राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत | Directive Principles of State Policy in Hindi Language!

यदि संविधान के चौथे भाग में वर्णित निदेशक सिद्धान्तों का अध्ययन न किया जाये, तो मात्र मौलिक अधिकारों का अध्ययन पर्याप्त नहीं होगा । मौलिक अधिकारों व नीति-निदेशक तत्त्वों को अलग-अलग स्थान दिया गया है तथा मौलिक अधिकारों को न्यायालयों द्वारा न्याय-मान्य व निदेशक तत्त्वों को न्यायालय द्वारा न्याय-अमान्य घोषित किया गया है ।

हमारे संविधान के इस भाग ने एक अत्यन्त अनोखा और विवादास्पद रूप ग्रहण कर लिया है । इस अनोखेपन का लक्षण इस तथ्य में निहित है कि न्याय-अमान्य होते हुए भी नीति-निदेशक सिद्धान्त देश के प्रशासन मौलिक समझे जाते हैं ।

विवाद वाला तत्त्व उन न्यायिक व्याख्याओं में पाया जाता है, जिनसे प्रशासकों और न्यायाधीशों के मध्य संघर्ष प्रारम्भ हुआ है । पिछले वर्षों के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इन सिद्धान्तों के ‘न्याय- अमान्य’ होने वाली बात ही विवादों की जड़ है ।

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नीति-निदेशक सिद्धान्तों की व्यापक सूची के विषयों का सरलता से अध्ययन करने के लिए उसे तीन भागों में बांटा जा सकता है-लोकतन्त्रीय समाजवादी, बौद्धिक उदारवादी तथा गांधीवादी । पहले हम उन सिद्धान्तों का उल्लेख करेंगे जो एक लोकतन्त्रीय समाजवादी संरचना का गठन करते हैं ।

अनुच्छेदके 38 के अनुसार : ‘राज्य यथासम्भव प्रभावशाली रूप में ऐसी सामाजिक व्यवस्था जिसमें सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की भी संस्थाओं को प्रेरित करे कार्यसाधक के रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक-कल्याण की उन्नत्ति का प्रयास करेगा ।’ इस उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए यह निर्धारित किया गया है कि राज्य अपनी नीतियों का इस प्रकार संचालन करेगा जिससे :

1. समस्त नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों,

2. जनहित में समाज की सम्पत्ति का वितरण हो,

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3. सभी को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले,

4. आर्थिक व्यवस्था का पुनर्गठन हो, जिससे जनहित में उत्पादन के साधनों का प्रयोग किया जा सके,

5. श्रमिकों व बाल श्रमिकों का संरक्षण हो,

6. बच्चों के स्वस्थ विकास के अवसर हों तथा शैशव व किशोरावस्था वालों का शोषण एवं नैतिक व मौलिक परित्याग न हो,

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7. सभी को काम व शिक्षा मिले व बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी या दुर्बलता की अवस्था में सामाजिक सुरक्षा मिले,

8. कॉम की उचित व मानवीय दशाए स्थापित हों तथा मातृ-प्रसूति को सुविधाएं प्राप्त हों,

9. श्रमिकों के निर्वाह, मजदूरी तथा शिष्ट जीवन स्तर का सुधार हो तथा उपयुक्त विश्राम मनोरंजन व सामाजिक एव सांस्कृतिक अवसर प्रदान करने का प्रयत्न किया जाये,

10. पौष्टिक आहार, जीवन-स्तर व लोक स्वास्थ्य को ऊचा उठाने की चेष्टा की जाये,

11. कानूनी व्यवस्था का क्रियान्वयन हो, समान अवसरों के आधार पर न्याय का विकास हो तथा केवल आर्थिक व अन्य अभावों के कारण किसी नागरिक को न्याय से वंचित न होने दिया जाये,

12. औद्योगिकी प्रतिष्ठानों के व्यवस्थापन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित हो तथा

