Read this article in Hindi to learn about the applications of nanotechnology in medical science.
शरीर है तो निश्चित है कि रोग भी होंगे । रोगों की रोकथाम के लिए संतुलित आहार तथा साफ पेयजल जरूरी शर्तें हैं । अंदर पनपने वाले रोगों की जल्दी पहचान तथा उनका प्रभावी उपचार भी अति महत्वपूर्ण कदम है ।
बेहतर खाद्य सुरक्षा एवं साफ पेयजल का वायदा कर नैनो टेक्नोलॉजी रोगों की रोकथाम में अहम भूमिका निभा सकती है । शरीर में पनपने वाले डायबिटीज, हृदय रोग, एड्स तथा कैंसर जैसे रोगों की जल्दी ही पहचान हो जाने से प्रारंभिक स्तर पर ही उनका इलाज शुरू किया जा सकता है जिससे बीमारी के ठीक होने की संभावना भी बढ जाती है ।
खासकर कैंसर अगर शुरू में ही पकडा जाए तो उचित इलाज कर मरीज आरोग्य लाभ कर सकता है । दो राय नहीं कि रोगों की जल्दी पकड यानी डायेग्नोसिस तथा उनके समुचित उपचार में नेनो टेक्नोलॉजी की बडी महत्वपूर्ण भूमिका होगी ।
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कैंसर जैसे रोगों की चिकित्सा में रसो-चिकित्सा (कीमो थैरेपी) तथा विकिरण उपचार (रेडियेशन थैरेपी) आदि जो उपचार विधियाँ अपनाई जाती हैं उनसे कैंसर कोशिकाओं के साथ-साथ स्वस्थ कोशिकाएँ भी प्रभावित होती हैं । कैंसर के इलाज में अधिक दवा की आवश्यकता पडती है जो खर्चीली होने के साथ-साथ शरीर पर दुष्प्रभाव भी छोडती है ।
नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा कैंसर जैसे रोगों का लक्षित इलाज किया जा सकता है । इसके लिये केवल लक्षित यानी बीमार कोशिकाओं तक ही उचित परिमाण में दवा को पहुंचाया जाता है । इस प्रणाली को ‘टार्गेटेड ड्रग डिलिवरी सिस्टम’ का नाम दिया गया है । दरअसल, आण्विक एवं कोशिकीय स्तर पर पहुंची क्षति ही सामान्यतया शरीर में बीमारियों को जन्म देती है । समस्त कोशिकीय क्रिया-कलापों को सुचारु रूप से अंजाम देने में प्रोटीनो की अहम भूमिका होती है ।
अतः प्रोटीनों में किसी किस्म की गडबडी भी बीमारी का कारण बन सकती है । प्रोटीन संरचना या आकार में कोई दोष उत्पन्न हो जाने, जैसे कि प्रोटीन के मुड जाने पर भी रोग उत्पन्न हो सकते हैं ऐसा बीमारियों को प्रोटीन फोल्डिंग डिसीज कहते हैं ।
असल में सभी बीमारियों को जड से खत्म करना ही नैनो टेक्नोलॉजी की सबसे बडी उपलब्धि होगी । किसी को जुकाम या बुखार या कोई और संक्रमण हो जाने पर इंजेक्शन के जरिये किसी द्रव को शरीर के अंदर पहुँचाना भर ही काफी होगा ।
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इस द्रव में 10 खरब से 100 खरब की तादाद में बेहद सूक्ष्म रोबोट, जिन्हें नैनो रोबोट या नेनोबोट कहते हैं, मौजूद होंगे । ये नैनो रोबोट शरीर की कोशिकाओं में पहुँच कर जुकाम या बुखार के विषाणुओं से लडेंगे और इस तरह शरीर को रोगमुक्त करेंगे ।
इतनी बडी तादाद में नैनो रोबोटों को शरीर में प्रविष्ट कराने से किसी गडबडी की आशंका नहीं होगी क्योंकि हमारे शरीर का घनत्व औसतन 1 लाख घन सेंटीमीटर जबकि रक्त का घनत्व 5400 घन सेंटीमीटर होता है । इनकी तुलना में नैनो रोबोटों के एक इंजेक्शन का घनत्व 3 घन सेंटीमीटर से भी कम होगा ।
शरीर के अंदर पनपती बीमारियों का अगर प्रारंभिक अवस्था में ही पता लग जाए तो जल्दी उपचार शुरू किया जा सकता है जिससे बीमारी के ठीक होने की संभावना बढ जाती है । उदाहरण के लिये, डायबिटीज शरीर के शर्करा के दोषपूर्ण उपापचय के चलते उत्पन्न होती है ।
डायबिटीज टाइप-1, टाइप-2 तथा संकर (हाइब्रिड) किस्म की भी हो सकती है टाइप-1 डायबिटीज को इंसुलिन आश्रित डायबिटीज भी कहते हैं । इसमें मरीज को इंसुलिन का नियमित इंजेक्शन लेना पडता है । टाइप-2 डायबिटीज, जो सामान्तया अधिक उम्र में होती है, में अग्न्याशय (पेन्क्रिआस) सही परिमाण में इंसुलिन नहीं बना पाती है जिससे शर्करा का सही उपापचय न हो पाने के कारण रूधिर में शर्करा का स्तर बढ जाता है । इसके लिये नियंत्रित आहार लेने के साथ-साथ मरीज को दवाइयों का सेवन भी करना पडता है ।
