमें सांस्कृतिक और नैतिक स्वाधीनता का विचार भी निहित है ।

यदि कोई समाज राजनीतिक दृष्टि से तो स्वाधीन हो परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से पराधीन हो, अर्थात् उसे अपनी गतिविधियों के निर्देशन के लिए दूसरों का मुँह ताकना पड़े तो वह स्वाधीन होते हुए भी स्वराज विहीन होगा ।

गांधीजी के अनुसार – स्वराज का पौधा उस देश में पनपता है जिसकी जड़ें अपनी परंपराओं से जुड़ी हों परंतु वह इन परंपराओं की त्रुटियों के प्रति भी सजग हो, और दूसरों से अच्छी बातें सीखने को तैयार हो । जिस राष्ट्र की बुनियाद अपनी परंपराओं पर नहीं टिकी होगी, वह हवा के हर झोंके के साथ हिल जाएगा ।

स्वराज यह मांग करता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से हमारा अपना एक घर होना चाहिए जो हमें सुरक्षा प्रदान करे, परंतु उस घर की खिड़कियों और दरवाजे खुले रखे जाएं ताकि उसमें सब ओर से उत्तम विचारों की ताजी हवा आती रहे अन्यथा उसमें घुटन पैदा हो जाएगी और दुर्गंध आने लगेगी ।

गांधीजी ने कहा था – ”मैं ऐसे भारत के निर्माण का प्रयत्न करूंगा जिसमें निर्धन से निर्धन मनुष्य भी यह अनुभव करेगा कि यह मेरा अपना देश है, और इसके निर्माण में मेरा पूरा हाथ है ।”

शासन के स्तर पर गांधीजी की दृष्टि में ‘स्वराज’ सच्चे लोकतंत्र का पर्याय था । उनका कहना था कि इने-गिने लोगों को सत्ता प्राप्त हो जाने से सच्चा स्वराज नहीं आ जाएगा । सच्चा स्वराज तब आएगा जब कहीं भी सत्ता का दुरुपयोग होने पर सब लोग उसका विरोध करना सीख जाएंगे, और इसके लिए उपयुक्त क्षमता प्राप्त कर लेंगे । ‘स्वराज’ का विपरीत रूप ‘परराज’ या ‘पराया शासन’ है, चाहे वह अंग्रेजों का हो, या हिंदुस्तानियों का हो ।

व्यक्ति के स्तर पर स्वराज का अर्थ यह था कि व्यक्ति को अपने ऊपर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए । इस तरह यह आत्मसंयम का पर्याय था जो व्यक्ति को सच्चरित्र और महान् बेनाता है ।

v. सर्वोदय (Sarvodaya):

स्वराज के साथ-साथ गांधीजी ने सर्वोदय के आदर्श पर विशेष बल दिया । भारतीय मूल के इस शब्द (सर्वोदय = सर्व + उदय) का अर्थ है, सबका उदय या उत्थान । गांधीजी ने इस शब्द का प्रयोग ऐसी जीवन-पद्धति या विचारधारा का संकेत देने के लिए किया जो सत्य और अहिंसा पर आधारित हो ।

मतलब यह कि जब अहिंसा को जीवन का नियम बना लिया जाएगा तब समाज में किसी का किसी के प्रति वैर-विरोध नहीं रहेगा और सब मिलकर सबके कल्याण के लिए कार्य करेंगे । गांधीजी के बाद आचार्य विनोबा भावे (1895-1982) और लोकनायक जयप्रकाश नारायण (1902-79) ने सर्वोदय को विस्तृत सामाजिक कार्यक्रम का रूप दिया ।

कभी-कभी सर्वोदय की व्याख्या गांधीवादी समाजवाद के रूप में की जाती है परंतु यह व्याख्या सही नहीं है । समाजवाद के असंख्य रूप हैं, परंतु वह मुख्यतः जनसाधारण की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति को प्राथमिकता देता है । गांधीवाद आत्मसंयम रखने और भौतिक आवश्यकताओं को कम करने की शिक्षा देता है ।

समाजवाद मुख्यतः उत्पादन के साधनों के सामाजिक स्वामित्व या नियंत्रण पर बल देता है, गांधीवाद पूंजीपतियों के हृदय-परिवर्तन में विश्वास करते हुए न्यासिता (Trusteeship) के सिद्धांत पर बल देता है ।

सारांश यह कि सर्वोदय निम्न वर्गों के कल्याण को तो बहुत महत्व देता है, परंतु इसके लिए वह ऐसी व्यवस्था की कल्पना और आशा करता है जिसमें धनवान् वर्ग स्वेच्छा और आत्म-प्रेरणा से अपना धन निर्धन वर्ग के कल्याण को समर्पित कर देगा । समाजवाद बहुधा वर्ग-संघर्ष पर अपना ध्यान केंद्रित करता है; सर्वोदय वर्ग सहयोग (Class Cooperation) पर बल देता है ।

वर्गहीन और राज्यहीन समाज की संकल्पना:

गांधीजी मूलतः नैतिक दार्शनिक (Moral Philosopher) थे । आधुनिक राज्य की प्रकृति के बारे में उन्होंने कोई विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया । भारतवासियों को सत्य और अहिंसा की शिक्षा देते हुए उन्होंने यह विचार रखा कि अहिंसात्मक समाज में ‘राज्य’ के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए क्योंकि राज्य की शक्ति और राज्य के कानून हिंसा या बल-प्रयोग पर आधारित हैं ।

राज्य व्यक्ति की वैयक्तिकता का दमन करके सब व्यक्तियों को एक ही सांचे में ढालने के लिए बाध्य करता है । यह स्वावलंबन की भावना को नष्ट करके उसके व्यक्तित्व को कुंठित कर देता है परंतु फिर भी राज्य एक आवश्यक बुराई है । मनुष्य सामाजिक प्राणी है; उनके सामाजिक जीवन को नियमित करने के लिए राज्य का अस्तित्व जरूरी है । उत्तम राज्य वह होगा जो कम-से-कम हिंसा और बल-प्रयोग से काम लेकर व्यक्तियों की गतिविधियों को स्वैच्छिक प्रयास से नियमित होने देगा ।

गांधीजी की दृष्टि में आदर्श समाज-व्यवस्था वही हो सकती है जो पूरी तरह अहिंसा पर आधारित हो । जहाँ हिंसा का विचार ही लुप्त हो जाएगा वहाँ ‘दंड’ या ‘बल-प्रयोग’ की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी । अतः राज्य संस्था की आवश्यकता ही नहीं रहेगी । इस दृष्टि से गांधीजी काउंट लियो टॉल्सटाय (1828-1920) के समान दार्शनिक अराजकतावादी या प्रशांत अराजकतावादी हैं ।

गांधीजी ने स्वयं टॉल्सटाय के लेखों को पढ़ा था और वे उनसे प्रभावित भी हुए थे । महर्षि टॉल्सटाय ने विशेष रूप से जार के क्रूर शासन से त्रस्त रूस को-और साधारणतया समस्त यूरोप को-सदाचार का महत्व समझाया था और नैतिक मूल्यों के बल पर जीवन को सार्थक करने का रास्ता दिखाया था । उन्होंने भौतिक सुख को निस्सार बताकर संसार को आध्यात्मिक सुख की ओर प्रेरित किया था ।

ईसा मसीह के उपदेशों का अनुसरण करते हुए टॉल्सटाय ने मानव मात्र के प्रति प्रेम की शिक्षा दी थी और बुराई का मुकाबला भलाई के साथ करने के सिद्धांत को दोहराया था । इसी आधार पर उन्होंने निजी संपत्ति की संस्था और राज्य की समाप्ति का समर्थन किया ।

गांधीजी के अनुसार राज्य की नींव ‘हिंसा’ पर टिकी है; अहिंसात्मक समाज में उसका कोई स्थान नहीं हो सकता । टॉल्सटाय ने सच्चे ईसाई धर्म के आधार पर अपने नैतिक विचार विकसित किए थे; गांधीजी को हिंदू धर्म (सनातन धर्म) में इन्हीं विचारों की प्रतिध्वनि सुनाई दी परंतु दोनों में किसी ने धर्म को संकुचित अर्थ में नहीं लिया बल्कि धर्म के सार-तत्व को अपनाया ।

इस दृष्टि से वे पी. जे. प्रूदों (1809-65), मिखाइल बाकूनिन (1814-76) और पीटर क्रॉपॉटकिन (1842-1921) जैसे अराजकतावादियों से सहमत नहीं थे, जिन्होंने धर्म को मनुष्य के विकास में बाधक ठहराया था । कार्ल मार्क्स (1818-83) और अन्य साम्यवादी (Communists) भी अंततः राज्यहीन समाज की स्थापना का स्वप्न देखते है, परंतु वे ‘धर्म’ को नवनिर्माण की चेतना में बाधक मानकर शुरू से ही परे कर देते है, और हिंसात्मक क्रांति के द्वारा राज्यहीन समाज स्थापित करना चाहते है ।

दूसरे, साम्यवादी यह मानते है कि राज्यहीन समाज के उदय से पहले अधिकतम उत्पादन की स्थिति आएगी, जब सब व्यक्तियों की सभी आवश्यकताएं और इच्छाएं पूरी हो सकेगी । इसके विपरीत गांधीजी भौतिक आवश्यकताओं को सीमित और इच्छाओं को संयत करने का मार्ग दिखलाते हैं ।

इस प्रकार गांधीजी का राज्यहीन समाज साम्यवादियों के राज्यहीन समाज से सर्वथा भिन्न है । गांधीजी के आदर्श समाज में प्रत्येक व्यक्ति का धर्म या सामाजिक दायित्व एक सेवा का रूप धारण कर लेगा । चूंकि इसमें हर तरह की सेवा या श्रम को एक-जैसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाएगा, इसलिए वही श्रम की गरिमा (Dignity of Labour) स्थापित हो जाएगी ।

इसी अर्थ में यह ‘वर्गहीन’ समाज होगा । गांधीजी की यह संकल्पना सर्वोदय के विचार के साथ निकट से जुड़ी है । उनका अभिप्राय यह था कि जब अहिंसा को जीवन का नियम बना लिया जाएगा, तब किसी के मन में किसी के प्रति वैर-विरोध नहीं रहेगा, और सब मिलकर सबके हित के लिए कार्य करेंगे ।

अतः जहाँ सर्वोदय का सिद्धांत वंचित वर्गों के उत्थान को विशेष महत्व देता है, वही वह यह आशा भी करता है कि धनवान् वर्ग स्वेच्छा और आत्म-प्रेरणा से अपना धन निर्धन वर्ग के कल्याण में लगाकर आत्मसंयम और विशाल-हृदयता का परिचय देगा, और इस तरह अपना आध्यात्मिक २त्तर उन्नत कर लेगा ।

न्यासिता का सिद्धांत (Tenancy Theory):

इस सिद्धांत के अनुसार जब तक मनुष्य सारे यांत्रिक साधनों के बिना काम चलाने में अभ्यस्त नहीं हो जाते और जब तक बड़े-बड़े उद्योगों, भारी मशीनों और बड़े-बड़े व्यापार-व्यवसायों को समाप्त नहीं किया जा सकता, तब तक यह निश्चित करना जरूरी है कि बड़े-बड़े उद्योग-धंधों का प्रयोग केवल सार्वजनिक हित में हो और वे व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के साधन या ‘हिंसा’ के उपकरण न रह जाएं । इसके लिए गांधीजी पूंजीपतियों के ‘हृदय परिवर्तन’ की मांग करते हैं ताकि पूंजीपति अपनी संपदा को निजी संपत्ति न समझकर संपूर्ण समाज की धरोहर समझें ।

दूसरे शब्दों में, जब तक हम पूर्ण अहिंसा पर आधारित वर्गहीन और राज्यहीन समाज की स्थापना के लिए तैयार नहीं हो जाते, तब तक वर्तमान व्यवस्था को अहिंसात्मक बनाने के उद्देश्य से पूंजीपतियों के हृदय-परिवर्तन का प्रयत्न किया जाए ताकि वे अपने नियंत्रण में आने वाली संपत्ति को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति न समझें बल्कि उसे जनता का धरोहर समझकर अपने-आपको उसका न्यासधारी या संरक्षक समझे और उसका उपयोग संपूर्ण समाज की उन्नति एवं कल्याण में करने को तत्पर हों ।

इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि समाज उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्र में उद्यमशील ओर प्रतिभाशाली व्यक्तियों की योग्यता से तो पूरा फायदा उठाएगा, परंतु सम्पत्ति से पैदा होने वाले शोषण और अन्याय से मुक्त रहेगा । यह धारणा वैसे तो बहुत उदात्त है, परंतु केवल नैतिक प्रेरणा के बल पर पूंजीपतियों के हृदय-परिवर्तन की कल्पना जरूरत से ज्यादा आशावादी प्रतीत होती है ।

सदाचार के नियम (Law of Virtue):

व्यक्तियों के चरित्र-निर्माण के लिए सदाचार का पालन आवश्यक है । गांधीजी ने सदाचार के अनेक नियम प्रस्तुत किए हैं । ये नियम सामान्य हित के प्रति उनके गहरे सरोकार का संकेत देते हैं । उनके चिंतन में व्यक्ति के मुकाबले समाज को ऊँचा स्थान दिया गया है और भौतिकवाद के मुकाबले अध्यात्मवाद को वरीयता दी गई है । उन्होंने समाज के प्रति व्यक्ति की कर्तव्यनिष्ठा पर बल दिया-राज्य या समाज के विरुद्ध व्यक्ति के अधिकारों को कोई मान्यता नहीं दी ।

गांधीजी ने भारत की पराधीनता के दिनों में भारतवासियों को स्वराज की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया, और स्वराज को उन्होंने ‘हरेक आँख से हरेक आँसू पोछने’ के अवसर के रूप में देखा । उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे कर्तव्यों के पालन का संदेश दिया जो उसे सामान्य हित के प्रति अत्यंत संवेदनशील बनाते हैं ।

यदि कहीं किसी व्यक्ति के मन में अपने कर्तव्य के बारे में संदेह पैदा हो जाए तो ऐसे अवसर के लिए गांधीजी ने यह मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत किया- ”तूमने जो सबसे गरीब और सबसे कमजोर आदमी देखा हो, उसका ध्यान करो और फिर अपने दिल से पूछो कि तुम जो कदम उठाना चाहते हो, क्या इससे उस आदमी को कोई फायदा होगा ? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर नियंत्रण प्राप्त हो सकेगा ? अर्थात् क्या यह कदम उन करोड़ों लोगों को स्वराज की ओर ले जाएगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है ?”