13. आय की विषमताओं को कम किया जाये, पदवी, सुविधाओं और अवसरों में व्यक्तिगत असमानताओं का उमूलन हो तथा विभिन्न क्षेत्रों व व्यवसायों के लोगों में असमानता की समाप्ति हो ।

उपर्युक्त सिद्धान्तों के अलावा कुछ ऐसे नीति-निदेशक तत्त्व हैं जो गांधीजी के विचारों पर आधारित हैं और वे निम्न हें :

1. ग्राम पंचायतों का संगठन हो तथा उन्हें इतनी शक्ति दी जाये कि वे स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य कर सकें,

2. वैयक्तिक तथा सहकारी आधारों पर ग्रामों व कुटीर उद्योग-कश्वों का विकास हो,

3. समाज के पिछड़े वर्गों विशेषतय: अनुसूचित जातियों या वन्य-जातियों के शिक्षा व आर्थिक सम्बन्धी हितों का सरक्षण व प्रोत्साहन हो तथा सामाजिक अन्याय व शोषण से उनकी मुक्ति हो,

4. ओषधि, शृंगार हेतु उपयोग को छोड्‌कर मादक पदार्थों पर प्रतिबन्ध हो तथा

5. कृषि व पशुपालन का आधुनिक वैज्ञानिक उपायों से पुनर्गठन हो, विभिन्न दुधारू पशुओं की नस्ल का विकास हो तथा गाय बछड़ों व अन्य दुधारू पशुओं के वध पर प्रतिबन्ध हो । अन्त में, कुछ ऐसे सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है, जो बौद्धिक उदारवादियों द्वारा समर्थित किये गये हैं । ये निम्न हैं :

1. राष्ट्रीय, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक महत्त्व के स्मारकों की रक्षा की जाये,

2. कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का पृथक्करण किया जाये,

3. सारे देश में समान दीवानी विधि संहिता लागू की जाये,

4. राज्य छह वर्ष से कम आयु के बच्चे के स्वास्थ्य व शिक्षा की व्यवस्था करे,

5. देश के वन्यजीवों, जंगलों व पर्यावरण का संरक्षण तथा विकास हो तथा

6. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सहयोग हो, शान्तिपूर्ण ढंग से अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का निपटारा हो, राष्ट्रों के बीच मधुर व सम्मानपूर्ण सम्बन्ध हों अन्तर्राष्ट्रीय विधि का सम्मान किया जाये तथा अन्तर्राष्ट्रीय संधियों के दायित्वों का पालन हो ।

यद्यपि नीति-निदेश तत्त्वों की विस्तृत सूची यह दर्शाती है कि वे सामाजिक व आर्थिक आदर्शों के प्रतीक हैं, जिनके प्रति राज्य को प्रयत्नशील रहना चाहिए तथा व्यवस्थापिका का कार्यपालिका को कानून बनाने व उसे लागू करते समय उनका पालन करना चाहिए, फिर भी उनका वास्तविक उद्देश्य एक पुलिस राज्य की अपेक्षा एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है । यहीं पर यह बात भी प्रमाणित होती है कि भारत एक लचीला राष्ट्र है, जो प्रत्येक राजनीतिक दल की विचारधारा के साथ चल सकता है ।

संक्षेप में उपर्युक्त सिद्धान्त एक प्रजातन्त्रीय समाजवादी व्यवस्था की रचना करते हैं, जिन्हें महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने बल दिया । डॉ॰ अम्बेडकर के शब्दों में : ”यदि ये राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त अपने निदेशों व सारतत्त्व में समाजवादी नहीं हैं, तो मैं यह समझने में असमर्थ हूं कि फिर समाजवाद और क्या है ?”

