मुझे स्वतंत्रता या मौत दें पर पैट्रिक हेनरी का भाषण । Speech of Patrick Henry on “Give Me Liberty or Death” in Hindi Language!
अमेरिका के क्रान्तिकारी नेता पैट्रिक हेनरी को उनके अभिव्यक्ति-कौशल और वक्तृत्व शैली के लिए हमेशा स्मरण किया जायेगा । उनके दिये ओजस्वी भाषणों को, जिनमें उनके हृदय के उद्गार उतनी ही प्रबलता के साथ व्यक्त होते थे आज भी बारम्बार पड़ा जाता है ।
सन 1775 में हेनरी ने अपना यह प्रेरक व्याख्यान वर्जीनिया के एक सम्मेलन में दिया था । जिन महान् व्यक्तियों ने इस सदन को अभी-अभी सम्बोधित किया है, उनकी देशभक्ति और क्षमता के बारे में मुझसे ज्यादा ऊंची राय कोई नहीं रखता । लेकिन विभिन्न लोग प्राय: एक ही विषय को विभिन्न नजरियों से देखते हैं ।
इसलिए मुझे उम्मीद है कि उन महान् व्यक्तियों से बिलकुल अलग चरित्र का होने के कारण यदि मैं पृथक् राय रखूँ, तो इसे उनकी अवमानना नहीं समझा जायेगा । मैं अपने मन के भावों को बिना किसी संकोच के व्यक्त करूंगा । यहां औपचारिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है ।
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इस मदन के सामने जो सवाल है, वह देश की अत्यन्त भयानक स्थिति से सम्बन्धित है । मैं अपनी ओर से इसे आजादी या गुलामी से डर का सवाल नहीं मानता । इस विषय की गुरुता के अनुरूप ही चर्चा की आजादी भी होनी चाहिए । केवल तभी इस सच तक पहुँच पायेंगे । तभी हम भगवान् और अपने देश के प्रति महान् उत्तरदायित्व को पूरा कर सकेंगे ।
क्या मुझे ऐसी घड़ी में अपने मशवरे को व्यक्त नहीं करना चाहिए-वह भी कुछ लोगों के बुरा मानने के भय से तब तो मैं खुद को अपने देश के प्रति द्रोह और उस ईश्वरीय सत्ता के प्रति विश्वासघात का अपराधी समझूंगा जिसे मैं धरती के सभी सम्राटों से ज्यादा सम्मान देता हूं । अध्यक्ष महोदय उम्मीद के भ्रम में रहना मनुष्य का स्वभाव है ।
हम किसी दु:खद सच से अपनी आंखें मूंद लेते हैं और उस मोहिनी जलपरी का संगीत सुनते रहते हैं जब तक कि वह हमे वन्य-पशु नहीं बना लेती । क्या आजादी के महान् और कठिन संघर्ष में लगे हुए विवेकशील लोगों की यही भूमिका है ? क्या हम उन लोगों में गिने जाने योग्य हैं, जो आखें होते हुए देखते नहीं कान होते हुए कुछ सुनते नहीं वे सब बातें जो उनकी भौतिक मुक्ति से इतना ज्यादा सम्बन्ध रखती हैं ।
जहां तक मेरा प्रश्न है, चाहे कितना आत्मिक दु:ख क्यों न हो मैं सारा सच जानना चाहता हूँ । चाहे बुरे-से-बुरा भी क्यों न हो मैं उसे जानना चाहता हूं और उससे विस्तार के लिए तैयार होना चाहता हूँ । मेरे पास अपने मार्गदर्शन के लिए एक ही दीपक है, वह ह मेरे अनुभव का दीपक । मैं अतीत के आधार के अलावा भविष्य को जानने का दूसरा कोई विकल्प नहीं जानता ।