इससे यह सिद्ध होता है कि गांधीजी सामान्य हित की ऐसी अवधारणा के समर्थक थे जो व्यक्ति को समाज के दीन-दुःखी लोगों के उद्धार के लिए प्रेरित करती है ।

गांधीजी का शरीर-श्रम का सिद्धांत व्यक्ति का यह दायित्व निर्धारित करता है कि वह अपने उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन के लिए स्वयं श्रम करेगा-कोई किसी दूसरे के श्रम पर आश्रित नहीं रहेगा । यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि प्राचीन और परंपरागत समाज में-जैसे कि यूनान, रोम, चीन या भारत में-शारीरिक श्रम को निम्न कोटि का कार्य माना जाता था, और ऐसा श्रम करने वाले लोगों को समाज की निम्नतम श्रेणी में रखा जाता था । शरीर-श्रम’ का सिद्धांत इस दृष्टिकोण में क्रांतिकारी परिवर्तन की माँग करता है ।

गांधीजी का अपरिग्रह (Non-Possession/Renunciation) का सिद्धांत यह शिक्षा देता है कि व्यक्ति को सामाजिक संपदा से उतना ही ग्रहण करना चाहिए जितना उसकी तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए अनिवार्य हो । यह व्यक्ति से आत्मसंयम की माँग करता है ।

गांधीजी का अस्तेय (Abstention from Theft) का नियम अपरिग्रह का पूरक सिद्धांत है । इसका शाब्दिक अर्थ है- चोरी न करना । इसका लाक्षणिक अर्थ यह है कि मनुष्य को कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं रखनी चाहिए । यह विचार फ्रांसीसी दार्शनिक पी.जे. प्रूदों (1809-65) के इस कथन की याद दिलाता है कि संपत्ति चोरी है’ ।

गांधीजी के विचार से, समाज की सारी संपदा को संपूर्ण समाज की धरोहर मानना चाहिए । जो व्यक्ति अपनी तात्कालिक आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करता है, उसे चोर समझना चाहिए क्योंकि वह दूसरों को उनके प्रयोग से वंचित करता है । यह विचार रखकर गांधीजी ने सामान्य हित को बहुत विस्तृत आधार दे दिया है ।

गांधीजी का सर्वोदय (Uplift of All) का सिद्धांत सामान्य हित के विचार की निकटतम अभिव्यक्ति है । यह सिद्धांत ऐसी नीति का समर्थन करता है जिसके अंतर्गत जात-पांत, धर्म-संप्रदाय, स्त्री-पुरुष, ऊँच-नीच, इत्यादि के भेदभाव को मिटाकर समाज के सभी स्तरों के कल्याण के लिए विस्तृत प्रयास किया जाता है ।

सबसे बढकर, गांधीजी का अहिंसा का सिद्धांत मनुष्य के मन में प्राणि मात्र के प्रति प्रेम की भावना जगाता है । इस तरह गांधीजी के चिंतन के अंतर्गत सामान्य हित का विचार अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँचा हुआ है ।

इस चिंतन-प्रणाली के साथ मुश्किल यह है कि यह मनुष्य के वर्तमान स्वभाव और चरित्र में आमूल परिवर्तन की मांग करती है ताकि वह स्वार्थ से ऊपर उठकर पूरी तरह सामान्य हित के प्रति समर्पित हो जाए । इस कल्पना को साकार करना अत्यंत कठिन है परंतु सामाजिक परिवर्तन की दिशा निर्धारित करने में इससे मार्गदर्शन अवश्य ले सकते हैं ।

पश्चिमी सभ्यता की समीक्षा (Western Civilization Review):

गांधीजी भारत की उन्नति के लिए उसे पश्चिमी सभ्यता के सांचे में ढालना नहीं चाहते थे । उनका दृढ़ विश्वास था पश्चिमी सभ्यता मनुष्य को उपभोक्तावाद का रास्ता दिखाकर नैतिक पतन की ओर ले जाएगी; नैतिक उत्थान का रास्ता आत्मसंयम और त्याग भावना की मांग करता है । गांधीजी ने पश्चिमी सभ्यता और आधुनिक सभ्यता को समवर्ती मानते हुए उसकी विस्तृत समीक्षा की है ।

1927 में राग इंडिया के अंतर्गत उन्होंने लिखा था- ”मैं यह नहीं मानता कि इच्छाओं को बढ़ाने या उनकी पूर्ति के साधन जुटाने से संसार अपने लक्ष्य की ओर एक कदम भी बढ़ा पाएगा । आज की दुनिया में दूरी और समय के अंतराल को कम करने, भौतिक इच्छाओं को बढ़ाने और उनकी तृप्ति के लिए धरती का कोना-कोना छान मारने की जो अंधी दौड़ चल रही है. वह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं । यदि आधुनिक सभ्यता के यही सब लक्षण हैं- और मुझे इसके यही लक्षण समझ आते हैं- तो मैं इसे शैतानी सभ्यता कहता हूँ ।”

गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ (1938) के अंतर्गत लिखा है कि आधुनिक सभ्यता दिखावटी तौर पर समानता के सिद्धांत को सम्मान देती है, परंतु यथार्थ के स्तर पर प्रजातिवाद को बढावा देती है । इसमें अश्वेत जातियों को मानवीय गरिमा से वंचित रखा जाता है, और उनका भरपूर शोषण किया जाता है । कहीं उन्हें दास बनाकर, और कहीं बंधुआ मजदूर बनाकर रखा जाता है ।

गांधीजी के अनुसार, आधुनिक सभ्यता के अंतर्गत चेतन की तुलना में जड़ को, प्राकृतिक जीवन की तुलना में यांत्रिक जीवन को, और नैतिकता की तुलना में राजनीति एवं अर्थशास्त्र को ऊँचा स्थान दिया जाता है । फिर भी, गांधीजी की दृष्टि में आधुनिक सभ्यता के कुछ तत्व अवश्य सराहनीय हैं ।

बी. सी. पारेख ने ‘Gandhi’s Political Philosophy: A Critical Evaluation -1989’ के अंतर्गत इन तत्वों का विवरण इस तरह किया है:

1. इसमें परंपरा को आँख मूंदकर स्वीकार नहीं किया जाता बल्कि सत्य की तलाश के लिए वैज्ञानिक दृष्टि को बढ़ावा दिया जाता है ।

2. इसमें जीवन के संगठनात्मक पक्ष पर बहुत ध्यान दिया जाता है ।

3. इसमें प्राकृतिक व्यवस्था को मानवीय नियंत्रण में रखा जाता है ।

4. इसके अंतर्गत जनसाधारण में राजनीतिक जागृति पैदा हो गई है । गांधीजी ने अपने आदर्श राज्य की कल्पना में इस सब तत्वों को समाहित कर लिया है ।

विकास की दिशा (Direction of Development):

गांधीजी विकास की ऐसी किसी भी अवधारणा के विरुद्ध थे जिसका लक्ष्य भौतिक इच्छाओं को बढ़ाना और उनकी पूर्ति के उपाय ढूंढना हो । वे मनुष्य के चरित्र को इतना उन्नत करना चाहते थे कि वह भौतिक इच्छाओं का दमन करके अपने मन को वश में कर ले ।

उन्होंने तर्क दिया कि पश्चिम में जब लोग जनसाधारण की दशा सुधारने की बात करते हैं तो उनका लक्ष्य उसके भौतिक जीवन स्तर को उन्नत करना होता है परंतु मनुष्य का सच्चा जीवन स्तर उसकी अंतरात्मा से निर्धारित होता है; बाह्य परिस्थितियों में कोई भी परिवर्तन करके इसे उन्नत नहीं किया जा सकता ।

इसके लिए मनुष्य को अपने कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करने और उनका पालन करने की प्रेरणा देनी होगी ताकि वह ईश्वर के निकट पहुँच सके । मनुष्य की भौतिक इच्छाओं को उत्तेजित करने और उनकी पूर्ति के साधन जुटाने से हम केवल उसे नैतिक पतन के गर्त में धकेल सकते हैं ।

गांधीजी ने यह शिक्षा दी कि मनुष्य को भौतिक वस्तुओं का उतना ही उपभोग करना चाहिए जितना उसके शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अनिवार्य हो । इससे अधिक की इच्छा मनुष्य को मोह-माया और भ्रम के जाल में फंसा देती है । भौतिक इच्छाएं कभी शांत नहीं होती । उनकी तृप्ति का प्रयत्न करने से वे और भी उत्तेजित होती हैं । तरह-तरह के प्रलोभनों के पीछे दौड़ते हुए मनुष्य की संकल्प शक्ति नष्ट हो जाती है ।

दूसरी ओर, इच्छाओं को संयत रखने से दो उद्देश्यों की सिद्धि होती है:

1. इससे सामाजिक न्याय को बल मिलता है । इस धरती पर इतने संसाधन तो हैं जिनसे सबकी अनिवार्य आवश्यकताएं पूरी हो सकें, परंतु इतने संसाधन नहीं हैं जिनसे सबकी लालसा शांत की जा सके । जब कोई मनुष्य अपनी इच्छाओं पर लगाम नहीं लगाता तो वह धरती पर दुर्लभ संसाधनों का अभाव पैदा कर देता है ।

इससे दूसरे लोग अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाते । धन-संपदा का लोभी मनुष्य दूसरों के श्रम के फल को हड़पकर प्रकृति और समाज दोनों को क्षति पहुँचाता है । गांधीजी ने यह शिक्षा दी कि मनुष्य को ऐसा कुछ भी ग्रहण नहीं करना चाहिए जो समाज के लाखों-करोड़ों लोगों को सुलभ न हो ।

