भारत में पंचायती राज व्यवस्था । Panchayati Raj System in India in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. भारत में पंचायती राज व्यवस्था का स्वरूप ।
3. ग्राम पंचायत ।
ADVERTISEMENTS:
4. जनपद पंचायत ।
5. जिला पंचायत ।
6. पंचायती राज व्यवस्था का महत्त्व ।
7. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
ADVERTISEMENTS:
प्राचीनकाल में पंचायतों का स्वरूप छोटे-छोटे प्रजातन्त्रों के स्वरूप में था, जिनका कर्तव्य जनता का कल्याण करना, उन्हें समस्त प्रकार की सुविधाएं देना, उनकी समस्याओं का निबटारा करना होता था । पंचायती राज भारत की एक अत्यन्त प्राचीन व्यवस्था और संस्था है । पंचायती राज व्यवस्था में प्रत्येक गांव की अपनी एक पंचायत होती थी । ग्राम पंचायत न्याय करती थुाई ।
गांव की सुरक्षा व्यवस्था, सफाई, शिक्षा, सड़क निर्माण, तालाब व कुएं बनवाना तथा गांववालों को अन्य प्रकार की सुविधाएं प्रदान करना उनके कार्य थे । वह धन एकत्र कर गरीबों को दान देकर आर्थिक सहायता करती थी ।
खेतों में उत्पन्न होने वाली उपज में से अंशदान लेकर वित्तीय व्यवस्था करती थी । इस प्रकार गांव की पंचायत सर्वथा एक स्वावलम्बी एवं अपने आप में पूर्ण स्वायत्तशासी होती थी । ब्रिटिश शासकों ने भी भारत में प्रचलित पंचायत व्यवस्था की बहुत प्रशंसा की, किन्तु ब्रिटिश शासकों के प्रभाव से इसका स्वरूप कमजोर पड़ गया था ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लोकतन्त्र के गठन के साथ ही देश तथा गांवों के समुचित विकास हेतु इसकी आवश्यकता महसूस की जाने लगी । शासन की विकेन्द्रित नीति के तहत गांव के समररा कार्य उत्तरदायित्व जनता को बांट दिये जायें, ताकि योजनाओं का कार्यान्वयन एवं प्रबन्ध व्यवस्था में जनता सहयोगी बन सके ।
ADVERTISEMENTS:
इस आशय की योजना हेतु गठित अशोक मेहता समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में गांव की जनता तक शासन की नीतियों के विकेन्द्रीकरण की अनिवार्य आवश्यकता पर बल दिया । गांधीजी का विचार था कि चूंकि भारत की 80 प्रतिशत जनता गांवों में निवास करती है, अत: यदि हमें भारत का विकास सही अर्थों में करना है, तो इसकी शुराआत भारत के गांवों से ही करनी होगी ।
2. पंचायती राज व्यवस्था का स्वरूप:
प्राचीनकाल में हमारे देश में राम-राज्य कायम था तथा गांवों में ग्राम पंचायत होती थी । पंच को परमेश्वर माना जाता था । पंचों की राय, पंचों का फैसला-इनके माध्यम से गांव के छोटे-बड़े सभी प्रकार के विवादों का निबटारा होता था ।
भारत में प्रचलित ग्राम पंचायतें न्यायिक व्यवस्था के अतिरिक्त सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था पर नियन्त्रण रखा करती थीं । किसी व्यक्ति का हुक्का-पानी बन्द कर देना, गांव से निकाल बाहर करना, फिर बिरादरी में रहने हेतु प्रायश्चित स्वरूप गांव को सामूहिक भोजन कराना आदि परम्पराए प्रचलित थीं ।
संवैधानिक राजतन्त्र तक जैसी प्रचलित परम्परा में राजा भी कोई कार्य अपने प्रतिनिधियों से पूछे बिना नहीं करते थे । अशोक मेहता समिति की रिपोर्ट के पश्चात् तथा सन 1993 में किये गये संविधान में संशोधन के कारण समस्त भारत में पंचायती राज व्यवस्था का स्वरूप निश्चित किया गया ।