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खान-पान की गलत आदतों तथा आनुवंशिक कारणों से भी डायबिटीज हो सकती है । नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा उचित परिमाण में दवा को लक्षित स्थान यानी आग्न्याशय तक पहुंचाया जा सकता है ताकि दवा आग्न्याशय को इंसुलिन हार्मोन बनाने के लिए उद्दीप्त करे ।
टाइप-1 यानी इंसुलिन आश्रित डायबिटीज से पीडित मरीज को इंसुलिन का इंजेक्शन देने की बजाय विभिन्न नैनो युक्तियों की मदद से शरीर में इंसुलिन को कैप्स्यूल के रूप में पहुंचाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक मानना है कि वह दिन संभवतया बहुत दूर नहीं जब रूधिर में मौजूद ग्लूकोज का इस्तेमाल शरीर में प्रत्यारोपित पेसमेकर या इंसुलिन पंपों को संचालित करने के लिये ईंधन सेलों की तरह किया जा सकेगा ।
हृदय रोगों के मामले में भी नैनो टेक्नोलॉजी की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है हृदय धमनियों के सिकुड़ जाने से एंजाइना का दर्द उठ सकता है जबकि धमनियों में वसा जम जाने पर रूकावट (ब्लाकेज) आ जाने से रक्त प्रवाह में बाधा पहुँचती है जिसका परिणाम हृदयाघात (हार्ट अटैक) के रूप में देखने को मिल सकता है ।
हृदय धमनियों में रूकावट आ जाने पर एंजियोप्लारटी या बाइपास सर्जरी करानी पडती है । इसके अलावा हृदय धमनियों में रक्त का थक्का जमने रो भी हृदयघात हो सकता है । रक्त के थक्के के मस्तिष्क में पहुँच जाने से मस्तिष्क आघात (ब्रेन-स्ट्रोक) भी हो सकता है ।
नैनो युक्तियों की मदद से हृदय धमनियों के संकरेपन या उनमें आई रूकावट को शुरू में जान पाना संभव होगा । इस तरह नैनो रोबोटों की मदद से आई रूकावट को खोल कर मरीज को हार्ट अटेक के खतरे से बचाया जा सकेगा ।
एचआईवी (ह्युमन इम्यूनोडेफिशिएंसी वाइरस) नामक विषाणु से फैलने वाले एड्स (एक्वायर्ड इम्यूनोडेफिशिएंसी सिंड्रोम) ने भी अपना कहर बरपा कर रखा है । असल में एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं है । इसको शरीर में पनपाने वाला विषाणु प्रतिरक्षा तंत्र पर हमला बोलकर उसे अपनी गिरफ्त में ले लेता है ।
इस तरह शरीर पर प्रतिरक्षा तंत्र के रूप में बडा ताला एड्स के कारण टूट जाता है । प्रतिरक्षा तंत्र के क्षीण पड जाने के कारण एड्स का शिकार व्यक्ति टीबी, पेचिश, खांसी-जुकाम आदि संक्रमणों का आसानी से शिकार होने लगता है ।
अक्सर ये संक्रमण उसे बार-बार होते है जिससे उसका शरीर बहुत कमजोर हो जाता है और अंतत: मरीज की मृत्यु तक हो सकती है । एलिसा जांच द्वारा एड्स की पहचान हो सकती है । एड्स की दवाएँ उपलब्ध हैं लेकिन महंगी होने के साथ-साथ इनके बहुत अधिक प्रतिकूल या पार्श्व प्रभाव (साइड इफेक्ट) भी हैं ।
हालाँकि एड्स के वैक्सीन को विकसित किए जाने की दिशा में प्रयास चल रहे हैं । लेकिन इसमें बडी समस्याएं हैं क्योंकि एड्स का विषाणु महा छलिया होता है ओर वह अपने आपको उत्परिवर्तित करता रहता है । फिलहाल एड्स का कोई इलाज नहीं है मगर दवाओं आदि के जरिए एड्स के साथ जीना सीखकर व्यक्ति अपने जीवनकाल को बढा सकता है ।
नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से एड्स के विषाणु की पहचान की जा सकेगी । इसके लिए क्वांटम डॉट्स आदि बेहद सूक्ष्म नैनो कण चिन्हकों के रूप में कार्य कर सकते हैं । इस तरह इन विषाणुओं की पहचान कर उन्हें नैनो युक्तियों की मदद से भेजे गए स्मार्ट बमों की मदद से मौत के घाट उतार कर इनका सफाया किया जा सकता है ।