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मैं जानना चाहता हूं कि पिछले दस सालों में ब्रिटिश मन्त्रालय के व्यवहार में ऐसा क्या था जो उन उम्मीदों को उचित ठहराये जिसके आधार पर ये महान् व्यक्ति खुद को और इस सदन को ढांढस बंधा रहे हैं । क्या यह वह छलिया मुसकराहट थी जिसके साथ हमारी हाल की याचिका को ग्रहण किया गया ? मान्यवर उस पर भरोसा न करें । वह आपके पांवों के लिए फंदा साबित होगी ।
किसी चुम्बन के धोखे में आकर दु:ख न भोगना । खुद से पूछिये कि किस प्रकार इस सदाशयता से ग्रहण की गयी हमारी याचिकाओं के साथ-साथ ही युद्ध करने जैसी तैयारियां भी की जाती हैं जो हमारी नदियों पर कब्जा करती हैं या हमारी धरती का उजाला छीन लेती हैं ।
क्या प्रेम और समाधान के कामों के लिए जंगी बेड़े और सेनाओं की जरूरत होती है ? क्या हमने समझौते के प्रति इतनी अनिच्छा व्यक्त की है कि हमारा प्रेम दोबारा प्राप्त करने के लिए बल का प्रयोग करना पड़े महान् व्यक्तियो हमें खुद को धोखा नहीं देना चाहिए । ये युद्ध और पराधीन बनाने के उपकरण हैं, वे अन्तिम तर्क जिनका सम्राट सहारा लिया करते हैं ।
मान्यवरो मैं पूछता हूं कि यदि हमें पराधीन बनाने का इरादा नहीं है, तो फिर इस सैनिक तैयारी का तात्पर्य क्या है ? क्या आप इसका कोई अन्य उद्देश्य बता सकते हैं ? क्या ब्रिटेन का संसार के इस कोने में कोई दुश्मन है, जिसके लिए इतनी नौसेना और थल सेना इकट्ठी करने की जरूरत पड़ी जी नहीं ऐसा कोई नहीं है । ये हमारे लिए है । ये किसी और के लिए हो ही नहीं सकती ।
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ये हम पर उन मृखलाओं को बांधने और मजबूत करने के लिए भेजी गयी हैं, जो ब्रिटिश मन्त्रालय लम्बे समय से गढ़ रहा था और इसका विरोध करने के लिए हमारे पास क्या है ? क्या हम तर्क आजमाएं ? मान्यवरो वह तो हम पिछले एक दशक से आजमा रहे हैं, क्या इस विषय में और कुछ कहने को हमारे पास कुछ शेष है ? कुछ भी तो नहीं ।
हमने इस विषय को प्रत्येक सम्भव आलोक में प्रस्तुत किया । लेकिन वह सब बेकार गया । क्या हम फिर से अनुनय-विनय करने का प्रयत्न करें ? इसके लिए हम कौन-सी शर्तें प्रस्तुत करें जो हम पहले प्रस्तुत नहीं कर चुके ? मान्यवरो मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि हम खुद को धोखा न दें ।
हमने उस तूफान को रोकने की हर मुमकिन कोशिश की जो अब आने वाला है । हमने याचिकाएं दीं हमने विरोध प्रकट किया हमने मिन्नतें कीं । हमने सिंहासन के सामने दण्डवत् किया और मन्त्रिमण्डल व संसद के अत्याचारी हाथों को नियन्त्रित करने के लिए उसके हस्तक्षेप की सम्भावना जानने का प्रयत्न किया ।
हमारी याचिकाओं को तुच्छ माना गया । हमारे विरोध का जवाब और ज्यादा हिंसा और अपमान से दिया गया । हमारी अनुनय-विनय की उपेक्षा की गयी । हमें सिंहासन के चरणों से नफरत के साथ ठोकरें मारी गयीं । इन सबके पश्चात् क्या हम शान्ति और समझौते की झूठी उम्मीद रख सकते हैं ? अब उम्मीद के लिए कोई जगह नहीं है ।
