अहिंसा: मेरे धर्म का पहला और अन्तिम सूत्र । Speech of Mahatma Gandhi on “Non-Violence : The First and Last Formula of My Religion” in Hindi Language!
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों ने हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया । सन् 1922, 23 मार्च को उन्होंने अपने मामले की सुनवाई के दौरान अहमदाबाद में यह भाषण दिया था । (अंग्रेज न्यायाधीश ने उन्हें छह वर्ष का कारावास का दण्ड दिया था ।)
अहिंसा मेरे धर्म का प्रथम एवं अन्तिम सूत्र है । मैं यहा कम दण्ड के लिए आग्रह करने नहीं आया, अधिकतम दण्ड के लिए आग्रह करने आया हूं । मैं दया नहीं मांग रहा हूं । मैं तो सर्वाधिक दण्ड के लिए अनुरोध करने आया हूं क्योंकि आपके कानून के अनुसार जो जान-बूझकर किया गया अपराध है, मेरे लिए वह किसी भी नागरिक का सर्वोच्च कर्तव्य है ।
न्यायाधीश महोदय मैं जब यह बयान खत्म करूंगा तब तक शायद आपको उसकी झलक मिल जायेगी जो मेरे हृदय में उमड़ रहा है और जिसके लिए मैंने इतना बड़ा खतरा उठाया है, जो कोई विवेकशील व्यक्ति ही उठा सकता है ।
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सन् 1893 में मेरा सार्वजनिक जीवन दी क्षण अफ्रीका में शुरू हुआ था जब वहां माहौल बहुत अशान्त था । वहां की ब्रिटिश सत्ता के साथ मेरा पहला अनुभव अच्छा नहीं था । मैंने वहां देखा कि एक मनुष्य व भारतीय होने पर मेरे वहां कोई अधिकार नहीं अपितु यह कहना उचित होगा कि वहां एक मनुष्य के नाते मेरे कोई अधिकार नहीं थे; क्योंकि मैं भारतीय था ।
परन्तु मैं आश्चर्यचकित नहीं हुआ । मैंने सोचा कि इस तरह का व्यवहार उस पद्धति की आवृद्धि ही है, जो मूलत: और मुख्यत: भली है । मैंने उस सरकार की स्वेच्छा से मदद की । मैंने सोचा कि वह गलत है, उसकी निन्दा भी की परन्तु कभी उसका विनाश नहीं चाहा ।
सन् 1899 में जब दक्षिण अफ्रीका में साम्राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न हुआ तब मैंने उसे अपनी सेवाएं दी थीं । मैंने एक स्वयंसेवी एम्प्यूलेंस कोर बनायी और कई युद्ध स्थलों पर बचाव कार्य किया । इसी तरह मैंने सन् 1906 में जुलू विद्रोह के समय भी स्ट्रेचर उठाने वालों के दल का गठन किया और विद्रोह का अन्त होने तक सेवा की ।
मुझे इन दोनों मौकों पर पदक मिले और प्रेषणों में उल्लेख किया गया । अफ्रीका में मेरे काम के लिए मुझे ‘केसरे-हिन्द’ स्वर्ण पदक दिया गया । सन् 1914 में ब्रिटेन और जर्मनी के मध्य युद्ध शुरू होने पर मैंने लन्दन के एक स्वयंसेवी एम्प्यूलेंस कोर का गठन किया जिसमें मुख्य रूप से भारतीय विद्यार्थी शामिल थे ।
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अधिकारियों ने इस कार्य को मूल्यवान् बताया । मैं सेवा के इन सभी प्रयत्नों में इस विश्वास से प्रेरित था कि ऐसी सेवाओं से हो सकता है कि मैं अपने नये स्वदेशवासियों के लिए साम्राज्य में पूर्ण समानता का दर्जा प्राप्त कर सकूं । मुझे पहला झटका रोलेट एक्ट का लगा ।
यह कानून जनमानस की समस्त वास्तविक स्वतन्त्रता छीनने के लिए बनाया गया था । मुझे लगा कि अब तो इसके विरुद्ध एक सघन आन्दोलन शुरू किया जाना चाहिए । उसके पश्चात् पंजाब की भयानक घटनाएं हुईं ।
इनका आरम्भ जलियांवाला बाग से हुआ और सार्वजनिक रूप से कोड़े लगने तथा अन्य अवर्णनीय अपमानजनक कार्रवाइयों का दौर चला । पंजाब के अपराध पर लीपापोती की गयी । इसके अधिकांश अपराधी न केवल दण्ड से बचे अपितु वे सेवा में भी बने रहे ।
कुछ भारतीय राजस्व से पेंशन पाते रहे और कुछ को पुरस्कार प्राप्त हुए । मैंने यह भी देखा कि इस सुधार से हृदय परिवर्तन तो हुए नहीं अपितु यह भी भारत को उसकी सम्पदा से वंचित करने का एक और तरीका ही था ।
