Read this article in Hindi to learn about how to control pests of paddy.

1. धान का फड़का (Rice Grasshopper):

इस कीट का वैज्ञानिक नाम हाइरोग्लिफस नाइग्रोरिप्लेटस है । यह आर्थोप्टेरा गण के एक्रीडीडी कुल का कीट है । यह एक बहु वनस्पतिभक्षी कीट है ।

पहचान:

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यह कीट हरे या कुछ पीलापन लिये हुए हरे रंग का एवं 30 से 40 से.मी. लम्बा होता है । इसकी ग्रीवा के पास वक्ष के किनारे काली धारियाँ होती हैं । इसके शिशु पीले रंग के एवं उनकी देह पर लाल-भूरे दाग होते हैं । जब ये शिशु कुछ बड़े हो जाते हैं तो इनके पंखों पर हरे धब्बे बन जाते हैं ।

क्षति:

इस कीट के वयस्क व शिशु दोनों ही पत्तियों रख कोमल तनों को खाते हैं । कभी-कभी धान की फसल को भारी मात्रा में क्षति पहुँचाते हैं । वयस्क कीट की अपेक्षा शिशु अधिक नुकसान पहुँचाते हैं । यह कीट अगस्त-सितम्बर माह में सक्रिय रहता है ।

जीवन चक्र:

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इस कीट की मादा सितम्बर-अक्टूबर माह में खेत की पेड़ों पर अपने उदर के पिछले भाग को भूमि में प्रवेश करके, समूह में 30 से 60 तक अण्डे देती है । अण्डे अण्डकोष में दिये जाते हैं । अण्डकोष उदर से निकले रस से ढक दिये जाते हैं । प्रत्येक अण्डकोष में 37-62 तक अण्डे होते है ।

पानी की पहली बौछार यानि जून के अन्तिम सप्ताह या जुलाई के प्रथम सप्ताह में अंडों से निम्फ निकल आते हैं । ये निम्फ 4-5 बार निर्मोचन करके वयस्क कीट में परिवर्तित हो जाते हैं और 2 सप्ताह बाद संगम करके अण्डे देना प्रारम्भ कर देते हैं । नर कीट पूर्ण विकसित होने में 70 दिनों व मादा कीट 80 दिनों का समय लेती है । इस कीट की एक वर्ष में केवल एक पीढ़ी पायी जाती है ।

समन्वित प्रबन्ध उपाय:

(1) फसल कटाई के बाद गहरी जुताई करने से फसल अवशेष तथा कीट के अण्डकोषों को नष्ट किया जा सकता है ।

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(2) खेत में उपस्थित खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिये ।

(3) इस कीट को मैना, चील तथा अन्य चिड़िया एवं कौवे खाते है अतः इन पक्षियों का संरक्षण करना चाहिये ।

(4) इस कीट के अत्यधिक प्रकोप की दशा में मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण 20-25 किग्रा प्रति हेक्टेयर के दर से भुरकाव करें, आवश्यकतानुसार इसे 15-20 दिनों बाद पुन: दोहरावें ।

2. धान का भूरा फुदका (Brown Plant Hopper):

इस कीट का वैज्ञानिक नाम नीलापर्वता ल्गेन्स है । यह हैमीप्टेरा गण के डेल्फेसिडी कुल का कीट है ।

पहचान:

यह कीट हल्के या गहरे भूरे रंग का होता है । इसकी देह की लम्बाई लगभग 3 मि.मी. होती है । इस कीट का नर लगभग 2.5 मिमी. लम्बा और मादा 3.3 मि.मी. लम्बी होती है ।

क्षति:

यह कीट धान के पौधे के तने से रस चूसकर फ्लोएम एवं जायलम को बन्द कर देता है । तने के बीच के पिथ को खाकर भर देता है इससे पत्तियाँ सूखी हुई एवं भूरी हो जाती हैं और इस अवस्था को ”फुदका झुलसा” कहा जाता है । यह प्रारम्भ में एक स्थान पर रहता है, मगर धीरे-धीरे सम्पूर्ण खेत में फैल जाता है ।

फसल की छोटी अवस्था में इस कीट का प्रकोप होने पर सम्पूर्ण फसल नष्ट हो जाती है । नम मौसम में तथा अधिक नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का प्रयोग करने पर भी इस कीट का प्रकोप अधिक होता है । ये कीट विषाणु बीमारी भी फैलाता है ।

जीवन चक्र:

वयस्क मादा करीब-करीब 21 दिनों तक अण्डे देती है मादा कीट पत्तियों की मध्य शिरा को खुरचकर या पत्ती के पर्णच्छद को खुरच कर अण्डे देती है । ये 200 से लेकर 350 तक अण्डे देती है इसके अण्डे बेलनाकार होते हैं । इन अण्डे का ऊष्मायन काल 5-80 दिनों का होता है ।

