Read this article in Hindi to learn about how to control pests of groundnut.

(1) मोयला (Aphid):

इस कीट का वैज्ञानिक नाम एफिस क्रेक्सीवोरा है । यह हेमिप्टेरा गण के एफिडी कुल का कीट है ।

पहचान:

यह मोयला आकार में छोटा तथा काले रंग के पंख युक्त होता है ।

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क्षति:

इस कीट के निम्फ (शिशु) और प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों का रस चूसते है । प्रारम्भ में तो रस चूसने से पौधों की बढ़वार रुक जाती है और बाद में फूल आते हैं तो ये उनका रस चूसते हैं जिससे मूंगफली की उपज में भारी कमी आ जाती है । इस प्रकार यह कीट मूंगफली का बड़ा शत्रु है । यह कीट मूंगफली में वायरस बीमारियों का संचरण भी करता है ।

जीवन-चक्र:

मादा कीट बिना संगम द्वारा 8-11 निम्फ को जन्म देती है । ये निम्फ 3 बार निर्मोचन करके पूर्ण विकसित हो जाता है । निम्फ काल 10-12 दिनों का होता है । वयस्क कीट 10-12 दिनों तक जीवित रहते हैं । एक वर्ष में इस कीट की अनेक पीढ़ियाँ पायी जाती हैं ।

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समन्वित प्रबन्धन उपाय:

1. पौधों पर फॉस्फोमिडान 85 एस.एल. 250 मि.ली. या मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 1.0 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिये ।

2. इस कीट का कोक्सीनेला मृग भक्षण करती है अतः इसका संरक्षण व संवर्धन करना चाहिये ।

(2) पर्ण सुरंगक (Leaf Miner):

इस कीट का वैज्ञानिक नाम स्टोमॉप्टेरिक्स सब्सेसिकेला है । यह लेपिडोप्टेरा गण के गेलीकाइडी कुल का कीट है ।

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पहचान:

इस कीट के वयस्क पतंगे आकार में छोटे व कांस्य रंग के होते है । पंखों के विस्तार सहित इसकी लम्बाई 1 से.मी. से भी कम होती है ।

क्षति:

इस कीट के लार्वा पत्तियों में सुरंगें बनाते हैं । इस प्रकार पत्तियों पर सफेद-भूरी धारियाँ बन जाती हैं । ये इनमें जाला भी बनाती हैं । बाद में पत्तियाँ बिल्कुल झिल्लीदार हो जाती है केवल पौधा शेष रह जाता है एवं शुष्क स्थानों में सूख जाता है ।

जीवन-चक्र:

मादा पतंगा पत्तियों पर एक-एक करके अण्डे देती है । एक मादा अपने जीवन काल में 100 तक अण्डे देती है । ये अण्डे पत्तियों के दबे हुए भागों पर दिये जाते हैं । इनसे 3 से 4 दिनों में लार्वा निकल आता है एवं पत्तियों में सुरंग बनाकर भोजन ग्रहण करना शुरू कर देता है ये लार्वा लगभग 8 से 17 दिन में पूर्ण विकसित हो जाता है ।

पूर्ण विकसित लार्वा रेशमी धागे से पत्तियों को आपस में जोड़कर ककून बनाता है । प्यूपावस्था 4 दिनों की होती है अण्डे से वयस्क बनने में लगभग 15-28 दिन का समय लगता है । इस प्रकार इस कीट की एक वर्ष में 5-6 पीढियाँ पायी जाती हैं ।

समन्वित प्रबन्धन उपाय:

i. खेतों में प्रकाश पाश लगाने चाहिये जिससे वयस्क पतंगें आकर्षित होकर मारे जा सकते हैं ।

ii. जब लगातार मूंगफली बोई जाती है तो इस कीट का प्रकोप बढ़ जाता है । अतः इसके प्रकोप को कम करने के लिये फसल चक्र के अन्तर्गत फलीदार फसलों के अलावा अन्य फसलें भी बोनी चाहिये ।

iii. पर्ण सुरंगक कीट से प्रतिरोधी किस्में जैसे आई.जी.जी.वी. – 86031, आई. सी.जी.एस.- 156, आई.सी.जी-57 आदि का प्रयोग करना चाहिये ।

iv. फसल पर इस कीट की उपस्थिति के लक्षण दिखाई देते ही क्लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी., 1.0 ली का प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिये ।