कुछ महत्त्वपूर्ण वक्तव्य :

(i) दुर्गादास बसु:

यद्यपि मौलिक अधिकारों के क्षेत्र या परास का निर्धारण करने में निदेशक सिद्धान्त मौलिक अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकते अपितु न्यायालय इन सिद्धान्तों की पूर्णतय: उपेक्षा भी नहीं कर सकते । अत: उन्हें, जहां तक सम्भव हो दोनों के कार्यान्वयन के लिए मधुर सामंजस्य का सूत्र अपनाना चाहिए ।

(ii) एम॰सी॰ सतिलवाद:

ये निदेशक राज्य की नीति के आधारसूत्र हैं, उनकी कानूनी मान्यता न होने पर भी उन्होंने न्यायालयों के लिए उपयोगी प्रकाश स्तम्भों का काम किया है ।

(iii) एलन ग्लैडहिल:

जबकि मौलिक अधिकार शासन को कुछ काम करने से रोकने के लिए निदेश हैं, निदेशक सिद्धान्त सरकार को कुछ काम करने हेतु सकारात्मक आदेश है ।

(iv) आइवर जेनिंग्स:

इन निदेशक सिद्धान्तों के पीछे ब्रिटिश समाजवादियों के प्रेत की छाया दिखायी देती है ।

(v) के॰टी॰ शाह:

ये सिद्धान्त पवित्र निरर्थकता की तरह हैं या उस चैक के समान हैं, जिन्हें कोई बैंक अपनी सुविधानुसार भुनायेगा ।

मौलिक अधिकार और निदेशक सिद्धान्त:

संविधान के तृतीय भाग में वर्णित मौलिक अधिकार और चतुर्थ भाग में वर्णित नीति-निदेशक सिद्धान्तों में अन्तर समझना आवश्यक है । दोनों के बीच अन्तर को तीन प्रमुख भागों में प्रस्तुत किया जा सकता है :

1. जबकि मौलिक अधिकार राज्य के कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं, नीति-निदेशक सिद्धान्त सरकार को दिये गये निदेशों के समान हैं, जिनके अनुसार उसे कार्य करना चाहिए तथा उन्हें शासन के लिए आधारभूत सिद्धान्त मानते हुए उन्हें लागू करवे का प्रयास करना चाहिए ।

2. जबकि मौलिक अधिकार न्याय-मान्य हैं और उन्हें न्यायालयों द्वारा लागू किया जा सकता है, नीति-निदेशक सिद्धान्त न्याय-मान्य नहीं हैं, जिससे वे उन पवित्र घोषणाओं की तरह लगते हैं, जिन्हें सरकार देश के प्रशासन में मौलिक मान सकती है और नहीं भी मान सकती है ।

अनुच्छेद 32 में दिये गये संवैधानिक उपचारों का उपबन्ध संविधान के तृतीय भाग पर लागू होता है, चतुर्थ भाग पर नहीं । अत: जबकि मौलिक अधिकार अनिवार्य हैं, नीति-निदेशक सिद्धान्त केवल वैकल्पिक आदर्शों के समान हैं ।

3. राज्य के कानून द्वारा जब तक वे अन्यथा निर्धारित नहीं किये जाते नीति-निदेशक सिद्धान्त मौलिक अधिकारों के सहायक हैं, किन्तु नीति-निदेशक सिद्धान्त की तुलना में मौलिक अधिकार प्राथमिक हैं । दोनों के बीच कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए फिर भी यदि दोनों के मध्य कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो उस स्थिति में सिद्धान्त के ऊपर अधिकारों को मान्यता दी जायेगी ।

संक्षेप में, वर्तमान स्थिति यह है कि नीति-निदेशक सिद्धान्त बाध्यकारी नहीं हैं, जब तक संसद में इस विषय पर कोई कानून नहीं बनता है । न्यायालय का यह कार्य है कि वह यह देखे कि विधानमण्डलों ने अपनी शक्तियों का प्रयोग संविधान के अनुसार किया है अथवा नहीं ।

यदि मौलिक अधिकार व नीति-निदेशक तत्त्वों में कोई विवाद नहीं है तब न्यायपालिका के सामने कोई समस्या नहीं है लेकिन दोनों के बीच विवाद होने पर नीति-निदेशक तत्त्वों की अपेक्षा मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता देनी होगी ।

