Read this article in Hindi to learn about the techniques used for creating nano structure of atoms and molecules.

नैनो टेक्नोलॉजी द्वारा अणु दर अणु या परमाणु दर परमाणु नई संरचनाओं का सृजन किया जा सकता है इस तरह नैनो टेक्नोलॉजी से परमाण्विक आकार के अत्यंत सूक्ष्म यंत्रों एवं युक्तियों आदि का विनिर्माण किया जा सकता है सचमुच नैनो टेक्नोलॉजी एक ऐसी क्रांतिकारी तकनीक है जिसके जरिए मानव इंजीनियर के सबसे आखिरी छोर तक पहुंच जाएगा ।

तभी इस टेक्नोलॉजी को आण्विक इंजीनियरी या आण्विक उत्पादन प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है । नैनो संरचनाओं के सृजन के लिये मुख्यतया टॉप-डाउन तथा बॉटम-अप विनिर्माण विधियों या तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है । टॉप-डाउन विधि में बडे स्तर से शुरू करके नैनो स्तर की संरचनाओं का सृजन किया जाता है जबकि बॉटम-अप तकनीक में परमाणुओं और अणुओं के स्तर से ऊपर उठते हुए नैनो संरचनाओं का सृजन किया जाता है ।

इन दोनों विनिर्माण विधियों की जरा विस्तार से चर्चा करें:

(1) टॉप-डाउन तकनीक:

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टॉप-डाउन तकनीक का इस्तेमाल एकीकृत परिपथों (इंटिग्रेटेड सर्किट्‌स) के विनिर्माण के लिये होता है । पराबैंगनी प्रकाश का इस्तेमाल करने वाली इस तकनीक को फोटोलिथोग्राफी कहते हैं । इसकी मदद से 130 नैनो मीटर आकार तक की नैनो संरचनाओं का विनिर्माण किया जा सकता है ।

लेकिन इससे भी कम आकार के इलेक्ट्रॉनिक परिपथों के विनिर्माण के लिए इलेक्ट्रॉन किरण पुज तथा अति पराबैंगनी (एक्सट्रीय अल्ट्रावायलेट) प्रकाश आधारित लिथोग्राफी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है । इसके अलावा सॉफ्ट लिथोग्राफी तथा डिप-पेन लिथोग्राफी (जिसमें एटॉमिक फोर्स माइक्रॉस्कोप का इस्तेमाल किया जाता है) तकनीकों को भी काम में लाया जाता है ।

इलेक्ट्रॉन बीम लिथोग्राफी (ईबीएल) में इलेक्ट्रॉन किरण पुज की मदद से एक थिन पॉलिमर फिल्म में परिपथिकी (सर्किटरी) पैटर्न को उत्कीर्ण किया जाता है इस तकनीक से नैनो स्तर पर एकीकृत परिपथों का विनिर्माण किया जा सकता है । लेकिन फोटोलिथोग्राफी तकनीक की तुलना में इस तकनीक में अधिक लागत आती है तथा इसके काम करने की गति भी धीमी होती है ।

नैनो संरचनाओं के सृजन के लिये वैज्ञानिकों ने सॉफ्ट लिथोग्राफी नामक तकनीक का विकास भी किया है । इस तकनीक में पीली डाइमिथाइल सिलोक्सन (पीडीएमएस) नामक एक बहुलक का इस्तेमाल किया जाता है । इसमें पहले एक पीडीएमएस स्टैंप तैयार किया जाता है, फिर इसकी मदद से नैनो संरचनाओं का सृजन किया जाता है ।

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सॉफ्ट लिथोग्राफी तकनीक द्वारा 50 नैनोमीटर आकार तक की नैनो संरचनाओं का सृजन किया जा सकता है । लेकिन नैनो इलेक्ट्रॉनिकी के लिए इस तकनीक के प्रयोग की अनुशंसा नहीं की जाती है क्योंकि नैनो इलेक्ट्रॉनिकी में एकीकृत परिपथों के विनिर्माण में विभिन्न पदार्थों की बहु परतों का इस्तेमाल किया जाता है ।

अनुसंधानकर्ताओं को स्टेप-एंड-फ्लैश लिथोग्राफी तथा नैनो इम्प्रिंट लिथोग्राफी (एनआईएल) नामक तकनीकों का विकास करने में भी सफलता मिली है । इनकी मदद से द्वि-विमीय नैनो संरचनाओं का सफलतापूर्वक विकास किया जा सकता है ।

लेकिन, इलेक्ट्रॉनिक युक्तियों के विनिर्माण हेतु ये विधियां उपयुक्त नहीं है । नैनो संरचनाओं के सृजन के लिए वैज्ञानिकों को एक और तकनीक के विकास में भी सफलता मिली है जिसे डिप-पेन लिथोग्राफी कहते हैं । नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के चैड ए. मिरकिन द्वारा विकसित इस तकनीक में परमाण्विक बल सूक्ष्मदर्शी (एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप) का इस्तेमाल किया जाता है ।