संविधान के 72वें तथा वे संशोधन में शहरी एवं ग्रामीण स्तर पर सत्ता में जनता की सीधी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पंचायतों तथा शहरी निकायों में महिलाओं, पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को आरक्षण प्रदान किया गया तथा उन्हें स्थानीय स्तर पर संसाधन जुटाने व नियोजन के अधिकार दिये गये हैं ।
इस प्रकार गांव में ग्रामीण स्तर पर ग्राम पंचायत, फिर कुछ ग्रामों को मिलाकर एक पंचायत जनपद, विकासखण्ड स्तर पर पंचायत, तत्पश्चात् जिला स्तर पर जिला पंचायत व्यवस्था तथा उसकी चुनाव प्रक्रिया सम्बन्धी कार्यक्रम निश्चित कर दिये क्ये हैं ।
पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत इस तरह कुछ ग्राम पंचायतों को मिलाकर एक खण्ड या जनपद बना दिया गया है । जनपद के विकास के लिए जो समिति कार्य करती है, उसे खण्ड या जनपद पंचायत कहते
हैं ।
इस तरह ग्रामीण क्षेत्र में सामुदायिक विकास के लिए तीन पंचायतें काम करती हैं: ग्राम रत्तर पर ग्राम पंचायत, खण्ड स्तर पर जनपद पंचायत, जिला स्तर पर जिला पंचायत । इस तरह पंचायती राज व्यवस्था में तीन स्तरीय प्रणाली कार्य करती है ।
3. ग्राम पंचायत:
इसका मुख्य उद्देश्य ग्राम की उन्नति, जनकल्याणकारी कार्य, ग्रामवासियों को आत्मनिर्भर बनाना है, जो सार्वजनिक भूमि का प्रबन्ध, आय-व्यय का ब्यौरा रखती है । ग्राम पंचायत के सदस्य पंच का चुनाव 8 वर्ष के स्त्री-पुरुष करते हैं ।
प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक सरपंच, एक उपसरपंच होता है । निर्वाचित पंच, सरपंच और उपसरपंच का चुनाव करते हैं । सरपंच अनुसूचित जाति या जनजाति का न हो, तो उपसरपंच अनुसूचित जाति या जनजाति का होना जरूरी है ।
ग्राम पंचायत अपनी सुविधानुसार कई समितियों का गठन करती है । यदि सरपंच, उपसरपंच का कार्य असन्तोषजनक है, तो पंच उसके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव लाकर उसे हटा सकते हैं । सरपंच की अनुपस्थिति में उपसरपंच सरपंच का कार्य करता है ।
पंचायत का एक सचिव होता है, जो राज्य सरकार द्वारा नियुक्त होता है । वह पंचायत की बैठक व्यवस्था, आय-व्यय का लेखा रखता है । ग्राम पंचायतें आय के साधन के रूप में अपने गांव के लोगों से दुकानों, मेलों पर कर, मकानों पर कर, पशु क्रय-विक्रय पर कर, प्रकाश व सफाई पर कर लगाती है । ग्राम पंचायत को सरकार से भी अनुदान राशि प्राप्त होती है ।
ग्राम पंचायत के कार्य: प्रकाश व सफाई, नालियों, पुलियों, सड़कों कुओं, तालाब की व्यवस्था, पंचायतें विभिन्न विभागों के कर्मचारियों की शिकायतें अधिकारी से कर सकती हैं । वृक्षारोपण, अस्पतालों का प्रबन्ध इसके ऐच्छिक कार्य हैं । इस प्रकार ग्राम पंचायत पंचायती राज की महत्वपूर्ण कड़ी है ।
4. जनपद पंचायत:
इसे अलग-अलग राज्यों में विभिन्न नामों से जाना जाता है । यह ग्राम पंचायत एवं जिला पंचायत के बीच महत्त्वपूर्ण कड़ी है । जनपद पंचायत के सदस्यों का चुनाव स्वयं जनता नहीं करती । एक ब्लॉक के ग्राम पंचायत के सरपंच तथा उपसरपंच, पंच मिलकर सदस्यों का चुनाव करते हैं । राज्य की विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य भी ब्लॉक समिति के सदस्य होते हैं ।
