गरीबी पर अनुचेद्ध | Paragraph on Poverty in Hindi!
देश में गरीबी की समस्या में इस प्रकार वृद्धि हो रही है, कि आज देश का प्रत्येक तीसरा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहा है । महंगाई में वृद्धि होने के कारण हो सकता है कि प्रति व्यक्ति आय के आंकडो में कुछ वृद्धि हो जाये, परन्तु 55 वर्ष के योजनाबद्ध आर्थिक सुधारों एवं प्रयासों के बावजूद गरीबी घटने की बजाय इसमें वृद्धि हो रही है ।
सम् 1950 से 1990 की अवधि में यह 45 प्रतिशत से घटकर प्रतिशत हुई तथा 1993-94 में पुन: वृद्धि होकर 35 प्रतिशत हो गई । गरीबी का यह प्रतिशत वर्तमान में लगभग 37 प्रतिशत है । नबे के दशक में कृषि विकास की दर तो ऊँची रही किन्तु गरीबी की दर कम नहीं हुई क्योंकि इस अवधि में कृषि विकास श्रम प्रधान नहीं रहा । जिसके परिणामस्वरूप श्रम की मारा में वृद्धि नहीं हुई ।
कृषि क्षेत्र की उत्पादकता में कमजोर आधारभूत ढाँचे सब्सिडी पर अधिक व्यय नियंत्रित कृषि क्षेत्र एवं पर्यावरणीय कारणों से वृद्धि नहीं हुई । नबे के दशक के बाद आर्थिक उदारीकरण का लाभ कुछ राज्यों ने उठाया, किन्तु अधिकांश कमजोर राज्य अभी तक इन सुधारों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाये हैं ।
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इसी कारण न तो यहाँ सही अर्थों में विकास हो रहा है और न ही गरीबी कम हो रही है । गरीबी के शिकंजे में, फंसी देश की लगभग आधी जनसंख्या को गरीबी से मुक्ति दिलाने के लिए वर्तमान प्रयास ही पर्याप्त नहीं है । इन प्रयासों को जब तक युद्ध स्तर पर कार्यान्वित नहीं किया जायेगा इस गरीबी से निजात पाना मृगतृष्णा मात्र होगी ।
भारत में निर्धनता की समस्या जगजाहिर है । निर्धनता की यह समस्या जहाँ विभिन्न कारणों से है, वहीं यह स्वयं देश की अनेकानेक समस्याओं का कारण भी है । देश में निर्धनता की माप एवं इस समस्या के समाधान के लिए सरकारी तौर पर कुछ प्रयास स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ही किये गये, इसके अन्तर्गत निर्धनता की माप सम्बन्धी कड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के सर्वेक्षणों के आधार पर योजना आयोग द्वारा जारी किये गए ।
राष्ट्रीय न्यादर्श सर्वेक्षण संगठन के नवीनतम सर्वेक्षण (1999-2000) के आधार पर योजना आयोग द्वारा जारी ताजा आंकडो के अनुसार देश में निर्धनता अनुपात में विगत 8 वर्षों में 10 प्रतिशत की प्रभावपूर्ण कमी दर्ज की गई है । योजना आयोग द्वारा यह आकड़े फरवरी 2001 में जारी किये गये हैं, इन आकड़ों के अनुसार देश में सन् 1999-2000 में निर्धनता रेखा के नीचे रहने वाली जनसंख्या का प्रतिशत 26.10 था जबकि सन् 1993-94 में देश की 36 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे थी ।
ताजा आंकड़ों के अनुसार सन् 1999-2000 में ग्रामीण क्षेत्रों में 27.09 प्रतिशत एवं शहरी क्षेत्रों में 23.62 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे के निरपेक्ष संख्या की दृष्टि से कुल 26.02 करोड़ जनसंख्या सन् 1999-2000 में निर्धनता रेखा से नीचे थी, जिसमें 1932 करोड़ लोग ग्रामीण क्षेत्रों के व 6.70 करोड़ शहरी क्षेत्रों के थे ।
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उपर्युक्त आंकड़े प्रदर्शित करते हैं कि सन् 1993-94 के पूर्व के दो दशकों में देश में निर्धनता अनुपात में निरन्तर कमी के बावजूद निर्धनों की संख्या में कोई कमी इस अवधि में दर्ज नहीं हुई थी । देश में निर्धनता रेखा से नीचे निवास करने वाली जनसंख्या सन 1973-74 में 54.9 प्रतिशत से घटकर जहाँ सन 1983-84 में 44.5 प्रतिशत एवं सन 1993-94 में 36.0 प्रतिशत रह गई थी, वही निर्धनों की कुल संख्या जो सन 1973-74 में 32 करोड़ थी ।