डिप-पेन लिथोग्राफी तकनीक में सूक्ष्मदर्शी की नोंक पर थाइऑल की एक बारीक परत (थिन फिल्म) चढा दी जाती है यह रसायन पानी में अघुलनशील होता है लेकिन स्वर्ण की सतह से यह अभिक्रिया करता है । जब इस युक्ति को ऐसे परिवेश जिसमें जल वाष्प की उच्च सांद्रता मौजूद होती है में रखा जाता है तो स्वर्ण की सतह और सूक्ष्मदर्शी की नोंक के बीच पानी की एक सूक्ष्म बूंद संघनित हो जाती है ।

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पानी का पृष्ठ तनाव सूक्ष्मदर्शी की नोंक को स्वर्ण की सतह से एक नियत दूरी तक उठाने का कार्य करता है जब नोक स्वर्ण की सतह पर घूमती है तो यह दूरी स्थिर बनी रहती है । थाइऑल के अणु नोंक से स्वर्ण की सतह पर जाते हैं जहां वे स्व-संयोजित एकल परत (सेल्फ एसेम्बेल्ड मोनोलेयर) का सृजन करते हैं ।

डिप-पेन लिथोग्राफी द्वारा 15 नैनोमीटर तक के आकार की नैनो संरचनाओं का सृजन किया जा सकता है उल्लेखनीय हे कि एक्सट्रीम अण्डावायलेट (ईयूवी) प्रकाश आधारित लिथोग्राफी के इस्तेमाल से 80 नैनोमीटर तक के आकार की नैनो संरचनाओं का सृजन किया जा सकता है ।

”बॉल मिलिंग” विधि का उल्लेख भी टॉप-डाउन विधि के एक उदाहरण के रूप में किया जा सकता है । अक्सर इस विधि का इस्तेमाल धातुओं एवं मिश्र धातुओं के नैनो कणों के सृजन में किया जाता है । इस विधि में स्थूल प्रतिदर्श (बल्क सैंपल) से शुरू करके एक बॉल मिल के पेषण द्वारा उसके आकार को नैनो स्तर तक लघुकृत किया जाता है । इस विधि का प्रयोग व्यावसायिक उत्पादन के लिए भी किया जाता है ।

(2) बॉटम-अप तकनीक:

इस तकनीक में स्व-संयोजन (सेल्फ-एसेम्बली) या स्व-समायोजन (सेल्फ-आर्गेनाइजेशन) के गुणधर्म का इस्तेमाल किया जाता है । उल्लेखनीय है कि सेल्फ-आर्गेनाइजेशन प्रकृति का एक मूलभूत सिद्धांत है जिसकी खोज पहले-पहल जे.एम. लेटन ने की थी । इस खोज के लिए लेटन को नोबेल पुरस्कार से नवाजा भी गया था ।

स्व-संयोजन या स्व-समायोजन जीव विज्ञानियों के लिऐ जानी-मानी घटना है । जैव अणु स्व-संयोजन द्वारा ही आपस में मिलकर कोशिकाओं तथा शरीरांगों का निर्माण करते हैं । गौरतलब है कि हमारे शरीर में कोई दस खरब से लेकर दस हजार खरब (1012-1015) तक कोशिकाएं होती है । एक साधारण कोशिका से किसी जटिल कोशिका का निर्माण स्व-संयोजन की प्रक्रिया द्वारा ही होता है ।

स्व-संयोजन तकनीक द्वारा अपेक्षाकृत कम लागत में 2 से लेकर 10 नैनोमीटर तक की नैनो संरचनाओं का सृजन सरलतापूर्वक किया जा सकता है । इस तकनीक में रासायनिक और विद्युत रासायनिक मार्गों के जरिए नैनो कणों का सृजन किया जाता हे ।

स्व-संयोजन तकनीक कैडमियम सल्फाइड (CdS) तथा कैडमियम सेलेनाइड (CdSe) जैसे अर्धचालकों के नैनो कणों के सृजन के लिए उपयुक्त है । अधिरोही वृद्धि (एपिटेक्सिमल ग्रोथ) आधारित विधियां भी उपलब्ध हैं जिनमें पदार्थ का संगठन परमाण्विक परत दर परत रूप में किया जाता है ।

इनमें आण्विक पुज अधिरोहण (मॉलिक्यूलर बीम एपिटेक्सी- एमबीई) तथा धातु कार्बनिक रासायनिक वाष्प निक्षेपण (मैटल आर्गेनिक केमिकल वेपर डिपॉजिशन- एमओसीवीडी) नामक विधियां शामिल हैं । अकसर इन दोनों विधियों का इस्तेमाल क्वांटम डॉट्‌स तथा क्वांटम तारों (वायर्स) के विनिर्माण हेतु किया जाता है ।

गुच्छ जनक (क्लरटर जेनरेटर्स) तथा न्यून ऊर्जा गुच्छ पुज निक्षेपण (लो एनर्जी क्लस्टर बीम डिपॉजिशन – एलईसीबीडी) नामक तकनीकें भी बॉटम-अप श्रेणी में ही आती हैं । साधारणतया क्लस्टर जेनरेटर्स तकनीक का इस्तेमाल विविध आकारों के मुक्त परमाण्विक क्लस्टर्स के सृजन और अध्ययन में किया जाता है इस तकनीक द्वारा की जाने वाली खोजों में सबसे महत्वपूर्ण साठ कार्बन परमाणुओं वाले फुल्लरीन अणु (C60) की खोज थी ।

