Read this article in Hindi to learn about the pests of sugarcane and its control.

भारत में गन्नानाशी कीटों की लगभग 288 जातियाँ बुआई से कटाई तक वृद्धि की विभिन्न अवस्थाओं में फसल को क्षति पहुँचाती हैं । कुछ भूमिगत तनों अथवा जडों तथा पत्तियों को ही खाकर, कुछ पत्तियों तथा तनों से रस चूसकर तो कुछ प्ररोह अथवा तनों को बेधकर आंतरिक तंतुओं को खाते है ।

क्षतिकरण के इन्हीं स्वरूपों के आधार पर समस्त गन्ना नाशीकीटों को भूमिगत, रस चूसक, बेधक तथा निष्पंत्रक अथवा पर्ण भक्षक आदि चार श्रेणियों में बाटा गया है । भूमिगत श्रेणी में मुख्य रूप से दीमक तथा सफेद गिडार जैसे वे कीट आते हैं जो भूमि में बोयी गयी पोरियों, जडों मूलिकाओं, मूलरोमा तथा भूमिगत तनो को खाते हैं ।

पत्तियों, पर्णच्छदों (लीफ शीथ) तथा तानों से रस चूसने वाले कीटों को रस चूसक कीट श्रेणी में रखा गया है । पत्तियों, पर्णच्छदों से रस चूसने वाले कीटों में पायरिला, काला चिकटा, श्वेत मक्खी, श्वेत माहू तथा तनों से रस चूसने वालों में शल्क कीट तथा गुलाबी मत्कुण भी (काला बग) प्रमुख हैं । बेधक कीटों में कुछ तो फसल की प्रारंभिक अथवा प्ररोहावस्था में, कुछ में पोरियां बनने के बाद जबकि कुछ प्ररोह तथा तना अवस्था में हानि पहुंचाते हैं ।

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प्ररोह बेधकों में प्ररोह बेधक, गुलाबी बेधक, हरा बेधक तथा जड बेधक, बेधकों में -चोटी बेधक, तना बेधक, पोरी बेधक, गुरुदासपर बेधक तथा प्लासी बेधक हैं । प्ररोह बेधक तथा चोटी बेधक, प्ररोह तना (पोरी) बनने के बाद की अवस्थाओं फसल को क्षति पहुँचाते हैं ।

निष्पंत्रक अथवा पर्ण भक्षक कीट श्रेणी के टिड्‌डे तथा सैनिक कीट पत्तियों को अथवा काट कर खा जाते है । कीटों के अतिरिक्त अष्टपदी (माइट) तथा चूहे की कई व कुछ कशेरूकी जीव जैसे गीदड, स्याही तथा तोता आदि भी गन्ने को हानि पहुंचाते हैं ।

बुआई से कटाई तक किसी न किसी नाशक जीव से प्रभावित होने के कारण गन्ने की तथा उसमें शर्करा उपलब्धता क्रमशः 15 से 20 तथा 15 प्रतिशत तक कम हो जाती है । गन्नानाशी कीटों की समस्या जलवायु में भिन्नता के कारण विभिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न है ।

दीमक, प्ररोह बेधक, चोटी बेधक, श्वेत मक्खी तथा पायरिला सभी गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में पाये जाते हैं जबकि तराई बेधक तथा काला चिक्टा, बहुधा पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश में, पोरी बेधक दक्षिण भारतीय प्रदेशों, प्लासी बेधक बिहार, बंगाल, उड़ीसा, असम, नागालैंड तथा गुरदासपुर बेधक पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व राजस्थान में ही प्रमुख रूप से पाये जाते हैं ।

A. भूमिगत कीट (Underground Pests):

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1. दीमक (Termites):

दीमक बहुरूपी तथा बडे समुदाय में रहने वाला सामाजिक भूमिगत कीट है । इसके प्रत्येक समुदाय में राजा और रानी की एक जनक शाही जोडी, अनेक पंखहीन किस्में, बंध्य सैनिक, कुछ अनधिकृत सहजीवी तथा परगृह वासी विविध प्रकार के आवासों (दीमक) गृहों में साथ-साथ रहते हैं ।

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अत्यधिक ठंडे क्षेत्रों को छोडकर संसार के सभी उष्णकटिबंधीय तथा गर्म शीतोष्ण देशों में पाये जाने वाले ये कीट प्रायः अनेक फसलों को हानि पहुँचाते हैं । गन्ने में दीमक की समस्या मुख्य रूप से दोमट तथा बलुई मिट्टी वाले सूखे अथवा अपर्याप्त सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में अधिक उग्र होती है, जबकि तराई, जल-प्लावित तथा बाढ ग्रस्त क्षेत्रों में इसका प्रकोप नहीं के बराबर होता है ।

नियंत्रण विधि (Control Methods):

कृत्रिम कार्बनिक कीटनाशक रसायनों के आविष्कार पूर्व दीमक का नियंत्रण देशी पौधों द्वारा उत्पादित पदार्थों जैसे नीम, कार्बोलिक अम्ल, फिनाइल, क्रूड तेलीय घोल तथा चूना, तूतिया बोरैक्स, कैलशियम सायनाइड, लेड आर्सीनेट, सोडियम आर्सीनेट, जिंक क्लोराइड, पोटेशियम परमैगनेट तथा साधारण नमक जैसे अकार्बनिक रसायनों द्वारा किया जाता था ।वर्ष 1946 के बाद कई कृत्रिम कार्बनिक कीटनाशक रसायनों द्वारा दीमक का नियंत्रण सफलतापूर्वक किया गया । गामा एच सी. एच, हेप्टाक्लोर, क्लोरडेन टिलीड्रिन, डाइएल्ड्रिन आदि रसायन विशेष प्रभावशाली सिद्ध हुये ।

वर्तमान में इंडोसल्पगन 35 ई.सी. अथवा क्लोरपायरीफॉस 20 ई.सी. में से किसी एक रसायन के 1.0 कि. सक्रिय तत्व/हैक्टर को 1500-1800 लीटर पानी में बने घोल को खूँड़ में बोये गन्ना पारियों पर छिडकाव तदुपरांत पोरियों को मिट्टी से ढकने से दीमक के ग्रीष्मकालीन प्रकोप पर प्रभावकारी नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है ।

2. सफेद गिडार अथवा श्वेत लट (White Fly):

सफेद गिडार एक अत्यंत हानिकारक राष्ट्रीय स्तर का भूमिगत कीट है जो गन्ने की जडों, मूलिकाओं तथा भूमिगत तनों को हानि पहुँचाता है दीमक की तरह इसका प्रकोप भी दोमट तथा बलुई भूमि में अधिक पाया जाता है ।

नियंत्रण विधियाँ (Control Methods):

सफेद गिडार के नियंत्रण में संवर्धनीय, यांत्रिक, जैविक तथा रासायनिक विधियाँ सम्मिलित है जिनके समुचित प्रयोग से इसके द्वारा होने वाली क्षति को रोका जा सकता है ।

i. संवर्धनीय:

भीषण रूप से प्रकोपित खेतों में गन्नों के बाद गन्ना न बोयें ऐसा करने से खेत में गिडार का आपतन कम होता है । पूर्व प्रभावित खेतों में अगले वर्ष धान की खेती करें । अत्यधिक सिंचाई अथवा आर्द्रता इस कीट के संख्या वृद्धि में बाधक होती है । पेडी खेती. कीट के उद्धाहन (कैरीओवर) में सहायक होते हैं ।

अतः गिडार ग्रसित खेत में बार-बार पेदी न लें । दक्षिणी भारत में, जहां सफेद गिडार का प्रकोप अधिक हुआ करता है, दिसंबर-जनवरी में गन्ना न बोयें । अधसाली बुआई वर्षा के बाद कई बार जुताई करके ही करें । प्रभावित क्षेत्रों में गन्ने की बुआई गहरी जुताई के बाद ही करें ।

ऐसा करने से भूमिगत वयस्क बीटल अथवा भृंगक (ग्रब्स) बाहर हो जाते हैं जोकि प्राकृतिक शत्रुओं के शिकार बन जाते हैं । लंबी जड़ वाली प्रजातियाँ जो गीदर प्रतिरोधी होती हैं का बीज हेतु चयन करना चाहिए । पेडी गन्ने की कटाई के तुरंत बाद सुखी पत्तियाँ, गन्ने के ठूँठों, जड़ों तथा अन्य अवशेषों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए ।

ii. यांत्रिक:

भृंगों (वयस्क बीटल) को इकट्‌टा कर उन्हें नष्ट करना एक सफलतम, सस्ती तथा वातावरण की दृष्टि से सुरक्षित विधि है । सुनिश्चित नियंत्रण हेतु प्रभावित क्षेत्रों में गन्ना खेतों के पास मृगों (वयस्कों) को प्रिय तथा आकर्षी वृक्ष या पौधे जैसे- नीम, बेर, अमरूद, पीपल, केला, शीशम आदि न रहने दे प्रभावित क्षेत्र अथवा खेतों के पास रात में पेट्रोमेक्स या मशाल जलायें ।

जिससे वयस्क मृग इकट्‌ठा कर नष्ट किये जा सके गर्मी की प्रथम वर्षा की प्रथम शाम नीम, बबूल, बेर, पीपल में किसी एक की 7-8 फुट लंबी टहनियों पर 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफास अथवा 0.5 प्रतिशत क्लोरपायरीफास का छिडकाव करके खेत में थोडी-थोडी दूरी पर गाड दें ।

भूमि से निर्गमन के बाद वयस्क इन टहनियों पर मैथुन तथा भोजन के लिए आकर्षित होकर । विषाक्त पत्तियों को खाकर वयस्क मर जायेंगे । भृंगों (वयस्कों) को इकट्ठा करने की यह प्रक्रिया दूसरी वर्षा के बाद भी अपनानी चाहिये ।

iii. रासायनिक नियंत्रण:

दीमक की भाँति सफेद गिडार के नियंत्रण में भी डी.डी.टी, एच.सी.एच., क्लोरडेन, हेप्टाक्लोर, पैराथिआन आदि कीटनाशक रसायनों का प्रयोग पूर्व के वर्षों में हुआ है । एच.सी.एच. 10 प्रतिशत धूल का 100 कि.ग्रा. हैक्टर गन्ने की पंक्तियों के पास घूसरण करके हो कान्सैंगूनिया जाति के भृंगकों को नियंत्रित किया जा सकता है ।

iv. परजैविक:

प्रकृति में सफेद गिडार के भृंगों (वयस्क) तथा भृंगकों (ग्रब्स) के कई प्राकृतिक शत्रु पाये जाते हैं । इनमें मेढक, छिपकली, कौआ, गौरैया, मैना, नीलकंठ, जाहक (हेजहाक) आदि परभक्षी, कैम्पोमेरिस कोलेरिस तथा स्कोलिया ओरियेन्निस नामक परजीवी कीट तथा मेटाराइजियम अनीसोप्ली, वेवेरिया वेसियाना, वैसिलस थुरैनजियेन्सिस तथा वैसिलस पैपिल्ली नाम रोगाणु प्रमुख हैं ।

इसके अतिरिक्त आइसोमेलामाइन या फेनाइल ब्यूटाइरेट पुजेनोल लिंग आकर्षी रसायनों के प्रयोग से नर वयस्कों को एकत्र करके उन्हें मारा जा सकता है । ये रसायन भृंगों को 20 मीटर तक की दूरी से आकर्षित कर लेते हैं । सफेद गिडार का नियंत्रण किसी एक विधि से स्थायी नहीं होता ।

अतः इसके सफलतम नियंत्रण हेतु निम्न समेकित नियंत्रण विधि अपनानी चाहिये:

a. भृंगों को यांत्रिक विधियों से एकत्र कर नष्ट करना ।

b. बुआई पूर्व खेत की कई बार गहरी जुताई कर भृंगों तथा भृंगकों को बाहर निकालना ।

c. प्रभावित क्षेत्रों में बार-बार पेडी न लेना ।

d. गन्ना तथा धान का फसल चक्र अपनाना ।

e. लंबी जड वाली प्रतिरोधी गन्ना प्रजातियों का चयन करना ।

f. उतर भारत में भृंगों के निकलने के समय तथा दक्षिण भारत में ग्रीष्मकाल की प्रथम वर्षा के दो तीन सप्ताह बाद कीटनाशक दवा का खेत में डालकर भूमि में अच्छी तरह मिलाने के बाद गन्ने की बुआई करना व वर्षा के तुरत बाद पौधों अथवा पोषक पेडों पर क्लोरपायरीफॉस/मानोक्रोटाफॉस 0.05 का छिडकाव कर वयस्कों (भृंगों) को नष्ट करना ।

B. रस चूसक कीट (Sucking Pests):

रस चूसक कीट जैसे पायरिला, काला चिक्टा, श्वेत मक्खी, श्वेत ऊनी माहू (वूली एफिड), शल्क कीट तथा गुलाबी चिक्टा (मीली बग) मुख्य है, जो पत्तियों, पर्णच्छेदों तथा तनों से रस चूस कर गन्ने की पैदावार, रस में शर्करा की मात्रा तथा गुड की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं ।

1. पायरिला (पायरिला परप्युसिल्ला वाकर) (Pyrilla):

पायरिला (होमोप्टरा: लीफोफिडी) पत्तियों से रस चूसने वाला महत्वपूर्ण कीट है, जो आंध्र प्रदेश, असम, नागालैंड व पश्चिम बंगाल को छोडकर देश के सभी गन्ना उत्पादक प्रदेशों जैसे पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, उडीसा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु एवं केरल में गन्ने को हानि पहुँचाता है । भारत के अतिरिक्त यह श्रीलंका, थाईलैंड, पाकिस्तान, बर्मा, बांग्लादेश, इंडोनेशिया एवं इंडोचाइना में भी पाया जाता है । गेहूँ, ज्वार, मक्का आदि इस कीट के प्रिय पोषक पौधे हैं ।

बरसीम, सैंजी, जई, नेपियर घास, कांस, सरकंडा, सेमल तथा अन्य कई पौधों पर भी इसके शिशु (निम्फ) पाये जाते हैं । महामारी वर्ष में इसकी उपस्थिति गन्ना खेत के समीप की सभी फसलों तथा वृक्षों की छाल व पत्तियों आदि पर देखी जा सकती है ।

नियंत्रण विधियाँ (Control Methods):

i. सस्य:

भीषण रूप से प्रकोपित क्षेत्रों में गन्ना कटाई के बाद निकली सूखी पत्तियों तथा अन्य अवशेषों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए । अनुमोदित मात्रा से अधिक नाइट्रोजन उर्वरक का प्रयोग नहीं करना चाहिए प्रभावित खेतों में जहां तक हो सके गन्ने की पेडी नहीं लेनी चाहिए ।

ii. यांत्रिक विधि द्वारा:

अप्रैल-मई में पायरिला के अँड समूहों, जो प्ररोह के भूमि सतह के पास की निचली दो पत्तियों दिये होते हैं, निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए । अगस्त के बाद अंडे सूखी पत्तियों तथा पर्णच्छदों (लीफ शीथ) पर मिलते हैं । अतः सितंबर-नवंबर के अंत तक सूखी पत्तियां निकाल देनी चाहिए । ऐसा करके पायरिला की शीतकालीन संख्या में काफी हद तक कमी की जा सकती हैं ।

iii. परजैविक विधि द्वारा:

पायरिला के अंडे, शिशु तथा वयस्क प्रकृति में किसी न किसी परजीवी अथवा परभक्षी कीट के शिकार होते हैं । लगभग तीन दर्जन परजीवी तथा एक दर्जन परभक्षी कीट प्राकृतिक शत्रु के रूप में उल्लिखित है, जिसमें टेट्रासिटकस पायरिली, किलोन्यूरस पायरिली तथा ऊइनसिरटस पैपिलिओनिस (अंड परजीवी) लेस्ट्रोड्राइनस पायरिली (शिशु परजीवी) तथा इपीरिकोनिया मेलानोल्यूका शिशु तथा वयस्क परजीवी हैं ।

इनमें इपीरिकेनिया मेलानोल्यूका परजीवी जो अंडे को छोड पायरिला के सभी शिशु अवस्थायें तथा वयस्क को परजीवीकृत करता है विशेष रूप से महत्वपूर्ण है । प्रयोगशाला उत्पादित अथवा इनकी प्रचुरता वाले खेतों/क्षेत्रों से निकाले 4-5 लाख अंडे तथा 4 से 5 हजार इपीरिकेनिया मेलानोल्यूका कोकून प्रति हैक्टर की दर से निस्थापित करने से पायरिला का नियंत्रण हो जाता है ।

इपीरिकेनिया के कोकून तथा अंडे ग्रीष्मकाल में ज्वार, बाजरा तथा मक्का की फसल पर बहुसंख्या में मिलते हैं अतः ऐसी फसलों को चारा रूप में प्रयोग से पहले पतियां से इसके कोकन को निकालकर पायरिला ग्रसित गन्ने खेतों में निर्मुक्त करना । मेटाराइजियम एनआईश्सोप्ली, एसपरजिलेस फ्‌लेविय तथा हिरस्युटेला स्पी. जाति के रोगाणु भी अत्यधिक आर्द्रता की उपस्थित में, पायरिला की बडी संख्या नष्ट करने में सक्षम है ।

iv. रासायनिक विधि:

पायरिला नियंत्रण में कई कीटनाशक रसायनों का भूमीय अथवा आकाशीय छिडकाव विगत वर्षों में किया गया है और लगभग सभी रसायन इसको मारने में सक्षम पाये गये हे । सूखी पत्तियाँ निकालने के बाद मैलाथिआन (0.1 प्रतिशत), फेनीट्रोथिआन (0.03 प्रतिशत), इंडोसल्फान (0.025 प्रतिशत), कार्बेरिल (0.025 प्रतिशत) अथवा मोनोक्रोटोफास (0.03 प्रतिशत) का छिडकाव इसके नियंत्रण में उपयोगी पाया गया है ।

मैलाथिआन, पोनीट्रोथिआन तथा इंडोसल्फान को छोडकर अन्य सभी पायरिला के साथ-साथ उनके परजीवियों को भी नष्ट कर देती है । अल्ट्रा लो वॉल्यूम स्प्रेयर द्वारा 96 प्रतिशत मैलाथिआन के 1.0 लीटर प्रति हैक्टर की दर से भूमीय छिडकाव इपीरिकेनिया मेलानोल्यूका परजीवी के कोकून पर बिना किसी कुप्रभाव डाले 88-100 प्रतिशत पायरिला निम्फ तथा प्रौढ को मार देता है । वैसे प्रति प्ररोह एक भी इपीरिकेनिया मेलानोल्युको कोकून मिलने पर रसायनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

2. काला चिक्टा (ब्लैक बग) (Black Bug):

गन्ने का काला चिक्टा पत्तियों तथा पर्णच्छदों से रस चूसने वाला पेडी का मुख्य हानिकारक कीट है । इसका आक्रमण प्रायः ग्रीष्मकाल में अप्रैल से जून तक होता है । देश में इसकी चार जातियां क्रमशः कैवेलेरियस स्वीटी, के. माइनर के. एक्सकैवेटस तथा डाइमारफोप्टेरस गिबस पाई जाती है, जिनमें के स्वीटी तथा डी. गिबस कमोवेश रूप में उतर भारत के सभी प्रमुख राज्यों, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश (विशेष रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश), बिहार तथा छिटपुट रूप से राजस्थान में पाया जाता है । यह मक्का तथा कई धाँसो पर भी पाया जाता है ।

इस कीट के शिशु (निम्फ) तथा वयस्क दिन में गोफ के अंदर छिपकर तथा रात में बाहर निकल कर पत्तियों तथा पर्णच्छदों से रस चूसते हैं । वर्षाकाल में इनकी संख्या कम हो जाती है । शीतकाल में इनके वयस्क पर्णच्छद निष्क्रिय पडे रहते हैं और गर्मी आते ही पुनः सक्रिय हो जाते हैं ।

नियंत्रण विधियाँ (Control Methods):

i. सस्य एवं यांत्रिक:

कीट द्वारा प्रकोपित किल्लों को भूमि सतह से निकाल कर नष्ट करना चाहिये । गन्ना काटने के बाद खेत में बची सूखी पत्तियों को जला देना चाहिये ।

ii. रासायनिक:

काला चिक्टा के नियंत्रण में फास्फामिडॉन, एंड्रिन (0.02 प्रतिशत), इंडोसल्फान, किव्नालफास, क्लोरपायरीफॉस (0.2 कि.ग्रा.स.सं./हैक्टर) डाइक्लोरवॉस (0.25 कि.स.सं./हैक्टर), मैलाथिऑन सेवीडॉल अथवा इंडोसल्फान के (0.025 प्रतिशत) घोल का प्रयोग विगत वर्षों में किया गया है ।

670 मि.ली./हैक्टर इंडोसल्पगन तथा 10 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर यूरिया के 800 लीटर पानी में बने घोल का पैरचालित छिडकाव यंत्र अथवा हजारे द्वारा गोफ के अंदर छिडकाव करके इस कीट पर सर्वोत्तम नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है ।

iii. परजैविक:

काला चिक्टा के यूमाइक्रोसोमा फियक्स (निक्सन) तथा यु. क्यूमियक्स (निक्सन) नामक दो अँड परजीवी प्रकृति में पाये जाते हैं । इनमें यू. फियक्स उत्तर भारत में काले चिक्टे के 80-90 प्रतिशत अंडों को नष्ट कर देता है ।

3. गन्ने का श्वेत ऊली माहू (White Wooly Aphid):

गन्ने का श्वेत ऊली माहू, सिरेटोवैकुना लेनिजेरा पत्तियों से रस चूसने वाला हानिकारक कीट है । गन्ने में इस कीट का आक्रमण सर्वप्रथम 1897 में ‘जावा’ में तथा 1909 में थाइलैंड व इंडोनेशिया में देखा गया । अब यह फिलीपींस, चीन, जापान, कोरिया, भारत तथा पाकिस्तान आदि संसार के विभिन्न देशों में पाया जाता है । भारत में यह कीट सर्वप्रथम 1909 में बास से रिकार्ड किया गया । गन्ने पर इसका प्रकोप 1958 में कूच बिहार, 1976 में नागालैंड तथा 1994 में असम में एक कम महत्व के कीट के रूप में देखा गया ।

वर्ष 2001 तक वैज्ञानिकों का ध्यान इस कीट की तरफ नहीं गया, परंतु जुलाई 2002 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली व सतारा जिलों में तथा सितंबर 2002 में कर्नाटक के बेलगाव, वागलकोट, बीजापुर, बेलारी, हुक्केरी तथा बिडार जिलों में महामारी के रूप में प्रकट होने के बाद विशेष प्रकाश में आया । वर्तमान में यह कीट पश्चिमी उत्तर प्रदेश (सहारनपुर), उत्तराचल, आंध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश तथा तमिलनाडु के कई जिलों में छिटपुट रूप से गन्ने को हानि पहुंचा रहा है ।

नियंत्रण विधियाँ (Control Methods):

i. सस्य एवं यांत्रिक:

प्रभावित क्षेत्रों में गन्ने की बुआई दोहरी या चोडी नालियों में करनी चाहिये । बीज गन्ना स्वस्थ खेतों/क्षेत्रों से ही लेना चाहिये । संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिये । पानी निकासी की समुचित व्यवस्था करके खेत को जलाक्रांति से बचाना चाहिए ।