प्रत्येक जनपद पंचायत में कम-से-कम दो महिलाएं तथा अनुसूचित और जनजातियों के उस ब्लॉक की मण्डी समिति, सहकारी बैंक, विपणन समितियों के प्रतिनिधियों का होना भी जरूरी है । जनपद पंचायत के सभी सदस्य मिलकर एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष का चुनाव करते हैं ।
जनपद पंचायत का अध्यक्ष उनके दैनिक कार्यो की देखभाल करता है । जनपद पंचायत के सदस्य अविश्वास के प्रस्ताव के द्वारा अध्यक्ष को हटा सकते हैं । अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष ही अध्यक्ष का कार्य संभालता है । इसके सदस्यों का चुनाव 5 वर्षो के लिए होता है ।
गांव के विकास हेतु कृषि विशेषज्ञ, शिक्षा विशेषज्ञ, पशु चिकित्सा विशेषज्ञ उस क्षेत्र के विकास हेतु कार्य करते हैं । किसानों को उत्तम बीज, खाद दिलवाना, शिक्षकों की व्यवस्था करना उनके कार्य हैं । जनपद कर लगाकर तथा सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त कर आय प्राप्त करती है । खण्ड विकास् अधिकारी ब्लॉक स्तर पर योजनाओं का क्रियान्वयन करवाता है ।
5. जिला पंचायत:
यह पंचायती राज व्यवस्था की तीसरी और सर्वोच्च श्रेणी है । भारत की स्वतन्त्रता से पहले जिला प्रशासन महत्त्वपूर्ण इकाई रहा है । इस स्तर पर स्थानीय प्रशासन में महत्त्वपूर्ण अधिकारी कलेक्टर, जिला न्यायाधीश इत्यादि काम करते हैं ।
जिले का मुख्य कार्यालय जनता का जाना-पहचाना स्थान होता है । छत्तीसगढ़ तथा मध्यप्रदेश में जिला पंचायत जिला स्तर पर बनाई गयी है । जिला पंचायत का संगठन जनपद जैसा ही है । जो व्यक्ति जनपद पंचायत के प्रमुख चुने जाते है, वे जिला पंचायत के सदस्य बन जाते हैं ।
एक जिले से जो व्यक्ति राज्य की विधानसभा तथा लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य चुने जाते हैं, वे भी जिला पंचायत के सदस्य होते हैं । इसमें स्त्रियों का प्रतिनिधित्व जनपद पंचायत की तरह ही होता है ।
जिला पंचायत की रचना और कार्यो के विषय में विभिन्न राज्यों में अलग-अलग कानून बनाये गये हैं । जिला पंचायत का प्रमुख कार्य ग्राम पंचायत और जनपद पंचायत के कार्यो की देखभाल करना है ।
वह इस विषय में राज्य सरकार को सलाह देती है । जिला पंचायत अपने जिले के लिए व्यापक योजना तैयार करती है । पंचवर्षीय योजनाओं के सम्पूर्ण कार्यो का क्रियान्वयन इसका कार्य है । इसके आय के साधन कर एवं अनुदान हैं ।
6. पंचायती राज व्यवस्था का महत्त्व:
पंचायती राज व्यवस्था लोकतान्त्रिक व्यवस्था का आधार स्तम्भ है, जिसमें दलित, महिला वर्ग के प्रतिनिधित्व मिलता है । इस विकेन्द्रीकृत व्यवस्था में गांव, ब्लॉक, जिले का सुव्यवस्थित विकास होता है ।
7. उपसंहार:
पंचायती राज व्यवस्था लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था की रीढ़ है । राज्य तथा केन्द्र सरकारें इसके माध्यम से विकास के हर कार्य को गति देती हैं । पंचायती राज व्यवरथा को दूषित राजनीति, भाई-भतीजावाद भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी से बचाना होगा; क्योंकि लोकतन्त्र की इस जनकल्याण पर आधारित स्वस्थ पंचायती राज का जितना विकास होगा, हमारा देश उतना ही समुन्नत एवं विकास के लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त कर
सकेगा ।