पंचायती राज की समितियां | Committees of Panchayati Raj in Hindi!
भारत में ‘पंचायती राज’ ग्रामीण स्थानीय स्वशासन प्रणाली का सूचक है । भारत के सभी राज्यों में इसका गठन राज्य विधानमंडलों के अधिनियम द्वारा सबसे निचले स्तर पर जनतंत्र स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया था । इसे ग्रामीण विकास के क्षेत्र से सब और जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं ।
विधान के 73वें (संशोधन) अधिनियम 1992 के द्वारा इसे संवैधानिक दर्जा दिया गया है । केंद्र स्तर पर पंचायती राज निकायों से संबंधित मामलों की देख-रेख ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा की जाती है । भारतीय संघीय प्रणाली में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के बाँटवारे की योजना के अंतर्गत ‘स्थानीय शासन’ का विषय राज्यों को दिया गया है । इस प्रकार संविधान की सातवीं अनुसूची में वर्णित राज्य सूची में पाँचवी प्रविष्टि ‘स्थानीय शासन’ से संबंधित है ।
1. बलवंतराय मेहता समिति (Balwantray Mehta Committee):
सामुदायिक विकास कार्यक्रम (1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा (नेशनल एक्सटेंशन सर्विस 1953) की कार्यप्रणाली की जाँच करने और इन कार्यप्रणाली में सुधार लाने संबंधी उपाय के लिए जनवरी 1957 में भारत सरकार ने बलवंत रायजी मेहता की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की ।
ADVERTISEMENTS:
इस समिति ने अपनी रिपोर्ट नवंबर 1957 में प्रस्तुत की जिसमें ‘जनतांत्रिक विकेंद्रीकरण’ योजना स्थापित करने की सिफारिश की गई थी । इसे बाद में ‘पंचायती राज’ कहा जाने लगा था ।
समिति द्वारा की गई प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार है:
(i) तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की स्थापना अर्थात ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लाक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद । इन तीनों स्तरों को एक-दूसरे के साथ जोड़े रखने के लिए अप्रत्यक्ष चुनावों को माध्यम बनाया जाना चाहिए ।
(ii) ग्राम पंचायतों का गठन प्रत्यक्ष रूप से चुने गए प्रतिनिधियों को शामिल करके किया जाना चाहिए; जबकि पंचायत समिति और जिला परिषद का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए प्रतिनिधियों को शामिल करके किया जाना चाहिए ।
ADVERTISEMENTS:
(iii) इन निकायों को नियोजन और विकास से जुड़े सभी कार्य सौंपे जाने चाहिए ।
(iv) पंचायत समिति को कार्यकारी निकाय तथा जिला परिषद को परामर्शी समन्वयक और पर्यवेक्षी निकाय बनाया जाना चाहिए ।
(v) जिलाधीश को जिला परिषद का अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए ।
(vi) इन जनतांत्रिक निकायों को आवश्यक शक्तियाँ और जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए ।
ADVERTISEMENTS:
(vii) इनके कार्यों और जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए इन निकायों को पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए ।
(ix) इन्हें भविष्य में अधिक अधिकार दिए जाने के उपाय भी किए जाने चाहिए ।
समिति की ये सिफारिशें राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा जनवरी 1958 में स्वीकार कर ली गई थीं । परिषद ने एक अकेले अनन्य पैटर्न पर अड़े रहने के बजाय पैटर्न का निर्धारण स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार करने का कार्य राज्यों पर छोड़ दिया किंतु यह भी स्पष्ट कर दिया कि मूल सिद्धांत और व्यापक आधार पूरे देश में एक समान रहेंगे ।
सर्वप्रथम पंचायती राज प्रणाली राजस्थान राज्य में कायम हुई । तत्कालीन प्रधानमंत्री ने 2 अक्टूबर, 1959 को नागौर जिले में इसका उद्घाटन किया था । इसके बाद आंध्रप्रदेश में यह प्रणाली 1959 में ही अपनाई गई । बाद में अधिकांश राज्यों ने इस प्रणाली को अपना लिया ।
यद्यपि अधिकांश राज्यों ने पंचायती राज प्रणाली को वर्ष 1960 के मध्य तक अपना लिया था किंतु भिन्न-भिन्न राज्यों में स्तरों की संख्या समिति और परिषद की परस्पर स्थिति, उनके कार्यकाल, संरचना, कार्य तथा वित्तीय प्रबंध आदि की दृष्टि से समानता नहीं थी ।