इसके अलावा नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से जीन चिकित्सा द्वारा भी एड्स पर काबू पाया जा सकता है । लेकिन इस दिशा में अभी बहुत साथ अनुसंधान होना बाकी है । चिकित्सा विज्ञान के सामने कैंसर से लडना आज भी एक बहुत बडी चुनौती है । प्रतिवर्ष करीब 60 लाख लोग कैंसर से मरते है ।
अनुमान है कि 2020 तक विश्व में कैंसर के डेढ करोड से भी अधिक रोगी हो जाएंगे । दरअसल, शरीर में अनियंत्रित रूप से होने वाले कोशिकाओं के विभाजन को ही कैंसर कहते हैं । शरीर में नई कोशिकाएँ जन्म लेता हैं तो पुरानी कोशिकाएँ मृत्यु को प्राप्त होती हैं ।
वास्तव में कोशिका मृत्यु एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे एपॉपटॉसिस कहते हैं । लेकिन कुछ अज्ञात कारणों से कभी-कभी यह प्रक्रिया बाधित हो जाती है । नतीजतन कोशिकाएँ अनियंत्रित रूप से विभाजित होने लगती हैं ।
बेशक कैंसर का इलाज संभव है अगर समय रहते उसका पता चल जाए । लेकिन अक्सर कैंसर की पहचान में देर हो जाती है । दरअसल, कुछ कैंसर जैसे स्तन कैंसर की पहचान मैंमोग्राफी तकनीक द्वारा की जाती है । इसमें अर्बुद (ट्यूमर) के वास्तविक संसूचन में अमूमन 10 लाख से भी अधिक कोशिकाओं की आवश्यकता पडती है । जाहिर है कि शुरू में रतन कैंसर की पहचान हो पाना अति दुष्कर है ।
कैंसर की पहचान होने पर मरीज मानसिक रूप से आधा मर जाता है । उस पर मनोवैज्ञानिक असर पडता है जिससे उसकी आत्मशक्ति के साथ-साथ उसके प्रतिरक्षा तंत्र पर भी प्रभाव पडता है । वास्तव में कैंसर के इलाज के बाद भी मरीज इन समस्याओं से दो-चार होता है और उसे ठीक होने में बहुत वक्त लगता है ।
सामान्यतया, कैंसर के इलाज के लिए कीमोथेरेपी, रेडिएशन थैरेपी तथा सर्जरी का सहारा लिया जाता है । लेकिन कीमो चिकित्सा एवं विकिरण चिकित्सा दोनों के साथ ही बडे प्रतिकूल या पार्श्व प्रभाव जुडे होते हैं । बाल गिरने, उल्टी आने के लक्षणों के साथ ब्लडकाऊंट कम होना, वजन घटने आदि की शिकायतें सामने आती हैं ।
शल्य क्रिया में भी कई बार प्रभावित अंग जैसे कि स्तन, लीवर, प्रोस्ट्रेट आदि को काटकर निकालना पडता है । शल्य क्रिया के बाद भी अगर एक भी कैंसरग्रस्त कोशिका रह गई तो वह शरीर में फैलकर दोबारा से कैंसर उत्पन्न कर सकती है ।
नैनो तकनीक द्वारा कैंसर की जल्दी पहचान की जा सकना संभव है । नैनो युक्तियों द्वारा अर्बुदों को नष्ट किया जा सकता है तथा लक्षित स्थान तक दवा को पहुंचाया भी जा सकता है । अर्बुदों तक रूधिर की आपूर्ति करने वाली वाहिकाओं को भी नैनो कणों की मदद से नष्ट किया जा सकता है ।
नैनो कण को एक विशेष जीन (आर ए एफ-1) के साथ संकुलित किया जाता है । यह जीन रूधिर वाहिका की कोशिकाओं को २चय ही नष्ट करने के लिये विवश करता है । इस जीन की खूबी यह है कि यह केवल अर्बुदों तक रूधिर ले जाने वाली नव निर्मित रूधिर वाहिकाओं का ही विनाश करता है ।
नैनो रोबोटों का इस्तेमाल कर अर्बुदों की शल्य क्रिया भी की जा सकती है । इस तरह जानलेवा कैंसर से विकट जंग में नैनो तकनीक की मदद ली जा सकती है । मानव शरीर की कोशिकाओं में गुणसूत्र (क्रोमोजोम) मौजूद होते हैं ।
इन गुणसूत्रों के अंदर ही आनुवंशिक पदार्थ डीएनए होता है । डीएनए के अंदर जीन पाए जाते हैं । जीव वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्यों के जीनों में करीब 99.9 प्रतिशत समानता पाई जाती है, केवल जीनों में 0.1 प्रतिशत अंतर ही एक इंसान को दूसरे इंसान से भिन्न बनाता है ।
इन जीनों में दोष उत्पन्न होने से बीमारियाँ पैदा होती हैं जिन्हें आनुवंशिक रोग कहते हैं । ये आनुवंशिक रोग एक पीढी से दूसरी पीढी तक इन दोषपूर्ण या बिगडे जीनों द्वारा ही पहुंचते हैं । बिगडे जीनों की वजह से ही डायबिटीज, हृदय रोग, एल्जाइमर, माइग्रेन, गंजापन, पार्किंसन्स रोग, डाउंस सिंड्रोम यहाँ तक कि कैंसर जैसे रोग उत्पन्न होते हैं ।