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मैं बिना किसी इच्छा के इस निष्कर्ष पर पहुचा कि ब्रिटिश सरकार ने भारत को राजनीतिक व आर्थिक रूप से सर्वाधिक असहाय बना दिया है । वह इतना गरीब हो गया है कि अकाल का भी प्रतिरोध नहीं कर पाता । भारत के अस्तित्व के लिए इतना महत्त्वपूर्ण उसका कुटीर उद्योग अविश्वसनीय रूप से हृदयहीन व अमानवीय प्रक्रिया के हाथों नष्ट किया जा रहा है, जिसकी गवाही अंग्रेजों ने भी दी है ।
बाहर के बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि अधिसंख्य आधे भूखे भारतीय किस प्रकार धीरे-धीरे निर्जीविता के शिकार बन रहे हैं । वे नहीं जानते कि विदेशी शोषकों के लिए काम करने की जो दलाली उन्हे मिलती है, वह दलाली और लाभ जनता का शोषण करने से आती है ।
मैं भारत के राजनीतिक मामलों के अपने अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि 10 में से 9 मामलों में दण्डित व्यक्ति सदैव निर्दोष थे । उनका अपराध उनका देश के प्रति अगाध प्रेम ही था । भारत की अदालतों में यूरोपियनों के मुकाबले में 100 में से 99 मामलों में भारतीयों को न्याय नहीं मिलता । यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया चित्र नहीं है ।
जिस भी भारतीय का सम्बंध इस प्रकार के मामलों से रहा है, उसके अनुभव में यही बात आयी है । मुझ पर धारा 124-ए के तहत अभियोग लगाया गया है । देशवासियों की स्वतन्त्रता का दमन करने के लिए बनाये गये कानूनों में सम्भवत: यह भारतीय दण्ड संहिता की सबसे प्रमुख राजनीतिक धारा है । प्रेम को कानून से नियन्त्रित नहीं किया जा सकता ।
यदि किसी को किसी वस्तु या व्यक्ति से लगाव नहीं है, तो उसे अपना अस्नेह अभिव्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए बशर्ते वह हिंसा की योजना न बनाये उसे बढ़ावा न दे लेकिन जिस धारा के अन्तर्गत मुझ पर अभियोग लगाया गया है, उसमें स्नेह के अभाव की अभिव्यक्ति ही अपराध है ।
मैंने इस धारा के अन्तर्गत चलाये गये कुछ मामलों का अध्ययन किया है । मैं जानता हूं कि भारत के कई प्रिय देशभक्तों को इसके अन्तर्गत सजा दी गयी है । अत: इसके अन्तर्गत आरोपित होने पर मैं गर्व का अनुभव करता हूं ।
मैंने अपने अस्नेह के कारणों की संक्षिप्त रूपरेखा पेश की है । किसी एक प्रशासक के प्रति मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं । लेकिन मेरे विचार में जिस सरकार ने किसी भी पहली पद्धति की अपेक्षा भारतीयों को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया है, उसके प्रति रुचि न रखना एक गुण है ।
ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारत पहले की किसी भी स्थिति की तुलना में छोटा है । इस विश्वास के रहते ऐसे शासन के प्रति अनुराग रखना मेरी राय में पाप है । अत: मेरे विरुद्ध साक्ष्यस्वरूप जो मेरे लेख उद्धृत किये गये हैं, उन्हें लिखना मेरे लिए परम सौभाग्य का विषय है ।
वास्तव में मेरा विश्वास है कि दोनों देश जिस अस्वाभाविक स्थिति में हैं, उनके प्रति असहयोग अभिव्यक्त करके मैंने भारत व ब्रिटेन दोनों की सेवा की है । मेरी विनम्र सम्मति में बुराई के प्रति असहयोग भी उतना ही आवश्यक कर्तव्य है, जितना अच्छाई के साथ सहयोग । मैं यहां खुशी से सर्वाधिक सजा पाने को प्रस्तुत हूं जो कानून की नजर में जान-बूझकर किया गया गुनाह और मेरी नजर में किसी नागरिक का सर्वोपरि कर्तव्य है ।
न्यायाधीश महोदय अब आपके पास यही रास्ता बचा है कि यदि प्रशासन चलाने के लिए बनाया गया यह कानून बुरा है और मैं निर्दोष हूं तो आप अपने पद से त्याग पत्र देकर इससे सम्बन्ध-विच्छेद कर लें या फिर यदि आप समझते हैं कि आप जिस कानून से सम्बद्ध हैं, वह देश के नागरिकों की भलाई के लिए है और मेरा यह कार्य जनहित के विरुद्ध है, तो मुझे ज्यादा-से-ज्यादा सजा दें ।