(3) सफेद लद (White Grub):

इस कीट की विस्तार से जानकारी “विविधभक्षी कीटों” शीर्षक के अंतर्गत नीचे दी गई है:

विविधभक्षी कीट (Polyphagous Insects):

इस श्रेणी में वे कीट शामिल किये जाते हैं जो सभी प्रकार की वनस्पतियों को खाकर नुकसान पहुँचाते हैं ये कीट आर्थिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होते हैं ।

इस श्रेणी में निम्नलिखित कीट शामिल किये गये हैं:

1. टिड्डी दल

2. दीमक, एवं

3. सफेद लट ।

1. टिड्डी दल (Locust Swarm):

ये कीट समूह या दल के रूप में आकर फसल को हानि पहुँचाते हैं ।

भारत में टिड्डियों की तीन जातियाँ पायी जाती हैं:

(क) बंबइया टिड्‌डी – पतंगा सक्सिनेटा

(ख) प्रवासी टिड्‌डी – लोकस्टा माइग्रेटोरिया

(ग) रेगीस्तानी टिड्डी – सिस्टोसर्का ग्रिगेरिया

ये आर्थोप्टेरा गण के ऐक्रिडिडी कुल के कीट हैं ।

पहचान:

(क) बंबइया टिड्डी (Bombay Locust):

इस का शरीर बेलनाकार होता है और उस पर नुकीली गुलिका उपस्थित होती है । पृष्ठवक्ष पृष्ठक व पश्च पंखों पर सुस्पष्ट पीली धारियाँ होती हैं । पिछले पंख के निचले भाग का रंग गुलाबी होता है । ये अधिकतर भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाती है ।

(ख) प्रवासी टिड्डी (Migratory Locust):

अवयस्क कीटों में पिछले पंख काचाभ होते हैं मगर बड़े होने पर पीले हो जाते हैं । इसकी देह हल्की पीली उदर में आर-पार एवं लंबाई में हल्की काली धारियाँ होती हैं । पक्षपंख अल्पपारदर्शक होते हैं जिस पर बहुत से भूरे दाग होते हैं । इसका वयस्क रेगीस्तानी टिड्‌डी से आकार में छोटा होता है । नर 30-40 मि.मी व मादा 40-45 मि.मी. लम्बी होती है । यह यूरोप, अफ्रीका, पाकिस्तान, पूर्वी एशिया आस्ट्रेलिया, आदि स्थानों पर बहुतायात में पायी जाती है ।

(ग) रेगिस्तानी टिड्डी (Desert Locust):

नर वयस्क कीट 40-50 मि.मी. व मादा 50-60 मि.मी. लम्बी होती है । ये पीली और भूरी होती है । पश्चपंख मटमैला पीला, अल्पपारदर्शी होता है, जिसमें भूरे रंग के दाग होते हैं । अगले पैरों में सूटेनुमा अंग होते हैं तथा वक्ष का निचला भाग रोमयुक्त होता है । ये प्रायः रेगिस्तानी इलाकों में, जहाँ पर अर्द्धशुष्क जलवायु होती है, पायी जाती है ।

क्षति:

प्रायः वयस्क व शिशु पेड़ पौधों की पत्तियों को कुतर कर खा जाते है, झुण्ड में आक्रमण कर सभी प्रकार के पेड़ पौधों, खेतों को उजाड़ बना देते हैं ।

जीवन चक्र:

एक टिड्डी का जीवन 4-7 माह तक का होता है । संगम के पश्चात् मादा टिड्‌डी बलुई ऊँची भूमि में अपने पिछले उदर के भाग को 12-15 से.मी. तक घुसाकर अण्डे देती है । अण्डे देने के उपरान्त ये छिद्रों को हल्के द्रव्य पदार्थ से ढक देती है । एक मादा अपने जीवनकाल में 800 अण्डे देती है ।

इन अण्डों का ऊष्मायन काल 12-40 दिनों का होता है जिनसे छोटे-छोटे निम्फ मिलते हैं । इनके शरीर का रंग पीला या हरे रंग का होता है । ये निम्फ झुण्ड में एकत्रित होकर दल बनाकर एक ओर चल देते हैं । इनके रास्ते में जो भी पेड़-पौधे आते हैं उनको खाते हैं और इनके शरीर का आकार बढ़ता जाता है । पंख निकलने लगते हैं । ये निम्फ 4-8 सप्ताह में वयस्क हो जाते हैं ।

इस तरह से रेगिस्तानी टिड्‌डी पाँच निर्मोकरूपों से गुजरती है । मगर ये प्रजनन के लिये वयस्क नहीं हो पाते हैं । इसी प्रकार ये झुण्ड में चलते रहते हैं व पेड-पौधों को खाते रहते हैं एवं 4 सप्ताह पश्चात् पीले रंग के हो जाते हैं एवं प्रजनन करके अण्डे देने लगते हैं । इस तरह से झुण्ड में प्रजनन करता टिड्‌डी दल 13 मील प्रति घंटे के हिसाब से चलकर एक दिन में 40-70 मील तक चलता है ।

टिड्डी की विभिन्न अवस्थाएँ (Phases):

टिड्डी अधिकांशतः निम्नलिखित तीन अवस्थाओं से गुजरती है:

(1) एकल अवस्था (Solitary Phase):

इसमें निम्फ का रंग आसपास की वनस्पति पर आधारित रहता है । इसमें लैंगिक वयस्कता एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाये बिना ही आ जाती है ।

(2) विचरण अवस्था (Transients Phase):

ये एकल अवस्था व प्रवासी अवस्था के बीच की स्थिति है ।

(3) प्रवासी या यूवी अवस्था (Migratory Phase):

जब टिड्‌डे प्रजनन कर झुण्ड बनाने आरम्भ करते हैं तो इसे प्रवासी या यूथी अवस्था कहते हैं ।

समन्वित प्रबन्धन उपाय:

सामूहिक अभियानों के द्वारा इसके नियंत्रण के प्रयास से इसकी संख्या में कमी लायी जा सकती है ।

(2) दीमक (Termite):

भारत में पायी जाने वाली दीमक की प्रमुख जातियाँ निम्नलिखित हैं:

i. माइक्रोटर्मिस ओबेसाई

ii. ओडेन्टोटर्मिस ओबेसाई

iii. ओ. ऐस्मुथाई

iv. यूटर्मिस हाइयाई

v. कॉप्टोटर्मिस हाइमाई

vi. ट्राइनर्विटर्मिस हाइमाई ।

यह कीट आइसोप्टेरा गण के टर्मीटीडी कुल का कीट है ।

पहचान:

दीमक एक सामाजिक कीट है इसमें बहुरूपता पायी जाती है ।

इनके परिवार में निम्नलिखित सदस्य पाए जाते हैं:

(I) पंखधारी नर और मादा (Winged Termite):

इन्हें प्रायः वर्षा ऋतु में प्रकाश स्रोत पर देखा जा सकता है । यह अपने पंखों को गिरा कर राजा-रानी में परिणीत हो जाते हैं । इनकी संख्या एक दीमक परिवार में एक-एक ही होती है ।

(II) श्रमिक (Workers):

यह पंखहीन होते हैं एवं इनका आकार छोटा होता है । ये ऐसे नर व मादा होते हैं जिनमें जननांग विकसित नहीं होते हैं । इनका कार्य सम्पूर्ण परिवार का पालन-पोषण है । ये पूरे दीमक परिवार का 80-90 प्रतिशत होते हैं ।