स्तन कैंसर की संभावना को बढाने वाले जीन (बीआरसीए) की खोज 1994 में हुई । अगले वर्ष यानी 1995 में पार्किसन रोग से जुडे जीन की भी पहचान हुई । हृदय रोग उत्पन्न करने वाले एमईएफ 2ए नामक जीन की भी खोज हुई ।
एड्स के कहर के लिए भी एमडीआरआई नामक जीन को जिम्मेदार पाया गया है । यह जीन ग्लाइको प्रोटीन, जो शरीर के लिए एक मुख्य प्रोटीन है, को बनाती है । अनुसंधानकर्ताओं ने एड्स ग्रस्त लोगों में एमडीआरआई जीन की तुलना में सीडी-4 श्वेत कोशिकाओं को अधिक तेजी से बढते पाया ।
नतीजतन ग्लाइको प्रोटीन बनने में रूकावट उत्पन्न हुई । अब अनुसंधानकर्ता इस दिशा में परीक्षण कर रहे हैं कि एड्स से पीडित व्यक्तियों के शरीर में अगर ग्लाइको प्रोटीन अधिक पहुंचा दिया जाए तो इससे सीडी-4 श्वेत कोशिकाओं की बढोतरी रूकेगी ।
इस तरह एड्स से पीडित लोगों के जीवनकाल को पहले की तुलना में बढाया जा सकेगा अनुसंधानकर्ताओं ने यह भी पाया है कि एड्स के (एचआईवी) विषाणु में मौजूद 9 खानों में से 6 जीन ही खतरनाक है जबकि बाकी 3 निरापद हैं ।
अतः अगर इन छह जीनों को हटा दिया जाए तो एड्स के विषाणु को निष्प्रभावी किया जा सकता है । इस दिशा में अभी अनुसंधान जारी हैं । लेकिन नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से इन जीनों को हटाने या खामोश करने की संभावना दिखाई देती है ।
माइग्रेन के दर्द के लिए भी एक जीन जिम्मेदार होता है अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार माइग्रेन से पीडित व्यक्तियों में उस जीन की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है जो रक्त में प्लेटलेट्स निर्माण में मददगार है । उल्लेखनीय है कि प्लेटलेट्स की मदद से ही रक्त में थक्के जमते हैं ।
अगर रोगी में अपेक्षाकृत अधिक प्लेटलेट्स मौजूद हैं तो इससे यह पता चलता है कि रोगी का माइग्रेन प्रारंभिक अवस्था को पार कर गंभीर अवस्था में जा पहुंचा है । अतः माइग्रेन के इलाज के लिए इसके लिए जिम्मेदार जीन को सुधारने या बदलने की आवश्यकता है ।
इसमें नैनो टेक्नोलॉजी की अहम भूमिका हो सकती है । इसी तरह तनाव और उदासीनता आदि के लिये बिगडे जीन ही उत्तरदायी होते हैं । मोटापा, जो आज विश्व स्तर पर गंभीर रूप से पनप रहा है, भी बिगडे हुए जीन की ही कारस्तानी है ।
इधर मानव जीनोम परियोजना के अंतर्गत कुछ गुणसूत्रों यानी क्रोमोजोम्स का आनुवंशिक अनुक्रमण कर लिया गया है । अनुसंधानकर्ताओं को कुछ गुणसूत्रों में बीमारी के लिए जिम्मेदार जीनों की पहचान करने में सफलता मिली है ।
उदाहरण के लिये, फेफडे के कैंसर के लिये जिम्मेदार जीन क्रोमोजोम-3, तनाव को बढाने वाला जीन क्रोमोजोम-10, स्तन कैंसर के लिये जिम्मेदार जीन क्रोमोजोम-13, एल्जाइमर रोग के लिये जिम्मेदार जीन क्रोमोजोम-14 में स्थित पाए गए हैं । इसके अलावा क्रोमोजोम-19 में मौजूद एक बिगडा जीन कोरोनरी हृदय रोग तथा एल्जाइमर रोग के लिये जिम्मेदार हो सकता है ।
अनुसंधानकर्ताओं ने यह भी पाया है कि क्रोमोजोम-21 सबसे लघु मानव क्रोमोजोम होता है जिसके क्षतिग्रस्त हो जाने पर नवजात बच्चों में डाउन्स सिंड्रोम नामक लक्षण देखने को मिलते हैं । इस रोग के चलते बच्चों में मानसिक मंदता तथा अन्य असामान्यताएँ उत्पन्न हो सकती है ।
कुछ बच्चे जन्मजात हृदय विकार के भी शिकार होते हैं । अनुसंधानकर्ताओं ने पाया है कि ऐसे बच्चों में क्रोमोजोम-22 से कुछ जीन नदारद होते हैं । अतः बच्चों में अगर ये जीन भ्रूणावस्था में ही डाल दिए जाए तो उनमें हृदय रोग पनपेगा ही नहीं ।
दोषी जीनों की पहचान के लिए नैनो संवादकों की मदद ली जा सकती है । इन संवेदकों की मदद से व्यक्ति विशेष का आनुवंशिक मानचित्र प्राप्त करना संभव होगा । किसी माइक्रो चिप पर लगे स्वर्ण के नैनो कणों पर डीएनए खंडों को लगाकर दोषी जीनों का पता लगाया जा सकेगा । दोषी जनियुक्त डीएनए स्वर्ण के नैनो कणों के साथ चिपक जाएंगे जिससे उनकी आसानी से पहचान हो सकेगी ।
जीन चिकित्सा द्वारा खराब जीनों को बदल पाना भी संभव होगा । असल में खराब जीनों को प्रतिस्थापित करने के लिए वांछित जीनों को कोशिकाओं तक पहुँचाना पडता है । डीएनए, जिसमें वांछित जीन मौजूद होता है, द्वारा ही उस जीन को कोशिकाओं तक पहुंचाया जा सकता है ।
कार्बन नैनो ट्यूबों का इस्तेमाल डीएनए को कोशिकाओं तक पहुंचाने के लिए किया जा सकता है । ड्रेंड्राइमर्स, जो पॉलिमर के शाखनुमा आकार के अणु होते हैं तथा जिनकी मोटाई 2-20 नैनोमीटर होती है, द्वारा भी डीएनए को कोशिकाओं तक पहुंचाया जा सकता है ।
वैज्ञानिकों का तो यहां तक कहना है कि दोषी जीनों की मरम्मत करने का काम भविष्य में नैनो रोबोटों द्वारा भी लिया जा सकेगा । इस तरह दोषी जीनों की पहचान से लेकर जीन चिकित्सा तक में नैनो टेक्नोलॉजी की अहम भूमिका हो सकती है ।
वस्तुतः नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से न केवल रोगों का पता लगाकर उनका इलाज किया जा सकेगा बल्कि क्षतिग्रस्त कोशिकाओं या ऊतकों की मरम्मत भी की जा सकेगी । नैनो तकनीक से खास किस्म की हड्डी के विकास में नार्थ वैस्टर्न यूनिवर्सिटी के सैमुअल आई. स्टप को सफलता मिली है ।
इसकी मदद से न केवल टूटी हड्डियों को जल्दी जोडा जा सकेगा बल्कि हड्डी जनित विकृतियों को भी दूर किया जा सकेगा । आजकल नाक-नक्श बदलने के लिए या युवा दिखने के लिये प्लास्टिक सर्जरी की मदद लेनी पडती है । लेकिन भविष्य में यह काम नैनो रोबोटों द्वारा अंजाम दिया जा सकेगा । ये रोबोट नाक की आकृति, आँखों की रंगत आदि को बदलने के साथ-साथ चेहरे की ऐसी सर्जरी करने में भी सफल होंगे जिससे व्यक्ति युवा दिखे ।
नैनो तकनीक पर आधारित डीएनए टेस्ट को विकसित करने में भी नार्थवैस्टर्न युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों को सफलता मिली है । उल्लेखनीय है कि अभी डीएनए टेस्ट के लिए पीसीआर (पॉलमरेज चेन रिएक्शन) पद्धति का उपयोग किया जाता है ।
लेकिन इसमें समय बहुत लगता है और गलत परिणामों की आशंका भी रहती है । वैज्ञानिकों का दावा है कि नैनो तकनीक पर आधारित टेस्ट पीसीआर पद्धति की तुलना में दस गुना अधिक तेजी से काम करता है तथा इसकी परिशुद्धता भी एक लाख गुना अधिक है ।
लंबी उस पाने की इच्छा किसे नहीं होती । नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से बुढापे की प्रक्रिया को धीमा कर मनुष्य की औसत आयु को और भी बढाया जा सकना संभव होगा । दरअसल, हमारा शरीर हजारों-करोडों कोशिकाओं से मिलकर बना होता है । इन कोशिकाओं का निरंतर विभाजन चलता रहता है ।
पुरानी कोशिकाएँ एक निश्चित आयु के बाद नष्ट हो जाती हैं और उनका स्थान नई कोशिकाएँ ले लेती है । जब तक नई कोशिकाओं के बनने और पुरानी कोशिकाओं के नष्ट होने की दर समान रहती है तब तक शरीर ठीक-ठाक काम करता रहता है और उस पर बुढापे का असर नहीं होता है ।
लेकिन जब नई कोशिकाओं के बनने की दर कम हो जाती है तब शरीर में धीरे-धीरे जरावस्था का असर होना शुरू होता है । ऐसी दशा में शरीर की त्वचा ढीली पडने लगती है और जोड सख्त होने लगते हैं जिससे शरीर में जोडों तथा अन्य किस्म के दर्दों का प्रकोप शुरू हो जाता है ।
शरीर की जैविक प्रक्रियाएँ, जैसे पाचन, श्वसन, उत्सर्जन आदि में धीरे-धीरे परिवर्तन आना शुरु हो जाता है । इस तरह शरीर अनेक तरह की व्याधियों से घिर जाता है । दरअसल, कोशिकाओ में मौजूद गुणसूत्रों के सिरे पर टोपी सदृश्य संरचना पाई जाती है ठीक उसी तरह जिस तरह कि जूते के लेस के सिरे पर एक प्लास्टिक की टोपी-सी चढी होती है । इस टोपी सदृश संरचना को टैलोमियर कहते हैं ।
