Read this article in Hindi to learn about how to control weeds, diseases and pests of bottle gourd.
खरपतवार नियंत्रण:
लौकी की भरपूर उपज प्राप्त करने के लिए खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना अत्यंत आवश्यक है । इसके लिए ग्रीष्मकाल एवं वर्षाकाल में क्रमशः 2-3 एवं 3-4 बार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि निराई एवं गुड़ाई गहरी नहीं करें क्योंकि लौकी की जड़ें उथली होती हैं ।
इससे जड़ा को नुकसान होने की संभावना अधिक होती है । निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं एवं भूमि में वायु का संचार होने लगता है । पौधों की बढ़वार एवं विकास अधिक होता है । अन्ततः उपज अच्छी मिलती है ।
कीट नियंत्रण:
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i. लाल कीड़ा:
यह लाल रंग का चमकीला, 7 मिमी. लम्बा एवं 2.5 मिमी. चौड़ा कीट होता है, इसका शरीर लाल रग के कठोर पंखों से ढका होता है । शरीर की निचली सतह पर काले पतले रोम होते हैं । इसके छोटे कीट पौधों की कोमल पत्तियों को खाकर नष्ट कर देते हैं । जिसके कारण पौधों का विकास एवं बढ़वार रुक जाती है । इसके प्रौढ़ फसल को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं । इसकी सूड़ी भी कुछ हद तक क्षति पहुँचाते हैं । इस कीट के प्रकोप के कारण पत्तियाँ छलनी हो जाती हैं ।
रोकथाम:
सूर्योदय के पहले यह कीट सुस्त रहते है अतः उस समय हाथ से पकड़कर मार देना चाहिए । पौधों पर क्वीनाल फॉस/क्लोर पाइरीफॉस (0.05%) का छिड़काव करना चाहिए ।
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ii. फल मक्खी:
यह फलों के छिलके के नीचे अंडे देती है । जिनसे सूडियाँ निकलकर गूदे में प्रवेश कर जाती है जिसके फलस्वरूप फल सड़कर गिर जाते हैं । सूखे मौसम में इस कीट की संख्या बहुत कम हो जाती है । परंतु वर्षा के मौसम में इसकी संख्या में वृद्धि हो जाती है ।
मक्खी जिस जगह अंडे देती है वहाँ पर छोटे-छोटे निशान दिखाई देते हैं जो गोद जैसे पदार्थ से ढके रहते हैं । मादा अंडे देने से पहले कई बार फलो में छेद कर देती हैं जिससे फलो के ऊपर रस निकल आता है । कीट ग्रस्त फल या तो विकृत हो जाते हैं या फिर ऊपर से देखने में सामान्य मामूम पड़ते हैं । प्रौढ़ मक्खी प्रत्यक्ष रूप से कोई क्षति नहीं पहुँचाती है ।
रोकथाम:
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I. कीट से प्रभावित फलों तो तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए ।
II. फलों की प्रारम्भिक अवस्था में मैलाथियान (0.03%) घोल का छिड़काव करने से सूंडियां मर जाती हैं ।
III. प्रौढ़ मक्खी के लिए लुभावने चारों का प्रयोग करना चाहिए । इसके निर्माण के लिए फैनाथियोन (0.05%) + 5 प्रतिशत शक्कर की चाशनी मिलाकर छिड़कते हैं ।
iii. एपीलैक्ना भृंग:
इस मृग के लार्वा एवं प्रौढ़ दोनों ही पौधों की पत्तियों को खाते हैं । इसकी अंडे से लेकर प्रौढ तक की सभी अवस्थायें पौधों पर ही व्यतीत होते हैं; अतः नियंत्रण आसान है । पौधों पर क्लोरापाइरीफॉस के 0.05 प्रतिशत घोल का छिड़काव करने से कीट की रोकथाम की जा सकती है ।
iv. चैंपा:
यह कीट पौधे के कोमल अंगों का रस चूसता है, जिसके कारण पौधे के ओज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । यह कीट विषाणु रोग फैलाने में भी सहायता करता है । इस कीट की रोकथाम के लिए 0.05 मोनोक्रोटोफॉस का छिडकाव करना चाहिए ।
रोग नियंत्रण:
i. मृदुरोमिल फफूंदी:
यह रोग स्युडोपेरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस नामक फफूँदी के कारण होता है । इस रोग के कारण पत्तियों के ऊपरी भाग पर पीले धब्बे दिखाई देते हैं, जबकि निचले भाग पर धब्बों का रंग बैंगनी जैसा होता है ।
ii. रोकथाम:
फसल की प्रारम्भिक वृद्धि काल में मेन्कोजेब (0.25%) का 10 दिन के अंतराल पर छिडकाव करना चाहिए । उचित फसल चक्र अपनायें ।
iii. चूर्णी फफूंदी:
यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूँदी के कारण होता है । इस रोग के कारण पुरानी पत्तियों की निचली सतह पर सफेद धब्बे उभर जाते हैं । धीरे-धीरे इन धब्बों की संख्या एवं आकार में वृद्धि हो जाती है और बाद में पत्तियों के दोनों तरफ चूर्णिल वृद्धि दिखाई देती है । पत्तियों की सामान्य बढ़वार रुक जाती है एवं पीली पड़ जाती है और पौधा मर जाता है ।
iv. नियंत्रण:
रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए । घुलनशील गंधक जैसे इलोसाल का सल्फैक्स की 3 किलो मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए ।