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इलेक्ट्रॉनिकी तथा चिकित्सा के क्षेत्रों के ही नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा विशेष रूप से लाभान्वित होने की अपेक्षा है, परन्तु साथ ही कई अन्य क्षेत्रों में भी नैनो टेक्नोलॉजी के विविध अनुप्रयोग होने की संभावना है ।
1. कृषि क्षेत्र में नैनो:
खाद्य उपलब्ध कराने वाली तमाम फसलें मिट्टी में ही उगती हैं । फसलों के अलावा (कुछ मांसाहार को छोडकर) खाद्य केवल नदियों और समुद्रों से ही उपलब्ध हो पाता है । अतः सभी प्राकृतिक संपदाओं में मिट्टी का बहुत अधिक महत्व है ।
लेकिन भू-क्षरण, रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशियों आदि से उत्पन्न प्रदूषण तथा मानव कारगुजारी आदि नाना कारणों के चलते आज मिट्टी की ही मिट्टी खराब हो चली है । नतिजतन हर साल 50-70 लाख हेक्टेयर तक कृषि योग्य भूमि बंजर हो जाती है ।
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हरी चादर के अभाव में शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में जब जमीन पर हवा की मार पडती है तो यह उपजाऊ मिट्टी को उडाकर ले जाती है जिससे जमीन बंजर हो जाती है । मृदा वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर धरती की ऊपरी मृदा की 20 सेंटीमीटर जितनी परत बह जाए तो भूमि कुछ भी उगाने योग्य नहीं रहती ।
अनुमान लगाया गया है कि हमारे देश में प्रति हेक्टेयर भूमि से हर साल 16.4 टन मृदा उड या बह जाती है । मिट्टी का 20 प्रतिशत भाग उड या बहकर सागरों में जा समाता है जबकि 10 प्रतिशत भाग नदियों, नहरों आदि की तलहटी में जाकर जमा हो जाता है । नदियों की तलहटी में जमी यही गाद अंततः बाढ का कारण बनती है ।
अतः मिट्टी के उड या बह जाने से जहां उसकी गुणवत्ता खराब होती है वहीं बाढ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का भी सामना करना पड़ता है । विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ ए ओ) ने अनुमान लगाया है कि यदि इसी तरह मिट्टी की बर्बादी होती रही तो इस सदी के मध्य तक विकासशील देशों की उत्पादक क्षमता में 20 प्रतिशत तक कमी आने की संभावना है ।
रासायनिक उर्वरकों तथा पीडकनाशियों एवं खरपतवारनाशियों के छिडकाव से उगने वाली फसल पर तो असर पडता ही है, इनसे मृदा भी प्रदूषित होती है । मृदा प्रदूषण का एक और मुख्य कारण बच्चों की नैपकिन तथा महिलाओं द्वारा प्रयोग किए जाने वाले सेनिटरी टॉवल है ।
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कचरे के रूप में मिट्टी में पहुंचकर ये उसके प्रदूषण का कारण बनते हैं । पॉलीथिन तथा अस्पतालों से निकला कचरा भी मृदा प्रदूषण का कारण बनते हैं । इनमें मौजूद घातक एवं विषैले रसायन मृदा को विषाक्त कर देते हैं ।
प्लास्टिक का कचरा तो मृदा की उर्वरा शक्ति पर ही सीधी चोट पहुंचाता है । जैव निम्नीकरणीय (बायोडिग्रेडेबल) न होने के कारण मिट्टी की सरंघ्रता को यह प्रभावित करता है जिसके चलते मृदा से होकर हवा की खुलकर आवाजाही नहीं हो सकती । इस तरह प्लास्टिक का कचरा धरती की सांस को अवरूद्ध करने का कार्य करता ही है ।
धीरे-धीरे ऐसी जमीन बंजर या क्षीण उर्वरा शक्ति वाली हो जाती है । केवल इतना ही नहीं बल्कि प्रदूषित मृदा से घातक एवं विषाक्त रसायन रिस कर अंदर पहुँच जाते हैं जो भौमजल या भूमिगत जल (ग्राउंड वाटर) को भी प्रदूषित करते हैं ।
अतः हमारी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संपदा मृदा को बचाया जाना बहुत जरूरी है क्योंकि मृदा पर ही सीधे-सीधे हमारा अस्तित्व टिका है । नैनो टेक्नोलॉजी की मृदा प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है । इसकी मदद से न केवल मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है बल्कि इसमें मौजूद प्रदूषणकारी तत्वों एवं प्रदूषकों से भी इसे मुक्ति दिलाई जा सकती है ।
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विश्व स्तर पर ऐसी कई परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं जहां नैनो कणों की मदद से मृदा प्रबंधन किया जा रहा है । हालाँकि ये परियोजनाएँ अभी अपने प्रारंभिक स्तर पर ही हैं लेकिन इनसे प्राप्त सफलता ने भविष्य के लिये नई संभावनाओं के द्वार तो खोल ही दिए हैं ।
इस दिशा में अमेरिकी संस्थान सिकोया पेसिफिक रिसर्च ऑफ उटा ने महत्वपूर्ण अनुसंधान कार्य किया है । इस संस्थान ने वर्ष 2003 में ‘सायल सेट’ नामक महत्वपूर्ण माटी बंधन (सायल बाइंडिंग) पद्धति का विकास किया जिसकी सराहना कृषित के क्षेत्र में एक उल्लेखनीय उपलब्धि के रूप में हुई ।
सायल सेट पद्धति नैनो स्तर पर रासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा मिट्टी को बांधने में मददगार होती है । परीक्षणों द्वारा पाया गया है कि सायल सेट में मिट्टी को लंबे समय तक बाँधे रखने की क्षमता पाई जाती है । आमतौर पर देखा गया है कि ढलान वाले या पहाडी क्षेत्रों में तेज जल के बहाव या कुछ अन्य कारणों से भू-क्षरण या भूमि कटाव के चलते भूमि के पोषक तत्व नष्ट होते जाते है और अंततः जमीन बंजर हो जाती है । इससे उत्पादन पर सीधा असर पडता है ।
अतः मिट्टी को बाँधे रखने में नैनो स्तरीय माटी बंधन पद्धति का विशेष महत्व है । इस दिशा में मिट्टी की गुणवत्ता का सुधार भी एक महत्वपूर्ण कदम है । कनाडा की ओटावा स्थित कंपनी ईटीसी से संबद्ध वी. जैंग झैंग ने पहली बार एक नैनो क्लीन-अप-सिस्टम का विकास किया है जिसने विश्व भर में बहुत कौतूहल की सृष्टि की है ।
झैंग द्वारा विकसित पद्धति में पहले प्रदूषणकारी तत्वों से प्रभावित मिट्टी को चिन्हित किया जाता है । इसके बाद उस मिट्टी में लौह नैनो कणों को इंजेक्शन द्वारा पहुंचाया जाता है । मिट्टी में पहुँचते ही ये नैनो कण अपना प्रभाव दिखाते हैं ।
जमीन को सींचने के लिये साधारणतया जिस भौम जल का इस्तेमाल किया जाता है उसी जल के प्रवाह के साथ-साथ बहते हुए ये नैनो कण आगे बढते हैं और मिट्टी में मौजूद प्रदूषणकारी तत्वों से उसे मुक्ति दिलाते जाते हैं । उल्लेखनीय है कि मृदा सुधार के पारंपरिक तरीकों के अंतर्गत मिट्टी को खोदकर निकाला जाता है ।
अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि नैनो आधारित पद्धति पारंपरिक पद्धति की तुलना में न केवल सस्ती है बल्कि अधिक प्रभावी भी है । प्रदूषणकारी तत्वों के कारण न केवल मिट्टी बल्कि भौमजल भी प्रदूषण का शिकार होता है । भौमजल की शुद्धि फसलों के लिये सीधा महत्व रखती है क्योंकि अधिकांश सिंचाई भौमजल द्वारा ही होती है ।
भौमजल की शुद्धि हेतु अमेरिका में महत्वपूर्ण अनुसंधान कार्य किया जा रहा है । यहाँ की ऑर्गोनाइड नामक कंपनी ने एल्युमिनियम ऑकसाइड से बने बेहद सूक्ष्म नैनो तंतुओं (नैनो फाइबर्स) का विकास किया है जिनका व्यास करीब 2 नैनोमीटर है ।
ऐसे नैनो तंतुओं से बने फिल्टरों यानी छन्नकों का प्रयोग संदूषित जल से विषाणु, जीवाणु तथा प्रोटोजोआ (आदिजंतु) आदि सूक्ष्म जीवों को दूर करने के लिए किया जा सकता है । नैनो झिल्लियों (नैनो मैम्ब्रेन्स) के प्रयोग द्वारा भी न केवल जल शुद्धिकरण बल्कि उसका विलवणीकरण भी किया जा सकता है ।
हालाँकि ये तरीके महंगे पडते हैं लोकिन इस दिशा में मिली सफलता ने वैज्ञानिकों के हौसले बहुत बुलंद किये हैं और वे नित नवीन तरीके ईजाद करने के लिए निरंतर अपने अनुसंधान कार्यों में लगे हैं । मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढाने के लिये रासायनिक उर्वरकों का व्यापक तौर पर प्रयोग किया जाता है । लेकिन इनके अधिक प्रयोग से न केवल मिट्टी बल्कि भूमिगत जल भी प्रदूषित होता है ।
अतः सही परिमाण में उर्वरकों का अगर इस्तेमाल किया जाए तो इससे धन की बचत के साथ-साथ प्रदूषण की समस्या से भी मुक्ति मिल सकती है । इसी तरह सीमित जल से ही अगर सिंचाई हो सके तो इससे जल की भारी बचत हो सकेगी ।
कृषि वैज्ञानिकों ने फर्टिगेशन (फर्टिलाइजर + इरिगेशन = फर्टिगेशन) नामक एक संयुक्त पद्धति का विकास किया है जिसकी मदद से खाद और पानी दोनों को एक साथ ही जमीन पर उगी फसल तक पहुंचाया जा सकता है । इसकी संपूर्ण पद्धति ही कंप्यूटर आधारित है जो खाद-पानी पहुँचाने की पारंपरिक विधि का एक उन्नत रूप है ।
लेकिन अब ऐसे जियोलाइट्स, जिनमें नैनो आकार के सरंध्र हों (इन्हें नैनोपोरस जियोलाइट्स कहते हैं), का इस्तेमाल कर खाद-पानी को धीरे-धीरे फसल तक पहुंचाने की अधिक दक्ष विधि का विकास किया जा चुका है । इस विधि में विभिन्न आकार के नैनोपोरस जियोलाइट्स का इस्तेमाल किया जाता है ।
परीक्षणों से पता चला है कि इस विधि से खाद और पानी दोनों को ही अधिक प्रभावी ढंग से फसल तक पहुंचाया जा सकता है । फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कीट पतंगों तथा खरपतवारों के नियंत्रण के लिये पीडकनाशियों तथा खरपतवारनाशियों का इस्तेमाल किया जाता है ।
खाद-पानी की तरह इनका भी सीधा ही फसलों पर छिडकाव किया जाता है । लेकिन इससे न केवल महंगे पीडकनाशियों और खरपतवारनाशियों की बर्बादी होती है बल्कि इनके अंधाधुंध प्रयोग से मिट्टी भी प्रदूषित होती है और फसलों को भी ये विषाक्त बनाती हैं ।
अतः पीडकनाशी और खरपतवारनाशी मिट्टी और खाद्य दोनों पर ही अपना दुष्प्रभाव छोडते हैं । लेकिन अगर आवश्यकता के अनुरूप ही इनकी नियंत्रित मात्रा को लक्षित स्थान पर पहुंचाया जा सके तो इस समस्या से काफी हद तक निजात मिल सकती है ।
वैज्ञानिकों ने नियंत्रित स्राव तकनीक (कंट्रोल्ड रिलीज टेक्नोलॉजी) का विकास किया है जिसके द्वारा पीडकनाशियों खरपतवारनाशियों को नियंत्रित मात्रा में लक्षित स्थान यानी कीट-पतंगों ओर खरपतवारों तक पहुंचाया जा सकता है । इससे मिट्टी और फसल दोनों का ही उपकार होता है ।
इस दिशा में विश्व भर में अनेक परीक्षण हो रहे हैं । हमारे देश में नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट) के वैज्ञानिकों द्वारा भी परीक्षण किए जा रहे हैं जिनमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली है ।
असल में नैनो केपसूलों में पीडकनाशियों या खरपतवारनाशियों की सूक्ष्म मात्रा में प्रविष्ट करा दी जाती है । इन नैनो केपसूलों को खेतों में डाल दिया जाता है जो फिर धीरे-धीरे और नियंत्रित मात्रा में निर्मुक्त होकर अपना प्रभाव दिखाते हैं । आम पीडकनाशियों की तुलना में इनकी बेहद सूक्ष्म मात्रा ही प्रभावी पाई गई है । सिंजेंटिया, जो विश्व के सबसे बडे कृषि रसायन निगमों में से एक है, अपने पीडकनाशी उत्पादों में नैनोएमल्शनों का प्रयोग कर रहा है ।
नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से भविष्य में जैव निम्नीकरणीय उर्वरकों एवं पीडकनाशियों का विकास कर पाना भी संभव हो सकेगा । इससे उर्वरकों तथा पीडकनाशियों के मानव स्वास्थ्य तथा संपूर्ण जैव तंत्र पर पडने वाले दुष्प्रभावों से काफी हद तक निजात मिल सकेगी ।
कृषि कार्य के लिये प्रयुक्त होने वाले जल को भी कुछ प्रदूषक तत्व संदूषित कर डालते हैं । चुंबकीय नैनो पार्टिकल्स तथा चुंबकीय नैनो स्फियर्स की मदद से जल में समाए प्रदूषणकारी तत्वों से मुक्ति मिल सकती है । दरअसल, इन चुंबकीय नैनो कणों और चुंबकीय नैनो गोलों पर विभिन्न यौगिकों की परत चढा दी जाती है ।
इन यौगिकों की जल में मौजूद कुछ प्रदूषणकारी पदार्थों के साथ बंधुता (एफिनिटी) के चलते ही ये पदार्थ इन यौगिकों पर आकर चिपक जाते हैं और इस तरह प्रदूषक तत्वों से जल की शुद्धि हो जाती है । परीक्षणों द्वारा पाया गया है कि काइटोसैन नामक सूक्ष्म जीवों को नैनो चुंबकों की सतह के चारों ओर फैला देने पर जलीय माध्यम से तैलीय एवं अन्य जैव प्रदूषकों को अपनी ओर आकर्षित कर वे जल को प्रदूषण मुक्त कर सकते हैं ।
नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा विशेष प्रकार के कृषि यंत्रों का विकास कर पाना भी संभव होगा जिनकी मदद से उपज बढाई जा सकेगी । नैनो पदार्थों की मदद से मिट्टी में आवश्यक तत्वों की कमी को भी दूर किया जा सकेगा ।
ऐसे नैनो जैव संवेदकों को विकसित कर पाना भी संभव होगा जो समय-समय पर पौधों की दशा की सूचना देते रहेंगे । इससे पौधों को होने वाली किसी जरूरत का पता भी मिल सकेगा । इस तरह नैनो जैव संवेदक इन पौधों को जुबान प्रदान करेंगे । नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा पौधों में लगने वाले रोगों को शुरूआत में ही पकडा जा सकेगा । इस तरह उनका अधिक लक्षित एवं सुरक्षित उपचार किया जा सकेगा ।
नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा यह भी पता लगाया जा सकेगा कि फल पके हैं या नहीं । इसके लिये ऐसे नैनो संवेदकों का विकास किया जा रहा है जो फलों में मौजूद इथाइलीन जैसे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों की सांद्रता को माप सकेंगे । गौरतलब है कि इथाइलीन की सांद्रता से ही फलों के पकने का पता चलता है ।
पशुधन सुधार एवं पशु चिकित्सा:
वास्तव में पशुधन ही तो संपूर्ण कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ है । अतः पशु प्रजनन एवं उनकी नस्ल सुधार की दिशा में समय-समय पर काफी अनुसंधान किए जाते रहे हैं । नैनो टेक्नोलॉजी की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है । इसके लिए माइक्रोफ्लूइडिक्स एवं नैनोफ्यूडिक्स नामक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है ।
किसी सिलिकॉन के चिप पर सूक्ष्म प्रवाही (माइक्रोफ्लुइडिक) चैनलों को उत्कीर्ण किया जा सकता है । इन चैनलों की मोटाई 100 नैनो मीटर से भी कम होती है जो नैनो लीटर और पिकोलीटर जितने बेहद सूक्ष्म परिमाण में डीएनए और प्रोटीन आदि जैव पदार्थों को संचालित करने में उन्हें सक्षम बनाता है ।
इन चैनलों का इस्तेमाल पशुधन प्रजनन में शुक्राणुओं और अंडाणुओं के मिलन पूर्व चयन हेतु किया जा रहा है । इस दिशा में अमेरिका की संस्था एक्स वाई इंस्टीट्यूट ऑफ कोलोरेडो को विशेष सफलता मिली है । इस संस्थान ने पलो साइटीमीटरी तकनीक के इस्तेमाल से नर पशु के शुक्राणुओं तथा मादा पशु के अंडाणुओं को अलग कर विशिष्ट चयनित पशु जैसे घोडा, गाय, भेड़, सुअर आदि को प्रजनन द्वारा प्राप्त करने में सफलता पाई है ।
इस तरह विशिष्ट नर एवं मादा पशुओं को जरूरत के हिसाब से प्राप्त किया जा सकता है । उदाहरण के लिए, डेयरी उद्योग से जुडे किसानों को अधिक गायें मिल सकेगी तथा खेती-बाडी या माल आदि की ढुलाई के लिये जो किसान अधिक ताकत वाले नर-पशु चाहते हैं उन्हें बैल मिल पाएंगे । निस्संदेह आने वाले समय में पलो साइटोमीटरी तकनीक पशु प्रजनन का महत्वपूर्ण आधार बन जाएगी ।
नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा न केवल पशु स्वास्थ्य पर नजर रखी जा सकती है बल्कि उनकी आनुवंशिक बीमारियों के बारे में भी जानकारी हासिल की जा सकती है । खास किस्म के बायो-चिपों को पशुओं के शरीर में लगा देने पर आनुवंशिक रोगों का पता चल सकता है । नैनो संवेदकों की मदद से पशुओं की स्वास्थ्य संबंधी गतिविधियों को कप्यूटर पर देखा जा सकता है ।
नैनो सेंसर नेटवर्क द्वारा पशु की स्थिति भी जानी जा सकती है । इसके लिये पशुओं में एक नैनो सेंसर लगा देना भर ही काफी होगा । ये नैनो सेंसर पशुओं की भौगोलिक स्थिति के बारे में समर जानकारी एक केन्द्रीय कप्यूटर को भेजते रहेंगे । इस तरह न तो पशु गुम होगा और न उसकी चोरी ही होगी ।
2. मत्स्य पालन में नैनो:
मत्स्य पालन में भी विभिन्न स्तरों पर नैनो तकनीक के प्रयोग को लेकर अनुसंधान कार्य चल रहे है । बात चाहे तालाब की सफाई की हो मलय प्रजनन की हो या मछलियों में पनपते रोगों पर काबू पाने की, नैनो तकनीक के आधार पर कई सफलताएँ हासिल की गई हैं ।
अन्य देशों की तरह भारत में भी मलय पालन के क्षेत्र में नैनो तकनीक के कारगर और प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किए जाने की संभावनाएँ उत्पन्न हो रही हैं । मत्स्य पालन में सबसे बडी समस्या मछलियों के आहार को लेकर आती है ।
रशियन एकेडेमी ऑफ साइंसेस के वैज्ञानिकों ने मछलियों को लौह नैनो कणों का सेवन कराकर महत्वपूर्ण सफलता हासिल करने का दावा किया है । इन वैज्ञानिकों के अनुसार आवश्यक तत्वों के आहार संपूरकों को लौह नैनो कणों के जरिए मछलियों को दिए जाने पर इन आवश्यक तत्वों को अवशोषित करने की उनकी क्षमता में वृद्धि हो जाती है ।
वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि लोह नैनो कणों के कारण मछलियों की वृद्धि दर में भी तेजी आ जाती है । अपने परीक्षण में स्टर्जियन और कार्प को लौह नैनो कणों का सेवन कराकर उन्होंने स्टर्जियन में वृद्धि दर को 24 प्रतिशत तथा कार्प में 30 प्रतिशत पाया ।
मत्स्य तालों के पानी को स्वच्छ रखने में भी नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा सफलता मिली है । नेवेदा की एल्टेयर नैनो टेक्नोलॉजिस नामक कंपनी ने मलय तालों के साथ-साथ तरणतालों के पानी को स्वच्छ करने के लिये ‘नैनोचेक’ का विकास किया है ।
इसमें लैंथानम आधारित यौगिक के 40 नैनोमीटर आकार के कणों का इस्तेमाल किया गया है जो जल से फॉस्फेटों को अवशोषित करने के साथ-साथ शैवालों या काई आदि पर रोक लगाते हैं और इस तरह पानी को स्वच्छ करते हैं ।
मछलियों में रोगों का पनपना भी एक गंभीर समस्या है । इससे उनकी वृद्धि और गुणवत्ता के साथ-साथ उत्पादन की दर भी प्रभावित होती है । डीएनए नैनो वैक्सीन का विकास कर नैनो वैज्ञानिकों ने इस दिशा में भी अपना योगदान दिया है । इसके लिये नैनो केपसूलों, जिनके अंदर डीएनए की सूक्ष्म लडियां (स्टैंड्स) समाहित होती है, को मछलियों के तालाब में डाल दिया जाता है ।
ये नैनो केपसूल मछलियों के अंदर पहुँच कर उनकी कोशिकाओं द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं । इसके बाद अल्ट्रासाउंड का इस्तेमाल कर इन केपसूलों को फोडा जाता है । इन केपसूलों से डीएनए मुक्त होकर मछलियों में रोगों के विरूद्ध प्रतिरक्षा का विकास करते हैं । इस तरह स्वस्थ मछलियाँ तेजी से वृद्धि करती हैं जिससे उत्पादन की दर बढती है ।
3. खाद्य उद्योग में नैनो:
आधुनिकता के इस दौर में और चीजों के साथ-साथ खाद्य का स्वरूप भी बदला है । पारंपरिक भोजन से हटकर फास्ट-फूड का चलन तो बहुत पहले ही हो गया था अब तो ‘इंस्टेंट फूड’ का जमाना है । गरम-गरम सूप हो या डोसा या फिर मटर-पनीर या गुलाब जामुन सब कुछ पैकेटों में बंद होकर आता है ।
बस जरा सी मेहनत की और खाना तुरंत-फुरती तैयार होकर खाने की मेज पर लग जाता है । खाना बनाने-परोसने का कम से कम झंझट । ऐसे में खाद्य उद्योग में संसाधन प्रौद्योगिकियां तथा साथ-साथ डिब्बा बंदी और पैकिंग जैसी प्रक्रियाएँ भी तेजी से बढ रही हैं । आज खाद्य उद्योग में खाद्य पदार्थों की डिब्बा बदी और उन्हें संदूषक तत्वों से बचाना एक बडी चुनौती है । इस चुनौती में भी नैनो टेक्नोलॉजी ने बडी सार्थक भूमिका निभाई है ।
खाद्य पदार्थों में संदूषक् अणुओं तथा जीवाणुओं आदि का पता लगाने के लिये कैंटिलीवरों तथा ‘लिड’ युक्तियों का सहारा लिया जाता है । संवेदकों के अंदर इन कैंटिलीवरों को रखा जाता है । संदूषक पदार्थ कोई मौजूदगी में कैंटिलीवर एक तरफ को थोडा सा मुड जाते हैं जिससे इनका प्रतिरोध बदल जाता है ।
प्रतिरोध में हुए परिवर्तन के मापन द्वारा संदूषक पदार्थ की मौजूदगी का पता लग जाता है । ‘लिड’ युक्तियों में एक छोटे, करीब 1 सेंटीमीटर आकार की प्लास्टिक की डिबिया की ऊपरी सतह के ऊपर एक सूक्ष्म युक्ति रखी जाती है । चूंकि डिबिया के ढक्कन यानी लिड के ऊपर इसे रखा जाता है, तभी इसे ‘लिड’ युक्ति कहते हैं ।
इस ‘लिड’ युक्ति में चिन्हक (मार्कर) अणु मौजूद होते हैं जो संदूषकों या जीवाणुओं आदि की मौजूदगी का पता लगाने में सक्षम होते हैं । यदि खाद्य पदार्थ में संदूषक तत्व मौजूद हैं तो ‘लिड’ युक्ति एक खास रंग उत्पन्न करता है जिसे देखकर खाद्य पदार्थ के संदूषित होने का पता लग जाता है । लिड युक्ति को खाद्य पैकेजिंग के अंदर रखने पर इसमें आई रंगत को देखकर खाद्य पदार्थ में मौजूद संदूषकों का आसानी से पता लग जाता है ।
रुटगर्स यूनिवर्सिटी तथा यूनिवर्सिटी ऑफ कनेक्टिकट के वैज्ञानिक खाद्य सामग्री की पैकिंग के अंदर ऐसे संवेदकों का इस्तेमाल कर रहे हैं जो खाद्य पदार्थ में मोजूद रोगाणुओं की सूचना देंगे । ये संवेदक बेहद सूक्ष्म परिमाण में मौजूद संदूषक पदार्थों या रोगाणुओं के कारण खराब होते खाद्य पदार्थ की सूचना तुरंत पैकेजिंग के रंग परिवर्तन द्वारा देने में पूर्णतया सक्षम हैं ।
नीदरलैंड्स के वैज्ञानिकों द्वारा खाद्य पदार्थों की पैकेजिंग के क्षेत्र में किया गया कार्य और भी दो कदम आगे है । इन वैज्ञानिकों को इस तरह की बुद्धिमान कि पैकिंग का विकास करने में सफलता मिली है जो जरूरत पडने पर खाद्य पदार्थ को परिरक्षित रखने के लिये अपने अंदर से परिरक्षक पदार्थों (प्रिजर्व्रटिव्स) का उत्सर्जन करना शुरू कर देंगे ।
इस तरह की ‘रिलीज ऑन कमांड’ नामक पैकिंग सचमुच दिमाग वाली यानी समझदार होगी । इसमें रखा खाद्य पदार्थ ज्यों ही खराब होने को होगा इस पैकिंग को तुरंत खबर लग जाएगी और फिर उससे स्वतः ही परिरक्षक पदार्थ निकलने शुरू होंगे जो खाद्य पदार्थ को खराब होने से बचाएंगे । यह बुद्धिमान पैकिंग तैयार किए गए एक विशेष किस्म के बायो-स्विच द्वारा संचालित होती है ।
मृदा के नैनो कणों का प्रयोग भी प्लास्टिक की पैकिंग को खाद्य पदार्थों की सुरक्षा की दृष्टि से और असरदार बनाने के लिए किया गया है । इस तरह की प्लास्टिक पैकिंग की अंदरूनी सतह के चारों ओर मृदा के नैनो कणों को पूरी तरह से फैला दिया जाता है । इस तरह प्लास्टिक की अदरूनी सतह पर मृदा नैनो कणों की एक बेहद सूक्ष्म परत चढ जाती है जो प्लास्टिक की पैकिंग को और भी मजबूत तथा अधिक ऊष्मारोधी बना देती है ।
मृदा के ये नैनो कण पैकिंग में रखे मांस या अन्य खाद्य पदार्थ तक ऑक्सीजन, कार्बन डाइ-ऑकसाइड तथा नमी को पहुँचने से रोकते हैं । इस तरह खाद्य पदार्थ लंबे समय तक बिना खराब हुए चलता है । ऐसे पारदर्शी पैकिंग बैग्स को सुप्रसिद्ध रसायन कंपनी बेयर द्वारा तैयार किया गया है ।
कंपनी ऐसे बैगों का विपणन ‘डुरेथान’ नाम से कर रही है । इसी तरह ‘वोरिडॉन’ तथा ‘नैनोकोर’ नामक दो अन्य कंपनियों ने संयुक्त रूप से ऐसे नैनो सम्मिश्र का विकास किया है जिसमें मृदा के नैनो कण मौजूद होते हैं । ऐसे नैनो सम्मिश्र, जिसे ‘इम्पर्म’ नाम दिया गया है, का इस्तेमाल बोतलबंदी के लिए बोतलों का निर्माण करने हेतु किया जा रहा है ।
नैनो कणों से बनने वाली बोतलें काँच की बनी बोतलों की तुलना में हल्की एवं मजबूत पाई गई हैं । फिलहाल इन्हें बीयर की बोतलबंदी के लिए इस्तेमाल में लाया जा रहा है । नैनो सम्मिश्र से बनी होने के कारण यह बोतल न केवल बोतल की दीवार में कार्बन डाइऑक्साइड के अंत:प्रवेश पर रोक लगाती है बल्कि बीयर से कार्बन डाइऑक्साइड के ह्रास को भी कम करती है । नतीजतन बीयर काफी लंबे समय तक तरोताजा बनी रहती है ।
उपभोक्ता वस्तुएँ:
रोजमर्रा उपयोग की कई उपभोक्ता वस्तुओं जैसे कि पहनने वाले वस्त्र, टेनिस की गेंदें एवं रैकेट, सनस्क्रीन लोशन तथा सौंदर्य प्रसाधन का सामान, पेंट चश्मों आदि के निर्माण में भी नैनो टेक्नोलॉजी की अहम भूमिका हो सकती है ।
विशेष प्रकार के नैनो रेशों (फाइबर्स) की मदद से ऐसी वस्तुओं का निर्माण संभव हुआ है जिन पर न तो कोई दाग-धब्बे पडेंगे और न कोई सलवटें ही पडेंगी । सिल्वर, टाइटेनियम डाइऑकराइड तथा जिंक ऑक्साइड के नैनो कणों के प्रयोग द्वारा ऐसे वस्त्रों का निर्माण भी संभव हुआ जिन पर जीवाणु आदि संक्रमणों का असर नहीं होता है ।
नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा टेनिस के मजबूत रैकेट बनाए जा सकते हैं । इसकी मदद से टेनिस की ऐसी गेंदों का विकास भी किया जा सकता है जो काफी इस्तेमाल के बाद भी टप्पा खाने के अपने गुणधर्म को बरकरार रखती हैं ।
नैनो तकनीक द्वारा न केवल पेंट के भंडारण काल को बढाया जा सकेगा बल्कि ऐसे पेंट भी बनाए जा सकेंगे जिसकी विभिन्न सतहों पर चिपकने की शक्ति तथा उनकी चमक साधारण पेंट की तुलना में कई गुना अधिक होगी । इसके अलावा जंगरोधी (कोरोजन-लैस) पेंटों तथा स्मार्ट पेंटों को बनाने की दिशा में भी अनुसंधान चल रहे हैं । ऐसे स्मार्ट पेंटों के रंग में इच्छानुसार परिवर्तन ला पाना संभव होगा ।
स्त्रियों के चेहरे की कमनीयता को बनाए रखने और उनकी त्वचा की देखभाल के लिए ऐसे सनस्क्रीन लोशन तथा क्रीमों आदि का विकास संभव हुआ है जो साधारण लोशन या क्रीम की तुलना में अधिक प्रभावी है । ये क्रीम त्वचा के काफी अंदर जाकर बेहतर परिणाम देते हैं ।
जिंक ऑक्साइड तथा टाइटेनियम ऑक्साइड के नैनो कणों से बने सनस्क्रीन लोशन पारदर्शी होते हैं जबकि पारंपरिक सनस्क्रीन लोशन सफेद या हल्की पीली रंगत लिए होते हैं । ऊपर से कम चिपचिपे होने के साथ-साथ ये त्वचा द्वारा कहीं अच्छी तरह से अवशोषित होते हैं ।
चश्मों के शीशों पर जिर्कोनिया (जिर्कोनियम ऑक्साइड) के नैनो कणों की परत चढा देने पर उन्हें खरोंचरोधी बनाया जा सकता है । नैनो कणों से बनी मजबूत फिल्मों को कार विंडशील्ड, हैडलाइट आदि की सतहों पर चढाकर उन्हें खरोंचों आदि से बचाया जा सकता है । नैनो कणों द्वारा पराबैंगनी किरणों का अवशोषण भी अधिक हो पाता है ।
अतः नैनो कणों से बनी फिल्मों को खिडकियों के शीशों, कार विंडशील्ड आदि पर चढाकर पराबैंगनी किरणों के घातक असर से बचा जा सकता है । नैनो कणों से तैयार की गई स्याही का प्रकाश घनत्व अधिक होता है । अतः स्याही को इंकजैट मुद्रण में इस्तेमाल करने पर चित्रों के रंगों में बहुत अच्छे प्रभाव देखने को मिलते हैं । यही नहीं बल्कि नैनो स्याही के इस्तेमाल से प्रिंटहैड भी लंबी अवधि तक काम करता है ।
4. ऊर्जा के क्षेत्र में नैनो:
अर्थव्यवस्था तथा जनसंख्या वृद्धि के कारण आज पारंपरिक ऊर्जा स्त्रोतों पर बहुत दबाव है । ऐसे में उर्जा संरक्षण यानी ऊर्जा के इस्तेमाल में किफायत किए जाने की महती आवश्यकता है । वाहनों, वायुयानों तथा अंतरिक्ष यानों आदि की ईंधन की खपत को कम करके ऊर्जा संरक्षण की दिशा में काफी योगदान दिया जा सकता है ।
नैनो टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से बहुत ही हल्के एवं मजबूत नैनो सम्मिश्र पदार्थों के विकास से वैज्ञानिक जूटे हैं ।ऐसे पदार्थों के इस्तेमाल से वाहनों तथा अंतरिक्ष यानों आदि के आकार को छोटा एवं उनके वजन को काफी कम किया जा सकेगा जिससे उनकी ऊर्जा की आवश्यकता भी काफी हद तक कम हो जाएगी ।
पेट्रोल तथा डीजल जैसे जीवाश्म ईंधनों की ऊर्जा दक्षता को बढाने में नैनो तकनीक की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है । दरअसल, पेट्रोल तथा डीजल में अति सूक्ष्म कण मौजूद होते हैं जिनको हटाने से इनकी क्षमता बढ जाती है ।
नैनो तकनीक द्वारा विशेष नैनो फिल्टरों, जिनके छिद्रों का आकार 10 से 100 नैनो मीटर तक होता है, का विकास कर पेट्रोल और डीजल में मौजूद ऐसे सूक्ष्म कणों को हटाकर उनकी ऊर्जा दक्षता बढ़ाई जा सकती है । हाइड्रोजन आज वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत के रूप में तेजी से उभर रहा है । लेकिन इसके इस्तेमाल में सबसे बडी समस्या इसके भंडारण को लेकर आती है क्योंकि पारंपरिक ईंधनों की तुलना में टंकियों और नलियों से यह आसानी से रिस जाता है ।
दरअसल, हाइड्रोजन को अति निम्न तापमान तथा उच्च दाब पर भंडारित करने की आवश्यकता होती है । अनुसंधान द्वारा वैज्ञानिकों ने पाया है कि कार्बन नैनो ट्यूबों में हाइड्रोजन को भंडारित करने की अभूतपूर्व क्षमता पाई जाती हे ।
उल्लेखनीय है कि ईंधन सेलों में हाइड्रोजन का प्रयोग कर वाहनों के लिए ऊर्जा दक्ष एवं पर्यावरण सम्मत ईंधन मुहैया कराया जा सकेगा । ईंधन सेलों को अंतरिक्ष अनुप्रयोगों में भी लगाया जा सकेगा । तभी आजकल ईंधन सेल टेक्नोलॉजी पर काफी काम हो रहा है ।
लीथियम आयन बैटरियों की ऊर्जा दक्षता को बढाने के लिये भी विश्व भर के वैज्ञानिक नैनो ट्यूबो का इस्तेमाल कर रहे हैं । नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से उच्च ऊर्जा बचत वाले संधारित्रों (कैपेसिटर्स) पर भी अनुसंधान चल रहा है जो ऊर्जा संरक्षण में अपनी महती भूमिका निभाएंगे ।
नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से सौर सेलों की दक्षता एवं कार्यक्षमता को बढाने के प्रयास भी विश्व भर में चल रहे हैं । दरअसल, सौर सेल एक ऐसी अर्धचालक युक्ति है जो सूर्य की किरणों से प्राप्त प्रोटॉनों को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करती है । इस परिघटना को प्रकाश वोल्टीय प्रभाव (फोटोवोल्टाइक इफेक्ट) कहते हैं ।
संकर नैनो पदार्थों तथा नैनो ट्यूबों के प्रयोग द्वारा सौर सेलों की दक्षता को बढाने के प्रयास चल रहे हैं । अनुसंधान द्वारा यह पता चला है कि क्वांटम डॉट्स के प्रयोग द्वारा भी सौर सेलों की दक्षता बढाई जा सकती है । ये क्वांटम डॉट्स सौर स्पेक्ट्रम के अधिकाधिक भाग को अवशोषित करने में सक्षम होते हैं । इस तरह वे सौर सेलों की दक्षता को बढाने में महत्वपूर्ण साबित हुए हैं ।
समग्र विश्व की अर्थव्यवस्था पेट्रोल और डीजल जैसे जीवाश्म ईंधनों पर ही टिकी है । तभी इन ईंधनों को लेकर विश्व भर में इतनी राजनीति का बोलबाला है । खबर है कि चीन की शेनहुआ कोल कंपनी को कोयले से सीधे ही डीजल बनाने में सफलता मिली है ।
नैनो उत्प्रेरकों के क्षेत्र में हुए विकासों से ही यह संभव हुआ है । व्यापक पैमाने पर अगर ऐसा संभव हो पाया तो फिर संसार का नक्शा ही बदल जाएगा । यह ईंधन के क्षेत्र में एकदम नई क्रांति जैसा ही होगा । सचमुच नैनो प्रौद्योगिकी में इतनी विपुल संभावनाएँ छिपी हैं कि यह भविष्य में पता नहीं क्या कुछ नहीं संभव कर दिखाए ।
5. पर्यावरण संरक्षण में नैनो:
आज जब चारों और प्रदूषण का बोलबाला है तो हवा, पानी सभी कुछ प्रदूषित हो चले हैं । प्रदूषित हवा और प्रदूषित पानी हमारे स्वास्थ्य पर बडा प्रतिकूल असर डालते हैं । ऐसे में इन्हें प्रदूषण-मुक्त करने में नैनो टेक्नोलॉजी की अहम भूमिका हो सकती है । हवा और पानी से अवांछित कणों एवं संदूषकों को दूर करने में नैनो पदार्थों से बने फिल्टर यानी छन्नक काफी उपयोगी हो सकते हैं ।