अंडों से निकले शिशु आरम्भ में सफेद, लम्बाई में 6 मि.मी. होते हैं ये पांच बार निर्मोचन करते हैं । शिशु अवस्था 12-15 दिनों की होती है इस कीट का सम्पूर्ण जीवन चक्र 20-25 दिनों में पूरा हो जाता है । एक वर्ष में इसकी 5-6 पीढ़ियाँ पायी जाती हैं ।

समन्वित प्रबन्धन उपाय:

(क) कृषि सम्बन्धी प्रबन्धन:

(i) सदैव कीट प्रतिरोधी धान की किस्मों को काम में लेना चाहिये जैसे प्रतिभा, कृष्णावेनी, चैतन्य इत्यादि ।

(ii) संक्रमित पौधों को भूमि में दबाने के लिए ठूंठ सहित जुताई करके इस कीट के संक्रमण के सभी स्रोतों तथा वैकल्पिक परपोषियों को नष्ट कर देना चाहिए ।

(ख) जैविक कीट प्रबन्धन:

(i) पानी का बग, गेरिस ट्रिस्टान इस कीट का परभक्षी कीट है ।

(ii) काक्सिनेलिड् मृग ऐलेसिया डिसकलर भी इस कीट का आशिक परभक्षी है ।

(iii) बिबेरिया बैसियाना नामक कवक (डिसपेल 3 मि.ली./लीटर पानी) का छिड़काव करें ।

(ग) रासायनिक प्रबन्धन:

(i) फोरेट 10 जी या कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत कण 15-20 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से पौध रोपाई के 15 दिन बाद खेत में उपस्थित पानी में छिड़कें ।

(ii) एण्डोसल्फॉन 35 ई.सी. या मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 10 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से तीन बार छिड़कना चाहिये ।

3. धान का तना बेधक (Rice Stem Borer):

इस कीट का वैज्ञानिक नाम ड्राइपोराइजा इन्सटुलैस है । यह लैपिडोप्टेरा गण के पायरेलिडी कुल का कीट है ।

पहचान:

वयस्क कीट द्विरूपता दिखाता है जिसके कारण भ्रमवश इसे दूसरा कीट समझ लिया जाता है । मादा कीट 13-16 मि.मी. लम्बी व तिनके के रंग की होती है । इसके अगले पंख पीले रंग के होते हैं जिन पर काला धब्बा होता है । नर कीट हल्के भूरे रंग का होता है जिसकी देह पर छोटे भूरे रंग के धब्बे होते हैं ।

क्षति:

इस कीट की इल्ली आरम्भ में पत्ती के ऊपर धारी-सी बनाती हुई खाती है । बाद में वह लगभग एक सप्ताह बाद पत्ती से होती हुई तने में छेद कर प्रवेश कर जाती है तथा तने के मध्य में रहती है और अन्दर ही अन्दर खाती रहती है ।

यदि इसका प्रकोप पौधे की वानस्पतिक बढ़वार के दौरान हुआ तो ऊपर की पत्तियाँ खुलती नहीं हैं एवं यदि खुलती हैं तो पीली पड़ जाती हैं अर्थात् भूरापन लेकर सूख जाती हैं परन्तु निचली पत्तियां हरी बनी रहती हैं । इस दशा को ‘मृत केन्द्र’ कहते हैं । जिन पौधों पर इसका प्रकोप होता है उन पर बालियाँ नहीं बनती हैं ।

जीवन चक्र:

मादा कीट रात्रि के समय नर्म पत्ती की ऊपरी सतह पर अण्डे, समूहों में देती है । एक मादा अपने जीवन काल में 80-20 तक अण्डे देती है । अण्डे दो तीन समूहों में दिये जाते हैं । ये अण्डे पीले-नारंगी रंग लिये हुए होते है एवं बाली से ढके होते हैं । इन अण्डे से 7-8 दिन में इल्ली निकल आती है ।

पूर्ण विकसित इल्ली 25 मि.मी. लम्बी और 3 मि.मी. चौड़ी होती है इसे पूर्ण विकसित होने में लगभग 30 से 40 दिनों का समय लगता है । इसका प्यूपा सफेद कोकून के अन्दर बनता है । प्यूपावस्था 8 दिनों की होती है । साधारणतया इस कीट का कुल जीवनचक्र 32 से 42 दिनों में पूर्ण होता है ।

समन्वित प्रबन्धन उपाय:

(क) कृषि क्रियाओं द्वारा:

कृषिगत क्रियाओं के अन्तर्गत निम्नलिखित उपाय सम्मिलित हैं:

(i) इसके अण्डे पत्ती के किनारे के पास दिये जाते हैं, यदि इन किनारों को कुछ काट कर पौध की रोपाई की जाए तो ये अण्डे खेतों तक नहीं पहुँच पाएंगे ।

