पालीओलिथिक युग पर अनुच्छेद | Paragraph on the Paleolithic Age in Hindi
भारतीय पुरापाषाण युग को, मानव द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पत्थर के औजारों के स्वरूप और जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर, तीन अवस्थाओं में बाँटा जाता है । पहली को आरंभिक या निज पुरापाषाण युग, दूसरी को मध्य पुरापाषाण युग और तीसरी को ऊपरी पुरापाषाण का कहते हैं ।
लेकिन जब तक महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान से मिले शिल्प सामग्रियों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं मिल जाती, तब तक मोटे तौर पर पहली अवस्था को 600,000 ई॰ पू॰ और 150,000 ई॰ पू॰ के बीच; दूसरी अवस्था को 150,000 ई॰ पू॰ और 35,000 ई॰ पू॰ के बीच; और तीसरी को 35,000 ई॰ पू॰ और 10,000 ई॰ पू॰ के बीच रख सकते हैं, पर 40,000 ई॰ पू॰ और 15,000 ई॰ पू॰ के बीच दकन के पठार में मध्य पुरापाषाणयुग तथा ऊपरी पुरापाषाण युग दोनों के औजार मिलते हैं ।
अधिकांश आरंभिक पुरापाषाण युग हिमयुग में गुजरा है । अफ्रीका में आरंभिक पुरापाषाण युग संभवत: लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ । लेकिन भारत में आरंभिक पुरापाषाण युग 6 लाख वर्ष से अधिक पुराना नहीं है ।
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यह तिथि महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान को दिया गया है जो भारत में किसी भी आरंभिक पुरापाषाण स्थल के लिए प्राचीनतम तिथि है । यहाँ के लोग कुल्हाड़ी या हस्तकुठार (हैंड-एक्स), विदारणी (क्लीवर) और खंडक (चोपर) का उपयोग करते थे । भारत में पाई गई कुल्हाड़ी काफी हद तक वैसी ही है जैसी पश्चिम एशिया, यूरोप और अफ्रीका में मिली है । पत्थर के औजार से मुख्यत: काटने, खोदने और छीलने का काम लिया जाता था । आरंभिक पुरापाषाण युग के स्थल अब पाकिस्तान में पड़ी पंजाब की सोअन या सोहन नदी की घाटी में पाए जाते हैं । कई स्थल कश्मीर और थार मरुभूमि में मिले हैं ।
आरंभिक पुरापाषाणकालीन औजार उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में बेलन घाटी में भी पाए गए हैं । जो औजार राजस्थान की मरुभूमि के दिदवाना क्षेत्र में, बेलन और नर्मदा की घाटियों में तथा मध्य प्रदेश के भोपाल के पास भीमबेटका की गुफाओं और शैलाश्रयों (चट्टानों से बने आश्रयों) में मिले हैं वे मोटा-मोटी 100,000 ई॰ पू॰ के है ।
शैलाश्रयों का उपयोग मानवों के ऋतुकालिक बसेरे के रूप में किया जाता होगा । हस्तकुठार द्वितीय हिमालयीय अंतर्हिमावर्तन (इंटरग्लेसिएशन) के समय के जमाव में मिले हैं । इस अवधि में जलवायु में नमी कम हो गई थी । मध्य पुरापाषाण युग में लोग मुख्यत: पत्थर की पपड़ी बनाते थे ।
ये पपड़ियाँ सारे भारत में पाई गई हैं और इनमें क्षेत्रीय अंतर भी पाए गए हैं । मुख्य औजार हैं पपड़ियों के बने विविध प्रकार के फलक, वेधनी, छेदनी और खुरचनी । मध्य पुरापाषाण स्थल जिस क्षेत्र में मिलते हैं मोटे तौर पर उसी क्षेत्र में प्रारंभिक पुरापाषाण स्थल भी पाए जाते हैं ।
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यहाँ हम एक प्रकार के सरल बाटिकाश्म उद्योग (पत्थर के गोलों से वस्तुओं का निर्माण) देखते हैं जो तृतीय हिमालयीय हिमावर्तन के समकाल में चलता है । इस युग की शिल्प-सामग्री नर्मदा नदी के किनारे-किनारे कई स्थानों पर और तुंगभद्रा नदी के दक्षिणवर्ती कई स्थानों पर भी पाई जाती है ।
भारत में ऊपरी पुरापाषाण काल के 566 स्थल पाए गए हैं । ऊपरी पुरापाषाणीय अवस्था में आर्द्रता कम थी । इस अवस्था में विस्तार हिमयुग की उस अवस्था में हुआ जब जलवायु अपेक्षाकृत गर्म हो गई थी ।
विश्वव्यापी संदर्भ में इसकी दो विशेषताएँ हैं-नए चकमक उद्योग की स्थापना और आधुनिक प्रारूप के मानव होमो सेपीयन्स का उदय । भारत में फलकों (ब्लेडस) और तक्षणियों ज्यूरिन्स का इस्तेमाल देखा जाता है, जो आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केंद्रीय मध्य प्रदेश दक्षिणी उत्तर प्रदेश बिहार के पठार में और उनके इर्द-गिर्द पाए गए हैं ।
मानवों के उपयोग के लायक ऊपरी पुरापाषाणीय गुफाएँ और शैलाश्रय भोपाल से दक्षिण में 40 किलोमीटर दूर भीमबेटका में मिले हैं । गुजरात के टिब्बों के ऊपरी तलों पर ऊपरी पुरापाषाणीय भंडार भी मिला है जिसकी विशेषता है शल्कों (flakes), फलकों (blades), तक्षणिओं (burins) और खुरचनियों (scrapers) का अपेक्षाकृत अधिक मात्रा । इस प्रकार देश के अनेकों पहाड़ी ढलानों और नदी घाटियों में पुरापाषाणीय स्थल पाए जाते हैं । किंतु सिंधु और गंगा के कछारी मैदानों में इनका पता नहीं है ।