सन 1999-2000 में देश में निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या जहाँ कुल जनसंख्या का 2010 प्रतिशत रह गई है, वहीं निर्धनों की कुल संख्या भी 32 करोड़ से घटकर सन् 1999-2000 में 26 करोड़ ही रह गई है ।
निर्धनता अपने आप में एक बड़ा अभिशाप तथा सभी बुराईयों की जड है । किसी भी समाज एवं सरकार के लिये निर्धनता एक कलंक है । हमें यह विदित है कि हमारे देश के लाखों लोग भुखमरी के कगार पर है तथा प्रतिदिन हजारों लोगों की मृत्यु कुपोषण तथा जीवन के लिये न्यूनतम आवश्यक सुविधाओं के अभाव के कारण हो रही है ।
निर्धनता से तंग आकर आत्महत्या करने अथवा स्वजनों की हत्या करके आत्महत्या करने की बातें समाचार पत्रों में प्राय पढ़ने को मिलती रहती है । ऐसी परिस्थिति में एक स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु तथा मानवीय मूल्यों के विकास एवं उनकी रक्षा के लिये निर्धनता निवारण का कार्य किया जाना नितान्त आवश्यक है ।
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भारत में निर्धनता सदियों की गुलामी का परिणाम है । प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों के होते हुए भी आज देश में निर्धनता ब्याज है तथा देश में प्रति व्यक्ति औसत आय प्राय सभी देशों के निवासियों से कम है । ब्रिटिश शासनकाल में उनकी शोषण नीति के परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था एकदम छिन्न-भिन्न हो चुकी थी ।
स्वतंत्रता के पश्चात, आर्थिक दृष्टि से हमें जो भी अंग्रेजों से उत्तराधिकार में मिला वह भी निर्धनता एवं विषमता थी । स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व तथा स्वतंत्रता प्राप्त करने के कुछ वर्षों पश्चात भारत में लोगों की गरीबी को देश के अल्प विकास से सम्बद्ध किया जाता था ।
अर्थशास्त्रियों की यह धारणा थी, कि आर्थिक विकास की प्रक्रिया में गरीबी का निवारण स्वतः होता रहेगा, क्योंकि विकास कार्यक्रमों के लाभ छन-छन कर गरीबों तक पहुँचते रहेंगे । लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पंचवर्षीय योजनाओं में गरीबी तथा अमारों के बीच खाई बढ़ती चली गई ।
आज गरीबी और विषमता अल्प विकसित देशों की प्रमुख आर्थिक समस्याऐं मानी जाती हैं । सन 1960 के दशक के अंतिम वर्षों में देश के शैक्षिक एवं राजनीतिक जगत में इन समस्याओं पर जोरदार चर्चायें प्रारंभ हुई और उनका सिलसिला आज भी चल रहा है ।
देश की पंचवर्षीय योजनाओं के संदर्भ में यह एक सामान्य अनुभव हुआ है, कि यद्यपि योजनाओं में ”कुल राष्ट्रीय उत्पादन” में वृद्धि हुई है तथा विकास कार्यक्रमों के लाभ गरीबों तक नहीं पहुँच सके हैं । सन् 1970 के दशक में हरित क्रान्ति से देश में कृषि क्षेत्र में उत्पादन तो बहुत बढ़ा लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में हरित क्रान्ति में मुख्यत: बड़े किसान लाभान्वित हुए हैं ओर विषमता में वृद्धि हुई है । अतः गरीबी और विषमता के निवारण की दृष्टि से योजनाओं को विफल कहा जाता है ।
देश में गरीबी के संबंध में सर्वश्री वी.एम. दान्डेकर तथा नीलकाल रथ ने एक अध्ययन प्रस्तुत करके लोगों का ध्यान इस बात की ओर अधिक आकर्षित किया कि भारतीय नियोजन इस दृष्टि से दोषपूर्ण रहा हे, कि देश की एक बड़ी जनसंख्या गरीबी की मार से प्रभावित है । इस सम्बन्ध में एक विचारणीय बात यह है कि देश में निर्धनता की समस्या मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की निर्धनता से सम्बद्ध है ।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में प्रस्तुत योजना आयोग के इन आंकड़ो में बताया गया है कि इस योजना के अन्त में सर्वाधिक निर्धनता अनुपात अविभाजित बिहार में होगा । सन् 1999-2,000 में उडीसा में सर्वाधिक 47.15 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे थी, जबकि अविभाजित बिहार में यह 42.6 प्रतिशत थी ।
योजना के लक्ष्य प्राप्त होने की स्थिति में उडीसा में निर्धनता अनुपात 47.15 प्रतिशत से घटकर जहाँ 41.04 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है । वहीं अविभाजित बिहार में यह 42.6 प्रतिशत से बढ़कर 43.18 प्रतिशत होना संभावित है, गुजरात, हरियाणा व पंजाब में निर्धनता रेखा से नीचे की जनसंख्या 2 प्रतिशत ही रह जाने की सम्भावना प्रारूप में व्यक्त की गयी है ।
भारत में निर्धनता की समस्या जगजाहिर है । निर्धनता की यह समस्या जहाँ विभिन्न कारणों से है । वहीं यह स्वयं देश की अनेकानेक समस्याओं का कारण भी है । देश में निर्धनता की माप व इस समस्या के समाधान के लिये सरकारी तौर पर प्रयास स्वतंत्रता के पश्चात ही किये गये हैं । इनके तहत निर्धनता की माप सम्बन्धी आकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के सर्वेक्षणों के आधार पर योजना आयोग द्वारा जारी किए जाते रहे हैं ।
इस संबंध में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा ताजा सर्वेक्षण जुलाई, 1999 से जून, 2000 के मध्य सम्पन्न किया गया था । जबकि उससे पूर्व ऐसा सर्वेक्षण जुलाई 1993-94 में सम्पन्न हुआ था । 1999-2000 के इस ताजा सर्वेक्षण से पूर्व यह आमतौर पर कहा जा रहा था, कि उदारीकरण निजीकरण व भूमण्डलीकरण की नीतियों के चलते देश में निर्धनों की संख्या में वृद्धि हुई है, किन्तु सर्वेक्षण के परिणामों ने इस आशंका को निर्मूल करार दिया है ।
क्षेत्रीय दृष्टि से भारत में शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता का प्रकोप यद्यपि अधिक बना रहा है वहीं राज्यों में उडीसा एवं उत्तरप्रदेश निर्धनता के मामले में अग्रणी राज्य है । योजना आयोग के ताजा आंकडों में 1999-2000 में देश में निर्धनों की सर्वाधिक संख्या उत्तरप्रदेश में थी, किन्तु कुल जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में सर्वाधिक 47.14 प्रतिशत जनसंख्या उड़ीसा में निर्धनता रेखा से नीचे थी निर्धनता अनुपात के मामले में दूसरा व तीसरा स्थान क्रमशः बिहार व मध्यप्रदेश का रहा है योजना आयोग के ताजा आंकड़ों में 1999-2000 में बिहार में 42.60 प्रतिशत व मध्यप्रदेश में 37.43 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे बताई गई है, 36.55 प्रतिशत निर्धनों के साथ सिक्किम तथा 34.44 प्रतिशत निर्धनों के साथ त्रिपुरा का स्थान इनसे आगे हैं ।
निर्धनता की कुल संख्या के मामले में उत्तर प्रदेश (5.3 करोड़) के बाद बिहार एवं मध्यप्रदेश क्रमशः दूसरे व तीसरे स्थान पर है । ताजा आंकडों में 1999-2000 में बिहार में निर्धनों की कुल संख्या 4.3 करोड़ तथा मध्यप्रदेश में यह 3 करोड़ बताई गई है । इस मामले में आगे क्रमशः महाराष्ट्र (2.2 करोड़), प. बंगाल (2.1 करोड़), उड़ीसा (1.7 करोड़) तथा आन्ध्रप्रदेश (1.2 करोड़) का स्थान है ।
जम्मू कश्मीर में निर्धनों की कुल संख्या केवल 3.46 लाख तथा हिमाचल प्रदेश में यह 5.12 लाख ही बताई गई है । उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मध्यप्रदेश में निर्धनों की संख्या एवं निर्धनता अनुपात के उपर्युक्त आंकड़े तीन नए राज्यों- उताराचल, झारखण्ड व छत्तीसगढ़ के गठन के पूर्व के हैं ।
वास्तव में निर्धनता के दुष्चक्रों के द्वारा इस बात को स्पष्ट किया गया है कि निर्धनता का कारक भी निर्धनता है तथा निर्धनता का परिणाम भी निर्धनता है । निर्धनता को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है कि कोई देश इसलिये गरीब रहता है क्योंकि वह गरीब है अर्थाथ निर्धनता का करण और परिणाम स्वयं निर्धनता ही है । अतः निर्धनता के दुष्चक्र से आशय ऐसे चक्र से होता है जो निर्धनता से शुरू होता है तथा जिसका अन्त भी निर्धनता के रूप में होता है ।