उदाहरणार्थ- राजस्थान ने तीन स्तरीय प्रणाली अपनाई तो दूसरी ओर तमिलनाडु ने दो स्तरीय और पश्चिम बंगाल ने चार स्तरीय प्रणाली स्वीकार की । इसके अतिरिक्त राजस्थान-आंध्रप्रदेश पैटर्न में पंचायत समिति शक्तिशाली थी क्योंकि ब्लाक ही नियोजन और विकास कार्य से जुड़ी इकाई थी ।
महाराष्ट्र-गुजरात पैटर्न में जिला परिषद शक्तिशाली थी क्योंकि नियोजन और विकास कार्य से जुड़ी इकाई जिला ही था । कुछ राज्यों ने छोटे-छोटे दीवानी और आपराधिक मामलों को निपटाने के लिए न्याय पंचायत भी गठित की ।
2. अध्ययन दल और समितियाँ (Study Teams and Committees):
वर्ष 1960 से पंचायती राज्य प्रणाली की कार्यप्रणाली के विभिन्न पक्षों की जाँच के लिए कई अध्ययन दल समितियाँ और कार्यदलों का गठन हुआ ।
कालक्रम के अनुसार इनके नाम और कोष्ठक में अध्यक्ष के नाम नीचे दिए जा रहे हैं:
(i) 1960 – कमेटी ऑन रेशनलाइजेशन ऑफ पंचायत स्टेटिस्टिक्स (वी.आर.राव)
(ii) 1961 – वर्किंग ग्रुप ऑन पंचायत एंड कोआपरेटिव्स (एस.डी.मिश्रा)
(iii) 1961 – स्टडी टीम ऑन पंचायती राज एडमिनिस्ट्रेशन (वी. ईश्वरन)
(iv) 1962 – स्टडी टीम ऑन न्याय पंचायत्स (जी.आर.राजगोपाल)
(v) 1963 – स्टडी टीम ऑन पोजिशन ऑफ ग्रामसभा इन पंचायती राज मूवमंट (आर.आर.दिवाकर)
(vi) 1963 – स्टडी टीम ऑन बजटिंग एंड एकाउंटिंग प्रोसिजर ऑफ पंचायती राज इंस्टीट्यूशन (एम.राम.कृष्णैथ्या)
(vii) 1963 – स्टडी टीम ऑन पंचायती राज फाइनेंसेज (के. संथानम)
(viii) 1965 – कमेटी ऑन पंचायती राज इलेक्शन्स (के. संथानम)
(ix) 1965 – स्टडी टीम ऑन पंचायती ऑडिट एंड एकाउंट्स ऑफ पंचायती राज बॉडीज (आर.के.खन्ना)
(x) 1966 – कमेटी ऑन पंचायती राज ट्रेनिंग सेंटर्स (जी. रामचंद्रन)
(xi) 1969 – स्टर्डी टीम ऑन इन्वाल्वमेंट ऑफ डेवलपमेंट एजेंसी एंड पंचायती राज इंस्टीट्यूशन इन दि इम्पिलिमेंटेशन ऑफ बेसिक लैंड रिफॉर्म मेजर्स (वी.रामनाथन)
(xii) 1972 – वर्किंग ग्रुप फॉर फार्मुलेशन ऑफ फिफ्थ ईयर प्लान ऑन कम्यूनिटी डेवलपमेंट एंड पंचायती राज (एन.रामाकृष्णैथ्या)
(xiii) 1976 – कमेटी ऑन कम्यूइनटी डेवलपमेंट एंड पंचायती राज (श्रीमती दया चौबे)
3. अशोक मेहता समिति (Ashok Mehta Committee):
जनता पार्टी की सरकार ने दिसंबर 1977 में पंचायती राज संस्थाओं के संबंध में अशोक मेहता की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की । इस समिति ने अपनी रिपोर्ट अगस्त 1978 में दी थी तथा अपनी रिपोर्ट में पतनोन्मुख पंचायती राज प्रणाली के पुनरोद्धार और उसे सुदृढ़ता प्रदान करने से संबंधित 132 सिफारिशें की थीं ।
इनमें से प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं:
(i) तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली के स्थान पर दो स्तरीय प्रणाली होनी चाहिए अर्थात जिला स्तर पर जिला परिषद तथा इसके नीचे मंडल पंचायत जिसमें 15 हजार से 20 हजार की आबादी वाल गांवों को शामिल किया जाए ।
(ii) राज्य स्तर से नीचे जिले को बेहतर पर्यवेक्षण के तहत विक्रेंद्रीकरण का प्रथम बिंदु माना जाना चाहिए ।
(iii) जिला परिषद को कार्यकारी निकाय होना चाहिए तथा जिला स्तर के नियोजन के लिए जिले को ही जवाबदेह बनाया जाना चाहिए ।
(iv) पंचायत चुनावों में राजनीतिक दलों की आधिकारिक भागीदारी होनी चाहिए ।
(v) पंचायती राज संस्थाओं के पास कराधान संबंधी अनिवार्य शक्तियाँ होनी चाहिएँ ताकि ये अपने लिए वित्तीय संसाधनों को जुटा सकें ।
(vi) जिला स्तर की एजेंसी और विधायकों की समिति द्वारा पंचायती राज संस्थाओं के लेखा की लेखापरीक्षा नियमित रूप से सबके समक्ष की जानी चाहिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आबंटित धनराशियों को इन वर्ग के लोगों के लिए ही खर्च किया गया है या नहीं ।
(vii) राज्य सरकार को पंचायती राज संस्थाओं का अधिक्रमण नहीं करना चाहिए । यदि यह किया ही जाता है तो अधिक्रमण की तिथि से 6 माह के भीतर चुनाव कराने चाहिए ।
(viii) न्याय पंचायतों को पंचायती निकायों से अलग रखना चाहिए तथा इन न्याय पंचायतों की अध्यक्षता योग्य न्यायाधीश को करनी चाहिए ।