न्यून ऊर्जा गुच्छ पुज निक्षेपण तकनीक का प्रयोग विभिन्न (अवस्तरों सबस्ट्रेट्‌स) पर चुनिंदा आकारों के परमाण्विक क्लस्टरर्न के निक्षेपण के लिए किया जा सकता है । वैज्ञानिकों ने स्व-संयोजन के लिए एक संयोजक (एसेम्बलर) की कल्पना की है जो स्व-प्रतिकरण (सेल्फ-रेप्लिकेशन) के सिद्धांत पर कार्य करता है । इस तकनीक द्वारा नैनो आकार के रोबोटों, जिन्हें नैनोबोट्‌स कहते हैं, का निर्माण किया जा सकता है । ये रोबोट सेल्फ-रेप्लिकेशन द्वारा अपनी ही प्रतिकृतियां बनाने में सक्षम होंगे ।

स्व-प्रतिकरण के सिद्धांत पर कार्य करने वाले एसेम्बलर्स (सेल्फ-रेप्लिकेटिंग एसेम्बलर्स) समांतर में कार्य करते हुए आण्विक संरचनाओं का विनिर्माण कर सकते हैं । इस प्रक्रिया को मैसिव पैरेललिज्म का नाम दिया जाता है इस तकनीक द्वारा नैनो संरचनाओं का सृजन किया जा सकता है जैसे एक बीज में कोडित आनुवंशिक निर्देशों से विशाल वट वृक्ष रो लेकर टमाटर का पौधा तक उगाया जा सकता है ठीक उसी तरह सेल्फ-रेप्लिकेटिंग एसेम्बली में सही निर्देश डालकर उनसे भी वांछित नैनो उत्पाद प्राप्त किए जा सकते हैं ।

स्व-संयोजन की तकनीक से नैनो संरचनाओं के सृजन में लागत कम आती है क्योंकि इसमें अत्यंत न्यून परिणाम में पदार्थ एवं ऊर्जा की आवश्यकता होती है यह तकनीक न केवल ऊर्जा दक्ष होती है बल्कि बहुत कम प्रदूषण भी उत्पन्न करती है ।

नैनो संसार में झांकती सूक्ष्मदर्शियां:

नैनो संसार मे झांकने तथा नैनो संरचनाओं के सृजन के लिए वैज्ञानिकों ने विशेष सूक्ष्मदर्शियों का निर्माण किया है इनकी मदद से न केवल अणुओं और परमाणुओं को देख पाना संभव है बल्कि उनकी उठाधरी भी की जा सकनी संभव है इस तरह अणुओं एवं परमाणुओं को व्यवस्थित एवं संयोजित कर नैनो संरचनाओं का राजन किया जा सकता है ।

दरअसल दूरबीन (टेलीस्कोप) और सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में लगने वाले लेंसों और दर्पणों का निर्माण कांच की खोज के बाद ही संभव हुआ प्रसिद्ध रोमन इतिहासकार प्लिनी ने पहली सदी में अपने द्वारा लिखित एक पुस्तक में बताया है कि कांच की खोज कैनन यानी फीनिशिया वासियों द्वारा हुई थी ।

लेकिन पढने और देखने के लिए कांच का पहले-पहल इस्तेमाल चश्मे के निर्माण में ही हुआ चश्मे का आविष्कार सबसे पहले किसने किया इसका कोई प्रामाणिक विवरण प्राप्त नहीं होता है । सन् 1266 में रोजर बेकन ने एक खास किस्म के लेंस को अपनी किताब के एक पन्ने पर रखकर देखा तो उन्हें पन्ने के अक्षर काफी बडे नजर आए ।

पर लेंस को फ्रेम में जडकर सबसे पहले उसे चश्मे का रूप किसने दिया इस बारे में कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है वैसे विद्वानों का अनुमान है कि 1459 से पहले चश्मे का आविष्कार हो चुका था क्योंकि उस समय के मिले एक चित्र में एक पादरी की आंखों में चश्मा चढा दिखाया गया है ।

इन सब तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि 1266 से 1460 के दौरान ही किसी ने चश्मे का आविष्कार किया होगा और बाद में चश्मे के फ्रेम आदि को सुधारने के प्रयास हुए होगे इस बात का भी साध्य प्राप्त होता है कि इंग्लैंड में 1629 तक चश्मा पहुंच चुका था क्योंकि राजा चार्ल्स प्रथम ने चश्मा बनाने वाले गिल्ड नामक एक कारीगर के काम रो खुश होकर उसी वर्ष उसे सम्मानित किया था ।

हैंस जेन्सेन और उनके पुत्र जैकेरिया जेन्सेन ने 1590 में पहले-पहल सूक्ष्मदर्शी का आविष्कार किया । ‘फ्ली ग्लास’ नामक इस सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन क्षमता 10 थी यानी यह सूक्ष्मदर्शी किसी वस्तु या पिड को दस गुना बडा दिखा सकता था ।