हर बार जब कोशिका विभाजित होती है तब टेलोमियर की लंबाई कम होती जाती है । इस तरह घटते-घटते जब टैलोमियर एक खास लंबाई को प्राप्त होता है तब कोशिका का विभाजन रूक जाता है । इस अवस्था को ‘सेनेसेंस’ कहते हैं । जब काफी संख्या में कोशिकाएँ सेनेसेंस की अवस्था को पहुँच जाती है तब व्यक्ति जरावस्था का शिकार हो जाता है ।
इस तरह टेलोमियर की लंबाई ही कोशिका की आयु को निर्धारित करती है । अतः अगर किसी तरह टेलोमियर की लंबाई बढाई जा सके तो जराग्रस्त या बुढाती कोशिकाओं को फिर से स्वस्थ बनाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह भी सिद्ध हुआ है कि टैलोमरेज नामक एंजाइम द्वारा टेलोमियर को ‘संरक्षित’ कर कोशिकाओं को चिर-स्वस्थ रखा जा सकता है । लेकिन फिलहाल ऐसे प्रयोग अधिकांश रूप से ही आदि पर ही किए गए हैं ।
नैनो तकनीक द्वारा शरीर में टैलोमरेज नामक एंजाइम पहुंचाकर टैलोमियर को संरक्षित कर जरावस्था को टाला जा सकता हे । वैज्ञानिकों को ऐसे जीनों का भी पता लगाने में सफलता मिली है जिनकी सक्रियता से ही शरीर में बुढापे के लक्षण प्रकट होते एवं पनपते है ।
इटली के मिलान स्थित यूरोपियन इंस्टीट्यूट ऑफ आंकोलॉजी से जुडे वैज्ञानिकों ने प्रोफेसर पियर लुइनी पेलिक्की के नेतृत्व में कम करते हुए ऐसा जीन ढूंढ निकालने का दावा किया है जो बुढ़ापे को आमंत्रित कर व्यक्ति की मृत्यु का कारण नाम दिया गया है ।
अतः इस जीन को अगर खामोश कर दिया जाए या करतव्यौंत द्वारा उसे हटा दिया जाए तो बुढ़ापे की प्रक्रिया पर रोक लगाना या उसे धीमा करना संभव होगा । नैनो टेक्नोलॉजी की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है । हाल ही में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी से जुडे वैज्ञानिकों के एक दल ने एस.आई.आर.टी. 6 तथा एन.एफ.कप्पा बी. नामक दो ऐसे प्रोटीनों का पता लगाया है जिनका वृद्ध होने की प्रक्रिया से सीधा संबंध है ।
द डेली टेलीग्राफ में प्रकाशित इस अनुसंधान के विवरण के अनुसार एस.आई.आर.टी. 6 नामक प्रोटीन बुढापे की प्रक्रिया को धीमा करता है जबकि एन. एफ. कप्पा बी. प्रोटीन उसे और हवा देता है । अतः एन. एफ. कप्पा बी. प्रोटीन को अवरूद्ध कर बुढापे की प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है ।
किसी प्रोटीन की पहचान के लिए नैनोवायर्स का इस्तेमाल किया जा सकता है । एंटीबॉडी लेपित नैनोवायर्स लक्षित प्रोटीन के साथ जुड जाते हैं और इस तरह प्रोटीन की पहचान हो जाती है नैनो स्तरीय तंतु प्रकाशिकी के जरिए स्वर्ण के नैनो कणों के प्रयोग द्वारा प्रोटीनों को ऑन या ऑफ किया जा सकता है ।
इस तरह एन. एफ. कप्पा बी. नामक प्रोटीन को ऑफ या अवरूद्ध कर बुढापे की प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है । चिकित्सा विज्ञान में इस्तेमाल होने वाली कुछ नैनो युक्तियों का उल्लेख इस अध्याय में पहले किया जा चुका है । अब हम कुछ विशिष्ट नैनो युक्तियों के बारे में चर्चा करेंगे ।
नैनो स्केल कैंटिलीवर:
नैनो आकार की बेहद सूक्ष्म छडों की मदद से बनने वाले कैंटिलीवरों से कैंसर अणुओं की पहचान हो सकती है । आण्विक बल सूक्ष्मदर्शियों में भी ऐसे केंटिलीवरों का इस्तेमाल किया जाता है । जब कैंसर के जैव चिन्हक केंटिलीवर पर लेपित इन प्रतिपिंडों से चिपक जाते हैं तो ये कैंटिलीवर मुड जाते हैं । इस तरह कैंसर अणुओं की मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है । जैव प्रतिदर्शों में मौजूद विशिष्ट आनुवंशिक अनुक्रमों का पता भी कैंटिलीवरों की मदद से लगाया जा सकता है ।
नैनोपोर्स:
नैनो आकार के रंध्रों (पोर्स) को ही नैनोपोर्स कहते हैं । इन बेहद सूक्ष्म रंध्रों से डीएनए की लडियां एक-एक कर गुजर सकती हैं । इस तरह डीएनए पर चार अक्षरों में लिखी कूट भाषा को पढा जा सकता है । इसके जरिए डीएनए अनुक्रमों तथा दोषी जीनों का पता आसानी से लगाया जा सकता है ।