(ix) राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी को मुख्य चुनाव आयुक्त की सलाह से पंचायती राज चुनावों का आयोजन कराना चाहिए ।
(x) विकास से जुड़े कार्य जिला परिषदों को सौंप दिए जाने चाहिए और इन कार्यों से संबंधित कर्मचारियों को जिला परिषद के नियंत्रण और पर्यवेक्षण में कार्य करना चाहिए ।
(xi) पंचायती राज के लिए लोगों का समर्थन जुटाने में स्वयंसेवी एजेंसियों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए ।
(xii) राज्य की मंत्रिपरिषद में, पंचायती राज संस्थाओं के कार्यों की देखरेख के लिए पंचायती राज मंत्री भी नियुक्त होना चाहिए ।
(xiii) अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर सीटें आरक्षित होनी चाहिए ।
जनता पार्टी की सरकार समय से पहले गिर जाने के कारण अशोक मेहता समिति की सिफारिशों पर केंद्र स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं हो सकी थी, फिर भी अशोक मेहता समिति की सिफारिशों के आलोक में कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश-तीन राज्यों ने पंचायती राज प्रणाली को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए थे ।
4. जी.वी.के. राव समिति (G.V.K. Rao Committee):
योजना आयोग ने वर्ष 1985 में ‘ग्रामीण विकास और निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए प्रशासनिक प्रबंध’ विषय पर जी.वी.के. राव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की । समिति का मानना था कि विकास धीरे-धीरे प्रक्रिया का नौकरशाहीकरण है जिससे पंचायती राज प्रणाली के विकास में बाधा पड़ी है । प्रजातांत्रिकीकरण की बजाय विकासात्मक प्रशासन पर नौकरशाही की छाप पड़ने से पंचायती राज संस्थाएँ कमजोर हुई हैं तथा इनकी स्थिति ‘बिना जड़ की घास’ की हो गई हैं ।
पंचायती राज प्रणाली को सुदृढ़ता प्रदान करने की दृष्टि से इस समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें की थीं:
(i) प्रजातांत्रिक विक्रेंद्रीकरण प्रक्रिया में जिला परिषदों की भूमिका प्रमुख होनी चाहिए । समिति का मानना था कि ”नियोजन और विकास से जुड़े कार्यों के लिए जिला एक उपयुक्त इकाई है तथा जिन विकास कार्यक्रमों को जिला स्तर पर किया जा सकता है उन तमाम विकास कार्यक्रमों के प्रबंधन का प्रधान निकाय जिला परिषद होना चाहिए ।”
(ii) जिला और निचले स्तर पर पंचायती राज संस्थानों को ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की देखरेख, कार्यान्वयन और नियोजन के संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका दी जानी चाहिए ।
(iii) राज्य स्तर के नियोजन के कुछ कार्यों को प्रभावी विकेंद्रीकृत जिला नियोजन के लिए जिला स्तर की नियोजन इकाइयों को सौंप दिया जाना चाहिए ।
(iv) जिला विकास आयुक्त का पद सृजित होना चाहिए जिसे जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और जिला स्तर पर विकास कार्य से जुड़े सभी विभागों का प्रभारी बनाया जाना चाहिए ।
(v) पंचायती राज संस्थानों के लिए नियमित चुनाव होने चाहिए । समिति ने पाया था कि एक या एक से अधिक चरण के चुनाव 11 राज्यों में कराए जाने शेष थे ।
इस प्रकार समिति ने फील्ड प्रशासन की विकेंद्रीकृत प्रणाली की अपनी योजना के अंतर्गत स्थानीय नियोजन और विकास कार्य में पंचायती राज को अग्रणी भूमिका प्रदान की । इस संदर्भ में जी. वी.के.राव समिति की रिपोर्ट (1986), ब्लाक स्तर के नियोजन से संबंधित दांतवाला समिति की रिपोर्ट (1978) से तथा जिला स्तर के नियोजन से संबंधित हनुमंतराव समिति की रिपोर्ट (1984) से भिन्न है ।
दोनों समितियों ने सुझाव दिया था कि मूलभूत विकेंद्रीकृत नियोजन का कार्य जिला स्तर पर किया जाना चाहिए । हनुमंतराव समिति ने मंत्री अथवा जिलाधीश के नियंत्रण में पृथक जिला नियोजन निकायों की वकालत की थी । दोनों मॉडलों में विकेंद्रीकृत नियोजन में जिलाधीश को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए, हाँलाकि समिति ने यह भी कहा था कि पंचायती राज संस्थाओं को भी विकेंद्रीकृत नियोजन की इस प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए ।
