Read this article in Hindi to learn about the nine methods adopted for cultural control of pests. The methods are:- 1. अवशेषों व खरपतवारों की सफाई (Field Sanitation) 2. खेत की जुताई (Ploughing) 3. फसल-चक्र (Crop Rotation) and a Few Others.
Method # 1. अवशेषों व खरपतवारों की सफाई (Field Sanitation):
इस विधि में कीटों की रोकथाम के लिये फसल के पुराने अवशेषों को व खेत के आसपास उगे खरपतवरों को नष्ट कर दिया जाता है इससे नाशीकीट के एकान्तर पोषी नहीं रहते हैं तथा वह बढ नहीं पाते हैं ।
Method # 2. खेत की जुताई (Ploughing):
विभिन्न कीटों के जीवन-चक्र पर भूमि की संरचना, उसके रसायनिक संगठन, नमी की मात्रा व उसमें पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवों का प्रभाव पड़ता है । अतः इन हानिकारक कीटों के जीवनकाल में विभिन्न कृषिगत क्रियाओं को करके इनकी संख्या को प्रभावित किया जा सकता है ।
बहुत से कीट जैसे मिर्च का फल बेधक, हेलियोचिस भूमि में ही प्यूपावस्था व्यतीत करता है अतः इस समय यदि पेड़ों के आसपास की मिट्टी को पलट दिया जाए तो इनकी संख्या को काफी मात्रा में कम किया जा सकता है । खेतों की गहरी जुताई करने से कीटों की भूमि में उपस्थित विभिन्न अवस्थाएँ बाह्य वातावरण में आ जाती है ।
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वहाँ उन्हें इनके प्राकृतिक शत्रु यथा पक्षी खा जाते हैं अथवा ये प्रतिकूल मौसम के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं । ये विधि कटुआ सूँडी, सफेद लट व रोमिल सूँडियों के विरूद्ध भी काफी कारगर है । खेत की जुताई का समय इस प्रकार से निर्धारित करना चाहिये कि खेत व जमीन में उपस्थित कीट के प्राकृतिक शत्रुओं पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े ।
Method # 3. फसल-चक्र (Crop Rotation):
कीटों को नियंत्रित करने के लिये फसल-चक्र एक व्यावहारिक तथा प्रभावशाली नियंत्रण तकनीक है । यह विधि उन कीटों के विरुद्ध विशेष कारगर होती है जो कि किसी फसल विशेष को ही खाते हों तथा उस फसल के अभाव में वो जीवित नहीं रह पाते हों । लगातार एक ही प्रकार की फसल या उसी कुल की फसल को एक ही स्थान पर व क्षेत्र पर लगातार बोते रहने से कीटों का प्रकोप काफी मात्रा में बढ़ जाता है ।
इससे बचाव के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि फसल-चक्र अपनाया जाये यानि एक कुल की फसल के बाद दूसरे कुल की फसल की बुवाई की जाये । किसी क्षेत्र विशेष में फसलों की इसी हेराफेरी से कीटों की संख्या व प्रकोप को कम किया जा सकता है ।
Method # 4. आवास विविधता (Habitat Diversity):
कृषि पारिस्थितिक तन्त्र में विविधता लाने से उस क्षेत्र विशेष में प्राकृतिक शत्रुओं को बढ़ावा मिलता है । यह पाया गया है कि प्राकृतिक पारिस्थितिकीय तन्त्र की अपेक्षा कृषि पारिस्थितिक तन्त्र में विविधता कम होती है । इसका मूल कारण यह है कि इसमें सभी साधनों का प्रयोग केवल उत्पादन को बढ़ाने के लिये ही किया जाता है । विविधता को बढ़ाकर क्षेत्र विशेष में जैविक गतिविधियों को बढावा दिया जा सकता है ।
Method # 5. ट्रेप (फंदा) फसल (Trap Crops):
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इस प्रकार की फसलों को उन्हें पूर्व फसल या एकांतर फसल के रूप में हानिकारक कीटों को आकर्षित करने के लिए लगाया जाता है जिससे कि कीटों को कीटनाशियों द्वारा नष्ट कर दिया जाए ये फसलें खेत में बहुत थोड़े भाग में लगायी जाती हैं जिससे कीटनाशी रसायनों का प्रभाव प्राकृतिक शत्रुओं पर कम से कम पडे ।
यदि मिर्च या टमाटर की फसल के मध्य कुछ गेंद: के पौधे लगा दिये जाएँ तो फल बेधक कीट की मादा इन गेंद: के फूलों पर आकर्षित होती है व उन्हीं पर अण्डे देती है तथा उन्हीं पर सूंडियों का विकास होता है । इन गेंदों पर उपयुक्त रसायन का छिड़काव करके आसानी से इस कीट को नियंत्रित किया जा सकता है ।