प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में उद्योगों में भी ‘ग्रीन’ यानी पर्यावरण सम्मत संसाधन महत्व होगा । नैनो तकनीक के इस्तेमाल से ऐसी प्रक्रियाओं का विकास किया जा सकेगा जिसमें अवांछित उप-उत्पाद (बाई प्रोडक्ट्स) कम से कम बनेंगे और ये पर्यावरण सम्मत भी होंगे ।
नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों में भी ईंधन के संसाधन, शुद्धिकरण और अपशिष्ट प्रबंधन में नैनो फिल्टरों के प्रयोग द्वारा खासकर नाभिकीय कचरे से उत्पन्न प्रदूषण को काफी कम किया जा सकेगा । वाहनों के टायरों के घिसने से भी वायुमंडल में सूक्ष्म कण उड-उड कर बिखरते है जो प्रदूषण फैलाने में अपना योगदान देते है ।
नैनो सिरेमिक और नैनो पॉलिमरों से बने पदार्थों से वाहनों के लिये ऐसे टायरों का निर्माण संभव हो सकेगा जो इस्तेमाल से बहुत कम घिसेंगे । इस तरह टायरों की आयु को बढ़ाने के साथ-साथ वायुमंडल में टायरों के सुक्ष्म कणों के बिखरने से उत्पन्न प्रदूषण से भी काफी हद तक बचा जा सकेगा ।
मानव कारगुजारियों के चलते पराबैंगनी किरणों को धरती तक पहुँचने से रोकने वाली ओजोन परत के क्षरण ने पर्यावरणविदों के माथों पर चिंता की लकीरें खींची हैं । ऐसे में नैनो रोबोटों को काम पर लगाकर झीनी पडती ओजोन परत का पुनरूद्धार किया जा सकता है । केवल इतना ही नहीं बल्कि हवा में मोजूद प्रदूषक कणों एवं अणुओं को विघटित करने में भी नैनो टेक्नोलॉजी की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है ।
ग्रीन हाउस गैसों के कारण आज हमारी धरती पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा मँडरा रहा है । लेकिन इस खतरे से निपटने के लिये भी वैज्ञानिकों ने कमर कस ली है । ऐसी कृत्रिम पत्तियों का निर्माण करने में वैज्ञानिक सफल हुए हैं जो चौबीसों घंटे कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण कर सकती है ।
गौरतलब है कि पेड-पौधे केवल दिन के वक्त ही प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को अंजाम देने के लिये कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करते हैं । कैडमियम सैलेनाइड की मौजूदगी में एक खास आकार के नैनो क्रिस्टल ही यह कमाल दिखाते हैं । परीक्षणों द्वारा वेज्ञानिकों ने पाया है कि इंडियन के परमाणुओं को मिला देने पर कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषण के लिये ऐसी कृत्रिम पत्तियों को प्रकाश की आवश्यकता भी नहीं रह जाती है ।
पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने के लिये भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर-बी ए आर सी) के वैज्ञानिकों ने टाइटेनियम डाइऑक्साइड के नैनो कणों तथा नैनो सम्मिश्रों का विकास किया है । वैज्ञानिकों का कहना है कि कार्बन नैनो ट्यूबो का उपयोग करके भी ऐसा युक्तियाँ निर्मित की जा सकती हैं जो वातावरण के लिए हानिकारक गैसों का पता लगा सकेंगी ।
वाहनों को प्रदूषण-मुक्त रखने के लिये ईंधन के जलकर निकलने के निकास मार्ग पर उत्येरकीय परिवर्तक (कैटेलिटिक कंवर्टर्स) लगाए जाते हैं । इनकी दक्षता को बढाने के लिए प्लेटिनम नैनो सम्मिश्र उत्प्रेरकों के विकास की दिशा में वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे हैं । इससे इनकी लागत भी काफी कम हो जाएगी । इस दिशा में अमेरिका स्थित नैनो-स्टैलर कम्पनी काफी पहल कर रही है ।
आज समग्र विश्व के आगे पेयजल की समस्या मुंह बाए खड़ी है । असल में पानी को साफ करने के लिये फिलहाल जिन फिल्टरों का उपयोग होता है वे खुद ही जीवाणुओं आदि के कारण संदूषित हो जाते हैं तथा फिल्टर के छिद्र भी बंद हो जाते हैं । ऐसे में नैनो तकनीक की मदद ली जा सकती है ।
अमेरिका की ऑर्गोनाइड कंपनी ने एल्युमिनियम ऑक्साइड से बने बेहद सूक्ष्म नैनो फाइबर्स का विकास किया है जिनका व्यास करीब 2 नैनोमीटर है । ऐसे नैनो तंतुओं से बने फिल्टरों का प्रयोग जल में मौजूद जीवाणुओं, विषाणुओं तथा प्रोटोजोआ आदि सूक्ष्म जीवों को दूर करने के लिये किया जा सकता है ।
हाल ही में दक्षिण आस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों पीटर मैजवस्की तथा च्यूपिंग चैन को सिलिका के नैनो कणों का इस्तेमाल कर प्रदूषित जल को शुद्ध करने में सफलता मिली है । इस विधि में सिलिका के बेहद सूक्ष्म नैनो कणों द्वारा प्रदूषित जल में मौजूद विषैले रसायनों, हानिकारक जीवाणुओं तथा विषाणुओं को अधिक प्रभावशाली ढंग से दूर किया जाता है । पारंपरिक विधियों की तुलना में यह विधि अधिक सरल, कारगर एवं कम लागत वाली पाई गई है ।
नैनो झिल्लियों यानी नेनो मैम्ब्रेन्स के प्रयोग द्वारा भी न केवल जल शुद्धिकरण बल्कि उसका विलवणीकरण भी किया जा सकता है । चुंबकीय नैनो कणों की मदद से उद्योगों आदि से निकलने वाले अपशिष्ट जल (वेस्ट वॉटर) से भारी धातुओं को हटाया जा सकता है । लौह नैनो कणों का प्रयोग कर वैज्ञानिकों को हानिकारक रसायन कार्बन टेट्राक्लोराइड को भी प्रदूषित भूगर्भ जल से हटाने में सफलता प्राप्त हुई है ।
पानी में आर्सेनिक की उपस्थिति आज एक बडी समस्या है । आईआईटी खडगपुर के वैज्ञानिकों को अनुसंधान द्वारा इस दिशा में एक बडी सफलता हाथ लगी । उन्होंने पता लगाया कि सिल्वर नैनो कण कुछ रसायनों के साथ पानी में आर्सेनिक का पता लगाने के लिये उत्प्रेरक की तरह काम कर सकते हैं ।
6. अंतरिक्ष एवं वैमानिकी में नैनो:
अंतरिक्ष यानों तथा उनमें मौजूद यंत्र-उपकरणों की मुख्य समस्या उनका भार होती है । नैनो तकनीक द्वारा ऐसे हल्के एवं मजबूत नैनो पदार्थों का विकास संभव हुआ है जो न केवल अंतरिक्ष यानों के वजन को कम करेंगे बल्कि उनकी ऊर्जा की आवश्यकता में भी कटौती लाएंगे ।
नैनो पदार्थों के उपयोग से अंतरिक्ष यानों और उपग्रहों आदि में मौजूद ऊर्जा स्त्रोतों, संचार युक्तियों, संवेदकों आदि को भी अधिक दक्ष एवं हल्का बनाया जा सकेगा । इस दिशा में नैनो सम्मिश्रों के अलावा वैज्ञानिकों को डायमेंडायॉड फाइबर्स का विकास करने में भी सफलता मिली है । इनकी मदद से अंतरिक्ष यानों को उनके वर्तमान वजन से करीब 90 प्रतिशत अधिक हल्का बनाया जा सकेगा । लेकिन साथ-साथ उनकी मजबूती और सुरक्षा भी वर्तमान पदार्थों से बने अंतरिक्ष यानों की तुलना में कहीं अधिक होगी ।