समिति ने सिफारिश की थी कि जिलाधीश को जिला स्तर पर विकास और नियोजन से जुड़ी सभी गतिविधियों के मध्य समन्वय स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार इस संदर्भ में हनुमतराव समिति की सिफारिशें बलवंतराय मेहता समिति भारतीय प्रशासनिक सुधार आयोग अशोक मेहता समिति और अंततः जी.वी.के.राव समिति की सिफारिशों से भिन्न हैं क्योंकि इन समितियों ने जिलाधीश की विकास कार्यों से जुड़ी भूमिका में कमी लाने और विकासात्मक प्रशासन में पंचायती राज को बड़ी भूमिका सौंपी जाने की सिफारिश की थी ।
5. एल.एम. सिंधवी समिति (L.M. Singhvi Committee):
राजीव गांधी सरकार ने वर्ष 1986 में रीवाइटलाइजेशन आफ पचायती राज इंस्टीट्यूशन फॉर डेमोक्रेसी एंड डेवलपमेंट विषय पर एक समिति एल.एम.सिंघवी की अध्यक्षता में गठित की थी ।
इस समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें कीं:
(i) पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता और सुरक्षा मिलनी चाहिए उन्हें बनाए रखना चाहिए और इसके लिए संविधान में एक नया अध्याय जोड़ा जाना चाहिए । इससे पंचायती राज संस्थाओं की पहचान और अखंडता को यथोचित और काफी हद तक बनाए रखा जा सकेगा । समिति ने यह भी सुझाव दिया कि पंचायती राज निकायों के नियमित स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए संविधान में प्रावधान भी किए जाने चाहिए ।
(ii) कई ग्राम समूहों के लिए न्याय पंचायतें स्थापित की जानी चाहिए ।
(iii) ग्राम पंचायतों को अधिक व्यवहार्य बनाने के लिए गाँवों को पुनगर्ठित किया जाना चाहिए । समिति ने ग्राम सभा के महत्व पर भी बल दिया तथा इसे प्रत्यक्ष जनतंत्र का प्रतीक बताया था ।
(iv) ग्राम पंचायतों के पास अधिक वित्तीय संसाधन होने चाहिए ।
(v) पंचायती राज संस्थानों के चुनावों उन्हें भंग करने और उनकी कार्यप्रणाली से जुड़े विवादों के न्यायिक समाधान के लिए प्रत्येक राज्य में न्यायिक अधिकरणों की स्थापना की जानी चाहिए ।
6. संविधानीकरण (Constitutionalisation):
a. 64वाँ संशोधन विधेयक:
एल.एम.सिंघवी समिति की उक्त सिफारिशों की प्रतिक्रियास्वरूप राजीव गांधी की सरकार जुलाई 1989 में लोकसभा में 64वाँ संविधान (संशोधन) विधेयक लाई ताकि पंचायती राज संस्थानों को अधिक शक्तियों और आधार प्रदान किया जा सके और उन्हें संवैधानिक दर्जा दिया जा सके ।
यद्यपि लोकसभा ने इस विधेयक को अगस्त 1989 में पारित कर दिया था किंतु राज्यसभा ने इसे अनुमोदित नहीं किया था क्योंकि विपक्ष ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि इससे संघीय प्रणाली के केंद्रीयकरण को बढ़ावा मिलेगा ।
b. वी.पी.सिंह सरकार:
नवंबर 1989 में प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने सत्ता संभालते ही घोषणा की कि वह पंचायती राज संस्थाओं को सुदृढ़ता प्रदान करने की दिशा में कदम उठाएगी । पंचायती राज संस्थाओं को सुदृढ़ता प्रदान करने संबंधी मुद्दों पर चर्चा के लिए वी.पी.सिंह की अध्यक्षता में मुख्यमंत्रियों का दो-दिवसीय सम्मेलन जून 1990 में हुआ ।
इस सम्मेलन में नए सिरे से संविधान संशोधन विधेयक लाने के प्रस्ताव के प्रति सहमति बनी । फलस्वरूप सितंबर 1990 में संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत हुआ था किंतु सरकार गिरने के कारण विधेयक भी कहीं का नहीं रहा ।
c. नरसिम्हा राव सरकार:
पी.वी. नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व में कांग्रेस सरकार ने भी पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने के मुद्दे पर विचार किया । इस सरकार ने प्रस्तावों में संशोधन कर विवादास्पद मुद्दों को हटा दिया । अंततः इस सरकार ने सितंबर 1991 में संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया । यह विधेयक लोकसभा में 22 दिसंबर, 1991 को और राज्यसभा में 23 दिसंबर, 1992 को पारित हुआ था ।
बाद में इसे 17 राज्यों की विधानसभाओं ने अनुमोदित किया और इस पर राष्ट्रपति ने अपनी सहमति 20 अप्रैल, 1993 को दी । इस प्रकार इस विधेयक ने संविधान के 73वें (संशोधन) अधिनियम 1992 का रूप ले लिया और 24 अप्रैल 1993 से अधिनियमित और प्रभावी हो गया ।