सन् 1951 के कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य और चम्पाकम दोराई राजन बनाम मद्रास राज्य वाले मामलों में भी सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनों की वैधता का परीक्षण करते समय उन सिद्धान्तों का समर्थन किया है, जिन्होंने जनहित के नाम पर मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाये हैं, लेकिन जब कभी सर्वोच्च न्यायालय को अनिवार्य रूप में इन दोनों में से एक का चयन करने पर बाध्य होना पड़ा तो उसने बड़ी दृढ़ता से यह दृष्टिकोण अपनाया है : ”जो सिद्धान्त स्पष्ट तौर से न्याय-अमान्य हैं, वे तृतीय भाग में वर्णित अधिकारों से उच्च नहीं हो सकते ।”

यद्यपि नीति-निदेशक सिद्धान्त मौलिक अधिकारों से उच्च नहीं हो सकते फिर भी मौलिक अधिकारों के क्षेत्र व आकार को निर्धारित करते समय न्यायालय नीति-निदेशक तत्त्वों की पूर्णतय: उपेक्षा भी नहीं कर सकते ।

अत: न्यायालयों को, जहां तक सम्भव हो इन्हें क्रियान्वित करने के लिए मधुर सामंजस्य के सिद्धान्त (Principle of Harmonious Construction) का अनुपालन करना चाहिए । संविधान के तीसरे भाग में वर्णित मौलिक अधिकारों तथा उसके चौथे भाग में वर्णित राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त को जुड़वा समझना चाहिए । यह दूसरी बात है कि जबकि पूर्वोक्त न्याय-मान्य अर्थात् बाध्यकारी है, उपरोक्त न्याय-मान्य नहीं है ।

नेहरू ने तीसरे भाग को संविधान की अन्तरात्मा कहा लेकिन एक अमेरिकी लेखक ग्रेन्वाइटल आस्टिन ने दोनों भागों को संविधान की अन्तरात्मा कहा है । वह कहता है: ”यद्यपि संविधान में मौलिक अधिकार व निदेंश सिद्धान्त पृथक् तत्त्वों की तरह दिखायी देते है संविधान सभा ने उन्हें पृथक् कर दिया ।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेताओं के राज्य के सकारात्मक व नकारात्मक दायित्वों में कोई भेद नहीं किया था । दोनों प्रकार के अधिकार देश की राष्ट्रीय व सामाजिक क्रान्तियों की सभी मांग के उत्पाद थे ।” लेकिन यदि कानूनी दृष्टिकोण से देखा जाये, तो मौलिक अधिकारों की स्थिति ऊंची है; क्योंकि उन्हें न्याय-मान्य बनाया गया है ।

1971 के 25वें संशोधन में अनुच्छेद 31C जोड़ा, जिसमें कहा गया कि यदि राज्य अनुच्छेद 39 (b) या (c) वाले निदेशक सिद्धान्त को लागू करने हेतु कानून बनाता है, तो उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती चाहे वह मौलिक अधिकारों का हनन करे ।

केशवानन्द भारती केस (1973) मैं सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रह कर दिया । 1976 के 42वें संशोधन ने नया 31C जोड़ा, जिसमें कहा गया कि यदि राज्य किसी निदेशक सिद्धान्त को लागू करने हेतु कानून बनाये, तो उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, चाहे वह मौलिक अधिकार का हनन करे ।

मिनर्वा कपड़ा मिलर केस (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रह कर दिया । अत: यदि मौलिक अधिकारों व निदेशक सिद्धान्त में टकराव है, तो न्यायालय उस प्रकरण में दोनों के बीच मधुर सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करेगा ।

यदि ऐसा मधुर सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सका तो निदेशक सिद्धान्त की अपेक्षा मौलिक अधिकारों को वरीयता दी जायेगी । मौलिक कर्तव्य सन् 1976 में संविधान में व्यापक संशोधन करते समय यह अनुभव किया गया कि संविधान में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों का भी उल्लेख किया जाना चाहिए । अत: चतुर्थ (अ) भाग जोड़कर अनुच्छेद 51 (a) में निम्न मौलिक कर्तव्य सम्मिलित किये गये हैं :