‘फ्ली ग्लास’ में सुधार करने में ल्यूबेनहॉक और बाद में रॉबर्ट हुक को सफलता मिली । सन् 1660 में हुक को एक ऐसे सूक्ष्मदर्शी को बनाने में सफलता मिली जिसकी मदद से जीवित कोशिकाओं को अवलोकित कर पाना संभव हुआ इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि सन 1609 में हालैण्ड के चश्मा निर्माता हैंस लेपरथी को पहले टेलीस्कोप के निर्माण में सफलता मिली थी ।

लेकिन, प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शियों की विभेदन क्षमता (रिजाल्विंग पावर) प्रकाश के तरंगदैर्ध्य पर निर्भर करती है यह विभेदन क्षमता करीब 200 नैनोमीटर होती है । ऐसे सूक्ष्मदर्शियों की आवर्धन क्षमता करीब 500 होती है यानी ये वस्तुओं को करीब 500 गुना बडा दिखा सकती हैं ।

सूक्ष्मदर्शियों की विभेदन एवं आवर्धन क्षमता को बढाने के लिये नई टेक्नोलॉंजी का उपयोग आवश्यक हो गया । वैज्ञानिकों का ध्यान गतिशील इलेक्ट्रॉन पुर्जों तथा एक्स-रे की ओर गया । सन् 1924 में फ्रांसिसी भौतिकीविद लुई द बॉग्ली ने अपनी यह अवधारणा प्रस्तुत की कि कुछ विशेष परिस्थितियों में इलेक्ट्रॉन जैसे गतिशील कण तरंग सदृश व्यवहार का प्रदर्शन कर सकते हैं । इस अवधारणा को कण-तरंग द्वैतता की संज्ञा दी जाती है ।

गतिशील इलेक्ट्रॉनों के तरंग सदृश व्यवहार को आधार बनाकर इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का निर्माण संभव हुआ । टेक्निकल इंस्टीट्‌यूट ऑफ बर्लिन से संबद्ध इंजीनियर अर्न्स्ट रस्का को अपने सहयोगी नील के साथ मिलकर 1932 में इसका विकास करने में सफलता मिली । इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के आविष्कार के लिए रस्का को 1986 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।

इलेक्ट्रॉन माइक्रॉस्कोप में प्रकाश स्रोत की जगह इलेक्ट्रॉनों का इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें करीब 60,000 वोल्ट के विभव से त्वरित किया जाता है । इस तरह से त्वरित इलेक्ट्रॉन पुंज का तरंग दैर्ध्य करीब 0.005 नैनोमीटर होता है जो दृश्य प्रकाश के तरंगदैर्ध्य की तुलना में करीब 1 लाख गुना कम होता है ।

इस तरह इलेक्ट्रॉन माइक्रॉस्कोप की विभेदन क्षमता करीब 0.1 नैनोमीटर (व्यावहारिक रूप से 2-10 नैनोमीटर) होती है । इन सूक्ष्मदर्शियों की आवर्धन क्षमता 3 लाख तक होती है । इलेक्ट्रॉन माइकॉस्कोप में कुंडलियों से धारा प्रवाहित करके चुंबकीय क्षेत्रों को उत्पन्न किया जाता है । ये चुंबकीय क्षेत्र ही इलेक्ट्रॉन पुंज को वस्तु या अवलोकित किए जाने वाले प्रतिदर्श पर फोकस करता है । इस तरह ये चुंबकीय क्षेत्र चुंबकीय लेंसों की तरह व्यवहार करते हैं ।

इलेक्ट्रॉन माइक्रॉस्कोप को पारगमन (ट्रांसमिशन) या क्रमवीक्ष्ण (स्केनिंग) दोनों ही विधाओं (मोड्‌स) में इस्तेमाल में लाया जा सकता है । इन्हें क्रमशः ट्रांसमिशन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप (टीईएम) तथा स्केनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप (एसईएम) की संज्ञा दी जाती है ।

इलेक्ट्रॉन माइक्रॉस्कोप को किस मोड में इस्तेमाल किया जाना है यह विशिष्ट अनुप्रयोग पर निर्भर करता है । पारगमन यानी ट्रांसमिशन मोड में प्रतिदर्श की मोटाई को करीब 100 नैनोमीटर तक रखा जाना आवश्यक है ताकि स्पष्ट बिंब प्राप्त हो सके लेकिन इतनी कम मोटाई के प्रतिदर्श को प्राप्त करने की अपनी समस्याएं होती हैं स्केनिंग या परावर्तन मोड में प्रतिदर्श को तैयार करना अपेक्षाकृत सरल होता है क्योंकि इसमें केवल सतह को ही पालिश कर चमकाने की आवश्यकता होती है ।

यह इसलिए जरूरी होता है क्योंकि यह मोड परावर्तन के सिद्धांत पर कार्य करता है । लेकिन इसमें भी प्रतिदर्श को तैयार करने में काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है नहीं तो प्रतिदर्श के खराब हो जाने का डर बना रहता ।