d. 73वां संशोधन अधिनियम 1992 (73rd Amendment Act of 1992):
इस अधिनियम द्वारा भारतीय संविधान में भाग IX को जोड़ दिया गया जिसका शीर्षक ‘पंचायत’ रखा गया । इसमें अनुच्छेद 243 से लेकर अनुच्छेद 243 ओ तक में कई प्रावधान किए गए हैं । इसके अतिरिक्त संविधान में ग्यारहवीं अनुसूची भी जोड़ी गई है। इसमें पंचायतों के कार्य हेतु 29 मद हैं और अनुच्छेद 243 जी से संबंधित हैं ।
इस अधिनियम ने संविधान के अनुच्छेद 40 को व्यावहारिक रूप दिया । इस अनुच्छेद में उल्लेख है ”ग्राम पंचायतों को संगठित करने के लिए राज्य कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियाँ प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों ।” यह अनुच्छेद राज्य की नीति-निदेशक सिद्धांतों का एक अंग है ।
इस अधिनियम द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा मिला । पंचायती राज संस्थाएँ संविधान के अधिकार क्षेत्र में आई अर्थात राज्य सरकारें नई पंचायती राज प्रणाली को अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार अपनाने के लिए संवैधानिक तौर पर बाध्य हुई । फलस्वरूप, पंचायतों का गठन और नियमित अंतराल पर चुनावों का आयोजन अब राज्य सरकारों की इच्छा पर निर्भर नहीं रहा है ।
इस अधिनियम के प्रावधानों को दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं- अनिवार्य और स्वैच्छिक । अधिनियम के अनिवार्य प्रावधानों को उन राज्यों के कानून में शामिल किया जाना होगा जो नई पंचायती राज प्रणाली का गठन कर रहे हों ।
दूसरी ओर स्वैच्छिक प्रावधानों को कानून में राज्य के विवेकानुसार शामिल किया जाना होगा । इस प्रकार स्वैच्छिक प्रावधानों के तहत नई पंचायती राज प्रणाली अपनाते समय राज्य को यह अधिकार होगा कि वह स्थानीय तत्वों जैसे भौगोलिक, राजनीतिक, प्रशासनिक और अन्य तथ्यों का ध्यान रखे और उन पर विचार कर अपने विवेक से कानून में उन्हें स्थान दे ।
दूसरे शब्दों में, इस अधिनियम से भारतीय संघीय प्रणाली में केंद्र और राज्यों के मध्य संवैधानिक संतुलन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । यद्यपि यह राज्य के विषय से संबंधित केंद्रीय कानून है (जैसा कि स्थानीय सरकार को संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्य सूची में शामिल किया गया है) फिर भी यह अधिनियम उन राज्यों के अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन नहीं करता है जिन्हें पंचायत के संबंध में पर्याप्त विवेकाधीन शक्तियों दी गई हैं ।
यह अधिनियम देश में सबसे निचले स्तर की जनतांत्रिक संस्थाओं के क्रमिक विकास की दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि का द्योतक है । इसके फलस्वरूप प्रतिनिधिपरक जनतंत्र का स्थान भागीदारिता पर आधारित जनतंत्र ने ले लिया । यह देश में सबसे निचले स्तर पर जनतंत्र निर्माण की क्रांतिकारी धारणा है ।
इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार हैं:
i. ग्रामसभा:
अधिनियम के तहत पंचायती राज प्रणाली के आधार के रूप में ग्रामसभा का प्रावधान है । ग्रामसभा एक निकाय है जिसके तहत पंचायत क्षेत्र में आने वाले गाँवों की मतदाना सूची में पंजीकृत व्यक्ति शामिल होते हैं । इस प्रकार ग्रामसभा गाँवों का संगठन है जिसमें किसी पंचायत क्षेत्र के सभी पंजीकृत मतदाता शामिल होते हैं ग्रामसभा राज्य के विधान द्वारा निर्धारित गाँव स्तर के सभी कार्यों का निष्पादन और शक्तियों का प्रयोग करती है ।
ii. तीन स्तरीय प्रणाली:
अधिनियम में प्रत्येक राज्य में तीन स्तरीय प्रणाली का प्रावधान है- अर्थात ग्राम मध्यवर्ती और जिला स्तर पर पंचायत प्रणाली ।
अधिनियम में इन सभी शब्दों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
(i) पंचायत का आशय है ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्वशासन की संस्था उसका नाम जो भी हो ।
(ii) ग्राम का आशय उस ग्राम से है जिसे राज्यपाल ने पंचायत के प्रयोजन से सार्वजनिक अधिसूचना में ग्राम या ग्राम समूह के रूप में शामिल किया है ।