(ii) प्रायः यह देखा गया है कि यदि खेत से फसल भूमि से लगाकर काटी जाए और ठूँठे नहीं छोड़े जाए तो ये कीट अगली फसल को कम संक्रमित करेगा ।

(iii) खेत के ठूँठे जलाकर, खेत जोतकर, पानी भरकर इस कीट की संख्या को कम किया जा सकता है ।

(iv) फसल-चक्र अपनाकर धान की फसल के साथ-साथ कुछ समय के लिये अन्य फसलें जैसे- दालें आदि लेकर इस कीट की संख्या को कम किया जा सकता है ।

(v) कीट प्रतिरोधी किस्मों जैसे- रत्ना, सस्यश्री, साकेत, विजेता आदि का प्रयोग करना चाहिये ।

(ख) जैविक कीट नियंत्रण:

(i) अण्ड़परजीवी – टेलोनोमस बेनिफिसिएन्स, ट्राइकोग्रामा आस्ट्रेलिकम ट्राइकोग्रामा जेपोनिकम आदि ।

(ii) लार्वा परजीवी – गोनियोजस इन्डीकस, एपेन्टेलिस रुफिक्रस, ऐपेन्टेलिस शीनोबाई ।

(iii) घूमा परजीवी – एलास्मस ऐल्बोपिक्टस, टेट्रासिकस अध्यराई ।

(iv) परभक्षी – क्लोनियस जातियाँ ।

(ग) रासायनिक प्रबन्धन:

(i) पौध रोपाई के 15-20 दिन बाद फोरेट 10 प्रतिशत या कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत कण 15-18 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से खड़े पानी में प्रयोग करें ।

(ii) एण्डोसल्फॉन 35 ई.सी. 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें एवं आवश्यकतानुसार 15-20 दिनों बाद पुन: दोहरायें ।

4. गन्धी बग (Gandhi Bug):

इस कीट का वैज्ञानिक नाम लेप्टोकोराइजा एक्यूटा है । ये हेंमिप्टेरा गण के कोरीडी कुल का कीट है ।

पहचान:

यह कीट वयस्क रूप में बेलनाकार थोड़ा हरापन लिए भूरा 14 से 17 मि.मी. लम्बा तथा 3 से 4.4 मि.मी. चौड़ा होता है । इसके निश्व (शिशु) आरम्भ में लम्बे व पीलापन लिए हुए हरे रंग के होते हैं इस समय ये पंखरहित होते हैं । जैसे-जैसे इनकी बढवार होती है वैसे-वैसे पंखों का भी विकास होने लगता है एवं इसका रंग भी गहरा होने लगता है । मादा कीट आकार में नर की अपेक्षा बड़ी होती है । वयस्क कीट एक प्रकार की तीव्र दुर्गन्ध छोड़ते हैं, इसी कारण इसे गन्धी बग कहते हैं ।

क्षति:

यह कीट वर्षा ऋतु आरम्भ होते ही धान की फसल, घास तथा अन्य पोषी पौधों पर अण्डे देता है तथा उनकी पत्तियों का रस चूसकर जीवन निर्वाह करता है एवं बाद में धान पर आक्रमण करता है । आरम्भिक अवस्था में ये धान की पत्तियों का रस चूसता है जिसके कारण पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं और उनमें भूरे रंग लिये पीले धब्बे दिखाई देते हैं ।

इसके कारण पौधों की बढ़वार में रुकावट आ जाती है । जब बाली दूधिया अवस्था में होती है तो वयस्क कीट बालियों का रस चूसते हैं जिसके फलस्वरूप बालियां खाली रह जाती है और उनमें दाना नहीं बनता है व उनमें छोटे-छोटे भूरे धब्बे पड़ जाते हैं । इस प्रकार पूरी बाली सिकुड जाती है और सूखने लगती है । इस कीट के शिशु (निम्फ) व वयस्क दोनों ही पत्तियों का रस चूसते हैं । इस कीट द्वारा धान की उपज में 5 से 12 प्रतिशत तक की कमी की जाती है ।

जीवन चक्र:

वयस्क मादा कीट धान की पत्तियों की मोटी शिरा के पास 10-20 तक अण्डे देती है । ये अपने जीवनकाल में 200 से 300 तक अण्डे देती है । अण्डे आकार में अण्डाकार व चपटे होते हैं । ये आरम्भ में पीले होते हैं जो कि बाद में भूरेपन के साथ काले हो जाते है ।

इनमें से 5-6 दिनों में निम्फ (शिशु) निकल आते हैं । ये निम्फ 5 बार निर्मोचन करते हैं । निम्फकाल 10-17 दिनों का होता है । सामान्यतया इसका सम्पूर्ण जीवन चक्र 24-30 दिनों में पूर्ण हो जाता है । एक वर्ष में इसकी कई पीढ़ियां पायी जाती हैं ।