(III) सैनिक (Soldiers):

इनका आकार काफी बड़ा होता है व इनके जबडे काफी नुकीले होते हैं । इनका कार्य परिवार की रक्षा करना है ।

(IV) रानी (Queen):

इसका सिर व वक्ष बहुत छोटे होते हैं तथा उदर काफी बडा व लम्बा होता है । इसका कार्य केवल अण्डे देने का है ।

(V) राजा (King):

यह आकार में अपेक्षाकृत छोटा होता है तथा सदैव रानी दीमक के साथ रहता है । इसका कार्य केवल प्रजनन करना है ।

क्षति:

यह बहुभक्षी कीट है एवं फसलों का बहुत बड़ा शत्रु है । यह भूमि में ऊँची बांबी बनाकर रहती है । यह सभी मृत व जीवित वानस्पतिक चीजों को खा जाती है जैसे लकड़ी का छिलका, लकड़ी से बनी चीजें, जड़ कपड़ा, कागज, तना इत्यादि । इस प्रकार दीमक खेतों व घरों दोनों ही स्थानों पर हानि पहुँचाती है । खेतों में जब पौधे छोटे होते हैं तो यह इनको काट देती है । इस प्रकार पौधे सूख जाते हैं ।

दीमक प्रायः रात्रि के समय सक्रिय रहती है । जिन पौधों पर दीमक का आक्रमण होता है उन पर कवक व जीवाणु जन्य रोग भी फैल जाते हैं । दीमक से हानि केवल श्रमिक दीमकों द्वारा पहुँचायी जाती है । वयस्क व शिशु (निम्फ) दोनों ही हानिकारक होते हैं ।

जीवन चक्र:

जून-जुलाई माह में पहली वर्षा के उपरान्त पंखधारी नर व मादा, जो कि आगे चलकर रानी व राजा बनते हैं, मैथुनी उड़ान भरते हैं । इसके उपरान्त संगम करते हैं व इनके पंख झड़ जाते हैं तथा ये भूमि पर आ जाते हैं । भूमि पर घर बनाकर रहते हैं । मादा का उदर अण्डे के कारण फूल जाता है ।

यह 30,000 से 80,000 अण्डे देती है । अण्डे का ऊष्मायन काल 2-3 सप्ताह का होता है एवं इनसे शिशु (निम्फ) निकलते हैं एवं ये तुरन्त भोजन की तलाश करने लगते हैं तथा बाद में श्रमिक बनकर भोजन एकत्रित करते है । निम्फ से वयस्क बनने में 6-10 माह का समय लगता है ।

इस दौरान ये 4-5 बार निर्मोचन करते हैं । इस प्रकार इनसे पंख वाले नर व मादा बनते हैं जो वर्षा में काफी मात्रा में देखे जा सकते हैं व शेष 80-90 प्रतिशत निम्फ श्रमिक बनते हैं । इस कीट की वर्ष में केवल एक पीढ़ी ही पायी जाती है ।

समन्वित प्रबन्धन उपाय:

a. खेत में कच्ची गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिये ।

b. दीमक के घरों/बांबी को नष्ट करना चाहिये ।

c. खेतों में पानी की कमी नहीं होनी चाहिये । समय-समय पर सिंचाई करते रहना चाहिये ।

d. बुवाई से पूर्व बीजोपचार करना चाहिये । बीजों को क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. (6 मि.ली./कि.ग्रा. बीज) से उपचारित करके बोना चाहिये ।

e. सिंचाई जल के साथ क्लोरोपायरीफास 20 ई.सी. को देना काफी लाभादायक रहता है ।

(3) सफेद लट (White Grub):