1. भारत के नागरिकों का कर्तव्य है कि वे संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों संस्थाओं राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें ।

2. स्वतन्त्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले नेताओं के उच्च आदर्शों को अपने हृदय में संजोए और उनका पालन करें ।

3. भारत की प्रभुसत्ता एकता और अखण्डता की रक्षा करें और उसे बनाये रखें ।

4. देश की रक्षा करें और आह्वान किये जाने पर मातृभूमि की सेवा करें ।

5. भारत के सभी लोगों में मधुर सम्बन्ध और समान भ्रातृत्व की भावना का विकास करें जो धर्म भाषा प्रदेश या वर्ग आधारित पर सभी भेदभाव से परे हों और ऐसी क्रियाओं का त्याग करें जो स्त्रियों की मर्यादा के विरुद्ध हैं ।

6. हमारी समन्वित संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझें और उसका संरक्षण करें ।

7. प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अन्तर्गत वन झील नदी और वन्यजीव भी हैं, की रक्षा और उनका संवर्धन करें तथा प्राणीमात्र के प्रति दया भाव रखें ।

8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानववाद और ज्ञानोपार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें ।

9. सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखें व हिंसा से दूर रहें ।

10. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्षता की ओर बढ़ने का प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुए प्रयत्नों और उपलब्धियों की ऊंचाइयों को छू सकें ।

11. 2002 के 86वें संविधान संशोधन के अनुसार माता-पिता या अभिभावकों का यह कर्तव्य है कि वे 6 से 14 वर्ष तक के बच्चे को शिक्षित बनायें ।

आलोचना के रूप में यह कहा जा सकता है कि :

1. यह मौलिक कर्तव्य पर्याप्त नहीं हैं । स्वर्णसिंह समिति के प्रतिवेदन में करों की ईमानदारी से अदायगी आदि के बारे में जो सुझाव दिये गये थे उन्हें यहा स्थान नहीं दिया गया है ।

2. कुछ मौलिक कर्तव्य अस्पष्ट हैं, जिन्हें न अच्छी तरह से समझा जा सकता है और न उनका पालन ही किया जा सकता है । ‘मिश्रित संस्कृति’, ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’,  ‘मानववाद’, ‘वैयक्तिक और सामूहिक उत्कर्ष के प्रयास’ आदि ऐसे कर्तव्य हैं, जो साधारण व्यक्ति की समझ से परे हैं ।

3. इन्हें न्यायपालिका द्वारा ला! नहीं कराया जा सकता । उनके पालन के लिए कानून द्वारा किसी को बाध्य भी नहीं किया जा सकता । अनेक मौलिक कर्तव्य व्यावहारिक न होकर केवल आदर्शों की तरह हैं ।

अस्तु, नीति-निदेशक तत्त्वों से संलग्न होने के कारण मौलिक कर्तव्यों का अपना महत्त्व है । न्यायपालिका से यह अपेक्षा की जाती है कि यह संविधान या कानूनों की व्याख्या करते समय इनमें निदेशित होगी ।

वास्तव में ये कर्तव्य आदेशों की तरह हैं, जो सभी नागरिकों के लिए नैतिक दृष्टि से बाध्यकारी है । भारत सरकार द्वारा नियुक्त वर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट (1999) में अनेक कानूनों का हवाला दिया जो इन कर्तव्यों को बाध्यकारी बनाते हैं ।

अपितु यह वांछनीय है कि देश के नागरिक स्वयं इन कर्तव्यों की महत्ता को समझें और सत्यनिष्ठा से उनका पालन करें । ”इन ध्येयों की सिद्धि के लिए यह अनिवार्य होगा कि जनता में जागृति पैदा की जाये ताकि वे इस अवधारणा को सराहें व समझें कि देश में सुमधुर समाज की रचना हो लोगों की वैज्ञानिक मानसिकता हो जो तनावों व अव्यवस्थाओं से मुक्त हो । ”

मौलिक अधिकार व न्यायिक व्याख्याएं :

