Read this article in Hindi to learn about:- 1. सूक्ष्म जैविक नियंत्रण का अर्थ तथा परिभाषा (Meaning and Definition of Microbial Control) 2. सूक्ष्मजीवों द्वारा कीटों में संक्रमण मार्ग (Insect Infections Pathway through Microorganisms) and Other Details.

सूक्ष्म जैविक नियंत्रण का अर्थ तथा परिभाषा (Meaning and Definition of Microbial Control of Pest):

सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न रोगों से हानिकारक कीटों के नियंत्रण को ‘सूक्ष्म जैविक नियंत्रण’ कहते हैं । सूक्ष्मजीव हानिकारक कीटों में संक्रमण उत्पन्न करके उन्हें मार देते हैं । यह एक प्रकार का जैविक नियंत्रण का ही भाग है जिसमें स्वयं कीट के रोगाणुओं का उपयोग उनके नियंत्रण के लिये किया जाता है । इन सूक्ष्मजीवियों में जीवाणु, विषाणु, कवक, प्रोटोजोआ आदि शामिल हैं ।

परिभाषा:

”सूक्ष्मजीवियों के सभी पक्षों अथवा उनके उपजातों का हानिकारक कीटों के नियंत्रण के लिये उपयोग सूक्ष्म जैविक नियंत्रण कहलाता है ।”

ADVERTISEMENTS:

सूक्ष्मजीवियों का कीटों के प्रबन्ध में निम्नलिखित रूप में उपयोग किया जाता है:

(क) प्राकृतिक रूप से उपस्थित सूक्ष्मजीवियों का अधिकतम उपयोग ।

(ख) सूक्ष्मजीवियों का कीटों की संख्या में स्थायी मृत्यु कारक के रूप में प्रवेशित होना ।

सूक्ष्मजीवों द्वारा कीटों में संक्रमण मार्ग (Insect Infections Pathway through Microorganisms):

i. मुखीय संक्रमण:

ADVERTISEMENTS:

इसके अन्तर्गत रोगजनक सूक्ष्मजीवी भोजन के माध्यम से अन्तर्ग्रहित किये जाते हैं । वायरस, जीवाणु, प्रोटोजोआ, सूत्रकृमि व कुछ कवक इसी प्रकार से कीटों के शरीर में प्रवेश करते हैं ।

ii. अध्यावरण द्वारा:

कवक तथा कुछ सूत्रकृमि कीट के अध्यावरण या श्वास नली को भेद कर शरीर में प्रवेश कर जाते हैं ।

iii. घाव द्वारा:

ADVERTISEMENTS:

अधिकतर रोगजनक सूक्ष्मजीवी अध्यावरण में घाव अथवा दरार उत्पन्न होने पर प्रवेश करते हैं । ये घाव परभक्षियों के काटने अथवा अण्डनिक्षेपित करते हुए होते हैं ।

iv. पारअण्डाशयीं संक्रमण:

कुछ रोगजनक सूक्ष्मजीवी यथा वायरस व प्रोटोजोआ परपोषी अण्डों पर अथवा अण्डों के अन्दर उपस्थित रहकर संक्रमण उत्पन्न करते हैं । जब एक संक्रमित मादा अण्डे देती है तो वायरस अण्डों से होकर संतति में पहुँचते हैं ।

(1) बैक्टीरिया (Bacteria):

कीटों में रोग उत्पन्न करने वाले बैक्टीरीया निम्नलिखित वर्गों में बांटे गये हैं:

i. अविकल्पी रोगाणु (Obligate Pathogens):

इस प्रकार के रोगाणुओं को बढ़वार तथा प्रजनन के लिये विशेष परिस्थितियों की तथा माध्यमों की आवश्यकता होती है । इन रोगाणुओं का पोषी परिसर बहुत ही सीमित होता है । ये स्पोर का निर्माण करते हैं । उदाहरण- बेसीलस पोपली, बेसीलस लेरीमोरवस ।

ii. विकल्पी रोगाणु (Facultative Pathogens):

इस प्रकार के रोगाणुओं को वृद्धि व प्रजनन के लिए किसी विशेष परिस्थिति की जरूरत नहीं होती है । ये प्रायः कम उग्र होते हैं ।

ये जीवाणु दो प्रकार के होते हैं:

(क) क्रिस्टलधारी:

ये जीवाणु प्रोटीनयुक्त क्रिस्टल उत्पन्न करते हैं जो कि पोषी कीट के लिये विषाक्त होते हैं । ये जीवाणु स्पोर का निर्माण करते हैं तथा इनकी पोषी वरीयता विस्तृत होती है । उदाहरण – बेसीलस थूरिनजिएन्सिस ।

(ख) अक्रिस्टलधारी:

ये जीवाणु कीटों में प्रोटीन युक्त क्रिस्टल उत्पन्न नहीं करते है ।

(2) कवक (Fungi):

कवक कीटों के शरीर के बाहर अथवा अन्दर प्रवेश कर उन्हें मार देती है । कीटों में कवक जनित रोग चार समूहों- फाइकोमाइसिटीज, एस्कोमाइसिटीस, बेसीडियोमाइसिटीस तथा ड्‌यूटेरोमाइसिटीस के कवकों द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं ।

कवक कीटों के शरीर में प्रायः अध्यावरण द्वारा प्रवेश कर संक्रमण पैदा करते हैं । कवकों के स्पोर के सही अंकुरण के लिये उचित आर्द्रता की आवश्यकता होती है जबकि सूर्य के प्रकाश का इन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

कवक की क्रिया विधि (Mode of Action):

कवक अपने पोषी कीट में अध्यावरण द्वारा संक्रमण उत्पन्न करते हैं । इनके द्वारा कुछ विशेष प्रकार के एन्जाइम्स स्रावित किये जाते हैं जो कि अध्यावरण के कठोर काइटिन को मुलायम कर देते हैं, फलस्वरूप इनका प्रवेश कीटों के शरीर में आसानी से हो जाता है ।

एक बार कवक कीट शरीर की गुहा में प्रवेश करने के बाद बहुत ही तेजी से वृद्धि करते हैं एवं अन्दर के सभी ऊतकों का अतिक्रमण कर लेते हैं । कवक शरीर गुहा को कवक जाल से भर देता है । कवक जाल की इस तेज गति से वृद्धि के फलस्वरूप कीट का शरीर कठोर और ममीकृत हो जाता है ।

ये कवक कीट शरीर में विषाक्त पदार्थ भी उत्सर्जित करते हैं जोकि ‘माइकोटाक्सिन’ कहलाता है ये विषाक्त पदार्थ कीटों में टिटनेस के समान लक्षण उत्पन्न करते हैं । कीट की मृत्यु अत्यधिक थकान, कवक जाल के कारण श्वासनली बन्द होने अथवा पक्षाघात व माइकोटाक्सिन के कारण होती है ।

(3) वायरस (Virus):

कीटों में वायरस अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं । वायरस लेपीडोप्टेरा गण के कीटों में विशेष रूप से रोग पैदा करते हैं । अधिकतर वायरसों के कण प्रोटीन क्रिस्टल होते हैं जिन्हें ‘इनक्लुजन बाडीज’ कहते हैं । प्रोटीन क्रिस्टल से वायरस बाहर से एक आवरण द्वारा ढके रहते हैं जोकि पोलीहीड्रा कहलाते हैं ।

कीटों में रोगकारक वायरसों को निम्नलिखित समूहों में बांटा गया है:

i. न्यूक्लियर पोलीहीड्रोसिस वायरस (NPV):

इस वायरस की सम्पुटिका में कई वायरस कण होते हैं । ये वायरस कण छड की आकृति के होते हैं तथा बाहर से एक आवरण द्वारा ढके होते हैं । इनका व्यास 20 से 50 म्यू तथा लम्बाई 200 से 400 म्यू होती है ।

ii. ग्रेनुलोसिस वायरस (GV):

इन वायरसों की सम्पूटिका में केवल एक जीवी कण होता है । इन कणों का व्यास 36 से 86 म्यू तथा लम्बाई 245 से 411 म्यू होती है ।

iii. साइटोप्लाज्मिक पालीहीड्रोसिस वायरस (CPV):

ये वायरस कण आकार में आइसोहाइड्रल होते हैं तथा इनका माप 50 से 70 म्यू होता है ।

वायरस की क्रिया विधि (Mode of Action):

