Read this article in Hindi to learn about:- 1. जैविक नियंत्रण का परिचय (Introduction to Biological Control) 2. कीटों के जैविक नियंत्रण की परिभाषा (Definition of Biological Control) 3. कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं (Natural Enemies of Pests) 4. सिद्धांत (Principles) and Others Details.
Contents:
- कीटों के जैविक नियंत्रण का परिचय (Introduction to Biological Control)
- कीटों के जैविक नियंत्रण की परिभाषा (Definition of Biological Control)
- कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं (Natural Enemies of Pests)
- कीटों के जैविक नियंत्रण के सिद्धांत (Principles of Biological Control)
- कीटों के जैविक नियंत्रण कारक के गुण (Qualities of Biological Control)
- जैविक नियंत्रण में उपयोगी प्राकृतिक शत्रुओं (कीटों) की वर्गिकी (Taxonomic Position of Natural Enemies (Insects) Useful in Biological Control)
- कीटों के जैविक नियंत्रण के लाभ (Advantages of Biological Control)
- कीटों के जैविक नियंत्रण की समस्यायें (Disadvantages of Biological Control)
1.
जैविक नियंत्रण का परिचय (Introduction to Biological Control):
हानिकारक कीटों के नियंत्रण में कीटनाशियों के निरन्तर प्रयोग से अनेक जटिल समस्यायें सामने आयी हैं । इनमें पर्यावरण का प्रदूषण, गौण कीटों का प्रमुख नाशी कीटों परिवर्तन, कीटनाशी अवशेषों से जनस्वास्थ्य को नुकसान, माइट (वरुथी) की समस्या में बढोतरी आदि प्रमुख हैं ।
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इसी के साथ हानिकारक कीटों में कीटनाशकों की सामान्य अथवा सामान्य से अधिक मात्राओं के प्रति बढ़ता प्रतिरोध एक जटिल समस्या बना हुआ है जिससे बचने के लिए कीट नियंत्रण के ऐसे उपायों को विकसित करने के प्रयत्न किये जा रहे हैं जहाँ पर कीटनाशकों का प्रयोग न के बराबर हो एवं उन पर निर्भरता समाप्त हो जाये ।
इस प्रकार के प्रयासों को समन्वित कीट नियंत्रण का नाम भी दिया जाता है । इसका उद्देश्य कीटनाशियों का उपयोग प्रमुख कीट नियंत्रण विधि के रूप में न करके आखिरी हथियार के रूप में करना है तथा अन्य कीट नियंत्रण विधियाँ का संरक्षण करना भी है । इसी सोच के अन्तर्गत जैविक नियंत्रण एक सक्षम भूमिका निभाने में सक्षम है आज जरूरत इस बात की है कि इसका समुचित विकास किया जाए ।
प्राकृतिक शत्रुओं का कीट नियंत्रण के लिए उपयोग ‘जैविक नियंत्रण’ कहलाता है । प्रकृति में यह प्रक्रिया स्वतः ही चलती रहती है और अनेक समय से ये चली आ रही है । हमें यह काफी समय से ज्ञात है कि फसलों को हानि पहुँचाने वाले अनेक नाशीकीटों के प्राकृतिक शत्रु उन्हें नष्ट करते रहते हैं ।
प्रकृति में प्राकृतिक शत्रुओं की यह किया इतनी धीमी गति से होती है कि वह हानिकारक कीटों के सफल नियंत्रण के लिए अपर्याप्त है अतः आज के सन्दर्भ में हानिकारक कीटों के नियंत्रण के लिये प्राकृतिक शत्रुओं के जानबूझ कर किये गये प्रयोग को ‘जैविक नियंत्रण’ कहते हैं ।
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ऐसा अनुमान है कि कीटों के विभिन्न वंशों में परजीवी स्वभाव की उत्पत्ति स्वतन्त्र रूप से हुई है । कीटों की अभी तक ज्ञात विभिन्न जातियों में से लगभग 15 प्रतिशत जातियाँ परजीवी हैं । इन परजीवी जातियों के अधिकतम कीटों की केवल अपपिक्व अवस्थाएँ ही परजीवी होती हैं ।