2. दूसरे, इससे मनुष्य का अपना नैतिक चरित्र उन्नत होता है । जब कोई मनुष्य अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है तब उसकी अंतरात्मा शुद्ध हो जाती है । उसकी दृष्टि में अपने-पराए का अंतर मिट जाता है । वह अपने प्रति और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लेता है ।

आत्मसाक्षात्कार होने पर मनुष्य समाज से कट नहीं जाता, बल्कि अच्छी तरह जुड़ जाता है । उसके मन में अपने सहचरों के प्रति कर्तव्य की भावना जाग जाती है जो उसके नैतिक उत्थान में सहायक होती है । अतः मनुष्य के आत्मविकास की साधना सामाजिक विकास में भी योग देती है ।

भावी समाज की रूपरेखा (Outlook of Future Society):

गांधीजी ने शरीर-श्रम के सिद्धांत के अंतर्गत यह शिक्षा दी है कि प्रत्येक मनुष्य को उपयुक्त शारीरिक श्रम करके अपने उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन में योग देना चाहिए । इससे न केवल लाखों-करोड़ों लोगों की आवश्यकताएं पूरी करने में सहायता मिलेगी बल्कि समाज में श्रम की गरिमा भी बढ़ेगी ।

उन्होंने सब तरह के श्रम को बराबर महत्व देकर जात-पांत पर आधारित ऊँच-नीच को मिटाने का प्रयत्न किया । प्रत्येक व्यक्ति को अपने श्रम का इतना फल अवश्य मिलना चाहिए कि वह सादा जीवन बिताकर अपने नैतिक जीवन को उन्नत कर सके ।

अतः गांधीजी ने प्रौद्योगिकी-प्रधान उद्योगों के मुकाबले श्रम प्रधान उद्योगों को वरीयता दी । उन्होंने ‘पुंज-उत्पादन’ (Mass Production) के बजाय ‘जनपुंज द्वारा उत्पादन’ (Production by the Masses) की प्रणाली को उचित ठहराया । उन्होंने विशेष रूप से कुटीर उद्योगों के विस्तार का समर्थन किया ।

गांधीजी का स्वदेशी का सिद्धांत यह माँग करता है कि लोग केवल अपने देश में बनी वस्तुओं का प्रयोग करके यही की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करें । इसका सांकेतिक अर्थ यह भी था कि लोग अपनी संस्कृति और स्वाधीनता के साथ लगाव अनुभव करें ताकि वे यूरोपीय विचारों और संस्थाओं का अंधानुकरण न करने लगें ।

प्रशासन के स्तर पर गांधीजी ने विस्तृत विकेंद्रीकरण का समर्थन किया । उन्होंने यह विचार रखा उनका आदर्श राज्य छोटे-छोटे आत्मनिर्भर ग्राम-समुदायों का संघ होगा । प्रत्येक ग्राम समुदाय का प्रशासन पांच व्यक्तियों की ‘पंचायत’ चलाएगी जिन्हें प्रतिवर्ष निर्वाचित किया जाएगा ।

ग्राम पंचायतों को विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त होंगी, परंतु समाज में मेलजोल और व्यवस्था बनाए रखने के लिए मुख्यतः नैतिक सत्ता और जनमत के प्रभाव का सहारा लिया जाएगा ।

ग्रामों के समूह को ताल्लुकों (Talukas) रूप में, ताल्लुकों के समूहों को जनपदों (Districts) के रूप में, और जनपदों के समूह को प्रदेशों (Provinces) के रूप में संगठित किया जाएगा । इनमें से प्रत्येक इकाई अपने से ऊँची इकाई के लिए अपने-अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजेगी । शासन के प्रत्येक स्तर को पर्याप्त स्वायत्तता प्राप्त होगी, और वह सामुदायिकता की भावना से ओतप्रोत होगा ।

केंद्र के स्तर पर पूरा देश ‘समुदायों का समुदाय’ प्रतीत होगा । केंद्रीय सरकार को इतनी सत्ता अवश्य प्राप्त होगी कि वह सब प्रदेशों को एकता के सूत्र में पिरो सके, परंतु इतनी नहीं कि वह उन पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर दे । गांधीजी केंद्रीय विधान सभा के प्रत्यक्ष चुनाव के विरुद्ध थे क्योंकि उससे उत्तरदायित्व की भावना का हास होगा और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा ।

गांधीजी को विश्वास था कि इस तरह की राज्य-व्यवस्था को विस्तृत अधिकारितंत्र की जरूरत नहीं होगी क्योंकि उसमें अधिकांश निर्णय-प्रक्रिया विकेंद्रीकृत होगी । फिर, जिस समाज में कोई भूखा नहीं रहेगा और सब लोग-मिल-जुलकर रहेंगे, उसमें अपराध बहुत कम होंगे, अतः पुलिस की विशेष जरूरत नहीं रहेगी ।