(iii) मध्यवर्ती स्तर का आशय उस स्तर से है जिसे राज्यपाल ने सार्वजनिक अधिसूचना के द्वारा इस प्रयोजन से गांव और जिला स्तर के मध्य निर्धारित किया है ।
(iv) जिला का आशय राज्य के किसी जिले से है ।
इस प्रकार, इस अधिनियम के द्वारा देशभर में पंचायती राज की संरचना में एकरूपता बनाए रखी गई है । यह उल्लेखनीय है कि 20 लाख से कम की आबादी वाला राज्य मध्यवर्ती स्तर की पंचायत गठित नहीं कर सकता है ।
iii. अध्यक्ष और सदस्यों का चुनाव:
पंचायतों में ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर की पंचायतों के लिए सभी सदस्यों का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाएगा । मध्यवर्ती और जिला स्तर की पंचायतों के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष तौर पर पंचायतों के चुने हुए सदस्यों द्वारा किया जाएगा । इसके अतिरिक्त ग्राम पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव राज्य के विधान में निर्धारित विधि से किया जाएगा ।
iv. स्थानों (सीटों) का आरक्षण:
अधिनियम में यह प्रावधान भी है कि पंचायत क्षेत्र की कुल आबादी में अनुसूचित जाति की आबादी के अनुपात में प्रत्येक स्तर की पंचायत इन वर्गों के लिए स्थान आरक्षित रखेगी ।
इसके अतिरिक्त राज्य के विधान में ग्राम पंचायत या किसी स्तर की पंचायत के अध्यक्ष पद के आरक्षण का प्रावधान भी होगा:
अधिनियम में किसी पंचायत में स्थानों की कुल संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए (अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित स्थान सहित) आरक्षित रखने का भी प्रावधान है । इसी प्रकार प्रत्येक स्तर की पंचायतों में अध्यक्ष के कुल पदों/स्थानों की संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे । अधिनियम में यह प्रावधान भी किया गया है कि राज्य को किसी पंचायत में स्थानों को आरक्षित रखने या किसी स्तर की पंचायत में अध्यक्ष पद को पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित रखने का अधिकार प्राप्त होगा ।
v. पंचायतों का कार्यकाल:
अधिनियम में प्रत्येक स्तर की पंचायत के लिए पाँच वर्ष के कार्यकाल का प्रावधान है तथापि, कार्यकाल से पहले भी इसे भंग किया जा सकता है । पंचायत गठित करने के लिए नए चुनाव पंचायत के पाँच वर्ष के कार्यकाल की अवधि की समाप्ति से पहले अथवा पंचायत भंग होने की तिथि से 6 माह के अंदर करा लिए जाएँगे ।
vi. अयोग्यता:
किसी व्यक्ति को पंचायत का सदस्य बनने अथवा चुने जाने के अयोग्य माना जाएगा यदि (i) संबद्ध राज्य के विधानमंडल चुनाव के लिए उसी समय लागू किसी कानून के अंतर्गत उसे अयोग्य घोषित किया जाता है, या (ii) राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी कानून के अंतर्गत अयोग्य करार दिया जाता है ।
किसी व्यक्ति को पंचायत चुनाव के लिए इस आधार पर अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकता कि उसकी आयु 25 वर्ष से कम है बशर्ते कि उस व्यक्ति की आयु 21 वर्ष से कम न हो । इसके अतिरिक्त अयोग्यता संबंधी सभी विवाद निपटान हेतु राज्य विधानमंडल द्वारा निर्धारित प्राधिकरण को भेजे जाएँगे ।
vii. राज्य चुनाव आयोग:
पंचायतों के सभी चुनावों के आयोजन और मतदाता सूचियों की तैयारी कार्य की निगरानी उसके निर्देशन और नियंत्रण की शक्ति राज्य चुनाव आयोग में निहित होगी । राज्य चुनाव आयोग में राज्य चुनाव आयुक्त होगा जिसकी नियुक्ति राज्यपाल करेगा ।
उसकी सेवा-शर्तों और कार्यकाल का निर्धारण भी राज्यपाल द्वारा किया जाएगा । उसे उसके पद से ठीक उसी प्रकार नहीं हटाया जा सकेगा जैसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को नहीं हटाया जा सकता । उसकी सेवा शर्तों में उसकी नियुक्ति के बाद ऐसा कोई बदलाव भी नहीं किया जा सकेगा जिससे उसे (राज्य चुनाव आयुक्त को) कोई क्षति होती हो ।
viii. शक्तियों और कार्य:
राज्य के विधानमंडल द्वारा पंचायतों को ऐसी शक्तियाँ और अधिकार दिए जा सकते है जो स्वशासन की संस्था के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक हों । इसके अंतर्गत पंचायतों पर उनके स्तरानुसार उन शक्तियों और जिम्मेदारियों का भार भी डाला जा सकेगा जो (i) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय से जुड़ी योजनाओं की तैयारी के लिए आवश्यक हों, (ii) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय से जुड़ी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए उन्हें सौंपी जा सकती हों । इन शक्तियों और जिम्मेदारियों में ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध 29 मामलों से संबंधित शक्तियाँ और जिम्मेदारियाँ शामिल हैं ।
ix. वित्तीय प्रबंध:
राज्य का विधानमंडल:
(i) पंचायत को करों, पथकरों और शुल्कों को लगाने, संग्रहीत करने और उसे विनियोजित करने का अधिकार दे सकता है;
(ii) राज्य-सरकार द्वारा प्रभारित और संग्रहीत करों शुल्कों और पथकरों को पंचायत को सौंपा जा सकता है;
(iii) राज्य की समेकित निधि से पंचायतों को सहायता अनुदान का प्रावधान किया जा सकता है; और
(iv) पंचायतों की राशि को क्रेडिट करने के लिए कोष गठित करने का प्रावधान किया जा सकता है ।
x. विन आयोग:
राज्य का राज्यपाल पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए प्रति पाँच वर्ष पर वित्त आयोग का गठन करेगा ।
यह आयोग राज्यपाल से निम्नलिखित सिफारिशें करेगा:
(i) उन सिद्धांतों के बारे में जो:
(क) राज्य द्वारा प्रभारित करों, शुल्कों और पथकरों से प्राप्त शुद्ध राशि को राशि और पंचायतों के बीच वितरण से संबंधित हो,
(ख) पंचायतों को सौंपे जाने वाले करों, शुल्कों और पथकरों के निर्धारण से सम्बन्धित हो,
(ग) राज्य की समेकित निधि से पंचायतों को दी जाने वाली सहायता अनुदान से संबंधित हो ।
(ii) पंचायतों की वित्तीय स्थिति में सुधार लाने के लिए जरूरी उपायों से संबंधित ।
(iii) ऐसा कोई अन्य विषय जिसे राज्यपाल ने पंचायतों की वित्तीय स्थिति को बेहतर बनाने के लिए आयोग के सुपुर्द किया हो ।
राज्य के विधानमंडल ने इस आयोग की संरचना इसके सदस्यों के लिए अपेक्षित योग्यताओं और उनके चयन की पद्धति को ध्यान में रखते हुए की । राज्यपाल आयोग की सिफारिशों और उन पर की गई कार्यवाही की रिपोर्ट राज्य विधानमंडल के समक्ष प्रस्तुत करेगा ।
केंद्रीय वित्त आयुक्त भी राज्य में पंचायतों को संसाधनों की पूर्ति के लिए राज्य की समेकित निधि में वृद्धि करने हेतु आवश्यक उपाय सुझा सकेगा (ऐसा राज्य वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर किया जा सकेगा) ।
xi. लेखा और लेखापरीक्षा:
राज्य विधानमंडल पंचायतों के लेखा खातों के रख-रखाव और उनकी परीक्षा से संबंधित व्यवस्था कर सकता है ।
xii. केंद्रशासित क्षेत्रों में अधिनियम का लागू होना:
भारत का राष्ट्रपति यह निर्देश दे सकता है कि इस अधिनियम के प्रावधान किसी भी केद्रशासित क्षेत्र में उन अपवादों और संशोधनों के अधीन लागू होंगे जिनका वह उल्लेख करता है ।
xiii. राज्य और क्षेत्र जिनमें अधिनियम लागू नहीं होगा:
इस अधिनियम के प्रावधान जम्मू-कश्मीर, नागालैंड, मेघालय और मिजोरम राज्य में तथा कुछ अन्य क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे ।
इन क्षेत्रों में शामिल हैं:
(क) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244 में वर्णित अनुसूचित क्षेत्र और जनजातीय क्षेत्र;
(ख) मणिपुर राज्य का पहाड़ी क्षेत्र जिसके लिए जिला परिषद गठित है;
(ग) पश्चिम बंगाल जहाँ दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल गठित है ।
ix. विद्यमान कानुनों और पंचायतों का जारी रहना:
इस अधिनियम के लागू होने की तिथि से एक वर्ष तक पंचायतों से संबंधित राज्य के सभी कानून प्रभावी और लागू रहेंगे अर्थात राज्यों को 24 अप्रैल, 1993 के बाद एक वर्ष की अवधि के अंदर ही इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार नई पंचायती राज प्रणाली अपनानी होगी ।
इसके अतिरिक्त इस अधिनियम के लागू होने से पहले विद्यमान सभी पंचायतें अपने कार्यकाल की समाप्ति तक बनी रहेंगी बशर्ते कि उन्हें राज्य के विधानमंडल द्वारा भंग न किया जाए । फलस्वरूप, अधिकांश राज्यों ने पंचायती राज्य अधिनियम को वर्ष 1993 और 1994 में पारित कर दिया तथा संविधान के 73वें (संशोधन) अधिनियम 1992 के अनुसार नई प्रणाली को अपना लिया ।