नैनो ट्यूब:
ये कार्बन की सूक्ष्म नलिकाएँ होती हैं जिनका व्यास करीब 2 नैनो मीटर होता है यानी ये नैनोपोर्स से भी सूक्ष्म होते हैं । चिकित्सा विज्ञान में नैनो ट्यूबों के विविध उपयोग हैं । ड्रग डिलीवरी सिस्टम में नैनो ट्यूबों की मदद से बीमार कोशिकाओं तक दवा पहुँचाई जा सकती है ।
खासकर कैंसर के इलाज में नैनो ट्यूबों की अहम भूमिका हो सकती है । इसके अलावा जीन चिकित्सा में डीएनए के वाहकों के रूप में नैनो ट्यूबों का इस्तेमाल किया जा सकता है । नैनो ट्यूबों की मदद से जैव संवेदकों का विकास किया जा सकना भी संभव है ।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने 30-35 नैनोमीटर आकार की बहु-सतही नैनो ट्यूबों से निर्मित एक डीएनए संवेदक का विकास किया है । इस संवेदक में इस्तेमाल होने वाले हर नैनो ट्यूब का आकार लाल रक्त कोशिका से भी कम है । यह संवेदक प्रोटीन, रसायन तथा रोगकारकों का भी पता लगा सकता है ।
क्वांटम डॉट्स:
कुछ विशिष्ट नैनो कणों को ही क्वांटम डॉट्स नाम दिया जाता है । आमतौर पर कैडमियम सेलेनाइड जैसे अर्धचालकों से ही इनका विकास किया जाता है । लोकन विकास के दौरान क्वांटम डॉट्स नामक नैनो कणों में एक विशिष्ट गुणधर्म का समावेश हो जाता है जो अर्धचालकों में नहीं पाया जाता ।
दरअसल, अर्धचालक पदार्थ कुछ खास आवृतित (या तरंगर्दर्ध्य) फोटॉनों का ही उत्सर्जन कर सकते हैं । लेकिन क्वांटम डॉट्स से उत्सर्जित होने वाले प्रकाश का तरंगदैर्ध्य (या रंग) उनके आकार पर निर्भर करता है । अतः जब क्वांटम डॉट्स पर पराबैंगनी प्रकाश डाला जाता है तो विभिन्न आकार के क्वांटम डॉट्स विभिन्न रंगों वाले प्रकाश का उत्सर्जन कर सकते हैं ।
क्वांटम डॉट्स के इस विशिष्ट गुणधर्म का जैव अनुप्रयोगों में बखूबी इस्तेमाल किया जाता है । प्रोटीन ओर न्यूक्लीय अम्लों की पहचान के लिए क्वांटम डॉट्स का उपयोग जैव लेबलों की तरह से किया जा सकता है । अमेरिकी कंपनी क्वांटम डॉट्स कारपोरेशन ने इन अनुप्रयोगों के लिये क्वांटम डॉट्स का व्यापक तौर पर विकास किया है ।
सूक्ष्म मनकों (लेटक्स बीड्स) में क्वांटम डॉट्स को भरकर डी एन ए अनुक्रमों का पता लगाया जा सकता है । इस तरह कैंसर से जुडे डीएनए अनुक्रमों के बारे में भी जानकारी हासिल की जा सकती है जिससे कैंसर की आसानी से पहचान हो सकती है । स्वर्ण से बने नैनो कणों का इस्तेमाल भी डीएनए अनुक्रमण तथा दोषी जीनों का पता लगाने के लिए किया जा सकता है ।
नैनोखोल (नैनो शील्स):
सूक्ष्म मनकों (बीड्स) के ऊपर सिलिका और उसके ऊपर स्वर्ण की परत चढाकर ही नैनो खोल यानी नैनो शैल्स बनाए जाते हैं । इन परतों की मोटाई को बदल कर विशिष्ट तरंगदैर्ध्यों वाले विकिरणों को अवशोषित करने वाले नैनो शैल्स का विकास किया जा सकता है । लेकिन चिकित्सा में निकट-अवरक्त प्रकाश का अवशोषण करने वाले नैनो शेल्स का सबसे अधिक अनुप्रयोग है ।
ये नैनो शेत्मर लाल रक्त कणिकाओं से भी करीब बीस गुना छोटे होते हैं । अपने इस बेहद सूक्ष्म आकार के कारण नैनो शैल्स अर्बुदों की रक्त वाहिकाओं में आसानी से प्रविष्ट हो जाते हैं । जब इन पर बाहर से निकट अवरक्त प्रकाश डाला जाता है तो इनके ऊपर चढी स्वर्ण की परत अत्यधिक गरम हो जाती है । इस भयंकर गरमी से अर्बुद नष्ट हो जाते हैं । अतः नैनो शैल्स का इस्तेमाल कैंसर की चिकित्सा में किया जा सकता है । ये नैनो शैल्स स्मार्ट बमो की तरह ही काम करते हैं ।
डैंड्राइमर्स:
पॉलिमर पदार्थों से बने ये कृत्रिम कार्बनिक अणु शाखनुमा होते हैं जिनकी मोटाई 2-20 नैनो मीटर होती है । इनका विकास पहले-पहल 1980 में अमेरिका के मिडलैंड स्थित मिशिगन मॉलिक्यूलर इस्टीट्यूट से संबद्ध डोनाल्ड ए. होमालिया ने किया था ।