यदि जरूरत हो तो नागरिक बारी-बारी से पुलिस की भूमिका संभाल सकते हैं । इस राज्य-व्यवस्था में गृहयुद्ध की कोई संभावना नहीं है, और सेना की जरूरत भी नहीं रहेगी । जहाँ लोग अपनी स्वाधीनता के लिए मर-मिटने को तैयार रहेंगे, वहाँ विदेशी आक्रमण का कोई खतरा नहीं रहेगा ।

इसमें संदेह नहीं कि गांधीजी ने विकास का जो मार्ग दिखाया, वह भारत की संस्कृति और मूल्य-परंपरा के अनुरूप था परंतु इस देश को प्रौद्योगिकी-प्रधान और तनाव भरे विश्व में अपना उपयुक्त स्थान प्राप्त करने के लिए इससे भिन्न रास्ता चुनना पड़ा । कुछ भी हो, गांधीजी ने मनुष्य को उपभोग के नियमन और इच्छाओं के नियंत्रण का जो संदेश दिया, वह आज के युग में मानवता के भविष्य की रक्षा के लिए पर्यावरणवाद का महत्वपूर्ण सिद्धांत बन चुका है ।

गांधीवाद और मार्क्सवाद में अंतर (Differences between Gandhianism and Marxism):

महात्मा गांधी (1869-1948) और कार्ल मार्क्स (1818-83) दोनों ने आधुनिक युग में पीडित मानवता को अत्याचार का विरोध करने, अपने अधिकारों के लिए लड़ने और समानता पर आधारित समाज की स्थापना करने की राह दिखाई । इन दोनों ने यह आशा व्यक्त की कि मानवीय विकास की उन्नत अवस्था में वर्गहीन और राज्यहीन समाज का उदय होगा । यही कारण है कि कभी-कभी गांधीवाद और मार्क्सवाद को समानांतर विचारधाराओं के रूप में देखा जाता है, और उनमें तुलना का प्रयत्न किया जाता है ।

परंतु गहराई से देखने पर पता चलता है कि गांधीवादी और मार्क्सवादी विचारों में बुनियादी अतर है, और उनका मतभेद जितना मुखर है, वह उन्हें कई बातों में परस्पर विरोधी विचारधाराएं सिद्ध करता है । मार्क्स उन्नीसवीं शताब्दी का यूरोपीय विचारक है जिसने पूंजीवाद के बढ़ते हुए दुष्प्रभाव के विरुद्ध कामगार वर्ग को संगठित करने का बीड़ा उठाया ।

गांधी बीसवीं शताब्दी के भारतीय विचारक हैं जिसने भारत की जनता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्ति की राह दिखाई । यह बात महत्वपूर्ण है कि गांधीजी ने अपने विचारों की प्रेरणा मार्क्सवाद से नहीं ली बल्कि भारत तथा अन्य देशों की आध्यात्मिक और नैतिक परंपराओं से ग्रहण की ।

1. गाँधीजी मूलतः अध्यात्मवादी हैं, मार्क्स भौतिकवादी हैं:

जहाँ एक ओर गांधीजी ने अपने संघर्ष की मुख्य प्रेरणा धर्म से प्राप्त की तो दूसरी ओर, मार्क्स ने संपूर्ण धर्म को धनवान् वर्ग की निजी संपत्ति की रक्षा का साधन मानते हुए उसे सर्वसाधारण के लिए ‘नशे की घुट्टी’ की संज्ञा दी । गांधीजी ने मनुष्य के आध्यात्मिक कल्याण को महत्व दिया । माकर्स ने एक भौतिकवादी के नाते उत्पादन की शक्तियों के पुनर्गठन पर बल दिया ताकि सर्वसाधारण की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके ।

गांधीजी के मन में भूखे, बेघर, बेसहारा लोगों के प्रति असीम करुणा थी, परंतु उनका विश्वास था कि भौतिक आवश्यकताओं की सीमित पूर्ति ही उपयुक्त है; मनुष्य को सच्चा सुख आत्मसंयम और कर्तव्यपालन से ही प्राप्त हो सकता है । श्रीमद्‌भगवद्‌गीता और उपनिषदों के उपदेशों से प्रेरणा लेकर उन्होंने ‘अपरिग्रह’ और ‘अस्तेय’ के सिद्धांतों पर बल दिया ।

इन सिद्धांतों के अनुसार, मनुष्य को उतना ही ग्रहण करना चाहिए जितना तात्कालिक उपयोग के लिए जरूरी हो, इससे अधिक ग्रहण करना या धन संचित करना ‘चोरी’ है क्योंकि वह दूसरों के उपयोग के लिए है । जहाँ मार्क्स प्रौद्योगिकी-प्रधान उद्योगों पर बल देता है, गांधीजी श्रम-प्रधान उद्योगों के समर्थक हैं ।

2. संपत्ति के स्वामित्व के प्रश्न पर गांधीजी न्यासिता के सिद्धांत में विश्वास करते हैं, जबकि मार्क्स पूंजीपतियों के उन्मूलन पर बल देता है:

गांधीजी के अनुसार, समाज की वर्तमान दशा में पूंजीवादी व्यवस्था को समूल नष्ट करना जरूरी नहीं है, परंतु उद्योगपतियों का हृदय-परिवर्तन करके उनमें यह भावना विकसित करनी चाहिए कि उनकी संपत्ति ईश्वर की देन है जो उन्हें मानवता की सेवा के लिए सौंपी गई है ।

अतः उन्हें अपने-आपको उस संपत्ति का न्यासधारी या ट्रस्टी मानकर अपनी पूरी क्षमता के साथ मानवता की सेवा करनी चाहिए परंतु मार्क्स का विचार है कि पूंजीपति जब तक पूंजी के स्वामी बने रहेंगे, तब तक वे निजी लाभ का मोह नहीं छोड़ सकते ।

अतः समाज की संपदा को समाज की सेवा में लगाने के उद्देश्य से ‘वर्ग संघर्ष’ तथा समाजवादी क्रांति का सहारा लेना जरूरी है ताकि पूंजीपतियों का उन्मूलन किया जा सके । इसके विपरीत, गांधीवाद के अंतर्गत ‘वर्ग संघर्ष’ की जगह ‘वर्ग सहयोग’ पर बल दिया गया है ।

मार्क्सवाद पूंजीपतियों को हटाकर बड़े-बड़े उद्योग कायम रखना चाहता है जबकि गांधीजी कुटीर उद्योगों के पक्षधर हैं ।

3. सामाजिक परिवर्तन लाने के उद्देश्य से गांधीजी अहिंसा और सत्याग्रह में विश्वास करते है जबकि मार्क्स हिंसात्मक क्रांति का समर्थक है:

गांधीजी अहिंसा के सिद्धांत को मानव-व्यवहार का मार्गदर्शक नियम बनाना चाहते हैं । उनका विचार है कि जब सभी मनुष्य अहिंसा की भावना से प्रेरित होंगे, तब कोई किसी पर बल-प्रयोग नहीं करेगा, कोई किसी को भौतिक रूप से बाध्य या विवश नहीं करेगा; बलवान निर्बल को नहीं सताएगा, धनवान निर्धन का शोषण नहीं करेगा ।

सत्ता का विरोध करने के लिए केवल ‘सत्याग्रह’ का तरीका अपनाया जाएगा; सत्य पर अडिग रहने वाला व्यक्ति अपनी बात मनवाने के लिए सत्ताधारी को नैतिक रूप से बाध्य कर देता है परंतु मार्क्स का विचार है कि पूंजीपति किसी नैतिक दबाव के आगे नहीं झुकता है, न उससे वह प्रभावित होता है ।

पूंजीपति को केवल भौतिक रूप से विवश किया जा सकता है, और इसके लिए हिंसापूर्ण क्रांति आवश्यक हो जाती है । माकर्रवाद उच्च साध्य की सिद्धि के लिए साधन की शुद्धता पर बल नहीं देता । गांधीवाद साध्य और साधन दोनों की शुद्धता पर बल देता है ।

4. गांधीजी श्रम की गरिमा के आधार पर वर्गहीन समाज की स्थापना चाहते हैं; मार्क्स निजी संपत्ति को समाप्त करके वर्गहीन समाज लाना चाहता है:

वर्गहीन समाज के बारे में गांधीजी ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जिसमें सभी मनुष्य अपने-अपने स्वभाव, योग्यता और धर्म के अनुसार अपना-अपना कार्य पूरी तत्परता से करेंगे, और वही किसी भी कार्य को-विशेषतः सेवा के कार्य को-नीची निगाह से नहीं देखा जाएगा । श्रम की गरिमा स्थापित हो जाने पर समाज में ऊँच-नीच का भेद मिट जाएगा, और ऐसा समाज सच्चे अर्थ में वर्गहीन होगा ।

इसके अलावा, जब सब मनुष्यों का व्यवहार अहिंसा से नियमित होगा तब राज्य शक्ति के प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं रहेगी, अतः समाज राज्यहीन भी हो जाएगा परंतु मार्क्स के अनुसार वर्गहीन समाज वह होगा जो निजी संपत्ति के आधार पर धनवान और निर्धन वर्गों में विभाजित नहीं होगा बल्कि उसमें समाज के सभी सदस्य कामगार होंगे ।

ऐसे वर्गहीन समाज में निजी संपत्ति की रक्षा के लिए राज्य की बल-प्रयोगमूलक संस्था की आवश्यकता नहीं रहेगी, अतः वह राज्यहीन हो जाएगा । इन सब मतभेदों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि गांधीजी और मार्क्स के विचारों में तात्त्विक अंतर है, और ये दोनों पीड़ित मानवता के उत्थान के लिए अलग-अलग रास्ते दिखाते हैं । गांधीजी नैतिकता से प्रेरित राजनीति के समर्थक हैं; मार्क्स ने वर्ग संघर्ष और समाजवादी क्रांति का समर्थन किया है ।

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