समन्वित प्रबन्धन उपाय:

(1) धान के खेतों के आसपास खडी घास तथा खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिये जिससे इन पर पनपने वाला कीट धान पर आक्रमण नहीं कर सके ।

(2) ये कीट रोशनी की ओर आकर्षित होते हैं अतएव इन्हें प्रकाश के चारों ओर एकत्रित करके नष्ट करने की विधि का प्रयोग अधिकतर खेतों में बाली बनने से पूर्व करना लाभप्रद होता है ।

(3) इस कीट के प्राकृतिक शत्रु जैसे कुछ बर्र व अन्य कीट हैं जिनमें सिसिडेला सेप्टेमपक्टेंटा, रिडुविड व पेन्टेटोमिड बग, प्रेईग मेन्टीड व हाइमेनोप्टेरा गण के कीट प्रमुख हैं ।

(4) धान की कीट प्रतिरोधी किस्म का चुनाव करना चाहिये ।

(5) इस कीट के नियंत्रण में कीटनाशी का प्रयोग करने से पूर्व खेत के चारों ओर लगी जंगली घास आदि को हटा देना चाहिए । फसल पर 20-25 किग्रा मैलाथियान चूर्ण 2 प्रतिशत अथवा मिथाइल पैराथियान चूर्ण प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिये ।

5. गाल मिज (Gall Midge):

इस कीट का वैज्ञानिक नाम ओर्सिओलिया ओरीजी है । यह डिप्टेरा गण के सिसिडिमाइडी कुल का कीट है ।

पहचान:

पूर्ण विकसित कीट मच्छर के समान होता है जोकि रात्रि में रोशनी में उड़ता हुआ दिखाई देता है । मादा कीट का उदर भाग चमकीला होता है जबकि नर इससे गहरे रंग का होता है । फसल में साधारणतया 4 के अनुपात में नर व मादा कीट पाये जाते हैं ।

नर कीट लगभग 3 मि.मी. लम्बा होता है और इनकी देह पीले भूरे रंग के बालों से भरी होती है । मादा लगभग 32 मि.मी. लम्बी होती है एवं इसकी देह चमकीले लाल भूरे रंग की और बालों से भरी होती है । वयस्क कीट एक से पाँच दिनों तक जीवित रहता है एवं मादा नर की अपेक्षा अधिक समय तक जीवित रहती है ।

क्षति:

इस कीट के नवजात डिंभक पत्ती के भीतरी भाग से होते हुए कोमल तने या कलिका द्वारा छेद करके तने में प्रवेश करते हैं और तने के भीतरी भाग को खाते हैं इससे पौधे की बढ़वार रुक जाती है और दौजियाँ नलिकाकार पिटिका का रूप धारण कर लेती हैं । ये पिटिकाएँ खोखली होती हैं एवं इनका रंग रूपहला हो जाता है । इस प्रकार के पौधों पर बालीयाँ नहीं लगती हैं ।

जीवन चक्र:

एक मादा अपने जीवनकाल में 100 से 280 तक अण्डे देती हैं । ये एक-एक करके या तीन-चार के झुण्ड में अण्डे देती हैं । अण्डे आरम्भ में नारंगी रंग के चमकदार या लाल-पीले रंग के होते हैं जो कि पूर्ण विकसित होने पर चमकदार भूरे रंग के हो जाते हैं । इन अण्डे से 3 दिनों में डिंभक निकलते हैं ।

डिंभक के पूर्ण विकसित होने में 6-33 दिन का समय लगता है । इसका घूमा पिटिका के आधार पर रहता है, प्यूपावस्था 2-8 दिनों तक रहती है । इस कीट का जीवन चक्र 2-3 सप्ताह का होता है । एक वर्ष में इसकी एक के बाद एक अनेक पीढियां पायी जाती हैं ।

समन्वित प्रबन्धन उपाय:

1. सामान्यतः यह संस्तुति की जाती है कि धान की यथा सम्भव जल्दी से जल्दी रोपाई की जानी चाहिये ताकि जब कीट जंगली परपोषियों से धान की फसल पर पहुँचे तब तक पौधे की पर्याप्त बढ़वार हो चुकी हो ।

2. यदि खेत में इस कीट का प्रकोप हो और खेत में पानी भरा हो तो पानी को खेत से बाहर निकाल देना चाहिए क्योंकि इस कीट का प्रकोप पानी भरे खेत में अधिक होता है ।

3. धान की प्रतिरोधी किस्में जैसे IR-36, सुरेखा, फाल्गुनी, आपाजी, शिवा W.G.L.-48937 का प्रयोग करना चाहिये ।

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