इस तरह इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शियों की मदद से नैनोमीटर आकार की वस्तुओं को अवलोकित कर पाना संभव है प्रौद्योगिकी में उन्नति के चलते अधिक आवर्धन क्षमता वाले इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शियों का निर्माण संभव हुआ जिनकी आवर्धन क्षमता अब लाखों में है ।

इनकी मदद से कोशिकाओं की संरचना तथा अलग-अलग अणुओं को देख पाना एवं उनका अध्ययन कर पाना संभव है जीव विज्ञान, भौतिकी तथा रसायन विज्ञान के क्षेत्र में इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शियों के अनेक अनुप्रयोग हैं । हालांकि इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शियों द्वारा आण्विक स्तर पर ठोस सतहों या संरचनाओं को देख पाना संभव है ।

लेकिन परमाण्विक स्तर पर संरचनाओं को अवलोकित करने के लिए ये सूक्ष्मदर्शी सक्षम नहीं हैं । इसके लिये वैज्ञानिकों ने और भी उन्नत किस्म के सूक्ष्मदर्शियों का निर्माण किया है । क्रमवीक्ष्ण सुरंगन सूक्ष्मदर्शी (स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप) तथा परमाण्विक बल सूक्ष्मदर्शी (एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप ऐसे ही सूक्ष्मदर्शियों के उदाहरण हैं ।

स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप:

स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप की मदद से न केवल अणुओं और परमाणुओं को अवलोकित कर पाना संभव है बल्कि उनकी उठा-धरी, जो नैनो प्रौद्योगिकी की पहली आवश्यकता है, भी की जा सकती है । इस सूक्ष्मदर्शी की मदद से अणुओं और परमाणुओं को सही एवं वांछित स्थान पर रखा जा सकता है ।

आईबीएस की जुरिख रिसर्च लेबोरेटरी से संबद्ध हेनरिक रोहरर तथा जर्ड के बिनिंग ने ही 1981 में स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप को विकसित किया था । इसके लिए रोहरर और बिनिंग को 1986 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था ।

स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप में एक बहुत ही पैनी धातु की बनी प्रोब को अवलोकित किए जाने वाले ठोस सतह के पास से गुजारा जाता है । प्रोब की नोक तथा सतह के बीच की दूरी लगभग 1 या 2 नैनोमीटर होती है । प्रोब तथा ठोस सतह के बीच करीब 10 मिलीवोल्ट की वोल्टेज लगाई जाती है इस स्थिति में ठोस सतह से इलेक्ट्रॉन सुरंगन (टनलिंग) की क्वांटम यांत्रिकीय परिघटना द्वारा प्रोब की नोक तक जा पहुंचते हैं ।

इसे समझने के लिए कल्पना करें कि पास-पास रखे कुछ पात्रों में कांच की गोलियां भरी हैं । अपने अनुभव से हम जानते है कि एक पात्र की दीवार से निकल कर गोलियों का दूसरे पात्र में जा पहुंचना संभव नहीं । एक पात्र के गोलियों से पूरी तरह से भर उठने के बाद ही गोलियां उछल कर दूसरे पात्र में जा सकती हैं लेकिन, बडे आकार के पिंडों के लिए चिरसम्मत भौतिकी की दृष्टि से जो संभव नहीं है वही क्वांटम यांत्रिकीय दृष्टि से संभव है ।

इलेक्ट्रॉन जैसे सूक्ष्म कणों के लिए, विभव कूप (पोटेंशियल बैल) यानी आकाश (स्पेस) में वे लघु क्षेत्र जिनकी स्थितिज ऊर्जा अति न्यून होती है, पात्रों का ही कार्य करते हैं । अगर विभव कूप की दीवारें बेहद पतली हैं तो उनसे होकर इलेक्ट्रॉन बाहर आ सकते हैं ।

इस परिघटना को क्वांटम यांत्रिकीय सुरंगन (क्वांटम मैकेनिकल टनलिंग) कहते हैं । सुरंगन की परिघटना के कारण पदार्थ की सतह से प्रोब की नोक तक पहुंचने वाले इलेक्ट्रॉनों से एक सुरंगन धारा की उत्पत्ति होती है यह धारा सतह और प्रोब के बीच की दूरी पर निर्भर करती है ।

जब यह दूरी बढती है तो सतह से निकल कर प्रोब तक पहुंचने वाले इलेक्ट्रॉनों की संख्या इतनी कम हो जाती है कि उनका संसूचन संभव नहीं हो पाता है । अतः सतह और प्रोब के बीच की दूरी को कम रखा जाना जरूरी है । उस स्थिति में जब प्रोब की नोक सतह को छू जाती है तो उनके बीच की दूरी के शून्य हो जाने से सुरंगन की परिघटना संभव नहीं हो पाती है ।

जब प्रोब की नोक सतह के ऊपर से घूमती है तो सुरंगन धारा के मान में परिवर्तन होता है । जब सतह के अंदर कोई गड्‌ढा होता है तो नोक और सतह के बीच की दूरी बढ जाने से यह धारा कम हो जाती है । लेकिन जब सतह पर कोई उभार होता है तो नोक और सतह के बीच की दूरी घट जाने से धारा का मान बढ जाता है ।