प्रकोपित खेत में गन्ने की कटाई जल्दी कर खेत में बची सुखी पत्तियों तथा अन्य अवशेषों को इकट्ठा कर जला देना चाहिये । ग्रीष्मकाल में प्रकोपित पत्तियों को कीट सहित निकाल कर नष्ट करना चाहिए । महराष्ट्र में सी. ओ. 86032, सी. ओ. 671, सी. ओ. 8014, सी. ओ. 7527, सी. ओ. 7704, सी. ओ. 419, सी. ओ. 8011, सी.ओ. 740 तथा कर्नाटक में सी.ओ. 92020 तथा सी. ओ. 8011 गन्ने की प्रजातियां इस कीट प्रकोप के प्रति अत्यधिक सुग्राही पायी गयी हैं । अतः बीज हेतु इनके प्रयोग में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए ।

ii. परजैविक:

प्रकृति में ऊली एफिड को कई परजीवी, परभक्षी तथा रोगाणु नष्ट करते हैं । इनमें डिफा एफिडिवोरा, माइक्रोमस इगोरोटस, क्राइसोपरला कारनी तथा सिरफिड मक्खी विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं । प्रयोगशाला तथा खेत में लगाये पिजडों में उत्पादित अथवा संख्या बाहुल्य खेतों-क्षेत्रों से इन्हें इकट्ठा कर नये प्रभावित खेतों में निर्मुक्त करके इसके नियंत्रण में आशातीत सफलता प्राप्त हुयी है । इसके अतिरिक्त मेटाराइजियम अनीसोप्ली अथवा बिवेरिया बैसियाना नामक जैविक रसायनों के घोल के छिडकाव भी इस कीट के नियंत्रण में सहायक पाये गये है ।

iii. कीटनाशक रसायनों के उपयोग द्वारा:

माहू के नियंत्रण में कई कीटनाशक रसायनों का प्रयोग हुआ है और सभी इसे मारने में प्रभावी सिद्ध पाये गये हैं । एसीप्रोट 75 डब्लू.पी./ क्लोरपायरिफॉस 20 ई. सी./ मानोक्रोटोफॉस 36 एस.एल.के 0.05 प्रतिशत घोल के छिडकाव से 12 घंटे के अंदर ही 50 से 80 प्रतिशत शिशु तथा वयस्क मर जाते हैं । परंतु परजीवी अथवा परभक्षी बाहुल्य खेतों/क्षेत्रों में कीटनाशक रसायनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

4. श्वेत मक्खी (White Fly):

एल्युरोलोवस बैरोडेंसिस तथा निअमैसकेलिया जगाई नामक दो जातियां गन्ने को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाती हैं । प्रथम जाति लगभग सभी गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में पायी जाती है और हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बिहार, उडीसा, तमिलनाडु तथा गुजरात के अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों में विशेष रूप से हानिकारक है ।

नि. वारगाई जाति की श्वेत मक्खी तमिलनाडु, कर्नाटक, महराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा तथा पंजाब में पायी जाती है । इनका प्रकोप पेडी, नाइट्रोजन की कमी वाले तथा जलाक्रांत गन्ना खेतों में अधिक होता है । गन्ने के अतिरिक्त सरकंडा, कांस या उससे मिलते-जुलते जाति के अन्य पौधों पर भी यह कीट पायी जाती है ।

नियंत्रण विधियाँ (Control Methods):

भीषण रूप से ग्रसित खेत की पेडी नहीं लेनी चाहिए । फॉस्फोरसयुक्त उर्वरक तथा नाइट्रोजन की उचित मात्रा (150 कि.ग्रा.) का प्रयोग करना चाहिये । निचली भूमि में जहां पानी भरने की संभावना हो, गन्ने की बुआई नहीं करनी चाहिए । कीट ग्रसित पत्तियों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिये ।

i. रासायनिक नियंत्रण:

मॉनोकॉटॉफीस 36 एस एल दाने पर कीटनाशी के 10 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व/हैक्टर के हिसाब से गन्ने की कतारों के साथ भूमि में डाल कर हल्की सिंचाई करें । डाइमेथोऐट या ऑक्सीडिमेरीन मिथाइल का 0.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्त्व/हैक्टर के हिसाब से खडी फसल में 100 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव भी कर सकते हैं ।

ii. जैविक नियंत्रण:

इस कीट के कई परजीवी एवं परभक्षी कीट प्रकृति में पाये जाते हैं, जिनमें एजोटस डेल्हिन्सिस, एनकार्सिया आइजैकी, कार्डियोगेस्टर सेकंटस, इरटोमोसेरस मुण्डस तथा प्रासपैल्टेला स्पी. आदि (परजीवी) तथा काइलोकोरस निग्रीटस, किलोमइनस सेक्समेकुलेटस, किलोमइनस स्पी., स्किमनस ग्रेसिलस तथा वेरानिया डिसकोलर (परभक्षी) प्रमुख हैं । एजोटस डेलहियेन्सि श्वेत मक्खी की 60 प्रतिशत से अधिक की संख्या नष्ट करने में सक्षम है ।

5. शल्क कीट (Insect Pests):

गन्ने का शल्क कीट, मेलैनैस्पिस ग्लोमेराटा (हेमिप्टरा : डायस्पिडिडी) तने से रस चूसने वाला अत्यंत हानिकारक कीट है । गन्ने में इसको सर्वप्रथम 1903 में दक्षिण भारत में देखा गया था । आजकल यह उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, असम, नागालैंड, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात तथा कर्नाटक राज्यों में प्रमुख हानिकारक कीट के रूप में पाया जाता है । भारत के अतिरिक्त इस कीट का प्रकोप बर्मा, श्रीलंका तथा बांग्लादेश में भी पाया जाता है । गन्ने के अतिरिक्त यह कीट कॉस (सैकेरम स्पाप्टेनियन), मुंज (इरियन्थेस सिलियेरिस), वरू (सारघम हेलिपेन्स) तथा अपल्युड़ा अरिस्टा पर भी पाया जाता है ।

नियंत्रण विधियां (Control Methods):

i. सस्य एवं यांत्रिक:

कीट ग्रसित खेतों/क्षेत्रों से बीज नहीं लेना चाहिए तथा स्वस्थ शल्क रहित बीज बोना चाहिये । प्रभावित क्षेत्र में गन्ने की बुआई ऊष्मोपचारित अथवा 0.1 प्रतिशत मैलाथिआन के घोल में 15 मिनट डुबोने के बाद करनी चाहिये । प्रभावित क्षेत्र में एक से अधिक पेडी नहीं लेनी चाहिए । गन्ने में 6-8 पोरियां बन जाने के बाद सूखी पत्तियों को माह में 2 बार निकालना चाहिये ।

ऐसा करने से पर्णच्छदों के नीचे छिपे अर्भक (क्रालर) व शल्क कीट प्राकृतिक शत्रुओं द्वारा नष्ट हो जाते हैं । जल प्ररोहों को निकाल देना चाहिये फसल की कटाई के बाद ठुंठों की भूमि स्तर से छंटाई कर बची हुयी सूखी पत्तियां तथा गन्ने के टुकड़ों को खेत में ही जला देना चाहिये एक से अधिक पेडी नहीं लेनी चाहिए । प्रतिरोधी किस्मों को ही बोना चाहिये ।

ii. रासायनिक:

प्रभावित खेत से प्राप्त बीज गन्ने को मैलाथिऑन अथवा डाइमेथोएट के 0.1 प्रतिशत घोल में 20-30 मिनट तक डुबोने अथवा घोल में डुबोये टाट के टुकडे से रगडने के बाद बोना चाहिये । ऐसा करने से तने पर चिपके शल्क कीट नष्ट हो जाते हैं अगस्त-सितंबर में गन्ने की निचली 6-8 पोरियों तक की सूखी पत्तियां निकालकर मैलाथिऑन 0.1 प्रतिशत घोल का माह अंतर पर दो बार छिडकाव करना चाहिये । गन्ना कटाई के बाद ठूंठों को भूमि स्तर से काटकर 0.1 प्रतिशत मैलाथिऑन का छिडकाव करना चाहिये ।

iii. जैविक नियंत्रण:

शल्क कीट के प्राकृतिक शत्रुओं में एनौव्रोलेपिस माइयूराई, अजोटम डेल्हियेन्सिस तथा जैन्थोइनसिरटस फुल्लवी परजैविक कीट तथा फेरोस्किमनस हार्नी व काइलोकोरस निग्रीटस परभक्षी प्रमुख हैं । कुछ विदेशज परभक्षी कीट जैसे स्टाइकोलोटिस मेडागासा (रीयूनियन से), लिन्डोरस लोफान्थी (आस्ट्रेलिया, पूर्वी अफ्रीका, रीयूनियन तथा वेस्टइंडीज से) काइलोकोरस कैक्टाई (वेस्टइन्डीज से), का. डिसटिग्मा (पूर्वी अफ्रीका से) के प्रयोग से शल्क कीट नियंत्रण का असफल प्रयास किया गया है ।

iv. वैधानिक:

अनधिकृत रूप से, शल्क कीट प्रभावित क्षेत्र से अप्रभावित क्षेत्रों में बीज हेतु गन्ना भेजना प्रतिबंधित किया जाना चाहिये । प्रभावित क्षेत्रों में एक से अधिक पेडी लेने पर प्रतिबंध लगाना चाहिये । प्रभावित क्षेत्र से सूखी पत्तियां अन्यत्र भेजने पर रोक लगानी चाहिये ।

6. गुलाबी चिक्टा (मीलीबग) (Mealybug):

तने से रस चूसकर गन्ने को हानि पहुंचाने वाला यह दूसरा महत्वपूर्ण कीट है । भारत में इसकी 6 जातियां, सैक्केरिकोक्कस सैक्कोराई, फीनोकोकस सेक्केरिफोलाई ग्रीन, क्रिटशेन्केल्ला (राइपरिसिया) सैक्केराई ग्रीन, स्यूडोकोक्कस सैक्केरिकोला, ढाकाहाशी, डिस्मीकोक्कस करेन्स विलियम तथा अन्टोनिया ग्रेमिनिस मैसमेल पायी जाती हैं । इनमें से. सेक्केराई अत्यधिक हानिकारक है और देश के लगभग सभी गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में पाया जाता है । गन्ने के अतिरिक्त यह कांस, वरु घास, ज्वार, धान तथा दूब घास पर भी मिलता है ।

नियंत्रण विधियां:

i. सस्य तथा यांत्रिक:

गन्ने की कटाई भूमि स्तर से करें प्रभावित खेत की सूखी पत्तियां तथा अन्य अवशेष जला कर नष्ट कर देने चाहिए । स्वस्थ बीज गन्ने की ही बुआई करनी चाहिए । अगस्त-सितंबर में माह के अंतर पर सूखी पत्तियां निकालनी चाहिये । प्रभावित क्षेत्रों में एक से अधिक पेडी नहीं लेनी चाहिए । प्रभावित क्षेत्र से सुरक्षित क्षेत्रों में बीज गन्ना नहीं भेजना चाहिये ।

ii. रासायनिक:

इस कीट के नियंत्रण में मैलाथिऑन 0.5-1.0 प्रतिशत का छिडकाव अत्यधिक प्रभावी व सुरक्षित सिद्ध हुआ है । बीज गन्नों को मैलाथियॉन के 0.1 प्रतिशत घोल में 20-30 मिनट डुबोने के बाद बोने से कीट द्वारा अंकुरण पर पडने वाला कुप्रभाव कम हो जाता है ।

iii. जैविक:

प्रकृति में कई परजीवी, परभक्षी तथ फफूँदी, गुलाबी चिक्टे (मीली बग) को परजीवीकृत करते हैं । इनमें अनेब्रोलेपिस माइयुराई, अनागाइरस सैक्केरिकोला, जैन्थोंइनसरटस सैकराई तथा अजोटस डेलिहेएन्सिस (परजीवी), फेरोस्किमनस हार्नि, ब्रूमस सुटूरेलिस, स्किमनस काक्सीवोरा व क्राइसोपा सेलेस्टिस (परभक्षी) तथा एसपरजिलस पैरासिटिकस (कवक) इनकी संख्या नियंत्रित करने में विशेष प्रभावी हैं ।

C. बेधक कीट (Borer Pests):

गन्ना-प्ररोहों अथवा तनों में घुसकर आतरिक तन्तुओ को खाने वाले कीट बेधक कीट कहलाते है । भारत में इनकी 11 प्रमुख जातिया है । फसल वृद्धि की प्रारभिक अवस्था में प्ररोहो को क्षति पहुचाने वाले बेधक कीटों को प्ररोह बेधक, अगोले अथवा चोटी के पोरियों को क्षति पहुचाने वाले को चोटी बेधक तथा पोरियों (तनों) को क्षति पहुचाने वालों को तना बेधक कहते हैं ।

1. प्ररोह बेधक:

इस श्रेणी में मुख्य रूप से प्ररोह बेधक, (काइली इनफसकैटलस, स्नेलेन), जड बेधक (इम्मैलोसिरा डिप्रेसिला स्विनहो), हरा बेधक (रेफीमेटोपस एव्लूटेलस जेलर) तथा गुलाबी बेधक (सिसेमिया इन्फेरेन्स बाकर) आदि वे बेधक कीट आते हैं जो विशेष रूप से ग्रीष्मकाल में अधिक तापमान तथा न्यूनतम आर्द्रता के वातावरण में गन्ने के प्ररोहों को नष्ट करते हैं ।

परंतु प्ररोह बेधक (का. इनफसकैटेलस) राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में तथा गुलाबी बेधक (सि. इन्फेरेन्स) राजस्थान, तमिलनाडु तथा महाराष्ट्र में प्ररोहों के साथ पूर्ण विकसित गन्नों को भी हानि पहुँचाते है ।

2. जड बेधक (इमेलोसेरा डिप्रेसिल्ला):

(i) मृत केंद्र मध्य तथा समीप की एक या दो पतियों के सूखने से बनता है जो सरलता से बाहर नहीं खींचे जा सकते हैं ।

(ii) ग्रसित प्ररोह के आधार पर (भूमि सतह के पास) केवल एक बारीक छिद्र दिखता है ।

(iii) ग्रसित प्ररोह की बीच की पत्तियों के सूखने के साथ पूरा पौधा ही सुख जाता है ।

(iv) पूर्ण विकसित प्रकोपित गन्नों की पतिया नवंबर-दिसंबर तक सुख जाती हैं ।

3. गुलाबी बेधक (सिसामिया इनफेरेन्स):

(i) प्रकोपित प्ररोह के तनों पर बडे गोल छिद्र हैं, जिनसे गीला मल निकलता है ।

(ii) मृत केंद्र बीच की पत्तियां तथा बर्धन शिख के बीच संबंध टूटने से बनता है जो सरलता से खिच जाते है और सूँघने पर सडी हुई दुर्गंध देते है ।

(iii) प्रकोपित गन्ने की पोरियों (राजस्थान, महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु में) पर डिंभक प्रवेश तथा निकास के दो बडे छिद्र पाये जाते है । पोरियों को फाडकर देखने से अंदर का भाग खाया हुआ मिलता है ।

4. हरा बेधक (रेफीमेटोपस एब्लूटेलस):

(i) मृत केंद्र प्ररोह के मध्य की पत्तियां सूखने से बनता है जो खींचने से जो आसानी से खिंच जाता है ।

(ii) मृत केंद्र के साथ कभी-कभी हरे रंग का लारवा भी बाहर निकल आता है ।

नियंत्रण विधियाँ:

प्ररोह बेधकों के क्षतिकरण के तरीकों तथा प्रकोप काल में अत्यधिक समानता होने के कारण उनके नियंत्रण की विधियाँ भी समान हैं ।

(i) कृषिगत:

गन्ने की बुआई गहरी नालियों में करनी चाहिये । ग्रीष्म काल में थोडे-थोडे दिनों में खेत की सिंचाई अथवा उसमें सूखी पत्तियों का पलवार बिछाकर खेत की सूक्ष्म जलवायु नम रखनी चाहिये । ऐसी स्थिति प्ररोह बेधक के प्रकोप को कम रखने में सहायक होती है । मई-जून में खेत में हल्की मिट्टी चढानी चाहिये ।

ऐसा करने से वयस्कों के निकलने हेतु प्ररोह के आधार पर बनाये गये छिद्र ढक जाते हैं और वयस्क अंदर ही अंदर मर जाते हैं । गन्ने की कटाई भूमि स्तर से करनी चाहिये । पेडी न रखे जाने वालों खेतों में गन्ने की कटाई फरवरी के अंत तक कर लेनी चाहिए । कटाई के बाद गहरी या जुताई कर बूटों को निकाल कर जला देनी चाहिए, ताकि फूलों में उपस्थित बेधक नष्ट हो जायें ।

(ii) यांत्रिक:

बेधक ग्रसित प्ररोहों को भूमि सतह से काटकर निकाल देना चाहिये । यांत्रिक नियंत्रण की यह किया मार्च-मई तक विस्तृत क्षेत्रों में सामूहिक रूप से अपनानी चाहिये । उन क्षेत्रों में जहां प्ररोह बेधक, तना बेधक के रूप में गन्ने के क्षति पहुंचाते हैं अगस्त-अक्तूबर में माह अतर से सूखी पत्तियाँ निकालना चाहिये ।

(iii) परजैविक:

मुख्य प्ररोह बेधक (का. इनफसकेटेलस), गुलाबी बेधक (सिसेमिया इनफेरेन्स) तथा जड बेधक (इमैलोहित डिप्रेसिल्ला) को प्रकृति में लगभग 5 दर्जन परजीवी, 6 परभक्षी कीट तथा लगभग एक दर्जन रोगाणुबेधक, प्रकोप को कम करते हैं । इन सब में अंड परजीवी, ट्राइकोग्रामा किलोनिस तथा लारवल परजीवी स्टुरमियाप्सिस इनफेरेन्स विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं ।

उत्तर भारत में ग्रीष्मकाल की गर्म शुष्क वातावरण, जिसमें प्ररोह बेधक अत्यधिक सक्रिय होते है, इन परजीवी कीटों के अनुकूल नहीं होने के कारण इनका विकास बाधित हो जाता है । प्रयोगशाला उत्पादित परजीवियों के खेत में निम्फ छोडने से भी कोई विशेष लाभ नहीं मिलता । इसके विपरीत दक्षिण भारत में ये परजीवी विशेष कारगर सिद्ध हुये हैं ।

5. चोटी बेधक (सिरपोफेगा एर्क्सपटेलिस वाकर):

चोटी बेधक भारत के सभी गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में पाया जाने वाला सर्वाधिक हानिकारक कीट है । यह कीट सरकंडा (इरियन्थस सिलियेरिस), ज्वार (सोरघम वाइकोलर), वरू घास (सा. हेलिपेन्स) तथा कांस (सैक्केरम स्पान्टेनियम) आदि पर भी पाया जाता है । भारत के अतिरिक्त यह कीट पाकिस्तान, बांग्लादेश, जापान, श्रीलंका, बर्मा, चीन, इंडोचाइना, ताईवान, फिलीपींस, मलेशिया तथा थाइलैंड आदि देशों में भी पाया जाता है ।

नियंत्रण विधियाँ:

(i) सस्य एवं यांत्रिक:

चोटी बेधक प्रकोपित फसल की कटाई फरवरी के तीसरे सप्ताह तक कर लेनी चाहिये । अंगोले को शीघ्रातिशीघ्र काटकर चारे के रूप में प्रयोग करना चाहिए । ऐसा करने से अगले वर्ष शीत पीढी से होने वाले प्रकोप को कम किया जा सकता है । ग्रीष्म काल में गन्ने की सिंचाई प्रौढ कीट के निर्गमन से पहले अथवा बाद में करनी चाहिये ।

खेतों से जल निकासी की समुचित व्यवस्था करके जलाक्राँति से बचना चाहिये । क्षेत्र विशेष में गन्ना प्रजातियों का चुनाव सावधानी से करना चाहिए । कीट सुग्राही प्रजातियां नहीं बोनी चाहिये । मार्च से जून तक कीट के अंड समूहों तथा ग्रसित प्ररोहों को भूमि सतह के पास से सामूहिक ढंग से तथा विस्तृत क्षेत्रों में करना चाहिये ।

(ii) परजैविक:

परजीवी एवं परभक्षी मित्र कीटों की कई जातियाँ चोटी बेधक को नियंत्रित करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं । इनमें टेलीनोमस बेनिफिसियन्स (अंड परजीवी) तथा आइजेटिमा जावेन्सिस (पूर्व प्यूपा एवं प्युपा का परजीवी) अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।

उत्तर भारत में टे. बेनिफिसियेन्स चोटी बेधक के 70-85 प्रतिशत अंडों तथा आ. जावेन्सिस जुलाई अगस्त तथा सितंबर महीनों में 20 से 35 प्रतिशत प्यूपा को परजीवीकृत कर नष्ट कर देते है । इसके अतिरिक्त प्रयोगशाला में उत्पादित ट्राइक्रोग्रामा जेपोनिकम (अंड परजीवी) के वयस्क/हैक्टर जुलाई से अकसर तक खेत में निर्मुक्त करने से चोटी बेधक को सफलता पूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है ।

(iii) कीटनाशक रसायनों द्वारा:

फ्यूराडान 3 जी. का 10 कि.ग्रा. स. त. तत्त्व/हैक्टर या फोरेट 2-3 कि.ग्रा. स.त. तत्व/हैक्टर दानेदार दवा के जून के अंतिम या जुलाई के प्रथम सप्ताह में प्रयोग से चोटी बेधक की तीसरी पीढी जो गन्ने के भारव उपज दोनों को कम कर देती है) के प्रकोप को कम कर सकते हैं । परंतु सफल नियंत्रण समेकित रूप से सभी विधियों को मिलाकर समय पर करने से ही प्राप्त होता है ।

6. तना बेधक:

बेधक कीटों की इस श्रेणी में वे कीट आते हैं जिनका प्रकोप मुख्यतः गन्ने में पोरियां बनने के बाद शुरू होता है और जिससे फसल की पैदावार तथा शर्करा उत्पादन में अत्यधिक हानि उठानी होती है । तना अथवा तराई बेधक (काइलो अरीसीलियस), पोरी बेधक (काइलो सेक्कैरिफेगस इंडीकस), गुरदासपुर बेधक (एसीगोना स्टेनियलस) तथा प्लासी बेधक (काइलो टुमिडीकोस्टैलिस) मुख्य तना बेधक हैं ।

इसके अतिरिक्त चोटी बेधक (सिरपोफैगा एक्सरप्लैलिस) प्ररोह के साथ पोरियों को भी नुकसान पहुँचाता है । पोरी बेधक (का. इनफसकैटेलस) राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु में तथा गुलाबी बेधक (सिसामिया इनफेरेन्स) राजस्थान, तमिलनाडु तथा महाराष्ट्र में तना बेधक के रूप में पूर्ण विकसित गन्ने को नुकसान पहुँचाते हैं ।

तना बेधक अथवा तराई बेधक:

उत्तर भारत में पाये जाने वाले समस्त बेधक कीटों में तना अथवा तराई बेधक सर्वाधिक हानि पहुंचाने वाला कीट है । 1929 में पूसा (बिहार), 1940 में पडरौना (उत्तर प्रदेश), 1954 में नैनीताल (उत्तर प्रदेश) से सर्वप्रथम रिपोर्ट किया गया । यह कीट अब संपूर्ण उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, असम, उडीसा तथा नागालैंड में पाया जाता है । गन्ने के अतिरिक्त यह धान, जानसन घास तथा बनचरी आदि पर भी मिलता है ।

नियंत्रण विधियाँ:

(i) सस्य तथा यांत्रिक:

सदा स्वस्थ गन्नों की बुआई ही करनी चाहिये । अनुमोदित मात्रा से अधिक नाइट्रोजन नहीं देना चाहिए । जून तक गन्ने की जड पर हल्की मिट्टी चढाकर, वर्षा पूर्व गन्ने की बधाई कर तथा खेत से जल निकासी की समुचित व्यवस्था कर गन्ने को गिरने से बचाना चाहिये ।

सितंबर-अक्तुबर के अंत में गन्ने की सूखी पत्तियाँ तथा जल प्ररोह निकलवानी चाहिए । गन्ने को गिरने से बचाने के लिये बधाई करनी चाहिये । गन्ने की कटाई फरवरी के अंत तक कर लेनी चाहिये तथा कटाई के बाद खेत में बचे हुये पौधों के सभी अवशेषों को इकट्‌ठा कर जला देना चाहिये ।

(ii) रासायनिक:

सितंबर-अक्तूबर में मासिक अतर पर सूखी पत्तियाँ निकालने के बाद मोनोक्रोटोफास की 0.75 स.त. तत्व/हैक्टर की दर से छिडकाव तना बेधक पर संतोषजनक नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है ।

(iii) परजैविक नियंत्रण:

इस बेधक कीट के कई परजीवी व परभक्षी भिन्न कीट प्रकृति में उपलब्ध हैं जो साधारण अवस्था में इन्हें नियंत्रित करने में अपना योगदान देते हैं । कई विदेशज परजीवी कीट इसको नियंत्रित करने में प्रयुक्त किये गये हैं, जो असफल सिद्ध हुये हैं ।

इनमें कोटेशिया प्लेवीपस, स्टुरमियाप्सिस इनफेरेन्स तथा कम्पाइलोन्यूरस म्यूटेटर विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं । प्रयोगशाला जनित कोटेशिया प्लेविपस की 500 गर्भित मादाएँ/हैक्टर जुलाई से नवंबर तक साप्ताहिक अंतराल पर डालने से तना बेधक का प्रकोप कम किया जा सकता है ।

7. पोरी बेधक: काइलो सैक्कैरीफेगस इंडिकस कपूर:

यह दक्षिण भारत में गन्ने का प्रमुख नाशीकीट है परतु अब बिहार, उडीसा तथा उत्तर प्रदेश में भी गन्ने को गंभीर रूप से हानि पहुँचाता है । इसका आक्रमण तना अथवा तराई बेधक की तरह पूरे गन्ने में न होकर एक ही पोरी तक सीमित रहता है । गन्ने के अतिरिक्त यह ज्वार, बाजरा, मक्का एवं धान पर भी पाया जाता है ।

नियंत्रण विधियां:

(i) सस्य एवं यांत्रिक:

बेधक रहित स्वस्थ पोरियों की बुआई संस्तुत की गई नाइट्रोजन उर्वरक का उपयोग, खेतों से जल निकासी की समुचित व्यवस्था तथा कठोर छिलके वाली प्रजातियों के प्रयोग से पोरी बेधक का प्रकोप कम किया जा सकता है ।

(ii) यांत्रिक:

बेधक अंड समूहों को एकत्रित कर नष्ट करके जल प्ररोहों अथवा जल किल्लों जिनके द्वारा यह कीट एक से दूसरी फसल में अवशोषित होता है तथा गन्ने की सूखी पत्तियाँ व पर्णच्छद को अगस्त से सितंबर तक निकालकर नष्ट करने तथा गन्ना कटाई के बाद निकले पर्ण अवशेषों को इकट्ठा कर जलाने से बेधक प्रकोप को कम किया जा सकता है ।

(iii) जैविक:

इस कीट के कई परजीवी प्रकृति में पाये जाते हैं । इनमें ट्राइक्रोग्रामा कीलोनिस, टेलीनोमस बेनीफिसियन्स (अंड परजीवी), कोटेशिया फ्लैविपस तथा ट्रेट्रास्टिकस इजरायली (प्युपा परजीवी) अधिक उपयोगी हैं । प्रयोग उत्पादित ट्रा किलोनिस वयस्क के 50,000 वयस्क/हैक्टर 10 दिन के अंतराल पर जुलाई से अक्तूबर तक तथा कोटेशिया फ्लेविस की 500 गर्भित मादा/सप्ताह/हैक्टर जुलाई से नवंबर तक खेत में निर्मुक्त करने से इस कीट के नियंत्रण में आशातीत सफलता प्राप्त की जा सकती है ।

(iv) रासायनिक:

मोनोक्रोटोफॉस 0.75 कि. स. तत्व 1000 लीटर पानी हैक्टर/घोल का अगस्त, सितंबर व अक्तूबर में सूखी पत्तियाँ निकालने के बाद छिडकाव करें ।

8. गुरदासपुर बेधक, (एसीगोना स्टेनियलस हैम्पसन):

यह कीट सर्वप्रथम 1923 में सियालकोट (जो अब पाकिस्तान में है) तथा गुरदासपुर, पंजाब में पाया गया था । इसे गुरुदासपुर बेधक कहते हैं । आजकल यह कीट पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, देहरादून (उत्तरांचल) तथा राजस्थान के कुछ भागों में अत्यधिक हानिकारक कीट के रूप में तथा छिटपुट रूप से हिमाचल प्रदेश व महाराष्ट्र में भी पाया जाता है । किसी अन्य फसल पर इसका प्रकोप नहीं देखा गया है ।

नियंत्रण विधियां:

(i) सस्य तथा यांत्रिक:

बेधक रहित स्वस्थ बीज बोना चाहिए । शीघ्र पकने वाली प्रजातियां जो नवंबर में काटी जा सकें अपनानी चाहिये । गंभीर रूप से ग्रसित गन्ने को जल्दी कटाई कर खेत की गहरी जुताई द्वारा ग्रसित ठुंठों को निकाल कर नष्ट करना तथा ऐसे खेत की पेडी नहीं रखना हितकर होता है । कीट की पूथी (ग्रिगेरियस) अवस्था में ग्रसित गन्नों को नियंत्रित तथा सामूहिक रूप से जुलाई से सितंबर तक सप्ताहि अंतराल पर निकालना चाहिये । वर्षा के पानी के निकास की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए ।

(ii) परजैविक नियंत्रण:

इस कीट को प्रकृति में कई परजीवी मित्र कीट परजीवीकृत करते हैं । इनमें द्राइक्रोग्रामा किलोनिस (अंड परजीवी), कोटेशिया फ्लेवीपस, स्टेनोब्रेक्रॉन निसेविली, रैकोनोटस सिगनीपेनिस, (लारवा परजीवी) तथा आइजेटिमा जावेन्सिस व टेट्रास्टिकस स्पी. (प्यूपा-परजीवी) महत्वपूर्ण हैं । जुलाई से सितंबर तक द्राइक्रोग्राम किलोनिस के 50,000 वयस्क/हैक्टर 10 दिनों के अंतराल पर छोड़ने से कीट के प्रकोप को कम करने में सहायक सिद्ध हुये हैं ।

(iii) कीटनाशक रसायनों द्वारा:

इस कीट के नियंत्रण में कई कीटनाशक दवाओं का प्रयोग यद्यपि किया गया है । परंतु कोई भी कीटनाशक दवा इसको नियंत्रित नहीं कर पाई है । ऐसी स्थिति में इस बेधक कीट का नियंत्रण कृषकीय तथा यांत्रिक विधियों के प्रयोग से ही संभव हो पाता है । पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में इन विधियों को सामूहिक ढंग प्रयोग से किया गया है उन क्षेत्रों में इस बेधक कीट का प्रकोप काफी हद तक कम हो गया है ।