वायरस की उष्मायन अवधि 15 से 20 दिन की होती है । संक्रमित लार्वा खाना छोड़ देते हैं एवं निष्क्रिय होकर मर जाते हैं । मृत्यु से कुछ समय पूर्व अथवा बाद में जीर्ण क्षीण लार्वे की अध्यावरण कमजोर होकर आसानी से टूट जाती है । इसके शरीर से द्रव के रूप में टूटे-फूटे ऊतक एवं पोलीहीड्रा निकलते हैं । इस वायरस द्वारा कोशिका के नाभिक पर आक्रमण होता है । यह कीटों की बाह्य त्वचा, वसा पिण्डकों, रक्त कोशिकाओं व श्वास नलिकाओं पर आक्रमण करता है ।

ग्रेनुलोसिस वायरस मुख या अण्डों द्वारा कीट के शरीर में प्रवेश करता है तथा परपोषी की कोशिका के नाभिक तथा साइटोप्लाज़्म में संवर्धित होता है । इसके संक्रमण के प्राथमिक स्थान बसा पिण्डक होते हैं । संक्रमित लार्वे का रक्त अविरल हो जाता है । जब इस वायरस का आक्रमण बाह्य त्वचा पर होता है तो उसका द्रवीकरण हो जाता है । संक्रमण के उपरान्त लार्वे हल्के रंग के हो जाते हैं ।

साइटोप्लाज्यिक पोलीहीड्रोसिस वायरस मुख व अण्डों के द्वारा कीट शरीर में प्रवेश करते हैं । इनका संवर्धन साइटोप्लज़्म (कोशिका द्रव) में होता है । ये लार्वे की मध्यांत्र की उपकला की कोशिकाओं को संक्रमित करता है । संक्रमित लार्वों की वृद्धि बहुत धीमी हो जाती है, सिर शरीर के अनुपात में काफी बड़ा हो जाता है व लावें के रंग में परिवर्तन आ जाता है ।

(4) सूत्रकृमि (Nematode):

सूत्रकृमियों की कुछ जातियाँ कीटों के ऊपर परजीवी रहकर उन्हें रोगग्रस्त करती हैं । कीट परजीवी सूत्रकृमि निमेटोडा वर्ग के रेहव्हीकोयडिया टाइलेनकोयडिया, मेरमेधोयडिया, एफेलेनकीयाडया तथा आक्सीरायानुया कुलों से सम्बन्ध रखते हैं । ये कीटों पर आन्तरिक परजीवी के रूप में पाये जाते हैं ।

सूत्रकृमि डी.डी. 136 का प्रयोग काफी वृहद स्तर पर किया जाता है । जैविक नियंत्रण में उपयोगी सूत्रकृमियों का सर्वप्रथम निलंबन बनाया जाता है फिर इसका छिड़काव किया जाता है । कुछ प्रमुख सूत्रकृमि जो कीटों के विरुद्ध उपयोगी हैं निम्न हैं- मारमिस जाति, मारमिस सवनिग्रीसेन्स, ऐगामीरमिस डीकोडेरा ।

(5) रिकेट्सी (Rickettsia):

ये सूक्ष्मजीव वायरस व बैक्टेरीया के बीच के होते हैं ये प्रायः कीटों को परजीवीकृत करते हैं । ये अविकल्पी परजीवी होते हैं । उदाहरण – एन्ट्रेला, सीटोथेरी ।

(6) प्रोटोजोआ (Protozoa):

परजीवी प्रोटोजोआ की अनेक जातियाँ कीटों को परजीवीकृत करती है । प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न रोग धीमी गति से फैलता है । जिससे कीट के मरने में बहुत समय लगता है । साथ ही कृत्रिम माध्यमों पर इनका संवर्धन कठिन होता है ।

उदाहरण – ग्लूजिया पायरोस्टी ।

विभिन्न सूक्ष्मजीवों के संक्रमण लक्षण (Transition Symptoms of Various Microorganisms):

1. बैक्टीरिया (Bacteria):

(i) संक्रमित कीटों का शरीर मुलायम हो जाता है अथवा सूखकर शल्क की भाँति हो जाता है ।

(ii) संक्रमित कीट का शरीर गहरे रंग का हो जाता है साथ ही शरीर के ऊतक व द्रव गलने के कारण सड़ी हुई बदबू आती है ।