x. ग्यारहवीं अनुसूची:
इस अनुसूची में पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में आने वाली निम्न 29 प्रकार की कार्यात्मक (Functional Items) हैं:
1. कृषि, कृषि संबंधी विस्तार सहित
2. भूमि सुधार, भूमि सुधार कार्यक्रमों का कार्यान्वयन, चकबंदी और भूमि संरक्षण
3. लघु सिंचाई, जल प्रबंध और वॉटरशेड डेवलपमेंट
4. पशुपालन, दुग्धव्यवसाय और मुर्गीपालन
5. मत्स्य पालन
6. सामाजिक वानिकी और कृषि वानिकी
7. लघु वन उत्पाद
8. लघु उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग सहित
9. खादी, ग्राम और कुटीर उद्योग
10. ग्रामीण आवास
11. पेय जल
12. ईधन और चारा
13. सड़क, पुलिया, सेतु, नावें, जल मार्ग और संचार के अन्य साधन
14. ग्रामीण विद्युतीकरण और विद्युत वितरण
15. अपारंपरिक ऊर्जा स्रोत
16. निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम
17. शिक्षा तथा प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय
18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा
19. वयस्क और अनौपचारिक शिक्षा
20. पुस्तकालय
21. सांस्कृतिक आयोजन
22. मेले और बाजार
23. स्वास्थ्य और साफ़-सफाई अस्पताल प्राथमिक स्वास्थ्य और औषधालय
24. परिवार कल्याण
25. महिला और बाल विकास
26. समाज कल्याण- विकलांगों और मानसिक रूप से विकलांगों के लिए
27. कमजोर वर्ग, विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का कल्याण
28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली
29. सामुदायिक परिसंपत्तियों का रख-रखाव
अनिवार्य और ऐच्छिक उपबंध:
अब हम संविधान के भाग-IX या 73वे क संशोधन अधि नियम (1992) के अनिवार्य या बाध्यकारी तथा ऐच्छिक या विवेकाधीन उपबंधों को पृथक रूप से परिचिन्हित करेंगे ।
क. अनिवार्य या बाध्यकारी प्रावधान:
1. एक ग्राम या ग्रामसमूह म ग्रामसभा का संगठन ।
2. ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तरों पर पंचायतों की स्थापना ।
3. ग्राम मध्यवर्ती और जिला स्तरों पर पंचायतों में सभी स्थानों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव ।
4. मध्यवर्ती और जिला स्तरों पर पचायतों के अध्यक्ष पद हेतु अप्रत्यक्ष चुनाव ।
5. पंचायतों में मतदान के लिए 2 वर्ष की न्यूननम आयु होना ।
6. सभी तीनों स्तरों पर पंचायतों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों (सदस्यों और अध्यक्ष दोनों) का आरक्षण ।
7. तीनों स्तरों पर पंचायतों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थानों (सदस्यों एवं अध्यक्षों दोनों का आरक्षण ।
8. सभी स्तरों पर पंचायतों के लिए पाँच वर्षों का निश्चित कार्यकाल तथा किसी भी पंचायत के भंग होने की स्थिति में 6 महीनों के भीतर ताजा चुनाव ।
9. पंचायतों के चुनाव संचालन हेतु एक राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना ।
10. पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए प्रत्येक 5 वर्षा के बाद राज्य वित्त आयोग का गठन ।
ख. ऐच्छिक प्रावधान:
1. संसद तथा राज्य विधानमंडलों के दोनों सदनों के सदस्यों को उनके निर्वाचन क्षेत्रों में आने वाली विभिन्न स्तरीय पंचायतों में प्रतिनिधित्व प्रदान करना ।
2. किसी भी स्तर पर पंचायतों में पिछड़ा वर्ग के लिए स्थानों का आरक्षण (सदस्य एवं अध्यक्ष दोनों के लिए) प्रदान करना ।
3. पंचायतों को शक्तियाँ एवं प्राधिकार प्रदान करना ताकि वे प्रशासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने में सक्षम हो सकें ।
4. पंचायतों को शक्तियों और उत्तरदायित्वों का अन्तरण करना ताकि वे आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएँ तैयार कर सकें और 11वीं अनुसूची में उल्लिखत 29 कार्यों में से सभी या कुछ कार्यों को निष्पादित कर सकें ।
5. पंचायतों को वित्तीय शक्तियों प्रदान करना अर्थात् उन्हें कर प्रशुल्क, चुंगी इत्यादि वसूलने और उद्गृहीत करने का प्राधि कार सौंपना ।