9. प्लासी बेधक, (काइली टयूमिडीकॉस्टेलिस हैम्पसन):

यह कीट सर्वप्रथम में असम में तथा 1939 में पूर्णिया (बिहार) से अभिलेखित किया गया था । सन् में प्लासी (पश्चिम बंगाल) में महामारी के रूप में आने के बाद इसका नाम प्लासी बेधक पड गया । बिहार के भागलपुर, मुंगेर, दरभंगा, मुजफ्फरपुर तथा पश्चिमी चम्पारण जिलों में यह अत्यंत हानिकारक कीट के रूप में पाया जाता है । असम, बंगाल, नागालैण्ड तथा बिहार तक सीमित रहने के कारण इसका विशेष महत्व है । गन्ने के अतिरिक्त यह वरू और सरकंडे पर भी पाया जाता है ।

नियंत्रण विधियाँ:

(i) सस्य एवं यांत्रिक:

प्रथम संक्रमण अवस्था में कीट के अन्ड समूहों तथा ग्रसित गन्नों को सामूहिक रूप से एकत्रित कर नष्ट करना चाहिये । खेत से जल निकासी की समुचित व्यवस्था करने, गन्ने की कटाई फरवरी के अंत तक कराकर पेराई हेतु मिल में भेजने तथा कीट प्रभावित क्षेत्रों में अगस्त से अक्तूबर तक गन्ने की बुआई न करने से इस बेधक कीट का प्रकोप कम किया जा सकता है । पेट्रोमेक्स या किसी अन्य तेज प्रकाश स्रोत पर कीट के वयस्कों को आकर्षित कर नष्ट करना चाहिये ।

(ii) परजैविक:

द्राइक्रोग्रामा किलोनिस तथा कोटेसिया फ्लैविपस नामक परजीवी इस कीट के प्रमुख शत्रुकीट है जो इस कीट के 67 से 71 प्रतिशत अंडे तथा 16 से 35 प्रतिशत लारवों को नष्ट कर देते हैं ।

D. गन्ना कीटों का समेकित नियंत्रण:

कीट नियंत्रण में कीटनाशक रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से नाशीकीटों में कीटनाशक रसायनों के प्रति बढती प्रतिरोधी क्षमता, लघु हानिकारक कीटों का मुख्य हानिकारक कीटों में परिवर्तन, पर्यावरण पर पडते कुप्रभाव, कीटनाशक दवाओं का खाद्य श्रृंखला द्वारा शरीर में प्रवेश से मानव स्वास्थ्य पर पडते कुप्रभाव, लाभकारी जीव-जंतु परजीवी तथा परभक्षी मित्र कीट तथा परागण करने वाले कीटों-पक्षियों की संख्या में कमी जैसे कई दुष्यरिणाम सामने आये है ।

ऐसी परिस्थिति में कीट नियंत्रण के ऐसे उपाय ढूँढने की आवश्यकता पडी जिसे अपनाकर कीटनाशक रसायनों के प्रयोग पर निर्भरता को कम किया जा सके । इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर समेकित कीट नियंत्रण पद्धति का विकास किया गया । खेत तथा बीज के चुनाव से लेकर फसल की कटाई तक अपनायी जाने वाली वे सभी विधियाँ समेकित की गई हैं, जिनसे विभिन्न कीटों द्वारा होने वाली हानि को कम किया जा सके ।

नाशीकीटों के प्रकोप के तरीकों, प्रकोप काल. उनकी उपस्थिति, परिस्थिति तथा फसल की अवस्था को ध्यान में रखकर विकसित की गई । समेकित कीट प्रबंधन प्रणाली देश में पाये जाने वाले विभिन्न कीटों का नियंत्रण प्रस्तावित है ।

समेकित कीट प्रबंधन प्रणाली का प्रयोग किसानों की सहभागिता के साथ बडे पैमाने पर करना चाहिये । इसका प्रभाव यद्यपि लंबे अंतराल के बाद ही दिखाई देता है परंतु आर्थिक रूप से टिकाऊ तथा पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित होने के कारण यह विधि दूरगामी प्रभाव डालती है ।

गन्ना कीटों का जैविक नियंत्रण:

पूर्व दशकों में गन्ना कीटों के नियंत्रण में कीटनाशक रसायनों का उपयोग मुख्य रहा है । दीमक, काला चिक्टा तथा पायरिला आदि कुछ नाशीकीटों के नियंत्रण में सफलता भी मिली है । परंतु बेधक कीट, जिनकी सूंडियां (लारवा) गन्ने के अंदर घुसकर हो पाते ।

लंबी अवधि की फसल होने के कारण रसायनों का प्रभाव भी प्रत्येक में समान नहीं हो पाता । प्रकृति में कई प्रकार के परजीवी, परभक्षी, विषाणु तथा जीवाणु किसान के मित्र के रूप में पाये जाते है । जिनका प्रयोग कीट नियंत्रण में किया जा सकता हैं, इन मित्र कीटों की संख्या प्रयोगशाला में बढाकर फसल में निश्चित अंतराल पर छोडकर विभिन्न नाशीकीटों द्वारा होने वाले आर्थिक नुकसान को कम किया जा सकता है ।

E. गन्ना नाशीकीटों के प्रमुख प्राकृतिक शत्रु:

प्रकृति में पाये जाने वाले ये परजैविक कीटनाशी कीटों के प्रकोप को कम करने में विशेष योगदान देते है । बेधक कीटों के नियंत्रण में अंड परजीवी ट्राइकोग्रामा किलोनिस अत्यधिक महत्व का है । दक्षिणी भारत में इस परजीवी कीट द्वारा अच्छे नतीजे प्राप्त हुये है परंतु उत्तर भारत में तापमान विषमता के कारण यह कम प्रभावी पाया गया है ।

पुग्गलूर (तमिलनाडु) में आइसेटिमा जावेन्सिम द्वारा 6 माह के अंदर ही चोटी बेधक के नियंत्रण में अभूतपूर्व सफलता मिल चुकी है । यह परजीवी वहाँ मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) से ले जाया गया था । तराई, बेधक, पोरी बेधक एवं प्लासी बेधक के नियंत्रण में कोटेसिया फ्लेवियस (लारवा परजीवी) तथा पायरिला नियंत्रण में इपीरिकेनिया मेलोनोल्युका, (शिशु व वयस्क परजीवी) अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुए हैं ।

बेधक तथा शल्क कीट के नियंत्रण हेतु विदेशों से मंगाये गये कई परजीवी एवं परभक्षी देश के विभिन्न स्थानों पर निमफ्रक्त किये गये हैं, जिनमें तना बेधकों के लिये लिक्सोफेगा डाइट्रिया, स्टुरमियोप्सिस पैरासिटिका, पैराथिरेसिया क्लेरीपैल्पिस, डाट्रियाफैगा स्ट्रियाटेलिस तथा शल्क कीट के लिये काइलोकोरस कैक्टाई, लिंडोरस डिसटिग्मा प्रमुख हैं ।

परंतु ये परजीवी या परभक्षी देश में असफल सिद्ध हुये हैं, जबकि यहां की प्रकृति में पाये जाने वाले विभिन्न देशज परजैविक कीट यहाँ की परिस्थिति व वातावरण में पूर्णतया ढले होने के कारण अत्यधिक कारगर पाये गये हैं ।

प्रकृति में पाये जाने वाले विभिन्न परजीवी तथा परभक्षी मित्र कीटों की पहचान तथा वे किन-किन कीटों पर अपना जीवन-यापन करके उनकी संख्या कम करते हैं, की जानकारी के साथ जैविक नियंत्रण विधि का अपनाना पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत लाभकारी सिद्ध होगा ।

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