विमानों को पक्षियों आदि से बहुत नुकसान पहुँचता है, साथ ही विमान यात्रियों की सुरक्षा भी खतरे में पड जाती है । नैनो सम्मिश्र पदार्थों से विमानों के पंखों और बाहरी ढाँचे को बनाने से इस समस्या से काफी हद तक निजात मिल सकती है ।
नैनो पदार्थों की मदद से अंतरिक्ष यात्रियों के लिए हल्के स्पेस सूटों का निर्माण कर पाना भी संभव होगा । पृथ्वी के वायुमंडल में पुनर्प्रवेश के दौरान अत्यधिक तापमान की सृष्टि होती है जिससे सुरक्षा हेतु हीट-शील्ड टाइलों का इस्तेमाल किया जाता है ।
लोकन चैलेंजर जैसी दुर्घटनाओं (जिसमें भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला की मृत्यु हो गई थी) ने पुनर्प्रवेश के दौरान उत्पन्न होने वाले खतरों को हमेशा ही रेखांकित किया है । नैनो पदार्थों की मदद से उच्च तापमान के विरूद्ध कहीं अधिक सुरक्षा अंतरिक्ष यान एवं उसके यात्रियों को प्रदान की जा सकेगी ।
आजकल स्पेस एलिवेटर के बारे में भी चर्चा सुनने को मिलती है । प्रसिद्ध विज्ञान लेखक आर्थर सी. क्लार्क ने ही सबसे पहले यह कल्पना करते हुए कहा था कि भविष्य में स्पेस एलिवेटर के कारण रॉकेटों की भी आवश्यकता नहीं रह जाएगी । असल में स्पेस एलिवेटर अंतरिक्ष में लिफ्ट की कल्पना को ही साकार करता है ।
लेकिन स्पेस एलिवेटर को बनाने के लिये बहुत ही मजबूत पदार्थ की आवश्यकता होगी । कार्बन नैनो ट्यूबों को एक संभावित पदार्थ के रूप में चिह्नित किया है । उपग्रहों आदि में इस्तेमाल होने वाले ऊर्जा स्त्रोतों तथा सौर पैनलों आदि को भी नैनो पदार्थों के इस्तेमाल से अधिक हल्का एवं और अधिक दक्ष बनाया जा सकेगा ।
मंगल आदि ग्रहों के अन्वेषण के लिए आजकल रोबोटिक भुजाओं तथा रोबोटिक बग्घियों (रोवर्स) आदि का इस्तेमाल होता है । भविष्य में ग्रहीय अन्वेषण के लिए और अधिक दक्ष एवं कार्य क्षमता वाले रोबोटों का विकास किया जा सकेगा ।
इलेक्ट्रॉनिकी एवं कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी:
कार्बन नैनो ट्यूबों के इस्तेमाल से वैज्ञानिकों को एकल-इलेक्ट्रॉन (सिंगल इलेक्ट्रॉन) एवं क्षेत्र प्रभाव (फील्ड इफेक्ट) ट्रांजिस्टरों, डायोडों तथा लॉजिक गेट्स को बनाने में भी सफलता मिली है । इलेक्ट्रॉनिक घटकों, जैसे कि ट्रांजिस्टरों को आपस में जोड़ने के लिये कार्बन नैनो ट्यूबों के इस्तेमाल से नैनो तारो को बनाने में भी वैज्ञानिकों को सफलता मिली है ।
आईबीएम कारपोरेशन के वैज्ञानिक आजकल प्रकाश उत्पन्न करने वाले नैनो ट्यूबों पर अनुसंधान कर रहे हैं । माइक्रोप्रोसेसर तथा मेमोरी चिप के बीच बेहद त्वरित गति से सूचना विनिमय के लिये ऐसे नैनो ट्यूबों का इस्तेमाल सफलतापूर्वक हो सकेगा, ऐसा इन वैज्ञानिकों का कहना है । नैनो ट्यूबो की मदद से नैनो कप्यूटरों को बनाने की दिशा में भी फिलहाल वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे हैं ।
कंप्यूटरों में सूचना भंडारण प्रणाली के रूप में हार्ड डिस्क का इस्तेमाल होता है । इसमें डाटा के भंडारण के लिए अर्धचालक युक्तियों, जैसे ट्रांजिस्टरों का इस्तेमाल किया जाता है । लेकिन इस प्रकार की युक्तियों में सबसे बडी खामी यह होती है कि यदि किसी भी समय बिजली गुल हो जाती है तो समस्त भंडारित सूचनाएँ साथ के साथ नष्ट हो जाती है ।
अतः ट्रांजिस्टरों द्वारा विकसित कंप्यूटर स्मृति अस्थाई यानी ‘वॉलेटाइल’ किस्म की होती है । ऐसी अस्थाई यादृच्छिक अभिगम स्मृति (रेंडम एक्सेस मेमोरी- आरएएम) केवल सीमित प्रयोग के लिए ही काम में आ सकती है । इसलिए ऐसे स्मृति अवयवों की आवश्यकता होती है जो स्थाई यानी ‘नॉन-वॉलेटाइल’ किस्म की हो ।
चुंबकीय यादृच्छिक अभिगम स्मृति (मैग्नेटिक रेंडम एक्सेस मेमोरी-एमआरएएम) ऐसी ही एक नॉन-वॉलेटाइल स्मृति है । सरलतापूर्वक चुंबकित होने वाले ऐसे चुंबकीय पदार्थों, जिनके चुंबकीय अक्ष को आसानी से घूर्णित किया जा सके, की मदद से इस नॉन-वॉलेटाइल मेमोरी का विकास किया जा सकता है ।
एम रैम यानी मैग्नेटिक रैम के अलावा फैरोइलेक्ट्रिक रैम (FeRAM), स्टैक्ड रैम (SRAM), फेज चेंज रैम (PRAM) तथा फ्लैश रैम (Flash RAM) आदि भी नॉन-वॉलेटाइल स्मृतियों की श्रेणी में ही आते हैं । इन सभी के ही विभिन्न क्षेत्रों में अनेक अनुप्रयोग हैं ।
इनमें से सबसे लोकप्रिय फ्लैश रैम है । इस रैम में एक चार्ज पंप की मदद से चार्ज को इकट्ठा कर उच्च वोल्टेज पर उसे फिर निर्मुक्त किया जाता है । आजकल अधिकांश सेलफोनों में फ्लैश रैम ही लगाई जाती है जो फोन नंबर का भंडारण करती है ।
आजकल एक नए ही किस्म के रैम के बारे में सुनने को मिल रहा है । नैनो तकनीक पर आधारित होने के कारण इसे नैनो रैम या एन रैम (NRAM) की संज्ञा दी जा रही है । नैनो रैम की प्रौद्योगिकी नैनटेरो नामक कंपनी द्वारा विकसित की गई है जो कार्बन नैनो ट्यूबों के वांडर वात अन्योन्य क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले प्रभाव पर आधारित है ।
नैनो रैम में कार्बन नैनो ट्यूबों से निर्मित टर्मिनल एवं इलेक्ट्रोड होते हैं । अन्य रैमों की तुलना में नैनो रैम न केवल तेज गति की गति होती है बल्कि इसमें विद्युत ऊर्जा की भी कम आवश्यकता होती है तथा यह सस्ती भी पडती है । नतीजतन नैनो रैम में बैटरी का जीवन काल अन्य रैमों की तुलना में कहीं अधिक होता है ।
नैनो कणों से बनने वाले कोलॉइड निलंबनों द्वारा भी वैज्ञानिक स्मृति युक्तियों को बनाने की दिशा में अनुसंधान कर रहे हैं अमेरिका के आईबीएम वॉटसन रिसर्च सेंटर से संबद्ध वैज्ञानिकों का एक दल क्रिस्टोफर बी. मुरे के नेतृत्व में ऐसे कोलॉइडों का इस्तेमाल अति उच्च घनत्व (अल्ट्रा-हाई डेंसिटी) की डाटा भंडारण युक्तियों के संभावित विकास हेतु कर रहा है ।
आईबीएम के वैज्ञानिक दल द्वारा प्रयुक्त कोलॉइड चुंबकीय नैनो कणों से बने हैं जिनका व्यास करीब 3 नैनोमीटर है । हर कोलॉइड में करीब 1000 आयरन एवं प्लेटिनम के परमाणु हैं । जब इस कोलॉइडी विलयन को किसी सतह पर फैलाकर विलायक को वाष्पित होने दिया जाता है तो नैनो कण द्वि एवं त्रि-विमीय व्यूहों (ऐरेस) के रूप में क्रिस्टलीकृत हो जाते हैं ।