जबकि वयस्क कीट स्वतन्त्र रूप से जीवन व्यतीत करते हैं इस प्रकार के कीटों को ‘प्रोटिलीयेन परजीवी’ के नाम से सम्बोधित करते हैं जबकि दूसरे प्रकार के परजीवियों में ऐसे कीट पाये जाते हैं । जूं. पिस्सू आदि रक्त चूसने वाले कीट तथा मक्खियाँ इसी दूसरी श्रेणी के परजीवी है ।
2. कीटों के
जैविक नियंत्रण की परिभाषा (Definition of Biological Control):
”परजीवियों, परभक्षियोंऔर रोगाणुओं का ऐसा उपयोग जो हानिकारक कीटों की सघनता को उस औसत से नीचे रखता है जो उनकी अनुपस्थिति में उपस्थित होता है, जैविक नियंत्रण कहलाता है ।” सफल जैविक नियंत्रण के लिए यह आवश्यक है कि जिस हानिकारक कीट का नियंत्रण करना है उसकी सही पहचान हो । साथ ही, उसकी उपजाति अथवा प्रजाति की पहचान भी आवश्यक है । इसके अतिरिक्त हानिकारक कीट के भौगोलिक वितरण, उसके जीवन-चक्र तथा उसकी विभिन्न अवस्थाओं में उस पर आक्रमण करने वाले प्रकृतिक शत्रुओं के संबंध में भी पूर्ण ज्ञान उपलब्ध होना आवश्यक है । इसके अन्तर्गत क्षेत्रीय, स्वदेशी तथा विदेशी प्राकृतिक शत्रुओं का ज्ञान तथा केवल उन्हीं प्राकृतिक शत्रुओं का प्रयोग सम्मिलित है जो केवल कीटाहारी है ।
3. कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं (Natural Enemies of Pests):
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कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं में कीटाहारी कीटों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । कीटाहारी कीटों की दो श्रेणियाँ होती हैं जो कि परजीवी (परजीव्याभ) व परभक्षी के रूप में जानी जाती है ।
1. परजीवी (Parasite):
यह कीट परपोषी से सदैव छोटा होता है तथा एक जीव के प्रभाव से परपोषी मरता नहीं है परन्तु बहुत से जीव मिलकर परपोषी को कमजोर व दुर्बल करते है जिससे प्रायः उसकी मृत्यु हो जाती है । परजीवी अपना पूर्ण जीवन चक्र एक परपोषी पर भी पूर्ण कर सकते हैं (जूं) अथवा अपने जीवन के कुछ भाग में स्वतन्त्र तथा कुछ भाग में परजीवी रहते हैं (मच्छर) अथवा उनके जीवन-चक्र में इतनी जटिलता होती है कि उनको अपने विकास के लिये कई परपोषी जातियों की आवश्यकता होती है ।
2. परजीव्याभ (Parasitoid):
परजीवियों का एक रूप ‘परजीव्याभ’ है । परजीव्याभ शब्द कीटाहारी कीटो के एक समूह विशेष को कहते हैं, जो आकार में सामान्यतः परपोषी के आकार के लगभग बराबर होते हैं । यहां यह भी कहा जा सकता है कि कीटों के परजीवी परजीव्याभ कहलाते हैं ।
परजीव्याभ अपनी अविकसित अवस्थाओं में ही अधिकांशतः परजीवी होते है तथा एक परजीव्याभ एक परपोषी के ऊपर या अन्दर विकसित होता है । परजीव्याभ के लार्वे के पूर्ण विकास के साथ ही परपोषी की मृत्यु हो जाती है । परजीव्याभ का वयस्क सामान्यतः स्वतन्त्र रहता है ।
परजीव्याभ मुख्यतः हाइमेनोप्टेरा व डिप्टेरा गण में सर्वाधिक पाये जाते हैं । परजीव्याभ परपोषी कीटों के अण्डों, लार्वों, प्यूपा और वयस्क में से किसी एक अथवा सभी अवस्थाओं पर आक्रमण करते हैं तथा विकसित होते हैं ।
परजीय्याओं के प्रकार (Types of Parasitoid):
परजीव्याभों को उनके स्वभाव तथा विकास के अनुसार विभिन्न वर्गों में रखा गया है जो निम्नलिखित हैं:
(क) प्राथमिक परजीव्याभ (Primary Parasitoids):
इस प्रकार के परजीव्याभ ऐसे परपोषियों पर अथवा उनके अन्दर विकसित होते हैं जो स्वयं दूसरे कीटों के परजीव्याभ नहीं होते हैं ये परजीव्याभ पादपभक्षी, मृतजीवी, परागभक्षी, कवकभक्षी या परभक्षी हो सकते हैं ।
(ख) परात्यरजीवी परजीव्याभ (Hyper Parasitoids):
जब एक परजीव्याभ दूसरे परजीव्याभ पर विकसित होते हैं तो उसे परात्परजीवी परजीव्याभ कहते हैं ।
(ग) बाह्य परजीव्याभ (Ecto Parasitoids):
जो परजीव्याभ परपोषी के शरीर के बाह्य वातावरण में विकसित होते हैं, बाह्य परजीव्याभ कहलाते हैं । इस प्रकार के परजीव्याभों का लार्वा शिकार की चाह्यत्वचा में अपने मुखांगों को प्रवेशित कर भक्षण करता है । ये अपने स्वभाव के आधार पर एकल व यूथी बाह्य परजीव्याभ के समूहों में बांटे जाते हैं ।
(घ) अन्तः परजीव्याभ (Endo Parasitoids):
ये परजीव्याभ परपोषी के शरीर के अन्दर विकसित होते हैं । यदि एक परपोषी में केवल एक लार्वा विकसित होता है तो ऐसे परजीव्याभ एकल अन्त: परजीव्याभ
कहलाते हैं एवं यदि एक ही परपोषी में कई लार्वा विकसित होते हैं तो ऐसा परजीव्याभ यूथी अन्त: परजीव्याभ कहलाते हैं ।
(च) बहु परजीव्याथ (Multiple Parasitoids):
एक परपोषी पर अथवा उसके अन्दर जब एक से अधिक परजीव्याभ जातियाँ साथ-साथ विकसित होती हैं तो यह दशा बहु-परजीविता कहलाती है । इन परजीव्याभों में एक परजीव्याभ जाति ही जीवित रहकर पूर्णता को प्राप्त होती है जब कि अन्य जीवन संघर्ष के प्रतिस्पर्धा में समाप्त हो जाती है ।
(छ) महापरजीव्याभ (Super Parasitoids):
एक परपोषी पर सामान्य परिस्थितियों में जितने परजीव्याभ विकसित होते हैं यदि उनसे अधिक संख्या में वे उपस्थित हो तो उनमें से कुछ ही परिपक्वता को प्राप्त हो पाते हैं शेष परजीव्याभ मर जाते हैं । यह अवस्था महापरजीविता कहलाती है एवं ऐसे परजीव्याभ महापरजीव्याभ कहलाते हैं ।
(ज) क्लेप्टो-परजीव्याभ (Super Parasitoids):
ये परजीव्याभ ऐसे परपोषी पर आक्रमण करते हैं जिन पर दूसरी जातियों द्वारा आक्रमण हो चुका है, लेकिन ये परजीव्याभ परात्परजीवी नहीं होते हैं ।
(झ) एडेल्फो-परजीव्याभ (Adelpho-Parasitoids):
एक परजीव्याभ जब अपनी ही जाति के परजीव्याभ पर पोषित होता है तो यह घटना एडेल्फी-परजीविता कहलाती है तथा ऐसे परजीव्याभ ऐडेल्फो-परजीव्याभ कहलाते हैं ।
3. परभक्षी (Predators):
यह कीट अपने जीवन की प्रत्येक अवस्था में स्वतन्त्र रहने वाले जीव हैं तथा अपने परपोषी या भक्ष की तुलना में बड़े होते हैं ये अपने शिकार को पकड़ कर उसकी खा लेते हैं अथवा उसके शरीर का सत चूस लेते हैं । प्रायः एक परभक्षी अपने जीवनकाल में एक से अधिक परपोषी या भक्षों को खाता है । परभक्षी की दोनों अवस्थायें (प्रौढ़ व अपरिपक्व) कीटाहारी हो सकती है तथा दोनों ही एक ही प्रकार के परपोषी का भक्षण कर सकती है । उदाहरण क्राइसोपा, लेडी बर्ड बीटिल लेस विंग, मेन्टीड आदि ।
परभक्षियों के प्रकार (Types of Predators):
परभक्षियों को उनकी भक्षण की आदतों के आधार पर निम्नलिखित समूहों में विभक्त किया गया है:
(क) बहुहारी परभक्षी:
इस प्रकार के परभक्षी कई प्रकार के कीटों का शिकार करते हैं ।
उदाहरण – लेसविंग, प्रेंईग मेन्टिड ।
(ख) सीमितहारी परभक्षी (Stenophagous Predators):
इस प्रकार के परभक्षी सीमित कीटों को ही अपना शिकार बनाते हैं । उदाहरण- एफिड को खाने वाली काक्सीनेला मृग तथा सिरफिड्स ।
(ग) एकाहारी परभक्षी (Monophagous Predators):
ये परभक्षी विशिष्ट पोषी कीटों अथवा अत्यधिक निकट सम्बन्धी कीटों का ही भक्षण करते हैं । उदाहरण- कोटनी कुशन स्केल का परभक्षी रोडोलिया कार्डीनेलिस ।
4. कीटों के
जैविक नियंत्रण के सिद्धांत (Principles of Biological Control):
जैविक नियंत्रण के व्यवहारिक उपयोग में निम्नलिखित सिद्धान्तों को प्रयुक्त किया जाता है:
1. प्राकृतिक शत्रुओं को ऐसे प्राकृतिक क्षेत्रों से एकत्रित करना जहाँ वे अधिक संख्या में उपलब्ध हों तथा उन्हें ऐसे स्थानों पर छोड़ना जहाँ वे लाभप्रद हो सकें ।
2. परजीवियों व परभक्षियों को अधिक संख्या में पाल कर उन स्थानों पर छोड़ना जहाँ नुकसानदायक कीटों का घनत्व अधिक हो ।
3. विदेशों से भूलवश आकर अन्य देश में स्थापित हो गये हानिकारक कीटों के लिये विदेशों से उनके प्राकृतिक शत्रुओं को आयतित करके उन्हें उनके विरुद्ध प्रयोग करना ।
4. प्राकृतिक शत्रुओं को इस प्रकार प्रयुक्त करना कि वे लक्षित नाशक कीटों को समाप्त करने के पश्चात् अन्य एकान्तर नाशक कीटों पर अपना जीवन चला सकें । इससे प्राकृतिक शत्रुओं के परपोषी हानिकारक कीटों के न रहने पर भी वे समाप्त न होकर प्रकृति में निरन्तर पनपते रहेंगे ।
एक प्रकार के कीटों को दूसरे प्रकार के कीटों के नियंत्रण के लिये उपयोग में लाने का ज्ञान बहुत प्राचीन है इसकी शुरुआत चीन से मानी जा सकती है जहाँ चींटियों को नीबू प्रजाति के फल के हानिकारक कीटों के परभक्षियों के रूप में प्रयोग में लाया गया ।
जैविक नियंत्रण का सबसे अच्छा उदाहरण भारत की देन है जब भारतीय मैना को सन् 1762 में लाल टिड्डी के नियंत्रण हेतु मारीशस के लिये निर्यात किया गया था । यह प्रथम प्रयास था जिसमें किसी हानिकारक कीट के नियंत्रण हेतु उसके प्राकृतिक शत्रु का एक देश से दूसरे देश में आवागमन सफल सिद्ध हुआ ।
जैविक नियंत्रण हेतु अमेरिका के कैलिर्फोनिया में 1888 में प्राकृतिक शत्रुओं की मदद से नीबू की खेती को बचाया गया । यह प्रयास अलबर्ट कोईवेले द्वारा किया गया । उन्होंने आस्ट्रेलिया से वीडेलिया पग नामक परभक्षी कीट को लाकर उसका उपयोग नीबू के प्रमुख नाशीकीट कोटनी कुशन स्केल के नियंत्रण के लिये किया । अब तक लेडी बर्ड बीटिल का प्रयोग लगभग 32 देशों में किया जा चुका है ।
5. कीटों के
जैविक नियंत्रण कारक के गुण (Qualities of Biological Control):
जैविक नियंत्रण के लिए प्रमुख नाशक कीटों के प्रमुख प्राकृतिक शत्रुओं का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है । प्रायः एक नाशक कीट के कई प्राकृतिक शत्रु हो सकते हैं परन्तु सभी एक समान प्रभावी नहीं होते हैं ।
केवल उन्हीं परजीव्याभों और परभक्षियों को प्रभावी जैविक नियंत्रण कार्यों में उपयोग किया जाना चाहिये जिनमें निम्नलिखित गुण विद्यमान हो:
(i) अपनी अधिक जनन क्षमता के द्वारा परपोषी संख्या से अधिक हो जाने का गुण हो ।
(ii) मादाओं का प्रतिशत अधिक हो ।
(iii) जीवन-चक्र छोटा हो ।
(iv) परपोषी को शीघ्र ढूँढने का गुण हो ।
(v) दूसरे परजीव्याभों व परभक्षियों से अधिक सफल हो ।
(vi) उपयोग में लाये जाने वाले परजीव्याभों और परभक्षियों के परात्परजीवी (यानि उनके परजीव्याभ व परभक्षी) न हो ।
(vii) जहां तक संभव हो सके परजीव्याभ एवं परभक्षी परपोषी विशेष हो एवं परपोषी के शरीर में विकसित होते समय परजीव्याभों की अपरिपक्व अवस्थाओं पर विपरीत प्रभाव न पडे ।
6. जैविक नियंत्रण में उपयोगी प्राकृतिक शत्रुओं (कीटों) की वर्गिकी (Taxonomic Position of Natural Enemies (Insects) Useful in Biological Control):
जैविक नियंत्रण में उपयोगी कीटों (परजीव्याभ व परभक्षी) का वर्गीकरण तालिका 9.2 में दिया गया है:
प्राकृतिक शत्रुओं का संरक्षण व संवर्धन:
जैविक कीट नियंत्रण कार्यक्रम की सफलता के लिये यह अत्यन्त जरूरी है कि परजीवी, परजीव्याभों व अन्य प्राकृतिक शत्रुओं का संरक्षण व संवर्धन किया जाये ।
प्राकृतिक शत्रुओं के संरक्षण व संवर्धन हेतु निम्नलिखित विधियाँ अपनानी चाहिये:
1. कीटनाशियों से प्राकृतिक शत्रुओं की सुरक्षा करना:
प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या को सबसे अधिक कीटनाशी रसायन प्रभावित करते हैं । कभी-कभी तो यह पाया गया है कि विभिन्न प्रकार के कीटनाशियों के प्रयोग से प्राकृतिक शत्रुओं की समूल संख्या नष्ट हो जाती है जिसके फलस्वरूप विकट समस्या उत्पन्न हो जाती है ।
कीटनाशियों के अविवेकपूर्ण उपयोग का सबसे अधिक लाभ पौधों का रस चूसने वाली वरूथियों को पहुँचा है । इन वरूथियों के परभक्षी समाप्त हो गये जिससे ये पहले गौण नाशक जीव थी मुख्य नाशक जीव में परिवर्तित हो गयी ।
इस समस्या से निम्नलिखित उपायों द्वारा निपटा जा सकता है:
(क) प्राकृतिक शत्रुओं में कीटनाशी रसायनों के प्रति प्रतिरोध क्षमता विकसित करना ।
(ख) चयनात्मक कीटनाशियों के उपयोग से प्राकृतिक शत्रुओं के शिकार की संख्या को कम करना, फलस्वरूप प्राकृतिक शत्रुओं में परपोषी को ढूँढने की क्षमता बढ़ जायेगी ।
(ग) विभिन्न आवासीय व्यवस्था तकनीकियों द्वारा परभक्षियों व उनके शिकार की संख्या में हेरफेर करना ।
2. हानिकर सस्य विधियों का त्याग करना:
नाशक जीवों का प्रबन्ध करने के लिए प्रयुक्त होने वाली सभी सस्य विज्ञानी नियंत्रण विधियों जैसे, जुताई, निराई, गुड़ाई, प्राकृतिक शत्रुओं के लिए भी हानिकारक होती है अतः यह अत्यन्त जरूरी है कि इन विधियों को इस प्रकार से परिवर्तित किया जाये जिससे कि हानिकारक कीटों को तो कम किया जा सके लेकिन प्राकृतिक शत्रु बचे रहें ।
3. परजीव्याभों की अक्रियाशील अवस्थाओं का संरक्षण:
परजीव्याभों की ऐसी अपरिपक्व अवस्थाओं की रक्षा की जानी चाहिए जो निष्क्रिय अवस्था में भूमिगत हो जाती हों अतः यह अच्छा होगा कि ऐसे स्थानों की खोज करी जावे तथा वहां की जुताई से बचा जाये ।
4. विविधता:
पारिस्थितिक तन्त्र में विविधता को बढ़ाना जिसके फलस्वरूप हानिकारक कीटों का उद्भव कम होता है एवं प्राकृतिक शत्रुओं का भी संतुलन बना रहता है ।
प्रमुख प्राकृतिक शत्रुओं की उत्पादन विधि:
i. परजीव्याभ (Parasitoids):
(अ) ट्राइकोग्रामा (Trichogramma):
प्रयोगशाला में ट्राइकोग्रामा को कोरसायरा सीफेलोनिका के अण्डों पर संवर्धित किया जाता है । को. सीफेलोनिका का पहले ज्वार के टूटे दानों पर संवर्धन किया जाता है । एक ट्रे में रखे 2 से 2.5 किलो ज्वार के टूटे दानों पर इस कीट के 12000 से 16000 तक अण्डों से निकलने वाले लावें वृद्धि कर प्यूपों में बदल जाते हैं ।