न्यायपालिका को संविधान का संरक्षक माना जाता है । संविधान-निर्मातागण चले जाते हैं, किन्तु न्यायपालिका स्थायी संविधान सभा के रूप में काम करती रहती है । यदि संविधान की किसी व्यवस्था पर विवाद उठता है, तो न्यायालय ही अमुक अनुच्छेद या अनुच्छेदों के भावार्थ की व्याख्या करके उस समस्या का निपटारा करता है ।

संघीय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायपालिका को भूमिका और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है । यह केन्द्र व राज्यों के बीच सर्वोच्च व निष्पक्ष निर्णायक के रूप में काम करती है । उसका निर्णय अन्तिम एवं बाध्यकारी होता है ।

संविधान के अनुच्छेद 13 (2) में कहा गया है कि राज्य का कोई ऐसा कानून या नियम या आदेश नहीं चल सकता जो मौलिक अधिकारों का हनन करे । यदि ऐसा होता है, तो पीड़ित पक्ष अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उपयुक्त उच्च न्यायालय में या अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय में अपनी याचिका दायर कर सकता है ।

न्यायालय उस याचिका की सुनवाई करता है तथा चुनौती दिये गये कानून या आदेश को उस सीमा तक रह कर सकता है, जहां तक वह संविधान के प्रावधानों का अतिक्रमण करे । न्यायपालिका द्वारा का गयी व्याख्याओं ने मौलिक अधिकारों की प्रकृति व उनके परास को उल्लेखनीय रूप में प्रभावित किया है, जिसे निम्न बिन्दुओं की सहायता से अभिव्यक्त किया जा सकता है :

1. मौलिक अधिकारों के भावार्थकी व्यापकता :

समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारों के भावार्थ की व्याख्या या पुनर्व्याख्या करके उनके परास को अधिक व्यापक बना दिया है । इसी कारण वह प्रवृत्ति उभरी है, जिस न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) कहा जाता है ।

उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 21 में, जीवन का अधिकार सुनिश्चित किया गया है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी व्यापक व्याख्या करके सरकारी अधिकारियों को आदेश दिये है कि भयानक रोगों के फैलने को रोका जाये गन्दें नालों की सफाई की जाये पर्यावरण के प्रदूषण पर प्रतिबन्ध लगाये जायें वृक्षों की अन्धाधुंध कटाई बन्द की जाये, लोगों को सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत करने की दशाएं स्थापित की जाये इत्यादि ।

जब आलोचकों ने यह आपत्ति उठायी कि सर्वोच्च न्यायालय ऐसे निर्णय दे रहा है, जिनका संविधान में मौलिक अधिकारों से कोई सरोकार नहीं है, तो न्यायाधीशों (जैसे-बी॰आर॰ कृष्णाअय्यर, पी॰एन॰ भगवती, ए॰ अहमदी व जे॰एस॰ वर्मा आदि) ने यही तर्क दिया कि यह मौलिक अधिकारों की व्यापक व्याख्या का परिणाम है ।

2. सम-मौलिक अधिकारों के सिद्धान्त का प्रतिपादन :

अब मात्र वही मौलिक अधिकार नहीं हैं, जिनका संविधान के तीसरे भाग में वर्णन किया गया है, सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णयों में कुछ अन्य अधिकतरों को भी मौलिक अधिकार का दर्जा प्रदान किया है, जैसे-वोट का अधिकार प्राथमिक शिक्षा का अधिकार, गोपनीयता का अधिकार सूचना का अधिकार अमानवीय दण्ड या ताड़ना से बचने का अधिकार स्वच्छ व स्वस्थ पर्यावरण के रख-रखाव का अधिकार आदि ।

यही कारण है कि ऐसे अधिकारों की सुरक्षा हेतु उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की जा सकती है ।

3. मौलिक अधिकारों व नीति-निदेशक सिद्धान्तों के बीच मधुर सम्बन्ध के सिद्धान्त का प्रतिपादन:

संविधान के तीसरे भाग में मौलिक अधिकार दिये गये हैं, जो न्याय-मान्य हैं, अर्थात् न्यायालय की सहायता से उनके हनन को रोका जा सकता है । संविधान के चौथे भाग में दिये गये राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त न्याय-मान्य नहीं है, अर्थात् उनका क्रियान्वयन राज्य की स्वेच्छा पर निर्भर है ।

उदाहरण के लिए, न्यायालय राज्य के किसी कानून या आदेश को इस आधार पर अवैध घोषित कर सकता है कि वह असंवैधानिक है, किन्तु वह राज्य को यह आदेश नहीं दे सकता कि अनुच्छेद 44 को लागू करने हेतु सारे देश में समान नागरिक संहिता लागू करे ।

शाहबानों केस (1985) व सरला मुद्‌गल केस (1995) में न्यायालय ने मात्र ऐसा सुझाव दिया है, लेकिन जब मौलिक अधिकारों व नीति-निदेशक सिद्धान्तों में कोई टकराव आता है, तो न्यायालय दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है ।

यदि ऐसा नहीं हो पाता, तो न्यायालय चुनौती दिये गये कानून या आदेश को रह करके मौलिक अधिकारों को वरीयता देता है । उदाहरण के लिए अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को कुछ मौलिक स्वतन्त्रताएं सुनिश्चित करता है, जिनमें व्यापार व उद्योग-धन्धे की स्वतन्त्रता शामिल है, अनुच्छेद 48 गौवध पर प्रतिबन्ध की कामना करता है ।

हनीफ कुरैशी केस (1958) में सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार सरकार का वह कानून वैध ठहराया, जिसने गौवध पर रोक लगायी और यह तर्क स्वीकार नहीं किया कि इससे याचक के व्यापार के मौलिक अधिकार का हनन होता है, लेकिन केशवानन्द भारती केस (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने 1971 के 25वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया अनुच्छे 31(C) रद्द कर दिया जिसमें कहा गया था कि यदि नीति-निदेशक सिद्धान्त को लागू करने हेतु कोई कानून बनता है, तो उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती चाहे वह मौलिक अधिकारों का हनन करे ।

4. संविधान के आमूल ढांचे का रख-रखाव:

सर्वोच्च न्यायालय को देश की आमूल विधि का संरक्षक बनाया गया है । यदि न्यायालय की दृष्टि में वह असंवैधानिक हो तो राज्य के किसी साधारण कानून को ही नहीं संवैधानिक संशोधन अधिनियम को भी रह किया जा सकता है ।

गोलकनाथ केस (1967) में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि संविधान में कोई ऐसा संशोधन नहीं हो सकता जो मौलिक अधिकारों में कटौती करे । 1971 के 24वें संविधान संशोधन ने इस बाधा को हटाते हुए यह व्यवस्था दी कि संसद संविधान के किसी भाग में यथाआवश्यकता संशोधन कर सकती है, तो केशवनानन्द भारती केस (1973) में न्यायालय ने यह महत्त्वपूर्ण व्यवस्था दी कि संविधान में कोई ऐसा संशोधन नहीं हो सकता, जो उसके आमूल ढांचे को बदले या विकृत करे ।

5. निहित मौलिक अधिकारों के सिद्धान्त कानिर्धारण:

सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के प्रावधानों को सतही तौर पर नहीं पढ़ा है, बल्कि उनके भीतर छिपे हुए अभिप्राय को भी देखा है, जिसे प्रावधान की भावना कहा जाता है । इससे मौलिक अधिकारों के परास में वृद्धि हुई है । उदाहरण के लिए बेला बनर्जी केस (1955) में न्यायालय ने व्यवस्था दी कि मुआवजा उचित हो सकता है, यदि वह उस समय के बाजार भाव के अनुकूल हो ।

मेनका गांधी केस (1978) में न्यायालय ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति अपने विचार अभिव्यक्त करने के लिए विदेश जाता है, तो उसका पासपोर्ट जब्त नहीं किया जा सकता; क्योंकि विचारों की अभिव्यक्ति नागरिक का मौलिक अधिकार है ।

उपर्युक्त बिन्दुओं के अवलोकन से यही निष्कर्ष निकलता है कि सर्वोंच्च न्यायालय ने समय-समय पर ऐसे महत्त्वपूर्ण निर्णय दिये हैं, जिन्होंने मौलिक अधिकारों की रक्षा की है तथा उनके भावार्थ व क्षेत्र को भी अधिक व्यापक बनाया है ।

मौलिक अधिकार व भारत में नागरिक स्वतन्त्रता के आन्दोलन:

हर लोकतान्त्रिक राज्य में लोगों को अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करने का अधिकार होता है ।  इस नाते वे अपने संगठन बनाते हैं, जो अपने सदस्यों के अधिकारों को सुरक्षित रखने हेतु संघर्ष करते हैं । इन संस्थाओं व संगठनों को हितबद्ध या दबावकारी समूहों की कोटि में रखा जा सकता है; क्योंकि वे सरकार पर अपना दबाव डालकर अपनी मांगे पूरी कराते हैं । हमारे संविधान के अनुच्छेद 19 में, नागरिकों को संघ या समुदाय बनाने तथा शान्तिपूर्ण सभाएं करने का मौलिक अधिकार दिया गया है ।

वे अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकते हैं तथा समाचार-पत्रों व जनसंचार के अन्य साधनों की मदद से अपना अभियान चला सकते हैं । वे सांसदों या विधायकों से आग्रह करके किसी कानून का निर्माण करा सकते हैं या किसी काले कानून को निरस्त करा सकते हैं । अन्तिम उपचार न्यायालय की शरण लेना है ।

अत: ऐसे संगठन उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में अपनी याचिका दायर करके अपने ग क्ष मैं निर्णय करा सकते हैं । राज्य स्वेच्छाचारी तरीके से ऐसे संगठनों का दमन नहीं कर सकता । यह दीगर बात है कि राज्य देश की प्रभुसत्ता सुरक्षा अखण्डता लोकनैतिकता आदि के आधार पर ऐसी गतिविधियों पर युक्ति-मुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है या किसी संगठन को अवैध घोषित कर सकता है ।

हमारे देश में ऐसे अनेक संगठन काम कर रहे हैं, जो लोगों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हेतु संघर्षरत हैं । जैसे-नागरिक स्वतन्त्रता संघ (civil Liberties Union), नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोक संघ (People’s Union For Civil Liberties) साझा लक्ष्य (Common Cause) आदि ।

इनके कर्मठ सदस्य सरकार की गतिविधियों पर पैनी दृष्टि रखते हैं । यथा आवश्यकता वे खुलकर राज्य के स्वेच्छाचारी कानून या आदेश का विरोध करते हैं । ऐसे विरोध के कारण राजीव गांधी की सरकार को अवमानना विधेयक (Defamation Bill) वापस लेना पड़ा क्योंकि उसका ध्येय प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रहार करना था ।

यदि राज्य ऐसे किसी संगठन पर प्रतिबन्ध लगाता है या उसे अवैध घोषित करता है, तो न्यायालय उसकी वैधता या प्रासंगिकता निर्धारण कर सकता है । हो सकता है कि किसी कानून के किसी अंश को वैध ठहराया जाये तो किसी अन्य अंश को अवैध कहकर रह कर दिया जाये, जैसा मीसा (MISA) या (TADA) या पोटा (POTA) के साथ हुआ ।

1976 के 42वें संविधान संशोधन ने अनुच्छेद 31 (D) जोड़ा था, जिसके तहत सरकार किसी संगठन को राष्ट्र-विरोधी कहकर वर्जित कर सकती थी । यह अत्यन्त भयानक प्रावधान था लेकिन 1978 के 44वें संविधान संशोधन ने इस काले प्रावधान को हटा दिया । ऐसे अनेक संगठनों के विरोध के कारण मीसा, टाडा व पोटा जैसे काले कानून निरस्त किये गये ।