(iii) शरीर दूध के समान सफेद हो जाता है ।

(iv) कुछ लैपीडोप्टेरा कीट अपने पश्चपादों द्वारा पौधों की शाखाओं से लटके मिलते हैं ।

2. कवक (Fungi):

(i) शरीर ममी के समान कड़ा अथवा पनीर के समान हो जाता है ये पानी में विघटित नहीं होता है ।

(ii) शरीर कवक तन्तु द्वारा भर जाता है जो कि खण्डों के बीच भी बढ़ जाते हैं ।

(iii) कभी-कभी शरीर के बाहर भी कवक जाल बहिवृद्धि के रूप में दिखाई देता है ये दशा प्रायः कोर्डीसेप्स फफूंद से ग्रस्त कीटों में दिखाई देती है ।

3. वायरस (Viruses):

(i) मरे हुए लार्वे पौधों की सतहों, टहनियों अथवा पत्तियों की सतहों से लटके मिलते हैं अथवा उन पर पड़े मिलते हैं ।

(ii) क्यूटिकल बहुत भंगुर हो जाती है जो छुने पर ही टूटने लगती है एवं शरीर के आन्तरिक तत्त्व बाहर आने लगते हैं जो कि द्रव में बदल जाते है ।

(iii) संक्रमित लार्वा के शरीर का रंग नीला सा हो जाता है अथवा नील लोहित दिखाई देता है ।

(iv) प्रभावित लार्वा पेड को ऊपरी टहनी पर उल्टा लटका दिखाई देता है ।

सूक्ष्मजीवों की बड़े पैमाने पर उत्पादन विधि (Mass Production Method of Microorganisms):

(1) स्पोडोप्टेरा लिटूरा का न्यूक्लियर पाली हीड्रोसीस वायरस (NPV of Spondoptera Litura):

प्रयोगशाला में स्पोडोप्टेरा लिटूरा का अधिक संख्या में संवर्धन इसके प्राकृतिक आहार-अरंडी की पत्तियों पर किया जाता है ।

इनसे एन पी वी को तैयार करने में निम्नलिखित विधि काम में लाते हैं:

(2) हेलियोथिस आर्मीजेरा का एन पी वी (NPV of Heliothis Armigera):

हैलियोधिस आर्मीजेरा को प्रयोगशाला में प्राकृतिक आहार (चने/काबुली चने) पर पाला जाता है ।

व इनसे एन पी वी का संवर्धन निम्नलिखित विधि द्वारा किया जाता है:

सूक्ष्मजैविक नियंत्रण के लाभ (Benefits of Microbial Control):

1. ये कोई विषाक्त प्रभाव नहीं छोड़ते हैं ।

2. इसमें लक्षित जीव के प्रति विशिष्टता होती है ।

3. निम्न मात्राओं में उपयोग किये जाने के कारण इनके प्रयोग में व्यय कम आता है ।

4. इनका प्रयोग कीटनाशियों के साथ मिला कर भी किया जा सकता है ।

5. लक्षित कीट में इनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता के विकसित होने की संभावना बहुत ही कम होती है ।

सूक्ष्मजैविक नियंत्रण की सीमाएँ (Limitations of Microbial Control):

1. कई सूक्ष्मजीवियों में ऊष्मायन अवधि की आवश्यकता होती है अतः इनके प्रयोग के समय का निर्धारण आवश्यक है अन्यथा ये अप्रभावी हो जाते हैं ।

2. ये कीट विशेष के प्रति विशिष्टता रखते हैं अतः अन्य हानिकारक कीटों पर इनका प्रभाव नहीं पड़ता तथा उनके नियंत्रण हेतु अन्य उपायों की आवश्यकता पड़ती है ।

3. कई बार उत्पादन के समय कोई कमी रह जाने की स्थिति में इनकी उग्रता कम हो जाती है ।

4. कई सूक्ष्मजीवियों के संक्रमण के लिये एक विशेष आर्द्रता की जरूरत होती है ।

5. इन्हें अन्य प्राकृतिक शत्रुओं के विपरीत अपने लक्षित कीटों तक पहुँचाने के लिये विभिन्न माध्यमों की जरूरत पड़ती है जैसे फुहार, छिड़काव या धूल ।