लेकिन वैज्ञानिकों को हाल ही में चिकित्सा विज्ञान में इनके उपयोग के महत्व के बारे में पता चला है । इनकी मदद से दवाओं को बीमार कोशिकाओं तक पहुंचाया जा सकता है । जीन चिकित्सा में भी ये उपयोगी हो सकते है क्योंकि इनकी मदद से डीएनए को कोशिकाओं तक पहुंचाया जा सकता है ।
नैनो सबमेरिन:
नैनो-स्तरीय एक रोचक मशीन भी बनकर तैयार हुई है जिसे नैनो पनडुब्बी यानी नैनो सबमेरिन नाम दिया गया है । यह नैनो सबमेरिन मानव रक्त में तैरकर बीमार कोशिकाओं तक दवा पहुंचाने के लिये विकसित की गई है ।
इसे संचालित करने के लिए ई. कोलाई तथा सालमोनेला नामक जीवाणुओं को काम में लगाया जा सकता है । यह सबमेरिन रक्त में तैरकर चलेगी और अर्बुदों तक दवा पहुँचाएगी । साथ ही रक्त धमनियों में जमी अवांछित वसा को पिघलाने का भी काम करेगी । नैनो सबमेरिन पर फिलहाल अनुसंधान चल रहे हैं ।
नैनो रोबोट तथा रेस्पिरोसाइट:
दवा को सीधे ही बीमार कोशिकाओं तक पहुंचाने के लिये वैज्ञानिकों ने एक नैनो युक्ति की परिकल्पना की है जिसे नैनो रोबोट या नैनोबोट कहते हैं । इनका आकार इतना सूक्ष्म होगा कि ये हमारी रक्त धमनियों में आसानी से विचरण कर सकेंगे ।
कुछ रोबोट धमनियों में तैर सकेंगे तो कुछ में ऊतकों में रेंगने की क्षमता होगी । इन नैनोबोटों को अणुओं अथवा कोशिकाओं में अति सूक्ष्म स्तर पर सर्जरी के काम में भी लगाया जा सकेगा । ये रोबोट धमनियों में जमा वसा आदि की भी सफाई कर सकेंगे ।
इन नैनो रोबोटों को बनाने में मुख्य रूप से कार्बन का ही इस्तेमाल होगा । लेकिन बाद में इनको बनाने में सल्फर, नाइट्रोजन, सिलिकॉन आदि का उपयोग हो सकेगा । फिलहाल नैनो रोबोट विज्ञान गल्प का ही विषय लग सकते हैं । लेकिन पश्चिम में नैनो रोबोटों पर काफी अनुसंधान कार्य हो रहा है । नैनो टेक्नोलॉजी के एक प्रमुख विशेषज्ञ रॉबर्ट ए. फ्रिटास जूनियर ने नैनो रोबोट का एक आदिप्रारूप (प्रोटोटाइप) बनाया है जिसका नाम रेस्पिरोसाइट है ।
यह एक गोलाकार रोबोट है जिसमें करीब 18 अरब अणु हैं । इसमें एक छोटा-सा दबाव यंत्र भी है जिसमें 9 अरब ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड के अणु भरे जा सकते हैं । इन अणुओं को नियंत्रित तरीके से शरीर के भीतर छोडा जा सकता है ।
रेस्पिरोसाइट नामक रोबोटों की यदि 1 लीटर मात्रा रक्त प्रवाह में मौजूद हो तो इतनी ऑक्सीजन प्राप्त हो सकती है कि कोई भी मनुष्य 15 मिनट तक बिना सांस लिए सरपट भाग सकता है । केवल इतना ही नहीं बल्कि बिना सांस लिए किसी स्विमिंग पूल के तल पर वह चार घटे तक आराम से बैठ सकता है । इस तरह रेस्पिरोसाइट नामक रोबोटों की श्वास संबंधी तकलीफों जैसे दमा, खाँसी आदि से निजात दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है ।
इस तरह हमारे स्वास्थ्य पर नजर रखकर एक स्वस्थ एवं नीरोग काया का नैनो टेक्नोलॉजी हमसे वायदा करती है । अपनी सेहत के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी क्योंकि शरीर में समाए नैनो सिपाही हर रोग के खिलाफ मुस्तैद रहेंगे ।
ये निगहबान सर्दी, जुकाम से लेकर डायबिटीज, हृदय रोग, कैंसर और एड्स जैसे रोगों के खिलाफ कामयाब जंग लडेंगे । लेकिन इन नैनो मशीनों या युक्तियों को बनाना सचमुच इतना आसान काम नहीं होगा इस प्रकार की परियोजना काफी जटिल होगी ।
वैसे भी जो मशीन या युक्ति कोशिका में जाकर विषाणु को पहचाने, उसे नष्ट करे, फिर कोशिका को स्वस्थ करे, उसे बनाना सरल कैसे होगा? बहरहाल, सुंदर और उन्नत भविष्य का आईना तो नैनो टेक्नोलॉजी दिखा ही रही है । आशा की जानी चाहिए कि आज जो हमें सपना लगता है नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से आने वाले कल में वही हकीकत में बदल जाएगा ।