ये ऐरेस प्रति वर्ग सेटीमीटर में करीब ट्रिलियन (दस खरब) बिट्स डाटा का भंडारण करने में सक्षम हैं । इस तरह वर्तमान स्मृति भंडारण युक्तियों की तुलना में इनकी डाटा भंडारण क्षमता करीब 10 से लेकर 100 गुना तक अधिक पाई गई है ।
7. दूरसंचार के क्षेत्र में नैनो:
दूरसंचार के क्षेत्र में आजकल ऑप्टिकल फाइबर्स यानी प्रकाशीय तंतुओं का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता है । सामान्यतया प्रकाशीय तंतु सिलिकॉन या सिलिकॉन डाइऑक्साइड से बने होते हैं । इनका अपवर्तनांक बदलने के लिए इनमें थोडा मात्रा में जर्मेनियम या फॉरफोरस आदि मिलाया जाता है ।
फाइबर का वर्गीकरण कोर के अपवर्तनांक तथा प्रकाश संचरण के आधार पर किया जाता है । यदि फाइबर के कोर का अपवर्तनांक स्थिर हो तो इसे स्टेप इंडेक्स फाइबर कहते हैं । लोकन यदि कोर का अपवर्तनांक केंद्र से बाहर की ओर बढता है तो ऐसे फाइबर को ग्रेडेड इंडेक्स फाइबर की संज्ञा दी जाती है ।
तंतु से होकर प्रकाश संचरण के आधार पर उसे एकल (मोनो) मोड तथा बहु (मल्टी) मोड फाइबर की संज्ञा दी जाती है । एकल मोड फाइबर की बैंड विड्थ (सूचना वहन क्षमता को ही बैंड विड्थ कहते हैं) मल्टी मोड फाइबर की तुलना में अधिक होती है ।
उल्लेखनीय है कि ग्रेडेड इंडेक्स फाइबर की बैंड विडथ स्टेप इंडेक्स फाइबर की तुलना में अधिक होती है । लेकिन ग्रेडेड इंडेक्स फाइबर स्टेप इंडेक्स फाइबर के मुकाबले काफी महंगे होते हैं । इनका उपयोग टेलीफोन लाइनों में किया जाता है जबकि स्टेप इंडेक्स फाइबर का इस्तेमाल आमतौर पर कंप्यूटर नेटवर्कों में किया जाता है ।
वैज्ञानिक जिंक ऑक्साइड से बने नैनो वायर्स का विकास करने में सफल हुए हैं । इन नैनो वायर्स का इस्तेमाल प्रकाशीय तंतुओं के रूप में किया जा सकता हैं लेकिन इसके लिए प्रकाशीय तंतु नेटवर्क के साथ इन्हें एकीकृत करना पडता है ।
हाल ही में किए गए एक प्रयोग में वैज्ञानिकों ने पाया कि एक बहु-सतही नैनो ट्यूब की अंदरूनी नलिका को बाहरी नलिका के सापेक्ष बहुत तेजी से, एक सेकंड में करीब एक अरब बार की गति से अंदर-बाहर सरकाया जा सकता है । वैज्ञानिकों का कहना है कि इन गीगा हर्टज आवृत्ति वाले दोलनों का इस्तेमाल एक दिन तंतु प्रकाशिकी में प्रकाशीय फिल्टरों के रूप में किया जा सकेगा ।
आईबीएम के अनुसंधानकर्ताओं को एक ऐसे नैनो ट्यूब ट्रांजिस्टर को बनाने में सफलता मिली जो सामान्यतया दूरसंचार में प्रयुक्त होने वाली आवृत्ति पर अवरक्त प्रकाश का उत्सर्जन करता है । वैज्ञानिकों ने पाया कि उत्सर्जित प्रकाश का तरंगदैर्ध्य नैनो ट्यूब के व्यास का व्युत्क्रमानुपाती है ।
एकल-सतह कार्बन नैनो ट्यूबों पर प्रकाश को डालकर अनुसंधानकर्ताओं को विद्युत धारा को उत्पन्न करने में भी सफलता मिली है । इससे यह सकेत मिलता है कि नैनो ट्यूबों का इस्तेमाल नैनो स्तरीय प्रकाश संसूचक (फोटो डिटेक्टर) के रूप में किया जा सकता है ।
वैज्ञानिकों को नैनो तकनीक के प्रयोग द्वारा ऐसे प्रकाशीय तंतुओं के विकास में भी सफलता मिली है जिनकी चौडाई 50 नैनोमीटर है । वर्तमान में इस्तेमाल होने वाले प्रकाशीय तंतुओं की चौडाई की तुलना में इनकी चौडाई करीब 2000 गुना कम है । ये प्रकाशीय तंतु क्लेडिंग यानी बाह्य कवच के बिना भी प्रकाश तरंगों को वहन करने में सक्षम हैं । इनकी चौडाई इनके द्वारा वहन किए जाने वाले प्रकाश तरंगों के तरंगदैर्ध्य से भी कम होती है ।
दूरसंचार में अधिक बैंडविड्थ की आवश्यकता को देखते हुए प्रकाशीय तंतु बनाने में फोटोनिक क्रिस्टलों का उपयोग भी वैज्ञानिक कर रहे हैं । गौरतलब है कि फोटोनिक क्रिस्टल प्रकाशीय नैनो संरचनाएँ होती हैं जो फोटॉनों की गति को उसी तरह से प्रभावित कर सकती है जिस तरह कि अर्धचालक इलेक्ट्रॉनों की गति को प्रभावित करते हैं ।
अर्धचालकों की तरह ही वैज्ञानिकों को फोटोनिक क्रिस्टलों का भी विकास करने में सफलता मिली है । गौरतलब है कि प्रकृति ने भी कुछ संरचनाओं में फोटोनिक क्रिस्टलों जैसे गुण प्रदान किए हैं । उदाहरण के लिए, कुछ विशेष प्रजाति की तितलियों के पंखों में इस तरह की संरचना पाई जाती है जो उनके शानदार रंगबिरंगे पंखों के लिए जिम्मेदार होती है । ओपल नामक रत्न या कीमती पत्थर की शानदार दूधिया चमक के लिये भी इसकी फोटोनिक क्रिस्टलीय संरचना ही जिम्मेदार होती है ।
फोटोनिक क्रिस्टलों के प्रयोग से सचमुच प्रकाश इलेक्ट्रॉनिकी के क्षेत्र में एक क्रांति का ही सूत्रपात होगा । वैज्ञानिकों को आशा है कि इनकी प्रकाशीय नैनो संरचनाएँ दूरसंचार में अधिक बैंडविड्थ युक्त ऑप्टिकल फाइबर्स के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी । इस तरह नैनो तकनीक की मदद से प्रकाश आधारित संचार माध्यमों की बैंडविड्थ में आशातीत वृद्धि होगी जो शिक्षा, मनोरंजन एवं अन्य व्यावसायिक क्षेत्रों में उपयोगी होगी ।
नैनो टेक्नोलॉजी के इतने विविध उपयोगों को देखते हुए सचमुच दाँतों तले अंगुली दबाने को ही विवश होना पड़ता है । इनमें से कुछ आज सपनों जैसे भी लग सकते हैं । इन सपनों को जिंदा रखते हुए नैनो टेक्नोलॉजी से जो अपेक्षाएँ पूरी हो सकती हैं उन्हें फिलहाल व्यावहारिकता या वास्तविकता का जामा पहनाएँ । आखिर, भविष्य के सपने देखकर ही तो मानव सभ्यता आज इतना आगे बढी है ।
संरचनात्मक कार्बनिक रसायन के जनक समझे जाने वाले ऑगस्ट कैकुले ने कभी कहा था- ”हमें सपने देखना सीखना चाहिए, तभी शायद हम सत्य को जान सकेंगे लेकिन अपने सपनों को प्रकाशित करने से हमें तब तक बचना चाहिए जब तक कि खुली आँखों से अपने होश में उन्हें भली भाँति परखते और समझते हुए उनके पक्ष में हम प्रमाण न जुटा ले ।”
सचमुच नैनो विज्ञान और नैनो टेक्नोलॉजी के परिप्रेक्ष्य में कैकुले की यह उक्ति अक्षरशः सही उतरती है । फिर भी दो राय नहीं कि वर्तमान सदी नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा लाई गई क्रांति की साक्षी बनेगी ।