इन प्यूपों से 45 से 75 दिनों में 15000 शलभ निकल आते हैं इन शलभों को ऐसे पात्रों में छोड़ा जाता है जिनके पेंदे में पतली जाली होती है । इन बर्तनों के नीचे ट्रे रखी होती है जिनसे कोरसायर कीट के अण्डे एकत्रित कर लिये जाते हैं ।
कोरसायरा सीफेलोनिका परपोषी के अण्डो को गोंद के पतले घोल द्वारा 6”×3″ आकार के कार्डों पर चिपका देते हैं । अण्डों को 1 सी. सी. प्रति कार्ड की दर से चिपकाते हैं । अण्डों की 1 सी.सी. मात्रा में लगभग 22000 कोरसाथरा के अण्डे होते हैं । इस प्रकार अण्ड कार्ड तैयार किया जाता है । अण्ड कार्डों को काँच की नलिका (10×2.5 से.मी.) में रखते है ।
इन अण्डकार्डो वाली नलियों में ऐसे परजीवीकृत प्रवेशित किये जाते है जिनमें ट्राइकोग्रामा के वयस्क तुरन्त ही निकलने वाले हों । इन दोनों कार्डों का अनुपात 3:1 या 4:1 रखना चाहिये । कोरसायरा के अण्डों को परजीवीकृत करने से पूर्व 3-4 मिनट तक पराबैगनी किरणों में रखा जाना आवश्यक है । ट्राइकोग्रामा परजीव्याभ का जीवन चक्र 7-8 दिनों में पूर्ण हो जाता है ।
(ब) टीलोनोमसरीमस (Telonomus Remus):
यह एक महत्वपूर्ण आयातित अण्ड परजीवी है ये मुख्यतः स्पोडोप्टेरा लिटूरा, स्पोडोप्टेरा एक्सीगुआ एग्रोटीस इप्सीलोन, एकीया जेनेटा, हेलियोथीस आमीजेरा आदि के अण्डों को परजीवकृत करता है । प्रयोगशाला में इसे स्पोडोप्टेरा लिटूरा के अण्डों पर बड़े पैमाने पर संवर्धित किया जा सकता है । इस हेतु 27±1० से तापमान व 75±5 प्रतिशत आपेक्षित आर्द्रता की आवश्यकता होती है । परपोषी कीट के अण्ड समूहों को काँच की नलिकाओं में रखते हैं ये नलिकाएँ 4”×1” के आकार की होती है ।
इन्हें सफेद कार्डों पर चिपका दिया जाता है एवं इन्हें नलिकाओं में रख दिया जाता है । नलियों की दीवारों पर पतला किया हुआ शहद हल्की-हल्की धारियों के रूप में लगा दिया जाता है । अब इन नलिकाओं में ताजे निकले हुए टीलोनोमस रीमस परजीव्याभों के वयस्कों को छोड़ा जाता है । परपोषी अण्डों व परजीव्याभों के वयस्कों को छोड़ा जाता है ।
परपोषी अण्डों व परजीव्याभों का अनुपात 40:1 होना चाहिये । चौबीस घण्टे बाद परजीवीकृत अण्डों को परजीव्याभों के विकास के लिये रख दिया जाता है । परजीवीकृत अण्डे 6 से 7 दिनों में काले पड़ जाते हैं जिनसे टिलोनोमस रीमस परजीव्याभ निकलने को तैयार हो जाते हैं । इस परजीव्याभ का जीवन चक्र 9 से 10 दिनों में पूर्ण हो जाता है ।
(स) चीलोनस ब्लेकबर्नी (Chilones Blackbernii):
यह कपास के मुख्य नाशीकीट पेक्टीनोफोरा गोसीपीएला एवं एरियास जातियों का अण्ड-लार्वा परजीव्याभ है । इस परजीव्याभ को कोरसायरा सीफेलोनिका के अण्डों पर सफलता से बड़े स्तर पर संवर्धन किया जा सकता है । इस हेतु को. सीफेलोनिका के 0 से 78 घण्टे पुराने अण्डों का प्रयोग किया जाता है ।
अण्डों को 6”×3″ आकार के अण्ड कार्डों पर गोंद की सहायता से चिपकाया जाता है । प्रत्येक कार्ड पर लगभग आधा सी. सी. कोरसायरा के अण्डों को चिपकाया जाता है । इन अण्ड कार्डों को 9”×6” आकार के कांच के जारों में परजीव्यापों द्वारा परजीवीकृत करने के लिये रखा जाता है ।
परजीव्याभों को इन कांच के जारों में 24 घण्टों तक रहने दिया जाता है । परपोषी अण्डों व परजीव्याभों का अनुपात 90:1 रखा जाता है । कांच के जारों में परजीव्याभों को मोमी कार्डों से 20 प्रतिशत शर्करा का घोल दिया जाता है । इस परजीव्याभ (ची. ब्लेकबर्नी) का जीवन चक 30 से 45 दिनों में पूर्ण हो जाता है । प्रयोगशाला में इसकी सही बढ़वार के लिये तापक्रम 25० से 30० से. के मध्य उचित रहता है ।