यदि हम आजाद होने की इच्छा रखते हैं, हम जिन विशेषाधिकारों के लिए लम्बी अवधि से संघर्ष कर रहे हैं, यदि हम उन्हें सुरक्षित और अक्षत रखना चाहते हैं, जिस पवित्र संघर्ष में हम लम्बे समय से संघर्षरत हैं, यदि हम नीचतापूर्वक उसे त्यागना नहीं चाहते और जिसके लिए हम प्रतिज्ञाबद्ध हैं कि जब तक अपने स्वर्णिम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेंगे इसे कभी छोड़ेंगे नहीं तो हमें युद्ध करना होगा ।
श्रीमान्, मैं दोहराता हूं हमें युद्ध करना होगा । अब हमारे पास शस्त्रास्त्रों की कामना और सैन्य-देवता से प्रार्थना का रास्ता ही बचा है । श्रीमान्, वे हमें बताते हैं कि हम बलहीन हैं, किसी शक्तिशाली दुश्मन का सामना करने की क्षमता हममें नहीं है ।
तो हम शक्तिशाली कब बनेंगे ? अगले सप्ताह या अगले वर्ष ? क्या तब जब हम पूरी तरह शस्त्रहीन कर दिये जायेंगे और प्रत्येक घर में एक ब्रिटिश रक्षक तैनात कर दिया जायेगा ? क्या हम प्रस्तावहीन और निष्किय रहकर शक्ति प्राप्त करेंगे ? क्या हम पीठ के बल लेटकर आशा के प्रेत को गले लगाते हुए प्रभावी प्रतिरोध के साधन इकट्ठे कर पायेंगे ? तब तक तो हमारे दुश्मन हमारे हाथ-पांव बांध देंगे ।
श्रीमान्, हम निर्बल नहीं रह सकते यदि हम प्रकृति-प्रदत्त साधनों का समुचित इस्तेमाल करें । आजादी के पवित्र उद्देश्य के लिए हथियारबन्द असंख्य लोग वह भी हमारे जैसे देश में हों तो वे दुश्मन कैसी भी सेना हमारे खिलाफ भेजे उससे अविजित ही रहेंगे ।
इसके अलावा श्रीमान्, हम यह युद्ध अकेले नहीं लडेंगे । वह न्यायकारी भगवान् सभी राष्ट्रों का भाग्य-विधाता है । वह हमें अपने युद्ध में साथ देने वाले दोस्त भी देगा । इसके अलावा श्रीमान् युद्ध हमेशा शक्तिशाली के अनुकूल ही नहीं होता । वह सावधान सक्रिय और शूरवीर के अनुकूल होता है ।
फिर, हमारे पास कोई अन्य मार्ग भी तो नहीं । यदि हम इसे त्यागने की ओछी बात सोचें तो भी अब हमारे पास इस संघर्ष से पीछे हटने का समय नहीं रहा । उसमें तो बहुत विलम्ब हो चुका है । अब पश्चगमन नहीं हो सकता केवल इसके कि हम खुद को गुलामी को समर्पित कर दें । हमारे लिए शृंखलाएं ढाली जा चुकी हैं । बोस्टन के मैदानों में उनकी झनकार सुनी जा सकती है ।
युद्ध अवश्यंभावी है, उसे आने दीजिये । श्रीमान् मैं फिर कहता हूं उसे आने दीजिये । श्रीमान्, विषय की गुरुता को कम करके आकना बेकार होगा । भद्र लोग ‘शान्ति-शान्ति’ की पुकार मचा सकते हैं । लेकिन शान्ति कहीं भी है नहीं । युद्ध तो वास्तव में शुरू हो चुका है । उत्तर से आने वाली अगली आधी अस्त्रों के टकराने की ध्वनि हमारे कानों तक लायेगी । हमारे भाई पहले से ही युद्ध क्षेत्र में हैं ।
तो फिर हम यहां निष्किय क्यों खड़े हैं ? ये सभी भद्र लोग ऐसा क्या चाहते हैं ? इन्हें क्या मिलेगा ? क्या जीवन इतना ही प्रिय है या शान्ति इतनी अनमोल है कि उसे शृंखलाओं और गुलामी के मोल खरीदा जाये ? हे सर्वशक्तिमान प्रभु ! मैं नहीं जानता कि दूसरे कौन-सा मार्ग चुनेंगे; परन्तु मुझे आजादी दो या मौत दो !