Read this article in Hindi to learn about how to control pests in potatoes.

आलू एक नकदी फसल जो प्रति इकाई क्षेत्र व प्रति इकाई समय में अधिक उत्पादन देती । आलू की खेती सभी लघु एवं सीमान्त किसानों द्वारा की जाती है ।

आलू एक संम्पूर्ण आहार तथा कम समय में पैदा होने वाली फसल है इसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, खनिज, विटामिन्स और अन्य पोषक तत्व उपलब्ध है । परन्तु आलू कायिक प्रबर्धित फसल होने के कारण कीटों व रोगों के प्रति काफी संवेदनशील है ।

इस फसल में बोने से लेकर कन्द बनने तथा भण्डारण तक विभिन्न अवस्थाओं में कीड़ों बीमारियों व सूत्रकृमियों द्वारा आक्रमण करके आर्थिक नुकसान पहुंचाते हैं । इस फसल का औसतन कीड़ों से 10-20 प्रतिशत तथा बीमारियों से 70-80 प्रतिशत तक की क्षति होती है । साथ ही फसल की गुणवत्ता में भी भारी कमी आती है ।

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समय-समय पर कई कीड़े आलू की फसल की क्षति पहुँचाते हैं । खेतों के अतिरिक्त, साधारण भण्डारों में रखें गये आलू कन्दों पर भी कई कीट-व्याधियों का प्रकोप पाया जाता है जिसके परिणामस्वरूप किसान भाइयों को आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है और उन्हें उनकी मेहनत का पूरा-पूरा लाभ नहीं मिलता है ।

इन हानिकारक कीटों में से माहू (एफिड), लीफ हॉपर (जैसिड), कटुआ कीट (कट वर्म), सफेद लट (ह्वाइट ग्रब), हाड्‌डा बीट्‌लि (एपीलेकना बीट्‌ल), पत्तियों को खाने वाले विभिन्न प्रकार के कैटरपीलर और आलू के कन्द शलभ कीट (पोटेटो ट्‌यूबर माथ) आदि द्वारा काफी आर्थिक क्षति होती है ।

सधारणतः इन विभिन्न प्रकार के कीटों द्वारा आलू की फसल को 10 – 20 प्रतिशत की क्षति होती है । एफिड एवं जैसिड पौधों की पत्तियों से रस चूसने के अतिरिक्त क्रमश: विषाणु (वायरस) और माइकोप्लाज्मा जैसी बीमारीयों के संवाहक का कार्य भी करते हैं जिससे बीज के आलू कन्दों की गुणात्मक क्षति होती है तथा यह क्षति और भी ज्यादा बढ़ जाती है । जब विषाणयुक्त आलू कंदों की पुन: बीज के रूप में इस्तेमाल किया जाता है ।

आलू की लाभप्रद खेती के लिए जहाँ एक ओर अच्छी किस्म के बीज उपयुक्त समय पर संतुलित मात्रा में खाद व उर्वरक और सिंचाई आदि का महत्व है वहीं दूसरी और उपयुक्त समय पर पौध संरक्षण के उपायों का भी उतना ही महत्व है ।

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क्योंकि अच्छी से अच्छी उत्पादनशील उन्नत किस्में और मेहनत से उगाई जा रही आलू की फसल में भी यदि कीट-व्याधियों की रोकथाम की ओर ध्यान न दिया जाय तो सब व्यर्थ हो जाता है । अतः पौध संरक्षण के उपयुक्त उपायों का सही समय पर उपयोग करना बहुत ही आवश्यक है ।

1. माहू (एफिड):

माहू छोटे, मुलायम शरीर वाले हरे, गुलाबी अथवा पीले रंग के कीट होते है । आलू की फसल पर कई प्रकार के माहू पाये जाते हैं, परन्तु इनमें से- i. आलू की हरी माहू (ग्रीनपीच एफिड), माइजस परसिकी,

ii. कपास की माहू (कॉटन एफीड), एफिस गासीपाई,

iii. सेम की माहू (बीन एफिड), एफिस फेबी आर्थिक दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत अधिक हानिकारक माने जाते है ।

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इनमें से पहली यानि आलू की हरी माह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है तथा विषाणु (वायरस) की कई बीमारियों के संवाहक का कार्य करती है । इन विभिन्न प्रकार की एफिड में उपज की दृष्टिकोण से कोई असर पड़े या न पड़े परन्तु स्वस्थ आलू के बीजोत्पादन में ये अवश्य ही प्रमुख बाधक माने जाते हैं ।

इसलिए बीज के लिए उगाई जा रही आलू की फसल को खासतौर पर माहू कीड़ों से बचाये रखना नितान्त आवश्यक है । ताकि विषाणु बीमारियों को बीज के लिए उगाई जा रही स्वस्थ आलू की फसल पर फैलने से रोका जा सके । इसके लिए फसल काल में एफिड कीटों की संख्या को क्रान्तिक स्तर (20 एफिड/ 100 संयुक्त पत्तियां) से नीचे रखना अनिवार्य होता है ।

यह कार्य तभी सम्भव हो सकता है जबकि:

(i) आलू बीज की फसल उस समय में और उन स्थानों पर ही ली जाये जब/जहाँ इनकी संख्या फसल के दौरान क्रान्तिक स्तर/आर्थिक क्षति स्तर से नीचे पायी जाती हो

(ii) समय पर पौध संरक्षण के उपायों का उपयोग किया जाय और

(iii) एफिड कीड़ों के क्रान्तिक स्तर तक पहुंचने से पूर्व/पहुँचते ही, तैयार फसल के वानस्पतिक भागों (पत्तियों तथा डंठलों) को काट दिया जाय ।

माइजस परसिकी माहू का प्रकोप प्राय: दिसम्बर के आरम्भ में शुरू होती है । इनकी संख्या क्रान्तिक सीमा (20 एफिड/100 संयुक्त पत्तियां) तक जनवरी के अन्तिम सप्ताह में पहुँचती है और प्राय: इनकी संख्या फरवरी और मार्च के महीनों में अधिकतम होती है, इसके पश्चात् इन कीड़ों की संख्या घटने लगती है ।

माहु कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही पत्तियों की सतह कोमल डंठलों एवं टहनियों से रस चूसते हैं । अक्रांत पत्तियां पीली पड़कर मुरझा जाती है । इसके अतिरिक्त माह पत्तियों पर मधु स्त्राव भी करता है जिससे काला-काला फफूंद का विकास होता है, परिणामत: प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बाधा पहुँचती है । पंखयुक्त माहू विषाणु (वायरस) बिमारी तीब्रता से फैलता है ।

2. लीफ हॉपर (जैसिड):

इन कीड़ों की कई प्रजातियां आलू की फसल पर पायी जाती है । इनके शिशु और वयस्क दोनों ही आलू की पत्तियों से रस चूसकर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं । अप्रत्यक्ष रूप से लीफ हॉपर की कुछ एक प्रजातियां माइकोप्लाज्या की बीमारियों के संवाहक का कार्य भी करती है जिसके परिणामस्वरूप बीज के लिए उगाई जा रही आलू की फसल पर गुणात्मक कुप्रभाव भी पड़ता है ।

ये कोई कोमल, छोटे शरीर वाले, हरे रंग और चूस्त स्वभाव के होते हैं । इनके शरीर की बनावट शुण्डाकार होती है । इन कीड़ो द्वारा पौधों से रस चूसने के परिणामस्वरूप क्षतिग्रस्त पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है । इन कीड़ा के प्रकोप तीब्र होने पर क्षतिग्रस्त पौधों की पत्तियां किनारों पर जल जाती है । इस लक्षण को “हॉपर-बर्न” के नाम से जाना जाता है ।

एफिड व जैसिड कीड़ो का नियंत्रण:

i. नाइट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश का संतुलित मात्रा में प्रयोग करें ।

ii. माह या जैसिड का प्रकोप अधिक होने पर या इन कीड़ों से अधिक क्षति होने की सम्भावना होने पर डाईमेथोफ (30 ई॰सी॰) 2 मि॰ली॰ या ईमेडाक्लोप्रीड (17.8 एस॰ एल॰) 0.25 मि॰ ली॰ या ऐसीटामिप्रीड (20 एस॰पी॰) 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से आलू की फसलों पर आवश्यकतानुसार 10 – 15 दिनों के अन्तराल पर कीटनाशकों को बदल-बदल कर छिड़काव करते रहना चाहिए ।

iii. बीज के लिए उगाई जाने वाली आलू की फसल की बुआई करते समय कूड़ों में अथवा आवश्यकतानुसार पहली बार मिट्‌टी चढ़ाते समय पौधों के पास फोरेट 10 प्रतिशत (थिमेट 10जी) या कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 प्रतिशत (केलडान 4-जी) की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग कर माहू और जैसिड कीड़ों पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है ।

इन रासायनों से अच्छे परिणाम पाने के लिए खेतों में उपयुक्त नमी का होना अनिवार्य है जिससे यह रसायन जड़ों द्वारा होते हुए पौधो के सम्पूर्ण वानस्पतिक भागों तक पहुँच सके । जिन खेतों में इन रसायनों का इस्तेमाल बुआई के समय किया गया हो तो उनमें अंकुरण प्रारंम्भ होते ही एक हल्की सिंचाई कर देना अच्छा रहेगा ।

इसके अतिरिक्त संम्पूर्ण फसल काल के दौरान खेतों में उपयुक्त नमी का बनाए रखना जरूरी होता है । साधारणतया दानेदार कीटनाशकों का प्रभाव जलवायु के आधार पर 40-60 दिनों तक रहता है ।

अतः बीज के लिए उगाई जा रही आलू की फसल को पूरे फसल अवधि के दौरान माहू तथा जैसिड कीड़ों से बचाये रखने के लिए एक-दो बार बाद में डाइमेथोएट (30 ई॰सी) 2 मि॰ली॰ या ऐसीटामिप्रीड (20 (एस॰पी॰) 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से आवश्यकतानुसार 10 – 15 दिनों के अन्तराल पर फसलों में छिड़काव करना चाहिए ।

3. कटुआ कीट (कट वर्म):

यह एक सर्वव्यापी और सर्वभक्षी (पोलीफैगस) कीट है । भारत में इस कीट की पाँच प्रजातियां आलू की फसल पर पायी जाती है जिनमें से एग्रोटीस एपसीलान मैदानी क्षेत्रों में प्रमुख प्रजाति हैं ।

आलू की फसल को इस कीट के फिल्म, अवस्था ही नुकसान पहुँचाता है । यह पिल्लू प्रारंम्भिक अवस्था में छोटे-छोटे उग रहे पौधों को तने से काटकर तथा बाद में आलू कन्दों को खाकर फसल को 30 -40 प्रतिशत तक की क्षति पहुँचाता है ।

पिल्लू गहरे स्लेटी व गहरे भूरे रंग का होता है जिनके पीठ पर हल्के धब्बे या धारियां पायी जाती है । पिल्लू की लम्बाई लगभग 5 सें॰ मी॰ या यों समझ लिजिए कि हाथ की छोटी अंगुली के बराबर होता है ।

पिल्लू दिन के समय खेतों की नम मिट्‌टी के अन्दर अथवा खतों में घास-फूस के मध्य छिपा रहता है और रात्रि के समय में सक्रिय होकर फसल को नुकसान पहुँचाता है । यह जितना पत्तियों को खाकर नुकसान पहुँचाता हैं, उससे कहीं ज्यादा पौधों को काटकर तथा बरबाद करके नुकसान पहुँचाता है ।

4. सफेद गिडार (ह्वाइट ग्रब):

यह भी एक बहुभक्षी कीट है । इस कीट के कई प्रजातियां होती है. जो कि आलू मूँगफली मक्का बाजरा गन्ना आदि कई प्रकार की फसलों को क्षति पहुँचाता है । आलू कन्दों को इस कीट के गिडार ग्रबों द्वारा नुकसान होता है ।

काक चैफर भृंग की गिडारों (ग्रबों) को ही सफेद गिडार या ह्वाइट ग्रब के नाम से जाना जाता है । सफेद गिडार मांसल, सफेद अथवा हल्के सलेटी रंग का होता है जिनके शरीर का पिछला भाग समतल चमकीला और सिर भूरा होता है ।

यह प्राय: अंग्रेजी के ‘सी’ आकार का मुड़ा रहता है । इस कीट का ग्रब प्राय: देश की सभी प्रकार की मिट्‌टियों में पाया जाता है । गिडार नव विकसित पौधौं के जड़ों को खाता है जिससे पौधे सूख जाते हैं ।

इस प्रकार शुरू में इस कीट के गिडार जमीन के अन्दर जड़ एवं तना को खाता है तथा बाद में कन्द बनने पर आलू के कन्दों को कुतर-कुतर कर खा जाता है जिससे पूरा आलू क्षतिग्रस्त हो जाता है और किसानों को अपनी उपज का पूरा मुल्य नहीं मिलता है । ये क्षतिग्रस्त कन्द भंडारण के योग्य नहीं होते हैं । इस कीट से 50 -60 प्रतिशत तक क्षति देखी गयी है ।

कट वर्म एवं सफेद गिडार का नियंत्रण:

आलू की फसलों पर कटुवा कीट एवं सफैद गिडार का नियंत्रण के लिए क्लोरपायरीफास (20 ई॰सी॰) या क्वीनालफास (25 ई॰सी॰) का 1.25 मि॰ली॰ प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसलों पर तथा चढ़ाई गई मिट्‌टी पर भली-भांति छिड़काव करना चाहिए । आवश्यकता पड़ने पर यह छिड़काव इसी दर से दुहराया जा सकता है । पौधों पर चढ़ाई गई मिट्‌टी पर इस प्रकार छिड़काव करने से दीमक और अन्य भूमिगत कीटों का नियंत्रण काफी हद तक हो जाता है ।

हाड्‌डा बीट्‌लि (एपीलेकना बीटल):

पत्तियों को खाकर आलू की फसल को क्षति पहुँचाने वाले कीटों के समूह में इस कीट का प्रमुख स्थान है । इस कीट के व्यस्क प्रौढ़ आकार में ढल हुए आधे चने के दाने के आकार के पीले-भूरे अथवा गहरे-भूरे भृंग होते हैं । इनके पंखों पर 28 धब्बे पाये जाते हैं । इस कीट के ग्रब पीले रंग के होते हैं, जिनके शरीर पर कटीले रोएं पाये जाते है । प्रौढ़ और ग्रब दोनों ही पत्तियों की हरितिमा को खुरचकर खा जाते है ।

इस कीड़े की संख्या अधिक होने पर और इनके तीव्र हमले की अवस्था में पत्तियों के शिराविन्यास को छाड़कर समूचा हरित पदार्थ नष्ट हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानों फसल झुलस सी गई हो । कभी-कभी तो किसान इस प्रकार के लक्षण की आलू का पिछेती झूलसा (लेट ब्लाइट) समझ बैठते हैं ।

6. पत्तियां खाने वाले पिल्लू:

आलू के पौधों की पत्तियां को खाकर क्षति पहुँचाने वाले विभिन्न प्रकार के पिल्लुओं के अर्न्तगत:

i. मटर के सेमीलूपर

ii. चने का फली वेधक और

iii. बिहार हेयरी केटर पीलर का पिल्लू प्रमुख होते हैं ।

इस कीट के विभिन्न प्रकार के पिल्लू आलू की पत्तियों का कुतर-कुतर कर खाता है । इनकी अधिक संख्या और हमला अधिक तीव्र होने से कभी-कभी तो फसल की पूरी-पूरी पत्तियां ही समाप्त हो जाती है परिणामस्वरूप पौधों के प्रकाश संश्लेषण की क्रिया रूक जाती है जिससे बढ़वार रूक जाती है, अन्तत: उपज भी घट जाता है ।

नियंत्रण:

एपीलेकना वीट्‌ल तथा पत्तियां खाने वाली विभिन्न प्रकार के पिल्लुओं से आलू की फसल को सुरक्षित रखने के लिए कारर्बारिल (50 डब्लू॰ पी॰) 2 ग्राम या क्वीनालफास (25 ई॰सी॰) या डायक्लोरभास (76 ई॰सी॰) का 1.25 मि॰ली॰ प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसलों पर छिड़काव करना चाहिए । आवश्यकता पड़ने पर इस प्रकार के छिड़कावों को 15 दिनों के अन्तर पर एक-दो बार और भी किया जा सकता है । इस छिड़काव से आलू की पत्तियों को खाने वाले अन्य कीड़ों का भी रोकथाम हो जाता है ।

7. आलू का कन्द शलभ कीट (पोटेटो ट्‌यूबर मॉथ):

इस कीट के पिल्लू खेती में आलू के पौधों कन्दों तथा साधारण भण्डारों में रखे कन्दों को नुकसान करता है ।

खेतों में इस कीट के फिल्म पौधों की पत्तियां और तनों पर वैधक कीट के रूप में आक्रमण करके फसल की क्षति पहुँचाता है, जबकि साधारण भण्डारों में रख गया आलू कन्दों के अन्दर घुसकर गूदे की खाकर क्षति पहुँचाता है । कभी-कभी एक कन्द में कई पिल्लू पाया जाता है ।

