कीटों को कैसे नियंत्रित करें | How to Control Pests in Hindi. (A) प्राकृतिक नियंत्रण (Natural Control), (B) कृत्रिम नियंत्रण (Artificial Control), (C) भौतिक नियंत्रण (Physical Control), (D) यांत्रिक नियंत्रण (Mechanical Control)
कीटों द्वारा होने वाली हानि तथा उनके फैलाव को रोकने का उद्देश्य मूल रूप से कीट विज्ञान का है । कीट नियंत्रण में व्यापक रूप से उन सभी बातों का समावेश होता है जोकि कीटों को संख्या को कम करें ।
कीट नियंत्रण को निम्नलिखित चार व्यापक श्रेणियों में विभक्त किया जाता है:
(A) प्राकृतिक नियंत्रण (Natural Control)
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(B) कृत्रिम नियंत्रण (Artificial Control)
(C) भौतिक नियंत्रण (Physical Control)
(D) यांत्रिक नियंत्रण (Mechanical Control)
(A) प्राकृतिक नियंत्रण (Natural Control):
प्रायः प्रकृति में कुछ ऐसे कारक होते हैं जो स्वयं कीटों की संख्या को कम करते हैं । इस प्रकार के कारकों पर मानव का कोई भी नियंत्रण नहीं होता है । इन्हीं कारकों के फलस्वरूप प्रकृति में कीटों की विशाल संख्या का संतुलन प्रकृति में बना रहता है ।
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प्राकृतिक कारकों को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है:
1. मौसम सम्बन्धित कारक,
2. भौतिक संरचना सम्बन्धिक कारक तथा
3. प्राकृतिक शत्रुओं द्वारा नियंत्रण ।
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1. मौसम सम्बन्धित कारक:
कीटों के जीवन पर मौसम का गहरा प्रभाव पड़ता है । मौसम सम्बन्धित कारक मुख्यतः अक्षांश व देशान्तर पर निर्भर रहते हैं । मौसम सम्बन्धित कारकों में तापमान, आर्द्रता, वर्षा, वायु, प्रकाश, वायुमण्डलीय दाब आदि का सामूहिक प्रभाव कीटों पर पड़ता है ।
a. तापमान:
कीटों के विकास के लिये सामान्यतः 13० से 40० से. तापमान उचित रहता है । उच्च या निम्न तापमान पर इनकी जीवन क्रियाएँ धीमी हो जाती हैं । इस स्थिति से बचने के लिये कीट प्रायः ग्रीष्म निष्क्रीयता में चले जाते हैं । सामान्य तापमान में बदलाव का कीटों पर विपरीत असर पड़ता है तथा इसके प्रभाव से उनकी मृत्यु हो जाती है । इस प्रकार तापमान कीटों के क्षेत्रीय व विस्तृत वितरण, विकास व वृद्धि पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है ।
b. आर्द्रता:
कीटों के ऊपर आर्द्रता का भी विशेष प्रभाव पड़ता है सामान्यतः 60-80 प्रतिशत आर्द्रता कीटों के लिये अनुकूल होती है । वातावरण में आर्द्रता की कमी होने पर अधिक वाष्पीकरण से कीटों की मृत्यु हो जाती है । उदाहरण स्वरूप भण्डारित अनाज में अधिक नमी से कीट प्रकोप में वृद्धि होती है मगर अच्छी तरह से सुखाकर रखे गये अनाज में कीटों का प्रकोप नहीं होता है ।
c. वर्षा:
तेज वर्षा का भी कीटों पर सीधा प्रभाव पड़ता है । वर्षा से कीट, उनके लार्वा, अण्डे तथा प्यूपा नष्ट हो जाते हैं । अत्यधिक वर्षा का भूमिगत कीटों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । दीमक का प्रकोप खेतों में पानी भरने से कम होता है ।
d. वायु:
हवा भी कीटों के नियंत्रण में सहायक होती है । कीटों का प्रसार हवा के माध्यम से होता है । तेज हवाओं के प्रभाव से कीट प्रायः प्रतिकूल स्थान पर पहुँच जाते हैं जिससे उन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । तेज हवा द्वारा वायु में उपस्थित नमी भी कम हो जाती है फलस्वरूप कीटों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है । मार्च माह में तेज गर्म हवाएं चलने से सरसों में माहू नष्ट हो जाता है ।
e. सूर्य का प्रकाश:
प्रकाश की उपस्थिति का कीटों के आवास व प्रजनन पर काफी असर पड़ता है । तेज धूप कीटों के लिये नुकसानदायक होती है क्योंकि अधिक तापमान से कीटों के अण्डे व प्यूपा नष्ट हो जाते हैं ।
2. भौतिक संरचना संबंधी कारक:
भूमि पर स्थित प्राकृतिक संरचनाएँ जैसे, समुद्र, झील, नदियाँ, पर्वत, रेगिस्तान आदि कीटों के फैलाव में प्रभावी अवरोधक का कार्य करते हैं । कुछ कीट जिनकी उड़ने की क्षमता बहुत ही कम होती है प्रायः इन बाधाओं को पार करने में असफल रहते हैं तथा स्थान विशेष तक सीमित रह कर समाप्त हो जाते हैं ।
इसी प्रकार भूमि की भौतिक व रासायनिक रचना भी कीट नियंत्रण में सहायक होती है । भूमि पर रहने वाले एवं भूमि में अण्डे देने वाले कीट एक निश्चित प्रकार की भूमि पर ही अपना जीवन चक्र पूर्ण कर पाते हैं । इस प्रकार की भूमि के गुणों में कुछ बदलाव इन कीटों की जीवन अवस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है ।
3. प्राकृतिक शत्रुओं द्वारा नियंत्रण:
प्रकृति में प्रत्येक कीट का कोई न कोई प्राकृतिक शत्रु अवश्य पाया जाता है । प्रायः कशेरूक प्राणी जैसे छिपकली, मेंढक, पक्षी, मछलियाँ आदि कीटों को भोजन के रूप में ग्रहण करती हैं । इन प्राणियों के अलावा कीटभक्षी कीटों की भी काफी विशाल संख्या है ।
एक अनुमान के अनुसार कीटों के 15 गणों के लगभग 200 वंशों के कीट, कीटभक्षी होते हैं । इनके अतिरिक्त अनेक परजीवी कीट भी होते हैं जोकि इन कीटों के शरीर पर आश्रित रहकर अपना भोजन प्राप्त करते हैं जिससे कीटों की मृत्यु हो जाती है ।
अन्य महत्वपूर्ण प्राकृतिक शत्रुओं में सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न बीमारियाँ भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । ये बीमारियाँ भी कीटों की मृत्यु का एक प्रमुख कारण होती है । ये बिमारियाँ बैक्टीरीया, वायरस, फफूँद, प्रोटोजोआ आदि के कारण उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार प्राकृतिक कारक कीटों के नियंत्रण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
(B) कृत्रिम नियंत्रण (Artificial Control):
कृत्रिम नियंत्रण में उन सभी विधियों का समावेश किया जाता है जो कि मानव द्वारा संचालित की जाती हैं । इस विधि में कीट नियंत्रण की सफलता या असफलता मानव कुशलता व दक्षता पर निर्भर करती है ।
कृत्रिम नियंत्रण में निम्नलिखित विधियाँ शामिल की गयी है:
1. कर्षण क्रियाओं का प्रयोग,
2. यांत्रिक नियंत्रण,
3. भौतिक नियंत्रण,
4. वैधानिक नियंत्रण,
5. कीट प्रतिरोधी जातियों द्वारा नियंत्रण,
6. जैविक नियंत्रण,
7. रसायनिक नियंत्रण ।
क्रियाओं द्वारा कीट नियंत्रण:
हानिकारक कीटों के प्रबन्धन के लिये विभिन्न कृषिगत विधियों को अपनाकर कीटों की संख्या को सीमित किया जाता है । इसका मुख्य उद्देश्य हानिकारक कीटों के प्रजनन, फैलाव तथा उत्तरजीविता के लिये अनुकूल पर्यावरण को समाप्त करना है । हानिकारक कीटों के नियंत्रण की इस विधि में अनेक अति प्राचीन नियंत्रण विधियाँ शामिल हैं ।
विभिन्न फसलों में कृषिगत प्रबन्धन विधियों की सफलता के लिये निम्नलिखित बातों का ज्ञान अति आवश्यक है:
1. फसल तथा हानिकारक कीट के जीवन-चक्र के विषय में सही जानकारी,
2. कृषि पारिस्थितिक तन्त्र,
3. हानिकारक कीट के जीवन-चक्र में दुर्बल अवस्था को पहचानने के सन्दर्भ में ऋतुजैविकी का अध्ययन, तथा
4. विभिन्न नियंत्रण उपायों तथा उनके सही समय का निर्धारण करना ।
विभिन्न कृषिगत क्रियाओं में थोड़ा सा बदलाव करके कीटों के आक्रमण को कम किया जा सकता है । ये बदलाव प्रायः हानिकारक कीटों की प्रजनन शक्ति अथवा वृद्धि को कम करते है अथवा ये बदलाव पौधों में हानिकारक कीटों की वृद्धि को रोकने के लिये अवरोधी गुणों का विकास करते हैं । कृषिगत क्रियाओं की सफलता के लिये यह बात अत्यन्त आवश्यक है कि इनका उपयोग हानिकारक कीटों के प्रकोप के आरम्भ होने के पहले ही किया जाए ।
कृषिगत विधियों में अनेक तरह की विधियाँ प्रचलित हैं मगर कुछ बहुप्रचलित विधियाँ निम्नलिखित हैं:
1. अवशेषों व खरपतवारों की सफाई,
2. खेत की जुताई,
3. फसल-चक्र अपनाना,
4. विविधता को बढ़ावा देना,
5. ट्रेप (फंदा) फसल लगाना,
6. पौध-घनत्व,
7. स्वस्थ बीज व कन्द बोना,
8. सिंचाई प्रबन्ध और
9. उर्वरक प्रबन्ध ।
(C) भौतिक नियंत्रण (Physical Control):
भौतिक नियंत्रण के अन्तर्गत तापमान (कम व अधिक), नमी तथा विकिरण ऊर्जा का उपयोग कर प्रत्यक्ष था अप्रत्यक्ष रूप से कीटों को नष्ट किया जाता है ।
इस विधि के अन्तर्गत निम्नलिखित तरीकों का प्रयोग किया जाता है:
i. तापमान (Temperature):
अधिकांश कीट 30० से 40० फेरनहाइट तापमान पर सामान्य रूप से जीवित एवं सक्रिय रहते हैं । इस तापमान को कीटों के लिये प्रभावी तापमान माना जाता है इससे अधिक या कम तापमान का कीटों की जीवन क्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है अधिकांश कीट 1200 फें. (48० से.) तापमान पर मर जाते हैं ।
उच्च तापमान का उपयोग प्रायः भण्डारण कीटों, अनाज वाली फसलों, फलों, कपड़ों आदि के विरुद्ध किया जाता है । इसी प्रकार कम तापमान से भी कीट प्रभावित होते हैं । सामान्यतः 4० फे. से. कम तापमान कीटों को निष्क्रिय कर देता है और उनसे होने वाली क्षति को रोका जा सकता है ।
ii. नमी (Moisture):
नमीयुक्त वातावरण में कीटों की वृद्धि अधिक होती है । यदि खाद्य पदार्थों में नमी की कमी हो जाती है तो कीटों की जीवन व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न होता है । इसलिये अनाज भण्डारण से पूर्व अनाज को भली भांति सुखाकर नमी का प्रतिशत 8 से 10 प्रतिशत रखा जाता है जिससे भण्डारण कीटों का प्रकोप नहीं होता । खेतों में सिंचाई करके दीमक तथा अन्य भूमिगत कीटों का प्रकोप कम किया जाता है ।
iii. विकिरण ऊर्जा (Radiant Energy):
कीट नियंत्रण के लिए विकिरण ऊर्जा का भी प्रयोग किया जाने लगा है । कीट नियंत्रण के लिये गामा व एक्स रेज विशेष रूप से प्रभावी सिद्ध हुआ है । गामा किरणों का सबसे सफल उपयोग स्क्रू वार्म फ्लाई के नियंत्रण के लिये सफलतापूर्वक किया गया है । इस विधि का प्रयोग भण्डारित अनाज के कीटों के विरुद्ध भी प्रभावी रहा है ।
(D) यांत्रिक नियंत्रण (Mechanical Control):
यांत्रिक कीट नियंत्रण में हस्तनिर्मित उपकरणों तथा मशीनों का प्रयोग किया जाता है ।
इस विधि में निम्नलिखित तरीकों का प्रयोग किया जाता है:
i. हाथों से पकड़ना (Hand Picking):
यह एक अति प्राचीनतम विधि है । इस विधि का प्रयोग उन कीटों के विरुद्ध कारगर है जो आकार में बड़े हों या उनके अण्डे या सूंडियाँ समूह में रहते हैं । हाथ से एकत्रित इन कीटों को रासायनिक कीटनाशक या केरोसिन के घोल में डुबाकर मार दिया जाता है ।
ii. हस्त जाल द्वारा पकड़ना (Hand Nets):
इस विधि से हस्त जाल की सहायता से उड़ने वाले कीटों जैसे टिड्डे पायरीला, पतंगों आदि को पकड़कर नष्ट किया जाता है ।
iii. भौतिक अवरोध लगाना (Physical Barriers):
भौतिक अवरोधों जैसे बाड़ लगाना, खाई खोदना, पट्टी बांधना, फलों को ढंकना आदि ऐसी विधियाँ हैं जिसमें कीटों को फसल तक पहुंचने से रोका जाता है । प्रायः घरों में खिड़कियों में जाली लगाकर मक्खी व मच्छरों की रोकथाम करना इसी का उदाहरण है । इसी प्रकार सैन्य कीट, टिड्डे आदि को उनके मार्ग में खाई खोदकर नष्ट किया जा सकता है ।
इसी प्रकार आम के वृक्ष को मिलीबग से बचाने के लिये उसके तने पर 15 से 20 से.मी. चौड़ी ग्रीस की पट्टी एक मीटर की ऊँचाई पर लगा देने से जमीन से निकले कीट के निम्फ या शिशु पेड़ रेंग कर नहीं चढ़ पाते हैं । छोटे उद्यानों में फलों को कपड़े की थैलियों से ढकने से उनमें फल छेदकों का प्रकोप नहीं हो पाता है । यह विधि अनार की तितली के विरुद्ध काफी प्रभावी है ।
iv. पाश या ट्रेप का उपयोग (Traps):
कीटों को नियंत्रित करने के लिये विभिन्न प्रकार के पाशों का उपयोग किया जाता है इनमें प्रकाश पाश, पीले चिपचिपे पाश मुख्य हैं । प्रकाश पाश में विद्युत बल्य या पेट्रोमेक्स का प्रयोग कर रात्रि में प्रकाश उत्पन्न किया जाता है जिससे रात्रिचर कीट जैसे पतंगे, मृग आदि आकर्षित होते हैं ।
इन प्रकाश स्रोतों के नीचे मिट्टी का तेल मिश्रित पानी या कोई कीटनाशी रसायन का घोल रखकर इन कीटों को मारा जा सकता है । उड़ने वाले छोटे कीटों जैसे-माहू सफेद मक्खी इत्यादि को नष्ट करने के लिये चिपचिपे पाश का प्रयोग किया जाता है ।
इसमें लकड़ी के तख्तों, टिन के पतरों आदि के ऊपर चिपचिपा पदार्थ चिपका देते हैं । इनको खेतों की मेड के आसपास लगा देते हैं इससे ये कीट इन पर चिपक कर समाप्त हो जाते हैं । इसी प्रकार फेरोमेन ट्रेप के द्वारा विशेष प्रकार की गन्ध उत्सर्जित कर उसी जाति के कीटों को आकर्षित कर उन्हें नष्ट किया जा सकता है ।
कीट प्रतिरोधी जातियों द्वारा कीट नियंत्रण:
कीटों का आक्रमण फसलों पर लगातार होता रहता है तथा ये फसलों को काफी नुकसान पहुँचाते हैं । इन्हें नियंत्रित करने के लिये प्रायः रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है मगर इन रासायनिक कीटनाशकों के लगातार प्रयोग से जहाँ एक ओर खेती की लागत में बढ़ोतरी होती है वहीं दूसरी ओर पर्यावरण से
सम्बन्धित अनेक समस्याएँ जिसमें पारिस्थितिक असंतुलन, कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध क्षमता का विकास, प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या में तेजी से होती गिरावट तथा द्वितीयक कीटों का प्रादुर्भाव मुख्य है । पौधों में कीटों के प्रकोप से मुकाबला करने की क्षमता अनुवांशिक रूप से पायी जाती है तथा इस क्षमता को यदि सही प्रकार से कीट नियंत्रण कार्यक्रम में शामिल किया जाए तो यह कीट नियंत्रण के लिये अच्छा व सरल उपाय सिद्ध हो सकता है ।
”पादप प्रतिरोध वह गुण है जो एक पादप अथवा पौधे को कीटों की उस जनसंख्याओं के प्रकोप से बचने, उसे सहन करने अथवा उसके द्वारा होने वाली क्षति से पुन: स्वस्थ हो जाने में समर्थ बनाता है जब कि उसी पर्यावरण में इस कीट जनसंख्या द्वारा उसी जाति के अन्य पौधों को अधिक हानि पहुँचती है । यह गुण पौधों में जीवन-रसायनिक या प्राकृतिक विशेषताओं के कारण आता है तथा इनसे कीटों के व्यवहार तथा उपापचयी क्रियायें प्रभावित होती है ।”
पेन्टर (1951) के अनुसार – ”पादप प्रतिरोध पौधे की वंशागत विशेषताएँ है, जिनकी आपेक्षित मात्रा कीटों द्वारा की गयी क्षति के चरम परिणाम को प्रभावित करती है ।”