Read this article in Hindi to learn about how to control diseases and pests of coriander (dhania). 

कीट-नियंत्रण:

i. मोयला:

यह छोटा-सा जूँ के आकार का हरे रंग या पीलापन लिये भूरे रंग का कीट है । प्रायः कोमल पत्तियों, फूलों व बनते बीजों से रस चूसता है । अक्सर फूल आते समय या उसके बाद मोयला का प्रकोप होता है । ये पौधों के कोमल भागों का रस चूसते हैं जिससे उपज में अत्यधिक कमी आ जाती है ।

ii. बरुथी (माईट्स):

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ये रस चूसकर नुकसान करते हैं । इनका प्रकोप बीज बनते समय, इन्हें पुष्पों एवं पत्तियों पर अधिक होता है । समय पर उपचार नहीं करने पर उपज घट जाती है । उपरोक्त दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु मैलाथयान 50 ई.सी. या डाइमिथोएट 30 ई.सी. या डाइकोफोल एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए ।

बरूथी के अधिक प्रकोप वाले स्थानों पर अकबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बुवाई करने से इन कीटों से फसल को कम हानि पहुँचती है । परभक्षी मित्र कीटों एवं मधुमक्खियों की सुरक्षा हेतु कीटनाशी का छिड़काव सावधानी रखते हुए करना चाहिये । इसके लिए एण्डोसल्फान या नीम आधारित कीटनाशी एक लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से बायोराजेटर के उपयोग को सम्मिलित करना चाहिए ।

iii. कटवर्म एवं वायर वर्म:

इस कीट की सुंडी भूरे रंग की होती है । शाम के समय यह पौधों को जमीन के पास से काटकर गिरा देता है । इसका प्रकोप फसल की शुरू की अवस्था में होता है तथा इससे फसल को काफी नुकसान पहुँचता है । नियंत्रण हेतु एण्डोसल्फान 4 प्रतिशत चूर्ण 20 से 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर के हिसाब से भूमि में जुताई के समय मिलाने अथवा क्लोरोपायरीफास 20 ई.सी. 4 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से आखिरी जुताई के पहले भूमि में छिड़कना चाहिए ।

रोग-नियंत्रण:

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1. उखटा रोग (विल्ट):

यह रोग फ्यूजेरियन आक्सीस्पोरम की फार्म स्पिसीज कोरिडेन्ड्राई नामक कवक द्वारा होता है । पौधों में किसी भी अवस्था में यह रोग हो सकता है, लेकिन यह रोग पौधों की छोटी अवस्था में ज्यादा होता है । यह रोग पौधों की जड़ में लगता है ।

रोगग्रस्त पौधा हरा का हरा ही सूख जाता है । नियंत्रण हेतु गर्मी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए । बीजों को बाविस्टीन 1.5 ग्राम तथा थाईरम 1.5 ग्राम (1-1) या ट्राइकोडरमा 4-6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिए ।

2. झुलसा रोग (ब्लाइट):

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यह रोग आल्टरनेरियो पूनेन्सिस तथा कोलेटोटाईकम केप्सीकाई नामक कवकों द्वारा होता है । वर्षा या नमी होने पर रोग की सम्भावना बढ़ जाती है । इस रोग से तने और पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं और पत्तियाँ झुलसी हुई दिखाई देती हैं । नियन्त्रण हेतु बावस्टीन या बेलीटान एक ग्राम या मेनकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करते हैं ।

3. तना पिटिंका रोग (स्टैम-गाल):

यह रोग प्रोटोमाइसिस मेक्रोस्पोरस नामक कवक से होता है । इस रोग के कारण पत्तियों एवं तने पर उभरे हुए फफोले (गाल्स) बन जाते हैं । बीजों की शक्ल बदल जाती है । नमी की उपस्थिति में बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है । पौधे पीले हो जाते हैं तथा बढ़वार रुक जाती है ।

पुष्पक्रम पर प्रकोप होने पर बीज बनने की प्रक्रिया पर दुष्प्रभाव पड़ता है । पत्तियों पर गाल्स शिराओं पर केन्द्रित रहते हैं कवक के बीजाणु भूमि में रहते हैं । नियंत्रण हेतु बुवाई से पूर्व बीजों को थाइरम 1.5 ग्राम व बाविस्टिन 1.5 ग्राम (1-1) प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार कर बुवाई करते हैं ।

4. छाछया (पाउडरी मिल्डयू):

यह रोग एरीसाईफी पोलीगानाई व लेविल्यूला टोरिया नामक द्वारा होना पाया गया है । इस रोग के लगने की आरम्भिक अवस्था में पौधों की पत्तियों एवं टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है । रोगग्रसित पौधों पर या तो बीज नहीं बनते या बहुत कम एवं छोटे आकार में बनते हैं, पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

बीजों की विपणन गुणवत्ता कम हो जाती है । नियंत्रण हेतु गंधक के चूर्ण का 20 से 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़कव करें या घुलनशील गंधक चूर्ण 2 ग्राम या कैराथियान एल.सी. एक मिलीलीटर या केल्क्सीन एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करते हैं । आवश्यकतानुसार 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव दोहरायें ।

5. पाले से बचाव:

पाले से इस फसल को अधिक नुकसान होता है अतः पाले से फसल को बचाने के लिए जब पाला पड़ने की सम्भावना हो तब एक हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये । बारानी फसल में जहाँ पाले से अधिक नुकसान होता है वहाँ 0.1 प्रतिशत गंधक के तेजाब का छिड़काव करना चाहिये । पाले की आशंका के दिन रात्रि में धुआँ किया जाये तो लाभ होता है । जनवरी माह में पाला पड़ने की अधिक सम्भावना रहती है ।

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