क्षतिग्रस्त कन्दों पर पिल्लू द्वारा छोड़े गये मल से इनकी उपस्थिति का बड़ी सरलता से पता चल जाता है । क्षतिग्रस्त आलू के कन्द न तो बीज और न ही खाने योग्य रह जाते है । इस प्रकार क्षतिग्रस्त आलूओं पर बीमारियां भी अपेक्षाकृत शीघ्र लग जाती है ।

इस कीट के व्यस्क हल्के भूरे रंग के साथ लम्बाई में लगभग 10 मि॰मी॰ होता है । इसकी मादा कीट भंडारित आलूओं के ऑखों में 125 – 230 तक अण्डे समूहों में देती है । अण्डे बहुत छोटे दूधिया रंग के तथा आकार में अण्डाकार होते हैं ।

18 – 20 दिनों के पश्चात् अण्डों से पिल्लू निकलकर आलू कन्दों में सुरंग बनाकर प्रवेश कर जाता है तथा अन्दर गुदे को खाते रहता है । पिल्लू आलू के अन्दर ही पूर्ण विकसित हो जात है । पूर्ण विकसित फिल्म लगभग 12 मि॰मी॰ लम्बा और हल्का गुलाबी रंग का होता है । जिनका सिर गहरे भूरे रंग का होता है ।

पिल्लू प्यूपों में परिणित होने के पूर्व कन्दों के अन्दर से बाहर निकल आता है और कंदों के उपर ही पड़े मल में ही प्यूपों में परिणत हो जाता है । प्युपों का रंग गहरा भूरा रंग का और लम्बाई लगभग 10 मि॰मी॰ होता है । क्षतिग्रस्त कन्दों पर छोटे-छोटे बारीक सुराख होता है जिन पर इनका मल दिखाई देता है ।

नियंत्रण :

(i) खेतो में:

क्वीनालफास (25 ई॰सी॰) या डायक्लोरभास (76 ई॰ सी॰) या कलोरपायरीफास (20 ई॰सी॰ 1.25 मि॰ली॰ प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करके आलू के पौधे को इस हानिकारक कीट से बचाया जा सकता है । पहला छिड़काव फसल पर इस कीट के आक्रमण होते ही करना चाहिए ।

यह छिड़काव आवश्यकतानुसार 15 दिनों के अन्तर पर पुन: किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त खेतों में कन्दों पर इस कीट का आक्रमण रोकने के लिए प्रारंभ में ही बुआई करते समय आलू के कन्द बीज को गहराई में बोना चाहिए और बाद में फसल काल के दौरान कन्दों के बनते समय पौधों पर अच्छी तरह मिट्‌टी चढ़ाते रहना चाहिए ताकि आलू कन्द खुले न रहने पाये, क्योंकि खेतों में इन्हीं खुल आलू कन्दों पर इस कीट की मादा अण्डे देती है । खुदाई के पश्चात् कन्दों की खुले नहीं छोडना चाहिए और न ही आलू की पत्तियों से ढकना चाहिए ।

(ii) भण्डारों में:

जहाँ तक सम्भव हो कीट मुक्त स्वस्थ आलू कन्दों की शीत भण्डारा में रख । जिन क्षेत्रों में शीत भण्डारों की सुविधा उपलब्ध न हो उस परिस्थिति में स्वस्थ आलू कन्दों को साधारण भण्डारों में रखने के पश्चात् उन पर 5 सें॰मी॰ मोटी सुखी रेत की तह बिछा देनी चाहिए ।

यदि आलू केवल बीज के लिए रखे गए हों तो विछाई गई सुखी रेत को फेनवाल धुल (2%) से उपचारित करना ज्यादा अच्छा रहेगा, परन्तु कीटनाशक रसायनों का उपयोग खाने के लिए रखे जाने वाले कन्दों पर कदापि नहीं करना चाहिए, अन्यथा कीटनाशक के अवशेषों के कारण स्वास्थ्य संकट उत्पन्न हो सकता है ।

अन्य महत्वपूर्ण बातें:

(a) शीतगृह में हमेशा स्वस्थ्य आलू के कन्द को रखना चाहिए ।

(b) सूर्यास्त के पहले गोदाम में 3 सें॰मी॰ मोटी बालू की परत पर रखना चाहिए ।

(c) गोदाम में भंडारण से पहले मालाथियान (50 ई॰सी॰) 10 मि॰ली॰ या क्लोरपायरीफास (20 ई॰सी॰) 6 मि॰ली॰ प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर दिवार के सतह एवं फर्श पर छिडकाव करना चाहिए ।

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