सूखे पर अनुच्छेद | Paragraph on Drought in Hindi language!

विभिन्न विद्वानों ने सूखे की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं । सामान्यतः सूखा मौसम की ऐसी परिस्थिति है, जिसमें काफी समय तक वर्षा न हों तथा जल अभाव का कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े फसल सूख जाएँ तथा चारे के अभाव में पशु-धन की हानि हो ।

भारत के मौसम विभाग के अनुसार यदि लगातार कम-से-कम 22 दिन तक किसी भी दिन 0.2 मिलीमीटर वर्षा न हो तो उसको सूखे अथवा अनावृष्टि का वर्ष कहा जाता है । यह परिभाषा पूरे भारत पर लागू नहीं हैं ।

सामान्यतः जिन भारत के प्रदेशों/क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 20 से 60 से॰ मीटर तक होती उनको चिरकालिक सूखाग्रस्त क्षेत्र माना जाता है । संक्षिप्त में जिन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 60 से॰ मी॰ से कम वर्षा होती है तथा वर्षा की विविधता 20 प्रतिशत से अधिक हो वे और सिचाई के साधन न हो तो उनको सूखा पीड़ित क्षेत्रों में शामिल किया जाता है ।

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भारत के अधिकतर भाग में वर्षा की विविधता 20 प्रतिशत है, इसलिए लगभग देश के 50 प्रतिशत भाग में सूखा पड़ने की संभावना बनी रहती है । भारत सरकार के कृषि विभाग के अनुसार यदि किसी क्षेत्र अथवा प्रदेश में वार्षिक वर्षा 75 प्रतिशत से कम हो तो वह लख का वर्ष घोषित किया जाता है ।

मौसम विभाग के विशेषज्ञों ने सूखे अथवा अनावृष्टि को निम्न वर्गों में विभाजित किया है:

1. मेटरोलॉजिकल अथवा मौसमी सूखा (Meteorological Drought):

यदि लंबे समय तक वर्षा न हो फसलें न बोई जा सके या सूख जाये तो उसको मौसमी सूखा कहते हैं ।

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2. कृषि-सूखा (Agricultural Drought):

इस प्रकार के सूखे को मृदा सूखा भी कहते हैं । इस प्रकार के सूखे में मृदा की नमी इतनी कम हो जाती है एवं सूख जाती है कि उसमें फसलें नहीं उगाई जा सकती ।

3. हाइड्रोलोजिकल सूखा (Hydrological Drought):

इस प्रकार के सूखे में झीलों, पोखर, तालाबों आदि का पानी सूख जाता है तथा जलाशयों के पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

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4. पारिस्थितिकी सूखा (Ecological Drought):

जब किसी पारितंत्र की उत्पादकता घट जाये तो उसे पारिस्थितिकी सूखा कहते है । भारत में प्रायः पाँच वर्षों एक वर्ष सूखे का माना जाता है । पश्चिम राजस्थान में (थार मरुस्थल) में सूखे की बारंबारता अधिक है और वहाँ प्रत्येक तीन वर्षों में एक वर्ष सूखे का माना जाता है । यूँ तो भारत के 50 प्रतिशत बारानी क्षेत्र पर सूखा पड़ने की संभावना बनी रहती है, फिर भी कुछ विशेष भागों में सूखे की बारंबारता अधिक है ।

भारत के सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों का संक्षिप्त वर्णन निम्न में प्रस्तुत किया गया है:

(i) राजस्थान का शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश:

इस सूखा-संवेदनशील प्रदेश में राजस्थान, गुजरात तथा हरियाणा के दक्षिणी पश्चिमी भाग सम्मिलित हैं । उत्तर प्रदेश के आगरा और मथुरा जिले तथा दक्षिणी पश्चिमी पंजाब का कुछ भाग भी इसमें आता है । इस शुष्क प्रदेश में वर्षा की मात्रा कम एवं अनियमित ।

फलस्वरूप सूखा पड़ने की संभावना बनी रहती है । इंदिरा गाँधी नहर के खोदने से इस शुष्क क्षेत्र के लोगों तथा पशु-पक्षियों को राहत मिली है ।

(ii) पश्चिमी घाट का वर्षा रहित ढलान (Rain Shadow Areas of Western Ghats):

पश्चिमी घाट के पूर्व की ओर फैला प्रदेश जो वृष्टि-छाया है उसमें भी प्रायः सूखा पडता है । इस प्रदेश में महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश तथा कर्नाटक के कुछ भाग सम्मिलित हैं । इस प्रदेश में औसत वार्षिक वर्षा 60 से॰मी॰ से कम तथा वर्षा की विविधता 30 से 40 प्रतिशत है ।

(iii) अन्य सूखाग्रस्त क्षेत्र (Other Drought Prone Areas):

भारत में बहुत-से छोटे-बड़े बिखरे हुये क्षेत्र है जिनमें प्रायः सूखे की परिस्थिति उत्पन्न होती रहती है । इनमें ओडिशा का काला हाडी उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड, मध्य प्रदेश का बघेलखंड, पश्चिम बंगाल का पुरूलिया एवं बांकुरा जनपद, तमिल नाडु का कोयंबटूर, मदुरई एवं तिरूनेलवलि जनपद सम्मिलित हैं । लद्दाख, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड के हिमालय पार के क्षेत्रों में भी सूखा पड़ता रहता है ।

मध्यकालीन भारत में सूखे की बारंबारता आज की तुलना में अधिक थी, क्योंकि उस समय के परिवहन के साधन कम थे ।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम तथा 21वीं शताब्दी के कुछ भयानक सूखे निम्न प्रकार हैं:

महाराष्ट्र में 1965-66 का सूखा, बिहार में 1966-67 का सूखा वर्ष 1996-97 का कालाहांडी (ओडिशा) का सूखा तथा वर्ष 2014 में उत्तरी पश्चिमी भारत तथा मध्य भारत महाराष्ट्र, गुजरात का सूखा उल्लेखनीय है । वर्ष 2009 के सूखे ने भी देश के बहुत बडे भाग पर प्रतिकूल प्रभाव डाला था । 2013 तथा 2014 के सूखे की मार सहन न करने तथा साहूकारों के कर्ज के बोझ में बहुत-से किसानों ने दबाव और घबराहट में आत्महत्याएँ की हैं ।

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