(द) ब्रेकन ब्रीवीकोर्निस (Bracon Brevicornis):
यह पेक्टीनोफोरा गोसीपिएला व अन्य लेपिडोप्टेरन कीटों के लार्वा का परजीव्याभ है । इसे प्रयोगशाला में कोरसायरा सिफेलोनिका के पूर्ण विकसित लार्वों पर संवर्धित किया जा सकता है । नये विकसित परजीव्याभों को 6”×3” आकार के कांच के जारों में रखा जाता है ।
उन्हें किशमिश व 50 प्रतिशत शहद खाने के लिये दिया जाता है । इन जारों को मलमल (मसलिन) के कपड़ों से ढक दिया जाता है । इन जारों में परजीव्याभ के 25 जोडे रखे जाते हैं । जार का मुँह मलमल के कपड़े से ढका रहता है एवं उस पर कोरसायरा के 50 लार्वे रख देते हैं ।
इन्हें एक स्थान पर बने रहने के लिये जार के मुँह पर कांच की प्लेट रख देते हैं फलस्वरूप कोरसायरा के लावें कपड़े और कांच की प्लेट के बीच जार के मुँह पर स्थिर रहते हैं । जार के अन्दर स्थित परजीब्याभ की मादायें इन पर अण्डे देती हैं, 24 घण्टे बाद इन परजीवीकृत लाबों को हटा देते हैं । सामान्यतः एक परपोषी लार्वे से 10 से 12 परजीव्याभ व्यस्क निकलते हैं । इन परजीव्याभों का जीवन चक्र 13 से 17 दिनों में पूर्ण हो जाता है ।
ii. परभक्षी:
(अ) कोक्सीनेलिड़:
इसका प्रयोगशाला में संवर्धन करने हेतु एक पका हुआ काशीफल लेते हैं तथा इसे किसी कवकनाशी के घोल (ब्ल्यूकापर 2 ग्रा/लीटर) में कुछ मिनटों तक डुबोते हैं तथा छाया में सुखा देते हैं । मिलीबग के निम्फ अथवा अण्डे लेकर इस काशीफल पर छोटे-छोटे छिद्र बनाकर उस पर स्थानान्तरित करते हैं ।
इसके उपरान्त मिलीबग को इस काशीफल पर विकसित होने देते हैं । जब ये मिलीबग पूर्ण विकसित हो जाये तो इस फल को दस काक्सीनेलिड भृंगों के बीच दो दिनों तक जालीदार स्थान पर रख देते हैं । फलस्वरूप ये काक्सीनेलिड इस पर अपने अण्डे दे देते हैं इसके उपरान्त इस काशीफल को जालीदार स्थान से हटा देते हैं तथा अन्य जालीदार पिंजरे में रख देते हैं ताकि अण्डों का विकास हो सके ।
इनसे विकसित भृंगों को संग्रहीत कर खेत में छोड़ने के लिये भेज देना चाहिये तथा कुछ (1/4 भाग) मृगों को तगे संवर्धन के लिये रख लेना चाहिये । प्रयोगशाला में मृगों को पूरक आहार के रूप में शहद-अगर माध्यम देना जरूरी है ।
(ब) क्राइसोपा (Chrysopa):
यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण परभक्षी है ये मुख्यतः एफिड, जैसिड, कपास के बालवार्म तथा अनेकों लैपीडोप्टेरा कीटों के प्रथम अवस्था लार्वा का शिकार करते हैं । इस परभक्षी के लार्वो का कोरसायरा के अण्डों पर पालन-पोषण किया जाता है । इस कीट के लार्वे आपस में एक-दूसरों को खा जाते हैं अतः इनका अलग-अलग पालन किया जाता है दो ड्राम वाली वायलों (नालियों) में कोरसायरा कीट के 1.5 सी.सी. अण्डे रखे जाते हैं ।
ये अण्डे पहले फ्रिज में रखकर जमा दिये जाते हैं बाद में जमी अवस्था में इन अण्डों को वायलों में रखा जाता है । परभक्षी के लार्वा इन वायलों में अण्डों को खाते हैं । लार्वा का विकास 7 से 9 दिनों में पूर्ण हो जाता है एवं इसका जीवनचक्र 16 से 20 दिनों में पूर्ण होता है । इस परभक्षी के वयस्कों को 50 प्रतिशत शहद भोजन के लिये दिया जाता है । वयस्क क्राइसोपा 15 से 50 दिनों तक जिन्दा रह जाता है ।
प्राकृतिक शत्रुओं का मोचन (Release of Natural Enemies):
प्राकृतिक शत्रुओं का बड़े पैमाने पर संवर्धन के साथ ही उनका प्रभावी मोचन (= छोड़ा जाना) भी अत्यन्त आवश्यक है ताकि वो प्रभावी रूप से अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सके ।
मोचन निम्नलिखित प्रकार के होते हैं:
(i) निवेशित मोचन (Inoculative Release):
प्राकृतिक शत्रुओं के इस प्रकार के मोचन में प्रायः वर्ष में एक बार छोड़ा जाता है । इसका उद्देश्य उन प्राकृतिक शत्रुओं को पुनस्थापित करना है जो वर्ष के किसी एक विशेष समय में विपरीत परिस्थितियों के कारण संख्या में बहुत ही कम हो जाते हैं अथवा मर जाते हैं अन्यथा वर्ष के शेष समय में बहुत ही प्रभावी ढंग से अपना कार्य करते हैं ।
(ii) आप्लावित मोचन (Inundative Release):
इस प्रकार के मोचन में असंख्य प्राकृतिक शत्रुओं की आवश्यकता होती है । इसका उद्देश्य हानिकारक कीटों को प्राकृतिक शत्रु के मोचन द्वारा ‘आर्थिक देहली’ स्तर से नीचे ले आना होता है । ये वर्ष में एक पीढ़ी वाले हानिकारक कीटों के विरुद्ध अत्यधिक प्रभावी पाया जाता है । राइकोग्रामा अण्डपरजीवी का इसी प्रकार से मोचन किया जाता है ।
(iii) पूरक मोचन (Supplementary Release):
इस तरह के मोचन का निर्धारण चयन से होता है । हानिकारक कीटों के चयन के समय यह ज्ञान होता है कि अब हानिकारक कीट अपने प्राकृतिक शत्रुओं की परिधि से दूर जाने वाला है तब उसके प्राकृतिक शत्रुओं का मोचन किया जाता है जिसके फलस्वरूप जैविक नियंत्रण की पुनर्स्थापना हो सके ।
7. कीटों के
जैविक नियंत्रण के लाभ (Advantages of Biological Control):
i. जैविक नियंत्रण से हानिकारक कीटों की समस्या न तो बढ़ती है और न ही इसके प्रभाव से कोई नई समस्या का जन्म होता है ।
ii. यह नियंत्रण प्रक्रिया अपने आप में निरन्तर होती है और स्थायी होती है ।
iii. जैविक नियंत्रण में प्रयुक्त होने वाले कारक कोई हानिकारक अवशेष नहीं छोड़ते हैं साथ ही इनसे अन्य लाभप्रद जीवों को कोई नुकसान नहीं होता है ।
iv. कई प्राकृतिक शत्रुओं को कम खर्च में पालकर उनकी संख्या को आसानी से बढ़ा कर उन्हें आसानी से प्रयोग किया जा सकता है ।
v. हानिकारक कीट अपने प्राकृतिक शत्रुओं के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न नहीं कर सकते हैं ।
8. कीटों के
जैविक नियंत्रण की समस्यायें (Disadvantages of Biological Control):
i. प्राकृतिक शत्रुओं को अधिक संख्या में उपलब्ध कराने के लिये धन तथा समय की आवश्यकता होती है ।
ii. जैविक नियंत्रण के लिए उपयोग में लाये जाने वाले कीट प्रायः कुछ विशेष प्रकार के कीटों को ही मारते हैं । इनकी पोषी वरीयता सीमित होती है ।
iii. प्राकृतिक शत्रुओं का प्रभाव काफी धीमे-धीमे होता है ।
iv. जैविक नियंत्रण कार्यक्रम एक जटिल प्रक्रिया है अतः इसे सफलतापूर्वक चलाने के लिये शिक्षित व प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती है ।
v. कभी-कभी प्राकृतिक शत्रुओं को भी परजीवी या परभक्षी ग्रसित कर देते हैं जोकि उनकी संख्या को कम कर देते हैं जिससे इनके प्रयोग में वांछनीय सफलता नहीं मिल पाती है ।
vi. कुछ विशेष प्रकार के प्राकृतिक शत्रुओं को क्रियाशील बनाने के लिये एक अनुकूल मौसम की जरूरत होती है ।