एक पुनर्भरण परिपथ (फीडबैक सर्किट) की मदद से इस धारा के मान को स्थिर रखा जा सकता है जब नोक सतह के गड्‌ढे के पास आती है तो धारा का मान कम हो जाता है । ऐसी स्थिति में फीडबैक सर्किट नोक को नीचे करने का कार्य करती है नोक के सतह के उभार के पास आने पर जब धारा का मान बढ जाता है तो फीडबैक सर्किट नोक को ऊपर उठाने का कार्य करती है ।

इस तरह फीडबैक सर्किट की मदद से नोक और सतह के बीच की दूरी को स्थिर रखा जा सकता है । नोक को ऊपर-नीचे करने के लिए एक फीजो-विद्युत पदार्थ के बने ट्रांस्डयूसर का इस्तेमाल किया जाता है । इसके पीछे यह सिद्धांत कार्य करता है कि जब फीजोविद्युत पदार्थ पर उचित वोल्टेज लगाया जाता है तो उसमें संकुचन या प्रसरण होता है ।

फीजोविद्युत पदार्थों में यह परिवर्तन कुछ माइक्रो सेकंडों के अंदर ही हो जाता है । इस तरह लगाया गया वोल्टेज पदार्थ की सतह के गड्‌ढों और उभारों पर निर्भर करता है । इस वोल्टेज के परिवर्तन द्वारा पदार्थ की सतह का परमाण्विक प्रोफाइल या नक्शा (मैप) बनाया जा सकता है ।

स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप इलेक्ट्रोन पुंज यानी बीम के आधार पर कार्य करता है । ऐसे बीम का नियंत्रण निर्वात में ही किया जा सकना संभव है । अतः इस माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल केवल निर्जीव प्रतिदर्शों को प्रेक्षित करने के लिए ही किया जा सकता है ।

जैव प्रक्रियाओं, जैसे कि श्वसन की प्रक्रिया को इस सूक्ष्मदर्शी द्वारा प्रेक्षित कर पाना संभव नहीं । इसने बिनिंग एवं उनके सहकर्मियों क्वेट तथा गर्बर को 1986 में एक और माइक्रोस्कोप को विकसित करने के लिए प्रेरित किया जिसे एटॉमिक फोर्स माइकोस्कोप कहते हैं ।

एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप:

यह सूक्ष्मदर्शी परमाणुओं के बीच लगने वाले बलों के मापन द्वारा कार्य करता है । इस सूक्ष्मदर्शी की नोक अति सूक्ष्म होता है जिसका व्यास करीब 40 नैनोमीटर होता है । यह पहले इस्तेमाल होने वाले ग्रामोफोन की सुई से मिलती-जुलती होती है ।

स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप, जिसके प्रोब की नोक और सतह के बीच एक सूक्ष्म दूरी होती है, के विपरीत इस सूक्ष्मदर्शी के प्रोब की नोक ठोस पदार्थ की सतह को बहुत हल्के से छूती है । इस तरह लगने वाला बल 1 ग्राम द्वारा आरोपित बल के एक करोडवें हिस्से के बराबर होता है ।

इस सूक्ष्मदर्शी की नोक के सतह के ऊपर चलने से इसके द्वारा अनुभव किए गए आकर्षण या प्रत्याकर्षण के अनुसार नोक के साथ जुडा एक संवेदी कैंटीलीवर ऊपर-नीचे होता है । कैंटीलीवर के विक्षेपण को लेसर किरणों की मदद से नापा जाता है ।

स्केनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप के विपरीत इस सूक्ष्मदर्शी में नोक और सतह के बीच एक नियत दूरी को बनाए रखना आवश्यक नहीं होता है । इस तरह एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप द्वारा ठोस सतहों का त्रिविमीय नक्शा बनाया जा सकता है । इस सूक्ष्मदर्शी द्वारा जैव पदार्थों, जैसे कि डीएनए की सतहों का प्रतिबिंबन भी किया जा सकता है ।

एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप द्वारा अणुओं एवं परमाणुओं के स्तर पर परिचालन भी किया जा सकता है । परमाणुओं एवं अणुओं को एक स्थान से उठाकर उन्हें निर्धारित स्थान पर रखा जा सकता है । इस तरह इस सूक्ष्मदर्शी द्वारा परमाणुओं एवं अणुओं की उठा-धरी भी की जा सकती है । इस सूक्ष्मदर्शी द्वारा ठोस सतहों की कठोरता एवं उनके खुरदुरेपन का अनुमान भी लगाया जा सकता है ।

एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप द्वारा नैनो बलों का मापन भी किया जा सकता है । ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रो जॉन पेथिका को एक नए ही किस्म के एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप को विकसित करने में सफलता मिली । यह सूक्ष्मदर्शी बल प्रवणताओं (फोर्स ग्रेडिएंट्‌स) तथा रासायनिक आबंधों के कुछ लक्षणों का प्रत्यक्ष प्रतिबिंबन करने में सक्षम है ।