सफेद लट या रूटग्रब शब्द को स्कैरब बीटलस जिसे कि सामान्यतः कोक चैफर लीफ चैफर, चैफर बीटिल, मई बीटिल या जून बीटिल के नाम से जाना जाता है, की अपरिपक्व अवस्था के लिये प्रयोग करते हैं । मृग का यह वर्ग समस्त विश्व के कृषिविदों के लिये जड़ों को खाने वाले भृंगकों के रूप में जाना जाता है । इस कीट का वैज्ञानिक नाम होलोट्रइकिया कुन्सीनवेनिया है । ये कोलियोप्टेरा गण के स्केरेबीडी कुल का कीट है ।

पहचान:

वयस्क कीट गहरे भूरे रंग का 2.5-5.0 मि.मी. चौड़ा तथा 10-15 मि.मी. लम्बा उड़ते समय होता है । मादा कीट आकार में नर की अपेक्षा बड़ी होती है । पूर्ण विकसित ग्रब के आकार की मटमैली सफेद होती है । सिर गहरे भूरे रंग का होता है । जिसमें मजबूत मैन्डीबल होते हैं ।

क्षति:

इसके ग्रब भूमि में जड़ को अत्यधिक हानि पहुँचाते हैं जिसके फलस्वरूप पेड़ सूख जाते हैं । वयस्क भृंग पत्तियों को खाकर ठूंठ छोड़ देते हैं । प्रौढ़ भृंग अधिकतर गोधूलि बेल (7.30 से 8.30 बजे सांय) में मिट्टी से निकलकर झुण्ड में पोषक पौधों की पत्तियों को खाते हैं । ये मृग रात्रिभर सक्रिय रहते हैं तथा प्रातः 5-5.30 बजे पुन: मिट्टी के अन्दर चले जाते हैं ।

जीवन-चक्र:

मादा कीट मानसून अथवा मानसून से पूर्व की वर्षा के बाद भूमि से निकलती हैं । भूमि से मृगों के निकलते ही उनमें सहवास प्रारम्भ हो जाता है तथा इसके 2-3 दिनों बाद ये अण्डे देना आरम्भ कर देती है । अण्डे एक-एक करके मिट्‌टी में 10- 15 से.मी. गहराई में दिए जाते हैं ।

अण्डवस्था 7-10 दिनों की होती है । अण्डे से निकली ग्रब आरम्भ में कार्बनिक पदार्थ खाती है । ग्रब अपने जीवनकाल में तीन अवस्थाओं से गुजरती है । पूर्ण विकसित ग्रब ‘C’ आकार का होता है । सम्पूर्ण ग्रब काल 100-110 दिनों का होता है ।

ये ग्रब भूमि में जाकर मिट्टी का ककून बनाकर प्यूपावस्था में बदल जाते है । मिट्‌टी की किस्म के अनुसान प्यूपावस्था 10-27 दिनों की होती है । इनका सम्पूर्ण जीवन चक्र 129-150 दिनों में पूरा हो जाता है तथा एक वर्ष में एक पीढ़ी ही पायी जाती है ।

समन्वित प्रबन्धन उपाय:

i. भृंगों को जून जुलाई में प्रकाश पाश के द्वारा आकर्षित कर नष्ट कर देना चाहिए ।

ii. मई में प्रथम बरसात के बाद कई बार गहरी जुताई करने से अण्डे एवं छोटी-छोटी ग्रब नष्ट हो जाती है ।

iii. मानसून शुरू होते ही मृग को मारने के लिए उसे आश्रय देने वाले पेड़ों पर 0.2 प्रतिशत कार्बोरिल या 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस का छिड़काव करना चाहिये ।

iv. बुवाई के समय बीजों को क्लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी. या क्यूनॉलफॉस 25 ई.सी. से उपचारित करें या फोरेट 10 जी को मिट्‌टी में 25 किलो/हे. की दर से लाइनों में डालना चाहिये ।

v. खड़ी फसल में क्लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी. या क्यूनॉलफॉस 25 ई.सी. का 4 ली/हे. की दर से छिडकाव करना चाहिये ।

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