Method # 6. बुवाई का समय (Date of Sowing):
प्रायः फसलों की बुवाई का समय इस प्रकार निर्धारित किया जाना चाहिये कि फसल हानिकारक कीट के प्रकोप से अपने आप को बचा सके या उसका मुकाबला कर सकें । प्रत्येक कीट के प्रकोप का प्रायः एक निश्चित समय होता है जब वो फसल को अधिकतम नुकसान पहुँचाता है अतः इस समय के बीच बोई गयी फसल कीट के प्रकोप से अधिकतम प्रभावित होती है ।
फसलों को यदि इन हानिकारक कीटों की अवस्थाओं को ध्यान में रखकर बोया जाए तो उन्हें अधिकतम सीमा तक नुकसान से बचाया जा सकता है । यदि सरसों की फसल की बुवाई 15 अक्टूबर तक कर दी जाए तो इसे माहू के प्रकोप से बचाया जा सकता है तथा नुकसान को कम किया जा सकता है ।
Method # 7. पौध घनत्व (Plant Density):
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कीटों के विकास व उत्तरजीविता पर सूक्ष्म-जलवायु का गहरा प्रभाव पड़ता है । पौध-घनत्व एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कारक है जो कि सूक्ष्म-जलवायु पर काफी गहरा प्रभाव डालता है ।
इस घनत्व को निम्नलिखित तरीकों से कम या अधिक किया जा सकता है:
(i) फसल की दो पंक्तियों के बीच की दूरी को कम या अधिक करके ।
(ii) प्रत्येक पंक्ति में पौधों के मध्य की दूरी को कम या अधिक करके ।
अगली फसल पर कीटों का प्रकोप बहुत कम हो अथवा नहीं हो इसके लिये स्वस्थ्य बीजों व कन्दीं की बुवाई करनी चाहिये । यदि कीट से ग्रसित बीज या कन्दीं को बुवाई के लिये काम में लिया जाए तो वह अगली फसल को ग्रसित करके हानि पहुंचाते हैं ।
Method # 8. सिंचाई (Irrigation):
सिंचाई फसल की मूलभूत आवश्यकता है । यह फसल की बढ़वार व उपज पर गहरा प्रभाव डालती है । सिंचाई फसल विशेष के सूक्ष्म वातावरण पर भी गहरा प्रभाव डालती है । सिंचाई के द्वारा नमी से हानिकारक कीटों का प्रभाव प्रायः बढ़ता है । कभी-कभी सिंचाई जन्य नमी के कारण कीटों में रोगों का प्रकोप भी बढ़ता है जोकि किसान के लिये अच्छा रहता है ।
सिंचाई के प्रयोग से फसल में दीमक व सफेद लट जैसे कीटों का प्रकोप कम होता है । फसल विशेष के लिये सिंचाई की आवृत्ति का निर्धारण करने से पूर्व यह जान लेना अत्यन्त आवश्यक है कि इससे हानिकारक कीटों पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा ।
Method # 9. उर्वरक (Fertilizers):
जमीन की उर्वरता को बढ़ाने व उत्पादन बढ़ाने के लिए समय-समय पर विभिन्न उर्वरकों का उपयोग किया जाता है ये उर्वरक फसल व कीटों पर कई प्रकार से प्रभाव डालते हैं । उर्वरकों (नत्रजन, पोटाश व फास्फोरस) के विभिन्न मिश्रणों का पादपभक्षी कीटों पर भी भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है ।
इस स्थिति का कीट प्रबन्धन कार्यक्रम में उपयोग किया जा सकता है । इसके लिये विभिन्न उर्वरकों की मात्रा में कई प्रकार से हेरफेर करके एवं उनके उपयोग के समय में और मिश्रणों में बदलाव करके इन हानिकारक कीटों की संख्या पर प्रभाव डाला जा सकता है ।
नत्रजन युक्त उर्वरकों का अधिक मात्रा में प्रयोग करने पर फसलों पर कीटों का प्रकोप बढ़ता है क्योंकि इससे वनस्पतिक बढ़वार अधिक होती है व कीट प्रकोप के लिये पादप अधिक अनुकूल हो जाता है । इसी प्रकार से सरसों में फास्फोरस व पोटाश की कम मात्रा माहू की जननशक्ति को कम करती है ।
उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि उर्वरक कीटों पर विभिन्न प्रकार से प्रभाव डालते हैं अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि उर्वरकों की ऐसी अनुकूलतम मात्रा अथवा मात्राओं का प्रयोग किया जाए जो फसलों को लाभ पहुंचाये, न कि हानिकारक कीटों को ।