एक और उन्नत किस्म के एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप के निर्माण में भी वैज्ञानिकों को सफलता मिली है । इसमें परंपरागत सिलिकॉन निर्मित नोक (टिप) की जगह नैनोटिप (जिसकी मोटाई करीब 1 नैनोमीटर होती है) का इस्तेमाल किया जाता है इस सूक्ष्मदर्शी की मदद से विभिन्न रोगों को उत्पन्न करने वाले आनुवंशिक परिवर्तनों का पता लगाया जा सकता है ।

एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल बॉटम-अप विधि द्वारा एकीकृत परिपथों के विनिर्माण तथा जैविक प्रतिदर्श, के प्रतिबिंबन हेतु व्यापक तौर पर किया जाता है । सिलिकॉन टिप युक्त सूक्ष्मदर्शियों की तुलना में नैनो टिप युक्त सूक्ष्मदर्शियों की विभेदन क्षमता तथा मजबूती कहीं अधिक होती है क्योंकि परंपरागत सूक्ष्मदर्शियों की सिलिकन टिप अकार टूटती रहती है ।

हमारे देश में बंगलौर स्थित जवाहरलाल नेहरू सेटर फॉर एडवांस्ड सांइटिफिक रिसर्च में भी ‘कंटक्टिंग एएपाएम’ नामक एक विशेष किस्म का एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप है । विश्व की कुछ गिनी चुनी प्रयोगशालाओं में ही इस किस्म के सूक्ष्मदर्शी मौजूद है । ये सक्ष्मदर्शी न केवल नैनो पैमाने पर सतह की स्थलाकृति (टोपोग्राफी) का मापन करने में सक्षम हैं बल्कि उसकी विद्युत चालकता का प्रतिबिंबन भी कर सकते हैं ।

आजकल स्केनिंग टनलिंग माइकोस्कोप तथा एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोप आदि का इस्तेमाल विश्व भर की विभिन्न प्रयोगशालाओं में नैनो संसार का अवलोकन एवं अन्वेषण हेतु हो रहा है । इन युक्तियों ने जीव विज्ञानियों को भी डीएनए तथा आण्विक प्रक्रियाओं के अध्ययन-अवलोकन के लिए सक्षम बनाया है । कुछ औद्योगिक इकाईयों में इनका इस्तेमाल गुणवत्ता नियंत्रण के लिए भी किया जा रहा है ।

(3) कुछ अन्य तकनीकें:

इस संदर्भ में रामन् स्पेक्ट्रमिकी (स्पेक्ट्रॉस्कोपी) का उल्लेख किया जाना भी आवश्यक है ।  भारतीय भौतिकीविद चंद्रशेखर वेंकटरमन को ‘रामन् प्रभाव’ की खोज के लिए वर्ष 1930 के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था ।

अमेरिकी भौतिकीविद आर्थर काटन ने यह खोज की थी कि इलेक्ट्रॉनों द्वारा प्रकीर्णित होने पर एक्स-किरणों की आवृत्ति (फ्रिक्वेंसी) बदल जाती है । इस घटना को काटन प्रभाव कहते हैं । चूंकि प्रकाश किरणें भी अनेक गुणों में एक्टर किरणों से मेल खाती है अंत: स्मेकल, हेनटिक क्रेमर्स तथा वर्नर हाइजेनबर्ग जैसे अनेक भौतिकीविदों ने सोचा कि अणुओं द्वारा प्रकीर्णित होने पर प्रकाश की आवृलि में भी अंतर आना चाहिए, लेकिन केवल सैद्धांतिक रूप से ही ये भौतिकीविद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे । प्रयोगात्मक तौर पर सर्वप्रथम रामन् को ही इस दिशा में सफलता मिली ।

अपने प्रयोग द्वारा रामन् ने यह सिद्ध कर दिखाया कि किसी पारदर्शी माध्यम से गुजरने पर प्रकाश किरण का प्रकीर्णन होता है जिससे उसकी आवृत्ति में परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है । इस घटना को रामन् प्रभाव कहते हैं । पदार्थ का जो स्पेक्ट्रम हमें प्राप्त होता है उसमें आपतित प्रकाश की आवृत्ति के अलावा उससे कम तथा उसके अधिक आवृत्ति की रेखाएं भी मौजूद होती हैं ।

इस तरह प्राप्त होने वाले स्पेक्ट्रम को रामन् स्पेक्ट्रम और उसमें मौजूद रेखाओं को रामन रेखाओं या स्टोक्स और एंटी-स्टोक्स रेखाओं की संज्ञा दी जाती है । इनमें स्टोकस लाइन कम आवृत्ति जबकि एन्टीस्टोक्स लाइन अधिक आवृत्ति की होती है ।

रामन् प्रभाव पर आधारित स्पेक्ट्रमिकी की एक नई शाखा विकसित हुई है जिसे रामन् स्पेक्ट्रमिकी कहते हैं । रामन् स्पेक्ट्रम के अध्ययन से पदार्थ की आण्विक संरचना के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी हासिल होती है । क्रिस्टलों की आंतरिक संरचना का पता भी रामन् प्रभाव से लगाया जा सकता है ।

सन 1960 में लेसर की खोज के बाद रामन प्रभाव और भी प्रभावशाली वैज्ञानिक साधन सिद्ध हुआ है जिससे विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में रामन् प्रभाव एवं रामन् स्पेक्ट्रॉस्कोपी का महत्व लगातार बढता जा रहा है ।

लेकिन नैनो टेक्नोलॉजी के संदर्भ में आखिर रामन् स्पेक्ट्रॉस्कोपी का क्या महत्व है ? इस संदर्भ में यह जानना रोचक होगा कि काफी पहले से ही रामन स्पेक्ट्रॉस्कोपी का इस्तेमाल विषाणुओं (जिनका व्यास लगभग 75-100 नैनोमीटर होता है) तथा हीमोग्लोबीन (जिसका व्यास लगभग 5 नैनोमीटर होता है) के अध्ययन के लिए किया जाता रहा है ।

अमेरिका के केन्सास शहर के कोशिका वैज्ञानिक प्रो. जार्ज जे. थॉमस ने 1970 के दशक के आरंभिक दौर में रामन् स्पेक्ट्रॉस्कोपी की मदद से विषाणुओं का अध्ययन किया । इस दिशा में चीन के प्रो. ली हुआन लिंग द्वारा किया गया अनुसंधान कार्य भी उल्लेखनीय है श्वसन रोगियों, जिनके रक्त में हीमोग्लोबीन अणुओं की कमी के चलते उन्हें सास लेने में दिक्कत महसूस होती है, के लिए दवा खोजने के लिए प्रो ली हुआन ने रामन् स्पेक्ट्रास्कोपी की मदद से हीमोग्लोबीन के अणुओं का अध्ययन किया ।

सन् 1973 में यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लासगो के वैज्ञानिक लॉरेस बेरॉन ने रामन् आप्टिकल एक्टिविटी (आरओए) स्पेक्ट्रमदर्शी (स्पेक्ट्रास्कोप) के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । इस स्पेक्ट्रोस्कोप की मदद से बेरॉन ने प्रोटीनों (जिनका व्यास लगभग 5-50 नैनोमीटर होता है) की संरचना और व्यवहार का अध्ययन किया । इस तरह प्रोटीन की संरचना में दोष के कारण उत्पन्न रोगों (प्रोटीन मिस्फोल्डिंग डिजीनेस) के बारे में नई अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में बेरॉन को सफलता मिली ।

प्रोटीन, डीएनए, एमिनो एसिड जैसे जैव पदार्थों की पहचान तथा विषाणुओं जीवाणुओं आदि का अध्ययन करने के लिए आज समन स्पेक्ट्रोस्कोपी की सार्थकता नए सिरे से प्रकट होने लगी है चिकित्सा विज्ञान में मानव कोशिकाओं पर नई-नई औषधियों का प्रभाव जानने के लिए रामन् स्पेक्ट्रोस्कोपिक तकनीकों में और भी सुधार किए जा रहे हैं ।

इसके लिए ‘सर्फेस एन्हांस्ड’ रामन् स्पेक्ट्रोस्कोपी नामक तकनीक का विकास भी किया गया है । रामन स्पेक्ट्रोस्कोपी द्वारा 1.2-1.6 नैनोमीटर व्यास के कार्बन नैनो ट्‌यूबों का स्पेक्ट्रम प्राप्त करने में भी वैज्ञानिकों को सफलता मिली है ।

यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि टेराहर्ट्ज (दस खरब हर्टज) विकिरण के उपयोग द्वारा नए ही किस्म के संसूचकों का विकास हुआ है जिनकी मदद से शरीर में छिपे अर्बुदों या क्षय प्राप्त दांत के गड्‌ढों को अवलोकित कर पाना संभव होगा ।

इन संसूचकों में कांच के बने लेंसों की जगह फोटोनिक क्रिस्टलों का इस्तेमाल किया जाता है टेरा हर्टज विकिरण आधारित संसूचकों की मदद से आतंकियों पर नजर रखने के अलावा हवाई अड्‌डों पर यात्रियों के सामान की सुरक्षा जांच भी की जा सकती है ।

इस तरह विभिन्न सूक्ष्मदर्शियों, रामन स्पेक्ट्रोस्कोपी तथा टेरा हर्टज विकिरण आधारित संसूचकों की मदद से न केवल नैनो संसार में झांकने बल्कि अणुओं एवं परमाणुओं की उठा-धरी द्वारा नैनो संरचनाओं के सृजन में भी सफलता मिली है ।

हाल ही में नेशनल इंस्टीट्‌यूट ऑफ रटैंडर्ड्स एंड टेक्नोलॉजी (एनआईएसटी) के वैज्ञानिकों ने एक ऐसे सूक्ष्मदर्शी का आदिप्रारूप (प्रोटोटाइप) तैयार किया है जो न्यूट्रानों का इस्तेमाल करता है । अन्य सूक्ष्मदर्शियों की तुलना में न्यूट्रान माइक्रोस्कोप इस मामले में बेहतर सिद्ध होंगे क्योंकि इनकी मदद से खासकर जैव प्रतिदर्शों को और भी स्पष्ट रूप से प्रेक्षित कर पाना संभव होगा ।